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Sunday, May 09, 2010

15. बैल के दूध

कहानीकार - राम बुझावन सिंह

टिफिन होला पर सब शिक्षक अध्यक्ष के कमरा में हमेशा के तरह जुट गेलन आउ झिंगुर साव हलुआई हीं से दालमोट, सिंघाड़ा आउ बिस्कुट मँगा लेवल गेल । ऊ दिन नाश्ता के बाद जब चाय ढारल गेल, त ऊ बिलकुल काढ़ के रंग लगल । अध्यक्ष जी झिंगुर साव के बोला के पूछलन - 'आज तोर चाय में दूध एतना फीका कइसे हो गेलवऽ ?'

झिंगुर साव घिघियाइत कहलन - 'का कहूँ मालिक ! पहिले तो घरहीं से दूह के दूध दे जा हल ग्वाला, जेकरा में पानी फेंटल रहऽ हल । ग्राहक शिकायत करे लगलन, त दूकान पर गाय लाके दूहे लगल । एकरो पर एगो आदमी के देखे लागी लगयले रहऽ ही, फिर भी न जानी कइसे आँख में धूल झोंक देहे आउ कुछ न कुछ पानी फेंटहीं देहे ।'

चाय पीला के बाद एगो शिक्षक अप्पन अनुभव कहे लगलन, 'कोई केतनो उपाय करे, ग्वाला दूध में पानी फेंटवे करत - चाहे ऊ घर से फेंट के लावे, इया सामने दूहते बखत फेंटे, पर फेंटत जरूर । एही से दूध के धन्धा में ऊ लोग बम-बम करइत हथ ।'

सब के अनुभव सुन के अध्यक्ष जी कहलन- 'तूँ लोग तो निछक्का दूध पीले होवऽ इया पानी फेंटल, हमरा तो ग्वाला महीना भर बैल के दूध पिलौलक हे ।'

उनकर ई बात सुनके सब अचंभा करे लगलन, 'ई कइसे हो सके हे ? बैल भी कहीं दूध देहे ?'

अध्यक्ष जी कहलन, 'भाई आज विज्ञान के जमाना हे । जब माटी-पत्थर के गनेश जी दूध पी सकऽ हथ, त बैल के दूध होवे में कउन अचरज के बात हे ?'

फिर भी अध्यक्ष जी के बात पर कोई विश्वास न कैलन । अंत में अध्यक्ष जी के एकर खुलासा करहीं पड़ल - 'भाई, हमरा हीं एगो ग्वाला दरवाजे पर गाय लाके दूहऽ हल आउ दूध दे जा हल । महीना पूरला पर ऊ पइसा ले जा हल । माघ के महीना में सर्दी से हाड़ कापऽ हल । आदमी त आदमी, गाय भईस भी ठिठुरल हल, मोटा टाट बोरा के ओढ़नी ओढ़ा के ऊ शाम के गाय लावऽ हल । आउ फाटक पर फूल पत्ती के झाड़ में निरोता करके ओकरा बाँध दे हल । थोड़ा देरी में ऊ बाल्टी भर दूध ऊपर लाके दे जा हल ।'

'अइसने एक शाम के ओढ़नी ओढ़ावल गाय लैलक आउ झाड़ में निरोता करके बाँध देलक । ऊ दिन ओकर महीना पूरल हल, जेकर पइसा लेवे ला ऊ ऊपर आके बइठल हल । एतने में ओही बखत हम्मर एगो देहाती दोस्त आ गेलन आउ अइतहीं पूछ बइठलन, 'मास्टर साहेब ! दरवाजा पर एगो बैल कइसन बाँधल हे ?'

'हम अकचका के कहली, 'भला ई शहर में हम खेती करऽ ही कि बैल बाँधले रहम ? अरे ऊ ग्वाला के गाय हे, जे ओढ़नी ओढ़ा के उहाँ बाँधल हे । एही तो ओकर मालिक बइठल हथ महीना भर के अप्पन पइसा लेवे ला । तूँ भी रह गेलऽ निपट देहाती, जे गाय आउ बैल के न पहचानऽ ।'

'हँ, मास्टर साहेब ! हम ही तो देहाती, पर अइसन देहाती नऽ ही कि गाय आउ बैल के न पहचानी । अपनहूँ उतर के चलूँ आउ देख लेउँ ।'

एतना कह के ऊ उठ गेलन आउ हम्मर हाथ पकड़ के दरवाजा तरफ लेहीं जाए ला हलन कि देखऽ ही कि ऊ ग्वाला तेजी से ओढ़नी ओढ़ावल गाय के भगयले जा रहल हे ।'

'ओकरा हम पुकारते रह गेली, 'अरे, अप्पन दूध के पइसा तो लेते जा ।' मगर ऊ काहे ला आवे । जे भागल से फिन लउट के पइसा माँगे न आयल हे आजतक ।'

सब मास्टर ठठा के हँस पड़लन आउ कहलन, 'आजे हमनी जानली कि काहे हमनी दूबर-पातर ही, जबकि रोज गाय के दूध पीयऽ ही ।'

अध्यक्ष जी कहलन, 'हमहूँ जान गेली कि हम काहे मोटा ताजा ही । दूध दूध के तासीर अलग अलग होवऽ हे ।'

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-३, अंक-३, मार्च १९९७, पृ॰७-८ से साभार]

1 comment:

संजय कुमार चौरसिया said...

kafi achha likha

badhai

http://sanjaykuamr.blogspot.com/