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Friday, December 31, 2010

18. पगली

कहानीकार - वासुदेव प्रसाद

टीसन के एकांत सुनसान जगह में एगो बुढ़िया बराबर देखाई पड़ऽ हल । ऊ अपने-आप कुछ बुदबुदाइत रहऽ हल । लइकन ओकरा पर बराबर ढेला-ढुकुर फेंकित रहऽ हलन । बुढ़िया ओखनी पर झुंझुआइत लाठी लेके ओखनी के खदेड़े लगऽ हल ।

केकरो से ऊ कुच्छो न बोलऽ हल आउ न कुछ मांगबे करऽ हल । राह चलते रहगीर भले कुच्छो ओकरा दे दे हलन । कउनों-कउनों खाय के बाद बचल-खुचल जुट्ठा ओकरा देके आगे बढ़ जा हलन । हम ओकरा उहाँ बइठल देखऽ हली जरूर, बाकि हम्मर धेआन ओकरा पर जयबे न करऽ हल ।

एक दिन हम ओही राह से गुजर रहली हल । एगो दोसर अदमी हमरा से आगे-आगे चल रहल हल । बुढ़िया ओकरा देख के अप्पन मोटरी-गेठरी उठाके चले ला चाहलक । ई देख के हम्मर कान खड़कल आउ हम्मर मन में सवाल उठ खड़ा भेल । हम सोचे लगली कि का बात हे एकरा में ? बुढ़िया एकरा देख के भागल काहे चाह रहल हे ? हम ई बात के जाने ला ऊ अदमी से पूछ बइठली - 'तोरा देख के बुढ़िया भागल चाह रहल हे, का बात हे एकरा में भाई ?'

ऊ हमरा से उपेच्छा भरल बात बोलल - 'नऽ, कउनो खास बात न हे एकरा में ।'

हम्मर मन में संका उभरे लगल । हम कुतूहल से फिन पूछ देली -'एकरा में खास बात तो जरूरे बुझा रहल हे भाई ! काहे कि आउ केकरो देख के ई न भागे, बाकि तोरा देख के काहे भागल चाहऽ हे ?'

लचारी में उनखा अप्पन मुँह खोलहीं पड़ल । बड़ी (मन) मसोस के ऊ कहलन -'का कहिओ भाई साहेब ! कहे में कइसन तो लगऽ हे, बाकि अपने पूछ रहलऽ हे, त बतावहीं पड़ रहल हे । बात अइसन हे कि बुढ़िया हमरे बगले के गाँव के हे । आझो एकर भरल-पूरल परिवार हे । सभे परिवार बेस तरह से खा-पी रहलन हे । बुढ़िया के मरदाना अलख रेलवे में नोकरी करऽ हल ।'

'नोकरी करऽ हल रेलवे में !' हम जरी चकचेहा के बोलली ।

'हँ भाई, हम झूठ काहे ला बोलम । बुढ़िया उहईं रहऽ हल अलखे के साथे । ऊ घड़ी बड़ी देखनगर हल ई । बड़ी मौज-मस्ती में एकर दिन कटऽ हल । ई अप्पन मरद के साथे रेलवे पास पर देस के मुख-मुख सहर में घुमियो लेलक हे । एकर सभे लइकन उहईं पलयलन-पोसयलन । अलख चार-पाँच बरिस पहिले नोकरी से रिटयर हो गेलन । रिटायर होवे के बाद घरे चल अयलन । रिटायर होवे के बाद बेस पइसा मिलल हल । ओकरे से इनखर बेटन कारबार फैला लेलन हे आउ जरो-जमीन खरीद लेलन हे । एखनी के मकानो देखे लायक हे गाँव में । आझो कुछ कमी न हे एखनी के घर पर ।'

हम बीचहीं में टोक देली उनखा -'तऽ ई इहाँ अइसन हलत में काहे पड़ल हे ?'
'ओहे तो बता रहलिओ हे, भाई ! एकरा चार बेटा हथ । सभे मुस्तंड, कमाए धमाए ओलन । सादी-बिआहो हो गेल हे सभे के । सभे बाल-बच्चेदार हथ । चारो अब जुदा भे गेलन हे, बाकि एक बात जरूर हे एकरा में ।' दबल जबान से बोललन ऊ ।

'कउन बात ?' हम जरी जोर देके पुछली ।

'बुढ़िया के चारो पुतोह लड़ाकिन हथ । हर-हमेसे ऊ सब एकरा साथे टंटा पसारले रहऽ हलन । कउनो बेटन के धेआन नऽ हल एकरा पर । उल्टे ओखनी एकरे उल्लु-दुयू करइत रहऽ हलन, डाँट-फटकार सुनावइत रहऽ हलन । कहिनों भर-पेट खाय ला न मिलऽ हल बेचारी के । कभी-कभार डंडो खाय पड़ऽ हल । बुढ़िया के जे आधा पेंसन ओला पइसा मिलऽ हल, ओखनियें झटक ले हलन । चाहो पानी ला पइसा न रहऽ हल एकरा किहाँ ।' एक्के साँस में बोल गेल ऊ ।

'अइसन बात ! हो सकऽ हे भाई ! जमाना के अइसने हवा हे ।' हम कबीरदास के बोली में बोलली ।

ऊ आगे बतौलन - 'एक दिन सांझ के एगो ममूली बात पर बुढ़िया के बेस ठोकाई कैलन लोग । माथा में चोट आ गेल आउ दहिना कान के ऊपर ओला चमड़ा थोड़ा सा फटिओ गेल, जेकरा से खून बहे लगल । बाकि केकरा परवाह हल बुढ़िया के दसा पर । सभे अप्पन-अप्पन रंग में रंगल हलन ।

बुढ़िया कइसहूँ रात काटलक । भोरे ओकरा पर केकरो नजर नऽ पड़ल । तहिना से ई इहईं पागल होके पड़ल हे । अब एकर हालत देखइते ह अप्पन आँख से । इलाका के कउनो चीन्हल-जानल अदमी पर जब एकर नजर पड़ऽ हे, तब ई कटल चाहऽ हे ओखनी से ।' आँख में लोर भर के बोललन ऊ ।

सभे बात हम्मर समझ में आ गेल । हम अप्पन मने में सोचे लगली -'कइसन जमाना आ गेल हे कि अप्पन पेट काट-काट के, देह सुखा के अप्पन बुतरुअन के लोग पालऽ-पोसऽ हथ । ओकर ई नतीजा हे ? भविस में आउ का होयत, से एकरे से साफ जाहिर हो रहल हे । लगऽ हे कि आगे अन्हार आउ बढ़वे करत ।'

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१६, अंक-३, मार्च २०१०, पृ॰१६-१७ से साभार]

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