लेखक - नरेन्द्र प्रसाद सिंह
बिहार से झारखंड के अलग होयला पर बासोडीह आउ सतगामा प्रखंड बनल, जे नवादा जिला के अभिन्न अंग हलइ । झारखंड के भौगोलिक संरचना पठारी हे, जहाँ वनिज आउ खनिज सम्पदा के अकूत भंडार छिपल-पड़ल हे । एकर ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आउ पौराणिक पृष्ठभूमि भी अजूबे हे ।
नवादा जिला के छाती पर बहेवला 'सकरी' नदी झारखंड के घोरंजी गाँव से निकसल हे, जे देवरी प्रखंड में पड़ऽ हे । देवरी आउ सतगामा प्रखंड के एगो नाला विभक्त करऽ हे, जेकरा 'दरसनिया' कहल जाहे । 'किउल' मुदा 'कोयल' नदी के उद्गम-स्थल भी एजुने हे, जे 'जमुई-झाझा' से गुजरइत 'किउल-लक्खीसराय' शहर के छुअइत गंगा में मिल जाहे । ई तरह से 'सकरी' आउ 'किउल' नदी के उद्गम-स्थान आसे-पड़ोसे हे ।
'घोड़-सिम्मर' के ऐतिहासिकता पर नजर गड़यला से ढेर मानी पुरनकन बात अइना जइसन लउके लगऽ हे । पुरनकन लोग के कहनाम हे कि झारखंड के समुले दक्खिनी भाग ठाकुर अजीत सिंह के जागीर हल, जे 'गलवाती-घराना' के टिकैत हलन । तखने गलवाती-घराना के राजा के टिकैत कहल जा हल आउ हिनखर निचलौका पीढ़ी के ठाकुर । 'सतगामा-टिकैत' वंशज के टाइटिल 'देव' आउ गलवाती-टिकैत वंशज के टाइटिल 'सिंह' होवऽ हलइ । 'देव' देवत्व मुदा धरम-करम आउ 'सिंह सिंहत्व मुदा बहादुरी के प्रतीक मानल जा हलन ।
ठाकुर अजीत सिंह बड़ कुशल, वीर, बुद्धिमान, नीडर आउ धार्मिक प्रवृत्ति के मानुस हलन । हिनखा में सिंहत्व आउ देवत्व दुनहूँ गुन हल । ई शिव के अनन्य भक्त भी हलन, इहे से घंटो महादेव के अराधना में लवलीन रहऽ हलन । शंकरजी हिनखा वरदान में एगो उड़न्त-घोड़ा आउ सरिता देलन हल, जेकर नाम तखने 'शंकरी' आउ अखने 'सकरी' हे । लोग कहऽ हथ कि ई शिव के पुजला के बाद पहिले घोड़वे के खिलावऽ हलन, तब्बे अन्न-जल ग्रहण करऽ हलन । हिनखर सबसे प्रिय भोजन दूध-दही में पकल-पकावल महुआ होवऽ हलइ, जे पौष्टिकता में भरपूर मानल जाहे ।
मगह में एगो कहाउत खूबे प्रचलित हे - 'बढ़े बंस त घटे प्रीति ।' ठाकुर अजीत सिंह के साथ भी इहे होयल आउ घराना के मान-मरजादा के बचावे खातिर हिनखर वंशज अन्यत्र जाके बस गेलन । फिर कहाउत बनल - 'घटल घटवार त टिकल टिकैत’, मुदा जे टिकैत दोसर-तेसर जगह जाके बस गेलन, ऊ घटवार आउ जे टिकले रहलन, ऊ टिकैत बनल रहलन ।
कहल जाहे कि दशा दसे बरिस रहऽ हे, इहे हाल ठाकुर के साथ भी होयल । तइयो ई शिव के पूजा मरते दम तक नञ् छोड़लन । एक दिन हिनखर मन में शिवलिंग स्थापित करे के प्रेरणा जगल, त बासोडीह के बगले में सकरी नदी के दक्खिनी छोर पर काला प्रस्तर के शिवलिंग स्थापित कर देलन । हिनखे पूर्वज (? वंशज) बाद में इहाँ एगो मंदिर भी बनवैलन । घुड़सवार ठाकुर अजीत सिंह दोआरा स्थापित स्थल के नाम 'घोड़-सेवार' मुदा अपभ्रंश में 'घोड़-सिम्मर' कहल जाहे, जे देखे जुकुर हे । हियाँ के पत्थल पर खुदल अति प्राचीन लिपि आज तलुक नञ् पढ़ल गेल, जेकरा से दर्शक के दरद बढ़ले जाहे । आस-पड़ोस में हजारन के संख्या में देवी-देवतन के क्षत-विक्षत मुरती गिरल-पड़ल हे, जेकरा पर गहन खोज आउ शोध होवे के चाही, तब्बे 'घोड़-सिम्मर' के समझना जादे आसान होयत ।
ठाकुर अजीत सिंह खाली शिवभक्ते नञ्, देशभक्तो हलन । ई अप्पन जागीर के बचावे खातिर आजीवन अंग्रेजवन से लोहा लेते रहलन । तइयो भला होनी के कउन टाल सकऽ हे । एक दिन अकासवानी होयल कि पूजा खातिर सकरी नदी में असनान लागी मत जा, तइयो ई चलिए गेलन आउ अंग्रेज दोआरा पसारल जाल में फँस गेलन । अंग्रेज सिपाही हिनखा सकरी के घाटे पर मौत के घाट दतार देलक आउ नदी के पानी हिनखर खून से लाल रत-रत भे गेल । तखनौ हिनखर करेजा आधा मन के हल, जेकरा देख के अंग्रेज दाँत तर अंगुरी चाँप लेलन हल । हिनखर मउअत के बाद अंग्रेज जागीर पर कब्जा कर लेलक । बहादुर घोड़सवार जेजा मारल गेलन हल, ऊ स्थान 'घोड़-सिम्मर' आझो अप्पन व्यथा कहे ला अकुला रहल हे ।
घोड़-सिम्मर में छितरायल अनगिनत पाषाण के घोराही, मुदा मथानी के अखनौं देखल जा सकऽ हे । एकरा से लगऽ हे कि तखने हियाँ के लोग के मुख्य पेशा पशुपालन हलइ, तब्बे न पत्थल के मथानी दूध से छाछ निकाले में काम आवऽ होयत । नोतन मुदा नो तन के रसरी तो जंगली लत्तर के छिलकोइया से बनावल जा होतइ, जे मथानी आउ खंभा में लपेटल जा होतइ ।
आझो शिवरात के दिन हुआँ चार दिवसीय लमहर मेला लगऽ हे, जहाँ लाखो लोग के जलाभिषेक, पुष्पाभिषेक आउ बेल-पत्र चढ़ाते देखल जा सकऽ हे । घोड़-सिम्मर के सटले 'बेला' गाँव हे जहाँ बेल के बगइचा हलइ, जे ठाकुरे साहेब लगौलन हल । लोक-मान्यता हे कि शिवरात के दिन साच्छात पारवती भी पास के देवरी पहाड़ पर चढ़ के भक्तन के कलियान करे आवऽ हथ ।
चाहे कारन जे रहे, घोड़-सवार ठाकुर अजीत सिंह दोआरा स्थापित शिवलिंग स्थल के घोड़-सिम्मर मुदा घोड़-सवार कहना तनिक्को गलत नञ् हे । एकरा पर्यटन के मानचित्र पर लावे के चाही आउ अति प्राचीन लिपि के पढ़े के चाही, तब्बे ई आलेख में उलझल रहस्य से परदा उठ सकऽ हे ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-१, जनवरी २०१०, पृ॰७-८ से साभार]
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