मपध॰
= मासिक "मगही पत्रिका"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना
पहिला
बारह अंक के प्रकाशन-विवरण ई प्रकार हइ -
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वर्ष अंक महीना
कुल
पृष्ठ
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2001 1 जनवरी 44
2001 2 फरवरी 44
2002 3 मार्च 44
2002 4 अप्रैल 44
2002 5-6 मई-जून 52
2002 7 जुलाई 44
2002 8-9 अगस्त-सितम्बर 52
2002 10-11 अक्टूबर-नवंबर 52
2002 12 दिसंबर 44
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मार्च-अप्रैल
2011 (नवांक-1) से
द्वैमासिक के रूप में अभी तक 'मगही पत्रिका' के नियमित प्रकाशन हो रहले ह ।
ठेठ
मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर
पृष्ठ संख्या, चउठा कॉलम संख्या (एक्के कॉलम रहलो पर
सन्दर्भ भ्रामक नञ् रहे एकरा लगी कॉलम सं॰ 1 देल गेले ह), आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति
संख्या दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (अंक 1-9 तक संकलित शब्द के
अतिरिक्त) - 692
ठेठ मगही शब्द (ज से फ तक):
248 जउरे (= जौरे; साथ-साथ) (हमनी ओही मकान में जउरे रहऽ हली । हम कउनो काम-धाम नञ् करऽ हली । अपनहीं नियर खाली घर सँभारे के हल ।) (मपध॰02:10-11:16:3.31)
249 जजात (= फसल) (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।) (मपध॰02:10-11:28:1.9)
250 जदि (= यदि) ("अरे सार बनियाँ ! तूँ तो अइसे बोले हें जइसे चमरिया तोर बाप हउ । ... जइसे तूँ धरम के पंडित हें ।" ई राम उद्गार बाबू के अवाज हल । - "उद्गार चा, चमरिया तो ससुर बुड़बक हइ । एक बरिस के आधो गल्ला ऊ जदि बेच दे त तोर करजा असुल हो जाय ।" मुनाकी रोस में बोलल हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.25)
251 जनाना (= सं॰ औरत, पत्नी; क्रि॰ दिखाई देना) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?") (मपध॰02:10-11:23:2.35)
252 जनावर (= जानवर) (लछमिनियाँ के जनावर नियर ओक्कर मरद मार डंटा, मार डंटा कूट देलक हल । निरदय ! सउँसे बदन में बाम उखड़ल । लिलारो फुट्टल ।) (मपध॰02:10-11:16:3.6)
253 जबबदेही (= जवाबदेही) (वइसे की तो उ अप्पन घर-परिवार के जबबदेही से निचिंत हल काहे कि बाप के मरे के पाँच महीना बाद माइयो सुरधाम चल गेल । उमर होवे पर भी रजेंदर पता नञ् काहे विवाह नय करऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.17)
254 जमकड़ा (गाम के मुखिया भरत बाबू के बैठका पर समाचार सुने ले भीड़ उमड़ल हल । समूचे गाम के जमकड़ा उहें लगल हल ।) (मपध॰02:10-11:31:1.11)
255 जमनका-जमनकी ('मगही कथा सरोवर' में संपादक छोड़ के जानल-मानल लोग के कहानी रखल गेल हे । तनी जमनको-जमनकी एकरा में गोता लगावत हल त अच्छा रहत हल ।) (मपध॰02:10-11:11:1.17)
256 जमानी (= जवानी) (कुरंग के रंग बड़ा चट्टक लगे हे बाकि धूप बुन्नी में उधिया जाहे । ओइसने जमानी के लुक्का-छिपी हे, उ प्रेम न हो सके । प्रेम कउनो फरही न हे, हमरा-तोरा के । ओकरा में त लोक बिका जाहे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.22)
257 जरना-मरना (चमारी सात बरिस से जर-मर के चालिसो-पचास मन गल्ला उपजावे बकि कहियो साल नञ् कटे । ओकर मनसूबा पर पानी फिरे लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:1.17)
258 जहँमा-तहँमा (= जहाँ-तहाँ) (-"हरमियाँ गोपला आझ बड़ मारलक हे ।" ऊ अप्पन मरदाना गोपाल के बारे में बता रहल हल । सऊँसे पीठ उघार के देखउले हल । जहँमा-तहँमा पीठ फट गेल हल । लिलारो से एक ठामा खून निकस रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:15:1.23)
259 जहंडल (~ करना = तंग करना, परेशान करना) ("बकि उद्गार चचा, ई तो जुलुम हइ । तूँ ऊ गरीब के जहंडल कर रहलहो हऽ । जान लऽ, भारी सुरिआहा हको चमरिया । जब ओकरा ई बात के जनकारी होतो त ऊ तोरा छोड़तो नञ् । सोंचे के चाही चचा, ओतना सीधा आउ कमासुत जुआन ई युग में कहाँ मिलऽ हे ।" ई मुनाकी के राय हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.12)
260 जहर-कनैली (जतरा देख के बहरैलन वर ढूँढ़े ले । साथ वीगनो हल । पहुँचलन दीपक बाबू के कोठी पर, फूल-पत्ती से सजल-सँवरल । एगो कार भी दुआरी के सोभा दे रहल हल । तड़क-भड़क देख के भगत बाबू के मन फूल पर के भौंरा बन गेल । दाखिल भेलन वकील साहब के सिरिस्ता में । आहट पाके नजर उठौलन ऊ । चस्मा के भीतर से उनकर घुचघुचाइत आँख में बाघ के रोब अउ बिलाय के लोभ झलक गेल । मतलबी मुस्कान के जहर कनैली खिलावइत बोललन - "ए वीगन बाबू, ढेर दिन पर दरसन देलऽ जी ।") (मपध॰02:10-11:41:3.7-8)
261 जाँगड़ (= जांगर, जंगरा; शरीर का बल, बूता) (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.12)
262 जाँतना (= दबाना) (फुलमतिया के जुआनी बैसाख के नदी नियन अपन पाट छोड़ के सिकुड़ गेल । अनकट्ठल सपना में ऊ सबके झोंके न चाहे हे । ओकरा अप्पन खबर हे । बाकि ऊ का कर सके हे । जिनगी, लावा-फुटहा त न हे, जे जहाँ-तहाँ गिरल त गिरल । जी जाँत के ऊ रतन से अप्पन आँख मोड़े लगे हे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.37)
263 जात-भाई (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।; सुनइत-सुनइत बगदू सिंह के कान पक गेल । सिंगारो के चिंता, जात-भाई, गाँव-घर के झिड़की बूढ़ा देह केतना सहइत । एक-दू महीना में खटिया पकड़ लेलन । मउवत के नजदीक देख के पंडी जी के बोललवलन ।) (मपध॰02:10-11:28:1.10, 30:1.5)
264 जात-समाज (हम तो औरत जात ही । हमरा मिरतु मामूली बात हे, पूरे समाजो खातिर । हमरा जिअले गुनाह हे । बाप के खेत-खरिहान में हाड़ गला के निरबाह करिला तो सउँसे जात-समाज के नाम कटइत ही । एही जात-समाज के सामने एही गुंडा हमरा माँग में सेनुर देलक लेकिन एकर मेहरी हे रुकमिनियाँ ।) (मपध॰02:10-11:29:2.6, 7)
265 जिनगी (= जिन्दगी) (आँख से टुप-टुप लोर गिरे लगल गुलबिया के, ई सब कहते-कहते । फेन बोले लगल ऊ - "हाय रे सीता माता के जिनगी । हाय रे औरत के जिनगी ।") (मपध॰02:10-11:21:1.8, 9)
266 जिम्मेवारी (= जिम्मेदारी) (ऊ कहलन - "हम तो बाप ही सरकार ! कौन बाप कसइया होएत कि बेटी के जिनगी बनावल-बसावल न चाहत । अपने सब सिंगारो के जिनगी के जिम्मा लेऊँ तो हम अपन कलेजा पर पत्थल रख के कह देब - जो बेटी ससुरार बस, बाकि सिंगारो के उहाँ जाए ला राजी करे के जिम्मेवारी अपने सब पर हे ।") (मपध॰02:10-11:29:1.13)
267 जिरह (= वह पूछताछ जो किसी के कथन की सच्चाई परखने के लिए की जाय) (सुभदरा - जदि जेल में रहती हल तब कुछो हरज न हल । हमरा जे गिंजन समाज में हो रहल हे, ऊ तो न होवत हल । सत्र न्यायाधीश बोललन - वकील साहब ! आउ जादे जिरह के जरूरत न हे । मेडिकल रपट सच्चाई के खुलासा कर देलक हे ।) (मपध॰02:10-11:40:3.1)
268 जिराना (= आराम करना, सुस्ताना, थकान दूर करना) (बेटा, कल जिरा के परसूँ गलवा धर अइहें । हम थोड़े दिन ले काशी जा रहलिऔ हे कल ।" कह के इत्मिनान से राम उद्गार बाबू जाय लगलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.11)
269 जिला-जेवार (भगत बाबू एगो बेस खुसहाल किसान हथ, नीयत के साफ हउ दिल के नेक । लंद-फंद से कोसो दूर । एही गुने जबकि उनकर जिला-जेवार आतंक में झुलसइत हे तइयो उनखा लेल आझो राम-राज हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.4-5)
270 जीमन (= जीवन) (गरीब ला गाय अउर संतोख दुन्नु एगो जरूरी समान हे, जे दुनु बेकत जिनगी भर जोगइलक अउर जोगइलक अप्पन स्वाभिमान के भी, जे कम जरूरी न हल । फजूल के चाह अदमी के जीमन में खउरा लगा देहे ।; सरसों के फूल के रंग वसंत चुरा लेलक । बाकि फर के झाँस गरीब के जीमन में समा गेल । ई जीमन के झाँस ओकरा संजोगे पड़त । आँख मोड़े पड़त) (मपध॰02:10-11:34:3.16, 35:3.27, 28)
271 जुकुन (= जुकुत, जुकुर; समान, जैसा) (इआ धरती माय डोलऽ, जोर से डोलऽ ! फिरो फटऽ न एक बार कि सीता माय जुकुन तोर कोख में समा जाऊँ । हे इनर देवता ! गिरावऽ बिजली, बज्जर गिरावऽ । पपिअन पर न सही तो हमरे पर गिरावऽ । भसम कर द एही खनी कि सभे हो जाए सोआहा ।) (मपध॰02:10-11:25:1.12)
272 जुकुर (= तरह, समान; लायक) ("ई बात तो निक्के कहले हें चमारी । तोर मेहरारू ई जुकुर के हइए हव । घर में पड़ल-पड़ल फरमाइस करे में कुछ लगे हे । कहिओ दोकान-दौरी करऽ हव थोड़े, जे ओकरा आँटा-दाल के भाव मालूम रहे ।" ओकरा उसकावे ल दमड़ी साव बोललन ।) (मपध॰02:10-11:47:1.26)
273 जुगा (= जुआ; पालो) (ओहनी के गरज हल कुँवार रहे से कुल के इज्जत माटी में मिल जाएत । एहनी के भरम हइन कि छुटहा साँढ़ जुगा थामत । पता लगावे के काम हल तोर बाप के । पचास बिगहा के जोतनियाँ, बनिहार के हैसियत वाली लड़की काहे लेत ।) (मपध॰02:10-11:27:1.36)
274 जुगुत (= युक्ति; जुकुत, जुकुर, लायक) (गुलबिया माय पुछलक - "बड़ी बढ़ियाँ साड़ी हउ गे, पहुनमा लाके देलथुन ?" गुलबिया बोलल - "ऊ दारू पीयत कि साड़ी लाके देत ?" - "अपने कोय जुगुत से लेलाँ होत, बकड़ी-छकड़ी बेच के । फेन पुछलक - "अञ् गे, अबरी ससुरा बड़ी मानलकउ हे, हँसुली लरछा देलकउ हऽ ।"; हुलास-हुलासी मरल-टूटल न हल । खाय जुगुत ओकरा सब-कुछ हल । दुआर पर एगो गाइयो हल ।) (मपध॰02:10-11:24:2.26, 34:2.30)
275 जुल-जुल (~ बूढ़ी) (अब रजेंदर के घर में ओकर दुगो मुस्तंड बंडा बैल जइसन चचेरा भाय अउ पकल आम जइसन जुल-जुल बूढ़ी माय के सिवा कोय नञ् हल । चचा-चाची दोसर गाम में रहऽ हलन ।) (मपध॰02:10-11:32:1.8)
276 जे (= जो) (गरीब ला गाय अउर संतोख दुन्नु एगो जरूरी समान हे, जे दुनु बेकत जिनगी भर जोगइलक अउर जोगइलक अप्पन स्वाभिमान के भी, जे कम जरूरी न हल ।) (मपध॰02:10-11:34:3.13, 15)
277 जेबार-गाम (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.31)
278 जेमना (= खाना) (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.31)
279 जोतनियाँ (= कृषक, किसान) (पचास बिगहा के ~) (ओहनी के गरज हल कुँवार रहे से कुल के इज्जत माटी में मिल जाएत । एहनी के भरम हइन कि छुटहा साँढ़ जुगा थामत । पता लगावे के काम हल तोर बाप के । पचास बिगहा के जोतनियाँ, बनिहार के हैसियत वाली लड़की काहे लेत ।) (मपध॰02:10-11:27:2.1)
280 जोरू-जाँता (माय-बाप इंदरलोक में चलिये गेलन । गोड़बंधन जोरू-जाँता नहिये हे । तब काहे न देस के सेवा करल जाय । हम पढ़ाय-लिखाय में तो चिठिए-पाती भर लेकिन देह-दसा ठीक हे मलेटरी के लायक - एकदम मुस्तंड-चकैठ ।) (मपध॰02:10-11:32:3.13)
281 जोरे (= जौरे; साथ में) (दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !; हम अप्पन बसेरा ढूँढ़ लेम । मगर ई गोपला जोरे नञ् जीयम । हम ठीके रसता चुनम मइया ।; भाय में ऊ अकेलुआ हल । बहिन पुनियाँ के बियाह के सियाँक ओकरा नञ् हल । चमारी मेहरारू जोरे घर में रहे लगल आउ कुछ खेत बटइया ले के औगल से खेती नाध देलक ।) (मपध॰02:10-11:19:2.5, 3.9, 46:1.12)
282 जोस-तागत (देस के माटी के महक जेकरा नञ् जोस-तागत भरलक उसकइलक, ओकर जवानी के धिक्कार । समझ ले कि ओकर काया में घुन्न लगल हे ।) (मपध॰02:10-11:33:2.8)
283 जौ (चार ~ रसुन) (फेन बाबा चिलोही, आलू, सींभ अउ कच्चा मरीच दे गेला । चार जौ रसुन भी हल । हम कहलूँ - "अञ् बाबा ! रसुनो खा हो ? साधु-महात्मा की तो गरम चीज नञ् खा हथ ।") (मपध॰02:10-11:22:1.31)
284 झक्खन (गुलबिया बोलल - "सब ठीक हे बहीन । हमहीं एगो खराब ही । रोज-रोज के झक्खन से परान आजिज हो गेल हल, एहे से घर छोड़ के कल साँझे भाग अइलूँ हे ।") (मपध॰02:10-11:20:1.31)
285 झटे (= झटपट) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल । चमारी अकानलक - 'ई अवाज तो राम उद्गार बाबू के हे ।' झटे दुआरी के बहरे एगो पाया में पीठ आउ मोखा से माथा टिका के भीतर के बात सुने लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.19)
286 झप (एही एगो जुआन बेटा हो । ई संगे जइतो । कहिओ हमरा अकेले न छोड़लको । बराबर आँख के पुतली के सिरकी से तानले रहलो । झप न करे देलको । पानी से भींगे न देलको ।) (मपध॰02:10-11:34:1.10)
287 झरकना (रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.5)
288 झरी (= झड़ी) (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.2)
289 झाँस (सरसों के फूल के रंग वसंत चुरा लेलक । बाकि फर के झाँस गरीब के जीमन में समा गेल । ई जीमन के झाँस ओकरा संजोगे पड़त । आँख मोड़े पड़त ।) (मपध॰02:10-11:35:3.22, 23)
290 झाठना (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.22)
291 झारना (= झाड़ना) (चार दिन बाद धान झार के अब ओकरा सूप से हौंक के भउँठा निकाल रहल हल चमारी कि ओन्ने से राम उद्गार बाबू अइलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.2)
292 झिंझिर (~ पीटना) (दू बज गेल । सब के इंतजार के घड़ी गुजरना मोसकिल हो गेल । आखिर राम उद्गार बाबू के घर में बोलहटा पेठावल गेल । घर से मालूम भेल कि ऊ दूरे पर कोठरी में रहतन, ई कह के अइलन हे घर से । सोनुआँ कोठरी खोलवे गेल । ढेर देरी तक झिंझिर पिटला पर भी कोय जवाब नञ् मिलल त सोनुआँ लउट आल ।) (मपध॰02:10-11:48:3.3)
293 झिटकी (इ मन हे कि मानवे न करे । आँख बेअग्गर हो जाहे, का करूँ । टिकोला के लोग झिटकियो से तोड़ के गिरा दे हथ । कुछ जमीन में लेथरा के कुचला जाहे । टिकोला आम न हो सकल, पेड़ गुजुर-गुजुर देखते रह जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.15)
294 झिटना (= झिंटना; ठगना) ("अब का तकलीफ हइ । निमन साड़ी, नेग सब तो ओकरा देली हे ।बड़की ठगिन हे । तोरो से झिटे के फेर में होएत ।" -"ऊ हमरा से का झिटत ? पहिलहीं से ई घर के रानी बनल हे । ओकर सौतिन बनाके तो हमरा बोलावल गेल हे ।") (मपध॰02:10-11:26:1.37, 2.2)
295 झुट्ठे-झुट्ठे (कपड़ा बदलैत खनी लगल कि कोय भुरकी से हुलक रहल हे । हम जब कपड़ा बदल के ओने गेलूँ तो देखऽ ही कि ठकुरवारी के ओसारा पुजेरी बाबा झुट्ठे-झुट्ठे बढ़नी से बहाड़ रहला हे ।) (मपध॰02:10-11:21:2.38)
296 झुरी (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । बिना खइले-पिले ढेर रात तक ऊ आम के सुक्खल लकड़ी-झुरी अउ गोड़ के गांजल पोआर जग के तापते रहल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.1)
297 टरकाना ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.16)
298 टाँड़ी-टिक्कर (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.24)
299 टिकोला (= अमौरी; छोटा कच्चा आम) (इ मन हे कि मानवे न करे । आँख बेअग्गर हो जाहे, का करूँ । टिकोला के लोग झिटकियो से तोड़ के गिरा दे हथ । कुछ जमीन में लेथरा के कुचला जाहे । टिकोला आम न हो सकल, पेड़ गुजुर-गुजुर देखते रह जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.14, 17)
300 टुकुर-टुकुर (हाँ, आझ से हमहीं तोर बाप ही आउ तों हम्मर बेटी । ऊ हमरा दन्ने टुकुर-टुकुर ताक रहल हल । ओक्कर आँख में छितरायल लोर । अपना के सँभारलक । गते-गते ओक्कर आँख में चमक लउट आयल हल ।; हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।) (मपध॰02:10-11:16:2.37, 21:3.22)
301 टुस-टुस (~ लोर बहाना) (आँख मुनल के मुनले रह गेल । देह में हरकते न हे । दुआरी पर लइकन-बुतरू सब आ गेलन । रामरतन टुस-टुस लोर बहावित हे, कहइत हे - अब हमरा से कनसार कहिओ न जुटतो !) (मपध॰02:10-11:37:3.14)
302 टेंट (= धोती का वह भाग जिसे गोल ऐंठ कर कमर में बाँधते हैं; रुपया रखने की एक प्रकार की थैली जिसे कमर में बाँधते हैं) (अञ् बाबू, ई का इनसाफ हे, मरद जब चाहे अप्पन अउरत बदल ले ? जखनी चाहे टेंट से रुपइया निकास के कउनो दोसर अउरत के अप्पन बिछउना पर ले आवे ? आझ के जमाना में बेला वजहे कोय एक से जादे बिआह कर सकऽ हे ?; ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल । हुलास गम लेलन । टेंट से खैनी निकाललन । चुन्ना फेंटलन अउर लटियावे लगलन - का हो ! मन बेअग्गर लगऽ हो, का बात हो ? ... चुप काहे हऽ, कहऽ ।) (मपध॰02:10-11:19:2.10, 36:3.29)
303 टोड़ना (= तोड़ना) (हम नञ् जानऽ हली भगमान कि सउँसे संसार भर के अदमी खाली अप्पन सोआरथ ल मरऽ हे । राम उद्गार बाबु के हम कहियो कि बिगाड़ली हल जे हमरा ल मउगत बनल हथ । हाड़ टोड़ के कमा ही बकि हाइए पेट में दिन गुजरे हे ।) (मपध॰02:10-11:47:2.31)
304 टौच (= टौर्च) (हमरा से कहलका - "ए गे मइयाँ, की बाहरो डोल-डाल जइमहीं ?" हमरा जरूरत तो नञ् हल, मुदा सोचलूँ कि एहे बहाने भाग जाय के चाही । ई बाघ के मान में रहला से तो अच्छा हे जंगले में रहना । हम 'हाँ' कहलूँ । बाबा बड़का गो लोटा अउ टौच देलका ।; ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.15, 3.35)
305 ठकुरवारी (= ठाकुरवाड़ी) (भुक्खल तो हइये हलूँ, बड़ी जोड़ से पिआस भी लगल हल । जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला ।; कहाँ घर हउ मइयाँ ? कहाँ से आ रहलाँ हे, एत्ते कुबेर के ? तूँ तो ई गाँव के ने तो बेटी हँ, ने तो पुतहू । हलाँकि गाँव ठकुरवारी से थोड़े दूर हे, फिर भी हम सभे घर के औरत के चिन्हऽ हूँ ।; एगो मोंट-घोंट अदमी जे जमात के मेंठ बुझाल बोलल - "अच्छा, ई तो कह, जब ठकुरवारी में हलहीं तब बाहर काहे ले निकललहीं ?") (मपध॰02:10-11:20:2.14, 24, 23:1.10)
306 ठीहा (= ठेहा; जमीन में गड़ा या जमीन के ऊपर रखा लकड़ी का कुंदा जिस पर काटने-छाँटने का काम करते हैं, निसुआ, निसुहा; लकड़ी का कुंदा जिस पर बढ़ई, कसेरा आदि ठोकने-पीटने का काम करते हैं; बैठकर काम करने का ऊँचा स्थान, आसन; आश्य, सहारा) (सब हिसाब से रहलन । जब तक पानी बरसत, दुन्नु के दुआर-दलान अउर सब ठीहा गोबरधन पर्वत बनल रहल ।; अब उ दिन बहुर के कब आवत । फूलन का के दुआरी पर बसल गाँव । करीम का के दुआरी पर बसल गाँव । धीरे-धीरे सिमट रहल हल । चिरईं-चिरगुन अपन घोसला, अपन ठीहा बनावे लगल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.22, 2.27)
307 ठोर (= ओंठ) (हरखू ई कहके खैनी के रगड़ मार के ठोकलन, तरहत्थी के गरदा के फूँक मार के उड़ा देलन, अउर खैनी बढ़ा देलन । हरखू खैनी ठोर में रखलक अउर अपन चिंता के पुड़िया खोल के हुलास के आगू रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.36)
308 ठौर-ठेकाना (अब सवाल हे जोग लइका ढूँढ़ना बाकि दाँव-पेंच ओला ई दुनियाँ में जोग लइका ढूँढ़ना ओतनै मुस्किल जेतना डालडा से भरल बजार में खाँटी घीउ । लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज । कोर्ट-कचहरी उनकर ठौर-ठेकाना अउ वकीले-मोखतार संगी-साथी हे । ओही बतौलन कि पटना हाईकोर्ट के नामी-गिरामी वकील दीपक बाबू भिजुन एगो लइका हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.31, 2.3)
309 डंगुरी-पत्ता (एक दिन दुपहरिया में जब उ खरिहान में आम के चिक्कन पटरा पर धान के नेवारी पीट रहल हल, तो माथा पर से एक लगउरिये बड़ी नगीच से सेना के छो-सात गो छोटका हवाई जहाज उड़ के निकल गेल । खरिहान के आसपास के पेड़ के डंगुरी-पत्ता कुछ देर ले नाचे लगल, जइसे हवाइ जहाज के पंखी ओकरा छू देलक हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.1)
310 डंटा (= डंडा) (हम्मर तरवा के गोस्सा कपार पर चढ़ गेल । हम गरियावे लगली गोदाल करे लगली । एकरे पर गोपला हमरा मार डंटा, मार डंटा हउँक देलक ।; लछमिनियाँ के जनावर नियर ओक्कर मरद मार डंटा, मार डंटा कूट देलक हल । निरदय ! सउँसे बदन में बाम उखड़ल । लिलारो फुट्टल ।) (मपध॰02:10-11:15:3.3, 4, 16:3.7)
311 डंडी (~ मारना) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.23, 25)
312 डरामा (= ड्रामा) (सितबिया बोलल - "अञ् बहीन गुलबिया ! ओहाँ से भाग काहे नञ् गेलाँ हल, जे एतना डरामा सह रहलाँ हल ।") (मपध॰02:10-11:22:1.12)
313 डहुँघी (= डउँघी; डाली) (रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.2)
314 डांगर (= गाय, भैंस आदि पशु; चौपाया सींग वाले मवेशी) (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.23)
315 डागडर (= डॉक्टर) (फुलमतिया के देह-माथा जर रहल हे । ऊ सोचलन कि भोर तक ठीक हो जायत, न त डागडर के यहाँ जायम ।) (मपध॰02:10-11:37:3.7)
316 डिड़ी (चौदह वसंत बीत गेल हल । फुलमतिया के मन पकल सरसो के डिड़ी नियन फट के छितरा जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.20)
317 डेंगाना (= पीटना) (हमर जे मरद कम-बेसी कमा हे, सब दारुए में फूँकऽ हे, घर आवऽ हे तउ हमरा खाली नोंच-नोंच के खाहे । ना-नुकुर करऽ ही तो धान नियन डेंगावऽ हे । एकदम्मे परान आजिज हो गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:24:2.7)
318 डेराना (= अ॰क्रि॰ डरना; स॰क्रि॰ डराना) (इनकर बाबूजी के जिनगी अछते कोई बेलगाम न हल । उनका गुजरते माय के दुलार सबके बिगाड़ देलक । ई सबसे छोट हथ, इ से सबसे ज्यादे साँढ़ हो गेलन । ताकतवर हथ, गवरू जवान । बात-बात पर लाठी-फलसा निकालेवाला । तोर जेठो इनका से डेरा हथू ।) (मपध॰02:10-11:26:2.26)
319 डोल-डाल (= पाखाना जाना) (भुक्खल तो हइये हलूँ, बड़ी जोड़ से पिआस भी लगल हल । जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला ।; हमरा से कहलका - "ए गे मइयाँ, की बाहरो डोल-डाल जइमहीं ?" हमरा जरूरत तो नञ् हल, मुदा सोचलूँ कि एहे बहाने भाग जाय के चाही । ई बाघ के मान में रहला से तो अच्छा हे जंगले में रहना ।) (मपध॰02:10-11:20:2.16, 22:3.10)
320 ढब (~ सन अवाज) (अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक । धेयान तोड़ के दोकान के भीतर जाय लगल त नजर नीचे गेल, ओकर गेंदरा सुपती पर छिरिआल हल । 'ओह ! ईहे ऊ बात के बंद करावे के कारन हे । एकरे गिरे के ढब सन अवाज दुनहुँ के कान तर चल गेल होत ।' ऊ मन मसोस के रह गेल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.5)
321 ढिबरी (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:2.3)
322 ढेंगराना (= अ॰क्रि॰ ढेर लगना; स॰क्रि॰ ढेर लगाना) (इहाँ के दिरिस कुछ अलगे हे । कहीं खून टपकइत हे, तो कहीं लहास पर लहास ढेंगरायल हे । कोय दाँत निपोरले, कोय आँख फारले, केकरो कनपट्टी लापता, तो केकरो टंगरी, केहुनी ।) (मपध॰02:10-11:33:3.31)
323 तनिक्को (= जरा भी) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।; हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.24, 21:3.25)
324 तरवा (आझ एगो दोसर जन्नी अपना जउरे लेले आल । ... देखऽ ही सच्चो एगो करिया जन्नी दू गो लइका साथ दुआरी पर खड़ा हे । दुन्नू हम्मर बेटी, दुलरियो से बड़ । हम्मर तरवा के गोस्सा कपार पर चढ़ गेल ।) (मपध॰02:10-11:15:2.31)
325 तरहँत्थी (दे॰ तरहत्थी) (हमनीन गरीबन के सहायते ले तो जान तरहँत्थी पर लेके घूमल चलऽ हूँ, भले ऊ कोय जात-धरम के रहे । ई पुजेरिया के बारे में कते बेरी लंद-फंद सुन चुकलूँ हऽ ।) (मपध॰02:10-11:23:1.24)
326 तरहत्थी (हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।; हरखू ई कहके खैनी के रगड़ मार के ठोकलन, तरहत्थी के गरदा के फूँक मार के उड़ा देलन, अउर खैनी बढ़ा देलन । हरखू खैनी ठोर में रखलक अउर अपन चिंता के पुड़िया खोल के हुलास के आगू रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:21:3.24, 36:3.34)
327 तरेंगन (= तरिंगन; तारा) (चमारी के लगल जइसे सउँसे धरती हिल रहल हे ... तरेंगन सब नाच रहल हे । ऊ सरिआ के दुन्नु हाँथ से मोखा थम्ह लेलक आउ बउड़ाल मन पर काबू पावे के कोरसिस करे लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.29)
328 तसफ्फी (= तस्फिया; तस्विया; तसफीहा; समझौता; फैसला; मेल-जोल, राय-विचार) (बात तसफ्फी में बदल गेल । फुलमतिया के बिआह रामरतन से हो गेल । जे दिन फुलमतिया के बिआह के बाजा बजल, रतन के कुलबुलाहट बढ़ गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:37:1.14)
329 तिलाक (= तलाक; कड़वी बात के साथ ललकार या चुनौती) (मथुरा के नाम सुनते सिंगारो के देह में आग लेस गेल । जोरदार एतराज कएलक - "मथुरवा हाथ न लगा सके । ऊ पापी जिनगी भर इनकर विरोध कएलक । मरलो पर चैन न लेवे देत ? बाबू जी ला बेटा सिरिफ हम ही अउर कोई न हे । आग हम देब । कोई दूसर के न देबे देब । सबके तिलाक हे हमर ।") (मपध॰02:10-11:30:2.2)
330 तीथा (= कुएँ का जगत; कुएँ के पास कूँड़ी आदि से पानी ढालने का मिट्टी, पुआल आदि का बना साधन; दीवाल के बगल में उठाया चबूतरा, ओटा; बैठने या सामान रखने का ऊँचा स्थान) (सास, जेठानी चिल्लाए लगलन - दउड़ऽ हो, कुँइयाँ में पुतोह गिर गेल । ... कँपकँपाइत सिंगारो बाहर अएलन । तीथा पर से सास, जेठानी हाथ पकड़ के घर के अंदर कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.28)
331 तुल (= तुल्य, बराबर, समान) (हम अनजाने में हाँथ जोड़ देलूँ, अउ जमात के मेठ के जाइत टुकुर-टुकुर देखऽ लगलूँ । लंबा छरहरा, गोरनार अदमी, लमगर-लमगर मोंछ, धोती-कुरता पेन्हले, माथा में लाल गमछा बाँधले । बड़ी सोहनगर लग रहल हल । हम मने मन ऊ देउता तुल अदमी के परनाम कयलूँ । अउ पुजेरी बाबा के नाम पर थूक बिगते पैन पार कयलूँ कि तूँ मिल गेलाँ ।) (मपध॰02:10-11:24:1.34)
332 तेल-कूड़ (हम्मर मेहरारू बतउलन हल - बड़ बेस सोभाव के हे । एक्के डेरा आउ पप्पू हीं काम करऽ हे, आउ हमरे हीं पड़ल रहऽ हे । जब से जानलक हल हमहूँ मुंगेर जिला के बेटी ही, तबसे हमरा मइया कहऽ हे । गोड़ो दबा देहे । तेलो-कूड़ कर देहे । खाइ ला जे देही, खा ले हे । अब तो चाहो बना देहे ।) (मपध॰02:10-11:16:2.19)
333 तोपाना (= तोपना का अकर्मक रूप; छिपना, अदृश्य या गायब होना, ढँक जाना, बन्द हो जाना) (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल । जेकरा पर अलम हल ओहु बेअलम हो गेल । बुतरू सब बिमारी से तोपा गेल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.5)
334 थम (= थुम्हा; स्तम्भ) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.18)
335 थम्हना (= पकड़ना, थामना, गिरने न देना, सहारा लेना; रुकना, ठहरना, विराम लेना) (चमारी के लगल जइसे सउँसे धरती हिल रहल हे ... तरेंगन सब नाच रहल हे । ऊ सरिआ के दुन्नु हाँथ से मोखा थम्ह लेलक आउ बउड़ाल मन पर काबू पावे के कोरसिस करे लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.31)
336 थरिया (= थारी; थाली) (पितराही ~) (हाथ-पैर लंबा-लंबा । अइसन लगऽ हल कि वंश में एगो सुरूज उगल हे । बाप बहुते खुस हल । नाच-नाच के पितराही थरिया बजइलक हल । घरवाली ले गुड़ अउर हरदी के हलुआ बनवइलक हल ।) (मपध॰02:10-11:34:2.19)
337 थारी (= थाली) (पुजेरी बाबा ललटेन के ईंजोरा में टुकुर-टुकुर हमर देह देख रहला हल अउ ओजय बैठ के थारी, घंटी, दीआ धो रहला हल, खोद-खोद के ।) (मपध॰02:10-11:21:2.26)
338 थारी-बरतन (गुलबिया सितबिया से फेन लगले बोलल - एक दने हम खाढ़ डर से थर-थर काँप रहलूँ हल, ऊ सब जमात के अदमी पुजेरी बाबा के संगारल कपड़ा-लत्ता, थारी-बरतन सब बोरा में समेट के, पेटी-बक्सा, रुपइया-पैसा ले लेलक ।) (मपध॰02:10-11:23:3.37)
339 थिर (= थीर; स्थिर) (~ पानी नञ् पीना) (लोग जेतना सीताराम के जोड़ी के पूजा कर ले, मुदा सीता जी के जिनगी भी तो सब दिन दुक्खे में बीतल । काँव-कोचर करते बिआह होल, तो कुच्छे दिन पर रजगद्दी नञ् होके वनवास हो गेल । जाहाँ से रमना हर के ले गेल । फेन गूहा-गिंजटी से अजोध्या तो अइली, मुदा थिर पानी नञ् पिलकी ।) (मपध॰02:10-11:21:1.1)
340 थिराना (= स्थिर होना) (- चुप रह लछमी ! चुप रह !! मुँह-हाथ धो ले । तनी खा ले । अब लछमिनियाँ थिरायल जा रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:15:3.13)
341 थुल-थुल (~ देह) (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.7)
342 थूम (= थुम्हा; खम्भा, स्तम्भ) (ओही हरखू हथ जे गाय मरला पर छँइटी भर तसल्ली देके उनखा हिम्मत के थूम पर अटकइले रहलन जब तक ऊ जगह न लेलक । ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल ।) (मपध॰02:10-11:36:3.25)
343 दईंत (दे॰ दैंत) (अपने सब मिलके हमरा कठपुतली माफिक नचावल चहइत ही । फिनो दैंत के हवाले करे के मंसा हे । उ दिन कउन गुनाह पर हमरा कुआँ में फेंकल गेल हल । पत्थर के बड़का-बड़का ढोक फेंक के हमरा खतम करे के कउनो कोसिस छोड़ल गेल ? कोई पंचइती ओकरा खातिर न बइठल । सब पंच मर गेल हलन । ई जुलमी दईंत के सजाए देवे के हिम्मत न तब हल, न अब हे ।) (मपध॰02:10-11:29:1.37)
344 दमधाकड़ (खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:43:1.9)
345 दया-मया (= दया-माया) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.25)
346 दरकना (मगर आझ लछमी के मन दरकल हल । गोपाल एगो दोसर मेहरारू ले आयल हे । का तो ऊ मेहरारू से ओक्कर संबंध पहलहीं से हल ।; ई चोट लछमी के हिरदय पर पड़ल हे । ओक्कर बिसबास दरक गेल हे ।; ई अवाज से एकदम विलगे अवाज हल सिंगारो के । एक बार फिर अन्हार कुइयाँ में ओकरा ढकेल देल गेल । अबरी ओकरा बचावे खातिर कोई आगे न आएल । जौन माटी के अपन समझ के रहल, उ माटी ओकर दरद से न दरकल, न फटल ।) (मपध॰02:10-11:17:1.15, 22, 30:3.35)
347 दरस-परस (एत्ते सुंदर । गोल-गोल बड़गो छाती । कोय देउता के सराप से एकरा धरती पर जलम लेबे पड़ल होत । आउ ई देखी, ओक्कर करम । दाय के काम लिखल हल । एत्ते सुंदर काया । कत्ते दिन बीत गेल हल, ओकरा से सीधे दरस-परस हमरा नञ् होल हल ।) (मपध॰02:10-11:16:2.9)
348 दरिदरा (= दारिद्र्य, निर्धनता, गरीबी) (दुआर पर एगो गाइयो हल । ओकरा ऊ लछमिनिया कहऽ हल । ओकर दोसर बिआन के बखत रमरतना जनम लेलक हल । दुनुँ साँझ में पाँच सेर दूध उ करऽ हल । से हुलास-हुलासिन के संतोख के उ कभिओ छिज्जे न देलक । उ गाय ओकर जिनगी के दरिदरा भगइले रहल ।) (मपध॰02:10-11:34:3.7)
349 दलिदरा (= दरिदरा; निर्धनता) ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.20)
350 दलिदराह (= दरिद्र) ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.19)
351 दाखिल (= समान; सदृश) (हम डरइत बोललूँ - "तोहर तो हम बेटी दाखिल हियो पुजेरी बाबा । हमर बाबू जी के मुठान भी तोहरा से मिलऽ हे । तूँ खाली टीका-चंदन दाढ़ी-माला रखले-पेन्हले हो । ऊ सादा-सपेटा गिरहस हथ ।") (मपध॰02:10-11:21:1.38)
352 दाय (= धाय, दाई) (एत्ते सुंदर । गोल-गोल बड़गो छाती । कोय देउता के सराप से एकरा धरती पर जलम लेबे पड़ल होत । आउ ई देखी, ओक्कर करम । दाय के काम लिखल हल । एत्ते सुंदर काया ।) (मपध॰02:10-11:16:2.9)
353 दारू-ताड़ी (गुलबिया के मरद खोजते आल । सास कहलथिन - "अञ् बाबू, एतना मानऽ हो, सब बढ़ियाँ साड़ी-कपड़ा देलहो हऽ, दू खंडा जेवरो गढ़ा देलहो हऽ, मुदा नीसा-पानी में मार-धार करऽ हो, एहे न बेजाय करऽ हो ।" गुलबिया के मरद बिसेसरा बोलल - "हाँ, ई तो हइये हे । अब ओइसन नञ् होतइ ।" पाया के ओट से गुलबिया बोलल - "पहिले हमरा लगा किरिया खाहो कि दारू-ताड़ी नीसा-पानी नै करभो, तब्बे जइबो ।) (मपध॰02:10-11:24:3.27)
354 दिरिस (= दृश्य) (मइया गे मइया ! कसइया हमरा मारिए देलक । बाबू हो बाबू ! हमरा बचाबऽ ! - ई हिरदय विदारक दिरिस हल ।; रजेंदर हल कि ओकर कान में ई समाचार गरम सीसा अइसन पेंस गेल । ओकरा लग गेल कि ओकरे खरिहान में आग लग गेल आउ ओकर कोय अप्पन संगी-साथी के देह झुलस गेल हल । बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल ।; इहाँ के दिरिस कुछ अलगे हे । कहीं खून टपकइत हे, तो कहीं लहास पर लहास ढेंगरायल हे । कोय दाँत निपोरले, कोय आँख फारले, केकरो कनपट्टी लापता, तो केकरो टंगरी, केहुनी ।) (मपध॰02:10-11:18:2.9, 31:1.30, 33:3.29)
355 दु-चार (= दो-चार) (हल तो वइसे ऊ चिट्ठी-पतरी भर पढ़ल हरिजन लेकिन ओकर बात-विचार रहन-सहन में एगो अलगे संस्कार के झलक मिलऽ हल । दु-चार गो संसकिरित के उलटा-पुलटा असलोक भी ओकरा कंठस हल, बले ओकर अरथ ऊ नञ् जानऽ हल ।; गाम के पढ़ल-लिखल असराफ-बड़हन आदमी भी ओकरा पेयार दे हलन । अप्पन पास बैठा के दु-चार गो गलबात कर ले हलन ।) (मपध॰02:10-11:31:3.6, 12)
356 दुलरी (= दुलारी) (सउँसे गाँव एकवट अउ सिंगारो देई अकेले । ई गाँव के ऊ पुतोह तो न हे कि जार के मार दऽ, लास फूँक दऽ तइयो कोय कुछो न बोलते । सगर पाप घोर के पी जएते । ई तो हे गाँव के बेटी-दबंग, दुलरी, सिरचढ़ल अउ नकचढ़ियो । गाँव के मेहारू सब एकरा कहऽ हथ 'दरोगा जी' अउ मरद लोग 'दुरगा जी' ।; पाँच बहिन में सबसे छोटकी, बाकि भाई एको न । बाप के सबसे दुलरी ।) (मपध॰02:10-11:25:2.2, 20)
357 दुलारना-मलारना (हमनी समझ गेली, आझ गोपला कउनो बात लेके ओकरा मार के धुन देलक हे । जनावर नियर । यक्षिणी के एही भाग हे । दुलार-मलार करे पर ऊ थोड़े शांत होल जा रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:18:2.18)
358 दूध-लावा (काम के बहाने जेठानी खसक गेलन । सिंगारो के आँख में लावा दहके लगल । नाग के दूध-लावा पिया के ओकरे से डँसवावे खातिर ओकर मन तइयारे न हल ।) (मपध॰02:10-11:26:3.21)
359 देखबइया (जादेतर मरद कुत्ता होबऽ हे, कुत्ता । सब नोच-नोच के तोरा लेहू-लेहू कर देतन । तोरा देखबइया के हउ ? परदेस के बात हे ।) (मपध॰02:10-11:17:1.30)
360 देखल-सुनल (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.34)
361 देवीथान (ओने देवीथान पर सब गप कर रहल हल कि बेलदारी के ठकुरवारी पर राते डकैती हो गेल । पुजेरी जी के गोड़ हाँथ बाँध के सब लूट लेलकै । पुजेरी बाबा बोललथिन कि ओकरा में एगो गोरनार खुम सुत्थर लड़कियो हलै, जे पहिले से आल हलै ।) (मपध॰02:10-11:24:2.39)
362 दैंत (= दैत्य) (अपने सब मिलके हमरा कठपुतली माफिक नचावल चहइत ही । फिनो दैंत के हवाले करे के मंसा हे । उ दिन कउन गुनाह पर हमरा कुआँ में फेंकल गेल हल । पत्थर के बड़का-बड़का ढोक फेंक के हमरा खतम करे के कउनो कोसिस छोड़ल गेल ? कोई पंचइती ओकरा खातिर न बइठल । सब पंच मर गेल हलन । ई जुलमी दईंत के सजाए देवे के हिम्मत न तब हल, न अब हे ।) (मपध॰02:10-11:29:1.30)
363 दोकान-दौरी ("ई बात तो निक्के कहले हें चमारी । तोर मेहरारू ई जुकुर के हइए हव । घर में पड़ल-पड़ल फरमाइस करे में कुछ लगे हे । कहिओ दोकान-दौरी करऽ हव थोड़े, जे ओकरा आँटा-दाल के भाव मालूम रहे ।" ओकरा उसकावे ल दमड़ी साव बोललन ।) (मपध॰02:10-11:47:1.28)
364 दोस (= दोष) (हम कहलूँ - "अञ् बाबा ! रसुनो खा हो ? साधु-महात्मा की तो गरम चीज नञ् खा हथ ।" बाबा बोललका - "अरे ई सब साग-भाजी खाय में कोय दोस हे ? सींभिया में तनी रसुना पर जा हइ ने, तो सबदगर हो जा हइ ।") (मपध॰02:10-11:22:1.36)
365 धउगना (= दौड़ना) (मइया गे मइया ! मइया गे मइया !! ... कोय भोकार पाड़ के कान रहल हल । हमरे घर के दुआरी पर । रात हल । हम्मर मेहरारू जगले हलन । खिड़की खोल के देखऽ हथ । - अरे ई तो लछमिनयाँ हे । ... धउग के निच्चे गेलन । दुआर खोललन ।) (मपध॰02:10-11:15:1.8)
366 धड़धड़ाल (~ अन्दर हेल जाना) (हमरा बुझा हे कि ई पुजेरी पुजेरी नञ्, खाली ठकुरवारी के अगोरिया अउ ठकुरवारी के धन के भोगताहर हे । देख गे बहिन ! हमनी तोरा छोड़ देवौ अउ घरो पहुँचा देवौ । आझ ई पुजेरिया के सोझ कर दे । लेकिन तोरा एगो काम करे परतउ । तूँ जा के फाटक खोलइहँ अउ हमनीन धड़धड़ाल अंदर हेल जैवौ ।; हम चिचिआइत कहलूँ – "नञ् बाबा ! हमरा छोड़ दऽ, हम तोर बेटी-पोती के उमर के हियो ।" एतने में जमात के सब अदमी धड़धड़ाल गेट के भितरे चल आल । काहे कि हड़बड़ी में बाबा गेटवो लगावे ले भुला गेला हल ।) (मपध॰02:10-11:23:1.37, 2.20)
367 धवधवाना (ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.32)
368 धुकधुकी (सरोजवा झट धैलक ओकर हाँथ अउ ले गेल कोठरी में । बोलल - "सुनऽ, ई बिआह न होत ।" - "काहे रे ... ?" ओकर छाती में धुकधुकी समा गेल, साँस फूले लगल । - "हम सोनियाँ के फाँसी पर न चढ़े देब ।") (मपध॰02:10-11:43:2.4)
369 धुनना (मार के ~) (हमनी समझ गेली, आझ गोपला कउनो बात लेके ओकरा मार के धुन देलक हे । जनावर नियर । यक्षिणी के एही भाग हे । दुलार-मलार करे पर ऊ थोड़े शांत होल जा रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:18:2.15)
370 धुमन (= धुन्ना, सुगंधित गोंद) (ओने पंडित के पाठ होइत हल । धुमन जरइत हल । मरघटा पर लकड़ी-गोइठा पहुँच गेल हल । सूरुज डूबे में जादा देर न हल । अरथी सज के तइयार हल ।) (मपध॰02:10-11:30:2.9)
371 धैल (= धइल; रखा हुआ) (ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ । अउ देवइ भी ओइसने के, जेकरा नञ् हे । जेकरा ढेर मनी साड़ी-कपड़ा, सोना-चाँदी धैल-धैल भुआ रहल हे, ओकरा देला के की पून ।) (मपध॰02:10-11:21:1.35)
372 धोना-पोछना (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.29)
373 नई (= नयँ, नञ, नञ्; नहीं) (जब अप्पन दुआरी पर लउटे के होल त ओकर गाय के रोग ग गेल । ओकर पेट फुल गेल हल । पाघुर करवे न करे । ओकर मिजाज अस-बस हो गेल । देहाती दबाई पड़ल, डागडर भी अइलन, देखलन, दबाई देलन । बाकि ओकर पेट लरम नई होल ।; समय पाके गते-गते हुलास-हुलासिन सुरधाम गेलन । रामरतन अउर फुलमतिया धीर नदी नियन जीमन जी रहल हल । ओकरा कोई बाल-बुतरू नई हल । बाकि एकरा ला ओकरा कोई गमे न हल ।) (मपध॰02:10-11:36:2.12, 37:1.33)
374 नउआ (= हजाम, नापित) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.28)
375 नकचढ़ियो (सउँसे गाँव एकवट अउ सिंगारो देई अकेले । ई गाँव के ऊ पुतोह तो न हे कि जार के मार दऽ, लास फूँक दऽ तइयो कोय कुछो न बोलते । सगर पाप घोर के पी जएते । ई तो हे गाँव के बेटी-दबंग, दुलरी, सिरचढ़ल अउ नकचढ़ियो । गाँव के मेहारू सब एकरा कहऽ हथ 'दरोगा जी' अउ मरद लोग 'दुरगा जी' ।) (मपध॰02:10-11:25:2.3)
376 नखुना (= नाखुन) (सिंगारो सोचलक कि घर में एतना भीड़-भाड़ में लाजे न आएल होएतन, बाकि पँचवाँ दिन खिड़की से दाई के साथ उनकर लीला देखते मन में शंका भेल । दाई जब आएल तो ऊ पूछलक - ऊ कौन लगऽ हथू तोर ? जवाब में ऊ मुसकाएल अउ निगाह नीचे करके पैर के नखुना से माटी कोड़े लगल ।) (मपध॰02:10-11:25:3.12)
377 नछत्तर (= नक्षत्र) (ने मालूम कउन नछत्तर में डॉ॰ जितेंद्र वत्स अपन कहानी संग्रह के नाम 'किरिया करम' रखलन जे मगही साहित्य के झमठगर से झमठगर लिखनिहार भी एकर चरचा तक करना मोनासिब नञ् समझलन । तारीफ के बात तो ई हे कि इग्गी-दुग्गी लिखनिहार भी मगही कहानीकार के रूप में नाम अमर कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:9:1.5)
378 नधाना (= शुरू होना) (बाबा आरती करैत, घंटी बजावैत कुछ गावे लगला । कुबेर के आरती नधाय अउ जाड़ा के मौसिम रहला से गाँव के कोय आदमी नञ् आल ।) (मपध॰02:10-11:21:3.10)
379 नन्हका (= बेटा) (चमारी सात बरिस से जर-मर के चालिसो-पचास मन गल्ला उपजावे बकि कहियो साल नञ् कटे । ओकर मनसूबा पर पानी फिरे लगल । मने-मन छगुनते रहे ऊ - 'हम्मर ई छोटगर परिवार में एगो नन्हका आउ नन्हकी छोड़ के के हे । मेहरारू हमर कोय तरह के बरबादी करे हे नञ्, त एतना गल्ला उपजलो पर संस काहे नञ् मिले । पौनिया-पझरिया के एतना नञ् दे देही कि झर जाय । एकर एक्के कारन हे आउ ऊ हे राम उद्गार बाबू के करजा, जे में हम लपटाल रहऽ ही ।') (मपध॰02:10-11:46:1.22)
380 नन्हकी (= बेटी) (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे । हरखू नन्हकी के लेके बजार कइलन अउर हाँफे-फाँफे लउट अइलन ।; 'हम्मर ई छोटगर परिवार में एगो नन्हका आउ नन्हकी छोड़ के के हे ।) (मपध॰02:10-11:36:3.1, 5, 46:1.22)
381 नया-नोहर (दे॰ नाया-नोहर) (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।; दानापुर-गया से डिब्बा के डिब्बा भर के मलेटरी मोरचा पर भेजल जा रहल हे । नया-नोहर समाचार तो रोजे मिलऽ हल कि चौंसठ चौंकी पर हम्मर जवान के कब्जा हो गेल, चार सौ सतरह दुस्मन के छाती गोली से चलनी कर देल गेल, ... आदि-आदि ।) (मपध॰02:10-11:27:2.31, 33:2.36)
382 नर-नोहरंगी (चमारी सोंचलक - 'रे मन, हमर मेहरारू तो लछमी हे । जे माधे समान जुटावऽ ही घर में, ओइसन तो निमने से चलवे हे घर के । नञ् बेच-बिकरिन, नञ् लड़ाय-तकरार । कहियो केकरो से उठल्लु भी नञ् करइलक हे, जबकि गहना के सउखे लगल होत ओकरा । तन पर भर जी बस्तर भी तो नञ् देलूँ हे कहियो । अदना नर-नोहरंगी तो जुटवे नञ् करे हमरा से ... जेकर तगादा कहियो नञ् कइलक ऊ । मुदा ई दमड़िया अइसे काहे बोलऽ हे ।') (मपध॰02:10-11:47:1.40)
383 नहकारना (= नकारना, अस्वीकार करना) (बगदू सिंह घरे अएलन, बाकि उदास । मथुरा के बात असर कर गेल हल । कए दिन तक मने-मन सोचइत रहलन । फिर मन के बात घरनी से कहलन । पहुना के भाई से भी सलाह लेवे गेलन । ऊ साफ नहकार गेलन - 'हमर भाई हमरे बस में न हे तो का कहूँ ?'; पंच लोग चौकीदार भेजलन । सिंगारो न आएल । तब गेलन बगदू सिंह । एकदम नहकार गेल । बगदू सिंह आखिरी हथियार इस्तेमाल कएलन । पगड़ी उतार के सिंगारो के गोड़ पर रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:28:2.33, 29:1.16)
384 नहाना-धोना (पुजेरी बाबा हँसैत बोललका - "हाँ, हाँ, ठीके हे । ई सब कपड़ा-जेवर ले ले अउ इनरा पर जा के नहा-धो ले । ठकुरवारी में रहमाँ त बिना नहैले-फिचले !") (मपध॰02:10-11:21:2.4)
385 नहाना-फिचना (पुजेरी बाबा हँसैत बोललका - "हाँ, हाँ, ठीके हे । ई सब कपड़ा-जेवर ले ले अउ इनरा पर जा के नहा-धो ले । ठकुरवारी में रहमाँ त बिना नहैले-फिचले !"; हम सकपकाइत एकरगी होवे लगलूँ तउ पुजेरी बाबा कहलका - तनी दू दोल पानी दे देहीं, नहाल-फिचल हइये हँऽ ।) (मपध॰02:10-11:21:2.5-6, 17)
386 नाक-नक्सा (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.15)
387 नाती-नतिनी (सराध-संस्कार में सब परिवार जुट गेल हल । पाँच गो बेटी, चार गो दमाद, दरजन भर नाती-नतिनी ।) (मपध॰02:10-11:30:1.15)
388 नाधना (= शुरू करना) (चमारी के माय तो ओकर बुतरुए में गुजर गेली हल, सेसे ऊ अपन मेहरारू के कम्मे उमर में पकिया-चोकिया खातिर मँगा लेलक हल । भाय में ऊ अकेलुआ हल । बहिन पुनियाँ के बियाह के सियाँक ओकरा नञ् हल । चमारी मेहरारू जोरे घर में रहे लगल आउ कुछ खेत बटइया ले के औगल से खेती नाध देलक ।) (मपध॰02:10-11:46:1.14)
389 नान्ह (= नन्हा, छोटा) (मजदूरी करे वाली मेहरारू सवाल दागे लगलन - "सिंगारो ! तूँहीं बतावऽ, नान्ह जात अउ बड़ जात के बेटी-पुतोह के पहचान का रहल ?" ओकर जवाब होए - "तोरा खेत-खरिहान उजाड़े के मौका न मिलतउ तो एही न कहबे ?") (मपध॰02:10-11:27:3.26)
390 नामी-गिरामी (= नामी-गरामी) (लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज । कोर्ट-कचहरी उनकर ठौर-ठेकाना अउ वकीले-मोखतार संगी-साथी हे । ओही बतौलन कि पटना हाईकोर्ट के नामी-गिरामी वकील दीपक बाबू भिजुन एगो लइका हे ।; खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:41:2.7, 43:1.11)
391 निकाना (सींभ ~) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:1.38)
392 निक्के (= नीक+'ए' प्रत्यय; ठीके, सहिए; ठीक ही) ("ई बात तो निक्के कहले हें चमारी । तोर मेहरारू ई जुकुर के हइए हव । घर में पड़ल-पड़ल फरमाइस करे में कुछ लगे हे । कहिओ दोकान-दौरी करऽ हव थोड़े, जे ओकरा आँटा-दाल के भाव मालूम रहे ।" ओकरा उसकावे ल दमड़ी साव बोललन ।) (मपध॰02:10-11:47:1.25)
393 निछुक्का (दे॰ निछक्का) (कुमार वैभव त हलन निछुक्का किरानी । ऊ परनाम करके अप्पन किरानीगिरी के सान में बट्टा कइसे लगौतन हल बेचारे ।) (मपध॰02:10-11:42:3.2)
394 नित्तम (= नित्य दिन का) (आँख मईंज के ऊ अप्पन चद्दर समेटलक । उठ के सबसे पहिले कुछ बुदबुदा के धरती मैया के छू के गोड़ लगलक, जे ओकर अब नित्तम के आदत हो गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.30)
395 निनार (= ललाट) (हमर दुनहूँ हाँथ परसाद से बझल हल । अँचरा माथा पर से गिरल हल । बाबा बोललका - सोहागिन औरत के निनार पर भभूत नञ् लगावे के चाही, लाउ गियारी में लगा दिअउ ।) (मपध॰02:10-11:21:3.33)
396 निफिकिर (= बेफिक्र) (ओकर लह लह जवानी पर लोभाय अउ मरे वाली ढेर हलन लेकिन इ सबसे उ एकदम निफिकिर होके लंगोटी कसले हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.24)
397 निसबद (= निःशब्द) (जवाब सुनइत गाँव-घर कानाफूसी करइत लौट गेल । रात फिन निसबद हो गेल । भोरम-भोर सिंगारो अपन पेटी लेले नइहर पहुँच गेलन ।) (मपध॰02:10-11:27:3.5)
398 नीसा (= निसा; नशा) (फिन इनखा पीए के आदत संगत में पड़ गेल । एहू कहऽ कि दूगो पइसा के गरमी । लड़ाय-झगड़ा होबऽ हल । कधियो दु-चार थप्पड़ मारियो देलक । नीसा टुटे पर माफिओ माँग ले हल ।) (मपध॰02:10-11:17:1.4)
399 नीसा-पानी (गुलबिया के मरद खोजते आल । सास कहलथिन - "अञ् बाबू, एतना मानऽ हो, सब बढ़ियाँ साड़ी-कपड़ा देलहो हऽ, दू खंडा जेवरो गढ़ा देलहो हऽ, मुदा नीसा-पानी में मार-धार करऽ हो, एहे न बेजाय करऽ हो ।" गुलबिया के मरद बिसेसरा बोलल - "हाँ, ई तो हइये हे । अब ओइसन नञ् होतइ ।" पाया के ओट से गुलबिया बोलल - "पहिले हमरा लगा किरिया खाहो कि दारू-ताड़ी नीसा-पानी नै करभो, तब्बे जइबो ।) (मपध॰02:10-11:24:3.20, 27)
400 नुकाना (= छिपाना) (सुभदरा बोलल - निंदा करे से ही हम्मर आहत मन के राहत न मिलत । तू भी कइसन भाई हँऽ ! जेकर बहिन के साथ एतना बड़ा हादसा हो गेल आउ अप्पन मुड़ी कोठी में नुकइले रह गेलऽ ।) (मपध॰02:10-11:40:3.16)
401 नून (= नमक) (सुभदरा - वकील साहब ! हम्मर जरल देह पर नून मत रगड़ऽ । ई आरोप झूठ हे । हम्मर चाल-चलन पर अछरंग मत लगावऽ ।) (मपध॰02:10-11:40:2.7)
402 नेम-संजम (= नियम-संयम) (रजेंदर के बाप बंसी के पीलिया रोग से इलाज मिसिर जी अप्पन खरचा से मगध मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में करउलन हल । काल के गाल से ऊ हँसइत-खेलइत निकल गेल लेकिन गाम लौटला के कुछ रोज बाद खनय-पिनय में नेम-संजम नञ् करे के कारन अचानक ओकर हालत एतना खराब हो गेल कि बचना मुश्किल हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.31)
403 नेवारी (= धान का पुआल; अन्न निकाला धान का पुल्ला या अंटिया) (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । ... भुखले पेट पियासले कंठ ऊ नेवारी में घुड़मुड़िया गेल । ओकरा कखने नीन आयल केकरो पता नञ् ।; खुलल अकास के नीचे चारो तरफ नेवारी के आँटी अउ गोलियावल धान के ढेरी के बीचो बीच ओकर मड़इ हल, जेकरा में अप्पन ई चार ठो संगी-साथी गोतिया माय के साथ उ रात में सुतऽ-बैठऽ हल । एक दिन दुपहरिया में जब उ खरिहान में आम के चिक्कन पटरा पर धान के नेवारी पीट रहल हल, तो माथा पर से एक लगउरिये बड़ी नगीच से सेना के छो-सात गो छोटका हवाई जहाज उड़ के निकल गेल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.8, 32:1.26, 34)
404 नोचाना (= नुचवाना) (सुभदरा कहलक - तू भड़ुआ हऽ । हम थाना में केस करे जा रहली हे । चपरासी बोलल - भेड़िया से आउ देह नोचावे ला हे त थाना में चल जा । तोरा जउरे जे रेप कइलन हे ऊ दबंग दरोगा हथ ।) (मपध॰02:10-11:38:3.30)
405 नौकरियाहा (= नौकरी करने वाला) (सादी तय हो गेल । लगन के दिन सोधा गेल । लगनपतरी भी मिल गेल । वर-कन्या दुन्नो के अँगना में खुसी । भगत बाबू के नौकरियाहा दामाद मिले के खुसी अउ वकील साहेब के खुसी सुत्थर पुतोह के साथ-साथ कुबेर के खजाना मिले के ।) (मपध॰02:10-11:43:1.2)
406 पँउलग्गी (हाँ, तो हम कह रहली हल कि कय गो कहानीकार ई गफलत में रहलन कि हमहीं जाके उनका रचना ले पँउलग्गी करम ।) (मपध॰02:10-11:4:1.11)
407 पंचाइत (= पंचायत) (चमारी के अकचका के देखे लगलन राम उद्गार बाबू । फेर हड़बड़ा के बोललन - "अरे रहे दे बेटा ! तूँ भागल थोड़े जा रहले हें ।" - "नञ् चचा, हम देवो त पूरा पैसा देवो । ऊ भी पंचाइत बोला के ।" रूखापन से बोलल चमारी ।; दोसर दिन पंचाइत लगल । सब अइलन बकि राम उद्गार बाबू अलोपल हलन । पंचाइत कबड़ गेल । पंच घर चल गेलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.32, 48:1.25, 27)
408 पकरना (= पकड़ना) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?") (मपध॰02:10-11:23:2.34)
409 पकिया-चोकिया (= पकाना-चोकाना) (चमारी के माय तो ओकर बुतरुए में गुजर गेली हल, सेसे ऊ अपन मेहरारू के कम्मे उमर में पकिया-चोकिया खातिर मँगा लेलक हल । भाय में ऊ अकेलुआ हल ।) (मपध॰02:10-11:46:1.9)
410 पटनिया (= पटना शहर वाला) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर । रजेंदर के पसन से मिसिर जी एगो कुच-कुच करिया पहिलौंठ पटनिया गाय खरीद के ओकरा फलगू नदी में उतरवा के घर सोझ कर देलन ।) (मपध॰02:10-11:32:3.34)
411 पटी (दे॰ पट्टी) (चारो ~ से) (ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.33)
412 पट्टी-उट्टी (तुरंत डॉक्टर साहब उनकर इलाज में जुट गेलन । राम उद्गार बाबू के बारे में सुन के आलम जुट गेल डाक्टर साहेब के पास । थोड़े देर बाद पट्टी-उट्टी हो गेला के बाद डाक्टर साहेब के पुछला पर राम उद्गार बाबू बतैलन कि उनकर ई हालत उनकर बेटा कइलक हे ।) (मपध॰02:10-11:48:2.9)
413 परतीत (~ करना = विश्वास करना) ("से कइसे ? कुछ बोलइत हलवा का ?" जेठानी सहमइत बोललन । - "जे हम आँख से देखली, पर परतीत न कइली, सेई बात बोलल बेचारी ।" - "का देखलऽ तू ?") (मपध॰02:10-11:26:1.31)
414 परदा (= स्त्रियों के शौच करने की क्रिया, शौच का स्थान) (अब पैन के पार नैहर के गाँव सुदामा बिगहा आल । छिटपुट गाँव के औरत बाहर परदा ले आ रहली हल ।; की कहिअउ बहीन, दुखिया गेल हल दुख काटे, तउ गोड़ गड़लय हल काँटा, ... ओहे हाल हमर होल । कल्हे हम झोला-झोली के घर से परदा के बहाने भागलूँ, मुदा बेलदरिया पर अइते-अइते ढेर साँझ हो गेल ।; हम बोललूँ - "बाहर परदा ले अयलूँ हल अउ सोंच रहलूँ हल कि राते रात नैहरवे भाग जाऊँ, काहे कि पुजेरी बाबा के नीयत बढ़ियाँ नञ् लगल ।" एगो बोलल - "कुछ खराब बेवहार कयलथुन की ?") (मपध॰02:10-11:20:1.16, 2.11, 23:1.12)
415 परसादी (= प्रसाद) (नञ् बाबा ! हमरा नञ् चाही साड़ी-गहना । हमनी गरीब आदमी के सादे-सपेटे ठीक लगऽ हे । पुजेरी बाबा बोललका - नञ्, ई बात ठीक नञ् हे । जइसे कोय परसादी लेवे में आनाकानी नञ् करऽ हे, ओइसीं ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ ।) (मपध॰02:10-11:21:1.28)
416 परहेजी (= परहेज) (बाबा हँसैत बोललका - "एतना परहेजी ! कते तो आवऽ हे से कत्ते परेम से रहऽ हे अउ तूँ तो लगऽ हे कि मूहें फुलैले हँऽ ।" हम बोललूँ - "नञ् बाबा, मुँह काहे ले फुलइले रहम । बड़ अदमी से तनी परहेजी करऽ ही ।") (मपध॰02:10-11:22:2.21, 26)
417 परीछना (ऊ बेटा तो हइ वकीले के बकि कौड़ी के तीन । डोनेसन पर डेली बेसिस पर बहाली हे, ऊहो चारे महीना ला । एतनै नञ्, बैंक डकैती में नवादा जेलो में तीन बच्छर लइका काटलक हे । ओकर जिनगी हे शराब अउ धंधा हे लूट-खसोट । कमाई में ओकरा लात-जूता के कमी न रहे । अब बतावऽ, परीछवऽ अइसने करमजरुआ दमाद ?) (मपध॰02:10-11:43:2.27)
418 पसन (= पसिन; पसन्द) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर । रजेंदर के पसन से मिसिर जी एगो कुच-कुच करिया पहिलौंठ पटनिया गाय खरीद के ओकरा फलगू नदी में उतरवा के घर सोझ कर देलन ।) (मपध॰02:10-11:32:3.30)
419 पहलहीं (= पहिलहीं) (मगर आझ लछमी के मन दरकल हल । गोपाल एगो दोसर मेहरारू ले आयल हे । का तो ऊ मेहरारू से ओक्कर संबंध पहलहीं से हल ।) (मपध॰02:10-11:17:1.18)
420 पहलौकी (= पहिलौकी; पहली) (बाबू जी, गलती तो हमरा से होइए गेल । समय के दोस हे । हम्मर पहलौकी मेहरारू, परबतिओ के देखे वाला कोय नञ् हे । दु-दु गो बच्चो पइदा हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:17:2.9)
421 पहिलहीं (= पहले ही) (हम की करतूँ हल, ओयसीं भिंजले में पानी भरे लगलूँ । हम्मर भींजल कपड़ा देह पर सट्टल हल, अउ हम लजा रहलूँ हल । काहे कि बलाउजो काढ़ के पहिलहीं गार-फिच के, सुखे दे देलूँ हल ।; हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:2.23, 3.5)
422 पहिले (= पहले) (दिल्ली में साँझ बड़ देर से होबऽ हे । असमान पहिले फिक्का सेनुर नियर लाल आउ बाद में गाढ़ा सेनुरिया रंग के हो जा हल ।) (मपध॰02:10-11:17:3.18)
423 पहिले-पहिल (= पहली बार) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:3.30)
424 पहुना (= पति; दामाद; मेहमान, अतिथि)(काहे गे बहीन, बड़ी हिरदा फार के कान रहलाँ हे । सब समाचार तो ठीके हउ ने ? पहुनमा ठीक हथुन ने, सास-ससुर ठीक हथुन ने ?; बेटी के गियारी लगावैत बोलल - "एते सबेरे अइलहीं बेटी !" - "भिनसरे चललूँ हल ।" - "अकसरे अइलहीं हे ?" - "नञ् माय, पैनियाँ तक पहुँचा देलथिन ।" - "के ? तोर पहुनमा हलथुन ?" गुलबिया कुछ नञ् बोलल, खाली मुसक गेल । गुलबिया माय पुछलक - "बड़ी बढ़ियाँ साड़ी हउ गे, पहुनमा लाके देलथुन ?"; बगदू सिंह घरे अएलन, बाकि उदास । मथुरा के बात असर कर गेल हल । कए दिन तक मने-मन सोचइत रहलन । फिर मन के बात घरनी से कहलन । पहुना के भाई से भी सलाह लेवे गेलन । ऊ साफ नहकार गेलन - 'हमर भाई हमरे बस में न हे तो का कहूँ ?') (मपध॰02:10-11:20:1.27, 24:2.19, 23, 28:2.32)
425 पाख (= पाक; पवित्र) (बेटा न हइन तो भतीजा तो हइन । कहाँ गेल मथुरवा - पकड़ के ले आवऽ । चचा मरल पड़ल हथ । बदार घुमइत हे । मरनी-जीनी में साथ न देत तो गाँव में कइसे रहत ? ओकर छूअल पानी कवनो पितइ ? पाख होवत तब न ?; बाप के सोग में सिंगारो बेचारी पगला गेल हे, लेकिन अपने तो होस में ही । मेहारू के आग देइत सुनली हे अपने ? बेटी के मोह में पति के नरक में ठेलब ? पति के पाख कइसे होएत, अपने के पता हे ।) (मपध॰02:10-11:30:1.31, 2.29)
426 पाघुर (= पागुर) (~ करना) (जब अप्पन दुआरी पर लउटे के होल त ओकर गाय के रोग ग गेल । ओकर पेट फुल गेल हल । पाघुर करवे न करे । ओकर मिजाज अस-बस हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:36:2.9)
427 पाछू-पाछू (= पीछू-पीछू; पीछे-पीछे) (गोपला अप्पन घर लउटे लगल । पाछू-पाछू लछमिनिओं चलल । हम का फइसला करती होत ? ई फइसला ओक्कर अप्पन हल ।; हम्मर मेहरारू के पाछू-पाछू लछमिनियों आ गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:17:2.29, 18:3.34)
428 पाछे (= पीछे) (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।) (मपध॰02:10-11:28:1.12)
429 पाछे-पाछे (= पाछू-पाछू; पीछे-पीछे) (तिरपुरारी भुनभुनाइत उठलन अउर चल देलन । मुरारी सेकर पाछे-पाछे हो गेलन ।) (मपध॰02:10-11:29:3.21)
430 पातन (धान के ~) (कातिक खतम होवे-होवे हल । धान के पातन चमारी के अप्पन आउ बटइया के खेत में लगल हल । झोला-झोली के बाद चमारी माल-धुर के खिलाके काँख तर गेंदरा आउ हाँथ में एगो पैना लेले घर से धान के पातन अगोरे खातिर निकलल ।; धान के पातन भिजुन बनल नेवारी के मड़को में पड़ल-पड़ल सारी रात नञ् की-की सोंचले रहल चमारी ।) (मपध॰02:10-11:46:2.4, 8, 47:2.38)
431 पान-छो (= पाँच-छह) (ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.32)
432 पिछुआनी (~ भित्तर) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:1.40)
433 पितराही (= पीतल का) (~ थरिया) (हाथ-पैर लंबा-लंबा । अइसन लगऽ हल कि वंश में एगो सुरूज उगल हे । बाप बहुते खुस हल । नाच-नाच के पितराही थरिया बजइलक हल । घरवाली ले गुड़ अउर हरदी के हलुआ बनवइलक हल ।) (मपध॰02:10-11:34:2.19)
434 पीछू-पीछू (= पीछे-पीछे) (हम अप्पन नैहर के गाँव बता देलूँ सुदामा बिगहा । आगू-आगू मेठ अउ पीछू-पीछू हम लपकल बढ़े लगलूँ । कुछे देरी में हमर गाँव के सिमाना आ गेल ।) (मपध॰02:10-11:24:1.15)
435 पुजेरी (= पुजारी) (हमरा बुझा हे कि ई पुजेरी पुजेरी नञ्, खाली ठकुरवारी के अगोरिया अउ ठकुरवारी के धन के भोगताहर हे ।; देख गे बहिन ! हमनी तोरा छोड़ देवौ अउ घरो पहुँचा देवौ । आझ ई पुजेरिया के सोझ कर दे । लेकिन तोरा एगो काम करे परतउ । तूँ जा के फाटक खोलइहँ अउ हमनीन धड़धड़ाल अंदर हेल जैवौ ।) (मपध॰02:10-11:23:1.31, 35)
436 पुरान-धुरान (कोय काम पड़े पर ऊ रजेंदर के बोलावऽ हलन अउ नौकरी पर गया जाय घड़ी रात-अधरात, भोर-भिनसरवा रजेंदर उनका समान के साथ हिसुआ पाँचू चाहे तिलैया टीसन पहुँचावऽ हल । मिसिर जी गया में पढ़ावऽ हलन आउ अपन नया, पुरान-धुरान छाड़न सब रजेंदर के परिवार के दे हलन ।; एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.23, 32:2.28)
437 पूछना-पाछना (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.32)
438 पून (= पुण्य) (ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ । अउ देवइ भी ओइसने के, जेकरा नञ् हे । जेकरा ढेर मनी साड़ी-कपड़ा, सोना-चाँदी धैल-धैल भुआ रहल हे, ओकरा देला के की पून ।) (मपध॰02:10-11:21:1.36)
439 पेंसना (= घुसना) (रजेंदर हल कि ओकर कान में ई समाचार गरम सीसा अइसन पेंस गेल । ओकरा लग गेल कि ओकरे खरिहान में आग लग गेल आउ ओकर कोय अप्पन संगी-साथी के देह झुलस गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:31:1.24)
440 पेटी-बक्सा (गुलबिया सितबिया से फेन लगले बोलल - एक दने हम खाढ़ डर से थर-थर काँप रहलूँ हल, ऊ सब जमात के अदमी पुजेरी बाबा के संगारल कपड़ा-लत्ता, थारी-बरतन सब बोरा में समेट के, पेटी-बक्सा, रुपइया-पैसा ले लेलक ।) (मपध॰02:10-11:23:3.38)
441 पेठिया (= पेठिआ; छोटा हाट, सप्ताह के निश्चित दिन या दिनों को लगनेवाला पसरहट्टा, गुदरी बाजार) (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:36:3.1)
442 पैन (= पइन) (अब पैन के पार नैहर के गाँव सुदामा बिगहा आल । छिटपुट गाँव के औरत बाहर परदा ले आ रहली हल ।; हम अनजाने में हाँथ जोड़ देलूँ, अउ जमात के मेठ के जाइत टुकुर-टुकुर देखऽ लगलूँ । लंबा छरहरा, गोरनार अदमी, लमगर-लमगर मोंछ, धोती-कुरता पेन्हले, माथा में लाल गमछा बाँधले । बड़ी सोहनगर लग रहल हल । हम मने मन ऊ देउता तुल अदमी के परनाम कयलूँ । अउ पुजेरी बाबा के नाम पर थूक बिगते पैन पार कयलूँ कि तूँ मिल गेलाँ ।; बेटी के गियारी लगावैत बोलल - "एते सबेरे अइलहीं बेटी !" - "भिनसरे चललूँ हल ।" - "अकसरे अइलहीं हे ?" - "नञ् माय, पैनियाँ तक पहुँचा देलथिन ।") (मपध॰02:10-11:20:1.14, 24:1.36, 2.17)
443 पैना (= डंडा) (कातिक खतम होवे-होवे हल । धान के पातन चमारी के अप्पन आउ बटइया के खेत में लगल हल । झोला-झोली के बाद चमारी माल-धुर के खिलाके काँख तर गेंदरा आउ हाँथ में एगो पैना लेले घर से धान के पातन अगोरे खातिर निकलल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.8)
444 पोआर (= पोवार; पुआल) (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । बिना खइले-पिले ढेर रात तक ऊ आम के सुक्खल लकड़ी-झुरी अउ गोड़ के गांजल पोआर जग के तापते रहल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.2)
445 पोछ-पाछ (फिन ओक्कर घाव पोछ-पाछ डिहौल पानी से कइल गेल । घाव पर मरहम लगावल गेल । लछमिनियाँ आउ ओक्कर बेटी खिला-पिला के एगो बिछौना, हम्मर मेहरारू अप्पन बगल में बिछा देलन ।) (मपध॰02:10-11:18:2.34)
446 पोरसा (= पानी की गहराई नापने की एक इकाई; पुरुष; पोरिस) (" ... चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?" - "का बोलले ? चुरुआ भर पानी ? चार पोरसा पानी हे अबहीं कुइयाँ में । चल देख, चार पोरसा ... पानी ... हे अबहीं ।") (मपध॰02:10-11:27:2.14, 15)
447 पोवार (= पुआल) (रात भर ठकुरवारी में अराम कर ले । तड़के उठके चल जइहँऽ । एजऽ तो बराबर कत्ते राहगीर रात-बेरात रहवे करऽ हथ । ठकुरवारी से परसाद खाय ले मिलिये जैतउ, ओढ़ना-बिछौना के भी कमी नञ् हे, साले-साल सब परदेसियन देवे करऽ हे, ओकरो पर पोवार भी बिछल हे ।; हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:20:3.16, 21:3.2)
448 पोसकाड (= पोस्टकार्ड) (ऐसे हमरा पता हे कि ई हाइ-टेक जुग में चिट्ठी-पतरी के चलनसार उठल जा रहल हे । कय अदमी तो पोसकाड लिखना तौहीन मानऽ हथ ।) (मपध॰02:10-11:4:1.21)
449 पौनिया-पझरिया (चमारी सात बरिस से जर-मर के चालिसो-पचास मन गल्ला उपजावे बकि कहियो साल नञ् कटे । ओकर मनसूबा पर पानी फिरे लगल । मने-मन छगुनते रहे ऊ - 'हम्मर ई छोटगर परिवार में एगो नन्हका आउ नन्हकी छोड़ के के हे । मेहरारू हमर कोय तरह के बरबादी करे हे नञ्, त एतना गल्ला उपजलो पर संस काहे नञ् मिले । पौनिया-पझरिया के एतना नञ् दे देही कि झर जाय । एकर एक्के कारन हे आउ ऊ हे राम उद्गार बाबू के करजा, जे में हम लपटाल रहऽ ही ।') (मपध॰02:10-11:46:1.26)
450 फँसल (जब जरूरत होल ऊ अपनहीं पइसा देइत रहऽ हथ । मगर ई मुझौंसा तो एक्को पइसा नञ् देहे । बेटियो के पढ़ावे ला नञ् । दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !) (मपध॰02:10-11:19:2.3)
451 फरका (= मिरगी, अपस्मार; जुदा या अलग होने का भाव; दरवाजे या घेरे का टट्टर; दूर, अलग) (अपन रमचरना हो नऽ, ओकरा से फुलमतिया के बिआह कर लऽ अउर चैन से सुतऽ । तू भाय अउर दोस दुन्नु हऽ । हम्मर तोहर दुअरा के ऊँचाई भी बरबरे हे । घरइतिन सबके मिजाज भी कोई फरका न हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.9)
452 फर-फर (= फुर-फुर) (~ हावा) (सबके सेवा में लगल रहलन । सउँसे परिवार, फूलन बाबू के साथ-साथ, सबके देखभाल करते रहल । न झुंझलाहट, न उकताहट । झर-झर बरसत त केतना दिन बरसत । फर-फर हावा बहत त केतना दिन बहत । नदी चढ़ल हे त उतरवो तो करत । एही तो उतार-चढ़ाव हे जीवन के ।) (मपध॰02:10-11:35:2.3)
453 फरही (= फड़ही) (फूलन का सबके अपन नेह से तोप देलन । चाह, भुंजा, फरही, चूड़ा कोई चीज के कमी न होवे देलन ।) (मपध॰02:10-11:35:1.28)
454 फरागत (= छुटकारा, निवृति, छुट्टी, मलत्याग) (रामचरन भोरे उठल । बाहर निकसल । फरागत होके लउटल तऽ देखे हे कथे दोसर हे । फुलमतिया के देह-हाँथ पानी ।) (मपध॰02:10-11:37:3.9)
455 फसिल (= फसल) (मेहरारू हमर कोय तरह के बरबादी करे हे नञ्, त एतना गल्ला उपजलो पर संस काहे नञ् मिले । पौनिया-पझरिया के एतना नञ् दे देही कि झर जाय । एकर एक्के कारन हे आउ ऊ हे राम उद्गार बाबू के करजा, जे में हम लपटाल रहऽ ही । सब फसिल में तीन-चार मन उनखे देवे पड़ऽ हे, तइयो उनखर करजा कपार पर चढ़ले हे ।; "से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:46:1.30, 3.5)
456 फह-फह (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.13)
457 फिक्का (= फीका) (दिल्ली में साँझ बड़ देर से होबऽ हे । असमान पहिले फिक्का सेनुर नियर लाल आउ बाद में गाढ़ा सेनुरिया रंग के हो जा हल ।) (मपध॰02:10-11:17:3.18)
458 फिनूँ (= फिनु, फेनु, फेर; फिर) (हम्मर मेहरारू लछमिनियाँ से फिनूँ पूछे लगलन - का होलउ ? अप्पन कँपसल बोली में लछमिनियाँ कहे लगल - मइया ! ... गोपला एक नंबर के हरामी हे ।) (मपध॰02:10-11:15:2.19)
459 फुट्टल (= फूटा हुआ) (लछमिनियाँ के जनावर नियर ओक्कर मरद मार डंटा, मार डंटा कूट देलक हल । निरदय ! सउँसे बदन में बाम उखड़ल । लिलारो फुट्टल ।; मइया गे मइया ! कसइया हमरा मारिए देलक । बाबू हो बाबू ! हमरा बचाबऽ ! - ई हिरदय विदारक दिरिस हल । कपार से लछमिनियाँ के खून बह रहल हल । केहुनी फुट्टल हल । लछमिनियाँ एकदम्मे बदहवास ! चिंचिया रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:16:3.9, 18:2.11)
460 फुट्टा (छो ~ जुआन) (हाँ, पपुए बाबू हीं रहम, तूँ का कर लेगा ? ऊ गोरनार छो फुट्टा जुआन हथ । इंजीनियर हथ । हम उनखे रखनी बनके जीयम । तूँ का कर लेमऽ ?) (मपध॰02:10-11:18:3.37)
461 फूटल-भाँगल (फेन पुछलक - "अञ् गे, अबरी ससुरा बड़ी मानलकउ हे, हँसुली लरछा देलकउ हऽ ।" गुलबिया चुप्पे रह गेल । अउ गियारी से निकालैत कहलक - एकरा बक्सा में रख दीहँऽ, गाँव में सब देखत । फूटल-भाँगल घर हे ! हले, ई लरछवो रख दे ।) (मपध॰02:10-11:24:2.32)
462 फेरा (= बखेड़ा) (सितबिया बोलल - चल गे बहिन, घरे चल । बड़ी फेरा से बचलाँ । एकरा से बढ़ियाँ तो ससुरारे में हलाँ ।) (मपध॰02:10-11:24:1.39)
463 फोकचा (= पानी-पूरी, गोल-गप्पा) (आगे बढ़ऽ ही तो देखऽ ही अंगरेज आउ अंगरेजिन के एगो उमिरदराज जोड़ी, सूट-बूट-हैट पहिरले फोकचा खा रहलन हे । हम अप्पन मेहरारू से पुछली - का हमनियों के फोकचा खाय के ?) (मपध॰02:10-11:18:1.23, 25)
464 फोरन (= सब्जी आदि के छौंक-बधार के लिए जीरा, मेथी, मिर्च आदि की तेल या घी में जलाई गई मात्रा; बहुत थोड़ी वस्तु) (हमरा सुन के ताजुब लग गेल । एतना तेल तो हमनी आठ रोज चलावऽ ही । हम चुपचाप सउँसे सीसी कड़ाही में उझल देलूँ । हींग, रसुन, फोरन देके तरकारी मेरा देलूँ ।) (मपध॰02:10-11:22:2.14)
249 जजात (= फसल) (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।) (मपध॰02:10-11:28:1.9)
250 जदि (= यदि) ("अरे सार बनियाँ ! तूँ तो अइसे बोले हें जइसे चमरिया तोर बाप हउ । ... जइसे तूँ धरम के पंडित हें ।" ई राम उद्गार बाबू के अवाज हल । - "उद्गार चा, चमरिया तो ससुर बुड़बक हइ । एक बरिस के आधो गल्ला ऊ जदि बेच दे त तोर करजा असुल हो जाय ।" मुनाकी रोस में बोलल हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.25)
251 जनाना (= सं॰ औरत, पत्नी; क्रि॰ दिखाई देना) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?") (मपध॰02:10-11:23:2.35)
252 जनावर (= जानवर) (लछमिनियाँ के जनावर नियर ओक्कर मरद मार डंटा, मार डंटा कूट देलक हल । निरदय ! सउँसे बदन में बाम उखड़ल । लिलारो फुट्टल ।) (मपध॰02:10-11:16:3.6)
253 जबबदेही (= जवाबदेही) (वइसे की तो उ अप्पन घर-परिवार के जबबदेही से निचिंत हल काहे कि बाप के मरे के पाँच महीना बाद माइयो सुरधाम चल गेल । उमर होवे पर भी रजेंदर पता नञ् काहे विवाह नय करऽ हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.17)
254 जमकड़ा (गाम के मुखिया भरत बाबू के बैठका पर समाचार सुने ले भीड़ उमड़ल हल । समूचे गाम के जमकड़ा उहें लगल हल ।) (मपध॰02:10-11:31:1.11)
255 जमनका-जमनकी ('मगही कथा सरोवर' में संपादक छोड़ के जानल-मानल लोग के कहानी रखल गेल हे । तनी जमनको-जमनकी एकरा में गोता लगावत हल त अच्छा रहत हल ।) (मपध॰02:10-11:11:1.17)
256 जमानी (= जवानी) (कुरंग के रंग बड़ा चट्टक लगे हे बाकि धूप बुन्नी में उधिया जाहे । ओइसने जमानी के लुक्का-छिपी हे, उ प्रेम न हो सके । प्रेम कउनो फरही न हे, हमरा-तोरा के । ओकरा में त लोक बिका जाहे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.22)
257 जरना-मरना (चमारी सात बरिस से जर-मर के चालिसो-पचास मन गल्ला उपजावे बकि कहियो साल नञ् कटे । ओकर मनसूबा पर पानी फिरे लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:1.17)
258 जहँमा-तहँमा (= जहाँ-तहाँ) (-"हरमियाँ गोपला आझ बड़ मारलक हे ।" ऊ अप्पन मरदाना गोपाल के बारे में बता रहल हल । सऊँसे पीठ उघार के देखउले हल । जहँमा-तहँमा पीठ फट गेल हल । लिलारो से एक ठामा खून निकस रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:15:1.23)
259 जहंडल (~ करना = तंग करना, परेशान करना) ("बकि उद्गार चचा, ई तो जुलुम हइ । तूँ ऊ गरीब के जहंडल कर रहलहो हऽ । जान लऽ, भारी सुरिआहा हको चमरिया । जब ओकरा ई बात के जनकारी होतो त ऊ तोरा छोड़तो नञ् । सोंचे के चाही चचा, ओतना सीधा आउ कमासुत जुआन ई युग में कहाँ मिलऽ हे ।" ई मुनाकी के राय हल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.12)
260 जहर-कनैली (जतरा देख के बहरैलन वर ढूँढ़े ले । साथ वीगनो हल । पहुँचलन दीपक बाबू के कोठी पर, फूल-पत्ती से सजल-सँवरल । एगो कार भी दुआरी के सोभा दे रहल हल । तड़क-भड़क देख के भगत बाबू के मन फूल पर के भौंरा बन गेल । दाखिल भेलन वकील साहब के सिरिस्ता में । आहट पाके नजर उठौलन ऊ । चस्मा के भीतर से उनकर घुचघुचाइत आँख में बाघ के रोब अउ बिलाय के लोभ झलक गेल । मतलबी मुस्कान के जहर कनैली खिलावइत बोललन - "ए वीगन बाबू, ढेर दिन पर दरसन देलऽ जी ।") (मपध॰02:10-11:41:3.7-8)
261 जाँगड़ (= जांगर, जंगरा; शरीर का बल, बूता) (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.12)
262 जाँतना (= दबाना) (फुलमतिया के जुआनी बैसाख के नदी नियन अपन पाट छोड़ के सिकुड़ गेल । अनकट्ठल सपना में ऊ सबके झोंके न चाहे हे । ओकरा अप्पन खबर हे । बाकि ऊ का कर सके हे । जिनगी, लावा-फुटहा त न हे, जे जहाँ-तहाँ गिरल त गिरल । जी जाँत के ऊ रतन से अप्पन आँख मोड़े लगे हे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.37)
263 जात-भाई (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।; सुनइत-सुनइत बगदू सिंह के कान पक गेल । सिंगारो के चिंता, जात-भाई, गाँव-घर के झिड़की बूढ़ा देह केतना सहइत । एक-दू महीना में खटिया पकड़ लेलन । मउवत के नजदीक देख के पंडी जी के बोललवलन ।) (मपध॰02:10-11:28:1.10, 30:1.5)
264 जात-समाज (हम तो औरत जात ही । हमरा मिरतु मामूली बात हे, पूरे समाजो खातिर । हमरा जिअले गुनाह हे । बाप के खेत-खरिहान में हाड़ गला के निरबाह करिला तो सउँसे जात-समाज के नाम कटइत ही । एही जात-समाज के सामने एही गुंडा हमरा माँग में सेनुर देलक लेकिन एकर मेहरी हे रुकमिनियाँ ।) (मपध॰02:10-11:29:2.6, 7)
265 जिनगी (= जिन्दगी) (आँख से टुप-टुप लोर गिरे लगल गुलबिया के, ई सब कहते-कहते । फेन बोले लगल ऊ - "हाय रे सीता माता के जिनगी । हाय रे औरत के जिनगी ।") (मपध॰02:10-11:21:1.8, 9)
266 जिम्मेवारी (= जिम्मेदारी) (ऊ कहलन - "हम तो बाप ही सरकार ! कौन बाप कसइया होएत कि बेटी के जिनगी बनावल-बसावल न चाहत । अपने सब सिंगारो के जिनगी के जिम्मा लेऊँ तो हम अपन कलेजा पर पत्थल रख के कह देब - जो बेटी ससुरार बस, बाकि सिंगारो के उहाँ जाए ला राजी करे के जिम्मेवारी अपने सब पर हे ।") (मपध॰02:10-11:29:1.13)
267 जिरह (= वह पूछताछ जो किसी के कथन की सच्चाई परखने के लिए की जाय) (सुभदरा - जदि जेल में रहती हल तब कुछो हरज न हल । हमरा जे गिंजन समाज में हो रहल हे, ऊ तो न होवत हल । सत्र न्यायाधीश बोललन - वकील साहब ! आउ जादे जिरह के जरूरत न हे । मेडिकल रपट सच्चाई के खुलासा कर देलक हे ।) (मपध॰02:10-11:40:3.1)
268 जिराना (= आराम करना, सुस्ताना, थकान दूर करना) (बेटा, कल जिरा के परसूँ गलवा धर अइहें । हम थोड़े दिन ले काशी जा रहलिऔ हे कल ।" कह के इत्मिनान से राम उद्गार बाबू जाय लगलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.11)
269 जिला-जेवार (भगत बाबू एगो बेस खुसहाल किसान हथ, नीयत के साफ हउ दिल के नेक । लंद-फंद से कोसो दूर । एही गुने जबकि उनकर जिला-जेवार आतंक में झुलसइत हे तइयो उनखा लेल आझो राम-राज हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.4-5)
270 जीमन (= जीवन) (गरीब ला गाय अउर संतोख दुन्नु एगो जरूरी समान हे, जे दुनु बेकत जिनगी भर जोगइलक अउर जोगइलक अप्पन स्वाभिमान के भी, जे कम जरूरी न हल । फजूल के चाह अदमी के जीमन में खउरा लगा देहे ।; सरसों के फूल के रंग वसंत चुरा लेलक । बाकि फर के झाँस गरीब के जीमन में समा गेल । ई जीमन के झाँस ओकरा संजोगे पड़त । आँख मोड़े पड़त) (मपध॰02:10-11:34:3.16, 35:3.27, 28)
271 जुकुन (= जुकुत, जुकुर; समान, जैसा) (इआ धरती माय डोलऽ, जोर से डोलऽ ! फिरो फटऽ न एक बार कि सीता माय जुकुन तोर कोख में समा जाऊँ । हे इनर देवता ! गिरावऽ बिजली, बज्जर गिरावऽ । पपिअन पर न सही तो हमरे पर गिरावऽ । भसम कर द एही खनी कि सभे हो जाए सोआहा ।) (मपध॰02:10-11:25:1.12)
272 जुकुर (= तरह, समान; लायक) ("ई बात तो निक्के कहले हें चमारी । तोर मेहरारू ई जुकुर के हइए हव । घर में पड़ल-पड़ल फरमाइस करे में कुछ लगे हे । कहिओ दोकान-दौरी करऽ हव थोड़े, जे ओकरा आँटा-दाल के भाव मालूम रहे ।" ओकरा उसकावे ल दमड़ी साव बोललन ।) (मपध॰02:10-11:47:1.26)
273 जुगा (= जुआ; पालो) (ओहनी के गरज हल कुँवार रहे से कुल के इज्जत माटी में मिल जाएत । एहनी के भरम हइन कि छुटहा साँढ़ जुगा थामत । पता लगावे के काम हल तोर बाप के । पचास बिगहा के जोतनियाँ, बनिहार के हैसियत वाली लड़की काहे लेत ।) (मपध॰02:10-11:27:1.36)
274 जुगुत (= युक्ति; जुकुत, जुकुर, लायक) (गुलबिया माय पुछलक - "बड़ी बढ़ियाँ साड़ी हउ गे, पहुनमा लाके देलथुन ?" गुलबिया बोलल - "ऊ दारू पीयत कि साड़ी लाके देत ?" - "अपने कोय जुगुत से लेलाँ होत, बकड़ी-छकड़ी बेच के । फेन पुछलक - "अञ् गे, अबरी ससुरा बड़ी मानलकउ हे, हँसुली लरछा देलकउ हऽ ।"; हुलास-हुलासी मरल-टूटल न हल । खाय जुगुत ओकरा सब-कुछ हल । दुआर पर एगो गाइयो हल ।) (मपध॰02:10-11:24:2.26, 34:2.30)
275 जुल-जुल (~ बूढ़ी) (अब रजेंदर के घर में ओकर दुगो मुस्तंड बंडा बैल जइसन चचेरा भाय अउ पकल आम जइसन जुल-जुल बूढ़ी माय के सिवा कोय नञ् हल । चचा-चाची दोसर गाम में रहऽ हलन ।) (मपध॰02:10-11:32:1.8)
276 जे (= जो) (गरीब ला गाय अउर संतोख दुन्नु एगो जरूरी समान हे, जे दुनु बेकत जिनगी भर जोगइलक अउर जोगइलक अप्पन स्वाभिमान के भी, जे कम जरूरी न हल ।) (मपध॰02:10-11:34:3.13, 15)
277 जेबार-गाम (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.31)
278 जेमना (= खाना) (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.31)
279 जोतनियाँ (= कृषक, किसान) (पचास बिगहा के ~) (ओहनी के गरज हल कुँवार रहे से कुल के इज्जत माटी में मिल जाएत । एहनी के भरम हइन कि छुटहा साँढ़ जुगा थामत । पता लगावे के काम हल तोर बाप के । पचास बिगहा के जोतनियाँ, बनिहार के हैसियत वाली लड़की काहे लेत ।) (मपध॰02:10-11:27:2.1)
280 जोरू-जाँता (माय-बाप इंदरलोक में चलिये गेलन । गोड़बंधन जोरू-जाँता नहिये हे । तब काहे न देस के सेवा करल जाय । हम पढ़ाय-लिखाय में तो चिठिए-पाती भर लेकिन देह-दसा ठीक हे मलेटरी के लायक - एकदम मुस्तंड-चकैठ ।) (मपध॰02:10-11:32:3.13)
281 जोरे (= जौरे; साथ में) (दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !; हम अप्पन बसेरा ढूँढ़ लेम । मगर ई गोपला जोरे नञ् जीयम । हम ठीके रसता चुनम मइया ।; भाय में ऊ अकेलुआ हल । बहिन पुनियाँ के बियाह के सियाँक ओकरा नञ् हल । चमारी मेहरारू जोरे घर में रहे लगल आउ कुछ खेत बटइया ले के औगल से खेती नाध देलक ।) (मपध॰02:10-11:19:2.5, 3.9, 46:1.12)
282 जोस-तागत (देस के माटी के महक जेकरा नञ् जोस-तागत भरलक उसकइलक, ओकर जवानी के धिक्कार । समझ ले कि ओकर काया में घुन्न लगल हे ।) (मपध॰02:10-11:33:2.8)
283 जौ (चार ~ रसुन) (फेन बाबा चिलोही, आलू, सींभ अउ कच्चा मरीच दे गेला । चार जौ रसुन भी हल । हम कहलूँ - "अञ् बाबा ! रसुनो खा हो ? साधु-महात्मा की तो गरम चीज नञ् खा हथ ।") (मपध॰02:10-11:22:1.31)
284 झक्खन (गुलबिया बोलल - "सब ठीक हे बहीन । हमहीं एगो खराब ही । रोज-रोज के झक्खन से परान आजिज हो गेल हल, एहे से घर छोड़ के कल साँझे भाग अइलूँ हे ।") (मपध॰02:10-11:20:1.31)
285 झटे (= झटपट) (छो-पाँच करते ऊ मुनाकी साव के दोकान में ढुके लगल कि अकचका के रह गेल । मुनाकी साव से कोय ओकरे बारे में बतिया रहल हल । चमारी अकानलक - 'ई अवाज तो राम उद्गार बाबू के हे ।' झटे दुआरी के बहरे एगो पाया में पीठ आउ मोखा से माथा टिका के भीतर के बात सुने लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.19)
286 झप (एही एगो जुआन बेटा हो । ई संगे जइतो । कहिओ हमरा अकेले न छोड़लको । बराबर आँख के पुतली के सिरकी से तानले रहलो । झप न करे देलको । पानी से भींगे न देलको ।) (मपध॰02:10-11:34:1.10)
287 झरकना (रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.5)
288 झरी (= झड़ी) (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.2)
289 झाँस (सरसों के फूल के रंग वसंत चुरा लेलक । बाकि फर के झाँस गरीब के जीमन में समा गेल । ई जीमन के झाँस ओकरा संजोगे पड़त । आँख मोड़े पड़त ।) (मपध॰02:10-11:35:3.22, 23)
290 झाठना (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.22)
291 झारना (= झाड़ना) (चार दिन बाद धान झार के अब ओकरा सूप से हौंक के भउँठा निकाल रहल हल चमारी कि ओन्ने से राम उद्गार बाबू अइलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.2)
292 झिंझिर (~ पीटना) (दू बज गेल । सब के इंतजार के घड़ी गुजरना मोसकिल हो गेल । आखिर राम उद्गार बाबू के घर में बोलहटा पेठावल गेल । घर से मालूम भेल कि ऊ दूरे पर कोठरी में रहतन, ई कह के अइलन हे घर से । सोनुआँ कोठरी खोलवे गेल । ढेर देरी तक झिंझिर पिटला पर भी कोय जवाब नञ् मिलल त सोनुआँ लउट आल ।) (मपध॰02:10-11:48:3.3)
293 झिटकी (इ मन हे कि मानवे न करे । आँख बेअग्गर हो जाहे, का करूँ । टिकोला के लोग झिटकियो से तोड़ के गिरा दे हथ । कुछ जमीन में लेथरा के कुचला जाहे । टिकोला आम न हो सकल, पेड़ गुजुर-गुजुर देखते रह जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.15)
294 झिटना (= झिंटना; ठगना) ("अब का तकलीफ हइ । निमन साड़ी, नेग सब तो ओकरा देली हे ।बड़की ठगिन हे । तोरो से झिटे के फेर में होएत ।" -"ऊ हमरा से का झिटत ? पहिलहीं से ई घर के रानी बनल हे । ओकर सौतिन बनाके तो हमरा बोलावल गेल हे ।") (मपध॰02:10-11:26:1.37, 2.2)
295 झुट्ठे-झुट्ठे (कपड़ा बदलैत खनी लगल कि कोय भुरकी से हुलक रहल हे । हम जब कपड़ा बदल के ओने गेलूँ तो देखऽ ही कि ठकुरवारी के ओसारा पुजेरी बाबा झुट्ठे-झुट्ठे बढ़नी से बहाड़ रहला हे ।) (मपध॰02:10-11:21:2.38)
296 झुरी (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । बिना खइले-पिले ढेर रात तक ऊ आम के सुक्खल लकड़ी-झुरी अउ गोड़ के गांजल पोआर जग के तापते रहल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.1)
297 टरकाना ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.16)
298 टाँड़ी-टिक्कर (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.24)
299 टिकोला (= अमौरी; छोटा कच्चा आम) (इ मन हे कि मानवे न करे । आँख बेअग्गर हो जाहे, का करूँ । टिकोला के लोग झिटकियो से तोड़ के गिरा दे हथ । कुछ जमीन में लेथरा के कुचला जाहे । टिकोला आम न हो सकल, पेड़ गुजुर-गुजुर देखते रह जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.14, 17)
300 टुकुर-टुकुर (हाँ, आझ से हमहीं तोर बाप ही आउ तों हम्मर बेटी । ऊ हमरा दन्ने टुकुर-टुकुर ताक रहल हल । ओक्कर आँख में छितरायल लोर । अपना के सँभारलक । गते-गते ओक्कर आँख में चमक लउट आयल हल ।; हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।) (मपध॰02:10-11:16:2.37, 21:3.22)
301 टुस-टुस (~ लोर बहाना) (आँख मुनल के मुनले रह गेल । देह में हरकते न हे । दुआरी पर लइकन-बुतरू सब आ गेलन । रामरतन टुस-टुस लोर बहावित हे, कहइत हे - अब हमरा से कनसार कहिओ न जुटतो !) (मपध॰02:10-11:37:3.14)
302 टेंट (= धोती का वह भाग जिसे गोल ऐंठ कर कमर में बाँधते हैं; रुपया रखने की एक प्रकार की थैली जिसे कमर में बाँधते हैं) (अञ् बाबू, ई का इनसाफ हे, मरद जब चाहे अप्पन अउरत बदल ले ? जखनी चाहे टेंट से रुपइया निकास के कउनो दोसर अउरत के अप्पन बिछउना पर ले आवे ? आझ के जमाना में बेला वजहे कोय एक से जादे बिआह कर सकऽ हे ?; ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल । हुलास गम लेलन । टेंट से खैनी निकाललन । चुन्ना फेंटलन अउर लटियावे लगलन - का हो ! मन बेअग्गर लगऽ हो, का बात हो ? ... चुप काहे हऽ, कहऽ ।) (मपध॰02:10-11:19:2.10, 36:3.29)
303 टोड़ना (= तोड़ना) (हम नञ् जानऽ हली भगमान कि सउँसे संसार भर के अदमी खाली अप्पन सोआरथ ल मरऽ हे । राम उद्गार बाबु के हम कहियो कि बिगाड़ली हल जे हमरा ल मउगत बनल हथ । हाड़ टोड़ के कमा ही बकि हाइए पेट में दिन गुजरे हे ।) (मपध॰02:10-11:47:2.31)
304 टौच (= टौर्च) (हमरा से कहलका - "ए गे मइयाँ, की बाहरो डोल-डाल जइमहीं ?" हमरा जरूरत तो नञ् हल, मुदा सोचलूँ कि एहे बहाने भाग जाय के चाही । ई बाघ के मान में रहला से तो अच्छा हे जंगले में रहना । हम 'हाँ' कहलूँ । बाबा बड़का गो लोटा अउ टौच देलका ।; ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.15, 3.35)
305 ठकुरवारी (= ठाकुरवाड़ी) (भुक्खल तो हइये हलूँ, बड़ी जोड़ से पिआस भी लगल हल । जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला ।; कहाँ घर हउ मइयाँ ? कहाँ से आ रहलाँ हे, एत्ते कुबेर के ? तूँ तो ई गाँव के ने तो बेटी हँ, ने तो पुतहू । हलाँकि गाँव ठकुरवारी से थोड़े दूर हे, फिर भी हम सभे घर के औरत के चिन्हऽ हूँ ।; एगो मोंट-घोंट अदमी जे जमात के मेंठ बुझाल बोलल - "अच्छा, ई तो कह, जब ठकुरवारी में हलहीं तब बाहर काहे ले निकललहीं ?") (मपध॰02:10-11:20:2.14, 24, 23:1.10)
306 ठीहा (= ठेहा; जमीन में गड़ा या जमीन के ऊपर रखा लकड़ी का कुंदा जिस पर काटने-छाँटने का काम करते हैं, निसुआ, निसुहा; लकड़ी का कुंदा जिस पर बढ़ई, कसेरा आदि ठोकने-पीटने का काम करते हैं; बैठकर काम करने का ऊँचा स्थान, आसन; आश्य, सहारा) (सब हिसाब से रहलन । जब तक पानी बरसत, दुन्नु के दुआर-दलान अउर सब ठीहा गोबरधन पर्वत बनल रहल ।; अब उ दिन बहुर के कब आवत । फूलन का के दुआरी पर बसल गाँव । करीम का के दुआरी पर बसल गाँव । धीरे-धीरे सिमट रहल हल । चिरईं-चिरगुन अपन घोसला, अपन ठीहा बनावे लगल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.22, 2.27)
307 ठोर (= ओंठ) (हरखू ई कहके खैनी के रगड़ मार के ठोकलन, तरहत्थी के गरदा के फूँक मार के उड़ा देलन, अउर खैनी बढ़ा देलन । हरखू खैनी ठोर में रखलक अउर अपन चिंता के पुड़िया खोल के हुलास के आगू रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:36:3.36)
308 ठौर-ठेकाना (अब सवाल हे जोग लइका ढूँढ़ना बाकि दाँव-पेंच ओला ई दुनियाँ में जोग लइका ढूँढ़ना ओतनै मुस्किल जेतना डालडा से भरल बजार में खाँटी घीउ । लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज । कोर्ट-कचहरी उनकर ठौर-ठेकाना अउ वकीले-मोखतार संगी-साथी हे । ओही बतौलन कि पटना हाईकोर्ट के नामी-गिरामी वकील दीपक बाबू भिजुन एगो लइका हे ।) (मपध॰02:10-11:41:1.31, 2.3)
309 डंगुरी-पत्ता (एक दिन दुपहरिया में जब उ खरिहान में आम के चिक्कन पटरा पर धान के नेवारी पीट रहल हल, तो माथा पर से एक लगउरिये बड़ी नगीच से सेना के छो-सात गो छोटका हवाई जहाज उड़ के निकल गेल । खरिहान के आसपास के पेड़ के डंगुरी-पत्ता कुछ देर ले नाचे लगल, जइसे हवाइ जहाज के पंखी ओकरा छू देलक हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.1)
310 डंटा (= डंडा) (हम्मर तरवा के गोस्सा कपार पर चढ़ गेल । हम गरियावे लगली गोदाल करे लगली । एकरे पर गोपला हमरा मार डंटा, मार डंटा हउँक देलक ।; लछमिनियाँ के जनावर नियर ओक्कर मरद मार डंटा, मार डंटा कूट देलक हल । निरदय ! सउँसे बदन में बाम उखड़ल । लिलारो फुट्टल ।) (मपध॰02:10-11:15:3.3, 4, 16:3.7)
311 डंडी (~ मारना) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.23, 25)
312 डरामा (= ड्रामा) (सितबिया बोलल - "अञ् बहीन गुलबिया ! ओहाँ से भाग काहे नञ् गेलाँ हल, जे एतना डरामा सह रहलाँ हल ।") (मपध॰02:10-11:22:1.12)
313 डहुँघी (= डउँघी; डाली) (रतन ला फुलमतिया विपत्ति के संपत्ति हल । एही हाल फुलमतियो के हल । बाकि का करे फुलमतिया । एकरा लगऽ हल कि ऊँच डहुँघी पर लगल फर कोई पा सके हे । बाकि ऊँच खूँट से संबंध जीवन के तहस-नहस कर देहे । एकरा में झरकल अदमी अपन पहचान खो देहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.2)
314 डांगर (= गाय, भैंस आदि पशु; चौपाया सींग वाले मवेशी) (ऊब गेलन आखिर मथुरा सिंह तो चचा से बोले पड़ल - "सिंगरिआ के तू डांगर बनावे पर उतारू हऽ । रेआन औरत अइसन टाँड़ी-टिक्कर दउड़ल चलइत हे । सब लोग हमरा ताना देइत हथ । कुछ ऊँच-नीच हो गेल तो ? तोरा दीदा में तनिको गरान हवऽ कि नऽ ?") (मपध॰02:10-11:28:1.23)
315 डागडर (= डॉक्टर) (फुलमतिया के देह-माथा जर रहल हे । ऊ सोचलन कि भोर तक ठीक हो जायत, न त डागडर के यहाँ जायम ।) (मपध॰02:10-11:37:3.7)
316 डिड़ी (चौदह वसंत बीत गेल हल । फुलमतिया के मन पकल सरसो के डिड़ी नियन फट के छितरा जाहे ।) (मपध॰02:10-11:35:3.20)
317 डेंगाना (= पीटना) (हमर जे मरद कम-बेसी कमा हे, सब दारुए में फूँकऽ हे, घर आवऽ हे तउ हमरा खाली नोंच-नोंच के खाहे । ना-नुकुर करऽ ही तो धान नियन डेंगावऽ हे । एकदम्मे परान आजिज हो गेल हे ।) (मपध॰02:10-11:24:2.7)
318 डेराना (= अ॰क्रि॰ डरना; स॰क्रि॰ डराना) (इनकर बाबूजी के जिनगी अछते कोई बेलगाम न हल । उनका गुजरते माय के दुलार सबके बिगाड़ देलक । ई सबसे छोट हथ, इ से सबसे ज्यादे साँढ़ हो गेलन । ताकतवर हथ, गवरू जवान । बात-बात पर लाठी-फलसा निकालेवाला । तोर जेठो इनका से डेरा हथू ।) (मपध॰02:10-11:26:2.26)
319 डोल-डाल (= पाखाना जाना) (भुक्खल तो हइये हलूँ, बड़ी जोड़ से पिआस भी लगल हल । जाके ठकुरवारी के इनारा पर पानी पीये लगलूँ । एतने में पुजेरी बाबा डोल-डाल से इनारा पर आ गेला ।; हमरा से कहलका - "ए गे मइयाँ, की बाहरो डोल-डाल जइमहीं ?" हमरा जरूरत तो नञ् हल, मुदा सोचलूँ कि एहे बहाने भाग जाय के चाही । ई बाघ के मान में रहला से तो अच्छा हे जंगले में रहना ।) (मपध॰02:10-11:20:2.16, 22:3.10)
320 ढब (~ सन अवाज) (अवाज आना बंद हो गेल । चमारी गमे के कोरसिस कइलक । धेयान तोड़ के दोकान के भीतर जाय लगल त नजर नीचे गेल, ओकर गेंदरा सुपती पर छिरिआल हल । 'ओह ! ईहे ऊ बात के बंद करावे के कारन हे । एकरे गिरे के ढब सन अवाज दुनहुँ के कान तर चल गेल होत ।' ऊ मन मसोस के रह गेल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.5)
321 ढिबरी (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:2.3)
322 ढेंगराना (= अ॰क्रि॰ ढेर लगना; स॰क्रि॰ ढेर लगाना) (इहाँ के दिरिस कुछ अलगे हे । कहीं खून टपकइत हे, तो कहीं लहास पर लहास ढेंगरायल हे । कोय दाँत निपोरले, कोय आँख फारले, केकरो कनपट्टी लापता, तो केकरो टंगरी, केहुनी ।) (मपध॰02:10-11:33:3.31)
323 तनिक्को (= जरा भी) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।; हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.24, 21:3.25)
324 तरवा (आझ एगो दोसर जन्नी अपना जउरे लेले आल । ... देखऽ ही सच्चो एगो करिया जन्नी दू गो लइका साथ दुआरी पर खड़ा हे । दुन्नू हम्मर बेटी, दुलरियो से बड़ । हम्मर तरवा के गोस्सा कपार पर चढ़ गेल ।) (मपध॰02:10-11:15:2.31)
325 तरहँत्थी (दे॰ तरहत्थी) (हमनीन गरीबन के सहायते ले तो जान तरहँत्थी पर लेके घूमल चलऽ हूँ, भले ऊ कोय जात-धरम के रहे । ई पुजेरिया के बारे में कते बेरी लंद-फंद सुन चुकलूँ हऽ ।) (मपध॰02:10-11:23:1.24)
326 तरहत्थी (हम आरती लेलूँ तो बाबा हम्मर मुँह टुकुर-टुकुर ताके लगला । थोड़े देरी के बाद मिसरी परसादी लेले अइला । हम तरहत्थी पसार के अँजुरी बना लेलूँ कि तनिक्को परसाद भुइयाँ में गिरे नञ् ।; हरखू ई कहके खैनी के रगड़ मार के ठोकलन, तरहत्थी के गरदा के फूँक मार के उड़ा देलन, अउर खैनी बढ़ा देलन । हरखू खैनी ठोर में रखलक अउर अपन चिंता के पुड़िया खोल के हुलास के आगू रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:21:3.24, 36:3.34)
327 तरेंगन (= तरिंगन; तारा) (चमारी के लगल जइसे सउँसे धरती हिल रहल हे ... तरेंगन सब नाच रहल हे । ऊ सरिआ के दुन्नु हाँथ से मोखा थम्ह लेलक आउ बउड़ाल मन पर काबू पावे के कोरसिस करे लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.29)
328 तसफ्फी (= तस्फिया; तस्विया; तसफीहा; समझौता; फैसला; मेल-जोल, राय-विचार) (बात तसफ्फी में बदल गेल । फुलमतिया के बिआह रामरतन से हो गेल । जे दिन फुलमतिया के बिआह के बाजा बजल, रतन के कुलबुलाहट बढ़ गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:37:1.14)
329 तिलाक (= तलाक; कड़वी बात के साथ ललकार या चुनौती) (मथुरा के नाम सुनते सिंगारो के देह में आग लेस गेल । जोरदार एतराज कएलक - "मथुरवा हाथ न लगा सके । ऊ पापी जिनगी भर इनकर विरोध कएलक । मरलो पर चैन न लेवे देत ? बाबू जी ला बेटा सिरिफ हम ही अउर कोई न हे । आग हम देब । कोई दूसर के न देबे देब । सबके तिलाक हे हमर ।") (मपध॰02:10-11:30:2.2)
330 तीथा (= कुएँ का जगत; कुएँ के पास कूँड़ी आदि से पानी ढालने का मिट्टी, पुआल आदि का बना साधन; दीवाल के बगल में उठाया चबूतरा, ओटा; बैठने या सामान रखने का ऊँचा स्थान) (सास, जेठानी चिल्लाए लगलन - दउड़ऽ हो, कुँइयाँ में पुतोह गिर गेल । ... कँपकँपाइत सिंगारो बाहर अएलन । तीथा पर से सास, जेठानी हाथ पकड़ के घर के अंदर कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.28)
331 तुल (= तुल्य, बराबर, समान) (हम अनजाने में हाँथ जोड़ देलूँ, अउ जमात के मेठ के जाइत टुकुर-टुकुर देखऽ लगलूँ । लंबा छरहरा, गोरनार अदमी, लमगर-लमगर मोंछ, धोती-कुरता पेन्हले, माथा में लाल गमछा बाँधले । बड़ी सोहनगर लग रहल हल । हम मने मन ऊ देउता तुल अदमी के परनाम कयलूँ । अउ पुजेरी बाबा के नाम पर थूक बिगते पैन पार कयलूँ कि तूँ मिल गेलाँ ।) (मपध॰02:10-11:24:1.34)
332 तेल-कूड़ (हम्मर मेहरारू बतउलन हल - बड़ बेस सोभाव के हे । एक्के डेरा आउ पप्पू हीं काम करऽ हे, आउ हमरे हीं पड़ल रहऽ हे । जब से जानलक हल हमहूँ मुंगेर जिला के बेटी ही, तबसे हमरा मइया कहऽ हे । गोड़ो दबा देहे । तेलो-कूड़ कर देहे । खाइ ला जे देही, खा ले हे । अब तो चाहो बना देहे ।) (मपध॰02:10-11:16:2.19)
333 तोपाना (= तोपना का अकर्मक रूप; छिपना, अदृश्य या गायब होना, ढँक जाना, बन्द हो जाना) (जमाना के बाद दाहड़ आ गेल । खेत डूब गेल, इनार डूब गेल, किनार डूब गेल । सउँसे गाँव तबाह हो गेल । अउर ऊपर से बरखा के झरी अउर हावा । झोपड़ी के तो इजते बाहर हो गेल । जेकरा पर अलम हल ओहु बेअलम हो गेल । बुतरू सब बिमारी से तोपा गेल ।) (मपध॰02:10-11:35:1.5)
334 थम (= थुम्हा; स्तम्भ) ("अभी कुछ रोज दम मार ले, सीमा पर लड़ाय छिड़ल हउ । भरती होते सरकार ओनिहे भेज देतउ ।" - "एक्कर माने अपने हमरा टरका रहली हऽ । ई जंगली भैंसा अइसन चकैठ देह, केला के थम अइसन गोलिआल हाथ-गोड़ कउन दिन खातिर हे ?") (मपध॰02:10-11:33:2.18)
335 थम्हना (= पकड़ना, थामना, गिरने न देना, सहारा लेना; रुकना, ठहरना, विराम लेना) (चमारी के लगल जइसे सउँसे धरती हिल रहल हे ... तरेंगन सब नाच रहल हे । ऊ सरिआ के दुन्नु हाँथ से मोखा थम्ह लेलक आउ बउड़ाल मन पर काबू पावे के कोरसिस करे लगल ।) (मपध॰02:10-11:46:3.31)
336 थरिया (= थारी; थाली) (पितराही ~) (हाथ-पैर लंबा-लंबा । अइसन लगऽ हल कि वंश में एगो सुरूज उगल हे । बाप बहुते खुस हल । नाच-नाच के पितराही थरिया बजइलक हल । घरवाली ले गुड़ अउर हरदी के हलुआ बनवइलक हल ।) (मपध॰02:10-11:34:2.19)
337 थारी (= थाली) (पुजेरी बाबा ललटेन के ईंजोरा में टुकुर-टुकुर हमर देह देख रहला हल अउ ओजय बैठ के थारी, घंटी, दीआ धो रहला हल, खोद-खोद के ।) (मपध॰02:10-11:21:2.26)
338 थारी-बरतन (गुलबिया सितबिया से फेन लगले बोलल - एक दने हम खाढ़ डर से थर-थर काँप रहलूँ हल, ऊ सब जमात के अदमी पुजेरी बाबा के संगारल कपड़ा-लत्ता, थारी-बरतन सब बोरा में समेट के, पेटी-बक्सा, रुपइया-पैसा ले लेलक ।) (मपध॰02:10-11:23:3.37)
339 थिर (= थीर; स्थिर) (~ पानी नञ् पीना) (लोग जेतना सीताराम के जोड़ी के पूजा कर ले, मुदा सीता जी के जिनगी भी तो सब दिन दुक्खे में बीतल । काँव-कोचर करते बिआह होल, तो कुच्छे दिन पर रजगद्दी नञ् होके वनवास हो गेल । जाहाँ से रमना हर के ले गेल । फेन गूहा-गिंजटी से अजोध्या तो अइली, मुदा थिर पानी नञ् पिलकी ।) (मपध॰02:10-11:21:1.1)
340 थिराना (= स्थिर होना) (- चुप रह लछमी ! चुप रह !! मुँह-हाथ धो ले । तनी खा ले । अब लछमिनियाँ थिरायल जा रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:15:3.13)
341 थुल-थुल (~ देह) (कुमारो साहब रंग-रूप में बापे सन हलन । कद मँझला, देह थुल-थुल, गरदन घोंच, आँख घुचघुच, गाल फूलल जइसे दुन्नों गलफरा पटनियाँ लिट्टी हे । मनगर त नहिए लगलन मुदा एकरा से का ? हथ त किरानिएँ बाबू न ।) (मपध॰02:10-11:42:3.7)
342 थूम (= थुम्हा; खम्भा, स्तम्भ) (ओही हरखू हथ जे गाय मरला पर छँइटी भर तसल्ली देके उनखा हिम्मत के थूम पर अटकइले रहलन जब तक ऊ जगह न लेलक । ओही हरखू के चेहरा पर चिंता के चिन्हास हल ।) (मपध॰02:10-11:36:3.25)
343 दईंत (दे॰ दैंत) (अपने सब मिलके हमरा कठपुतली माफिक नचावल चहइत ही । फिनो दैंत के हवाले करे के मंसा हे । उ दिन कउन गुनाह पर हमरा कुआँ में फेंकल गेल हल । पत्थर के बड़का-बड़का ढोक फेंक के हमरा खतम करे के कउनो कोसिस छोड़ल गेल ? कोई पंचइती ओकरा खातिर न बइठल । सब पंच मर गेल हलन । ई जुलमी दईंत के सजाए देवे के हिम्मत न तब हल, न अब हे ।) (मपध॰02:10-11:29:1.37)
344 दमधाकड़ (खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:43:1.9)
345 दया-मया (= दया-माया) (हम्मर बदन में जइसे आग लग गेल । गाली-गलौज करे लगली । ई करेठा ओंहीं पर पड़ल एगो लोहा के छड़ से हमरा कूटे लगल । जनावर नियर मार-मार के झाठ देलक । एन्ने फुट गेल, ओन्ने फुट गेल, खून बहे लगल, मगर ई मोछमुत्ता मारतहीं रहल । तनिक्को दया-मया नञ् ।) (मपध॰02:10-11:19:1.25)
346 दरकना (मगर आझ लछमी के मन दरकल हल । गोपाल एगो दोसर मेहरारू ले आयल हे । का तो ऊ मेहरारू से ओक्कर संबंध पहलहीं से हल ।; ई चोट लछमी के हिरदय पर पड़ल हे । ओक्कर बिसबास दरक गेल हे ।; ई अवाज से एकदम विलगे अवाज हल सिंगारो के । एक बार फिर अन्हार कुइयाँ में ओकरा ढकेल देल गेल । अबरी ओकरा बचावे खातिर कोई आगे न आएल । जौन माटी के अपन समझ के रहल, उ माटी ओकर दरद से न दरकल, न फटल ।) (मपध॰02:10-11:17:1.15, 22, 30:3.35)
347 दरस-परस (एत्ते सुंदर । गोल-गोल बड़गो छाती । कोय देउता के सराप से एकरा धरती पर जलम लेबे पड़ल होत । आउ ई देखी, ओक्कर करम । दाय के काम लिखल हल । एत्ते सुंदर काया । कत्ते दिन बीत गेल हल, ओकरा से सीधे दरस-परस हमरा नञ् होल हल ।) (मपध॰02:10-11:16:2.9)
348 दरिदरा (= दारिद्र्य, निर्धनता, गरीबी) (दुआर पर एगो गाइयो हल । ओकरा ऊ लछमिनिया कहऽ हल । ओकर दोसर बिआन के बखत रमरतना जनम लेलक हल । दुनुँ साँझ में पाँच सेर दूध उ करऽ हल । से हुलास-हुलासिन के संतोख के उ कभिओ छिज्जे न देलक । उ गाय ओकर जिनगी के दरिदरा भगइले रहल ।) (मपध॰02:10-11:34:3.7)
349 दलिदरा (= दरिदरा; निर्धनता) ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.20)
350 दलिदराह (= दरिद्र) ("कोय बात नञ् हे साव जी, घर में एगो जे जोरू आ गेल हे, ऊ घर के दलिदराह बना के रख देलक हे । खुट्टा से दलिदरा के बान्हले हे, घर में । का करी साव जी ! हम तो लरतांगर होल रहऽ ही ... उप्पर से ओकर अठारह फरमाइस । मन खतुआ जाहे ।" चमारी एकदम्मे झूठ बोल रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:47:1.19)
351 दाखिल (= समान; सदृश) (हम डरइत बोललूँ - "तोहर तो हम बेटी दाखिल हियो पुजेरी बाबा । हमर बाबू जी के मुठान भी तोहरा से मिलऽ हे । तूँ खाली टीका-चंदन दाढ़ी-माला रखले-पेन्हले हो । ऊ सादा-सपेटा गिरहस हथ ।") (मपध॰02:10-11:21:1.38)
352 दाय (= धाय, दाई) (एत्ते सुंदर । गोल-गोल बड़गो छाती । कोय देउता के सराप से एकरा धरती पर जलम लेबे पड़ल होत । आउ ई देखी, ओक्कर करम । दाय के काम लिखल हल । एत्ते सुंदर काया ।) (मपध॰02:10-11:16:2.9)
353 दारू-ताड़ी (गुलबिया के मरद खोजते आल । सास कहलथिन - "अञ् बाबू, एतना मानऽ हो, सब बढ़ियाँ साड़ी-कपड़ा देलहो हऽ, दू खंडा जेवरो गढ़ा देलहो हऽ, मुदा नीसा-पानी में मार-धार करऽ हो, एहे न बेजाय करऽ हो ।" गुलबिया के मरद बिसेसरा बोलल - "हाँ, ई तो हइये हे । अब ओइसन नञ् होतइ ।" पाया के ओट से गुलबिया बोलल - "पहिले हमरा लगा किरिया खाहो कि दारू-ताड़ी नीसा-पानी नै करभो, तब्बे जइबो ।) (मपध॰02:10-11:24:3.27)
354 दिरिस (= दृश्य) (मइया गे मइया ! कसइया हमरा मारिए देलक । बाबू हो बाबू ! हमरा बचाबऽ ! - ई हिरदय विदारक दिरिस हल ।; रजेंदर हल कि ओकर कान में ई समाचार गरम सीसा अइसन पेंस गेल । ओकरा लग गेल कि ओकरे खरिहान में आग लग गेल आउ ओकर कोय अप्पन संगी-साथी के देह झुलस गेल हल । बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल ।; इहाँ के दिरिस कुछ अलगे हे । कहीं खून टपकइत हे, तो कहीं लहास पर लहास ढेंगरायल हे । कोय दाँत निपोरले, कोय आँख फारले, केकरो कनपट्टी लापता, तो केकरो टंगरी, केहुनी ।) (मपध॰02:10-11:18:2.9, 31:1.30, 33:3.29)
355 दु-चार (= दो-चार) (हल तो वइसे ऊ चिट्ठी-पतरी भर पढ़ल हरिजन लेकिन ओकर बात-विचार रहन-सहन में एगो अलगे संस्कार के झलक मिलऽ हल । दु-चार गो संसकिरित के उलटा-पुलटा असलोक भी ओकरा कंठस हल, बले ओकर अरथ ऊ नञ् जानऽ हल ।; गाम के पढ़ल-लिखल असराफ-बड़हन आदमी भी ओकरा पेयार दे हलन । अप्पन पास बैठा के दु-चार गो गलबात कर ले हलन ।) (मपध॰02:10-11:31:3.6, 12)
356 दुलरी (= दुलारी) (सउँसे गाँव एकवट अउ सिंगारो देई अकेले । ई गाँव के ऊ पुतोह तो न हे कि जार के मार दऽ, लास फूँक दऽ तइयो कोय कुछो न बोलते । सगर पाप घोर के पी जएते । ई तो हे गाँव के बेटी-दबंग, दुलरी, सिरचढ़ल अउ नकचढ़ियो । गाँव के मेहारू सब एकरा कहऽ हथ 'दरोगा जी' अउ मरद लोग 'दुरगा जी' ।; पाँच बहिन में सबसे छोटकी, बाकि भाई एको न । बाप के सबसे दुलरी ।) (मपध॰02:10-11:25:2.2, 20)
357 दुलारना-मलारना (हमनी समझ गेली, आझ गोपला कउनो बात लेके ओकरा मार के धुन देलक हे । जनावर नियर । यक्षिणी के एही भाग हे । दुलार-मलार करे पर ऊ थोड़े शांत होल जा रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:18:2.18)
358 दूध-लावा (काम के बहाने जेठानी खसक गेलन । सिंगारो के आँख में लावा दहके लगल । नाग के दूध-लावा पिया के ओकरे से डँसवावे खातिर ओकर मन तइयारे न हल ।) (मपध॰02:10-11:26:3.21)
359 देखबइया (जादेतर मरद कुत्ता होबऽ हे, कुत्ता । सब नोच-नोच के तोरा लेहू-लेहू कर देतन । तोरा देखबइया के हउ ? परदेस के बात हे ।) (मपध॰02:10-11:17:1.30)
360 देखल-सुनल (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।) (मपध॰02:10-11:27:2.34)
361 देवीथान (ओने देवीथान पर सब गप कर रहल हल कि बेलदारी के ठकुरवारी पर राते डकैती हो गेल । पुजेरी जी के गोड़ हाँथ बाँध के सब लूट लेलकै । पुजेरी बाबा बोललथिन कि ओकरा में एगो गोरनार खुम सुत्थर लड़कियो हलै, जे पहिले से आल हलै ।) (मपध॰02:10-11:24:2.39)
362 दैंत (= दैत्य) (अपने सब मिलके हमरा कठपुतली माफिक नचावल चहइत ही । फिनो दैंत के हवाले करे के मंसा हे । उ दिन कउन गुनाह पर हमरा कुआँ में फेंकल गेल हल । पत्थर के बड़का-बड़का ढोक फेंक के हमरा खतम करे के कउनो कोसिस छोड़ल गेल ? कोई पंचइती ओकरा खातिर न बइठल । सब पंच मर गेल हलन । ई जुलमी दईंत के सजाए देवे के हिम्मत न तब हल, न अब हे ।) (मपध॰02:10-11:29:1.30)
363 दोकान-दौरी ("ई बात तो निक्के कहले हें चमारी । तोर मेहरारू ई जुकुर के हइए हव । घर में पड़ल-पड़ल फरमाइस करे में कुछ लगे हे । कहिओ दोकान-दौरी करऽ हव थोड़े, जे ओकरा आँटा-दाल के भाव मालूम रहे ।" ओकरा उसकावे ल दमड़ी साव बोललन ।) (मपध॰02:10-11:47:1.28)
364 दोस (= दोष) (हम कहलूँ - "अञ् बाबा ! रसुनो खा हो ? साधु-महात्मा की तो गरम चीज नञ् खा हथ ।" बाबा बोललका - "अरे ई सब साग-भाजी खाय में कोय दोस हे ? सींभिया में तनी रसुना पर जा हइ ने, तो सबदगर हो जा हइ ।") (मपध॰02:10-11:22:1.36)
365 धउगना (= दौड़ना) (मइया गे मइया ! मइया गे मइया !! ... कोय भोकार पाड़ के कान रहल हल । हमरे घर के दुआरी पर । रात हल । हम्मर मेहरारू जगले हलन । खिड़की खोल के देखऽ हथ । - अरे ई तो लछमिनयाँ हे । ... धउग के निच्चे गेलन । दुआर खोललन ।) (मपध॰02:10-11:15:1.8)
366 धड़धड़ाल (~ अन्दर हेल जाना) (हमरा बुझा हे कि ई पुजेरी पुजेरी नञ्, खाली ठकुरवारी के अगोरिया अउ ठकुरवारी के धन के भोगताहर हे । देख गे बहिन ! हमनी तोरा छोड़ देवौ अउ घरो पहुँचा देवौ । आझ ई पुजेरिया के सोझ कर दे । लेकिन तोरा एगो काम करे परतउ । तूँ जा के फाटक खोलइहँ अउ हमनीन धड़धड़ाल अंदर हेल जैवौ ।; हम चिचिआइत कहलूँ – "नञ् बाबा ! हमरा छोड़ दऽ, हम तोर बेटी-पोती के उमर के हियो ।" एतने में जमात के सब अदमी धड़धड़ाल गेट के भितरे चल आल । काहे कि हड़बड़ी में बाबा गेटवो लगावे ले भुला गेला हल ।) (मपध॰02:10-11:23:1.37, 2.20)
367 धवधवाना (ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.32)
368 धुकधुकी (सरोजवा झट धैलक ओकर हाँथ अउ ले गेल कोठरी में । बोलल - "सुनऽ, ई बिआह न होत ।" - "काहे रे ... ?" ओकर छाती में धुकधुकी समा गेल, साँस फूले लगल । - "हम सोनियाँ के फाँसी पर न चढ़े देब ।") (मपध॰02:10-11:43:2.4)
369 धुनना (मार के ~) (हमनी समझ गेली, आझ गोपला कउनो बात लेके ओकरा मार के धुन देलक हे । जनावर नियर । यक्षिणी के एही भाग हे । दुलार-मलार करे पर ऊ थोड़े शांत होल जा रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:18:2.15)
370 धुमन (= धुन्ना, सुगंधित गोंद) (ओने पंडित के पाठ होइत हल । धुमन जरइत हल । मरघटा पर लकड़ी-गोइठा पहुँच गेल हल । सूरुज डूबे में जादा देर न हल । अरथी सज के तइयार हल ।) (मपध॰02:10-11:30:2.9)
371 धैल (= धइल; रखा हुआ) (ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ । अउ देवइ भी ओइसने के, जेकरा नञ् हे । जेकरा ढेर मनी साड़ी-कपड़ा, सोना-चाँदी धैल-धैल भुआ रहल हे, ओकरा देला के की पून ।) (मपध॰02:10-11:21:1.35)
372 धोना-पोछना (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.29)
373 नई (= नयँ, नञ, नञ्; नहीं) (जब अप्पन दुआरी पर लउटे के होल त ओकर गाय के रोग ग गेल । ओकर पेट फुल गेल हल । पाघुर करवे न करे । ओकर मिजाज अस-बस हो गेल । देहाती दबाई पड़ल, डागडर भी अइलन, देखलन, दबाई देलन । बाकि ओकर पेट लरम नई होल ।; समय पाके गते-गते हुलास-हुलासिन सुरधाम गेलन । रामरतन अउर फुलमतिया धीर नदी नियन जीमन जी रहल हल । ओकरा कोई बाल-बुतरू नई हल । बाकि एकरा ला ओकरा कोई गमे न हल ।) (मपध॰02:10-11:36:2.12, 37:1.33)
374 नउआ (= हजाम, नापित) ("अरे, मुनाकी लाल । तूँ ससुर कतनो डंडी मारल कर, बकि राम उद्गार सन जिनगी तोरा ल मोहाले रहतउ । कोंती मारते-मारते डंडी एकलहू कर देलें, बकि तन पर भर-जी बस्तर नञ् चढ़लउ । अखनिएँ तोरा नियन गंजी बबुललवा नउआ के दे देली हऽ । ... हमर बात मान बेटा आउ हमरे गोइयाँ बन जो, फेर देखिहें कि ई जिनगी में की मजा हइ ।") (मपध॰02:10-11:46:2.28)
375 नकचढ़ियो (सउँसे गाँव एकवट अउ सिंगारो देई अकेले । ई गाँव के ऊ पुतोह तो न हे कि जार के मार दऽ, लास फूँक दऽ तइयो कोय कुछो न बोलते । सगर पाप घोर के पी जएते । ई तो हे गाँव के बेटी-दबंग, दुलरी, सिरचढ़ल अउ नकचढ़ियो । गाँव के मेहारू सब एकरा कहऽ हथ 'दरोगा जी' अउ मरद लोग 'दुरगा जी' ।) (मपध॰02:10-11:25:2.3)
376 नखुना (= नाखुन) (सिंगारो सोचलक कि घर में एतना भीड़-भाड़ में लाजे न आएल होएतन, बाकि पँचवाँ दिन खिड़की से दाई के साथ उनकर लीला देखते मन में शंका भेल । दाई जब आएल तो ऊ पूछलक - ऊ कौन लगऽ हथू तोर ? जवाब में ऊ मुसकाएल अउ निगाह नीचे करके पैर के नखुना से माटी कोड़े लगल ।) (मपध॰02:10-11:25:3.12)
377 नछत्तर (= नक्षत्र) (ने मालूम कउन नछत्तर में डॉ॰ जितेंद्र वत्स अपन कहानी संग्रह के नाम 'किरिया करम' रखलन जे मगही साहित्य के झमठगर से झमठगर लिखनिहार भी एकर चरचा तक करना मोनासिब नञ् समझलन । तारीफ के बात तो ई हे कि इग्गी-दुग्गी लिखनिहार भी मगही कहानीकार के रूप में नाम अमर कर लेलन ।) (मपध॰02:10-11:9:1.5)
378 नधाना (= शुरू होना) (बाबा आरती करैत, घंटी बजावैत कुछ गावे लगला । कुबेर के आरती नधाय अउ जाड़ा के मौसिम रहला से गाँव के कोय आदमी नञ् आल ।) (मपध॰02:10-11:21:3.10)
379 नन्हका (= बेटा) (चमारी सात बरिस से जर-मर के चालिसो-पचास मन गल्ला उपजावे बकि कहियो साल नञ् कटे । ओकर मनसूबा पर पानी फिरे लगल । मने-मन छगुनते रहे ऊ - 'हम्मर ई छोटगर परिवार में एगो नन्हका आउ नन्हकी छोड़ के के हे । मेहरारू हमर कोय तरह के बरबादी करे हे नञ्, त एतना गल्ला उपजलो पर संस काहे नञ् मिले । पौनिया-पझरिया के एतना नञ् दे देही कि झर जाय । एकर एक्के कारन हे आउ ऊ हे राम उद्गार बाबू के करजा, जे में हम लपटाल रहऽ ही ।') (मपध॰02:10-11:46:1.22)
380 नन्हकी (= बेटी) (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे । हरखू नन्हकी के लेके बजार कइलन अउर हाँफे-फाँफे लउट अइलन ।; 'हम्मर ई छोटगर परिवार में एगो नन्हका आउ नन्हकी छोड़ के के हे ।) (मपध॰02:10-11:36:3.1, 5, 46:1.22)
381 नया-नोहर (दे॰ नाया-नोहर) (नया-नोहर कनेआँ । कुआँ पर कबहियों पानी भरे के आदत न । नइहरा में चापाकल पर पानी भरलन । हियाँ गेलन कुआँ पर । एक तो देखल-सुनल न, दूसर अनहरिया रात । पानी भरे के जरूरते का हलइन ।; दानापुर-गया से डिब्बा के डिब्बा भर के मलेटरी मोरचा पर भेजल जा रहल हे । नया-नोहर समाचार तो रोजे मिलऽ हल कि चौंसठ चौंकी पर हम्मर जवान के कब्जा हो गेल, चार सौ सतरह दुस्मन के छाती गोली से चलनी कर देल गेल, ... आदि-आदि ।) (मपध॰02:10-11:27:2.31, 33:2.36)
382 नर-नोहरंगी (चमारी सोंचलक - 'रे मन, हमर मेहरारू तो लछमी हे । जे माधे समान जुटावऽ ही घर में, ओइसन तो निमने से चलवे हे घर के । नञ् बेच-बिकरिन, नञ् लड़ाय-तकरार । कहियो केकरो से उठल्लु भी नञ् करइलक हे, जबकि गहना के सउखे लगल होत ओकरा । तन पर भर जी बस्तर भी तो नञ् देलूँ हे कहियो । अदना नर-नोहरंगी तो जुटवे नञ् करे हमरा से ... जेकर तगादा कहियो नञ् कइलक ऊ । मुदा ई दमड़िया अइसे काहे बोलऽ हे ।') (मपध॰02:10-11:47:1.40)
383 नहकारना (= नकारना, अस्वीकार करना) (बगदू सिंह घरे अएलन, बाकि उदास । मथुरा के बात असर कर गेल हल । कए दिन तक मने-मन सोचइत रहलन । फिर मन के बात घरनी से कहलन । पहुना के भाई से भी सलाह लेवे गेलन । ऊ साफ नहकार गेलन - 'हमर भाई हमरे बस में न हे तो का कहूँ ?'; पंच लोग चौकीदार भेजलन । सिंगारो न आएल । तब गेलन बगदू सिंह । एकदम नहकार गेल । बगदू सिंह आखिरी हथियार इस्तेमाल कएलन । पगड़ी उतार के सिंगारो के गोड़ पर रख देलन ।) (मपध॰02:10-11:28:2.33, 29:1.16)
384 नहाना-धोना (पुजेरी बाबा हँसैत बोललका - "हाँ, हाँ, ठीके हे । ई सब कपड़ा-जेवर ले ले अउ इनरा पर जा के नहा-धो ले । ठकुरवारी में रहमाँ त बिना नहैले-फिचले !") (मपध॰02:10-11:21:2.4)
385 नहाना-फिचना (पुजेरी बाबा हँसैत बोललका - "हाँ, हाँ, ठीके हे । ई सब कपड़ा-जेवर ले ले अउ इनरा पर जा के नहा-धो ले । ठकुरवारी में रहमाँ त बिना नहैले-फिचले !"; हम सकपकाइत एकरगी होवे लगलूँ तउ पुजेरी बाबा कहलका - तनी दू दोल पानी दे देहीं, नहाल-फिचल हइये हँऽ ।) (मपध॰02:10-11:21:2.5-6, 17)
386 नाक-नक्सा (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.15)
387 नाती-नतिनी (सराध-संस्कार में सब परिवार जुट गेल हल । पाँच गो बेटी, चार गो दमाद, दरजन भर नाती-नतिनी ।) (मपध॰02:10-11:30:1.15)
388 नाधना (= शुरू करना) (चमारी के माय तो ओकर बुतरुए में गुजर गेली हल, सेसे ऊ अपन मेहरारू के कम्मे उमर में पकिया-चोकिया खातिर मँगा लेलक हल । भाय में ऊ अकेलुआ हल । बहिन पुनियाँ के बियाह के सियाँक ओकरा नञ् हल । चमारी मेहरारू जोरे घर में रहे लगल आउ कुछ खेत बटइया ले के औगल से खेती नाध देलक ।) (मपध॰02:10-11:46:1.14)
389 नान्ह (= नन्हा, छोटा) (मजदूरी करे वाली मेहरारू सवाल दागे लगलन - "सिंगारो ! तूँहीं बतावऽ, नान्ह जात अउ बड़ जात के बेटी-पुतोह के पहचान का रहल ?" ओकर जवाब होए - "तोरा खेत-खरिहान उजाड़े के मौका न मिलतउ तो एही न कहबे ?") (मपध॰02:10-11:27:3.26)
390 नामी-गिरामी (= नामी-गरामी) (लइका के ठौर-ठेकाना त ढेरो बतौलन लोग बकि मन जमे तब न । उनकर दूर के एगो समधबेटा हलन - वीगन । नंबरी मोकदमेबाज । कोर्ट-कचहरी उनकर ठौर-ठेकाना अउ वकीले-मोखतार संगी-साथी हे । ओही बतौलन कि पटना हाईकोर्ट के नामी-गिरामी वकील दीपक बाबू भिजुन एगो लइका हे ।; खूब गहमागहमी मचल हे भगत बाबू के घर । गाजा-बाजा, गीत-गौनई के शोर से कान फट रहल हे । समधी हाईकोट के दमधाकड़ वकील अउ वर सचिवालय के किरानी । गया अउ मुंगेर के नामी-गिरामी नाचेओली बायजी, बकरी के झुंड सन लाइन लगल रंग-विरंग के गाड़ी-मोटर, रेवटी समियाना अइसन-अइसन कि सोनपुर के मेला झूठ ।) (मपध॰02:10-11:41:2.7, 43:1.11)
391 निकाना (सींभ ~) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:1.38)
392 निक्के (= नीक+'ए' प्रत्यय; ठीके, सहिए; ठीक ही) ("ई बात तो निक्के कहले हें चमारी । तोर मेहरारू ई जुकुर के हइए हव । घर में पड़ल-पड़ल फरमाइस करे में कुछ लगे हे । कहिओ दोकान-दौरी करऽ हव थोड़े, जे ओकरा आँटा-दाल के भाव मालूम रहे ।" ओकरा उसकावे ल दमड़ी साव बोललन ।) (मपध॰02:10-11:47:1.25)
393 निछुक्का (दे॰ निछक्का) (कुमार वैभव त हलन निछुक्का किरानी । ऊ परनाम करके अप्पन किरानीगिरी के सान में बट्टा कइसे लगौतन हल बेचारे ।) (मपध॰02:10-11:42:3.2)
394 नित्तम (= नित्य दिन का) (आँख मईंज के ऊ अप्पन चद्दर समेटलक । उठ के सबसे पहिले कुछ बुदबुदा के धरती मैया के छू के गोड़ लगलक, जे ओकर अब नित्तम के आदत हो गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.30)
395 निनार (= ललाट) (हमर दुनहूँ हाँथ परसाद से बझल हल । अँचरा माथा पर से गिरल हल । बाबा बोललका - सोहागिन औरत के निनार पर भभूत नञ् लगावे के चाही, लाउ गियारी में लगा दिअउ ।) (मपध॰02:10-11:21:3.33)
396 निफिकिर (= बेफिक्र) (ओकर लह लह जवानी पर लोभाय अउ मरे वाली ढेर हलन लेकिन इ सबसे उ एकदम निफिकिर होके लंगोटी कसले हल ।) (मपध॰02:10-11:32:2.24)
397 निसबद (= निःशब्द) (जवाब सुनइत गाँव-घर कानाफूसी करइत लौट गेल । रात फिन निसबद हो गेल । भोरम-भोर सिंगारो अपन पेटी लेले नइहर पहुँच गेलन ।) (मपध॰02:10-11:27:3.5)
398 नीसा (= निसा; नशा) (फिन इनखा पीए के आदत संगत में पड़ गेल । एहू कहऽ कि दूगो पइसा के गरमी । लड़ाय-झगड़ा होबऽ हल । कधियो दु-चार थप्पड़ मारियो देलक । नीसा टुटे पर माफिओ माँग ले हल ।) (मपध॰02:10-11:17:1.4)
399 नीसा-पानी (गुलबिया के मरद खोजते आल । सास कहलथिन - "अञ् बाबू, एतना मानऽ हो, सब बढ़ियाँ साड़ी-कपड़ा देलहो हऽ, दू खंडा जेवरो गढ़ा देलहो हऽ, मुदा नीसा-पानी में मार-धार करऽ हो, एहे न बेजाय करऽ हो ।" गुलबिया के मरद बिसेसरा बोलल - "हाँ, ई तो हइये हे । अब ओइसन नञ् होतइ ।" पाया के ओट से गुलबिया बोलल - "पहिले हमरा लगा किरिया खाहो कि दारू-ताड़ी नीसा-पानी नै करभो, तब्बे जइबो ।) (मपध॰02:10-11:24:3.20, 27)
400 नुकाना (= छिपाना) (सुभदरा बोलल - निंदा करे से ही हम्मर आहत मन के राहत न मिलत । तू भी कइसन भाई हँऽ ! जेकर बहिन के साथ एतना बड़ा हादसा हो गेल आउ अप्पन मुड़ी कोठी में नुकइले रह गेलऽ ।) (मपध॰02:10-11:40:3.16)
401 नून (= नमक) (सुभदरा - वकील साहब ! हम्मर जरल देह पर नून मत रगड़ऽ । ई आरोप झूठ हे । हम्मर चाल-चलन पर अछरंग मत लगावऽ ।) (मपध॰02:10-11:40:2.7)
402 नेम-संजम (= नियम-संयम) (रजेंदर के बाप बंसी के पीलिया रोग से इलाज मिसिर जी अप्पन खरचा से मगध मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में करउलन हल । काल के गाल से ऊ हँसइत-खेलइत निकल गेल लेकिन गाम लौटला के कुछ रोज बाद खनय-पिनय में नेम-संजम नञ् करे के कारन अचानक ओकर हालत एतना खराब हो गेल कि बचना मुश्किल हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.31)
403 नेवारी (= धान का पुआल; अन्न निकाला धान का पुल्ला या अंटिया) (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । ... भुखले पेट पियासले कंठ ऊ नेवारी में घुड़मुड़िया गेल । ओकरा कखने नीन आयल केकरो पता नञ् ।; खुलल अकास के नीचे चारो तरफ नेवारी के आँटी अउ गोलियावल धान के ढेरी के बीचो बीच ओकर मड़इ हल, जेकरा में अप्पन ई चार ठो संगी-साथी गोतिया माय के साथ उ रात में सुतऽ-बैठऽ हल । एक दिन दुपहरिया में जब उ खरिहान में आम के चिक्कन पटरा पर धान के नेवारी पीट रहल हल, तो माथा पर से एक लगउरिये बड़ी नगीच से सेना के छो-सात गो छोटका हवाई जहाज उड़ के निकल गेल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.8, 32:1.26, 34)
404 नोचाना (= नुचवाना) (सुभदरा कहलक - तू भड़ुआ हऽ । हम थाना में केस करे जा रहली हे । चपरासी बोलल - भेड़िया से आउ देह नोचावे ला हे त थाना में चल जा । तोरा जउरे जे रेप कइलन हे ऊ दबंग दरोगा हथ ।) (मपध॰02:10-11:38:3.30)
405 नौकरियाहा (= नौकरी करने वाला) (सादी तय हो गेल । लगन के दिन सोधा गेल । लगनपतरी भी मिल गेल । वर-कन्या दुन्नो के अँगना में खुसी । भगत बाबू के नौकरियाहा दामाद मिले के खुसी अउ वकील साहेब के खुसी सुत्थर पुतोह के साथ-साथ कुबेर के खजाना मिले के ।) (मपध॰02:10-11:43:1.2)
406 पँउलग्गी (हाँ, तो हम कह रहली हल कि कय गो कहानीकार ई गफलत में रहलन कि हमहीं जाके उनका रचना ले पँउलग्गी करम ।) (मपध॰02:10-11:4:1.11)
407 पंचाइत (= पंचायत) (चमारी के अकचका के देखे लगलन राम उद्गार बाबू । फेर हड़बड़ा के बोललन - "अरे रहे दे बेटा ! तूँ भागल थोड़े जा रहले हें ।" - "नञ् चचा, हम देवो त पूरा पैसा देवो । ऊ भी पंचाइत बोला के ।" रूखापन से बोलल चमारी ।; दोसर दिन पंचाइत लगल । सब अइलन बकि राम उद्गार बाबू अलोपल हलन । पंचाइत कबड़ गेल । पंच घर चल गेलन ।) (मपध॰02:10-11:47:3.32, 48:1.25, 27)
408 पकरना (= पकड़ना) (पुजेरी बाबा के हकबक गुम । फेन जमात के मेठ लपक के बाबा के गट्टा धैलक आउ कहलक - "ई औरत के हे ठकुरवारी में ? कौन लोभ से रहे देला हऽ एकरा ? एहे भर अँकवारी पकरे ले ? ई तोर के जनाना हो ? तूँ साधू एहे ले होला हऽ ?") (मपध॰02:10-11:23:2.34)
409 पकिया-चोकिया (= पकाना-चोकाना) (चमारी के माय तो ओकर बुतरुए में गुजर गेली हल, सेसे ऊ अपन मेहरारू के कम्मे उमर में पकिया-चोकिया खातिर मँगा लेलक हल । भाय में ऊ अकेलुआ हल ।) (मपध॰02:10-11:46:1.9)
410 पटनिया (= पटना शहर वाला) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर । रजेंदर के पसन से मिसिर जी एगो कुच-कुच करिया पहिलौंठ पटनिया गाय खरीद के ओकरा फलगू नदी में उतरवा के घर सोझ कर देलन ।) (मपध॰02:10-11:32:3.34)
411 पटी (दे॰ पट्टी) (चारो ~ से) (ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.33)
412 पट्टी-उट्टी (तुरंत डॉक्टर साहब उनकर इलाज में जुट गेलन । राम उद्गार बाबू के बारे में सुन के आलम जुट गेल डाक्टर साहेब के पास । थोड़े देर बाद पट्टी-उट्टी हो गेला के बाद डाक्टर साहेब के पुछला पर राम उद्गार बाबू बतैलन कि उनकर ई हालत उनकर बेटा कइलक हे ।) (मपध॰02:10-11:48:2.9)
413 परतीत (~ करना = विश्वास करना) ("से कइसे ? कुछ बोलइत हलवा का ?" जेठानी सहमइत बोललन । - "जे हम आँख से देखली, पर परतीत न कइली, सेई बात बोलल बेचारी ।" - "का देखलऽ तू ?") (मपध॰02:10-11:26:1.31)
414 परदा (= स्त्रियों के शौच करने की क्रिया, शौच का स्थान) (अब पैन के पार नैहर के गाँव सुदामा बिगहा आल । छिटपुट गाँव के औरत बाहर परदा ले आ रहली हल ।; की कहिअउ बहीन, दुखिया गेल हल दुख काटे, तउ गोड़ गड़लय हल काँटा, ... ओहे हाल हमर होल । कल्हे हम झोला-झोली के घर से परदा के बहाने भागलूँ, मुदा बेलदरिया पर अइते-अइते ढेर साँझ हो गेल ।; हम बोललूँ - "बाहर परदा ले अयलूँ हल अउ सोंच रहलूँ हल कि राते रात नैहरवे भाग जाऊँ, काहे कि पुजेरी बाबा के नीयत बढ़ियाँ नञ् लगल ।" एगो बोलल - "कुछ खराब बेवहार कयलथुन की ?") (मपध॰02:10-11:20:1.16, 2.11, 23:1.12)
415 परसादी (= प्रसाद) (नञ् बाबा ! हमरा नञ् चाही साड़ी-गहना । हमनी गरीब आदमी के सादे-सपेटे ठीक लगऽ हे । पुजेरी बाबा बोललका - नञ्, ई बात ठीक नञ् हे । जइसे कोय परसादी लेवे में आनाकानी नञ् करऽ हे, ओइसीं ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ ।) (मपध॰02:10-11:21:1.28)
416 परहेजी (= परहेज) (बाबा हँसैत बोललका - "एतना परहेजी ! कते तो आवऽ हे से कत्ते परेम से रहऽ हे अउ तूँ तो लगऽ हे कि मूहें फुलैले हँऽ ।" हम बोललूँ - "नञ् बाबा, मुँह काहे ले फुलइले रहम । बड़ अदमी से तनी परहेजी करऽ ही ।") (मपध॰02:10-11:22:2.21, 26)
417 परीछना (ऊ बेटा तो हइ वकीले के बकि कौड़ी के तीन । डोनेसन पर डेली बेसिस पर बहाली हे, ऊहो चारे महीना ला । एतनै नञ्, बैंक डकैती में नवादा जेलो में तीन बच्छर लइका काटलक हे । ओकर जिनगी हे शराब अउ धंधा हे लूट-खसोट । कमाई में ओकरा लात-जूता के कमी न रहे । अब बतावऽ, परीछवऽ अइसने करमजरुआ दमाद ?) (मपध॰02:10-11:43:2.27)
418 पसन (= पसिन; पसन्द) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर । रजेंदर के पसन से मिसिर जी एगो कुच-कुच करिया पहिलौंठ पटनिया गाय खरीद के ओकरा फलगू नदी में उतरवा के घर सोझ कर देलन ।) (मपध॰02:10-11:32:3.30)
419 पहलहीं (= पहिलहीं) (मगर आझ लछमी के मन दरकल हल । गोपाल एगो दोसर मेहरारू ले आयल हे । का तो ऊ मेहरारू से ओक्कर संबंध पहलहीं से हल ।) (मपध॰02:10-11:17:1.18)
420 पहलौकी (= पहिलौकी; पहली) (बाबू जी, गलती तो हमरा से होइए गेल । समय के दोस हे । हम्मर पहलौकी मेहरारू, परबतिओ के देखे वाला कोय नञ् हे । दु-दु गो बच्चो पइदा हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:17:2.9)
421 पहिलहीं (= पहले ही) (हम की करतूँ हल, ओयसीं भिंजले में पानी भरे लगलूँ । हम्मर भींजल कपड़ा देह पर सट्टल हल, अउ हम लजा रहलूँ हल । काहे कि बलाउजो काढ़ के पहिलहीं गार-फिच के, सुखे दे देलूँ हल ।; हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:21:2.23, 3.5)
422 पहिले (= पहले) (दिल्ली में साँझ बड़ देर से होबऽ हे । असमान पहिले फिक्का सेनुर नियर लाल आउ बाद में गाढ़ा सेनुरिया रंग के हो जा हल ।) (मपध॰02:10-11:17:3.18)
423 पहिले-पहिल (= पहली बार) (फटफटिया से उतर के मिसिर जी कुछ देर आँख फाड़ के भर पेट रजेंदर के देखलन, जइसे ओकरा पहिले-पहिल देखलन हल । फिर ओकर पीठ थपथपा के सोझ हो गेलन मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:3.30)
424 पहुना (= पति; दामाद; मेहमान, अतिथि)(काहे गे बहीन, बड़ी हिरदा फार के कान रहलाँ हे । सब समाचार तो ठीके हउ ने ? पहुनमा ठीक हथुन ने, सास-ससुर ठीक हथुन ने ?; बेटी के गियारी लगावैत बोलल - "एते सबेरे अइलहीं बेटी !" - "भिनसरे चललूँ हल ।" - "अकसरे अइलहीं हे ?" - "नञ् माय, पैनियाँ तक पहुँचा देलथिन ।" - "के ? तोर पहुनमा हलथुन ?" गुलबिया कुछ नञ् बोलल, खाली मुसक गेल । गुलबिया माय पुछलक - "बड़ी बढ़ियाँ साड़ी हउ गे, पहुनमा लाके देलथुन ?"; बगदू सिंह घरे अएलन, बाकि उदास । मथुरा के बात असर कर गेल हल । कए दिन तक मने-मन सोचइत रहलन । फिर मन के बात घरनी से कहलन । पहुना के भाई से भी सलाह लेवे गेलन । ऊ साफ नहकार गेलन - 'हमर भाई हमरे बस में न हे तो का कहूँ ?') (मपध॰02:10-11:20:1.27, 24:2.19, 23, 28:2.32)
425 पाख (= पाक; पवित्र) (बेटा न हइन तो भतीजा तो हइन । कहाँ गेल मथुरवा - पकड़ के ले आवऽ । चचा मरल पड़ल हथ । बदार घुमइत हे । मरनी-जीनी में साथ न देत तो गाँव में कइसे रहत ? ओकर छूअल पानी कवनो पितइ ? पाख होवत तब न ?; बाप के सोग में सिंगारो बेचारी पगला गेल हे, लेकिन अपने तो होस में ही । मेहारू के आग देइत सुनली हे अपने ? बेटी के मोह में पति के नरक में ठेलब ? पति के पाख कइसे होएत, अपने के पता हे ।) (मपध॰02:10-11:30:1.31, 2.29)
426 पाघुर (= पागुर) (~ करना) (जब अप्पन दुआरी पर लउटे के होल त ओकर गाय के रोग ग गेल । ओकर पेट फुल गेल हल । पाघुर करवे न करे । ओकर मिजाज अस-बस हो गेल ।) (मपध॰02:10-11:36:2.9)
427 पाछू-पाछू (= पीछू-पीछू; पीछे-पीछे) (गोपला अप्पन घर लउटे लगल । पाछू-पाछू लछमिनिओं चलल । हम का फइसला करती होत ? ई फइसला ओक्कर अप्पन हल ।; हम्मर मेहरारू के पाछू-पाछू लछमिनियों आ गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:17:2.29, 18:3.34)
428 पाछे (= पीछे) (तीनों कुल के बखिया उघराए के डरे सिंगारो के जजात तो बच गेल, लेकिन जात-भाई के ओकरा छुटहा घुमला पर एतराज भेल । ओकर पीठ पाछे सिकाइत होवे लगल ।) (मपध॰02:10-11:28:1.12)
429 पाछे-पाछे (= पाछू-पाछू; पीछे-पीछे) (तिरपुरारी भुनभुनाइत उठलन अउर चल देलन । मुरारी सेकर पाछे-पाछे हो गेलन ।) (मपध॰02:10-11:29:3.21)
430 पातन (धान के ~) (कातिक खतम होवे-होवे हल । धान के पातन चमारी के अप्पन आउ बटइया के खेत में लगल हल । झोला-झोली के बाद चमारी माल-धुर के खिलाके काँख तर गेंदरा आउ हाँथ में एगो पैना लेले घर से धान के पातन अगोरे खातिर निकलल ।; धान के पातन भिजुन बनल नेवारी के मड़को में पड़ल-पड़ल सारी रात नञ् की-की सोंचले रहल चमारी ।) (मपध॰02:10-11:46:2.4, 8, 47:2.38)
431 पान-छो (= पाँच-छह) (ठंढा हावा सप-सप बह रहल हल, हम जाड़ा से थर-थर कर रहलूँ हल कि एतने में पान-छो गो अदमी धवधवायत दौड़ल आल, अउ हमरा चारो पटी से घेर लेलक । हमर तो हवासे गुम हो गेल । हम काने कलपे लगलूँ । ऊ सब टौच बार बार के हमरा देखे लगल ।) (मपध॰02:10-11:22:3.32)
432 पिछुआनी (~ भित्तर) (हम आलू काट के, सींभ निका के, रसुन छिल के, थारी में रख देलूँ । बाबा पिछुआनी भित्तर से गोयठा-लकड़ी लैलका अउ हमरे सुलगावे कहलका । एगो चिपरी पर करासन देके सलाय ढिबरी भी ला देलका ।) (मपध॰02:10-11:22:1.40)
433 पितराही (= पीतल का) (~ थरिया) (हाथ-पैर लंबा-लंबा । अइसन लगऽ हल कि वंश में एगो सुरूज उगल हे । बाप बहुते खुस हल । नाच-नाच के पितराही थरिया बजइलक हल । घरवाली ले गुड़ अउर हरदी के हलुआ बनवइलक हल ।) (मपध॰02:10-11:34:2.19)
434 पीछू-पीछू (= पीछे-पीछे) (हम अप्पन नैहर के गाँव बता देलूँ सुदामा बिगहा । आगू-आगू मेठ अउ पीछू-पीछू हम लपकल बढ़े लगलूँ । कुछे देरी में हमर गाँव के सिमाना आ गेल ।) (मपध॰02:10-11:24:1.15)
435 पुजेरी (= पुजारी) (हमरा बुझा हे कि ई पुजेरी पुजेरी नञ्, खाली ठकुरवारी के अगोरिया अउ ठकुरवारी के धन के भोगताहर हे ।; देख गे बहिन ! हमनी तोरा छोड़ देवौ अउ घरो पहुँचा देवौ । आझ ई पुजेरिया के सोझ कर दे । लेकिन तोरा एगो काम करे परतउ । तूँ जा के फाटक खोलइहँ अउ हमनीन धड़धड़ाल अंदर हेल जैवौ ।) (मपध॰02:10-11:23:1.31, 35)
436 पुरान-धुरान (कोय काम पड़े पर ऊ रजेंदर के बोलावऽ हलन अउ नौकरी पर गया जाय घड़ी रात-अधरात, भोर-भिनसरवा रजेंदर उनका समान के साथ हिसुआ पाँचू चाहे तिलैया टीसन पहुँचावऽ हल । मिसिर जी गया में पढ़ावऽ हलन आउ अपन नया, पुरान-धुरान छाड़न सब रजेंदर के परिवार के दे हलन ।; एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल ।) (मपध॰02:10-11:31:3.23, 32:2.28)
437 पूछना-पाछना (एक रोज उ अचानक हकासल-पियासल दुपहरिया में मिसिर जी के दुआरी पर गया पहुँच गेल । मिसिर जी अप्पन पुरान-धुरान फटफटिया के धो-पोछ के नया बनावे खातिर चमका रहलन हल । भोजन जेमे के बाद जेबार-गाम के हाल-समाचार पूछ-पाछ के मिसिर जी रजेंदर के फटफटिया पर पाछे बैठा के फुर्र से उड़ गेलन कतिकी मेला में गाय देखे खातिर ।) (मपध॰02:10-11:32:2.32)
438 पून (= पुण्य) (ई जेवर सब भी तो भगवती पर चढ़ल परसादे हे, सोहाग के चीज । हम तोरा खुशी से दे रहलूँ हऽ । अउ देवइ भी ओइसने के, जेकरा नञ् हे । जेकरा ढेर मनी साड़ी-कपड़ा, सोना-चाँदी धैल-धैल भुआ रहल हे, ओकरा देला के की पून ।) (मपध॰02:10-11:21:1.36)
439 पेंसना (= घुसना) (रजेंदर हल कि ओकर कान में ई समाचार गरम सीसा अइसन पेंस गेल । ओकरा लग गेल कि ओकरे खरिहान में आग लग गेल आउ ओकर कोय अप्पन संगी-साथी के देह झुलस गेल हल ।) (मपध॰02:10-11:31:1.24)
440 पेटी-बक्सा (गुलबिया सितबिया से फेन लगले बोलल - एक दने हम खाढ़ डर से थर-थर काँप रहलूँ हल, ऊ सब जमात के अदमी पुजेरी बाबा के संगारल कपड़ा-लत्ता, थारी-बरतन सब बोरा में समेट के, पेटी-बक्सा, रुपइया-पैसा ले लेलक ।) (मपध॰02:10-11:23:3.38)
441 पेठिया (= पेठिआ; छोटा हाट, सप्ताह के निश्चित दिन या दिनों को लगनेवाला पसरहट्टा, गुदरी बाजार) (हरखू अउर हुलास आसे-पास रहऽ हलन । दुन्नु सुख-दुख के खैनी चुटकियावऽ हलन अउर बाँट के खा हलन । एक दिन के बात हे, हरखू अप्पन नन्हकी के लेके पेठिया गेलन हल । ओही ठाम रतन से भेंट होल । खेम-छेम होल । बाकि रतन के आँख फुलमतिया पर से हटवे न करे, हँटवे न करे ।) (मपध॰02:10-11:36:3.1)
442 पैन (= पइन) (अब पैन के पार नैहर के गाँव सुदामा बिगहा आल । छिटपुट गाँव के औरत बाहर परदा ले आ रहली हल ।; हम अनजाने में हाँथ जोड़ देलूँ, अउ जमात के मेठ के जाइत टुकुर-टुकुर देखऽ लगलूँ । लंबा छरहरा, गोरनार अदमी, लमगर-लमगर मोंछ, धोती-कुरता पेन्हले, माथा में लाल गमछा बाँधले । बड़ी सोहनगर लग रहल हल । हम मने मन ऊ देउता तुल अदमी के परनाम कयलूँ । अउ पुजेरी बाबा के नाम पर थूक बिगते पैन पार कयलूँ कि तूँ मिल गेलाँ ।; बेटी के गियारी लगावैत बोलल - "एते सबेरे अइलहीं बेटी !" - "भिनसरे चललूँ हल ।" - "अकसरे अइलहीं हे ?" - "नञ् माय, पैनियाँ तक पहुँचा देलथिन ।") (मपध॰02:10-11:20:1.14, 24:1.36, 2.17)
443 पैना (= डंडा) (कातिक खतम होवे-होवे हल । धान के पातन चमारी के अप्पन आउ बटइया के खेत में लगल हल । झोला-झोली के बाद चमारी माल-धुर के खिलाके काँख तर गेंदरा आउ हाँथ में एगो पैना लेले घर से धान के पातन अगोरे खातिर निकलल ।) (मपध॰02:10-11:46:2.8)
444 पोआर (= पोवार; पुआल) (बुतात लेके ऊ सीधे खरिहान आ गेल, लेकिन ओकर दिमाग में उहे दिरिस नाचइत हल । बिना खइले-पिले ढेर रात तक ऊ आम के सुक्खल लकड़ी-झुरी अउ गोड़ के गांजल पोआर जग के तापते रहल ।) (मपध॰02:10-11:31:2.2)
445 पोछ-पाछ (फिन ओक्कर घाव पोछ-पाछ डिहौल पानी से कइल गेल । घाव पर मरहम लगावल गेल । लछमिनियाँ आउ ओक्कर बेटी खिला-पिला के एगो बिछौना, हम्मर मेहरारू अप्पन बगल में बिछा देलन ।) (मपध॰02:10-11:18:2.34)
446 पोरसा (= पानी की गहराई नापने की एक इकाई; पुरुष; पोरिस) (" ... चुरुआ भर पानी न मिलल हल कहीं माँग भरे के पहिले ?" - "का बोलले ? चुरुआ भर पानी ? चार पोरसा पानी हे अबहीं कुइयाँ में । चल देख, चार पोरसा ... पानी ... हे अबहीं ।") (मपध॰02:10-11:27:2.14, 15)
447 पोवार (= पुआल) (रात भर ठकुरवारी में अराम कर ले । तड़के उठके चल जइहँऽ । एजऽ तो बराबर कत्ते राहगीर रात-बेरात रहवे करऽ हथ । ठकुरवारी से परसाद खाय ले मिलिये जैतउ, ओढ़ना-बिछौना के भी कमी नञ् हे, साले-साल सब परदेसियन देवे करऽ हे, ओकरो पर पोवार भी बिछल हे ।; हम नयका साड़ी पेन्ह के, लरछा हँसुली भी पेन्ह लेलूँ, फेन माथा पर अधसुक्ख लाल बलाउज के खोपा बाँध के, पोवार पर जाके बैठ गेलूँ, जेकरा पर पुजेरी बाबा एगो चरखानी कंबल बिछा देलका हल, हमरा नहा के आवे के पहिलहीं ।) (मपध॰02:10-11:20:3.16, 21:3.2)
448 पोसकाड (= पोस्टकार्ड) (ऐसे हमरा पता हे कि ई हाइ-टेक जुग में चिट्ठी-पतरी के चलनसार उठल जा रहल हे । कय अदमी तो पोसकाड लिखना तौहीन मानऽ हथ ।) (मपध॰02:10-11:4:1.21)
449 पौनिया-पझरिया (चमारी सात बरिस से जर-मर के चालिसो-पचास मन गल्ला उपजावे बकि कहियो साल नञ् कटे । ओकर मनसूबा पर पानी फिरे लगल । मने-मन छगुनते रहे ऊ - 'हम्मर ई छोटगर परिवार में एगो नन्हका आउ नन्हकी छोड़ के के हे । मेहरारू हमर कोय तरह के बरबादी करे हे नञ्, त एतना गल्ला उपजलो पर संस काहे नञ् मिले । पौनिया-पझरिया के एतना नञ् दे देही कि झर जाय । एकर एक्के कारन हे आउ ऊ हे राम उद्गार बाबू के करजा, जे में हम लपटाल रहऽ ही ।') (मपध॰02:10-11:46:1.26)
450 फँसल (जब जरूरत होल ऊ अपनहीं पइसा देइत रहऽ हथ । मगर ई मुझौंसा तो एक्को पइसा नञ् देहे । बेटियो के पढ़ावे ला नञ् । दु दुआरी काम करऽ ही तो दुलरिया के पढ़वावऽ ही । ई करेठा के सक लगल रहऽ हे कि हम पप्पू बाबू से फँसल ही। बाबू भगमान किरिया जे हम ई करेठा के छोड़ के केकरो जोरे सुतली होत !) (मपध॰02:10-11:19:2.3)
451 फरका (= मिरगी, अपस्मार; जुदा या अलग होने का भाव; दरवाजे या घेरे का टट्टर; दूर, अलग) (अपन रमचरना हो नऽ, ओकरा से फुलमतिया के बिआह कर लऽ अउर चैन से सुतऽ । तू भाय अउर दोस दुन्नु हऽ । हम्मर तोहर दुअरा के ऊँचाई भी बरबरे हे । घरइतिन सबके मिजाज भी कोई फरका न हे ।) (मपध॰02:10-11:37:1.9)
452 फर-फर (= फुर-फुर) (~ हावा) (सबके सेवा में लगल रहलन । सउँसे परिवार, फूलन बाबू के साथ-साथ, सबके देखभाल करते रहल । न झुंझलाहट, न उकताहट । झर-झर बरसत त केतना दिन बरसत । फर-फर हावा बहत त केतना दिन बहत । नदी चढ़ल हे त उतरवो तो करत । एही तो उतार-चढ़ाव हे जीवन के ।) (मपध॰02:10-11:35:2.3)
453 फरही (= फड़ही) (फूलन का सबके अपन नेह से तोप देलन । चाह, भुंजा, फरही, चूड़ा कोई चीज के कमी न होवे देलन ।) (मपध॰02:10-11:35:1.28)
454 फरागत (= छुटकारा, निवृति, छुट्टी, मलत्याग) (रामचरन भोरे उठल । बाहर निकसल । फरागत होके लउटल तऽ देखे हे कथे दोसर हे । फुलमतिया के देह-हाँथ पानी ।) (मपध॰02:10-11:37:3.9)
455 फसिल (= फसल) (मेहरारू हमर कोय तरह के बरबादी करे हे नञ्, त एतना गल्ला उपजलो पर संस काहे नञ् मिले । पौनिया-पझरिया के एतना नञ् दे देही कि झर जाय । एकर एक्के कारन हे आउ ऊ हे राम उद्गार बाबू के करजा, जे में हम लपटाल रहऽ ही । सब फसिल में तीन-चार मन उनखे देवे पड़ऽ हे, तइयो उनखर करजा कपार पर चढ़ले हे ।; "से कइसे । ... त सुन ! आय से दस बरिस पहिले जदुआ हमरा से दू हजार रुपइया सुद्दी पर लेलक । ओकरा मरते-मरते ऊ सात हजार हो गेल । अब सात बरिस से ओकर छउँड़ा फसिल में तीन-चार मन याने दस-बारह मन के साल गल्ला दे रहल हे, बकि अबहियो समुल्ला पैसा के भोकतान नञ् भेल हे, राम जी के किरपा से ।" तनी ताव में बोललन राम उद्गार बाबू ।) (मपध॰02:10-11:46:1.30, 3.5)
456 फह-फह (रामचरण जब जनम लेलक, त ओकर देह जाँगड़ सूरूज नियन फह-फह हल । सुघड़ माय, ओकरा अँचरा नियन साटले रहऽ हल । बड़ा सुत्थर हल । नाक-नक्सा सुग्गा नियन ।) (मपध॰02:10-11:34:2.13)
457 फिक्का (= फीका) (दिल्ली में साँझ बड़ देर से होबऽ हे । असमान पहिले फिक्का सेनुर नियर लाल आउ बाद में गाढ़ा सेनुरिया रंग के हो जा हल ।) (मपध॰02:10-11:17:3.18)
458 फिनूँ (= फिनु, फेनु, फेर; फिर) (हम्मर मेहरारू लछमिनियाँ से फिनूँ पूछे लगलन - का होलउ ? अप्पन कँपसल बोली में लछमिनियाँ कहे लगल - मइया ! ... गोपला एक नंबर के हरामी हे ।) (मपध॰02:10-11:15:2.19)
459 फुट्टल (= फूटा हुआ) (लछमिनियाँ के जनावर नियर ओक्कर मरद मार डंटा, मार डंटा कूट देलक हल । निरदय ! सउँसे बदन में बाम उखड़ल । लिलारो फुट्टल ।; मइया गे मइया ! कसइया हमरा मारिए देलक । बाबू हो बाबू ! हमरा बचाबऽ ! - ई हिरदय विदारक दिरिस हल । कपार से लछमिनियाँ के खून बह रहल हल । केहुनी फुट्टल हल । लछमिनियाँ एकदम्मे बदहवास ! चिंचिया रहल हल ।) (मपध॰02:10-11:16:3.9, 18:2.11)
460 फुट्टा (छो ~ जुआन) (हाँ, पपुए बाबू हीं रहम, तूँ का कर लेगा ? ऊ गोरनार छो फुट्टा जुआन हथ । इंजीनियर हथ । हम उनखे रखनी बनके जीयम । तूँ का कर लेमऽ ?) (मपध॰02:10-11:18:3.37)
461 फूटल-भाँगल (फेन पुछलक - "अञ् गे, अबरी ससुरा बड़ी मानलकउ हे, हँसुली लरछा देलकउ हऽ ।" गुलबिया चुप्पे रह गेल । अउ गियारी से निकालैत कहलक - एकरा बक्सा में रख दीहँऽ, गाँव में सब देखत । फूटल-भाँगल घर हे ! हले, ई लरछवो रख दे ।) (मपध॰02:10-11:24:2.32)
462 फेरा (= बखेड़ा) (सितबिया बोलल - चल गे बहिन, घरे चल । बड़ी फेरा से बचलाँ । एकरा से बढ़ियाँ तो ससुरारे में हलाँ ।) (मपध॰02:10-11:24:1.39)
463 फोकचा (= पानी-पूरी, गोल-गप्पा) (आगे बढ़ऽ ही तो देखऽ ही अंगरेज आउ अंगरेजिन के एगो उमिरदराज जोड़ी, सूट-बूट-हैट पहिरले फोकचा खा रहलन हे । हम अप्पन मेहरारू से पुछली - का हमनियों के फोकचा खाय के ?) (मपध॰02:10-11:18:1.23, 25)
464 फोरन (= सब्जी आदि के छौंक-बधार के लिए जीरा, मेथी, मिर्च आदि की तेल या घी में जलाई गई मात्रा; बहुत थोड़ी वस्तु) (हमरा सुन के ताजुब लग गेल । एतना तेल तो हमनी आठ रोज चलावऽ ही । हम चुपचाप सउँसे सीसी कड़ाही में उझल देलूँ । हींग, रसुन, फोरन देके तरकारी मेरा देलूँ ।) (मपध॰02:10-11:22:2.14)
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