मपध॰
= मासिक "मगही पत्रिका"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना
पहिला
बारह अंक के प्रकाशन-विवरण ई प्रकार हइ -
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वर्ष अंक महीना
कुल
पृष्ठ
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2001 1 जनवरी 44
2001 2 फरवरी 44
2002 3 मार्च 44
2002 4 अप्रैल 44
2002 5-6 मई-जून 52
2002 7 जुलाई 44
2002 8-9 अगस्त-सितम्बर 52
2002 10-11 अक्टूबर-नवंबर 52
2002 12 दिसंबर 44
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मार्च-अप्रैल
2011 (नवांक-1) से
द्वैमासिक के रूप में अभी तक 'मगही पत्रिका' के नियमित प्रकाशन हो रहले ह ।
ठेठ
मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर
पृष्ठ संख्या, चउठा कॉलम संख्या (एक्के कॉलम रहलो पर
सन्दर्भ भ्रामक नञ् रहे एकरा लगी कॉलम सं॰ 1 देल गेले ह), आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति
संख्या दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (अंक 1-9 तक संकलित शब्द के
अतिरिक्त) - 692
ठेठ मगही शब्द (अ
से छ तक):
1 अँकवार (= अँकवारी) (सोनियाँ के माय सरोजवा के भर अँकवार धैले खुसी के मारे फफक-फफक के रोवे लगल अउ भगत बाबू आँख के लोर गमछा से पोछइत गरदन झुकौले गते बहरा गेलन । ओने खुसी के ठहरल सैलाब में फिन से मौज के लहर उठे लगल ।) (मपध॰02:10-11:43:3.30)
2 अँकवारी (= अकबार) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?") (मपध॰02:10-11:23:2.34)
3 अँकुरना (सरकार, अपने के सिखउनी के बीज अँकुर के पौधा बन गेल हे, अब हमरा केकरो से पूछे के नञ् हे ।) (मपध॰02:10-11:33:1.15)
4 अँचरा (= आँचल) (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.14)
5 अँजुरी (= अंजुरी) (हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।) (मपध॰02:10-11:21:3.24)
6 अंगेआ (= भोजन करने का निमंत्रण; भोजन; खाने की सामग्री; लड़की की बिदाई के पूर्व उसे सगों द्वारा भोजन कराने का प्रचलन; गर्भवती को वस्त्रादि के साथ भेजा जाने वाला पकवान) (ऊ खिसिया के जवाब देवे - "उनकर खेती हइन तो उनका हिंआ चार गो मुस्टंडो हथी । तोर हिम्मत हउ उनकर खेसारी-मसुरी नोचे के ? पकड़एला पर साथे जाहें मकई के खेत में । हमरा पढ़ावे के कोसिस मत कर । जेतना सतभतरी हथ, सबके कुंडली हमरे पास हउ । कौन हे हमर घर में गे, जे देखत ? खेतवा न अगोरब तो एको दाना पहुँचे देवे घर में ? बिहान तोरे हीं अंगेआ होएत का ?") (मपध॰02:10-11:28:1.7)
7 अंधड़ (= आँधी) (हम उनखनी के बात सुन रहली हल । मन में गोस्सा के अंधड़ उठ रहल हल । - साला गोपला !) (मपध॰02:10-11:17:1.33)
8 अंधरिया (= अन्हरिया; अँधेरा) (घुज्ज ~) (सुभदरा उतरवारी कोठरी में चल गेल आउ फोन से बाबू जी के सूचना देलक कि बारिस के चलते हम गेस्ट हाउस में ठहरल ही । हियाँ असुरक्षित ही । घर पहुँचावे ला कउनो सवारी न हे । हम घुज्ज अंधरिया रात में अकेले कउनो हालत में न आ सकऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:39:2.4)
9 अइसहीं (= ऐसे ही) ("कहाँ मिलतन अभी, उहँय जा ही ।" - "अइसहीं ! बिना सरबत-पानी पीले ?") (मपध॰02:10-11:42:1.30)
10 अइसीं (= अइसहीं; ऐसे ही) (हमरा हाँथ में पैसा तो नञ् रहे, मुदा बाबा आरती लेले ढेर देरी हमरे भिर खाढ़ रहला । लगे कि ऊ हमरो आरी उतार रहला हऽ । हम कहलूँ - बाबा हमरा जिम्मा पैसा नञ् हे । बाबा बोललका - कोय बात नञ् हे, अइसीं ले ले ।) (मपध॰02:10-11:21:3.20)
11 अउनय-जउनय (=अनय-जनय; आना-जाना) (घर-परिवार कौलेज के काम में लग जाय पर उनकर दिमाग से ई बात एकदम घसक गेल कि रजेंदर कि करइत हे, कन्ने हे, दानापुर जाय पर सेना में ओकर भरती भेल कि नञ् । काहे कि गाम अउनय-जउनय कम, चाहे तो एकदम नञ् मिलऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:33:2.29)
12 अकचकाना (= आश्चर्यचकित होना) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल ।; "नञ् चचा, ऊ बात नञ् हे । हम इमसाल तोर पूरा पैसा दे देवे चाहऽ ही ।" चमारी के अकचका के देखे लगलन राम उद्गार बाबू । फेर हड़बड़ा के बोललन - "अरे रहे दे बेटा ! तूँ भागल थोड़े जा रहले हें ।") (मपध॰02:10-11:46:2.15, 47:3.26)
13 अकसरे (= अकेले) (अब गुलबिया के घर आ गेल । गुलबिया माय बकड़ी बाँधे बाध जा रहल हल कि बेटी के देखते खुसी से झूम गेल । अउ बेटी के गियारी लगावैत बोलल - "एते सबेरे अइलहीं बेटी !" - "भिनसरे चललूँ हल ।" - "अकसरे अइलहीं हे ?"; चपरासी पहुँचा देलक दुन्नो के ऊ कमरा के टेबुल पर जहाँ कुरसी पर अकसरे कुमार वैभव किरानी बाबू फाईल से मुँह पर मच्छी हौंक रहलन हल ।) (मपध॰02:10-11:24:2.16, 42:2.35)
14 अकानना (= ध्यान से सुनना) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल । चमारी अकानलक - 'ई अवाज तो राम उद्गार बाबू के हे ।' झटे दुआरी के बहरे एगो पाया में पीठ आउ मोखा से माथा टिका के भीतर के बात सुने लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.18)
15 अकुलाना (सगरो गुम-सुम । चलती के पंचम सुर पर बजइत सितार के जइसे सभे तारे झनझना के टूट गेल हे अचक्के । सरोजवा के माय निकस के अयलन अंगना में । पूछलन - "का रे सरोजवा, एत्ते अकुलायल हें काहे ?") (मपध॰02:10-11:43:1.36)
16 अखनी (= अभी; अखनिएँ = अभी ही, अभी-अभी) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.27)
17 अखने (= अखनी; अभी, इस समय) (मगज ओझराय लगल चमारी के । गेंदरा उठइलक आउ "पैसा अखने नञ् देवो साव जी ।" कह के खेत दने चल पड़ल ।) (मपध॰02:10-11:47:2.23)
18 अगदेउवा (= लाश को मुखाग्नि देनेवाला; कर्ता; अगदेऊवा, अगदेउआ) (सराध-संस्कार में सब परिवार जुट गेल हल । पाँच गो बेटी, चार गो दमाद, दरजन भर नाती-नतिनी । भगवान उनका बेटा देले न हलन । ई से आग देवे के सवाल पर बखेड़ा होए लगल । दमाद चुप्पी साध गेलन । नाती छोट-छोट हलन । सिंगारो सामने आ गेल - " अगदेउवा बनब हम । इनकर जिनगी पार लगएली तो लासो पार लगाएब ।"; अरथी सज के तइयार हल । सिंगारो के डरे दमाद सब चुप हलन । गाँव के बढ़वन खातिर अगदेउवा के फेसला लेल जरूरी हल । उधेड़बुन अउर सिसकन के बीच सिंगारो के माय के मुँह से अगदेउवा के नाम निकलिए न रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:30:1.20, 2.14, 17)
19 अगोरिया (= अगोरने वाला, देख-भाल या रखवाली करने वाला) (हमरा बुझा हे कि ई पुजेरी पुजेरी नञ्, खाली ठकुरवारी के अगोरिया अउ ठकुरवारी के धन के भोगताहर हे ।; दुश्मन के हवाई जहाज हम्मर सीमा में घुस के बम गिरा के भाग गेल । एकरा में मवेसी-मानुस के नुकसान नञ् भेल, लेकिन चार-पाँच गो धान के खरिहान भूँजा अइसन पटपटा गेल आउ एगो अगोरिया, दूगो कड़रू-भैंस जिंदे अगिन देवता के बलि पड़ गेल ।) (मपध॰02:10-11:23:1.32, 31:1.21)
20 अचक्के (= अचोक्के; अचानक) (अचक्के के जोर से बादर गरजल, घुप्प अन्हार फैल गेल आउ दू गो मजबूत हाथ सुभदरा के अपना दने खींच लेलक ।; सगरो गुम-सुम । चलती के पंचम सुर पर बजइत सितार के जइसे सभे तारे झनझना के टूट गेल हे अचक्के ।) (मपध॰02:10-11:38:3.4, 43:1.33)
21 अछते (= छइते; रहते, के होते हुए) (पाप छिपऽ हे भला ? इनकर बाबूजी के जिनगी अछते कोई बेलगाम न हल । उनका गुजरते माय के दुलार सबके बिगाड़ देलक । ई सबसे छोट हथ, इ से सबसे ज्यादे साँढ़ हो गेलन ।) (मपध॰02:10-11:26:2.20)
22 अछरंग (= कलंक, दोष; छींटाकशी; लांछन) (सुभदरा - वकील साहब ! हम्मर जरल देह पर नून मत रगड़ऽ । ई आरोप झूठ हे । हम्मर चाल-चलन पर अछरंग मत लगावऽ ।) (मपध॰02:10-11:40:2.8)
23 अठवारा (अठवारा लग गेल । चमारी खेत दने से लउटल आ रहल हल । अइसे गुजरते ऊ अनभो कयलक कि कोय कहँड़ रहल हे । ऊ दउड़ के भिरी गेल । देखलक त राम उद्गार बाबू हथ । सउँसे देह में खून छलछलाल हल । मुँह घोघसल । अंगे-अंग चूरल ।) (मपध॰02:10-11:48:1.33)
24 अद्धी (रमपुकरवा, जेकरा तू जलम देलऽ, पाललऽ, पोसलऽ ! ऊ ससुर एगो अद्धी नञ् देलको होत जिनगी में । बकि हम तोरा सात बरिस में अस्सी मन से उप्पर गल्ला दे चुकली हे । ऊ भी सिरिफ दू हजार रुपइया चुकवे लऽ ।) (मपध॰02:10-11:48:1.11)
25 अधबएस (= अधवइस) (तनिको संदेह होएला पर उकटा पुरान करे वाली ई सिंगारो जनम से अधबएस होवे तक एही गाँव में माथा ऊँच करके रहल हे जेकरा पर दाग के एको छिंटा न हे ।) (मपध॰02:10-11:25:2.9)
26 अधसुक्ख (हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:3.1)
27 अनकट्ठल (फुलमतिया के जुआनी बैसाख के नदी नियन अपन पाट छोड़ के सिकुड़ गेल । अनकट्ठल सपना में ऊ सबके झोंके न चाहे हे । ओकरा अप्पन खबर हे । बाकि ऊ का कर सके हे । जिनगी, लावा-फुटहा त न हे, जे जहाँ-तहाँ गिरल त गिरल । जी जाँत के ऊ रतन से अप्पन आँख मोड़े लगे हे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.32)
28 अनकहल (जब घर के मेहरारू अनकहल हो जाहे बेटा, त अदमी के अपन इज्जत के खेयाल खुद करे के चाही । मुँह लगइला से खराबिए होवऽ हे । ओकर बदमासी हँटावे के एक्के दबाय हव - तूँ घर के चिंता ओकरे पर छोड़ दे ।; ई बनियाँ, ससुर दमड़िया ! हमर मेहरारू के अनकहल कह रहल हे, सिरिफ अप्पन सोआरथ ले कि हमरो मेहरारू एकरा हीं सेर के अनाज पाव में बेचे ।) (मपध॰02:10-11:47:2.8, 34)
29 अनदेसा (= अंदेशा) (उधेड़बुन अउर सिसकन के बीच सिंगारो के माय के मुँह से अगदेउवा के नाम निकलिए न रहल हल । देरी होए के अनदेसा में पंच लोग उनकरा घेरलन - "का चहइत ही लास हिंआ पड़ल रहे ? बगदू बाबू के आत्मा के खेआल करूँ ।") (मपध॰02:10-11:30:2.18)
30 अन-धन (= अन्न-धन) (जेकर छप्पर पर फूसो न हे ऊहो लाखे से बात करऽ हे । बकि ओकर फिकिर मत करऽ । अन-धन से भरल घर में बस एकसरुआ लछमी आत । जे पान-फूल चढ़त से ओकरे पर ।) (मपध॰02:10-11:42:1.5)
31 अनभाँत (= अजनास, अनखा) (बगदू सिंह के राह चललो मोसकिल हो गेल । जात-भाई ताना मारे लगलन - अनभाँत के हे इनकर बेटी । दिमागे असमान पर रहऽ हइ । भरल पंचइती में मरद के पानी उतारेवाली । ई साँढ़िन के गुजर ससुरार में होतइ भला ?) (मपध॰02:10-11:29:3.32)
32 अनुभो (= अनभो; अनुभव) (हमनी सब तीन तरह से जिनगी के अनुभो पावऽ ही । एगो तो अप्पन जीवन में जे घटना घटे हे, ओकरा से सीखऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:44:1.2)
33 अन्हार (~ कुइयाँ; ~ गली; ~ फैलना) (ई अवाज से एकदम विलगे अवाज हल सिंगारो के । एक बार फिर अन्हार कुइयाँ में ओकरा ढकेल देल गेल । अबरी ओकरा बचावे खातिर कोई आगे न आएल । जौन माटी के अपन समझ के रहल, उ माटी ओकर दरद से न दरकल, न फटल ।; गेस्ट हाउस के अनेक कर्मचारी ऊँच घराना के गुमराह लड़की के जिनगी अन्हार गली में नौकरी के लालच देके ढकेल देलन हल ।; अचक्के के जोर से बादर गरजल, घुप्प अन्हार फैल गेल आउ दू गो मजबूत हाथ सुभदरा के अपना दने खींच लेलक ।) (मपध॰02:10-11:30:3.31, 38:2.30, 3.5)
34 अन्हेरिया (= अन्हरिया; अँधेरा) (अप्पन दुआर पर बैठल-बैठल रमचरना यही गुन रहल हे । साँझ जाड़ा के मटिआ गेल हे । एगो कुहा जइसन । घोर अन्हेरिया । सब अप्पन दुआर पर लंफ-बत्ती कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:34:1.19)
35 अबहियो (= अबहियों, अभियो; अभी भी) (हिम्मत से काम ले चाची, अबहियो कुछ न बिगड़ल हे ।; "से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:43:3.1, 46:3.7)
36 अमनियाँ (= अवनियाँ; व्रतादि में उपयोग की सामग्री; साधु-सन्यासी की रसोई; पक्की रसोई, अनसखरी) (ओकर बाद पुजेरी बाबा रसोय बनावे ले आग जोरे के तैयारी करे लगला, अउ हमरा हँकावैत कहलका - "अगे मइयाँ, आउ तो, तनी साग तो अमनियाँ कर दे ।"; हम कहलूँ - अलुआ काटे ले कहऽ हो बाबा ? बाबा बोलला - "हमनी साधू-संत काटे मारे नञ् कहऽ हूँ । हमनी सब्जी काटे के अमनियाँ करना कह हूँ अउ सब साग-सब्जी के सागे कहऽ हूँ । समझलहीं मइयाँ ?") (मपध॰02:10-11:22:1.19, 26)
37 अरबराना (= चलने या बोलने में लड़खड़ाना; उतावला होना; घबड़ाना) (रमचरना के बाप हुलास अउर माय हुलसिया जब खेत-बथान में काज पर लगल रहइ त रमचरना अरबरा के चलऽ हल, लोघड़ा के खड़ा हो जा हल । एकदम्मे नंग-धड़ंग ।) (मपध॰02:10-11:34:2.27)
38 अलम (= अवलम्ब, सहारा, आश्रय; भरोसा; विश्राम) (एही एगो जुआन बेटा हो । ई संगे जइतो । कहिओ हमरा अकेले न छोड़लको । बराबर आँख के पुतली के सिरकी से तानले रहलो । झप न करे देलको । पानी से भींगे न देलको । सउँसे गरमी में, बादर के छहुराबन के, माथा पर टंगल रहली । का कहिओ ! अजगुत हो ई । कहिओ दोसर के अलम हम न लेली ।; जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल । जेकरा पर अलम हल ओहु बेअलम हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:34:1.14, 35:1.4)
39 अलावे (= अलावा) (दोसर दिन ठीक दुपहरिया में राम उद्गार बाबू के दूरा भिजुन ढेर आलम जुट गेल । चमारी जइसन दसो अदमी भी हुआँ हइलन हल जे राम उद्गार बाबू के करजदार हलन । एकर अलावे दर्जनो पंच आउ गाँव के सेंकड़ो लोग ।) (मपध॰02:10-11:48:2.35)
40 अलोपना (= गायब होना; दिखाई न देना; अनुपस्थित रहना) (दोसर दिन पंचाइत लगल । सब अइलन बकि राम उद्गार बाबू अलोपल हलन । पंचाइत कबड़ गेल । पंच घर चल गेलन ।) (मपध॰02:10-11:48:1.26)
41 अस-बस (~ हो जाना) (जब अप्पन दुआरी पर लउटे के होल त ओकर गाय के रोग ग गेल । ओकर पेट फुल गेल हल । पाघुर करवे न करे । ओकर मिजाज अस-बस हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:36:2.10)
42 असराफ-बड़हन (गाम के पढ़ल-लिखल असराफ-बड़हन आदमी भी ओकरा पेयार दे हलन । अप्पन पास बैठा के दु-चार गो गलबात कर ले हलन ।) (मपध॰02:10-11:31:3.10)
43 असलोक (= श्लोक) (हल तो वइसे ऊ चिट्ठी-पतरी भर पढ़ल हरिजन लेकिन ओकर बात-विचार रहन-सहन में एगो अलगे संस्कार के झलक मिलऽ हल । दु-चार गो संसकिरित के उलटा-पुलटा असलोक भी ओकरा कंठस हल, बले ओकर अरथ ऊ नञ् जानऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.7)
44 असान (= आसान) (उमीर के तकाजा के इनकार कइला असान न हे । अदमी के जिनगी पानी के बूँद न हे जे धरती पर गिरल त उहें समा गेल । पानी पर गिरल त उहें मिल गेल । ई त पूरा एगो इंगोरा हे । ठौर पाके कुठौरो जनम जाहे ।) (मपध॰02:10-11:36:1.22)
45 असीरवादी (= आशीर्वाद) (एगो बोलल - "बुतरू बाल नञ् होलउ हऽ कि जे बाबा से असीरवादी लेवे अइलहीं हल ?" हम कलपैत बोललूँ - "हम बड़ी गरीब दुखिया ही, हमरा छोड़ दे भइया ।") (मपध॰02:10-11:23:1.5)
46 असुल (= असूल; वसूल) ("अरे सार बनियाँ ! तूँ तो अइसे बोले हें जइसे चमरिया तोर बाप हउ । ... जइसे तूँ धरम के पंडित हें ।" ई राम उद्गार बाबू के अवाज हल । - "उद्गार चा, चमरिया तो ससुर बुड़बक हइ । एक बरिस के आधो गल्ला ऊ जदि बेच दे त तोर करजा असुल हो जाय ।" मुनाकी रोस में बोलल हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.26)
47 असुलना (थैली में चमारी के साथ-साथ ऊ सब के एकक पैसा गिन के रख देली हे जे हम नजायज असुलली हल ।) (मपध॰02:10-11:48:3.27)
48 आँञ् (= अयँ, अईं) (आँञ् गे लछमिनियाँ, तोर बाबू के एहू पता नञ् हल कि गोपाल पहिलहीं से बिआहल हे ?) (मपध॰02:10-11:16:3.14)
49 आँटी (खुलल अकास के नीचे चारो तरफ नेवारी के आँटी अउ गोलियावल धान के ढेरी के बीचो बीच ओकर मड़इ हल, जेकरा में अप्पन ई चार ठो संगी-साथी गोतिया माय के साथ उ रात में सुतऽ-बैठऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:1.26)
50 आई-माई (= आय-माय; परिवार और कुटुंब की स्त्रियाँ, गोतनी-नैनी) (बस देह तोड़ के कमाना अउ चादर तान के सोना । परिवार में बस तीन परानी - दू बेकती ऊ अउ एगो उनकर बेटी सोनियाँ । पास-पड़ोस के आई-माई से उनकर घर-आँगन गुलजार रहऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.10)
51 आगू-आगू (= आगे-आगे) (हम अप्पन नैहर के गाँव बता देलूँ सुदामा बिगहा । आगू-आगू मेठ अउ पीछू-पीछू हम लपकल बढ़े लगलूँ । कुछे देरी में हमर गाँव के सिमाना आ गेल ।) (मपध॰02:10-11:24:1.15)
52 आगू-पीछू (टेबुल पर दस-बीस गो नाम पढ़लन हल कि उनकर नजर पड़ल एगो चपरासी पर । ऊहो ओखनिए पर नजर टिकौले आगू-पीछू करइत हल । सचिवालय में ई खूबी हे कि उहाँ के चपरासी बाबू लोग, कोय-कोय हाकिमो मुल्ला के तलास में ओइसहीं चक्कर काटइत रहऽ हथ जइसे हरियर घास के तलास में साँढ़ ।) (मपध॰02:10-11:42:2.9)
53 आझकल (हमरे घर के बगल में एगो इंजिनियर हे । नाम हे रमेश । साधारन परिवार के हे । मगर आझकल ओकरे चलती हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.16)
54 आपरूपी (मूड़ी उठयली । यक्षिणी के एगो सवाल हल या हुकुम, नञ् कह सकऽ ही । आपरूपी हम्मर हाथ ओक्कर मूड़ी पर चल गेल । - हाँ, आझ से हमहीं तोर बाप ही आउ तों हम्मर बेटी ।) (मपध॰02:10-11:16:2.34)
55 आय (= आज) ("से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:46:2.34)
56 आरी (गुलबिया सिसकइत आरी पर बैठ के कहे लगल - "की कहिअउ बहीन, दुखिया गेल हल दुख काटे, तउ गोड़ गड़लय हल काँटा, ... ओहे हाल हमर होल । कल्हे हम झोला-झोली के घर से परदा के बहाने भागलूँ, मुदा बेलदरिया पर अइते-अइते ढेर साँझ हो गेल । ..."; हम एतना कहते बाहर अइलूँ अउ केतारी खेत के आरी पर बैठ के भर हिंछा पानी पी लेलूँ । काहे कि भुक्खल पेटा जोड़ से गड़ रहल हल ।; बोलला - "बड़ी देर कैलहीं मैयाँ ।" हम हकलाइत, थरथराइत बोललूँ - "हाँ बाबा, अरिया पर से गिर गेलूँ हऽ, एहे से तेज चलल नञ् जा हे ।") (मपध॰02:10-11:20:1.38, 22:3.22, 23:2.11)
57 आल-गेल (= आया-गया) (बिआह होल अउर रसे-रसे रामरतन के मन में ई पक्का हो गेल । बात आल-गेल हो गेल । रतन अप्पन संसार में मस्त रहलन अउर रामरतन अप्पन दुनिया में ।) (मपध॰02:10-11:37:1.27)
58 आवल-जाल (= आया-जाया) ("जी हाँ सर, कोय केस-मुकदमा त हल न कि दरसन देती हल ।" - "अइसहूँ आवल-जाल करऽ । जान-पहचान बनल रहऽ हे । ई के हथ ?" भगत बाबू पर नजर गड़ावइत पूछलन ।) (मपध॰02:10-11:41:3.13)
59 इंगोरा (उमीर के तकाजा के इनकार कइला असान न हे । अदमी के जिनगी पानी के बूँद न हे जे धरती पर गिरल त उहें समा गेल । पानी पर गिरल त उहें मिल गेल । ई त पूरा एगो इंगोरा हे । ठौर पाके कुठौरो जनम जाहे ।) (मपध॰02:10-11:36:1.26)
60 इग्गी-दुग्गी (ने मालूम कउन नछत्तर में डॉ॰ जितेंद्र वत्स अपन कहानी संग्रह के नाम 'किरिया करम' रखलन जे मगही साहित्य के झमठगर से झमठगर लिखनिहार भी एकर चरचा तक करना मोनासिब नञ् समझलन । तारीफ के बात तो ई हे कि इग्गी-दुग्गी लिखनिहार भी मगही कहानीकार के रूप में नाम अमर कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:9:1.7)
61 इज्जत (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.3)
62 इत्मिनान (~ से = आराम से) (बेटा, कल जिरा के परसूँ गलवा धर अइहें । हम थोड़े दिन ले काशी जा रहलिऔ हे कल ।" कह के इत्मिनान से राम उद्गार बाबू जाय लगलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.13)
63 इनर (= इन्नर; इन्द्र) (हे इनर देवता ! गिरावऽ बिजली, बज्जर गिरावऽ । पपिअन पर न सही तो हमरे पर गिरावऽ । भसम कर द एही खनी कि सभे हो जाए सोआहा ।; सिंगारो कोई इनर के परी न हलन । साधारण कद-काठी, साँवर रंग बाकि पानीदार, लुभावेवाला चेहरा, गरब भरल एक तरह से ।) (मपध॰02:10-11:25:1.12, 2.15)
64 इनरा (= इनारा; कुँआ) (पुजेरी बाबा हँसैत बोललका - "हाँ, हाँ, ठीके हे । ई सब कपड़ा-जेवर ले ले अउ इनरा पर जा के नहा-धो ले । ठकुरवारी में रहमाँ त बिना नहैले-फिचले !"; पुजेरी बाबा मुसकैत चल गेला । हम देवाल दने मुँह घुरा के कपड़ा बदले लगलूँ । पुजेरी बाबा इनरे पर ललटेन छोड़ देलका हल हमर सुविधा ले ।) (मपध॰02:10-11:21:2.4, 33)
65 इनार (= इनरा, इनारा; कुआँ) (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल ।; ऊ केकरो से बतिअइलन न । ऊ एकरा चेतउनी नियन बुझलन । ऊ सोंच लेलन कि खर के घर में लुत्ती लगला पर आग के का बिगड़त । जब ला कोई इनार में डोल डालत तब तक त घरे राख हो जात ।) (मपध॰02:10-11:34:3.31, 36:3.12)
66 इमसाल (= वर्तमान वर्ष) (नञ् चचा, ऊ बात नञ् हे । हम इमसाल तोर पूरा पैसा दे देवे चाहऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:47:3.24)
67 ईंजोरा (पुजेरी बाबा ललटेन के ईंजोरा में टुकुर-टुकुर हमर देह देख रहला हल अउ ओजय बैठ के थारी, घंटी, दीआ धो रहला हल, खोद-खोद के ।) (मपध॰02:10-11:21:2.25)
68 उकटा-पुरान (~ करना) (तनिको संदेह होएला पर उकटा पुरान करे वाली ई सिंगारो जनम से अधबएस होवे तक एही गाँव में माथा ऊँच करके रहल हे जेकरा पर दाग के एको छिंटा न हे ।) (मपध॰02:10-11:25:2.7-8)
69 उघारना (-"हरमियाँ गोपला आझ बड़ मारलक हे ।" ऊ अप्पन मरदाना गोपाल के बारे में बता रहल हल । सऊँसे पीठ उघार के देखउले हल ।) (मपध॰02:10-11:15:1.21)
70 उच्चा (= ऊँचा) (बाकि उ गाँव हल । आझ के तरह जनावर न रहऽ हल । उ गाँव में फूलन का के बड़गो दलान अउर करीम का के बड़गो दलान अउ दुआर हलन, काफी उच्चा पर । अउर ओकरे सटल-सटल काफी उच्चा जमीन हल, सड़क हल, बाकि कच्चा हल । बस गेल लोग-बाग । बकरी से गाय तक । तोता से मुर्गी तक ।) (मपध॰02:10-11:35:1.15, 16)
71 उजबुजाना (कभी करतब के किनार कटे लगे हे, त अदमी बाप-बाप करे लगे हे, गुहार लगवे लगे हे । त करम ओकर सहारा हो जाहे, अउर कभी करम पर बज्जड़ पड़े लगे हे, त करम के सहारा हो जाहे । बाकि जखनी समय करम-करतब दुन्नु के नापे लगे हे, त अदमी उजबुजा जाहे ।) (मपध॰02:10-11:34:3.27)
72 उजूर (= उजुर; उज्र; निवेदन; आपत्ति, एतराज; शंका; विरोध) (रात में खनय-पिनय के बाद रजेंदर उनकर गोड़ दबाबे लगल, अउ मन के मंसूबा उनकर सामने दुबारे पटक देलक - 'की सरकार, हम्मर उजूर पर धेयान नञ् देवहु ?'; हप्ता भर बाद अखबार के पहिला पन्ना पर मोटगर अच्छर में सरकार के घोसना छपल - दुस्मन के उजूर पर लड़ाय बंद, सिपाही के मोरचा से वापसी सुरू, दानापुर कैंप बिहार के जवान रजेंदर माँझी के विजय चक्र ।) (मपध॰02:10-11:33:1.5, 37:2.27)
73 उठल्लु (= उठल्लू) (चमारी सोंचलक - 'रे मन, हमर मेहरारू तो लछमी हे । जे माधे समान जुटावऽ ही घर में, ओइसन तो निमने से चलवे हे घर के । नञ् बेच-बिकरिन, नञ् लड़ाय-तकरार । कहियो केकरो से उठल्लु भी नञ् करइलक हे, जबकि गहना के सउखे लगल होत ओकरा । तन पर भर जी बस्तर भी तो नञ् देलूँ हे कहियो । अदना नर-नोहरंगी तो जुटवे नञ् करे हमरा से ... जेकर तगादा कहियो नञ् कइलक ऊ । मुदा ई दमड़िया अइसे काहे बोलऽ हे ।') (मपध॰02:10-11:47:1.37)
74 उधियाना (= द्रव में उबाल आना; हवा में उड़ना, बिखरना; डींग मारना, बकबक करना) (कुरंग के रंग बड़ा चट्टक लगे हे बाकि धूप बुन्नी में उधिया जाहे । ओइसने जमानी के लुक्का-छिपी हे, उ प्रेम न हो सके । प्रेम कउनो फरही न हे, हमरा-तोरा के । ओकरा में त लोक बिका जाहे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.21)
75 उधिर (= ओद्धिर; उधर, उस तरफ) (सोनुआँ कोठरी खोलवे गेल । ढेर देरी तक झिंझिर पिटला पर भी कोय जवाब नञ् मिलल त सोनुआँ लउट आल । चमारी के जी डेरा गेल । ऊ राम उद्गार बाबू के कोठरी दने दउड़ल, कुछ लोग आउ उधिर दउड़लन ।) (मपध॰02:10-11:48:3.8)
76 उनखनी (= उनकन्हीं) (उनखनी के लइकनो सब उनखनिएँ के साथ हलन ।) (मपध॰02:10-11:18:1.10)
77 उमिर (= उमर, उम्र) (रमेश साधारन लड़िका हल । परिवार भी साधारन । पढ़े में तो बीच-बीचवा हल । इहे से ओकर बाबू जी कमे उमर में ओकर सादी भी कर देलथिन हल । अब न सादी के उमिर बढ़ गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.32)
78 उमीर (= उमिर, उमर; उम्र) (साव के दुकान से बत्ती के रोसनी में रमचरना के मुठान देखल जा सके हे । उ चुक्को-मुक्को एगो छोट चटाई पर बैठल हे । ओकर आँख के लंफ में तेले कम गेल हे । अस्सी बरस तो ओकर उमीर होत ।) (मपध॰02:10-11:34:1.25)
79 उरिन (= ऋण-मुक्त) (चमारी राम उद्गार बाबू के देल थैली के एकक पैसा उनकर काम में खरच करके उरिन हो गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:48:3.38)
80 ऊँच (= ऊँचा) (तनिको संदेह होएला पर उकटा पुरान करे वाली ई सिंगारो जनम से अधबएस होवे तक एही गाँव में माथा ऊँच करके रहल हे जेकरा पर दाग के एको छिंटा न हे ।; रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।) (मपध॰02:10-11:25:2.10, 35:3.2, 3)
81 ऊँच-नीच (कुछ ~ हो जाना) (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.26)
82 एकबारगी (ओकरा गाय के मरला, माय के मरला नियन लगल । हुलास-हुलासिन मुरझा गेलन । एकबारगी लगल कि उनखर परान कोई पूरा के पूरा गार देलक हे ।) (मपध॰02:10-11:36:2.29)
83 एकरगी (= एक तरफ; बगल में; अलग; दूर) (हम सकपकाइत एकरगी होवे लगलूँ तउ पुजेरी बाबा कहलका - तनी दू दोल पानी दे देहीं, नहाल-फिचल हइये हँऽ ।) (मपध॰02:10-11:21:2.15)
84 एकलहू ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.25)
85 एकवट (= एकता, ऐक्य; मेलजोल; एक तरफ, एक साथ) (सउँसे गाँव एकवट अउ सिंगारो देई अकेले । ई गाँव के ऊ पुतोह तो न हे कि जार के मार दऽ, लास फूँक दऽ तइयो कोय कुछो न बोलते । सगर पाप घोर के पी जएते । ई तो हे गाँव के बेटी-दबंग, दुलरी, सिरचढ़ल अउ नकचढ़ियो । गाँव के मेहारू सब एकरा कहऽ हथ 'दरोगा जी' अउ मरद लोग 'दुरगा जी' ।) (मपध॰02:10-11:25:1.20)
86 एकैस (= एकइस; इक्कीस) (एगो के बदली में एकैस गो के नय समेट लेलियउ, तउ हम्मर जवानी के धिक्कार - तोरा देखा देवउ अप्पन हिम्मत-तागत ।) (मपध॰02:10-11:31:1.5)
87 एक्कर (= एकर; इसका) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.16)
88 एगारह (= ग्यारह) (1985 ई. में डॉ॰ लक्ष्मण प्र. चंद के संपादन में प्रकाशित 'परतिनिधि कथा घउद' में एगारह कहानीकारन के कहानी के एकजौर कइल गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:9:1.22)
89 एजऽ (= एजा, एज्जा; इस जगह) (रात भर ठकुरवारी में अराम कर ले । तड़के उठके चल जइहँऽ । एजऽ तो बराबर कत्ते राहगीर रात-बेरात रहवे करऽ हथ । ठकुरवारी से परसाद खाय ले मिलिये जैतउ, ओढ़ना-बिछौना के भी कमी नञ् हे, साले-साल सब परदेसियन देवे करऽ हे, ओकरो पर पोवार भी बिछल हे ।; बैठ के मने मन सोंचे लगलूँ कि एजऽ रहला से तो बढ़ियाँ हे कि राते रात नैहर चल जाउँ ।) (मपध॰02:10-11:20:3.11, 22:3.26)
90 एतनिएँ (= एतनहीं) (हम उनखनी के बात सुन रहली हल । मन में गोस्सा के अंधड़ उठ रहल हल । - साला गोपला ! एतनिएँ में कॉलबेल बजल । खोलऽ ही तो देखऽ ही एगो साँवर जुआन दुआरी पर खड़ा हे ।) (मपध॰02:10-11:17:1.35)
91 एतराज (= आपत्ति) (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।; मथुरा के नाम सुनते सिंगारो के देह में आग लेस गेल । जोरदार एतराज कएलक - "मथुरवा हाथ न लगा सके । ऊ पापी जिनगी भर इनकर विरोध कएलक । मरलो पर चैन न लेवे देत ?") (मपध॰02:10-11:28:1.11, 30:1.33)
92 ओंहीं (दे॰ ओहीं; वहीं) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.19)
93 ओइसन (= वैसा) (चमारी सोंचलक - 'रे मन, हमर मेहरारू तो लछमी हे । जे माधे समान जुटावऽ ही घर में, ओइसन तो निमने से चलवे हे घर के । नञ् बेच-बिकरिन, नञ् लड़ाय-तकरार । कहियो केकरो से उठल्लु भी नञ् करइलक हे, जबकि गहना के सउखे लगल होत ओकरा । तन पर भर जी बस्तर भी तो नञ् देलूँ हे कहियो । अदना नर-नोहरंगी तो जुटवे नञ् करे हमरा से ... जेकर तगादा कहियो नञ् कइलक ऊ । मुदा ई दमड़िया अइसे काहे बोलऽ हे ।') (मपध॰02:10-11:47:1.34)
94 ओइसीं (दे॰ ओइसहीं) (नञ् बाबा ! हमरा नञ् चाही साड़ी-गहना । हमनी गरीब आदमी के सादे-सपेटे ठीक लगऽ हे । पुजेरी बाबा बोललका - नञ्, ई बात ठीक नञ् हे । जइसे कोय परसादी लेवे में आनाकानी नञ् करऽ हे, ओइसीं ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ ।; पुजेरी बाबा ओइसीं छटपटाइत गोंगिआएत रहला । ढेर दूर बाहर अइला पर जमात के मेठ पुछलक - "तोरा कौन गाँव जाना हउ बहिन ?") (मपध॰02:10-11:21:1.29, 24:1.10)
95 ओजय (= ओजइ, ओज्जइ; उसी जगह पर, वहीं) (पुजेरी बाबा ललटेन के ईंजोरा में टुकुर-टुकुर हमर देह देख रहला हल अउ ओजय बैठ के थारी, घंटी, दीआ धो रहला हल, खोद-खोद के ।) (मपध॰02:10-11:21:2.26)
96 ओजह (= वजह, कारण) (परिवार में बस तीन परानी - दू बेकती ऊ अउ एगो उनकर बेटी सोनियाँ । पास-पड़ोस के आई-माई से उनकर घर-आँगन गुलजार रहऽ हे । एकरो एगो खास ओजह हे । सोनियाँ अप्पन सोभाव से सबके मन लुभौले रहऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.12)
97 ओनिहे (= ओनहीं, ओधरे; उधर ही) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.15)
98 ओन्ने (= ओद्धिर; उधर) (चार दिन बाद धान झार के अब ओकरा सूप से हौंक के भउँठा निकाल रहल हल चमारी कि ओन्ने से राम उद्गार बाबू अइलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.4)
99 ओयसीं (= ओइसीं, ओइसहीं) (हम की करतूँ हल, ओयसीं भिंजले में पानी भरे लगलूँ । हम्मर भींजल कपड़ा देह पर सट्टल हल, अउ हम लजा रहलूँ हल ।) (मपध॰02:10-11:21:2.19)
100 ओरहन (= ओलहन) (एगो हित ओरहन देवे लगलन - "ओही घड़ी तिरपुरारी से रिस्ता करे से हम मना कएली हली । ऊ घड़ी अपने के दिमाग में भूत बइठल हल कि लठइत हितइ रहे से गाँव-गोतिया दबावत न । अब उलझिए गेली हे तो सोझराऊँ खुद ।") (मपध॰02:10-11:28:3.12)
101 ओरहना (= ओरहन, ओलहन) (कभी-कभी तो सास-ससुर के ओरहना बेअदमिअत व्यवहार से पारवती जान हते ले तइयार हो जा हल ।) (मपध॰02:10-11:45:1.37)
102 ओसरा (= ओसारा) (फिन गोपला दन्ने अँगुरी उठइले कहे लगल - ई हरमियाँ कहऽ हल, अंडा तल दे । तों आझ ओसरा पर सुत । पलंग आझ तोरा ला नञ् हउ ।) (मपध॰02:10-11:19:1.16)
103 औगल (= अच्छा) (चमारी के माय तो ओकर बुतरुए में गुजर गेली हल, सेसे ऊ अपन मेहरारू के कम्मे उमर में पकिया-चोकिया खातिर मँगा लेलक हल । भाय में ऊ अकेलुआ हल । बहिन पुनियाँ के बियाह के सियाँक ओकरा नञ् हल । चमारी मेहरारू जोरे घर में रहे लगल आउ कुछ खेत बटइया ले के औगल से खेती नाध देलक ।) (मपध॰02:10-11:46:1.14)
104 औगुन (= अवगुण) (मेहरारू अप्पन करतब से कुलछनी कहला हे । मगर पारवती में अइसन कोय औगुन न हे । गाँव-घर के लोग भी अब पारवती के बड़ाई करे ला सुरू कर देलक ।) (मपध॰02:10-11:45:2.17)
105 औसर (= अवसर) (हमनी सब तीन तरह से जिनगी के अनुभो पावऽ ही । एगो तो अप्पन जीवन में जे घटना घटे हे, ओकरा से सीखऽ ही । दोसर, अप्पन आँख से दोसरा के ऊपर बीतल घटना देख के भी हमनी सब के सीखे के औसर मिले हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.6)
106 कँपकँप्पी (= कँपकँपी) (चमारी सोंचलक - 'एक गट्टा बीड़ी ले ली त जाड़ा के ई कँपकँप्पी छोड़ा देवे वला रात निम्मन से कट जात ।' बकि पास में एगो चउअन्नी नञ् ।) (मपध॰02:10-11:46:2.11)
107 कंचूस (= कंजूस) (तूँ घर के चिंता ओकरे पर छोड़ दे । ऊहे बेच-बिकरिन करे आव घर चलबे । अइसे भी मेहरारू कंचूस हो हे । ई ले तोर भलाय ईहे में हव कि ओकरे हाँथे सब कुछ चले दे ।) (मपध॰02:10-11:47:2.15)
108 कंठस (= कंठस्थ) (हल तो वइसे ऊ चिट्ठी-पतरी भर पढ़ल हरिजन लेकिन ओकर बात-विचार रहन-सहन में एगो अलगे संस्कार के झलक मिलऽ हल । दु-चार गो संसकिरित के उलटा-पुलटा असलोक भी ओकरा कंठस हल, बले ओकर अरथ ऊ नञ् जानऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.8)
109 कइसन (= कैसा, किस प्रकार का) (कह बेटा चमारी ! धान मनगर होलउ हे न । कइसन हाल-चाल हव ?) (मपध॰02:10-11:47:3.7)
110 कछ-बछ (फुलमतिया के बिआह रामरतन से हो गेल । जे दिन फुलमतिया के बिआह के बाजा बजल, रतन के कुलबुलाहट बढ़ गेल हल । ई कथी के कछ-बछ हल, ई त बुझे के बात हे । कोई का कह सकऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.18)
111 कठमुरकी (= ठकमुरकी) (~ मारना) (आखिरकार सिंगारो सन्नाटा तोड़लक - "अब हमरा का होएत दी ... दी ?" जेठानी के कठमुरकी मारले हल । सवाल सुनके आँख भर गेल ।) (मपध॰02:10-11:26:2.14)
112 कड़रू-भैंस (दुश्मन के हवाई जहाज हम्मर सीमा में घुस के बम गिरा के भाग गेल । एकरा में मवेसी-मानुस के नुकसान नञ् भेल, लेकिन चार-पाँच गो धान के खरिहान भूँजा अइसन पटपटा गेल आउ एगो अगोरिया, दूगो कड़रू-भैंस जिंदे अगिन देवता के बलि पड़ गेल ।) (मपध॰02:10-11:31:1.21)
113 कतिकी (= कार्तिक मास का) (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.34)
114 कथी (फुलमतिया के बिआह रामरतन से हो गेल । जे दिन फुलमतिया के बिआह के बाजा बजल, रतन के कुलबुलाहट बढ़ गेल हल । ई कथी के कछ-बछ हल, ई त बुझे के बात हे । कोई का कह सकऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.18)
115 कनसार (फुलमतिया अब कनसार लगावऽ हल । जब ऊ कनसार लगावऽ हल तऽ गाँव भर के लोग उहाँ जमा हो जा हलन । ऊ भाँड़ में मकई भूँज रहल हल । सब्भे मकई फुट के लावा हो गेल हल ।; फुलमतिया के देह में एतना न कनसार गरम हो गेल कि ओकर आँख-मुँह लाल भभूका हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:37:2.1, 17)
116 कनेआँ (= कनिआय) (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.31)
117 कबड़ना (= उखड़ना; समाप्त होना) (दोसर दिन पंचाइत लगल । सब अइलन बकि राम उद्गार बाबू अलोपल हलन । पंचाइत कबड़ गेल । पंच घर चल गेलन ।) (मपध॰02:10-11:48:1.26, 27)
118 कम-बेसी (गुलबिया बोलल - की कहिअउ बहिन ! ससुरार ससुरार रहे तब तो । ऊ तो एकदम्मे नरक के दुआरी हे । हमर जे मरद कम-बेसी कमा हे, सब दारुए में फूँकऽ हे, घर आवऽ हे तउ हमरा खाली नोंच-नोंच के खाहे ।) (मपध॰02:10-11:24:2.3)
119 कमासुत (= खटकर काम करनेवाला, परिश्रमी) ("बकि उद्गार चचा, ई तो जुलुम हइ । तूँ ऊ गरीब के जहंडल कर रहलहो हऽ । जान लऽ, भारी सुरिआहा हको चमरिया । जब ओकरा ई बात के जनकारी होतो त ऊ तोरा छोड़तो नञ् । सोंचे के चाही चचा, ओतना सीधा आउ कमासुत जुआन ई युग में कहाँ मिलऽ हे ।" ई मुनाकी के राय हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.17)
120 करतानी ("उनकर करतानी तोरा बेस लगलउ का ?" - "का करी ? उनकर अइसने आदत हइन ।") (मपध॰02:10-11:25:3.17)
121 करमजरुआ (ऊ बेटा तो हइ वकीले के बकि कौड़ी के तीन । डोनेसन पर डेली बेसिस पर बहाली हे, ऊहो चारे महीना ला । एतनै नञ्, बैंक डकैती में नवादा जेलो में तीन बच्छर लइका काटलक हे । ओकर जिनगी हे शराब अउ धंधा हे लूट-खसोट । कमाई में ओकरा लात-जूता के कमी न रहे । अब बतावऽ, परीछवऽ अइसने करमजरुआ दमाद ?) (मपध॰02:10-11:43:2.28)
122 करासन (= किरासन, केरोसीन) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:2.2)
123 करेठा (= करइठा; काला-कलूटा) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।; जब जरूरत होल ऊ अपनहीं पइसा देइत रहऽ हथ । मगर ई मुझौंसा तो एक्को पइसा नञ् देहे । बेटियो के पढ़ावे ला नञ् । दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !) (मपध॰02:10-11:19:1.19, 2.2, 4)
124 कहँड़ना (अठवारा लग गेल । चमारी खेत दने से लउटल आ रहल हल । अइसे गुजरते ऊ अनभो कयलक कि कोय कहँड़ रहल हे । ऊ दउड़ के भिरी गेल । देखलक त राम उद्गार बाबू हथ । सउँसे देह में खून छलछलाल हल । मुँह घोघसल । अंगे-अंग चूरल ।) (मपध॰02:10-11:48:1.36)
125 कहनय-सुननय (= कहा-सुनी) (ढेर कहनय-सुननय आउ गोड़परी के बाद मिसिर जी अप्पन एगो दानापुर के दोस्त मेजर रमायन सिंह के नाम चिट्ठी देके ओकरा भेज देलन ।) (मपध॰02:10-11:33:2.20)
126 कहा-सुनी (बगदू सिंह हार गेलन । आखिर मान गेलन कि सिंगारो के भाग में एही बदल हे । साल-दु-साल पर चचा-भतीजा में सिंगारो के सवाल पर कहा-सुनी होइए जा हल ।) (मपध॰02:10-11:28:3.22)
127 का (= 'काका' का संक्षिप्त रूप) (बाकि उ गाँव हल । आझ के तरह जनावर न रहऽ हल । उ गाँव में फूलन का के बड़गो दलान अउर करीम का के बड़गो दलान अउ दुआर हलन, काफी उच्चा पर । अउर ओकरे सटल-सटल काफी उच्चा जमीन हल, सड़क हल, बाकि कच्चा हल । बस गेल लोग-बाग । बकरी से गाय तक । तोता से मुर्गी तक ।; फूलन का सुभाव के धनी हलन । जात-परजात के भेद उनका में न हल ।; फूलन का सबके अपन नेह से तोप देलन । चाह, भुंजा, फरही, चूड़ा कोई चीज के कमी न होवे देलन ।) (मपध॰02:10-11:35:1.13, 24, 27)
128 काँव-कोचर (लोग जेतना सीताराम के जोड़ी के पूजा कर ले, मुदा सीता जी के जिनगी भी तो सब दिन दुक्खे में बीतल । काँव-कोचर करते बिआह होल, तो कुच्छे दिन पर रजगद्दी नञ् होके वनवास हो गेल । जाहाँ से रमना हर के ले गेल । फेन गूहा-गिंजटी से अजोध्या तो अइली, मुदा थिर पानी नञ् पिलकी ।) (मपध॰02:10-11:20:3.28)
129 किरिया (= कसम) (भगमान ~; तोर ~) (जब जरूरत होल ऊ अपनहीं पइसा देइत रहऽ हथ । मगर ई मुझौंसा तो एक्को पइसा नञ् देहे । बेटियो के पढ़ावे ला नञ् । दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !; जमात के मेठ बोलल - "हम सब जानऽ हूँ । 'आँख के देखल दूर कर अउ किरिया के परतीत ।' ई हमरा सब कह देलक हऽ । तूँ एकरा साड़ी गहना कौन लोभ से देलहो ? नहाएत खनी भुरकी से देखऽ हलहो, भभूत लगावे खनी एकर गियारी, छाती अउ पेटो छुलहो । एकर गालो छुलहो ।") (मपध॰02:10-11:19:2.4, 23:3.4)
130 कीतो (= कातो, कादो) (वइसे की तो उ अप्पन घर-परिवार के जबबदेही से निचिंत हल काहे कि बाप के मरे के पाँच महीना बाद माइयो सुरधाम चल गेल । उमर होवे पर भी रजेंदर पता नञ् काहे विवाह नय करऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.16)
131 कुइयाँ (= कुआँ) (आवाजो बेकाबू हो गेलइ - "हाँ, पता लगावे ला चाहऽ हलइन हमरा बाप के कि खनदानी हे कि खानगी ? सिरिफ दौलत वाला हे कि कुकरमी ? रखेलिन रखऽ हे कि न ? चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?" - "का बोलले ? चुरुआ भर पानी ? चार पोरसा पानी हे अबहीं कुइयाँ में । चल देख, चार पोरसा ... पानी ... हे अबहीं ।"; ई अवाज से एकदम विलगे अवाज हल सिंगारो के । एक बार फिर अन्हार कुइयाँ में ओकरा ढकेल देल गेल । अबरी ओकरा बचावे खातिर कोई आगे न आएल । जौन माटी के अपन समझ के रहल, उ माटी ओकर दरद से न दरकल, न फटल ।; सोनियाँ अइसन बेटी लेल अइसने दमाद खोजलन हे काका ? एकरा से बेस होत कि बेटी के कुट्टी-कुट्टी काट के कुइयाँ में डाल देतन हल ।) (मपध॰02:10-11:27:2.14, 30:3.31, 43:2.13)
132 कुच-कुच (~ करिया) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर । रजेंदर के पसन से मिसिर जी एगो कुच-कुच करिया पहिलौंठ पटनिया गाय खरीद के ओकरा फलगू नदी में उतरवा के घर सोझ कर देलन ।) (मपध॰02:10-11:32:3.34)
133 कुट्टी (सोनियाँ अइसन बेटी लेल अइसने दमाद खोजलन हे काका ? एकरा से बेस होत कि बेटी के कुट्टी-कुट्टी काट के कुइयाँ में डाल देतन हल ।) (मपध॰02:10-11:43:2.13)
134 कुठौर (उमीर के तकाजा के इनकार कइला असान न हे । अदमी के जिनगी पानी के बूँद न हे जे धरती पर गिरल त उहें समा गेल । पानी पर गिरल त उहें मिल गेल । ई त पूरा एगो इंगोरा हे । ठौर पाके कुठौरो जनम जाहे ।) (मपध॰02:10-11:36:1.27)
135 कुबेर (= कुबेला) (पुजेरी बाबा भीरी आके पुछलका - "कहाँ घर हउ मइयाँ ? कहाँ से आ रहलाँ हे, एत्ते कुबेर के ? तूँ तो ई गाँव के ने तो बेटी हँ, ने तो पुतहू । हलाँकि गाँव ठकुरवारी से थोड़े दूर हे, फिर भी हम सभे घर के औरत के चिन्हऽ हूँ ।") (मपध॰02:10-11:20:2.23)
136 कुभाखर (= कुभाषण; अप्रिय बोली) ("हमनी दुन्नो माय-बेटी के डूबे से उबार लेलें रे सरोजवा । चल, लगा दे आग मड़वा में । न होयत बिआह ।" - "अइसन कुभाखर बोली मत बोल चाची, हिम्मत बान्ह । बिआह त होयवे करत गे । एही लगन अउ एही मड़वा में, आझे ।") (मपध॰02:10-11:43:3.6)
137 कुहा (= कुहेसा, कुहासा) (अप्पन दुआर पर बैठल-बैठल रमचरना यही गुन रहल हे । साँझ जाड़ा के मटिआ गेल हे । एगो कुहा जइसन । घोर अन्हेरिया । सब अप्पन दुआर पर लंफ-बत्ती कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:34:1.18)
138 कूटना (= बहुत पिटाई करना) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.21)
139 केयास (= कयास; अनुमान, अटकल, कल्पना) ("अपन रमचरना हो नऽ, ओकरा से फुलमतिया के बिआह कर लऽ अउर चैन से सुतऽ । ... इ समाधान तोहरा जँचो तऽ बात तय समझऽ ।" हुलास खैनी के एक्के चोट में माथा पर जमल सर्दी उड़ा देत, हरखू के ई केयास भी न हल ।) (मपध॰02:10-11:37:1.13)
140 कोंती (~ मारना) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.25)
141 खँघारना (= खंगालना; पानी से कपड़ा, बरतन आदि साफ करना) (जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला । तब तक हम पानी चुकलूँ हल । हम सकपकाइत खाढ़ हो गेलूँ, अउ अपने मने से दोल खँघारइत एक दोल पानी पुजेरी बाबा ले भर देलूँ ।) (मपध॰02:10-11:20:2.19)
142 खउरा (= एक प्रकार की खुजली; बाल झड़ने का एक चर्मरोग, बालखोरा; ~ लगाना = किसी काम में अड़चन डालना) (गरीब ला गाय अउर संतोख दुन्नु एगो जरूरी समान हे, जे दुनु बेकत जिनगी भर जोगइलक अउर जोगइलक अप्पन स्वाभिमान के भी, जे कम जरूरी न हल । फजूल के चाह अदमी के जीमन में खउरा लगा देहे ।) (मपध॰02:10-11:34:3.17)
143 खतुआना ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.23)
144 खनय-पिनय (= खाना-पीना) (रजेंदर के बाप बंसी के पीलिया रोग से इलाज मिसिर जी अप्पन खरचा से मगध मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में करउलन हल । काल के गाल से ऊ हँसइत-खेलइत निकल गेल लेकिन गाम लौटला के कुछ रोज बाद खनय-पिनय में नेम-संजम नञ् करे के कारन अचानक ओकर हालत एतना खराब हो गेल कि बचना मुश्किल हो गेल ।; रात में खनय-पिनय के बाद रजेंदर उनकर गोड़ दबाबे लगल, अउ मन के मंसूबा उनकर सामने दुबारे पटक देलक - 'की सरकार, हम्मर उजूर पर धेयान नञ् देवहु ?') (मपध॰02:10-11:31:3.31, 33:1.1)
145 खनी (= के समय) (जमात के मेठ बोलल - "हम सब जानऽ हूँ । 'आँख के देखल दूर कर अउ किरिया के परतीत ।' ई हमरा सब कह देलक हऽ । तूँ एकरा साड़ी गहना कौन लोभ से देलहो ? नहाएत खनी भुरकी से देखऽ हलहो, भभूत लगावे खनी एकर गियारी, छाती अउ पेटो छुलहो । एकर गालो छुलहो ।"; एतना कहते-कहते पुजेरी बाबा के हाँथ-गोड़ उनखे गमछा चद्दर से बाँध देलक । गंजी फार के उनखर मुँह में ठूँस देलक । मुँह में ठूँसैत खनी पुजेरी बाबा के एगो अगला दाँतो टूट गेल अउ मुँह से हर हर खूनो बहे लगल ।) (मपध॰02:10-11:23:3.7, 30)
146 खाँटी (= असली, शुद्ध) (अब सवाल हे जोग लइका ढूँढ़ना बाकि दाँव-पेंच ओला ई दुनियाँ में जोग लइका ढूँढ़ना ओतनै मुस्किल जेतना डालडा से भरल बजार में खाँटी घीउ । लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज ।) (मपध॰02:10-11:41:1.30)
147 खाढ़ (= खड़ा) (जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला । तब तक हम पानी चुकलूँ हल । हम सकपकाइत खाढ़ हो गेलूँ, अउ अपने मने से दोल खँघारइत एक दोल पानी पुजेरी बाबा ले भर देलूँ ।; हमरा हाँथ में पैसा तो नञ् रहे, मुदा बाबा आरती लेले ढेर देरी हमरे भिर खाढ़ रहला । लगे कि ऊ हमरो आरी उतार रहला हऽ ।; गुलबिया सितबिया से फेन लगले बोलल - एक दने हम खाढ़ डर से थर-थर काँप रहलूँ हल, ऊ सब जमात के अदमी पुजेरी बाबा के संगारल कपड़ा-लत्ता, थारी-बरतन सब बोरा में समेट के, पेटी-बक्सा, रुपइया-पैसा ले लेलक ।) (मपध॰02:10-11:20:2.18, 21:3.15, 23:3.34)
148 खानगी (बाप के नाम अउर हैसियत के बात सुनके सिंगारो के आग लेस देलक । ऊ काबू से बाहर हो गेल । आवाजो बेकाबू हो गेलइ - "हाँ, पता लगावे ला चाहऽ हलइन हमरा बाप के कि खनदानी हे कि खानगी ? सिरिफ दौलत वाला हे कि कुकरमी ? रखेलिन रखऽ हे कि न ? चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?") (मपध॰02:10-11:27:2.8)
149 खाय-बुतात (दुनूँ चचेरा भाय अप्पन-अप्पन किसान के डेउढ़ी-खरिहान में लगल रहऽ हल । एहे से रजेंदर दिन भर खरिहान में काम-धाम में चाहे सनीचरा-परमेसरा के दुआरी पर लूडो अउ साँप-सीढ़ी वाला खेल में बिता दे हल अउ साँझ के अंधरिया पसरे के साथ अप्पन खाय-बुतात लेके भरत बाबू के खरिहान में पहुँच के पसर जा हल ।) (मपध॰02:10-11:32:1.23)
150 खिसियाना (= गोस्सा करना; गुस्सा करना) (ऊ खिसिया के जवाब देवे - "उनकर खेती हइन तो उनका हिंआ चार गो मुस्टंडो हथी । तोर हिम्मत हउ उनकर खेसारी-मसुरी नोचे के ? पकड़एला पर साथे जाहें मकई के खेत में । हमरा पढ़ावे के कोसिस मत कर । जेतना सतभतरी हथ, सबके कुंडली हमरे पास हउ ।") (मपध॰02:10-11:27:3.34)
151 खिस्सा (= किस्सा) (लछमिनियाँ के खिस्सा हमहूँ सुन रहली हल ।) (मपध॰02:10-11:15:3.5)
152 खुट्टा (= खूँटा) ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.20)
153 खुम (= खूम; खूब, बहुत) (ओने देवीथान पर सब गप कर रहल हल कि बेलदारी के ठकुरवारी पर राते डकैती हो गेल । पुजेरी जी के गोड़ हाँथ बाँध के सब लूट लेलकै । पुजेरी बाबा बोललथिन कि ओकरा में एगो गोरनार खुम सुत्थर लड़कियो हलै, जे पहिले से आल हलै ।) (मपध॰02:10-11:24:2.39)
154 खूँट (= कपड़ा आदि का चारों कोने का भाग या तिकोना छोर; आँचल का छोर; कमर में लपेटने का धोती का भाग; एक पूर्वज से जन्मे परिवार वंश या कुल; हिस्सा, भाग, खंड; छोर, किनारा) (ऊँच ~) (रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।; भगत बाबू जब बाहर निकसे लगलन त चपरासी खूब झुक के सलामी दागलक । भगत बाबू बियाह तय होवे के विस्वास बान्हइत दस रुपया के एगो नोट देलन ओकरा । अइसे त अनिच्छा के एगो सवाल मड़राइत हल उनकर मन में । बेटी पुनियाँ के चान अऊ दामाद ... । बाकि चारो खूँट बरोबर केकरो नय मिलऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.3, 42:3.34)
155 खेत-खरिहान (मजदूरी करे वाली मेहरारू सवाल दागे लगलन - "सिंगारो ! तूँहीं बतावऽ, नान्ह जात अउ बड़ जात के बेटी-पुतोह के पहचान का रहल ?" ओकर जवाब होए - "तोरा खेत-खरिहान उजाड़े के मौका न मिलतउ तो एही न कहबे ?"; हम तो औरत जात ही । हमरा मिरतु मामूली बात हे, पूरे समाजो खातिर । हमरा जिअले गुनाह हे । बाप के खेत-खरिहान में हाड़ गला के निरबाह करिला तो सउँसे जात-समाज के नाम कटइत ही । एही जात-समाज के सामने एही गुंडा हमरा माँग में सेनुर देलक लेकिन एकर मेहरी हे रुकमिनियाँ ।) (मपध॰02:10-11:27:3.28, 29:2.5)
156 खेत-बथान (= खेत-पथार, खेत-बधार) (रमचरना के बाप हुलास अउर माय हुलसिया जब खेत-बथान में काज पर लगल रहइ त रमचरना अरबरा के चलऽ हल, लोघड़ा के खड़ा हो जा हल । एकदम्मे नंग-धड़ंग ।) (मपध॰02:10-11:34:2.25)
157 खेम-छेम (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:36:3.3)
158 खेसारी-मसुरी (ऊ खिसिया के जवाब देवे - "उनकर खेती हइन तो उनका हिंआ चार गो मुस्टंडो हथी । तोर हिम्मत हउ उनकर खेसारी-मसुरी नोचे के ? पकड़एला पर साथे जाहें मकई के खेत में । हमरा पढ़ावे के कोसिस मत कर । जेतना सतभतरी हथ, सबके कुंडली हमरे पास हउ ।") (मपध॰02:10-11:27:3.37)
159 खैरखाह ("एक गट्टा बींड़ी द साव जी !" सरल अवाज में बोलल हल ऊ । - "काहे बाबू ! मेमिअइते काहे हें । कोय तरह के बर-बेरामी त नञ् हो गेलो ह । ... ले बींड़ी ।" दमड़ी साव खैरखाह बनके पूछलक ।) (मपध॰02:10-11:47:1.16)
160 खोंथा (= घोंसला) (लपकल भागल गुलबिया अप्पन गाँव दने दौड़ल जाइते हल कि पौ फट गेल । चिरञ्-चुरगुन अप्पन खोंथा से नीला असमान में रेस करैत, चीं-चीं कर रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:20:1.4)
161 खोपा (= जूड़े में लगाने का मुलायम काला गोला; बड़ी या ढीली टोपी) (हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:3.2)
162 गट्टा (= कलाई; गाँठ; बीज, जैसे - कमलगट्टा) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?"; चमारी सोंचलक - 'एक गट्टा बीड़ी ले ली त जाड़ा के ई कँपकँप्पी छोड़ा देवे वला रात निम्मन से कट जात ।' बकि पास में एगो चउअन्नी नञ् ।; "एक गट्टा बींड़ी द साव जी !" सरल अवाज में बोलल हल ऊ ।) (मपध॰02:10-11:23:2.31, 46:2.10, 47:1.11)
163 गड़ना (काँटा ~) (गुलबिया सिसकइत आरी पर बैठ के कहे लगल - "की कहिअउ बहीन, दुखिया गेल हल दुख काटे, तउ गोड़ गड़लय हल काँटा, ... ओहे हाल हमर होल । कल्हे हम झोला-झोली के घर से परदा के बहाने भागलूँ, मुदा बेलदरिया पर अइते-अइते ढेर साँझ हो गेल । ..."; हम एतना कहते बाहर अइलूँ अउ केतारी खेत के आरी पर बैठ के भर हिंछा पानी पी लेलूँ । काहे कि भुक्खल पेटा जोड़ से गड़ रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:20:2.9, 22:3.24)
164 गड़मोगली (बाप रे बाप ! कौन जमाना आ गेल कि मंदिरो ठकुरवारी के नै छोड़े सब चोर-चिहार । बेचारा पुजेरी जी रात भर रहला गड़मोगली लेले ।) (मपध॰02:10-11:24:3.3)
165 गते (= धीरे से) (सोनियाँ के माय सरोजवा के भर अँकवार धैले खुसी के मारे फफक-फफक के रोवे लगल अउ भगत बाबू आँख के लोर गमछा से पोछइत गरदन झुकौले गते बहरा गेलन । ओने खुसी के ठहरल सैलाब में फिन से मौज के लहर उठे लगल ।) (मपध॰02:10-11:43:3.33)
166 गत्ते (~ से जमना) (हुलास दुआरी पर बइठल हलन । चट्टी पर । हरखू अइलन अउर गत्ते से जम गेलन । हरखू एतना गत्ते से कहिओ न जमऽ हलन । ऊ दाहड़ो के बखत चर-फर हलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.20, 21)
167 गन ("अरे चमरिया, तोर ई मजाल ! तूँ अपना के समझऽ की हें रे ! तूँ हम्मर माल मारले हें कि हम तोर माल मारले हिअउ ?" राम उद्गार बाबू बोल रहलन हल बकि उनकर अवाज में कँपकँपाहट साफ झलक रहल हल । - "माल तो तोर हम मारले ही चचा । बकि हम तोरा फुटलो कउड़ी नञ् देवो । मूर-सूद जे लेना हो तोरा, जाके हमर बाबू से ल गन । हम थोड़े लेली हे तोरा से ।" रोस में बोलल चमारी ।; "अपन पेट काट के तोरा भोकतान करते रहली । बकि तूँ अपन धौंस जमइलहीं रहलऽ । की ? ईहे अदमी के लच्छन हे ? हम कह दे हियो, अब बिन पंचायत के गल्ला नञ् देबो । जा, तोरा जे करना हो, करऽ गन ।") (मपध॰02:10-11:48:1.3, 22)
168 गमना (= अन्दाज लेना, समझना, सोच-विचार करना, ठीक से ध्यान देना) (चमारी के लगल जइसे सउँसे धरती हिल रहल हे ... तरेंगन सब नाच रहल हे । ऊ सरिआ के दुन्नु हाँथ से मोखा थम्ह लेलक आउ बउड़ाल मन पर काबू पावे के कोरसिस करे लगल । अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक ।) (मपध॰02:10-11:46:3.34)
169 गरदा (= धूल, गर्द, राख, खाक) (हरखू ई कहके खैनी के रगड़ मार के ठोकलन, तरहत्थी के गरदा के फूँक मार के उड़ा देलन, अउर खैनी बढ़ा देलन । हरखू खैनी ठोर में रखलक अउर अपन चिंता के पुड़िया खोल के हुलास के आगू रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.35)
170 गरबइया (= गोरैया) (हम्मर मइया सूप में चाउर लेके चुनइत रहऽ हल । ढेर गरबइया आसपास फुदकइत रहऽ हलन । माय 'धत' कह के हाथ उठाबऽ हल । गरबइअन फुदुक-फुदुक उड़ जा हलन । मगर ढीढ जीव फिन फुदकइत आ जा हलन ।) (मपध॰02:10-11:17:3.12, 14)
171 गरह (= गर्रह; ग्रह) (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन । रुकमिनियाँ के कहतन हल तो अइसन नौबत काहे अवइत । तकदीर में भोग लिखल हलइन । खैर, गरह कट गेलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:3.2)
172 गरान (= ग्लानि, लज्जा) (लाज-~) (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.27)
173 गरीब-गुरबा (तूँ सब हमनी के चोर समझऽ हो, मुदा हमनी चोर नञ् ही । हम समानता चाहऽ ही, चोर तूँ हऽ जे सब के ठग रहला हऽ अउ समाज में छूत-छात, ऊँच-नीच अउ जात-धरम के नाम पर भेद बढ़ा रहला हऽ । हमनिन समाज के तोहनिन नियन कलंक, जे नारी आउ गरीब-गुरबा के गुमराह करके लूट रहल हे, के सुधारे के बीड़ा उठा चुकली हे ।; ई सब गरीब-गुरबा में बाँट देम । तोरा भिरी ई धन पाप कमाय के कुंजी हे ।) (मपध॰02:10-11:23:3.22, 40)
174 गलफरा (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.9)
175 गलबात (= गप-शप) (गाम के पढ़ल-लिखल असराफ-बड़हन आदमी भी ओकरा पेयार दे हलन । अप्पन पास बैठा के दु-चार गो गलबात कर ले हलन ।; रस्ता में गलबात करइत-करइत रजेंदर अप्पन मन के मोटरी खोल देलक - "सरकार, हम अब घर लौट के नञ् जइबो । हमरा जे बुतरूए से तुँ बड़ मानऽ ह, तब मलेटरी में भरती करवा दऽ ।"; फुलमतिया के बड़गो आँख में रतन, अउर रतन के आँख में फुलमतिया के छाया हल । फुलमतिया में सोंच हे । उ सोंचइत हे । रतन तो रतन हथ । सुख-दुख के सोचनिहार, फूल का के रतन । गात के गलबात कहाँ ले जाएत । इ मन हे कि मानवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:31:3.12, 32:2.36, 35:3.12)
176 गवरू (~ जवान) (इनकर बाबूजी के जिनगी अछते कोई बेलगाम न हल । उनका गुजरते माय के दुलार सबके बिगाड़ देलक । ई सबसे छोट हथ, इ से सबसे ज्यादे साँढ़ हो गेलन । ताकतवर हथ, गवरू जवान । बात-बात पर लाठी-फलसा निकालेवाला । तोर जेठो इनका से डेरा हथू ।) (मपध॰02:10-11:26:2.24)
177 गाँव-गोतिया (एगो हित ओरहन देवे लगलन - "ओही घड़ी तिरपुरारी से रिस्ता करे से हम मना कएली हली । ऊ घड़ी अपने के दिमाग में भूत बइठल हल कि लठइत हितइ रहे से गाँव-गोतिया दबावत न । अब उलझिए गेली हे तो सोझराऊँ खुद ।") (मपध॰02:10-11:28:3.16)
178 गांजना (= पैर से दाब कर कुचलना) (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । बिना खइले-पिले ढेर रात तक ऊ आम के सुक्खल लकड़ी-झुरी अउ गोड़ के गांजल पोआर जग के तापते रहल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.2)
179 गाजा-बाजा (खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:43:1.7)
180 गारना-फिचना (हम की करतूँ हल, ओयसीं भिंजले में पानी भरे लगलूँ । हम्मर भींजल कपड़ा देह पर सट्टल हल, अउ हम लजा रहलूँ हल । काहे कि बलाउजो काढ़ के पहिलहीं गार-फिच के, सुखे दे देलूँ हल ।) (मपध॰02:10-11:21:2.23)
181 गिंजन (= गंजन; गींजने, मथने अथवा बिलोड़ने की क्रिया या भाव; कष्ट, क्लेश, अनादर, तिरस्कार) (सुभदरा - जदि जेल में रहती हल तब कुछो हरज न हल । हमरा जे गिंजन समाज में हो रहल हे, ऊ तो न होवत हल । सत्र न्यायाधीश बोललन - वकील साहब ! आउ जादे जिरह के जरूरत न हे । मेडिकल रपट सच्चाई के खुलासा कर देलक हे ।) (मपध॰02:10-11:40:2.15)
182 गिरहस (= गृहस्थ) (हम डरइत बोललूँ - "तोहर तो हम बेटी दाखिल हियो पुजेरी बाबा । हमर बाबू जी के मुठान भी तोहरा से मिलऽ हे । तूँ खाली टीका-चंदन दाढ़ी-माला रखले-पेन्हले हो । ऊ सादा-सपेटा गिरहस हथ ।") (मपध॰02:10-11:21:2.1)
183 गीत-गौनई (खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:43:1.8)
184 गुंडई (= गुंडागिरी) (सुभदरा कहलक - तू ऊ गुंडा के पहचानऽ हऽ जे हमरा जउर गुंडई कइलक हे । हम तोरे गोवाही बनइवो । चपरासी कहलक - हम गेस्ट हाउस के एगो मामूली कर्मचारी ही । तू तो जानऽ हऽ कि अपराधी लोग गोवाह के ही हत्या करके सच्चाई के छिपा ले हथ ।) (मपध॰02:10-11:39:1.18)
185 गुजुर-गुजुर (~ देखना) (इ मन हे कि मानवे न करे । आँख बेअग्गर हो जाहे, का करूँ । टिकोला के लोग झिटकियो से तोड़ के गिरा दे हथ । कुछ जमीन में लेथरा के कुचला जाहे । टिकोला आम न हो सकल, पेड़ गुजुर-गुजुर देखते रह जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.18)
186 गुनना (अप्पन दुआर पर बैठल-बैठल रमचरना यही गुन रहल हे । साँझ जाड़ा के मटिआ गेल हे । एगो कुहा जइसन । घोर अन्हेरिया । सब अप्पन दुआर पर लंफ-बत्ती कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:34:1.17)
187 गुरही (= गुरिया; छोटा कटा हुआ अंश या टुकड़ा) (अचानक मिसिर जी अइसन बरेक मार के फटफटिया रोक देलन कि रजेंदरा के माथा उनकर पीठ से टकरा गेल । सामने दुगो कुत्ता अप्पन-अप्पन हिकमत-पेंच देखा रहल हल । दुनूँ माँस के गुरही खातिर अझुरायल हल ।) (मपध॰02:10-11:32:3.23)
188 गूहा-गिंजटी (= गूहा-गिंजन) (लोग जेतना सीताराम के जोड़ी के पूजा कर ले, मुदा सीता जी के जिनगी भी तो सब दिन दुक्खे में बीतल । काँव-कोचर करते बिआह होल, तो कुच्छे दिन पर रजगद्दी नञ् होके वनवास हो गेल । जाहाँ से रमना हर के ले गेल । फेन गूहा-गिंजटी से अजोध्या तो अइली, मुदा थिर पानी नञ् पिलकी ।) (मपध॰02:10-11:20:3.31)
189 गेंदरा (कातिक खतम होवे-होवे हल । धान के पातन चमारी के अप्पन आउ बटइया के खेत में लगल हल । झोला-झोली के बाद चमारी माल-धुर के खिलाके काँख तर गेंदरा आउ हाँथ में एगो पैना लेले घर से धान के पातन अगोरे खातिर निकलल ।; अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक । धेयान तोड़ के दोकान के भीतर जाय लगल त नजर नीचे गेल, ओकर गेंदरा सुपती पर छिरिआल हल । 'ओह ! ईहे ऊ बात के बंद करावे के कारन हे । एकरे गिरे के ढब सन अवाज दुनहुँ के कान तर चल गेल होत ।' ऊ मन मसोस के रह गेल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.7, 47:1.2)
190 गोंगियाना (पुजेरी बाबा ओइसीं छटपटाइत गोंगिआएत रहला । ढेर दूर बाहर अइला पर जमात के मेठ पुछलक - "तोरा कौन गाँव जाना हउ बहिन ?") (मपध॰02:10-11:24:1.11)
191 गोइयाँ (= गुइयाँ, गोहाँ; साथी, मित्र, खेल में अपने पक्ष का खिलाड़ी; सखि, सहेली; प्रेमिका) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.29)
192 गोड़परी (ढेर कहनय-सुननय आउ गोड़परी के बाद मिसिर जी अप्पन एगो दानापुर के दोस्त मेजर रमायन सिंह के नाम चिट्ठी देके ओकरा भेज देलन ।) (मपध॰02:10-11:33:2.20)
193 गोतिया-नैया (= गोतिया-नइया) (चाचा तो ओकरा कुलछनी नाम से पुकारो हलन । गोतिया-नैया कोय आवे सबके सामने पारवती के चाची ओकरा हजार बार कोसो हलन ।) (मपध॰02:10-11:44:3.12)
194 गोलिआना (= गोलियाना; अ॰क्रि॰ गोल होना; स॰क्रि॰ गोल बनाना) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.18)
195 गोवाह (= गवाह; साक्षी) (सुभदरा कहलक - तू ऊ गुंडा के पहचानऽ हऽ जे हमरा जउर गुंडई कइलक हे । हम तोरे गोवाही बनइवो । चपरासी कहलक - हम गेस्ट हाउस के एगो मामूली कर्मचारी ही । तू तो जानऽ हऽ कि अपराधी लोग गोवाह के ही हत्या करके सच्चाई के छिपा ले हथ ।) (मपध॰02:10-11:39:1.22)
196 गोसा (= गोस्सा; गुस्सा) (एतना कहते-कहते ऊ हमर गालो छू देलका । हमरा बड़ी गोसा भेल, पर की करूँ, चुपचाप बैठले रहलूँ ।) (मपध॰02:10-11:22:1.8)
197 घरइतिन (= गृह-स्वामिनी, मालकिन) (अपन रमचरना हो नऽ, ओकरा से फुलमतिया के बिआह कर लऽ अउर चैन से सुतऽ । तू भाय अउर दोस दुन्नु हऽ । हम्मर तोहर दुअरा के ऊँचाई भी बरबरे हे । घरइतिन सबके मिजाज भी कोई फरका न हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.8)
198 घाठी (= गर्दन के नीचे-ऊपर रखे दो लाठियों के बीच दबा कर हत्या करने का तरीका; गोला-लाठी) (~ देना) (तोरा बेटा मान के पालली-पोसली । पखेरू होएलें तो बिआह करवली । मेहरी अएते अलगे हो गेलें । मुँह फुलवले चलऽ हें । निमकहराम कहीं के । सिंगरिया के हम घाठी दे देई, तबे तोर कलेजा होएत ठंढा ?; एगो तो अइसनो सवाल कएलन कि पंच के दवाब में ऊ सिंगारो के लिवा जाए अउ साल-छव महीना में घाठी दे दे । मार दे तो पंच भले ओकरा फाँसी दिवा देथ, लेकिन बेटी से हाथ तो धोइए देब अपने ।) (मपध॰02:10-11:28:2.3, 3.9)
199 घीउ (= घी) (अब सवाल हे जोग लइका ढूँढ़ना बाकि दाँव-पेंच ओला ई दुनियाँ में जोग लइका ढूँढ़ना ओतनै मुस्किल जेतना डालडा से भरल बजार में खाँटी घीउ । लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज ।) (मपध॰02:10-11:41:1.30)
200 घुचघुच (~ आँख = छोटी या लिबड़ी आँख) (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.8)
201 घुचघुचाना (= दुविधा में पड़ना; आँख मटकाना; चकित होना) (जतरा देख के बहरैलन वर ढूँढ़े ले । साथ वीगनो हल । पहुँचलन दीपक बाबू के कोठी पर, फूल-पत्ती से सजल-सँवरल । एगो कार भी दुआरी के सोभा दे रहल हल । तड़क-भड़क देख के भगत बाबू के मन फूल पर के भौंरा बन गेल । दाखिल भेलन वकील साहब के सिरिस्ता में । आहट पाके नजर उठौलन ऊ । चस्मा के भीतर से उनकर घुचघुचाइत आँख में बाघ के रोब अउ बिलाय के लोभ झलक गेल ।) (मपध॰02:10-11:41:3.5)
202 घुज्ज (~ अंधरिया) (सुभदरा उतरवारी कोठरी में चल गेल आउ फोन से बाबू जी के सूचना देलक कि बारिस के चलते हम गेस्ट हाउस में ठहरल ही । हियाँ असुरक्षित ही । घर पहुँचावे ला कउनो सवारी न हे । हम घुज्ज अंधरिया रात में अकेले कउनो हालत में न आ सकऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:39:2.4)
203 घुड़मुड़ियाना (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । ... भुखले पेट पियासले कंठ ऊ नेवारी में घुड़मुड़िया गेल । ओकरा कखने नीन आयल केकरो पता नञ् ।) (मपध॰02:10-11:31:2.9)
204 घोंच (= तिर्यक्, तिरछा) (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.8)
205 घोघसना (अठवारा लग गेल । चमारी खेत दने से लउटल आ रहल हल । अइसे गुजरते ऊ अनभो कयलक कि कोय कहँड़ रहल हे । ऊ दउड़ के भिरी गेल । देखलक त राम उद्गार बाबू हथ । सउँसे देह में खून छलछलाल हल । मुँह घोघसल । अंगे-अंग चूरल ।) (मपध॰02:10-11:48:1.39)
206 चउठारी (- विवाह के चौथे दिन वर और वधू के घर में होने वाली पुजाई आदि का आयोजन) (ससुरार में चउठारी बीत गेल । तइयो मरद के दरसन न भेल । सिंगारो सोचलक कि घर में एतना भीड़-भाड़ में लाजे न आएल होएतन, बाकि पँचवाँ दिन खिड़की से दाई के साथ उनकर लीला देखते मन में शंका भेल ।) (मपध॰02:10-11:25:3.3)
207 चकैठ (= बलिष्ठ, मजबूत; मोटा-ताजा) (माय-बाप इंदरलोक में चलिये गेलन । गोड़बंधन जोरू-जाँता नहिये हे । तब काहे न देस के सेवा करल जाय । हम पढ़ाय-लिखाय में तो चिठिए-पाती भर लेकिन देह-दसा ठीक हे मलेटरी के लायक - एकदम मुस्तंड-चकैठ ।; "अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:32:3.18, 33:2.17)
208 चचा-भतीजा (बगदू सिंह हार गेलन । आखिर मान गेलन कि सिंगारो के भाग में एही बदल हे । साल-दु-साल पर चचा-भतीजा में सिंगारो के सवाल पर कहा-सुनी होइए जा हल ।) (मपध॰02:10-11:28:3.21)
209 चट्टी (= लकड़ी का चप्पल; चटाई; टाट की आसनी, चट्ट) (हुलास दुआरी पर बइठल हलन । चट्टी पर । हरखू अइलन अउर गत्ते से जम गेलन । हरखू एतना गत्ते से कहिओ न जमऽ हलन । ऊ दाहड़ो के बखत चर-फर हलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.20)
210 चरखानी (हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:3.4)
211 चरचराना (दू-चार धक्का में केबाड़ी चरचराय लगल । केबाड़ी खुलल त सब सन्न रह गेलन । राम उद्गार बाबू गारा में गमछी लगा के बड़ेंड़ी से झुल गेलन हल । उनकर जीन बित्ता भर बाहर निकल गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:48:3.11)
212 चर-फर (= तेज-तर्रार, फुरतीला, बहुत बोलने वाला, जल्दी में काम निपटाने वाला) (हुलास दुआरी पर बइठल हलन । चट्टी पर । हरखू अइलन अउर गत्ते से जम गेलन । हरखू एतना गत्ते से कहिओ न जमऽ हलन । ऊ दाहड़ो के बखत चर-फर हलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.23)
213 चलती (= प्रभाव; मान-मर्यादा, प्रसिद्धि, मान्यता) (हमरे घर के बगल में एगो इंजिनियर हे । नाम हे रमेश । साधारन परिवार के हे । मगर आझकल ओकरे चलती हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.17)
214 चापाकल (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.33)
215 चाल (= पुकार, आवाहन) (बाबा फेन से ताला लगा देलका, अउ कहलका - "अइहँऽ तउ चाल कर दीहँऽ ।" हम कहलूँ - "अच्छा बाबा, चाल देवोतब्बे खोलिहऽ ।") (मपध॰02:10-11:22:3.19, 20)
216 चिंचियाना (= चेंचियाना) (मइया गे मइया ! कसइया हमरा मारिए देलक । बाबू हो बाबू ! हमरा बचाबऽ ! - ई हिरदय विदारक दिरिस हल । कपार से लछमिनियाँ के खून बह रहल हल । केहुनी फुट्टल हल । लछमिनियाँ एकदम्मे बदहवास ! चिंचिया रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:18:2.12)
217 चिट-पुरजी (सोनियाँ अप्पन सोभाव से सबके मन लुभौले रहऽ हे । ऊ सुत्थर तो हे अइसन जइसे इन्नर के परी रहे अउ लुर-बुध में तऽ सरसतिये जी । गाँवे के बगल में सिसवाँ हाई स्कूल से मैट्रिक फस्ट डिविजन में पास कइलक ऊ भी सहर के इस्कूल में बेगर कोय चिट-पुरजी के इम्तिहान दे के ।) (मपध॰02:10-11:41:1.19)
218 चिट्ठी-पतरी (ऐसे हमरा पता हे कि ई हाइ-टेक जुग में चिट्ठी-पतरी के चलनसार उठल जा रहल हे । कय अदमी तो पोसकाड लिखना तौहीन मानऽ हथ ।) (मपध॰02:10-11:4:1.20)
219 चिट्ठी-पाती (माय-बाप इंदरलोक में चलिये गेलन । गोड़बंधन जोरू-जाँता नहिये हे । तब काहे न देस के सेवा करल जाय । हम पढ़ाय-लिखाय में तो चिठिए-पाती भर लेकिन देह-दसा ठीक हे मलेटरी के लायक - एकदम मुस्तंड-चकैठ ।) (मपध॰02:10-11:32:3.15-16)
220 चिड़ारी (= चिड़ार; चिता, सारा; मरघट, शमशान, जरही) (ओकर माय रोज सुबह-साँझ चिड़ारी के दुआरी पर खड़ा रहऽ हल । पता नञ् काहे रजेंदर के अप्पन घर के देवाल काटे ले दौड़ऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:1.11)
221 चिन्हास (= चिन्हा; चिह्न) (ओही हरखू हथ जे गाय मरला पर छँइटी भर तसल्ली देके उनखा हिम्मत के थूम पर अटकइले रहलन जब तक ऊ जगह न लेलक । ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल ।) (मपध॰02:10-11:36:3.28)
222 चिपरी (= पाथे हुए गोबर का खंड, गोइठा; गोइठा जिसपर आग सुलगाई जाती है) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:2.2)
223 चिरँई (= चिड़िया) (चपरासी बोलल - जउन घड़ी तू अइलऽ हल, ऊ घड़ी गेस्ट हाउस में एगो चिरँई भी न हल । हमरा का मालूम कि ई बून-पानी में कउनो मेहमान आ जइतन ।) (मपध॰02:10-11:38:3.24)
224 चिरईं-चिरगुन (अब उ दिन बहुर के कब आवत । फूलन का के दुआरी पर बसल गाँव । करीम का के दुआरी पर बसल गाँव । धीरे-धीरे सिमट रहल हल । चिरईं-चिरगुन अपन घोसला, अपन ठीहा बनावे लगल ।) (मपध॰02:10-11:35:2.26)
225 चिरञ्-चुरगुन (लपकल भागल गुलबिया अप्पन गाँव दने दौड़ल जाइते हल कि पौ फट गेल । चिरञ्-चुरगुन अप्पन खोंथा से नीला असमान में रेस करैत, चीं-चीं कर रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:20:1.3)
226 चिलोही (फेन बाबा चिलोही, आलू, सींभ अउ कच्चा मरीच दे गेला । चार जौ रसुन भी हल । हम कहलूँ - "अञ् बाबा ! रसुनो खा हो ? साधु-महात्मा की तो गरम चीज नञ् खा हथ ।") (मपध॰02:10-11:22:1.30)
227 चीन्हना (दे॰ चिन्हना) (सब कहे - खैर, पुजेरी बाबा धरमात्मा हलथिन, उनखा कुछ नञ् होलइ । पुजेरी बाबा कहथ - ई सब भगमान के जाचना हे बाबू । भला यहाँ की रक्खल हलइ हमनी साधू-संत हीं । मुदा कहलो जाहे - चोरो चीन्हे बीहन के धान, अउ बाघो चीन्हे बरहामन बच्चा ।) (मपध॰02:10-11:24:3.14, 15)
228 चुक्को-मुक्को (साव के दुकान से बत्ती के रोसनी में रमचरना के मुठान देखल जा सके हे । उ चुक्को-मुक्को एगो छोट चटाई पर बैठल हे । ओकर आँख के लंफ में तेले कम गेल हे । अस्सी बरस तो ओकर उमीर होत ।) (मपध॰02:10-11:34:1.22)
229 चुटकियाना (= चुटकी से मलना) (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:36:2.26)
230 चुरू (= चुल्लू) (बाप के नाम अउर हैसियत के बात सुनके सिंगारो के आग लेस देलक । ऊ काबू से बाहर हो गेल । आवाजो बेकाबू हो गेलइ - "हाँ, पता लगावे ला चाहऽ हलइन हमरा बाप के कि खनदानी हे कि खानगी ? सिरिफ दौलत वाला हे कि कुकरमी ? रखेलिन रखऽ हे कि न ? चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?" - "का बोलले ? चुरुआ भर पानी ? चार पोरसा पानी हे अबहीं कुइयाँ में । चल देख, चार पोरसा ... पानी ... हे अबहीं ।") (मपध॰02:10-11:27:2.10, 13)
231 चुल्हानी (= चुहानी; चूल्हे के पास का स्थान, रसोई घर, चौंका; घर की भीतरी कोठरी) (कउन पाप कएले हे ऊ कि तोर नाक कटे लगल समाज में ? फिर कटते हउ तो घुसल रह चुल्हानी । सिंगरिया तो चुल्हानी अउ बधारी दुनो सम्हारइत हे । हमरा खातिर वो ही बेटी, वो ही बेटा हे ।) (मपध॰02:10-11:28:2.9, 10)
232 चेतउनी (= चेतावनी) (ऊ केकरो से बतिअइलन न । ऊ एकरा चेतउनी नियन बुझलन । ऊ सोंच लेलन कि खर के घर में लुत्ती लगला पर आग के का बिगड़त । जब ला कोई इनार में डोल डालत तब तक त घरे राख हो जात ।) (मपध॰02:10-11:36:3.9)
233 चेस्टर (= अं॰ ब्रा, bra) (वकील साहब - तोहर कमर से सलवार कइसे ससरल, चेस्टर कइसे खुलल, ओढ़नी कइसे गीला भेल ? - सुभदरा - ई सब आनंद के करतूत हल ।) (मपध॰02:10-11:40:2.11)
234 चोर-चिहार (= चोर-चिल्हार) (बाप रे बाप ! कौन जमाना आ गेल कि मंदिरो ठकुरवारी के नै छोड़े सब चोर-चिहार । बेचारा पुजेरी जी रात भर रहला गड़मोगली लेले ।) (मपध॰02:10-11:24:3.2)
235 चौगिरदी (= चारों तरफ) (देखऽ ही गोरनार बाइस-तेइस बरिस के लइकी हे । गोल मुँह । सलवार-सूट में । कंधा के चौगिरदी ओढ़नियों । मुसुक-मुसुक के बतिअइले हे ।) (मपध॰02:10-11:16:2.1)
236 छँइटी (= छइँटी; टोकरी) (ओही हरखू हथ जे गाय मरला पर छँइटी भर तसल्ली देके उनखा हिम्मत के थूम पर अटकइले रहलन जब तक ऊ जगह न लेलक । ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल ।) (मपध॰02:10-11:36:3.24)
237 छउँड़ा (= छौंड़ा; बेटा, लड़का) ("से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:46:3.4)
238 छट्ठी (जब दुलरिया होल तो छट्ठी धूम-धाम से होल । ने अप्पन घर के कोय समांग, न ओक्कर घर के । खाली पास-पड़ोस आउ का ।) (मपध॰02:10-11:16:3.34)
239 छहुरावन (= छहुरामन) (एही एगो जुआन बेटा हो । ई संगे जइतो । कहिओ हमरा अकेले न छोड़लको । बराबर आँख के पुतली के सिरकी से तानले रहलो । झप न करे देलको । पानी से भींगे न देलको । सउँसे गरमी में, बादर के छहुराबन के, माथा पर टंगल रहली । का कहिओ ! अजगुत हो ई । कहिओ दोसर के अलम हम न लेली ।) (मपध॰02:10-11:34:1.12)
240 छाड़न (कोय काम पड़े पर ऊ रजेंदर के बोलावऽ हलन अउ नौकरी पर गया जाय घड़ी रात-अधरात, भोर-भिनसरवा रजेंदर उनका समान के साथ हिसुआ पाँचू चाहे तिलैया टीसन पहुँचावऽ हल । मिसिर जी गया में पढ़ावऽ हलन आउ अपन नया, पुरान-धुरान छाड़न सब रजेंदर के परिवार के दे हलन ।) (मपध॰02:10-11:31:3.23)
241 छिछियाना (लड़ाय-झगड़ा होबऽ हल । कधियो दु-चार थप्पड़ मारियो देलक । नीसा टुटे पर माफिओ माँग ले हल । फिन मेल-मिलाप । सोंचऽ हली - मरद जात, दूगो पइसा ला एन्ने-ओन्ने छिछियात चलऽ हे । थक जा होत तो का करत ?) (मपध॰02:10-11:17:1.7)
242 छिजना (हुलास-हुलासी मरल-टूटल न हल । खाय जुगुत ओकरा सब-कुछ हल । दुआर पर एगो गाइयो हल । ओकरा ऊ लछमिनिया कहऽ हल । ओकर दोसर बिआन के बखत रमरतना जनम लेलक हल । दुनुँ साँझ में पाँच सेर दूध उ करऽ हल । से हुलास-हुलासिन के संतोख के उ कभिओ छिज्जे न देलक ।) (मपध॰02:10-11:34:3.5)
243 छित्ति-छाँय (= छित्ति-छान) (हम अपन बाबू के पगड़ी बचावे ल ई सब करते-धरते ही । नञ् त आज हमरा सो-पचास रुपइया ले भी छित्ति-छाँय नञ् होवे पड़त हल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.1)
244 छिरिआना (= अ॰क्रि॰ तितर-बितर होना; स॰क्रि॰ तितर-बितर करना) (अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक । धेयान तोड़ के दोकान के भीतर जाय लगल त नजर नीचे गेल, ओकर गेंदरा सुपती पर छिरिआल हल । 'ओह ! ईहे ऊ बात के बंद करावे के कारन हे । एकरे गिरे के ढब सन अवाज दुनहुँ के कान तर चल गेल होत ।' ऊ मन मसोस के रह गेल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.3)
245 छुटहा (= छुट्टा) (~ साँढ़) (ओहनी के गरज हल कुँवार रहे से कुल के इज्जत माटी में मिल जाएत । एहनी के भरम हइन कि छुटहा साँढ़ जुगा थामत । पता लगावे के काम हल तोर बाप के । पचास बिगहा के जोतनियाँ, बनिहार के हैसियत वाली लड़की काहे लेत ।; तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।) (मपध॰02:10-11:27:1.35, 28:1.10)
246 छूत-छात (तूँ सब हमनी के चोर समझऽ हो, मुदा हमनी चोर नञ् ही । हम समानता चाहऽ ही, चोर तूँ हऽ जे सब के ठग रहला हऽ अउ समाज में छूत-छात, ऊँच-नीच अउ जात-धरम के नाम पर भेद बढ़ा रहला हऽ ।) (मपध॰02:10-11:23:3.18)
247 छो-पाँच (~ करना) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.14)
2 अँकवारी (= अकबार) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?") (मपध॰02:10-11:23:2.34)
3 अँकुरना (सरकार, अपने के सिखउनी के बीज अँकुर के पौधा बन गेल हे, अब हमरा केकरो से पूछे के नञ् हे ।) (मपध॰02:10-11:33:1.15)
4 अँचरा (= आँचल) (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.14)
5 अँजुरी (= अंजुरी) (हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।) (मपध॰02:10-11:21:3.24)
6 अंगेआ (= भोजन करने का निमंत्रण; भोजन; खाने की सामग्री; लड़की की बिदाई के पूर्व उसे सगों द्वारा भोजन कराने का प्रचलन; गर्भवती को वस्त्रादि के साथ भेजा जाने वाला पकवान) (ऊ खिसिया के जवाब देवे - "उनकर खेती हइन तो उनका हिंआ चार गो मुस्टंडो हथी । तोर हिम्मत हउ उनकर खेसारी-मसुरी नोचे के ? पकड़एला पर साथे जाहें मकई के खेत में । हमरा पढ़ावे के कोसिस मत कर । जेतना सतभतरी हथ, सबके कुंडली हमरे पास हउ । कौन हे हमर घर में गे, जे देखत ? खेतवा न अगोरब तो एको दाना पहुँचे देवे घर में ? बिहान तोरे हीं अंगेआ होएत का ?") (मपध॰02:10-11:28:1.7)
7 अंधड़ (= आँधी) (हम उनखनी के बात सुन रहली हल । मन में गोस्सा के अंधड़ उठ रहल हल । - साला गोपला !) (मपध॰02:10-11:17:1.33)
8 अंधरिया (= अन्हरिया; अँधेरा) (घुज्ज ~) (सुभदरा उतरवारी कोठरी में चल गेल आउ फोन से बाबू जी के सूचना देलक कि बारिस के चलते हम गेस्ट हाउस में ठहरल ही । हियाँ असुरक्षित ही । घर पहुँचावे ला कउनो सवारी न हे । हम घुज्ज अंधरिया रात में अकेले कउनो हालत में न आ सकऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:39:2.4)
9 अइसहीं (= ऐसे ही) ("कहाँ मिलतन अभी, उहँय जा ही ।" - "अइसहीं ! बिना सरबत-पानी पीले ?") (मपध॰02:10-11:42:1.30)
10 अइसीं (= अइसहीं; ऐसे ही) (हमरा हाँथ में पैसा तो नञ् रहे, मुदा बाबा आरती लेले ढेर देरी हमरे भिर खाढ़ रहला । लगे कि ऊ हमरो आरी उतार रहला हऽ । हम कहलूँ - बाबा हमरा जिम्मा पैसा नञ् हे । बाबा बोललका - कोय बात नञ् हे, अइसीं ले ले ।) (मपध॰02:10-11:21:3.20)
11 अउनय-जउनय (=अनय-जनय; आना-जाना) (घर-परिवार कौलेज के काम में लग जाय पर उनकर दिमाग से ई बात एकदम घसक गेल कि रजेंदर कि करइत हे, कन्ने हे, दानापुर जाय पर सेना में ओकर भरती भेल कि नञ् । काहे कि गाम अउनय-जउनय कम, चाहे तो एकदम नञ् मिलऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:33:2.29)
12 अकचकाना (= आश्चर्यचकित होना) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल ।; "नञ् चचा, ऊ बात नञ् हे । हम इमसाल तोर पूरा पैसा दे देवे चाहऽ ही ।" चमारी के अकचका के देखे लगलन राम उद्गार बाबू । फेर हड़बड़ा के बोललन - "अरे रहे दे बेटा ! तूँ भागल थोड़े जा रहले हें ।") (मपध॰02:10-11:46:2.15, 47:3.26)
13 अकसरे (= अकेले) (अब गुलबिया के घर आ गेल । गुलबिया माय बकड़ी बाँधे बाध जा रहल हल कि बेटी के देखते खुसी से झूम गेल । अउ बेटी के गियारी लगावैत बोलल - "एते सबेरे अइलहीं बेटी !" - "भिनसरे चललूँ हल ।" - "अकसरे अइलहीं हे ?"; चपरासी पहुँचा देलक दुन्नो के ऊ कमरा के टेबुल पर जहाँ कुरसी पर अकसरे कुमार वैभव किरानी बाबू फाईल से मुँह पर मच्छी हौंक रहलन हल ।) (मपध॰02:10-11:24:2.16, 42:2.35)
14 अकानना (= ध्यान से सुनना) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल । चमारी अकानलक - 'ई अवाज तो राम उद्गार बाबू के हे ।' झटे दुआरी के बहरे एगो पाया में पीठ आउ मोखा से माथा टिका के भीतर के बात सुने लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.18)
15 अकुलाना (सगरो गुम-सुम । चलती के पंचम सुर पर बजइत सितार के जइसे सभे तारे झनझना के टूट गेल हे अचक्के । सरोजवा के माय निकस के अयलन अंगना में । पूछलन - "का रे सरोजवा, एत्ते अकुलायल हें काहे ?") (मपध॰02:10-11:43:1.36)
16 अखनी (= अभी; अखनिएँ = अभी ही, अभी-अभी) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.27)
17 अखने (= अखनी; अभी, इस समय) (मगज ओझराय लगल चमारी के । गेंदरा उठइलक आउ "पैसा अखने नञ् देवो साव जी ।" कह के खेत दने चल पड़ल ।) (मपध॰02:10-11:47:2.23)
18 अगदेउवा (= लाश को मुखाग्नि देनेवाला; कर्ता; अगदेऊवा, अगदेउआ) (सराध-संस्कार में सब परिवार जुट गेल हल । पाँच गो बेटी, चार गो दमाद, दरजन भर नाती-नतिनी । भगवान उनका बेटा देले न हलन । ई से आग देवे के सवाल पर बखेड़ा होए लगल । दमाद चुप्पी साध गेलन । नाती छोट-छोट हलन । सिंगारो सामने आ गेल - " अगदेउवा बनब हम । इनकर जिनगी पार लगएली तो लासो पार लगाएब ।"; अरथी सज के तइयार हल । सिंगारो के डरे दमाद सब चुप हलन । गाँव के बढ़वन खातिर अगदेउवा के फेसला लेल जरूरी हल । उधेड़बुन अउर सिसकन के बीच सिंगारो के माय के मुँह से अगदेउवा के नाम निकलिए न रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:30:1.20, 2.14, 17)
19 अगोरिया (= अगोरने वाला, देख-भाल या रखवाली करने वाला) (हमरा बुझा हे कि ई पुजेरी पुजेरी नञ्, खाली ठकुरवारी के अगोरिया अउ ठकुरवारी के धन के भोगताहर हे ।; दुश्मन के हवाई जहाज हम्मर सीमा में घुस के बम गिरा के भाग गेल । एकरा में मवेसी-मानुस के नुकसान नञ् भेल, लेकिन चार-पाँच गो धान के खरिहान भूँजा अइसन पटपटा गेल आउ एगो अगोरिया, दूगो कड़रू-भैंस जिंदे अगिन देवता के बलि पड़ गेल ।) (मपध॰02:10-11:23:1.32, 31:1.21)
20 अचक्के (= अचोक्के; अचानक) (अचक्के के जोर से बादर गरजल, घुप्प अन्हार फैल गेल आउ दू गो मजबूत हाथ सुभदरा के अपना दने खींच लेलक ।; सगरो गुम-सुम । चलती के पंचम सुर पर बजइत सितार के जइसे सभे तारे झनझना के टूट गेल हे अचक्के ।) (मपध॰02:10-11:38:3.4, 43:1.33)
21 अछते (= छइते; रहते, के होते हुए) (पाप छिपऽ हे भला ? इनकर बाबूजी के जिनगी अछते कोई बेलगाम न हल । उनका गुजरते माय के दुलार सबके बिगाड़ देलक । ई सबसे छोट हथ, इ से सबसे ज्यादे साँढ़ हो गेलन ।) (मपध॰02:10-11:26:2.20)
22 अछरंग (= कलंक, दोष; छींटाकशी; लांछन) (सुभदरा - वकील साहब ! हम्मर जरल देह पर नून मत रगड़ऽ । ई आरोप झूठ हे । हम्मर चाल-चलन पर अछरंग मत लगावऽ ।) (मपध॰02:10-11:40:2.8)
23 अठवारा (अठवारा लग गेल । चमारी खेत दने से लउटल आ रहल हल । अइसे गुजरते ऊ अनभो कयलक कि कोय कहँड़ रहल हे । ऊ दउड़ के भिरी गेल । देखलक त राम उद्गार बाबू हथ । सउँसे देह में खून छलछलाल हल । मुँह घोघसल । अंगे-अंग चूरल ।) (मपध॰02:10-11:48:1.33)
24 अद्धी (रमपुकरवा, जेकरा तू जलम देलऽ, पाललऽ, पोसलऽ ! ऊ ससुर एगो अद्धी नञ् देलको होत जिनगी में । बकि हम तोरा सात बरिस में अस्सी मन से उप्पर गल्ला दे चुकली हे । ऊ भी सिरिफ दू हजार रुपइया चुकवे लऽ ।) (मपध॰02:10-11:48:1.11)
25 अधबएस (= अधवइस) (तनिको संदेह होएला पर उकटा पुरान करे वाली ई सिंगारो जनम से अधबएस होवे तक एही गाँव में माथा ऊँच करके रहल हे जेकरा पर दाग के एको छिंटा न हे ।) (मपध॰02:10-11:25:2.9)
26 अधसुक्ख (हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:3.1)
27 अनकट्ठल (फुलमतिया के जुआनी बैसाख के नदी नियन अपन पाट छोड़ के सिकुड़ गेल । अनकट्ठल सपना में ऊ सबके झोंके न चाहे हे । ओकरा अप्पन खबर हे । बाकि ऊ का कर सके हे । जिनगी, लावा-फुटहा त न हे, जे जहाँ-तहाँ गिरल त गिरल । जी जाँत के ऊ रतन से अप्पन आँख मोड़े लगे हे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.32)
28 अनकहल (जब घर के मेहरारू अनकहल हो जाहे बेटा, त अदमी के अपन इज्जत के खेयाल खुद करे के चाही । मुँह लगइला से खराबिए होवऽ हे । ओकर बदमासी हँटावे के एक्के दबाय हव - तूँ घर के चिंता ओकरे पर छोड़ दे ।; ई बनियाँ, ससुर दमड़िया ! हमर मेहरारू के अनकहल कह रहल हे, सिरिफ अप्पन सोआरथ ले कि हमरो मेहरारू एकरा हीं सेर के अनाज पाव में बेचे ।) (मपध॰02:10-11:47:2.8, 34)
29 अनदेसा (= अंदेशा) (उधेड़बुन अउर सिसकन के बीच सिंगारो के माय के मुँह से अगदेउवा के नाम निकलिए न रहल हल । देरी होए के अनदेसा में पंच लोग उनकरा घेरलन - "का चहइत ही लास हिंआ पड़ल रहे ? बगदू बाबू के आत्मा के खेआल करूँ ।") (मपध॰02:10-11:30:2.18)
30 अन-धन (= अन्न-धन) (जेकर छप्पर पर फूसो न हे ऊहो लाखे से बात करऽ हे । बकि ओकर फिकिर मत करऽ । अन-धन से भरल घर में बस एकसरुआ लछमी आत । जे पान-फूल चढ़त से ओकरे पर ।) (मपध॰02:10-11:42:1.5)
31 अनभाँत (= अजनास, अनखा) (बगदू सिंह के राह चललो मोसकिल हो गेल । जात-भाई ताना मारे लगलन - अनभाँत के हे इनकर बेटी । दिमागे असमान पर रहऽ हइ । भरल पंचइती में मरद के पानी उतारेवाली । ई साँढ़िन के गुजर ससुरार में होतइ भला ?) (मपध॰02:10-11:29:3.32)
32 अनुभो (= अनभो; अनुभव) (हमनी सब तीन तरह से जिनगी के अनुभो पावऽ ही । एगो तो अप्पन जीवन में जे घटना घटे हे, ओकरा से सीखऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:44:1.2)
33 अन्हार (~ कुइयाँ; ~ गली; ~ फैलना) (ई अवाज से एकदम विलगे अवाज हल सिंगारो के । एक बार फिर अन्हार कुइयाँ में ओकरा ढकेल देल गेल । अबरी ओकरा बचावे खातिर कोई आगे न आएल । जौन माटी के अपन समझ के रहल, उ माटी ओकर दरद से न दरकल, न फटल ।; गेस्ट हाउस के अनेक कर्मचारी ऊँच घराना के गुमराह लड़की के जिनगी अन्हार गली में नौकरी के लालच देके ढकेल देलन हल ।; अचक्के के जोर से बादर गरजल, घुप्प अन्हार फैल गेल आउ दू गो मजबूत हाथ सुभदरा के अपना दने खींच लेलक ।) (मपध॰02:10-11:30:3.31, 38:2.30, 3.5)
34 अन्हेरिया (= अन्हरिया; अँधेरा) (अप्पन दुआर पर बैठल-बैठल रमचरना यही गुन रहल हे । साँझ जाड़ा के मटिआ गेल हे । एगो कुहा जइसन । घोर अन्हेरिया । सब अप्पन दुआर पर लंफ-बत्ती कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:34:1.19)
35 अबहियो (= अबहियों, अभियो; अभी भी) (हिम्मत से काम ले चाची, अबहियो कुछ न बिगड़ल हे ।; "से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:43:3.1, 46:3.7)
36 अमनियाँ (= अवनियाँ; व्रतादि में उपयोग की सामग्री; साधु-सन्यासी की रसोई; पक्की रसोई, अनसखरी) (ओकर बाद पुजेरी बाबा रसोय बनावे ले आग जोरे के तैयारी करे लगला, अउ हमरा हँकावैत कहलका - "अगे मइयाँ, आउ तो, तनी साग तो अमनियाँ कर दे ।"; हम कहलूँ - अलुआ काटे ले कहऽ हो बाबा ? बाबा बोलला - "हमनी साधू-संत काटे मारे नञ् कहऽ हूँ । हमनी सब्जी काटे के अमनियाँ करना कह हूँ अउ सब साग-सब्जी के सागे कहऽ हूँ । समझलहीं मइयाँ ?") (मपध॰02:10-11:22:1.19, 26)
37 अरबराना (= चलने या बोलने में लड़खड़ाना; उतावला होना; घबड़ाना) (रमचरना के बाप हुलास अउर माय हुलसिया जब खेत-बथान में काज पर लगल रहइ त रमचरना अरबरा के चलऽ हल, लोघड़ा के खड़ा हो जा हल । एकदम्मे नंग-धड़ंग ।) (मपध॰02:10-11:34:2.27)
38 अलम (= अवलम्ब, सहारा, आश्रय; भरोसा; विश्राम) (एही एगो जुआन बेटा हो । ई संगे जइतो । कहिओ हमरा अकेले न छोड़लको । बराबर आँख के पुतली के सिरकी से तानले रहलो । झप न करे देलको । पानी से भींगे न देलको । सउँसे गरमी में, बादर के छहुराबन के, माथा पर टंगल रहली । का कहिओ ! अजगुत हो ई । कहिओ दोसर के अलम हम न लेली ।; जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल । जेकरा पर अलम हल ओहु बेअलम हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:34:1.14, 35:1.4)
39 अलावे (= अलावा) (दोसर दिन ठीक दुपहरिया में राम उद्गार बाबू के दूरा भिजुन ढेर आलम जुट गेल । चमारी जइसन दसो अदमी भी हुआँ हइलन हल जे राम उद्गार बाबू के करजदार हलन । एकर अलावे दर्जनो पंच आउ गाँव के सेंकड़ो लोग ।) (मपध॰02:10-11:48:2.35)
40 अलोपना (= गायब होना; दिखाई न देना; अनुपस्थित रहना) (दोसर दिन पंचाइत लगल । सब अइलन बकि राम उद्गार बाबू अलोपल हलन । पंचाइत कबड़ गेल । पंच घर चल गेलन ।) (मपध॰02:10-11:48:1.26)
41 अस-बस (~ हो जाना) (जब अप्पन दुआरी पर लउटे के होल त ओकर गाय के रोग ग गेल । ओकर पेट फुल गेल हल । पाघुर करवे न करे । ओकर मिजाज अस-बस हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:36:2.10)
42 असराफ-बड़हन (गाम के पढ़ल-लिखल असराफ-बड़हन आदमी भी ओकरा पेयार दे हलन । अप्पन पास बैठा के दु-चार गो गलबात कर ले हलन ।) (मपध॰02:10-11:31:3.10)
43 असलोक (= श्लोक) (हल तो वइसे ऊ चिट्ठी-पतरी भर पढ़ल हरिजन लेकिन ओकर बात-विचार रहन-सहन में एगो अलगे संस्कार के झलक मिलऽ हल । दु-चार गो संसकिरित के उलटा-पुलटा असलोक भी ओकरा कंठस हल, बले ओकर अरथ ऊ नञ् जानऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.7)
44 असान (= आसान) (उमीर के तकाजा के इनकार कइला असान न हे । अदमी के जिनगी पानी के बूँद न हे जे धरती पर गिरल त उहें समा गेल । पानी पर गिरल त उहें मिल गेल । ई त पूरा एगो इंगोरा हे । ठौर पाके कुठौरो जनम जाहे ।) (मपध॰02:10-11:36:1.22)
45 असीरवादी (= आशीर्वाद) (एगो बोलल - "बुतरू बाल नञ् होलउ हऽ कि जे बाबा से असीरवादी लेवे अइलहीं हल ?" हम कलपैत बोललूँ - "हम बड़ी गरीब दुखिया ही, हमरा छोड़ दे भइया ।") (मपध॰02:10-11:23:1.5)
46 असुल (= असूल; वसूल) ("अरे सार बनियाँ ! तूँ तो अइसे बोले हें जइसे चमरिया तोर बाप हउ । ... जइसे तूँ धरम के पंडित हें ।" ई राम उद्गार बाबू के अवाज हल । - "उद्गार चा, चमरिया तो ससुर बुड़बक हइ । एक बरिस के आधो गल्ला ऊ जदि बेच दे त तोर करजा असुल हो जाय ।" मुनाकी रोस में बोलल हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.26)
47 असुलना (थैली में चमारी के साथ-साथ ऊ सब के एकक पैसा गिन के रख देली हे जे हम नजायज असुलली हल ।) (मपध॰02:10-11:48:3.27)
48 आँञ् (= अयँ, अईं) (आँञ् गे लछमिनियाँ, तोर बाबू के एहू पता नञ् हल कि गोपाल पहिलहीं से बिआहल हे ?) (मपध॰02:10-11:16:3.14)
49 आँटी (खुलल अकास के नीचे चारो तरफ नेवारी के आँटी अउ गोलियावल धान के ढेरी के बीचो बीच ओकर मड़इ हल, जेकरा में अप्पन ई चार ठो संगी-साथी गोतिया माय के साथ उ रात में सुतऽ-बैठऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:1.26)
50 आई-माई (= आय-माय; परिवार और कुटुंब की स्त्रियाँ, गोतनी-नैनी) (बस देह तोड़ के कमाना अउ चादर तान के सोना । परिवार में बस तीन परानी - दू बेकती ऊ अउ एगो उनकर बेटी सोनियाँ । पास-पड़ोस के आई-माई से उनकर घर-आँगन गुलजार रहऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.10)
51 आगू-आगू (= आगे-आगे) (हम अप्पन नैहर के गाँव बता देलूँ सुदामा बिगहा । आगू-आगू मेठ अउ पीछू-पीछू हम लपकल बढ़े लगलूँ । कुछे देरी में हमर गाँव के सिमाना आ गेल ।) (मपध॰02:10-11:24:1.15)
52 आगू-पीछू (टेबुल पर दस-बीस गो नाम पढ़लन हल कि उनकर नजर पड़ल एगो चपरासी पर । ऊहो ओखनिए पर नजर टिकौले आगू-पीछू करइत हल । सचिवालय में ई खूबी हे कि उहाँ के चपरासी बाबू लोग, कोय-कोय हाकिमो मुल्ला के तलास में ओइसहीं चक्कर काटइत रहऽ हथ जइसे हरियर घास के तलास में साँढ़ ।) (मपध॰02:10-11:42:2.9)
53 आझकल (हमरे घर के बगल में एगो इंजिनियर हे । नाम हे रमेश । साधारन परिवार के हे । मगर आझकल ओकरे चलती हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.16)
54 आपरूपी (मूड़ी उठयली । यक्षिणी के एगो सवाल हल या हुकुम, नञ् कह सकऽ ही । आपरूपी हम्मर हाथ ओक्कर मूड़ी पर चल गेल । - हाँ, आझ से हमहीं तोर बाप ही आउ तों हम्मर बेटी ।) (मपध॰02:10-11:16:2.34)
55 आय (= आज) ("से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:46:2.34)
56 आरी (गुलबिया सिसकइत आरी पर बैठ के कहे लगल - "की कहिअउ बहीन, दुखिया गेल हल दुख काटे, तउ गोड़ गड़लय हल काँटा, ... ओहे हाल हमर होल । कल्हे हम झोला-झोली के घर से परदा के बहाने भागलूँ, मुदा बेलदरिया पर अइते-अइते ढेर साँझ हो गेल । ..."; हम एतना कहते बाहर अइलूँ अउ केतारी खेत के आरी पर बैठ के भर हिंछा पानी पी लेलूँ । काहे कि भुक्खल पेटा जोड़ से गड़ रहल हल ।; बोलला - "बड़ी देर कैलहीं मैयाँ ।" हम हकलाइत, थरथराइत बोललूँ - "हाँ बाबा, अरिया पर से गिर गेलूँ हऽ, एहे से तेज चलल नञ् जा हे ।") (मपध॰02:10-11:20:1.38, 22:3.22, 23:2.11)
57 आल-गेल (= आया-गया) (बिआह होल अउर रसे-रसे रामरतन के मन में ई पक्का हो गेल । बात आल-गेल हो गेल । रतन अप्पन संसार में मस्त रहलन अउर रामरतन अप्पन दुनिया में ।) (मपध॰02:10-11:37:1.27)
58 आवल-जाल (= आया-जाया) ("जी हाँ सर, कोय केस-मुकदमा त हल न कि दरसन देती हल ।" - "अइसहूँ आवल-जाल करऽ । जान-पहचान बनल रहऽ हे । ई के हथ ?" भगत बाबू पर नजर गड़ावइत पूछलन ।) (मपध॰02:10-11:41:3.13)
59 इंगोरा (उमीर के तकाजा के इनकार कइला असान न हे । अदमी के जिनगी पानी के बूँद न हे जे धरती पर गिरल त उहें समा गेल । पानी पर गिरल त उहें मिल गेल । ई त पूरा एगो इंगोरा हे । ठौर पाके कुठौरो जनम जाहे ।) (मपध॰02:10-11:36:1.26)
60 इग्गी-दुग्गी (ने मालूम कउन नछत्तर में डॉ॰ जितेंद्र वत्स अपन कहानी संग्रह के नाम 'किरिया करम' रखलन जे मगही साहित्य के झमठगर से झमठगर लिखनिहार भी एकर चरचा तक करना मोनासिब नञ् समझलन । तारीफ के बात तो ई हे कि इग्गी-दुग्गी लिखनिहार भी मगही कहानीकार के रूप में नाम अमर कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:9:1.7)
61 इज्जत (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.3)
62 इत्मिनान (~ से = आराम से) (बेटा, कल जिरा के परसूँ गलवा धर अइहें । हम थोड़े दिन ले काशी जा रहलिऔ हे कल ।" कह के इत्मिनान से राम उद्गार बाबू जाय लगलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.13)
63 इनर (= इन्नर; इन्द्र) (हे इनर देवता ! गिरावऽ बिजली, बज्जर गिरावऽ । पपिअन पर न सही तो हमरे पर गिरावऽ । भसम कर द एही खनी कि सभे हो जाए सोआहा ।; सिंगारो कोई इनर के परी न हलन । साधारण कद-काठी, साँवर रंग बाकि पानीदार, लुभावेवाला चेहरा, गरब भरल एक तरह से ।) (मपध॰02:10-11:25:1.12, 2.15)
64 इनरा (= इनारा; कुँआ) (पुजेरी बाबा हँसैत बोललका - "हाँ, हाँ, ठीके हे । ई सब कपड़ा-जेवर ले ले अउ इनरा पर जा के नहा-धो ले । ठकुरवारी में रहमाँ त बिना नहैले-फिचले !"; पुजेरी बाबा मुसकैत चल गेला । हम देवाल दने मुँह घुरा के कपड़ा बदले लगलूँ । पुजेरी बाबा इनरे पर ललटेन छोड़ देलका हल हमर सुविधा ले ।) (मपध॰02:10-11:21:2.4, 33)
65 इनार (= इनरा, इनारा; कुआँ) (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल ।; ऊ केकरो से बतिअइलन न । ऊ एकरा चेतउनी नियन बुझलन । ऊ सोंच लेलन कि खर के घर में लुत्ती लगला पर आग के का बिगड़त । जब ला कोई इनार में डोल डालत तब तक त घरे राख हो जात ।) (मपध॰02:10-11:34:3.31, 36:3.12)
66 इमसाल (= वर्तमान वर्ष) (नञ् चचा, ऊ बात नञ् हे । हम इमसाल तोर पूरा पैसा दे देवे चाहऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:47:3.24)
67 ईंजोरा (पुजेरी बाबा ललटेन के ईंजोरा में टुकुर-टुकुर हमर देह देख रहला हल अउ ओजय बैठ के थारी, घंटी, दीआ धो रहला हल, खोद-खोद के ।) (मपध॰02:10-11:21:2.25)
68 उकटा-पुरान (~ करना) (तनिको संदेह होएला पर उकटा पुरान करे वाली ई सिंगारो जनम से अधबएस होवे तक एही गाँव में माथा ऊँच करके रहल हे जेकरा पर दाग के एको छिंटा न हे ।) (मपध॰02:10-11:25:2.7-8)
69 उघारना (-"हरमियाँ गोपला आझ बड़ मारलक हे ।" ऊ अप्पन मरदाना गोपाल के बारे में बता रहल हल । सऊँसे पीठ उघार के देखउले हल ।) (मपध॰02:10-11:15:1.21)
70 उच्चा (= ऊँचा) (बाकि उ गाँव हल । आझ के तरह जनावर न रहऽ हल । उ गाँव में फूलन का के बड़गो दलान अउर करीम का के बड़गो दलान अउ दुआर हलन, काफी उच्चा पर । अउर ओकरे सटल-सटल काफी उच्चा जमीन हल, सड़क हल, बाकि कच्चा हल । बस गेल लोग-बाग । बकरी से गाय तक । तोता से मुर्गी तक ।) (मपध॰02:10-11:35:1.15, 16)
71 उजबुजाना (कभी करतब के किनार कटे लगे हे, त अदमी बाप-बाप करे लगे हे, गुहार लगवे लगे हे । त करम ओकर सहारा हो जाहे, अउर कभी करम पर बज्जड़ पड़े लगे हे, त करम के सहारा हो जाहे । बाकि जखनी समय करम-करतब दुन्नु के नापे लगे हे, त अदमी उजबुजा जाहे ।) (मपध॰02:10-11:34:3.27)
72 उजूर (= उजुर; उज्र; निवेदन; आपत्ति, एतराज; शंका; विरोध) (रात में खनय-पिनय के बाद रजेंदर उनकर गोड़ दबाबे लगल, अउ मन के मंसूबा उनकर सामने दुबारे पटक देलक - 'की सरकार, हम्मर उजूर पर धेयान नञ् देवहु ?'; हप्ता भर बाद अखबार के पहिला पन्ना पर मोटगर अच्छर में सरकार के घोसना छपल - दुस्मन के उजूर पर लड़ाय बंद, सिपाही के मोरचा से वापसी सुरू, दानापुर कैंप बिहार के जवान रजेंदर माँझी के विजय चक्र ।) (मपध॰02:10-11:33:1.5, 37:2.27)
73 उठल्लु (= उठल्लू) (चमारी सोंचलक - 'रे मन, हमर मेहरारू तो लछमी हे । जे माधे समान जुटावऽ ही घर में, ओइसन तो निमने से चलवे हे घर के । नञ् बेच-बिकरिन, नञ् लड़ाय-तकरार । कहियो केकरो से उठल्लु भी नञ् करइलक हे, जबकि गहना के सउखे लगल होत ओकरा । तन पर भर जी बस्तर भी तो नञ् देलूँ हे कहियो । अदना नर-नोहरंगी तो जुटवे नञ् करे हमरा से ... जेकर तगादा कहियो नञ् कइलक ऊ । मुदा ई दमड़िया अइसे काहे बोलऽ हे ।') (मपध॰02:10-11:47:1.37)
74 उधियाना (= द्रव में उबाल आना; हवा में उड़ना, बिखरना; डींग मारना, बकबक करना) (कुरंग के रंग बड़ा चट्टक लगे हे बाकि धूप बुन्नी में उधिया जाहे । ओइसने जमानी के लुक्का-छिपी हे, उ प्रेम न हो सके । प्रेम कउनो फरही न हे, हमरा-तोरा के । ओकरा में त लोक बिका जाहे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.21)
75 उधिर (= ओद्धिर; उधर, उस तरफ) (सोनुआँ कोठरी खोलवे गेल । ढेर देरी तक झिंझिर पिटला पर भी कोय जवाब नञ् मिलल त सोनुआँ लउट आल । चमारी के जी डेरा गेल । ऊ राम उद्गार बाबू के कोठरी दने दउड़ल, कुछ लोग आउ उधिर दउड़लन ।) (मपध॰02:10-11:48:3.8)
76 उनखनी (= उनकन्हीं) (उनखनी के लइकनो सब उनखनिएँ के साथ हलन ।) (मपध॰02:10-11:18:1.10)
77 उमिर (= उमर, उम्र) (रमेश साधारन लड़िका हल । परिवार भी साधारन । पढ़े में तो बीच-बीचवा हल । इहे से ओकर बाबू जी कमे उमर में ओकर सादी भी कर देलथिन हल । अब न सादी के उमिर बढ़ गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.32)
78 उमीर (= उमिर, उमर; उम्र) (साव के दुकान से बत्ती के रोसनी में रमचरना के मुठान देखल जा सके हे । उ चुक्को-मुक्को एगो छोट चटाई पर बैठल हे । ओकर आँख के लंफ में तेले कम गेल हे । अस्सी बरस तो ओकर उमीर होत ।) (मपध॰02:10-11:34:1.25)
79 उरिन (= ऋण-मुक्त) (चमारी राम उद्गार बाबू के देल थैली के एकक पैसा उनकर काम में खरच करके उरिन हो गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:48:3.38)
80 ऊँच (= ऊँचा) (तनिको संदेह होएला पर उकटा पुरान करे वाली ई सिंगारो जनम से अधबएस होवे तक एही गाँव में माथा ऊँच करके रहल हे जेकरा पर दाग के एको छिंटा न हे ।; रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।) (मपध॰02:10-11:25:2.10, 35:3.2, 3)
81 ऊँच-नीच (कुछ ~ हो जाना) (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.26)
82 एकबारगी (ओकरा गाय के मरला, माय के मरला नियन लगल । हुलास-हुलासिन मुरझा गेलन । एकबारगी लगल कि उनखर परान कोई पूरा के पूरा गार देलक हे ।) (मपध॰02:10-11:36:2.29)
83 एकरगी (= एक तरफ; बगल में; अलग; दूर) (हम सकपकाइत एकरगी होवे लगलूँ तउ पुजेरी बाबा कहलका - तनी दू दोल पानी दे देहीं, नहाल-फिचल हइये हँऽ ।) (मपध॰02:10-11:21:2.15)
84 एकलहू ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.25)
85 एकवट (= एकता, ऐक्य; मेलजोल; एक तरफ, एक साथ) (सउँसे गाँव एकवट अउ सिंगारो देई अकेले । ई गाँव के ऊ पुतोह तो न हे कि जार के मार दऽ, लास फूँक दऽ तइयो कोय कुछो न बोलते । सगर पाप घोर के पी जएते । ई तो हे गाँव के बेटी-दबंग, दुलरी, सिरचढ़ल अउ नकचढ़ियो । गाँव के मेहारू सब एकरा कहऽ हथ 'दरोगा जी' अउ मरद लोग 'दुरगा जी' ।) (मपध॰02:10-11:25:1.20)
86 एकैस (= एकइस; इक्कीस) (एगो के बदली में एकैस गो के नय समेट लेलियउ, तउ हम्मर जवानी के धिक्कार - तोरा देखा देवउ अप्पन हिम्मत-तागत ।) (मपध॰02:10-11:31:1.5)
87 एक्कर (= एकर; इसका) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.16)
88 एगारह (= ग्यारह) (1985 ई. में डॉ॰ लक्ष्मण प्र. चंद के संपादन में प्रकाशित 'परतिनिधि कथा घउद' में एगारह कहानीकारन के कहानी के एकजौर कइल गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:9:1.22)
89 एजऽ (= एजा, एज्जा; इस जगह) (रात भर ठकुरवारी में अराम कर ले । तड़के उठके चल जइहँऽ । एजऽ तो बराबर कत्ते राहगीर रात-बेरात रहवे करऽ हथ । ठकुरवारी से परसाद खाय ले मिलिये जैतउ, ओढ़ना-बिछौना के भी कमी नञ् हे, साले-साल सब परदेसियन देवे करऽ हे, ओकरो पर पोवार भी बिछल हे ।; बैठ के मने मन सोंचे लगलूँ कि एजऽ रहला से तो बढ़ियाँ हे कि राते रात नैहर चल जाउँ ।) (मपध॰02:10-11:20:3.11, 22:3.26)
90 एतनिएँ (= एतनहीं) (हम उनखनी के बात सुन रहली हल । मन में गोस्सा के अंधड़ उठ रहल हल । - साला गोपला ! एतनिएँ में कॉलबेल बजल । खोलऽ ही तो देखऽ ही एगो साँवर जुआन दुआरी पर खड़ा हे ।) (मपध॰02:10-11:17:1.35)
91 एतराज (= आपत्ति) (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।; मथुरा के नाम सुनते सिंगारो के देह में आग लेस गेल । जोरदार एतराज कएलक - "मथुरवा हाथ न लगा सके । ऊ पापी जिनगी भर इनकर विरोध कएलक । मरलो पर चैन न लेवे देत ?") (मपध॰02:10-11:28:1.11, 30:1.33)
92 ओंहीं (दे॰ ओहीं; वहीं) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.19)
93 ओइसन (= वैसा) (चमारी सोंचलक - 'रे मन, हमर मेहरारू तो लछमी हे । जे माधे समान जुटावऽ ही घर में, ओइसन तो निमने से चलवे हे घर के । नञ् बेच-बिकरिन, नञ् लड़ाय-तकरार । कहियो केकरो से उठल्लु भी नञ् करइलक हे, जबकि गहना के सउखे लगल होत ओकरा । तन पर भर जी बस्तर भी तो नञ् देलूँ हे कहियो । अदना नर-नोहरंगी तो जुटवे नञ् करे हमरा से ... जेकर तगादा कहियो नञ् कइलक ऊ । मुदा ई दमड़िया अइसे काहे बोलऽ हे ।') (मपध॰02:10-11:47:1.34)
94 ओइसीं (दे॰ ओइसहीं) (नञ् बाबा ! हमरा नञ् चाही साड़ी-गहना । हमनी गरीब आदमी के सादे-सपेटे ठीक लगऽ हे । पुजेरी बाबा बोललका - नञ्, ई बात ठीक नञ् हे । जइसे कोय परसादी लेवे में आनाकानी नञ् करऽ हे, ओइसीं ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ ।; पुजेरी बाबा ओइसीं छटपटाइत गोंगिआएत रहला । ढेर दूर बाहर अइला पर जमात के मेठ पुछलक - "तोरा कौन गाँव जाना हउ बहिन ?") (मपध॰02:10-11:21:1.29, 24:1.10)
95 ओजय (= ओजइ, ओज्जइ; उसी जगह पर, वहीं) (पुजेरी बाबा ललटेन के ईंजोरा में टुकुर-टुकुर हमर देह देख रहला हल अउ ओजय बैठ के थारी, घंटी, दीआ धो रहला हल, खोद-खोद के ।) (मपध॰02:10-11:21:2.26)
96 ओजह (= वजह, कारण) (परिवार में बस तीन परानी - दू बेकती ऊ अउ एगो उनकर बेटी सोनियाँ । पास-पड़ोस के आई-माई से उनकर घर-आँगन गुलजार रहऽ हे । एकरो एगो खास ओजह हे । सोनियाँ अप्पन सोभाव से सबके मन लुभौले रहऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.12)
97 ओनिहे (= ओनहीं, ओधरे; उधर ही) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.15)
98 ओन्ने (= ओद्धिर; उधर) (चार दिन बाद धान झार के अब ओकरा सूप से हौंक के भउँठा निकाल रहल हल चमारी कि ओन्ने से राम उद्गार बाबू अइलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.4)
99 ओयसीं (= ओइसीं, ओइसहीं) (हम की करतूँ हल, ओयसीं भिंजले में पानी भरे लगलूँ । हम्मर भींजल कपड़ा देह पर सट्टल हल, अउ हम लजा रहलूँ हल ।) (मपध॰02:10-11:21:2.19)
100 ओरहन (= ओलहन) (एगो हित ओरहन देवे लगलन - "ओही घड़ी तिरपुरारी से रिस्ता करे से हम मना कएली हली । ऊ घड़ी अपने के दिमाग में भूत बइठल हल कि लठइत हितइ रहे से गाँव-गोतिया दबावत न । अब उलझिए गेली हे तो सोझराऊँ खुद ।") (मपध॰02:10-11:28:3.12)
101 ओरहना (= ओरहन, ओलहन) (कभी-कभी तो सास-ससुर के ओरहना बेअदमिअत व्यवहार से पारवती जान हते ले तइयार हो जा हल ।) (मपध॰02:10-11:45:1.37)
102 ओसरा (= ओसारा) (फिन गोपला दन्ने अँगुरी उठइले कहे लगल - ई हरमियाँ कहऽ हल, अंडा तल दे । तों आझ ओसरा पर सुत । पलंग आझ तोरा ला नञ् हउ ।) (मपध॰02:10-11:19:1.16)
103 औगल (= अच्छा) (चमारी के माय तो ओकर बुतरुए में गुजर गेली हल, सेसे ऊ अपन मेहरारू के कम्मे उमर में पकिया-चोकिया खातिर मँगा लेलक हल । भाय में ऊ अकेलुआ हल । बहिन पुनियाँ के बियाह के सियाँक ओकरा नञ् हल । चमारी मेहरारू जोरे घर में रहे लगल आउ कुछ खेत बटइया ले के औगल से खेती नाध देलक ।) (मपध॰02:10-11:46:1.14)
104 औगुन (= अवगुण) (मेहरारू अप्पन करतब से कुलछनी कहला हे । मगर पारवती में अइसन कोय औगुन न हे । गाँव-घर के लोग भी अब पारवती के बड़ाई करे ला सुरू कर देलक ।) (मपध॰02:10-11:45:2.17)
105 औसर (= अवसर) (हमनी सब तीन तरह से जिनगी के अनुभो पावऽ ही । एगो तो अप्पन जीवन में जे घटना घटे हे, ओकरा से सीखऽ ही । दोसर, अप्पन आँख से दोसरा के ऊपर बीतल घटना देख के भी हमनी सब के सीखे के औसर मिले हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.6)
106 कँपकँप्पी (= कँपकँपी) (चमारी सोंचलक - 'एक गट्टा बीड़ी ले ली त जाड़ा के ई कँपकँप्पी छोड़ा देवे वला रात निम्मन से कट जात ।' बकि पास में एगो चउअन्नी नञ् ।) (मपध॰02:10-11:46:2.11)
107 कंचूस (= कंजूस) (तूँ घर के चिंता ओकरे पर छोड़ दे । ऊहे बेच-बिकरिन करे आव घर चलबे । अइसे भी मेहरारू कंचूस हो हे । ई ले तोर भलाय ईहे में हव कि ओकरे हाँथे सब कुछ चले दे ।) (मपध॰02:10-11:47:2.15)
108 कंठस (= कंठस्थ) (हल तो वइसे ऊ चिट्ठी-पतरी भर पढ़ल हरिजन लेकिन ओकर बात-विचार रहन-सहन में एगो अलगे संस्कार के झलक मिलऽ हल । दु-चार गो संसकिरित के उलटा-पुलटा असलोक भी ओकरा कंठस हल, बले ओकर अरथ ऊ नञ् जानऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.8)
109 कइसन (= कैसा, किस प्रकार का) (कह बेटा चमारी ! धान मनगर होलउ हे न । कइसन हाल-चाल हव ?) (मपध॰02:10-11:47:3.7)
110 कछ-बछ (फुलमतिया के बिआह रामरतन से हो गेल । जे दिन फुलमतिया के बिआह के बाजा बजल, रतन के कुलबुलाहट बढ़ गेल हल । ई कथी के कछ-बछ हल, ई त बुझे के बात हे । कोई का कह सकऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.18)
111 कठमुरकी (= ठकमुरकी) (~ मारना) (आखिरकार सिंगारो सन्नाटा तोड़लक - "अब हमरा का होएत दी ... दी ?" जेठानी के कठमुरकी मारले हल । सवाल सुनके आँख भर गेल ।) (मपध॰02:10-11:26:2.14)
112 कड़रू-भैंस (दुश्मन के हवाई जहाज हम्मर सीमा में घुस के बम गिरा के भाग गेल । एकरा में मवेसी-मानुस के नुकसान नञ् भेल, लेकिन चार-पाँच गो धान के खरिहान भूँजा अइसन पटपटा गेल आउ एगो अगोरिया, दूगो कड़रू-भैंस जिंदे अगिन देवता के बलि पड़ गेल ।) (मपध॰02:10-11:31:1.21)
113 कतिकी (= कार्तिक मास का) (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.34)
114 कथी (फुलमतिया के बिआह रामरतन से हो गेल । जे दिन फुलमतिया के बिआह के बाजा बजल, रतन के कुलबुलाहट बढ़ गेल हल । ई कथी के कछ-बछ हल, ई त बुझे के बात हे । कोई का कह सकऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.18)
115 कनसार (फुलमतिया अब कनसार लगावऽ हल । जब ऊ कनसार लगावऽ हल तऽ गाँव भर के लोग उहाँ जमा हो जा हलन । ऊ भाँड़ में मकई भूँज रहल हल । सब्भे मकई फुट के लावा हो गेल हल ।; फुलमतिया के देह में एतना न कनसार गरम हो गेल कि ओकर आँख-मुँह लाल भभूका हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:37:2.1, 17)
116 कनेआँ (= कनिआय) (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.31)
117 कबड़ना (= उखड़ना; समाप्त होना) (दोसर दिन पंचाइत लगल । सब अइलन बकि राम उद्गार बाबू अलोपल हलन । पंचाइत कबड़ गेल । पंच घर चल गेलन ।) (मपध॰02:10-11:48:1.26, 27)
118 कम-बेसी (गुलबिया बोलल - की कहिअउ बहिन ! ससुरार ससुरार रहे तब तो । ऊ तो एकदम्मे नरक के दुआरी हे । हमर जे मरद कम-बेसी कमा हे, सब दारुए में फूँकऽ हे, घर आवऽ हे तउ हमरा खाली नोंच-नोंच के खाहे ।) (मपध॰02:10-11:24:2.3)
119 कमासुत (= खटकर काम करनेवाला, परिश्रमी) ("बकि उद्गार चचा, ई तो जुलुम हइ । तूँ ऊ गरीब के जहंडल कर रहलहो हऽ । जान लऽ, भारी सुरिआहा हको चमरिया । जब ओकरा ई बात के जनकारी होतो त ऊ तोरा छोड़तो नञ् । सोंचे के चाही चचा, ओतना सीधा आउ कमासुत जुआन ई युग में कहाँ मिलऽ हे ।" ई मुनाकी के राय हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.17)
120 करतानी ("उनकर करतानी तोरा बेस लगलउ का ?" - "का करी ? उनकर अइसने आदत हइन ।") (मपध॰02:10-11:25:3.17)
121 करमजरुआ (ऊ बेटा तो हइ वकीले के बकि कौड़ी के तीन । डोनेसन पर डेली बेसिस पर बहाली हे, ऊहो चारे महीना ला । एतनै नञ्, बैंक डकैती में नवादा जेलो में तीन बच्छर लइका काटलक हे । ओकर जिनगी हे शराब अउ धंधा हे लूट-खसोट । कमाई में ओकरा लात-जूता के कमी न रहे । अब बतावऽ, परीछवऽ अइसने करमजरुआ दमाद ?) (मपध॰02:10-11:43:2.28)
122 करासन (= किरासन, केरोसीन) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:2.2)
123 करेठा (= करइठा; काला-कलूटा) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।; जब जरूरत होल ऊ अपनहीं पइसा देइत रहऽ हथ । मगर ई मुझौंसा तो एक्को पइसा नञ् देहे । बेटियो के पढ़ावे ला नञ् । दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !) (मपध॰02:10-11:19:1.19, 2.2, 4)
124 कहँड़ना (अठवारा लग गेल । चमारी खेत दने से लउटल आ रहल हल । अइसे गुजरते ऊ अनभो कयलक कि कोय कहँड़ रहल हे । ऊ दउड़ के भिरी गेल । देखलक त राम उद्गार बाबू हथ । सउँसे देह में खून छलछलाल हल । मुँह घोघसल । अंगे-अंग चूरल ।) (मपध॰02:10-11:48:1.36)
125 कहनय-सुननय (= कहा-सुनी) (ढेर कहनय-सुननय आउ गोड़परी के बाद मिसिर जी अप्पन एगो दानापुर के दोस्त मेजर रमायन सिंह के नाम चिट्ठी देके ओकरा भेज देलन ।) (मपध॰02:10-11:33:2.20)
126 कहा-सुनी (बगदू सिंह हार गेलन । आखिर मान गेलन कि सिंगारो के भाग में एही बदल हे । साल-दु-साल पर चचा-भतीजा में सिंगारो के सवाल पर कहा-सुनी होइए जा हल ।) (मपध॰02:10-11:28:3.22)
127 का (= 'काका' का संक्षिप्त रूप) (बाकि उ गाँव हल । आझ के तरह जनावर न रहऽ हल । उ गाँव में फूलन का के बड़गो दलान अउर करीम का के बड़गो दलान अउ दुआर हलन, काफी उच्चा पर । अउर ओकरे सटल-सटल काफी उच्चा जमीन हल, सड़क हल, बाकि कच्चा हल । बस गेल लोग-बाग । बकरी से गाय तक । तोता से मुर्गी तक ।; फूलन का सुभाव के धनी हलन । जात-परजात के भेद उनका में न हल ।; फूलन का सबके अपन नेह से तोप देलन । चाह, भुंजा, फरही, चूड़ा कोई चीज के कमी न होवे देलन ।) (मपध॰02:10-11:35:1.13, 24, 27)
128 काँव-कोचर (लोग जेतना सीताराम के जोड़ी के पूजा कर ले, मुदा सीता जी के जिनगी भी तो सब दिन दुक्खे में बीतल । काँव-कोचर करते बिआह होल, तो कुच्छे दिन पर रजगद्दी नञ् होके वनवास हो गेल । जाहाँ से रमना हर के ले गेल । फेन गूहा-गिंजटी से अजोध्या तो अइली, मुदा थिर पानी नञ् पिलकी ।) (मपध॰02:10-11:20:3.28)
129 किरिया (= कसम) (भगमान ~; तोर ~) (जब जरूरत होल ऊ अपनहीं पइसा देइत रहऽ हथ । मगर ई मुझौंसा तो एक्को पइसा नञ् देहे । बेटियो के पढ़ावे ला नञ् । दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !; जमात के मेठ बोलल - "हम सब जानऽ हूँ । 'आँख के देखल दूर कर अउ किरिया के परतीत ।' ई हमरा सब कह देलक हऽ । तूँ एकरा साड़ी गहना कौन लोभ से देलहो ? नहाएत खनी भुरकी से देखऽ हलहो, भभूत लगावे खनी एकर गियारी, छाती अउ पेटो छुलहो । एकर गालो छुलहो ।") (मपध॰02:10-11:19:2.4, 23:3.4)
130 कीतो (= कातो, कादो) (वइसे की तो उ अप्पन घर-परिवार के जबबदेही से निचिंत हल काहे कि बाप के मरे के पाँच महीना बाद माइयो सुरधाम चल गेल । उमर होवे पर भी रजेंदर पता नञ् काहे विवाह नय करऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.16)
131 कुइयाँ (= कुआँ) (आवाजो बेकाबू हो गेलइ - "हाँ, पता लगावे ला चाहऽ हलइन हमरा बाप के कि खनदानी हे कि खानगी ? सिरिफ दौलत वाला हे कि कुकरमी ? रखेलिन रखऽ हे कि न ? चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?" - "का बोलले ? चुरुआ भर पानी ? चार पोरसा पानी हे अबहीं कुइयाँ में । चल देख, चार पोरसा ... पानी ... हे अबहीं ।"; ई अवाज से एकदम विलगे अवाज हल सिंगारो के । एक बार फिर अन्हार कुइयाँ में ओकरा ढकेल देल गेल । अबरी ओकरा बचावे खातिर कोई आगे न आएल । जौन माटी के अपन समझ के रहल, उ माटी ओकर दरद से न दरकल, न फटल ।; सोनियाँ अइसन बेटी लेल अइसने दमाद खोजलन हे काका ? एकरा से बेस होत कि बेटी के कुट्टी-कुट्टी काट के कुइयाँ में डाल देतन हल ।) (मपध॰02:10-11:27:2.14, 30:3.31, 43:2.13)
132 कुच-कुच (~ करिया) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर । रजेंदर के पसन से मिसिर जी एगो कुच-कुच करिया पहिलौंठ पटनिया गाय खरीद के ओकरा फलगू नदी में उतरवा के घर सोझ कर देलन ।) (मपध॰02:10-11:32:3.34)
133 कुट्टी (सोनियाँ अइसन बेटी लेल अइसने दमाद खोजलन हे काका ? एकरा से बेस होत कि बेटी के कुट्टी-कुट्टी काट के कुइयाँ में डाल देतन हल ।) (मपध॰02:10-11:43:2.13)
134 कुठौर (उमीर के तकाजा के इनकार कइला असान न हे । अदमी के जिनगी पानी के बूँद न हे जे धरती पर गिरल त उहें समा गेल । पानी पर गिरल त उहें मिल गेल । ई त पूरा एगो इंगोरा हे । ठौर पाके कुठौरो जनम जाहे ।) (मपध॰02:10-11:36:1.27)
135 कुबेर (= कुबेला) (पुजेरी बाबा भीरी आके पुछलका - "कहाँ घर हउ मइयाँ ? कहाँ से आ रहलाँ हे, एत्ते कुबेर के ? तूँ तो ई गाँव के ने तो बेटी हँ, ने तो पुतहू । हलाँकि गाँव ठकुरवारी से थोड़े दूर हे, फिर भी हम सभे घर के औरत के चिन्हऽ हूँ ।") (मपध॰02:10-11:20:2.23)
136 कुभाखर (= कुभाषण; अप्रिय बोली) ("हमनी दुन्नो माय-बेटी के डूबे से उबार लेलें रे सरोजवा । चल, लगा दे आग मड़वा में । न होयत बिआह ।" - "अइसन कुभाखर बोली मत बोल चाची, हिम्मत बान्ह । बिआह त होयवे करत गे । एही लगन अउ एही मड़वा में, आझे ।") (मपध॰02:10-11:43:3.6)
137 कुहा (= कुहेसा, कुहासा) (अप्पन दुआर पर बैठल-बैठल रमचरना यही गुन रहल हे । साँझ जाड़ा के मटिआ गेल हे । एगो कुहा जइसन । घोर अन्हेरिया । सब अप्पन दुआर पर लंफ-बत्ती कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:34:1.18)
138 कूटना (= बहुत पिटाई करना) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.21)
139 केयास (= कयास; अनुमान, अटकल, कल्पना) ("अपन रमचरना हो नऽ, ओकरा से फुलमतिया के बिआह कर लऽ अउर चैन से सुतऽ । ... इ समाधान तोहरा जँचो तऽ बात तय समझऽ ।" हुलास खैनी के एक्के चोट में माथा पर जमल सर्दी उड़ा देत, हरखू के ई केयास भी न हल ।) (मपध॰02:10-11:37:1.13)
140 कोंती (~ मारना) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.25)
141 खँघारना (= खंगालना; पानी से कपड़ा, बरतन आदि साफ करना) (जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला । तब तक हम पानी चुकलूँ हल । हम सकपकाइत खाढ़ हो गेलूँ, अउ अपने मने से दोल खँघारइत एक दोल पानी पुजेरी बाबा ले भर देलूँ ।) (मपध॰02:10-11:20:2.19)
142 खउरा (= एक प्रकार की खुजली; बाल झड़ने का एक चर्मरोग, बालखोरा; ~ लगाना = किसी काम में अड़चन डालना) (गरीब ला गाय अउर संतोख दुन्नु एगो जरूरी समान हे, जे दुनु बेकत जिनगी भर जोगइलक अउर जोगइलक अप्पन स्वाभिमान के भी, जे कम जरूरी न हल । फजूल के चाह अदमी के जीमन में खउरा लगा देहे ।) (मपध॰02:10-11:34:3.17)
143 खतुआना ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.23)
144 खनय-पिनय (= खाना-पीना) (रजेंदर के बाप बंसी के पीलिया रोग से इलाज मिसिर जी अप्पन खरचा से मगध मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में करउलन हल । काल के गाल से ऊ हँसइत-खेलइत निकल गेल लेकिन गाम लौटला के कुछ रोज बाद खनय-पिनय में नेम-संजम नञ् करे के कारन अचानक ओकर हालत एतना खराब हो गेल कि बचना मुश्किल हो गेल ।; रात में खनय-पिनय के बाद रजेंदर उनकर गोड़ दबाबे लगल, अउ मन के मंसूबा उनकर सामने दुबारे पटक देलक - 'की सरकार, हम्मर उजूर पर धेयान नञ् देवहु ?') (मपध॰02:10-11:31:3.31, 33:1.1)
145 खनी (= के समय) (जमात के मेठ बोलल - "हम सब जानऽ हूँ । 'आँख के देखल दूर कर अउ किरिया के परतीत ।' ई हमरा सब कह देलक हऽ । तूँ एकरा साड़ी गहना कौन लोभ से देलहो ? नहाएत खनी भुरकी से देखऽ हलहो, भभूत लगावे खनी एकर गियारी, छाती अउ पेटो छुलहो । एकर गालो छुलहो ।"; एतना कहते-कहते पुजेरी बाबा के हाँथ-गोड़ उनखे गमछा चद्दर से बाँध देलक । गंजी फार के उनखर मुँह में ठूँस देलक । मुँह में ठूँसैत खनी पुजेरी बाबा के एगो अगला दाँतो टूट गेल अउ मुँह से हर हर खूनो बहे लगल ।) (मपध॰02:10-11:23:3.7, 30)
146 खाँटी (= असली, शुद्ध) (अब सवाल हे जोग लइका ढूँढ़ना बाकि दाँव-पेंच ओला ई दुनियाँ में जोग लइका ढूँढ़ना ओतनै मुस्किल जेतना डालडा से भरल बजार में खाँटी घीउ । लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज ।) (मपध॰02:10-11:41:1.30)
147 खाढ़ (= खड़ा) (जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला । तब तक हम पानी चुकलूँ हल । हम सकपकाइत खाढ़ हो गेलूँ, अउ अपने मने से दोल खँघारइत एक दोल पानी पुजेरी बाबा ले भर देलूँ ।; हमरा हाँथ में पैसा तो नञ् रहे, मुदा बाबा आरती लेले ढेर देरी हमरे भिर खाढ़ रहला । लगे कि ऊ हमरो आरी उतार रहला हऽ ।; गुलबिया सितबिया से फेन लगले बोलल - एक दने हम खाढ़ डर से थर-थर काँप रहलूँ हल, ऊ सब जमात के अदमी पुजेरी बाबा के संगारल कपड़ा-लत्ता, थारी-बरतन सब बोरा में समेट के, पेटी-बक्सा, रुपइया-पैसा ले लेलक ।) (मपध॰02:10-11:20:2.18, 21:3.15, 23:3.34)
148 खानगी (बाप के नाम अउर हैसियत के बात सुनके सिंगारो के आग लेस देलक । ऊ काबू से बाहर हो गेल । आवाजो बेकाबू हो गेलइ - "हाँ, पता लगावे ला चाहऽ हलइन हमरा बाप के कि खनदानी हे कि खानगी ? सिरिफ दौलत वाला हे कि कुकरमी ? रखेलिन रखऽ हे कि न ? चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?") (मपध॰02:10-11:27:2.8)
149 खाय-बुतात (दुनूँ चचेरा भाय अप्पन-अप्पन किसान के डेउढ़ी-खरिहान में लगल रहऽ हल । एहे से रजेंदर दिन भर खरिहान में काम-धाम में चाहे सनीचरा-परमेसरा के दुआरी पर लूडो अउ साँप-सीढ़ी वाला खेल में बिता दे हल अउ साँझ के अंधरिया पसरे के साथ अप्पन खाय-बुतात लेके भरत बाबू के खरिहान में पहुँच के पसर जा हल ।) (मपध॰02:10-11:32:1.23)
150 खिसियाना (= गोस्सा करना; गुस्सा करना) (ऊ खिसिया के जवाब देवे - "उनकर खेती हइन तो उनका हिंआ चार गो मुस्टंडो हथी । तोर हिम्मत हउ उनकर खेसारी-मसुरी नोचे के ? पकड़एला पर साथे जाहें मकई के खेत में । हमरा पढ़ावे के कोसिस मत कर । जेतना सतभतरी हथ, सबके कुंडली हमरे पास हउ ।") (मपध॰02:10-11:27:3.34)
151 खिस्सा (= किस्सा) (लछमिनियाँ के खिस्सा हमहूँ सुन रहली हल ।) (मपध॰02:10-11:15:3.5)
152 खुट्टा (= खूँटा) ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.20)
153 खुम (= खूम; खूब, बहुत) (ओने देवीथान पर सब गप कर रहल हल कि बेलदारी के ठकुरवारी पर राते डकैती हो गेल । पुजेरी जी के गोड़ हाँथ बाँध के सब लूट लेलकै । पुजेरी बाबा बोललथिन कि ओकरा में एगो गोरनार खुम सुत्थर लड़कियो हलै, जे पहिले से आल हलै ।) (मपध॰02:10-11:24:2.39)
154 खूँट (= कपड़ा आदि का चारों कोने का भाग या तिकोना छोर; आँचल का छोर; कमर में लपेटने का धोती का भाग; एक पूर्वज से जन्मे परिवार वंश या कुल; हिस्सा, भाग, खंड; छोर, किनारा) (ऊँच ~) (रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।; भगत बाबू जब बाहर निकसे लगलन त चपरासी खूब झुक के सलामी दागलक । भगत बाबू बियाह तय होवे के विस्वास बान्हइत दस रुपया के एगो नोट देलन ओकरा । अइसे त अनिच्छा के एगो सवाल मड़राइत हल उनकर मन में । बेटी पुनियाँ के चान अऊ दामाद ... । बाकि चारो खूँट बरोबर केकरो नय मिलऽ हे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.3, 42:3.34)
155 खेत-खरिहान (मजदूरी करे वाली मेहरारू सवाल दागे लगलन - "सिंगारो ! तूँहीं बतावऽ, नान्ह जात अउ बड़ जात के बेटी-पुतोह के पहचान का रहल ?" ओकर जवाब होए - "तोरा खेत-खरिहान उजाड़े के मौका न मिलतउ तो एही न कहबे ?"; हम तो औरत जात ही । हमरा मिरतु मामूली बात हे, पूरे समाजो खातिर । हमरा जिअले गुनाह हे । बाप के खेत-खरिहान में हाड़ गला के निरबाह करिला तो सउँसे जात-समाज के नाम कटइत ही । एही जात-समाज के सामने एही गुंडा हमरा माँग में सेनुर देलक लेकिन एकर मेहरी हे रुकमिनियाँ ।) (मपध॰02:10-11:27:3.28, 29:2.5)
156 खेत-बथान (= खेत-पथार, खेत-बधार) (रमचरना के बाप हुलास अउर माय हुलसिया जब खेत-बथान में काज पर लगल रहइ त रमचरना अरबरा के चलऽ हल, लोघड़ा के खड़ा हो जा हल । एकदम्मे नंग-धड़ंग ।) (मपध॰02:10-11:34:2.25)
157 खेम-छेम (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:36:3.3)
158 खेसारी-मसुरी (ऊ खिसिया के जवाब देवे - "उनकर खेती हइन तो उनका हिंआ चार गो मुस्टंडो हथी । तोर हिम्मत हउ उनकर खेसारी-मसुरी नोचे के ? पकड़एला पर साथे जाहें मकई के खेत में । हमरा पढ़ावे के कोसिस मत कर । जेतना सतभतरी हथ, सबके कुंडली हमरे पास हउ ।") (मपध॰02:10-11:27:3.37)
159 खैरखाह ("एक गट्टा बींड़ी द साव जी !" सरल अवाज में बोलल हल ऊ । - "काहे बाबू ! मेमिअइते काहे हें । कोय तरह के बर-बेरामी त नञ् हो गेलो ह । ... ले बींड़ी ।" दमड़ी साव खैरखाह बनके पूछलक ।) (मपध॰02:10-11:47:1.16)
160 खोंथा (= घोंसला) (लपकल भागल गुलबिया अप्पन गाँव दने दौड़ल जाइते हल कि पौ फट गेल । चिरञ्-चुरगुन अप्पन खोंथा से नीला असमान में रेस करैत, चीं-चीं कर रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:20:1.4)
161 खोपा (= जूड़े में लगाने का मुलायम काला गोला; बड़ी या ढीली टोपी) (हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:3.2)
162 गट्टा (= कलाई; गाँठ; बीज, जैसे - कमलगट्टा) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?"; चमारी सोंचलक - 'एक गट्टा बीड़ी ले ली त जाड़ा के ई कँपकँप्पी छोड़ा देवे वला रात निम्मन से कट जात ।' बकि पास में एगो चउअन्नी नञ् ।; "एक गट्टा बींड़ी द साव जी !" सरल अवाज में बोलल हल ऊ ।) (मपध॰02:10-11:23:2.31, 46:2.10, 47:1.11)
163 गड़ना (काँटा ~) (गुलबिया सिसकइत आरी पर बैठ के कहे लगल - "की कहिअउ बहीन, दुखिया गेल हल दुख काटे, तउ गोड़ गड़लय हल काँटा, ... ओहे हाल हमर होल । कल्हे हम झोला-झोली के घर से परदा के बहाने भागलूँ, मुदा बेलदरिया पर अइते-अइते ढेर साँझ हो गेल । ..."; हम एतना कहते बाहर अइलूँ अउ केतारी खेत के आरी पर बैठ के भर हिंछा पानी पी लेलूँ । काहे कि भुक्खल पेटा जोड़ से गड़ रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:20:2.9, 22:3.24)
164 गड़मोगली (बाप रे बाप ! कौन जमाना आ गेल कि मंदिरो ठकुरवारी के नै छोड़े सब चोर-चिहार । बेचारा पुजेरी जी रात भर रहला गड़मोगली लेले ।) (मपध॰02:10-11:24:3.3)
165 गते (= धीरे से) (सोनियाँ के माय सरोजवा के भर अँकवार धैले खुसी के मारे फफक-फफक के रोवे लगल अउ भगत बाबू आँख के लोर गमछा से पोछइत गरदन झुकौले गते बहरा गेलन । ओने खुसी के ठहरल सैलाब में फिन से मौज के लहर उठे लगल ।) (मपध॰02:10-11:43:3.33)
166 गत्ते (~ से जमना) (हुलास दुआरी पर बइठल हलन । चट्टी पर । हरखू अइलन अउर गत्ते से जम गेलन । हरखू एतना गत्ते से कहिओ न जमऽ हलन । ऊ दाहड़ो के बखत चर-फर हलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.20, 21)
167 गन ("अरे चमरिया, तोर ई मजाल ! तूँ अपना के समझऽ की हें रे ! तूँ हम्मर माल मारले हें कि हम तोर माल मारले हिअउ ?" राम उद्गार बाबू बोल रहलन हल बकि उनकर अवाज में कँपकँपाहट साफ झलक रहल हल । - "माल तो तोर हम मारले ही चचा । बकि हम तोरा फुटलो कउड़ी नञ् देवो । मूर-सूद जे लेना हो तोरा, जाके हमर बाबू से ल गन । हम थोड़े लेली हे तोरा से ।" रोस में बोलल चमारी ।; "अपन पेट काट के तोरा भोकतान करते रहली । बकि तूँ अपन धौंस जमइलहीं रहलऽ । की ? ईहे अदमी के लच्छन हे ? हम कह दे हियो, अब बिन पंचायत के गल्ला नञ् देबो । जा, तोरा जे करना हो, करऽ गन ।") (मपध॰02:10-11:48:1.3, 22)
168 गमना (= अन्दाज लेना, समझना, सोच-विचार करना, ठीक से ध्यान देना) (चमारी के लगल जइसे सउँसे धरती हिल रहल हे ... तरेंगन सब नाच रहल हे । ऊ सरिआ के दुन्नु हाँथ से मोखा थम्ह लेलक आउ बउड़ाल मन पर काबू पावे के कोरसिस करे लगल । अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक ।) (मपध॰02:10-11:46:3.34)
169 गरदा (= धूल, गर्द, राख, खाक) (हरखू ई कहके खैनी के रगड़ मार के ठोकलन, तरहत्थी के गरदा के फूँक मार के उड़ा देलन, अउर खैनी बढ़ा देलन । हरखू खैनी ठोर में रखलक अउर अपन चिंता के पुड़िया खोल के हुलास के आगू रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.35)
170 गरबइया (= गोरैया) (हम्मर मइया सूप में चाउर लेके चुनइत रहऽ हल । ढेर गरबइया आसपास फुदकइत रहऽ हलन । माय 'धत' कह के हाथ उठाबऽ हल । गरबइअन फुदुक-फुदुक उड़ जा हलन । मगर ढीढ जीव फिन फुदकइत आ जा हलन ।) (मपध॰02:10-11:17:3.12, 14)
171 गरह (= गर्रह; ग्रह) (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन । रुकमिनियाँ के कहतन हल तो अइसन नौबत काहे अवइत । तकदीर में भोग लिखल हलइन । खैर, गरह कट गेलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:3.2)
172 गरान (= ग्लानि, लज्जा) (लाज-~) (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.27)
173 गरीब-गुरबा (तूँ सब हमनी के चोर समझऽ हो, मुदा हमनी चोर नञ् ही । हम समानता चाहऽ ही, चोर तूँ हऽ जे सब के ठग रहला हऽ अउ समाज में छूत-छात, ऊँच-नीच अउ जात-धरम के नाम पर भेद बढ़ा रहला हऽ । हमनिन समाज के तोहनिन नियन कलंक, जे नारी आउ गरीब-गुरबा के गुमराह करके लूट रहल हे, के सुधारे के बीड़ा उठा चुकली हे ।; ई सब गरीब-गुरबा में बाँट देम । तोरा भिरी ई धन पाप कमाय के कुंजी हे ।) (मपध॰02:10-11:23:3.22, 40)
174 गलफरा (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.9)
175 गलबात (= गप-शप) (गाम के पढ़ल-लिखल असराफ-बड़हन आदमी भी ओकरा पेयार दे हलन । अप्पन पास बैठा के दु-चार गो गलबात कर ले हलन ।; रस्ता में गलबात करइत-करइत रजेंदर अप्पन मन के मोटरी खोल देलक - "सरकार, हम अब घर लौट के नञ् जइबो । हमरा जे बुतरूए से तुँ बड़ मानऽ ह, तब मलेटरी में भरती करवा दऽ ।"; फुलमतिया के बड़गो आँख में रतन, अउर रतन के आँख में फुलमतिया के छाया हल । फुलमतिया में सोंच हे । उ सोंचइत हे । रतन तो रतन हथ । सुख-दुख के सोचनिहार, फूल का के रतन । गात के गलबात कहाँ ले जाएत । इ मन हे कि मानवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:31:3.12, 32:2.36, 35:3.12)
176 गवरू (~ जवान) (इनकर बाबूजी के जिनगी अछते कोई बेलगाम न हल । उनका गुजरते माय के दुलार सबके बिगाड़ देलक । ई सबसे छोट हथ, इ से सबसे ज्यादे साँढ़ हो गेलन । ताकतवर हथ, गवरू जवान । बात-बात पर लाठी-फलसा निकालेवाला । तोर जेठो इनका से डेरा हथू ।) (मपध॰02:10-11:26:2.24)
177 गाँव-गोतिया (एगो हित ओरहन देवे लगलन - "ओही घड़ी तिरपुरारी से रिस्ता करे से हम मना कएली हली । ऊ घड़ी अपने के दिमाग में भूत बइठल हल कि लठइत हितइ रहे से गाँव-गोतिया दबावत न । अब उलझिए गेली हे तो सोझराऊँ खुद ।") (मपध॰02:10-11:28:3.16)
178 गांजना (= पैर से दाब कर कुचलना) (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । बिना खइले-पिले ढेर रात तक ऊ आम के सुक्खल लकड़ी-झुरी अउ गोड़ के गांजल पोआर जग के तापते रहल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.2)
179 गाजा-बाजा (खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:43:1.7)
180 गारना-फिचना (हम की करतूँ हल, ओयसीं भिंजले में पानी भरे लगलूँ । हम्मर भींजल कपड़ा देह पर सट्टल हल, अउ हम लजा रहलूँ हल । काहे कि बलाउजो काढ़ के पहिलहीं गार-फिच के, सुखे दे देलूँ हल ।) (मपध॰02:10-11:21:2.23)
181 गिंजन (= गंजन; गींजने, मथने अथवा बिलोड़ने की क्रिया या भाव; कष्ट, क्लेश, अनादर, तिरस्कार) (सुभदरा - जदि जेल में रहती हल तब कुछो हरज न हल । हमरा जे गिंजन समाज में हो रहल हे, ऊ तो न होवत हल । सत्र न्यायाधीश बोललन - वकील साहब ! आउ जादे जिरह के जरूरत न हे । मेडिकल रपट सच्चाई के खुलासा कर देलक हे ।) (मपध॰02:10-11:40:2.15)
182 गिरहस (= गृहस्थ) (हम डरइत बोललूँ - "तोहर तो हम बेटी दाखिल हियो पुजेरी बाबा । हमर बाबू जी के मुठान भी तोहरा से मिलऽ हे । तूँ खाली टीका-चंदन दाढ़ी-माला रखले-पेन्हले हो । ऊ सादा-सपेटा गिरहस हथ ।") (मपध॰02:10-11:21:2.1)
183 गीत-गौनई (खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:43:1.8)
184 गुंडई (= गुंडागिरी) (सुभदरा कहलक - तू ऊ गुंडा के पहचानऽ हऽ जे हमरा जउर गुंडई कइलक हे । हम तोरे गोवाही बनइवो । चपरासी कहलक - हम गेस्ट हाउस के एगो मामूली कर्मचारी ही । तू तो जानऽ हऽ कि अपराधी लोग गोवाह के ही हत्या करके सच्चाई के छिपा ले हथ ।) (मपध॰02:10-11:39:1.18)
185 गुजुर-गुजुर (~ देखना) (इ मन हे कि मानवे न करे । आँख बेअग्गर हो जाहे, का करूँ । टिकोला के लोग झिटकियो से तोड़ के गिरा दे हथ । कुछ जमीन में लेथरा के कुचला जाहे । टिकोला आम न हो सकल, पेड़ गुजुर-गुजुर देखते रह जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.18)
186 गुनना (अप्पन दुआर पर बैठल-बैठल रमचरना यही गुन रहल हे । साँझ जाड़ा के मटिआ गेल हे । एगो कुहा जइसन । घोर अन्हेरिया । सब अप्पन दुआर पर लंफ-बत्ती कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:34:1.17)
187 गुरही (= गुरिया; छोटा कटा हुआ अंश या टुकड़ा) (अचानक मिसिर जी अइसन बरेक मार के फटफटिया रोक देलन कि रजेंदरा के माथा उनकर पीठ से टकरा गेल । सामने दुगो कुत्ता अप्पन-अप्पन हिकमत-पेंच देखा रहल हल । दुनूँ माँस के गुरही खातिर अझुरायल हल ।) (मपध॰02:10-11:32:3.23)
188 गूहा-गिंजटी (= गूहा-गिंजन) (लोग जेतना सीताराम के जोड़ी के पूजा कर ले, मुदा सीता जी के जिनगी भी तो सब दिन दुक्खे में बीतल । काँव-कोचर करते बिआह होल, तो कुच्छे दिन पर रजगद्दी नञ् होके वनवास हो गेल । जाहाँ से रमना हर के ले गेल । फेन गूहा-गिंजटी से अजोध्या तो अइली, मुदा थिर पानी नञ् पिलकी ।) (मपध॰02:10-11:20:3.31)
189 गेंदरा (कातिक खतम होवे-होवे हल । धान के पातन चमारी के अप्पन आउ बटइया के खेत में लगल हल । झोला-झोली के बाद चमारी माल-धुर के खिलाके काँख तर गेंदरा आउ हाँथ में एगो पैना लेले घर से धान के पातन अगोरे खातिर निकलल ।; अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक । धेयान तोड़ के दोकान के भीतर जाय लगल त नजर नीचे गेल, ओकर गेंदरा सुपती पर छिरिआल हल । 'ओह ! ईहे ऊ बात के बंद करावे के कारन हे । एकरे गिरे के ढब सन अवाज दुनहुँ के कान तर चल गेल होत ।' ऊ मन मसोस के रह गेल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.7, 47:1.2)
190 गोंगियाना (पुजेरी बाबा ओइसीं छटपटाइत गोंगिआएत रहला । ढेर दूर बाहर अइला पर जमात के मेठ पुछलक - "तोरा कौन गाँव जाना हउ बहिन ?") (मपध॰02:10-11:24:1.11)
191 गोइयाँ (= गुइयाँ, गोहाँ; साथी, मित्र, खेल में अपने पक्ष का खिलाड़ी; सखि, सहेली; प्रेमिका) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.29)
192 गोड़परी (ढेर कहनय-सुननय आउ गोड़परी के बाद मिसिर जी अप्पन एगो दानापुर के दोस्त मेजर रमायन सिंह के नाम चिट्ठी देके ओकरा भेज देलन ।) (मपध॰02:10-11:33:2.20)
193 गोतिया-नैया (= गोतिया-नइया) (चाचा तो ओकरा कुलछनी नाम से पुकारो हलन । गोतिया-नैया कोय आवे सबके सामने पारवती के चाची ओकरा हजार बार कोसो हलन ।) (मपध॰02:10-11:44:3.12)
194 गोलिआना (= गोलियाना; अ॰क्रि॰ गोल होना; स॰क्रि॰ गोल बनाना) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.18)
195 गोवाह (= गवाह; साक्षी) (सुभदरा कहलक - तू ऊ गुंडा के पहचानऽ हऽ जे हमरा जउर गुंडई कइलक हे । हम तोरे गोवाही बनइवो । चपरासी कहलक - हम गेस्ट हाउस के एगो मामूली कर्मचारी ही । तू तो जानऽ हऽ कि अपराधी लोग गोवाह के ही हत्या करके सच्चाई के छिपा ले हथ ।) (मपध॰02:10-11:39:1.22)
196 गोसा (= गोस्सा; गुस्सा) (एतना कहते-कहते ऊ हमर गालो छू देलका । हमरा बड़ी गोसा भेल, पर की करूँ, चुपचाप बैठले रहलूँ ।) (मपध॰02:10-11:22:1.8)
197 घरइतिन (= गृह-स्वामिनी, मालकिन) (अपन रमचरना हो नऽ, ओकरा से फुलमतिया के बिआह कर लऽ अउर चैन से सुतऽ । तू भाय अउर दोस दुन्नु हऽ । हम्मर तोहर दुअरा के ऊँचाई भी बरबरे हे । घरइतिन सबके मिजाज भी कोई फरका न हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.8)
198 घाठी (= गर्दन के नीचे-ऊपर रखे दो लाठियों के बीच दबा कर हत्या करने का तरीका; गोला-लाठी) (~ देना) (तोरा बेटा मान के पालली-पोसली । पखेरू होएलें तो बिआह करवली । मेहरी अएते अलगे हो गेलें । मुँह फुलवले चलऽ हें । निमकहराम कहीं के । सिंगरिया के हम घाठी दे देई, तबे तोर कलेजा होएत ठंढा ?; एगो तो अइसनो सवाल कएलन कि पंच के दवाब में ऊ सिंगारो के लिवा जाए अउ साल-छव महीना में घाठी दे दे । मार दे तो पंच भले ओकरा फाँसी दिवा देथ, लेकिन बेटी से हाथ तो धोइए देब अपने ।) (मपध॰02:10-11:28:2.3, 3.9)
199 घीउ (= घी) (अब सवाल हे जोग लइका ढूँढ़ना बाकि दाँव-पेंच ओला ई दुनियाँ में जोग लइका ढूँढ़ना ओतनै मुस्किल जेतना डालडा से भरल बजार में खाँटी घीउ । लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज ।) (मपध॰02:10-11:41:1.30)
200 घुचघुच (~ आँख = छोटी या लिबड़ी आँख) (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.8)
201 घुचघुचाना (= दुविधा में पड़ना; आँख मटकाना; चकित होना) (जतरा देख के बहरैलन वर ढूँढ़े ले । साथ वीगनो हल । पहुँचलन दीपक बाबू के कोठी पर, फूल-पत्ती से सजल-सँवरल । एगो कार भी दुआरी के सोभा दे रहल हल । तड़क-भड़क देख के भगत बाबू के मन फूल पर के भौंरा बन गेल । दाखिल भेलन वकील साहब के सिरिस्ता में । आहट पाके नजर उठौलन ऊ । चस्मा के भीतर से उनकर घुचघुचाइत आँख में बाघ के रोब अउ बिलाय के लोभ झलक गेल ।) (मपध॰02:10-11:41:3.5)
202 घुज्ज (~ अंधरिया) (सुभदरा उतरवारी कोठरी में चल गेल आउ फोन से बाबू जी के सूचना देलक कि बारिस के चलते हम गेस्ट हाउस में ठहरल ही । हियाँ असुरक्षित ही । घर पहुँचावे ला कउनो सवारी न हे । हम घुज्ज अंधरिया रात में अकेले कउनो हालत में न आ सकऽ ही ।) (मपध॰02:10-11:39:2.4)
203 घुड़मुड़ियाना (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । ... भुखले पेट पियासले कंठ ऊ नेवारी में घुड़मुड़िया गेल । ओकरा कखने नीन आयल केकरो पता नञ् ।) (मपध॰02:10-11:31:2.9)
204 घोंच (= तिर्यक्, तिरछा) (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.8)
205 घोघसना (अठवारा लग गेल । चमारी खेत दने से लउटल आ रहल हल । अइसे गुजरते ऊ अनभो कयलक कि कोय कहँड़ रहल हे । ऊ दउड़ के भिरी गेल । देखलक त राम उद्गार बाबू हथ । सउँसे देह में खून छलछलाल हल । मुँह घोघसल । अंगे-अंग चूरल ।) (मपध॰02:10-11:48:1.39)
206 चउठारी (- विवाह के चौथे दिन वर और वधू के घर में होने वाली पुजाई आदि का आयोजन) (ससुरार में चउठारी बीत गेल । तइयो मरद के दरसन न भेल । सिंगारो सोचलक कि घर में एतना भीड़-भाड़ में लाजे न आएल होएतन, बाकि पँचवाँ दिन खिड़की से दाई के साथ उनकर लीला देखते मन में शंका भेल ।) (मपध॰02:10-11:25:3.3)
207 चकैठ (= बलिष्ठ, मजबूत; मोटा-ताजा) (माय-बाप इंदरलोक में चलिये गेलन । गोड़बंधन जोरू-जाँता नहिये हे । तब काहे न देस के सेवा करल जाय । हम पढ़ाय-लिखाय में तो चिठिए-पाती भर लेकिन देह-दसा ठीक हे मलेटरी के लायक - एकदम मुस्तंड-चकैठ ।; "अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:32:3.18, 33:2.17)
208 चचा-भतीजा (बगदू सिंह हार गेलन । आखिर मान गेलन कि सिंगारो के भाग में एही बदल हे । साल-दु-साल पर चचा-भतीजा में सिंगारो के सवाल पर कहा-सुनी होइए जा हल ।) (मपध॰02:10-11:28:3.21)
209 चट्टी (= लकड़ी का चप्पल; चटाई; टाट की आसनी, चट्ट) (हुलास दुआरी पर बइठल हलन । चट्टी पर । हरखू अइलन अउर गत्ते से जम गेलन । हरखू एतना गत्ते से कहिओ न जमऽ हलन । ऊ दाहड़ो के बखत चर-फर हलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.20)
210 चरखानी (हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:3.4)
211 चरचराना (दू-चार धक्का में केबाड़ी चरचराय लगल । केबाड़ी खुलल त सब सन्न रह गेलन । राम उद्गार बाबू गारा में गमछी लगा के बड़ेंड़ी से झुल गेलन हल । उनकर जीन बित्ता भर बाहर निकल गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:48:3.11)
212 चर-फर (= तेज-तर्रार, फुरतीला, बहुत बोलने वाला, जल्दी में काम निपटाने वाला) (हुलास दुआरी पर बइठल हलन । चट्टी पर । हरखू अइलन अउर गत्ते से जम गेलन । हरखू एतना गत्ते से कहिओ न जमऽ हलन । ऊ दाहड़ो के बखत चर-फर हलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.23)
213 चलती (= प्रभाव; मान-मर्यादा, प्रसिद्धि, मान्यता) (हमरे घर के बगल में एगो इंजिनियर हे । नाम हे रमेश । साधारन परिवार के हे । मगर आझकल ओकरे चलती हे ।) (मपध॰02:10-11:44:1.17)
214 चापाकल (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.33)
215 चाल (= पुकार, आवाहन) (बाबा फेन से ताला लगा देलका, अउ कहलका - "अइहँऽ तउ चाल कर दीहँऽ ।" हम कहलूँ - "अच्छा बाबा, चाल देवोतब्बे खोलिहऽ ।") (मपध॰02:10-11:22:3.19, 20)
216 चिंचियाना (= चेंचियाना) (मइया गे मइया ! कसइया हमरा मारिए देलक । बाबू हो बाबू ! हमरा बचाबऽ ! - ई हिरदय विदारक दिरिस हल । कपार से लछमिनियाँ के खून बह रहल हल । केहुनी फुट्टल हल । लछमिनियाँ एकदम्मे बदहवास ! चिंचिया रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:18:2.12)
217 चिट-पुरजी (सोनियाँ अप्पन सोभाव से सबके मन लुभौले रहऽ हे । ऊ सुत्थर तो हे अइसन जइसे इन्नर के परी रहे अउ लुर-बुध में तऽ सरसतिये जी । गाँवे के बगल में सिसवाँ हाई स्कूल से मैट्रिक फस्ट डिविजन में पास कइलक ऊ भी सहर के इस्कूल में बेगर कोय चिट-पुरजी के इम्तिहान दे के ।) (मपध॰02:10-11:41:1.19)
218 चिट्ठी-पतरी (ऐसे हमरा पता हे कि ई हाइ-टेक जुग में चिट्ठी-पतरी के चलनसार उठल जा रहल हे । कय अदमी तो पोसकाड लिखना तौहीन मानऽ हथ ।) (मपध॰02:10-11:4:1.20)
219 चिट्ठी-पाती (माय-बाप इंदरलोक में चलिये गेलन । गोड़बंधन जोरू-जाँता नहिये हे । तब काहे न देस के सेवा करल जाय । हम पढ़ाय-लिखाय में तो चिठिए-पाती भर लेकिन देह-दसा ठीक हे मलेटरी के लायक - एकदम मुस्तंड-चकैठ ।) (मपध॰02:10-11:32:3.15-16)
220 चिड़ारी (= चिड़ार; चिता, सारा; मरघट, शमशान, जरही) (ओकर माय रोज सुबह-साँझ चिड़ारी के दुआरी पर खड़ा रहऽ हल । पता नञ् काहे रजेंदर के अप्पन घर के देवाल काटे ले दौड़ऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:1.11)
221 चिन्हास (= चिन्हा; चिह्न) (ओही हरखू हथ जे गाय मरला पर छँइटी भर तसल्ली देके उनखा हिम्मत के थूम पर अटकइले रहलन जब तक ऊ जगह न लेलक । ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल ।) (मपध॰02:10-11:36:3.28)
222 चिपरी (= पाथे हुए गोबर का खंड, गोइठा; गोइठा जिसपर आग सुलगाई जाती है) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:2.2)
223 चिरँई (= चिड़िया) (चपरासी बोलल - जउन घड़ी तू अइलऽ हल, ऊ घड़ी गेस्ट हाउस में एगो चिरँई भी न हल । हमरा का मालूम कि ई बून-पानी में कउनो मेहमान आ जइतन ।) (मपध॰02:10-11:38:3.24)
224 चिरईं-चिरगुन (अब उ दिन बहुर के कब आवत । फूलन का के दुआरी पर बसल गाँव । करीम का के दुआरी पर बसल गाँव । धीरे-धीरे सिमट रहल हल । चिरईं-चिरगुन अपन घोसला, अपन ठीहा बनावे लगल ।) (मपध॰02:10-11:35:2.26)
225 चिरञ्-चुरगुन (लपकल भागल गुलबिया अप्पन गाँव दने दौड़ल जाइते हल कि पौ फट गेल । चिरञ्-चुरगुन अप्पन खोंथा से नीला असमान में रेस करैत, चीं-चीं कर रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:20:1.3)
226 चिलोही (फेन बाबा चिलोही, आलू, सींभ अउ कच्चा मरीच दे गेला । चार जौ रसुन भी हल । हम कहलूँ - "अञ् बाबा ! रसुनो खा हो ? साधु-महात्मा की तो गरम चीज नञ् खा हथ ।") (मपध॰02:10-11:22:1.30)
227 चीन्हना (दे॰ चिन्हना) (सब कहे - खैर, पुजेरी बाबा धरमात्मा हलथिन, उनखा कुछ नञ् होलइ । पुजेरी बाबा कहथ - ई सब भगमान के जाचना हे बाबू । भला यहाँ की रक्खल हलइ हमनी साधू-संत हीं । मुदा कहलो जाहे - चोरो चीन्हे बीहन के धान, अउ बाघो चीन्हे बरहामन बच्चा ।) (मपध॰02:10-11:24:3.14, 15)
228 चुक्को-मुक्को (साव के दुकान से बत्ती के रोसनी में रमचरना के मुठान देखल जा सके हे । उ चुक्को-मुक्को एगो छोट चटाई पर बैठल हे । ओकर आँख के लंफ में तेले कम गेल हे । अस्सी बरस तो ओकर उमीर होत ।) (मपध॰02:10-11:34:1.22)
229 चुटकियाना (= चुटकी से मलना) (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:36:2.26)
230 चुरू (= चुल्लू) (बाप के नाम अउर हैसियत के बात सुनके सिंगारो के आग लेस देलक । ऊ काबू से बाहर हो गेल । आवाजो बेकाबू हो गेलइ - "हाँ, पता लगावे ला चाहऽ हलइन हमरा बाप के कि खनदानी हे कि खानगी ? सिरिफ दौलत वाला हे कि कुकरमी ? रखेलिन रखऽ हे कि न ? चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?" - "का बोलले ? चुरुआ भर पानी ? चार पोरसा पानी हे अबहीं कुइयाँ में । चल देख, चार पोरसा ... पानी ... हे अबहीं ।") (मपध॰02:10-11:27:2.10, 13)
231 चुल्हानी (= चुहानी; चूल्हे के पास का स्थान, रसोई घर, चौंका; घर की भीतरी कोठरी) (कउन पाप कएले हे ऊ कि तोर नाक कटे लगल समाज में ? फिर कटते हउ तो घुसल रह चुल्हानी । सिंगरिया तो चुल्हानी अउ बधारी दुनो सम्हारइत हे । हमरा खातिर वो ही बेटी, वो ही बेटा हे ।) (मपध॰02:10-11:28:2.9, 10)
232 चेतउनी (= चेतावनी) (ऊ केकरो से बतिअइलन न । ऊ एकरा चेतउनी नियन बुझलन । ऊ सोंच लेलन कि खर के घर में लुत्ती लगला पर आग के का बिगड़त । जब ला कोई इनार में डोल डालत तब तक त घरे राख हो जात ।) (मपध॰02:10-11:36:3.9)
233 चेस्टर (= अं॰ ब्रा, bra) (वकील साहब - तोहर कमर से सलवार कइसे ससरल, चेस्टर कइसे खुलल, ओढ़नी कइसे गीला भेल ? - सुभदरा - ई सब आनंद के करतूत हल ।) (मपध॰02:10-11:40:2.11)
234 चोर-चिहार (= चोर-चिल्हार) (बाप रे बाप ! कौन जमाना आ गेल कि मंदिरो ठकुरवारी के नै छोड़े सब चोर-चिहार । बेचारा पुजेरी जी रात भर रहला गड़मोगली लेले ।) (मपध॰02:10-11:24:3.2)
235 चौगिरदी (= चारों तरफ) (देखऽ ही गोरनार बाइस-तेइस बरिस के लइकी हे । गोल मुँह । सलवार-सूट में । कंधा के चौगिरदी ओढ़नियों । मुसुक-मुसुक के बतिअइले हे ।) (मपध॰02:10-11:16:2.1)
236 छँइटी (= छइँटी; टोकरी) (ओही हरखू हथ जे गाय मरला पर छँइटी भर तसल्ली देके उनखा हिम्मत के थूम पर अटकइले रहलन जब तक ऊ जगह न लेलक । ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल ।) (मपध॰02:10-11:36:3.24)
237 छउँड़ा (= छौंड़ा; बेटा, लड़का) ("से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:46:3.4)
238 छट्ठी (जब दुलरिया होल तो छट्ठी धूम-धाम से होल । ने अप्पन घर के कोय समांग, न ओक्कर घर के । खाली पास-पड़ोस आउ का ।) (मपध॰02:10-11:16:3.34)
239 छहुरावन (= छहुरामन) (एही एगो जुआन बेटा हो । ई संगे जइतो । कहिओ हमरा अकेले न छोड़लको । बराबर आँख के पुतली के सिरकी से तानले रहलो । झप न करे देलको । पानी से भींगे न देलको । सउँसे गरमी में, बादर के छहुराबन के, माथा पर टंगल रहली । का कहिओ ! अजगुत हो ई । कहिओ दोसर के अलम हम न लेली ।) (मपध॰02:10-11:34:1.12)
240 छाड़न (कोय काम पड़े पर ऊ रजेंदर के बोलावऽ हलन अउ नौकरी पर गया जाय घड़ी रात-अधरात, भोर-भिनसरवा रजेंदर उनका समान के साथ हिसुआ पाँचू चाहे तिलैया टीसन पहुँचावऽ हल । मिसिर जी गया में पढ़ावऽ हलन आउ अपन नया, पुरान-धुरान छाड़न सब रजेंदर के परिवार के दे हलन ।) (मपध॰02:10-11:31:3.23)
241 छिछियाना (लड़ाय-झगड़ा होबऽ हल । कधियो दु-चार थप्पड़ मारियो देलक । नीसा टुटे पर माफिओ माँग ले हल । फिन मेल-मिलाप । सोंचऽ हली - मरद जात, दूगो पइसा ला एन्ने-ओन्ने छिछियात चलऽ हे । थक जा होत तो का करत ?) (मपध॰02:10-11:17:1.7)
242 छिजना (हुलास-हुलासी मरल-टूटल न हल । खाय जुगुत ओकरा सब-कुछ हल । दुआर पर एगो गाइयो हल । ओकरा ऊ लछमिनिया कहऽ हल । ओकर दोसर बिआन के बखत रमरतना जनम लेलक हल । दुनुँ साँझ में पाँच सेर दूध उ करऽ हल । से हुलास-हुलासिन के संतोख के उ कभिओ छिज्जे न देलक ।) (मपध॰02:10-11:34:3.5)
243 छित्ति-छाँय (= छित्ति-छान) (हम अपन बाबू के पगड़ी बचावे ल ई सब करते-धरते ही । नञ् त आज हमरा सो-पचास रुपइया ले भी छित्ति-छाँय नञ् होवे पड़त हल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.1)
244 छिरिआना (= अ॰क्रि॰ तितर-बितर होना; स॰क्रि॰ तितर-बितर करना) (अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक । धेयान तोड़ के दोकान के भीतर जाय लगल त नजर नीचे गेल, ओकर गेंदरा सुपती पर छिरिआल हल । 'ओह ! ईहे ऊ बात के बंद करावे के कारन हे । एकरे गिरे के ढब सन अवाज दुनहुँ के कान तर चल गेल होत ।' ऊ मन मसोस के रह गेल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.3)
245 छुटहा (= छुट्टा) (~ साँढ़) (ओहनी के गरज हल कुँवार रहे से कुल के इज्जत माटी में मिल जाएत । एहनी के भरम हइन कि छुटहा साँढ़ जुगा थामत । पता लगावे के काम हल तोर बाप के । पचास बिगहा के जोतनियाँ, बनिहार के हैसियत वाली लड़की काहे लेत ।; तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।) (मपध॰02:10-11:27:1.35, 28:1.10)
246 छूत-छात (तूँ सब हमनी के चोर समझऽ हो, मुदा हमनी चोर नञ् ही । हम समानता चाहऽ ही, चोर तूँ हऽ जे सब के ठग रहला हऽ अउ समाज में छूत-छात, ऊँच-नीच अउ जात-धरम के नाम पर भेद बढ़ा रहला हऽ ।) (मपध॰02:10-11:23:3.18)
247 छो-पाँच (~ करना) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.14)
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