विजेट आपके ब्लॉग पर

Friday, July 13, 2012

62. "मगही पत्रिका" (वर्ष 2002: अंक 12) में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


मपध॰ = मासिक "मगही पत्रिका"; सम्पादक - श्री धनंजय श्रोत्रिय, नई दिल्ली/ पटना

पहिला बारह अंक के प्रकाशन-विवरण ई प्रकार हइ -
---------------------------------------------
वर्ष       अंक       महीना               कुल पृष्ठ
---------------------------------------------
2001    1          जनवरी              44
2001    2          फरवरी              44

2002    3          मार्च                  44
2002    4          अप्रैल                44
2002    5-6       मई-जून             52
2002    7          जुलाई               44
2002    8-9       अगस्त-सितम्बर  52
2002    10-11   अक्टूबर-नवंबर   52
2002    12        दिसंबर             44
---------------------------------------------
मार्च-अप्रैल 2011 (नवांक-1) से द्वैमासिक के रूप में अभी तक 'मगही पत्रिका' के नियमित प्रकाशन हो रहले ह ।

ठेठ मगही शब्द के उद्धरण के सन्दर्भ में पहिला संख्या प्रकाशन वर्ष संख्या (अंग्रेजी वर्ष के अन्तिम दू अंक); दोसर अंक संख्या; तेसर पृष्ठ संख्या, चउठा कॉलम संख्या (एक्के कॉलम रहलो पर सन्दर्भ भ्रामक नञ् रहे एकरा लगी कॉलम सं॰ 1 देल गेले ह), आउ अन्तिम (बिन्दु के बाद) पंक्ति संख्या दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या (अंक 1-9 तक संकलित शब्द के अतिरिक्त) - 133

ठेठ मगही शब्द ( से तक):

1    अ (= आउ; और) (जब भी जाड़ा में आवऽ हथिन, हम्मर माय से ई फरमाइश करे में न चूकऽ हथिन - "कनेमा, तनिक पिट्ठा त बनइहऽ, सौंसे पूस निकल गेल हे - अ पिट्ठा न खयली हे ... अ गुजगुजी खयला ..."  अइसन-अइसन दुर्लभ खाय के चीज जेकर हमनी कहियो नामो न सुनली हल ।;  दादी के बेमारी के समाचार सुन के बड़की फुआ अइलथिन हल । दादी गिर गेलथिन हल - अर महीना भर से उनका खटिए पर सब कुछ होवऽ हल । अब एक तो बेमारी - अ उपर से मिजाजपुर्सी करे वाला लोग के आवाजाही । मैया के भर दिन दम मारे के भी फुरसत न मिलऽ हल ।)    (मपध॰02:12:20:2.33, 34, 21:1.16)
2    अकिलगर (= अक्लमंद, बुद्धिमान्) (जिअला पर एतना बेदरदी हल मगही समाज उनका ला अउ मरलो पर ओही हाल हे । सोना के लूट अउ कोइला पर छाप । हाय रे अकिलगर समाज ।)    (मपध॰02:12:17:1.34)
3    अनकठल (= अनकट्ठल; अकथित) (फिर शुरू होएल - कहाँ उठाऊँ, कहाँ बिठाऊँ, का खियाऊँ, का पियाऊँ । सबरी किहाँ जइसे राम के आगमन । कविता के आगे समीक्षा के खुद कविता बने के अनकहल, अनकठल, अजगुत लचारी ।)    (मपध॰02:12:15:3.5)
4    अर (= आउ; और) (दादी के बेमारी के समाचार सुन के बड़की फुआ अइलथिन हल । दादी गिर गेलथिन हल - अर महीना भर से उनका खटिए पर सब कुछ होवऽ हल । अब एक तो बेमारी - अ उपर से मिजाजपुर्सी करे वाला लोग के आवाजाही । मैया के भर दिन दम मारे के भी फुरसत न मिलऽ हल ।)    (मपध॰02:12:21:1.14)
5    अलचार (= लाचार) (देवघर में इनकर एगो खास दोकान हल, जहाँ ई बरमहल मिठाई खा हलन । एकरे दुस्परभाव से किसोरे अवस्था में इनकर गला खराब हो गेल आ गाना गावे जुकुर न रह गेल । ई बात से इनका ढेर अफसोस भेल । गावे से निरास आ अलचार इनकर भाउक कलाकार रसे-रसे बाँसुरी दने मुड़लक बाकि ओकर सुर भी इनका बान्हे में सफल न हो सकल ।)    (मपध॰02:12:12:2.22)
6    अवकाद (= औकात) (ऊ घड़ी हमरा अवकादे का हल, बाकि जवान हली अउ मेहनत करे के ताकत अउ नीयत हल । एही से हमरा बड़का-बड़का साहित्यकार के संगत में उठे-बइठे आउ काम करे-सीखे के जुगाड़ बन गेल हल ।)    (मपध॰02:12:14:2.29)
7    असंख (= असंख्य) (तबहियें न असमय के इनकर मिरतु पर दुखी राम चमार, मोहम्मद तसलीम - फलवला, बगलगीर रामचंद्र साह, बालचंद्र झा, विनोद झा, राजकुमार चौधरी - चायवला आ जलेश्वर प्रसाद - पानवला बिहार के असंख जनता के साथ आठ-आठ आँसू बहौलन हल !)    (मपध॰02:12:12:1.31)
8    असिरबाद (= आशीर्वाद) (पाठक बाबा गीत-कविता-समीक्षा के जोद्धा हलन, हम हली हिंदी कहानी के अखाड़ा के सिंकिया पहलवान । दुनो के रसता अलगे-अलग । हमर भाग के बात । भाग के बात ई से कहइत ही कि हम कोई करम नहियों कइली, तबहियों हमरा देवता के दरसन भेल, असिरबाद मिलल ।)    (मपध॰02:12:15:1.26)
9    आ (= आउ; और) (बचपन से इनकर सांत आउ गम्हीर विचार आ सोभाव के देख-परिख के बाबू जी इनकर नाम 'शिव' रखलन ।; गणित के समूचे इंतिहान में इनका सौ में सौ नंबर परापित होइत गेल । इनकर उदेस अपन जीमन में उँचगर आ सफल डाक्टर बने के हल ।)    (मपध॰02:12:11:1.29, 2.25)
10    आजनम (= ताजिनगी) (इहे ओजह हल कि ई पटना के नाटकवली संस्था 'निर्माण कलामंच' आ ओकर बाल-साखा 'सफरमैना' के आजनम सरगनई कैलन ।)    (मपध॰02:12:13:1.4)
11    इरिद-गिरिद (= इर्द-गिर्द; आसपास) (मरीज लोग से छुटकारा पा के रात के दू बजे से भोरहरिया में फरीछ होवे तक ई सितार के अभेयास करऽ हलन । इनकर इरिद-गिरिद रहनिहार लोग के नीन इनकरे सितार के परन, टुकड़ा, झाला आ मुरछना के सुर से टूटऽ हल ।)    (मपध॰02:12:12:3.3)
12    उँचगर (= ऊँचा) (गणित के समूचे इंतिहान में इनका सौ में सौ नंबर परापित होइत गेल । इनकर उदेस अपन जीमन में उँचगर आ सफल डाक्टर बने के हल ।; आखिर में दादा जी के विरासत काम आयल । जीत इनकर कलामंत अंगुरियन के भेल आ देखते-देखते ई उँचगर आ झमठगर सितारवादक बन गेलन । गाना हारल आ बजाना जीत गेल ।; कुछ दूर बढ़के बइठ जाहे । एकबैग फुसफुसा हे - देखहीं तो मंगरू भाई ! ऊ जे उँचगर आसन पर बइठल हउ उ कउन हउ ? चिन्हइत हहीं ? अनमन लगऽ हउ भैंसचरवा तुलसिये हउ ! अरे हाँ ! अभी हमनिये के टुकुर-टुकुर देखइत हउ !)    (मपध॰02:12:11:2.25, 12:2.31, 24:1.20)
13    उठना-बइठना (ऊ घड़ी हमरा अवकादे का हल, बाकि जवान हली अउ मेहनत करे के ताकत अउ नीयत हल । एही से हमरा बड़का-बड़का साहित्यकार के संगत में उठे-बइठे आउ काम करे-सीखे के जुगाड़ बन गेल हल ।)    (मपध॰02:12:14:2.33)
14    ऊपरका (= ऊपर वाला) (अइसन महफिल में हमर कवन पूछ हल । हम तो पोंछ हली, ओहू में छोटगर । हाल-समाचार, सोवागत के बाद सम्मेलन के ऊपरका कमरा में दरी पर बइठलन पाठक जी ।)    (मपध॰02:12:15:3.14)
15    एकबैग (= अचानक) (कुछ दूर बढ़के बइठ जाहे । एकबैग फुसफुसा हे - देखहीं तो मंगरू भाई ! ऊ जे उँचगर आसन पर बइठल हउ उ कउन हउ ? चिन्हइत हहीं ? अनमन लगऽ हउ भैंसचरवा तुलसिये हउ ! अरे हाँ ! अभी हमनिये के टुकुर-टुकुर देखइत हउ !)    (मपध॰02:12:24:1.19)
16    ओदा-सूखल (= गीला-सूखा) (साहित्य अउ संस्कृति के पंडित पुरुष के कलम के ताकत देखली तो हमरा निसा फटल । ... मन में एगो भरम हो गेल हल कि हमहूँ साहित्य के महारथी हो गेली हे । ई भरम पाठक जी के लेख पढ़ला पर अइसन छितराएल जइसे माथा पर ओदा-सूखल लकड़ी के रखल बोझा के रस्सी अचानक टूट गेल होए अउ सब लकड़ी भहरा के हमर नाक-मुँह, हाँथ-गोड़ पर गिर के सऊँसे देह छिल देलक होए ।)    (मपध॰02:12:14:3.28)
17    औचक (= अचानक) (अपन सोभाव के चलते औचक में शिव बाबू सुकरात आ विवेकानंद के विचार से ढेर परभावित हो गेलन ।)    (मपध॰02:12:11:1.34)
18    कटवइया (= काटने वाला) (जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् । तब, जे मन से, टाँगी ले के अइतो आउ बउसाव भर काँट-छाँट के घर ले जइतो । कोय नामलेवा तो बनइलऽ नञ् जे रोक सके । कटवइया के टाँगी पकड़ सको ।)    (मपध॰02:12:5:1.22)
19    कनेमा (= कनियाय) (जब भी जाड़ा में आवऽ हथिन, हम्मर माय से ई फरमाइश करे में न चूकऽ हथिन - "कनेमा, तनिक पिट्ठा त बनइहऽ, सौंसे पूस निकल गेल हे - अ पिट्ठा न खयली हे ... अ गुजगुजी खयला ..."  अइसन-अइसन दुर्लभ खाय के चीज जेकर हमनी कहियो नामो न सुनली हल ।; बड़की चाची एही से उनका से खार खा हलथिन । उनकर एकलौती पुतोह के मुँह देखते - अ नेग देतहीं ऊ फट से बोल पड़लथिन - "कनेमा तो बेसे गोरनार हो भौजी, लेकिन नकिए तो एकर चापुट हो । अब पोता-पोती नेपालिए न होतो त कहिहऽ ।")    (मपध॰02:12:20:2.31, 3.29)
20    करना-सीखना (ऊ घड़ी हमरा अवकादे का हल, बाकि जवान हली अउ मेहनत करे के ताकत अउ नीयत हल । एही से हमरा बड़का-बड़का साहित्यकार के संगत में उठे-बइठे आउ काम करे-सीखे के जुगाड़ बन गेल हल ।)    (मपध॰02:12:14:2.33)
21    कलामंत (= कलाकार) (आखिर में दादा जी के विरासत काम आयल । जीत इनकर कलामंत अंगुरियन के भेल आ देखते-देखते ई उँचगर आ झमठगर सितारवादक बन गेलन । गाना हारल आ बजाना जीत गेल ।)    (मपध॰02:12:12:2.30)
22    कवि-कवियाँठ ('मगही पत्रिका' ले के हम मगह के छोट-बड़ कवि-कवियाँठ, लेखक-अलेखक सबके दुआरी-दुआरी ढनमना अइली । कार आउ कुत्ता वला हीं भी आउ सिरकी-मड़ई वला हीं भी । लोग अपनइलन भी, सतइलन भी, घुमइलन भी, छकइलन भी आउ भरमइलन भी ।)    (मपध॰02:12:6:1.17)
23    कहल-अनकहल (उनकर नाम, रूप, गुण जब हमरा इयाद आवऽ हे, हम कह न सकी कि हमरा पर का गुजरऽ हे । बड़ नाम सुनली हल उनकर । कबहूँ साहित्यिक चरचा में सरधा के साथ नाम लेवइत आचार्य निशांतकेतु के मुँह से, मार्कंडेय प्रवासी के कंठ से, नचिकेता के घर में, फिनो कुमारी राधा के आँख में कुछ-कुछ कहल-अनकहल भाव में ।)    (मपध॰02:12:14:1.32)
24    किंछार (तोहरा सामने ने जे-से तोहर पत्ता बहाड़ लेहो सुखलका आउ तूँ मसुआयल मन से देखते रह जाहऽ । काहे नञ् अपन नाया पत्ता के जोगा रख पावऽ हऽ । ई ले हिरदा के किंछार में विवेक के गंगाजल बहे दऽ ! तन के निर्मल करऽ !)    (मपध॰02:12:5:1.28)
25    कोंकड़ना (= सिकुड़ना, संकुचित होना) (ई हमरा ठीक-ठीक मालूम हे कि मरखाह भैंसा आगू से ढूँसा मारे हे आउ पीछे से भी पूँछी । आउ एक केहुनी मारऽ त कोंकड़ के बइठ जइतो ।)    (मपध॰02:12:6:1.25)
26    खार (= डाह, जलन; ~ खाना = डाह रखना) (बड़की चाची एही से उनका से खार खा हलथिन । उनकर एकलौती पुतोह के मुँह देखते - अ नेग देतहीं ऊ फट से बोल पड़लथिन - "कनेमा तो बेसे गोरनार हो भौजी, लेकिन नकिए तो एकर चापुट हो । अब पोता-पोती नेपालिए न होतो त कहिहऽ ।")    (मपध॰02:12:20:3.10)
27    खिसोड़ना (तुलसी दास जी नियन हम उनकर वंदना करऽ ही जे हमर बढ़ते कदम में लंघी मारे के नकाम कोरसिस कइलन आउ कामयाब नञ् होला पर फेर मुँह खिसोड़ के हमर खैरखाह के लाइन में खड़ा हो गेलन ।)    (मपध॰02:12:4:1.16)
28    गम्हीर (= गम्भीर) (बचपन से इनकर सांत आउ गम्हीर विचार आ सोभाव के देख-परिख के बाबू जी इनकर नाम 'शिव' रखलन ।)    (मपध॰02:12:11:1.28)
29    गहँकी (= ग्राहक) (जिअला पर एतना बेदरदी हल मगही समाज उनका ला अउ मरलो पर ओही हाल हे । सोना के लूट अउ कोइला पर छाप । हाय रे अकिलगर समाज । कोइला के सोना के भाव में बेचे खातिर गहँकी मूड़े के चक्कर चलावल जाइत हे ।)    (मपध॰02:12:17:2.2)
30    गाछ-बिरिछ (हे विशालकाय ! धेयान से देखऽ ! तोर आस-पास भले नञ्, बकि दूर-दराज में कत्ते लोभनगर आउ सोहनगर छोट-बड़ गाछ-बिरिछ फरे-फुलाय लगल हे । उनकर मिठगर फर के कोय सुग्गा लोलिआवे इया कौआ, बेचारे सम भाव से निश्चल आउ निश्छल रूप में खड़ा रहऽ हथ ।)    (मपध॰02:12:6:1.8)
31    गारी (= गाली) (चाहे डाक्टर लाख मना कर दे हलन - "बच्चे की आँख में काजल नहीं लगाना" - डाक्टर के पीठ घुमैतहीं बड़की फुआ जनमौता के भर भर आँख काजर लगा के चार गारी डाक्टर के सुना दे हलथिन ।)    (मपध॰02:12:20:2.26)
32    गुजगुजी (= चावल के आटे की मोटी रोटी; सेंककर दूध में भिगोई मीठी रोटी) (जब भी जाड़ा में आवऽ हथिन, हम्मर माय से ई फरमाइश करे में न चूकऽ हथिन - "कनेमा, तनिक पिट्ठा त बनइहऽ, सौंसे पूस निकल गेल हे - अ पिट्ठा न खयली हे ... अ गुजगुजी खयला ..."  अइसन-अइसन दुर्लभ खाय के चीज जेकर हमनी कहियो नामो न सुनली हल ।)    (मपध॰02:12:20:2.34)
33    घाटना (हलुआ ~) (अब एक तो बेमारी - अ उपर से मिजाजपुर्सी करे वाला लोग के आवाजाही । मैया के भर दिन दम मारे के भी फुरसत न मिलऽ हल । कभियो आयल गेल के चाह-पानी - त कभियो बदली फुआ के एलान - "तनिक मैया ल सिंघाड़ा के हलुआ घाट दिहऽ त छोटकी ... बुढ़िया कल्हे से बकले हइ ... का जाने कौन चीज में प्राण अटकल हइ एकर ।")    (मपध॰02:12:21:1.26)
34    घूरा ("अरे तोहनी के बात ... मिक्सी अ फिक्सी ओने फेंक दे घूरा पर जाके ... दे दे सेर भर सवा सेर दाल - हम मिनट भर में चटनी न कर देलियौ त कहिहें ।" सच्चे फुआ न खाली दाल पीस दे हलथिन बलुक पिट्ठा के सौंसे तामझाम भी अपन सिर पर उठा ले हलथिन ।)    (मपध॰02:12:20:3.10)
35    चपाट (= मूर्ख, अनपढ़, निरक्षर; पिछलगु) (तूँ रह गेलें बुधू चपाट के चपाटे ! अरे, न जानऽ हें त सुन ! बी.बी.सी. के मतलब होवऽ हइ बुद्धि-वर्धक चूर्ण । जेकरा देहाती भाषा में खैनी कहल जा हइ ! अनपढ़ कहीं के । तूँ एकदम जाहिल जट्ट आउ खोदा मियाँ के लट्ठे रह गेलें !)    (मपध॰02:12:22:2.1)
36    चापुट (= चपटा) (बड़की चाची एही से उनका से खार खा हलथिन । उनकर एकलौती पुतोह के मुँह देखते - अ नेग देतहीं ऊ फट से बोल पड़लथिन - "कनेमा तो बेसे गोरनार हो भौजी, लेकिन नकिए तो एकर चापुट हो । अब पोता-पोती नेपालिए न होतो त कहिहऽ ।")    (मपध॰02:12:20:3.31)
37    चाभना (= चबा-चबा कर खाना; रस निचोड़ना, चूसना; प्रेमपूर्वक सुस्वादु भोजन करना; छककर खाना; रसदार वस्तु या पान आदि खाना) (दूर-दूर से ऊ अपन बउसाव भर नमी आउ खनिज लवण सोख-सोख के तोरा सप्लाय करते रहल, बकि कभी तोरा सन हरियरी नञ् चाभ सकल ।)    (मपध॰02:12:5:1.11)
38    चाह-पानी (अब एक तो बेमारी - अ उपर से मिजाजपुर्सी करे वाला लोग के आवाजाही । मैया के भर दिन दम मारे के भी फुरसत न मिलऽ हल । कभियो आयल गेल के चाह-पानी - त कभियो बदली फुआ के एलान - "तनिक मैया ल सिंघाड़ा के हलुआ घाट दिहऽ त छोटकी ... बुढ़िया कल्हे से बकले हइ ... का जाने कौन चीज में प्राण अटकल हइ एकर ।")    (मपध॰02:12:21:1.23)
39    चिरँय-चुरगुन (तूहूँ दुनियाँ के झमठगर आउ बड़हन वटवृक्ष में गीनल जा ! बकि तोरा सबसे हमनीन नियन चिरँय-चुरगुन के कुछ शिकवा-शिकायत हे । जदि तोहर सकेत हिरदा में हमर ई बात पेस सके त हम्मर धन्न भाग !; हे मगही के वटवृक्ष ! हमनिन नियन चिरँय-चुरगुन तोर कोय दुसमन नञ् हे । देखऽ, ई बात सच हे कि हमनिन तोहर पोकहा के खा-खा के कहैं न कहैं वीट कर देम । बकि ई बात भी सच हे कि ई वीट से भी तोहरे अकार के वटवृक्ष पैदा होवत, चिरँय-चुरगुन के अकार के नञ् ।)    (मपध॰02:12:5:1.5, 15, 17)
40    चुरगुन (= चुरगुनी, चुरगुन्नी, चिरगुन, चिरगुन्नी; चुगने वाले जीव, चिड़िया, छोटी चिड़िया) (हे मगही के वटवृक्ष ! हमनिन नियन चिरँय-चुरगुन तोर कोय दुसमन नञ् हे । देखऽ, ई बात सच हे कि हमनिन तोहर पोकहा के खा-खा के कहैं न कहैं वीट कर देम । बकि ई बात भी सच हे कि ई वीट से भी तोहरे अकार के वटवृक्ष पैदा होवत, चिरँय-चुरगुन के अकार के नञ् । हमर कहे के मतलब ई हे कि तोहर पोकहा के चुगेवला चुरगुन भी तोहरे संतति ले काम कर रहल हे ।)    (मपध॰02:12:5:1.17)
41    छट्ठी-छिल्ला (जे फूल टूटऽ हल से बड़कीए फूआ पर चढ़ऽ हल । का छट्ठी-छिल्ला - अ का कोई भतीजा के सतइसा - कभियो कान के झुमका नेग के मिलल हल त कभियो - हाथ के कंगना ।)    (मपध॰02:12:20:1.29)
42    छोट-बड़ (~ गाछ-बिरिछ) (हे विशालकाय ! धेयान से देखऽ ! तोर आस-पास भले नञ्, बकि दूर-दराज में कत्ते लोभनगर आउ सोहनगर छोट-बड़ गाछ-बिरिछ फरे-फुलाय लगल हे । उनकर मिठगर फर के कोय सुग्गा लोलिआवे इया कौआ, बेचारे सम भाव से निश्चल आउ निश्छल रूप में खड़ा रहऽ हथ ।; 'मगही पत्रिका' ले के हम मगह के छोट-बड़ कवि-कवियाँठ, लेखक-अलेखक सबके दुआरी-दुआरी ढनमना अइली । कार आउ कुत्ता वला हीं भी आउ सिरकी-मड़ई वला हीं भी । लोग अपनइलन भी, सतइलन भी, घुमइलन भी, छकइलन भी आउ भरमइलन भी ।)    (मपध॰02:12:6:1.7, 17)
43    जट्ट (= जट्ठ; अपढ़, जाहिल, मूर्ख, जाहिल-जट्ट) (तूँ रह गेलें बुधू चपाट के चपाटे ! अरे, न जानऽ हें त सुन ! बी.बी.सी. के मतलब होवऽ हइ बुद्धि-वर्धक चूर्ण । जेकरा देहाती भाषा में खैनी कहल जा हइ ! अनपढ़ कहीं के । तूँ एकदम जाहिल जट्ट आउ खोदा मियाँ के लट्ठे रह गेलें !)    (मपध॰02:12:22:2.4)
44    जमाकड़ा (= भीड़-भाड़, अनेक लोगों का जमघट; बेतरतीब या बेजरूरी भीड़) (हम्मर पढ़ाय-लिखाय तो एकदम चौपट हो गेल हल - रात-दिन लोग के आवाजाही - घर में कोय एकांत कोना भी न बचऽ हल । रात तो रात - चार बजे भोरे से ... फुआ के भजन शुरू हो जा हल से अलग ... "जै सियाराम, जै-जै सियाराम ... " । हे भगवान, दुनियाँ भर के बूढ़ा-बूढ़ी के जमाकड़ा हमरे घर में काहे हइ भला ।)    (मपध॰02:12:21:2.3)
45    जहमा-तहमा (= जहाँ-तहाँ) (अपने के ई कहानी 'हंस' ला एकदम उपयुक्त हे । हिंदी में अनुवाद करके ई में भेज दा । जहमा-तहमा मगही के छौंक रहे दीहऽ ।)    (मपध॰02:12:42:1.25)
46    जानल-मानल (सह-संपादक के रूप में अब हमनी के साथ दू जानल-मानल नउजवान हस्ती अरुण हरलीवाल आउ मिथिलेश प्र॰ सिन्हा जुड़ रहलन हे । भगमान उनका ताकत आउ समझ देथ कि ऊ पत्रिका के छती पूरा कर सकथ ।; नवादा जिला के डी.एस.पी. सहित अनेक जानल-मानल लोग ई अवसर पर पधारलन ।)    (मपध॰02:12:4:1.31, 36:3.24)
47    जाहिल-जट्ट (जाहिल जट्ट खुदा के ~) (तूँ रह गेलें बुधू चपाट के चपाटे ! अरे, न जानऽ हें त सुन ! बी.बी.सी. के मतलब होवऽ हइ बुद्धि-वर्धक चूर्ण । जेकरा देहाती भाषा में खैनी कहल जा हइ ! अनपढ़ कहीं के । तूँ एकदम जाहिल जट्ट आउ खोदा मियाँ के लट्ठे रह गेलें !; देख मंगरुआ ! तोहर बात सुनके हमर तरवा के लहर कपार पर चढ़ जा हउ ! बार-बार जाहिल-जट्ट कहके बुरबक बना रहले हें ! जब हम पढ़ऽ हली त गुरुजी हमरा गोबर-गणेश कहके बोलावऽ हलन ।)    (मपध॰02:12:22:2.4, 8)
48    जुआनी (अपन जुआनी के बात सोंच-सोंच के नञ् नितरा ।)    (मपध॰02:12:6:1.1)
49    जेहनगर (इहे कारन हल कि शिव बाबू भी हरमेसा जेहनगर विदेयारथी के पीठ नीक तरी ठोकऽ हलन आऊ लोग के आगे बढ़ावे में तनिको कसर कभी न छोड़लन ।)    (मपध॰02:12:11:3.6)
50    जोड़ीदामा (= जोड़ीदम्मा) ('मगही पत्रिका' ले के हम मगह के छोट-बड़ कवि-कवियाँठ, लेखक-अलेखक सबके दुआरी-दुआरी ढनमना अइली । ... पत्रिका परिवार भी बन गेल । आजीवन सदस्य भी मिललन, हितचिंतक भी आउ सदस्य भी । सलाहकार भी मिललन, जोड़ीदामा भी, सहजोगी भी मिललन, परजीवी भी ।)    (मपध॰02:12:6:1.21)
51    जौरे (= एक साथ, इकट्ठा) (बुरबक कहीं के । रह गेलें देहाती भुच्चर के भुचरे । एतनहूँ न बुझाइत हउ कि हमरा जौरे रहमें त भुलइमे कइसे ?)    (मपध॰02:12:22:1.20)
52    झाला (= झाबा; सितार या बीन की झंकार; झंकृत ध्वनि में बजाया गया एक विशेष धुन) (मरीज लोग से छुटकारा पा के रात के दू बजे से भोरहरिया में फरीछ होवे तक ई सितार के अभेयास करऽ हलन । इनकर इरिद-गिरिद रहनिहार लोग के नीन इनकरे सितार के परन, टुकड़ा, झाला आ मुरछना के सुर से टूटऽ हल ।)    (मपध॰02:12:12:3.5)
53    टगना-टुगना (एक रात जब सौंसे घर सूत गेल हल अ हमनी भी सूते के तैयारी कर रहली हल - बड़की फुआ शॉल लपेटते - टगते-टुगते हमनी के कोठरी में अइलथिन अ मैया के नगीच जाके फुसफुसाए लगलथिन ।)    (मपध॰02:12:21:2.8)
54    टाँगी (जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् । तब, जे मन से, टाँगी ले के अइतो आउ बउसाव भर काँट-छाँट के घर ले जइतो । कोय नामलेवा तो बनइलऽ नञ् जे रोक सके । कटवइया के टाँगी पकड़ सको ।)    (मपध॰02:12:5:1.21, 22)
55    ठिसुआना (बड़की चाची एही से उनका से खार खा हलथिन । उनकर एकलौती पुतोह के मुँह देखते - अ नेग देतहीं ऊ फट से बोल पड़लथिन - "कनेमा तो बेसे गोरनार हो भौजी, लेकिन नकिए तो एकर चापुट हो । अब पोता-पोती नेपालिए न होतो त कहिहऽ । अरे नाक तो हमनी के खानदान में हइ - नेमू रख द - त दू टुकड़ा हो जाय जाके ।" फुआ के बात सुनतहीं सब मेहमान हँसे लगलथिन हल । इधर बड़की चाची ठिसुआल नियन होके भुनभुनाए लगलन हल ।)    (मपध॰02:12:21:1.2)
56    ठोलियाना (= ठोल या ठोर मारना) (हमर कहे के मतलब ई हे कि तोहर पोकहा के चुगेवला चुरगुन भी तोहरे संतति ले काम कर रहल हे । तूँ खाली ई बात से ओकरा अपन आस-पास नञ् फटके देइत हऽ कि ऊ तोहर पोकहा ठोलियावे लगत, भले तोर पोकहा पिलुआ जाय ।)    (मपध॰02:12:5:1.17)
57    डँहुँड़ी (दे॰ डँहुड़ी) (अजी महराज ! कोय तोहर पाँच गो डहुँड़ी तोड़ लेलकइ आउ घर चल पड़तइ त जब तक ऊ डँहुड़िया जरा नञ् देतइ तब तक लोग-बाग नञ् पुछथिन कि ई बर के डहुँड़ी कहाँ से लइलऽ हऽ हो ? अइसन तो नञ् हो जइतइ कि लोग-बाग के विवेक-बुद्धि मरल हइ कि ऊ तोहर डहुँड़िया बारे में पुछथिन कि आम के डँहुँड़ी कहाँ से लइलऽ ।)    (मपध॰02:12:5:1.32)
58    डहुँड़ी (दे॰ डँहुड़ी) (अजी महराज ! कोय तोहर पाँच गो डहुँड़ी तोड़ लेलकइ आउ घर चल पड़तइ त जब तक ऊ डँहुड़िया जरा नञ् देतइ तब तक लोग-बाग नञ् पुछथिन कि ई बर के डहुँड़ी कहाँ से लइलऽ हऽ हो ? अइसन तो नञ् हो जइतइ कि लोग-बाग के विवेक-बुद्धि मरल हइ कि ऊ तोहर डहुँड़िया बारे में पुछथिन कि आम के डँहुँड़ी कहाँ से लइलऽ ।)    (मपध॰02:12:5:1.29, 30, 31)
59    ढनकना (= मारा-मारा फिरना, बेसहारा भटकना) (~ चलना/ बुलना) (कोय सुनतन त केतना तरस आत उनका कि पंद्रह-साढ़े पंद्रह हजार के बन्हल मासिक पगार छोड़ के सहर-सहर, गाँव-गाँव, गली-गली, दुआरी-दुआरी ढनकल चलली हम । जहें साँझ ओहें बिहान ।)    (मपध॰02:12:4:1.8)
60    ढनमनाना ('मगही पत्रिका' ले के हम मगह के छोट-बड़ कवि-कवियाँठ, लेखक-अलेखक सबके दुआरी-दुआरी ढनमना अइली । कार आउ कुत्ता वला हीं भी आउ सिरकी-मड़ई वला हीं भी । लोग अपनइलन भी, सतइलन भी, घुमइलन भी, छकइलन भी आउ भरमइलन भी ।)    (मपध॰02:12:6:1.17)
61    ढूँसा (~ मारना) (ई हमरा ठीक-ठीक मालूम हे कि मरखाह भैंसा आगू से ढूँसा मारे हे आउ पीछे से भी पूँछी । आउ एक केहुनी मारऽ त कोंकड़ के बइठ जइतो ।)    (मपध॰02:12:6:1.25)
62    तेजगर (= तेज) (हमर अपन विचार से ई लोकगीत मानव हिरदा के प्रकृत भावना सब के तन्मयता के तेजगर अवस्था के गति हे ।)    (मपध॰02:12:19:3.3)
63    तेहाई (= तिहाई) (हरमेसा ऊ अपन गणितवला दिमाग से रंग-बिरंग के तेहाई अपने बना के सितार पर उतारइत रहऽ हलन । संगीत के भीतर जे सास्वत नया रस हे, ओकरे सवाद ई बरमहल ले हलन ।)    (मपध॰02:12:12:3.8)
64    दवा-बीरो (ई तरी गाना-बजाना के साथ दवा-बीरो वला विग्यान में दिलचस्पी शिव बाबू के विरासत में मिलल ।; देखते-देखते दवा-बीरो में भारत के चोटी के डाक्टर लोग में इनकर स्थान सुरच्छित हो गेल ।)    (मपध॰02:12:11:1.26, 2.28)
65    दुनियाँ (= दुनिया) (हम्मर पढ़ाय-लिखाय तो एकदम चौपट हो गेल हल - रात-दिन लोग के आवाजाही - घर में कोय एकांत कोना भी न बचऽ हल । रात तो रात - चार बजे भोरे से ... फुआ के भजन शुरू हो जा हल से अलग ... "जै सियाराम, जै-जै सियाराम ... " । हे भगवान, दुनियाँ भर के बूढ़ा-बूढ़ी के जमाकड़ा हमरे घर में काहे हइ भला ।)    (मपध॰02:12:21:2.2)
66    धूरी (= धूलि) (हे वृक्ष श्रेष्ठ ! बरहोग वला ई बात के हम छाती पर पत्थल धर के बरदास कर लेही बकि अब जे तोहर सोहामन-सोहामन, ललहुन-ललहुन, मिठगर-मिठगर अनेक पोकहा पक-पक के पिलुआ रहल हे, धूरी में लोट रहल हे आउ तूँ साख पर पाँखी {नाक पर मक्खी}नञ् बैठे दे रहलऽ हे, ई बात हमर बरदास से बाहर हे ।; जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् ।)    (मपध॰02:12:5:1.13, 20)
67    नामलेवा (= नाम लेने वाला) (जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् । तब, जे मन से, टाँगी ले के अइतो आउ बउसाव भर काँट-छाँट के घर ले जइतो । कोय नामलेवा तो बनइलऽ नञ् जे रोक सके । कटवइया के टाँगी पकड़ सको ।)    (मपध॰02:12:5:1.22)
68    निगुनिया (= निगुना, निगुनियाँ, निगुनी; निर्गुण; गुण रहित; जो प्रवीण न हो) (उ साँप-मंडली में हमहूँ हली अउर हमरा अइसन निगुनिया के ई सँपेरा सगुनिया बना के झुमा रहल हल । शब्द मंत्र हे, ब्रह्म हे - एकर साक्षात् रूप-दर्शन करे के भाग ई जड़-लोहा के मिलल हल ।)    (मपध॰02:12:16:1.21)
69    नेमू (= लेमू; नींबू) (बड़की चाची एही से उनका से खार खा हलथिन । उनकर एकलौती पुतोह के मुँह देखते - अ नेग देतहीं ऊ फट से बोल पड़लथिन - "कनेमा तो बेसे गोरनार हो भौजी, लेकिन नकिए तो एकर चापुट हो । अब पोता-पोती नेपालिए न होतो त कहिहऽ । अरे नाक तो हमनी के खानदान में हइ - नेमू रख द - त दू टुकड़ा हो जाय जाके ।" फुआ के बात सुनतहीं सब मेहमान हँसे लगलथिन हल । इधर बड़की चाची ठिसुआल नियन होके भुनभुनाए लगलन हल ।)    (मपध॰02:12:20:3.34)
70    पगार (= वेतन, मजदूरी; ईख की चारा योग्य हरी पत्ती, अगेरी; आर-पगार, आरी का अनु॰) (कोय सुनतन त केतना तरस आत उनका कि पंद्रह-साढ़े पंद्रह हजार के बन्हल मासिक पगार छोड़ के सहर-सहर, गाँव-गाँव, गली-गली, दुआरी-दुआरी ढनकल चलली हम । जहें साँझ ओहें बिहान ।)    (मपध॰02:12:4:1.7)
71    परिचे (= परचे; परिचय) (देस के नामी-गिरामी आ पहुँचल संगीतकार लोग से इनका परिचे आ संबंध हल ।)    (मपध॰02:12:12:3.18)
72    पिछलगुआ (= पिछलग्गु; किसी का अनुसरण करनेवाला व्यक्ति या पशु; जिसके अपने स्वयं के विचार या निर्णय शक्ति न हो, मातहती; पीछे-पीछे चलनेवाला) (फिर शुरू होएल - कहाँ उठाऊँ, कहाँ बिठाऊँ, का खियाऊँ, का पियाऊँ । सबरी किहाँ जइसे राम के आगमन । कविता के आगे समीक्षा के खुद कविता बने के अनकहल, अनकठल, अजगुत लचारी । आचार्य-श्री के साथे मार्कण्डेय प्रवासी नतमस्तक, कलाधर जी पिछलगुआ, सत्यनारायण जी, रिपुदमन सिंह अउर कुछ नामी कवि के हाँ-में-हाँ ।)    (मपध॰02:12:15:3.8)
73    पिट्ठा (पुसहा ~) (जब भी जाड़ा में आवऽ हथिन, हम्मर माय से ई फरमाइश करे में न चूकऽ हथिन - "कनेमा, तनिक पिट्ठा त बनइहऽ, सौंसे पूस निकल गेल हे - अ पिट्ठा न खयली हे ... अ गुजगुजी खयला ..."  अइसन-अइसन दुर्लभ खाय के चीज जेकर हमनी कहियो नामो न सुनली हल ।; सच्चे फुआ न खाली दाल पीस दे हलथिन बलुक पिट्ठा के सौंसे तामझाम भी अपन सिर पर उठा ले हलथिन ।)    (मपध॰02:12:20:2.32, 33, 3.15)
74    पिलुआना (= पिल्लू पड़ना) (हे वृक्ष श्रेष्ठ ! बरहोग वला ई बात के हम छाती पर पत्थल धर के बरदास कर लेही बकि अब जे तोहर सोहामन-सोहामन, ललहुन-ललहुन, मिठगर-मिठगर अनेक पोकहा पक-पक के पिलुआ रहल हे, धूरी में लोट रहल हे आउ तूँ साख पर पाँखी {नाक पर मक्खी}नञ् बैठे दे रहलऽ हे, ई बात हमर बरदास से बाहर हे ।; हमर कहे के मतलब ई हे कि तोहर पोकहा के चुगेवला चुरगुन भी तोहरे संतति ले काम कर रहल हे । तूँ खाली ई बात से ओकरा अपन आस-पास नञ् फटके देइत हऽ कि ऊ तोहर पोकहा ठोलियावे लगत, भले तोर पोकहा पिलुआ जाय ।)    (मपध॰02:12:5:1.13, 19)
75    पुछनिहार (= पूछने वाला) (जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् ।)    (मपध॰02:12:5:1.21)
76    पुरहर (= पूरा-पूरा) (ई पर रह के हरमेसा ई नया कलाकार, चित्रकार, सिल्पी, नरतक - आउ मंचन करेवला लोग के पुरहर बढ़ावा देलन ।; स्मारिका छपइल हल, साहित्य के पुरहर अंक निकाले के तइयारी होइत हल ।)    (मपध॰02:12:13:1.11, 14:2.21)
77    पूछार (= पुछार; पूछ, सुधि लेने की प्रक्रिया) (मगही के कालिदास, कबीरदास, विद्यापति, सरसती माय के छोगर सपूत हलन पाठक जी । अइसन सपूत के पूछार न होएत तो ई भाषा में लिख के मेटल कवन चाहत ?)    (मपध॰02:12:17:3.8)
78    पेसना (= घुसना) (तूहूँ दुनियाँ के झमठगर आउ बड़हन वटवृक्ष में गीनल जा ! बकि तोरा सबसे हमनीन नियन चिरँय-चिरगुन के कुछ शिकवा-शिकायत हे । जदि तोहर सकेत हिरदा में हमर ई बात पेस सके त हम्मर धन्न भाग !)    (मपध॰02:12:5:1.6)
79    पोदीना (= पुदीना) (जी हाँ, एक से बढ़ के एक हाँके वला मिललन । जिनका बारह बिगहा में पोदीना हल आउ मगही ले ऊ लाखों फूँक देलन आउ नञ् जाने की-की ।)    (मपध॰02:12:6:1.22)
80    फरना-फुलाना (= फलना-फूलना) (हे मगही के वटवृक्ष ! मगह के धरती पर फरइत-फुलाइत तोरा मगह के लोग पचासो साल से ेख रहलन हे । देखनिहार के देखते-देखते तोहर कद बड़हन आउ झमठगर हो गेल ।; हे विशालकाय ! धेयान से देखऽ ! तोर आस-पास भले नञ्, बकि दूर-दराज में कत्ते लोभनगर आउ सोहनगर छोट-बड़ गाछ-बिरिछ फरे-फुलाय लगल हे । उनकर मिठगर फर के कोय सुग्गा लोलिआवे इया कौआ, बेचारे सम भाव से निश्चल आउ निश्छल रूप में खड़ा रहऽ हथ ।)    (मपध॰02:12:5:1.1, 6:1.8)
81    फरीछ (= सूर्योदय के पूर्व का साफ आसमान) (मरीज लोग से छुटकारा पा के रात के दू बजे से भोरहरिया में फरीछ होवे तक ई सितार के अभेयास करऽ हलन । इनकर इरिद-गिरिद रहनिहार लोग के नीन इनकरे सितार के परन, टुकड़ा, झाला आ मुरछना के सुर से टूटऽ हल ।)    (मपध॰02:12:12:3.1)
82    बउगर (राहगीर सब अपन थकान दूर करऽ हे, किसान सब अप्पन बउगर बउगर खेत जोते हे, मजूरन सब मकानन पर पत्थल-ईंटा चढ़ावे हे आउ पानी के जहाज चलावे वाला हँसी-मजाक चुटकुला छोड़ऽ हे ।)    (मपध॰02:12:18:1.34)
83    बरहोग (= बरहोर) (मगही के अँगना में अपन विशाल कद लेले खड़ा हे युगपुरुष ! ई सच हे कि तोहर हरियर-हरियर अनगिनती पात आउ अनेक ललहुन पोकहा से सजल तोहर रूप हमनिन के हिरदा में गौरव भर देहे । बकि ई बात बड़ी दुखावे हे कि तोहर कद के कद्दावर बनावे वला जे सैंकड़ो बरहोग हे, ऊ तोहर सासरंग में कहियो हरिया न सकल ।; हे वृक्ष श्रेष्ठ ! बरहोग वला ई बात के हम छाती पर पत्थल धर के बरदास कर लेही बकि अब जे तोहर सोहामन-सोहामन, ललहुन-ललहुन, मिठगर-मिठगर अनेक पोकहा पक-पक के पिलुआ रहल हे, धूरी में लोट रहल हे आउ तूँ साख पर पाँखी {नाक पर मक्खी}नञ् बैठे दे रहलऽ हे, ई बात हमर बरदास से बाहर हे ।)    (मपध॰02:12:5:1.9, 12)
84    बाउग (= वावग; खरवाह; बोगहा, बौगहा; जोती हुई सूखी जमीन में बीज बिखेर कर की गई धान की बुआई) (जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् । तब, जे मन से, टाँगी ले के अइतो आउ बउसाव भर काँट-छाँट के घर ले जइतो । कोय नामलेवा तो बनइलऽ नञ् जे रोक सके । कटवइया के टाँगी पकड़ सको । जे होतो ऊ भी सोंचतो कि ठीके हे, ठूँठ काट के ले जात त एतना जमीन बाउग करम, कुछ उपजायम ।)    (मपध॰02:12:5:1.23)
85    बुढ़उ (= बूढ़ा) (उनकर चेहरा पर थकान हम देख रहली हल अउ अनुमान लगा रहली हल कि बुढ़उ कविता पढ़तन, लेकिन ई का - ई तो तान छेड़ देलन । भवन में गूँजे लगल अमरित शहद मिलल गीत ।)    (मपध॰02:12:15:3.31)
86    बुनाना (= अ॰क्रि॰ बुना जाना; स॰क्रि॰ बुनवाना) (ई गीतन में मनुस के अनेकन स्थिति के ताना-बाना बुनाल हे ।)    (मपध॰02:12:18:1.21)
87    बुनी (= बून्द) (दुनो के आँख में नेह-प्यार के अजगुत भाव, कोर में डबडबाएल आँसू के एकाध बुनी । हम ई दृश्य के सछात दर्शक हली ।)    (मपध॰02:12:15:2.33)
88    बुरबक (= बुड़बक; मूर्ख) (बुरबक कहीं के । रह गेलें देहाती भुच्चर के भुचरे । एतनहूँ न बुझाइत हउ कि हमरा जौरे रहमें त भुलइमे कइसे ?)    (मपध॰02:12:22:1.18)
89    भाउक (= भावुक) (देवघर में इनकर एगो खास दोकान हल, जहाँ ई बरमहल मिठाई खा हलन । एकरे दुस्परभाव से किसोरे अवस्था में इनकर गला खराब हो गेल आ गाना गावे जुकुर न रह गेल । ई बात से इनका ढेर अफसोस भेल । गावे से निरास आ अलचार इनकर भाउक कलाकार रसे-रसे बाँसुरी दने मुड़लक बाकि ओकर सुर भी इनका बान्हे में सफल न हो सकल ।)    (मपध॰02:12:12:2.22)
90    भीरी (= भिरी; पास, नजदीक) (चल तो रोहण ! तनि आउ भीरी से देखऽ ही । {चेहा के} अरे ! ठीके कहलें हो ! अबके हम चिन्हली । ऊ उहे हे । ई तो तुलसीये हउ । तिलक लगउले, माला पेन्हले, उँचगर आसन पर बइठ के भाषण झार रहलउ हे !)    (मपध॰02:12:24:1.24)
91    भुच्चर (= भुच्चड़) (देहाती ~) (बुरबक कहीं के । रह गेलें देहाती भुच्चर के भुचरे । एतनहूँ न बुझाइत हउ कि हमरा जौरे रहमें त भुलइमे कइसे ?)    (मपध॰02:12:22:1.19)
92    भुलाना-उलाना (शहर के नामे से हमर करेजवा धक-धक करे लगऽ हे । सच्चो कहऽ हिअउ इयार । हमरा बड़ी डर लगऽ हे । कहीं भुला-उला जइबइ त खोजतइ कउन ? हमर मइया खूब रोतइ त ओकरा समझइतइ कउन ?)    (मपध॰02:12:22:1.16)
93    भोरहरिया (मरीज लोग से छुटकारा पा के रात के दू बजे से भोरहरिया में फरीछ होवे तक ई सितार के अभेयास करऽ हलन । इनकर इरिद-गिरिद रहनिहार लोग के नीन इनकरे सितार के परन, टुकड़ा, झाला आ मुरछना के सुर से टूटऽ हल ।)    (मपध॰02:12:12:3.1)
94    मंझली ("लऽ छोटकी, इ रख ल ... तोहर सास हमरा देलको हे, तेल लगावे के बदले । अरे सब तो ... आउ चलाँक बड़की आउ मंझली ... ओखनीए हथिया लेलको हे । अब ई बुढ़िया के पास हइए का हइ ।" ... बड़की फुआ के हथेली पर झिलमिला रहल हल दादी के सतलड़ा हार ।)    (मपध॰02:12:21:2.15)
95    मन (जे ~ से = कोई भी ऐरा गैरा नत्थू खैरा) (जरी आवे वला कल के बारे विचारऽ वृक्षश्रेष्ठ ! तोहर पोकहा धूरी में मिल जइतो, सब पत्ता झर जइतो, खाली सुक्खल ठूँठ भर खड़ा रहवऽ ! कोय पुछनिहार नञ्, बरहोगो नञ् । तब, जे मन से, टाँगी ले के अइतो आउ बउसाव भर काँट-छाँट के घर ले जइतो ।)    (मपध॰02:12:5:1.21)
96    मरखाह (= मरखंड) (ई हमरा ठीक-ठीक मालूम हे कि मरखाह भैंसा आगू से ढूँसा मारे हे आउ पीछे से भी पूँछी । आउ एक केहुनी मारऽ त कोंकड़ के बइठ जइतो ।)    (मपध॰02:12:6:1.25)
97    माँतल (बड़गर बड़गर रस्ता भी गीते के सुरलहरी से पार कैल जाहे । राह में गरमी से माँतल राहगीर भी गीत के छाँह पा जाहे ।)    (मपध॰02:12:19:1.2)
98    मुँहदेखी (लोकगीत ... ई जीवन लेल कोय शास्त्र विसेख के मुँहदेखी नञ् हे अउ अपने आप में परिपूरन हे ।)    (मपध॰02:12:19:1.31)
99    मुरछना (मरीज लोग से छुटकारा पा के रात के दू बजे से भोरहरिया में फरीछ होवे तक ई सितार के अभेयास करऽ हलन । इनकर इरिद-गिरिद रहनिहार लोग के नीन इनकरे सितार के परन, टुकड़ा, झाला आ मुरछना के सुर से टूटऽ हल ।)    (मपध॰02:12:12:3.5)
100    मुहदेखुआ (हरिअर हरिअर आम के बगैचा में आवे पर जैसे कोयल कूक उठऽ हे, ओयसहीं लोकगीत भी मनुस के हिरदा के भावना से फूट पड़ऽ हे । लोकगीत अपने आप में पूरा होवऽ हे । पर दोसर के मुहदेखुआ नञ् होवे ।)    (मपध॰02:12:18:3.6)
101    मूड़ना (= ठगना) (जिअला पर एतना बेदरदी हल मगही समाज उनका ला अउ मरलो पर ओही हाल हे । सोना के लूट अउ कोइला पर छाप । हाय रे अकिलगर समाज । कोइला के सोना के भाव में बेचे खातिर गहँकी मूड़े के चक्कर चलावल जाइत हे ।)    (मपध॰02:12:17:2.2)
102    रंथी (= अरथी) (सिंगारो के पंचाइत के सामने रक्खल सर्त क्लासिकल हे । पुरुष वर्चस्व वाला समाज अप्पन बल देखावऽ हे । गोतिया के भाय पुरुष समाज सबल पाके सिंगारो के घसीट के कोठरी में बंद करके ताला लगा देहे । ओक्कर चाभी अप्पन जनेउ में बाँध के, 'राम नाम सत हे' के नारा देइत रंथी में कंधा लगउले चल देहे ।)    (मपध॰02:12:42:1.28)
103    रसगर (= रसदार) (गीत सुन के अवाक् रह गेली । एतना सुंदर, मधुर, रसगर कि पीते जाऊँ, पीते जाऊँ, मन भरे के नामे न लेइत हे । हर शब्द, छंद पर सुनवइया के मुँह से अनजाने वाह-वाह निकलइत हे । कंठ से जे अवाज के लय, तान निकलइत हे सुनवइया के कान से मन, मन से दिल तक लगातार उतरइत जाइत हे ।)    (मपध॰02:12:16:1.10)
104    लजमंती (= लज्जाशील, लजालु) (आज भी गाय चरावे वाला गोप, छोकड़न के हुलास गान, पनघट पर घड़ा डूबावैत लजमंती बहुरियन के लय पर चलैत अवाज सुनाई पड़े हे । ई गीत शांति देवे वाला हे । बड़गर बड़गर रस्ता भी गीते के सुरलहरी से पार कैल जाहे ।)    (मपध॰02:12:18:3.31)
105    लट्ठ (जाहिल जट्ट खुदा के ~) (तूँ रह गेलें बुधू चपाट के चपाटे ! अरे, न जानऽ हें त सुन ! बी.बी.सी. के मतलब होवऽ हइ बुद्धि-वर्धक चूर्ण । जेकरा देहाती भाषा में खैनी कहल जा हइ ! अनपढ़ कहीं के । तूँ एकदम जाहिल जट्ट आउ खोदा मियाँ के लट्ठे रह गेलें !)    (मपध॰02:12:22:2.5)
106    लयगर (= लयदार) (सजीव निरजीव रूप में हिरदा के अंदर में उफनल भावना सब, जब लयगर सुर में बंधे हे, तो ओकरे लोकगीत कहल जाहे ।)    (मपध॰02:12:18:1.4)
107    लहकाना (मगही के सोना अइसन संपत राख हो जाएत । ई काम पहिले मुसलमान आक्रमणकारी कएले हलन  नालंदा पुस्तकालय में आग लगा के । हमनी करइत ही जात-पात लहका के ।)    (मपध॰02:12:17:2.11)
108    लोभनगर (हे विशालकाय ! धेयान से देखऽ ! तोर आस-पास भले नञ्, बकि दूर-दराज में कत्ते लोभनगर आउ सोहनगर छोट-बड़ गाछ-बिरिछ फरे-फुलाय लगल हे । उनकर मिठगर फर के कोय सुग्गा लोलिआवे इया कौआ, बेचारे सम भाव से निश्चल आउ निश्छल रूप में खड़ा रहऽ हथ ।)    (मपध॰02:12:6:1.7)
109    लोलिआना (= लोल या चोंच मारना) (हे विशालकाय ! धेयान से देखऽ ! तोर आस-पास भले नञ्, बकि दूर-दराज में कत्ते लोभनगर आउ सोहनगर छोट-बड़ गाछ-बिरिछ फरे-फुलाय लगल हे । उनकर मिठगर फर के कोय सुग्गा लोलिआवे इया कौआ, बेचारे सम भाव से निश्चल आउ निश्छल रूप में खड़ा रहऽ हथ ।)    (मपध॰02:12:6:1.8)
110    सँहता (= सस्ता) (रोगी के मन के भाव ताड़ के, रोग के नीमन से पछान के, ओकर सँहता आ सटीक इलाज करे में इनका महारत हासिल हल ।)    (मपध॰02:12:11:3.32)
111    संगत (= संगति) (ऊ घड़ी हमरा अवकादे का हल, बाकि जवान हली अउ मेहनत करे के ताकत अउ नीयत हल । एही से हमरा बड़का-बड़का साहित्यकार के संगत में उठे-बइठे आउ काम करे-सीखे के जुगाड़ बन गेल हल ।)    (मपध॰02:12:14:2.32)
112    सकेत (= सँकरा) (तूहूँ दुनियाँ के झमठगर आउ बड़हन वटवृक्ष में गीनल जा ! बकि तोरा सबसे हमनीन नियन चिरँय-चिरगुन के कुछ शिकवा-शिकायत हे । जदि तोहर सकेत हिरदा में हमर ई बात पेस सके त हम्मर धन्न भाग !)    (मपध॰02:12:5:1.5)
113    सगुनिया (= शुभ गुण या लक्षण वाला; जिसके आने या साथ होने से मंगल हो) (उ साँप-मंडली में हमहूँ हली अउर हमरा अइसन निगुनिया के ई सँपेरा सगुनिया बना के झुमा रहल हल । शब्द मंत्र हे, ब्रह्म हे - एकर साक्षात् रूप-दर्शन करे के भाग ई जड़-लोहा के मिलल हल ।)    (मपध॰02:12:16:1.22)
114    सछात (= सछात्; साक्षात्) (दुनो के आँख में नेह-प्यार के अजगुत भाव, कोर में डबडबाएल आँसू के एकाध बुनी । हम ई दृश्य के सछात दर्शक हली ।)    (मपध॰02:12:15:2.34)
115    सठियाना (= साठ वर्ष का होना; बुढ़ापे के कारण विवेक, बुद्धि आदि का मंद होना) (आचार्य कहलन - पाठक जी ! वत्स जी आपके क्षेत्र के हैं । ... पाठक जी उनकर बात लोक लेलन । ... ई बात तो अबहिंए मालूम भेल कि हमरे सवांग हथ अउ हमर दुरभाग कि अपने सवंगवा के चिन्हइत न ही । ठीके कहल गेल हे कि हिंदू के बुढ़ सठिया जा हथ ।)    (मपध॰02:12:16:3.2)
116    सतइसा (जे फूल टूटऽ हल से बड़कीए फूआ पर चढ़ऽ हल । का छट्ठी-छिल्ला - अ का कोई भतीजा के सतइसा - कभियो कान के झुमका नेग के मिलल हल त कभियो - हाथ के कंगना ।)    (मपध॰02:12:20:1.30)
117    सदस (= सदस्य) (इनकर दादा सितार के उँचगर बजवइया हलन । उनकर इच्छा हल कि परिवार के कम-से-कम एको सदस गाना इया बजाना में नाम कमाय ।)    (मपध॰02:12:11:1.12)
118    सरगनई (इहे ओजह हल कि ई पटना के नाटकवली संस्था 'निर्माण कलामंच' आ ओकर बाल-साखा 'सफरमैना' के आजनम सरगनई कैलन ।)    (मपध॰02:12:13:1.5)
119    सरधा (= श्रद्धा) (हमरा हिरदा में पाठक बाबा के देव रूप, कवि रूप, कंठ रूप, इनसान रूप सरधा के साथ बस गेल हल । उनकर देहांत हो गेल हे, लेकिन आतमा हमरा हिरदा में समाएल हे ।)    (मपध॰02:12:16:3.25)
120    सवांग (दे॰ समांग) (आचार्य कहलन - पाठक जी ! वत्स जी आपके क्षेत्र के हैं । ... पाठक जी उनकर बात लोक लेलन । ... ई बात तो अबहिंए मालूम भेल कि हमरे सवांग हथ अउ हमर दुरभाग कि अपने सवंगवा के चिन्हइत न ही । ठीके कहल गेल हे कि हिंदू के बुढ़ सठिया जा हथ ।)    (मपध॰02:12:16:2.33, 34)
121    साथी-समाजी (बेमारी के इतिहास-भूगोल ई बेमरिये लोग से पूछऽ हलन । ओकर साथी-समाजी के कहनाम पर बिसवास न करऽ हलन ।)    (मपध॰02:12:11:3.27)
122    सासरंग (= संगति) (मगही के अँगना में अपन विशाल कद लेले खड़ा हे युगपुरुष ! ई सच हे कि तोहर हरियर-हरियर अनगिनती पात आउ अनेक ललहुन पोकहा से सजल तोहर रूप हमनिन के हिरदा में गौरव भर देहे । बकि ई बात बड़ी दुखावे हे कि तोहर कद के कद्दावर बनावे वला जे सैंकड़ो बरहोग हे, ऊ तोहर सासरंग में कहियो हरिया न सकल ।)    (मपध॰02:12:5:1.9)
123    सिंकिया (~ पहलवान) (पाठक बाबा गीत-कविता-समीक्षा के जोद्धा हलन, हम हली हिंदी कहानी के अखाड़ा के सिंकिया पहलवान । दुनो के रसता अलगे-अलग । हमर भाग के बात । भाग के बात ई से कहइत ही कि हम कोई करम नहियों कइली, तबहियों हमरा देवता के दरसन भेल, असिरबाद मिलल ।)    (मपध॰02:12:15:1.21)
124    सिरकी-मड़ई ('मगही पत्रिका' ले के हम मगह के छोट-बड़ कवि-कवियाँठ, लेखक-अलेखक सबके दुआरी-दुआरी ढनमना अइली । कार आउ कुत्ता वला हीं भी आउ सिरकी-मड़ई वला हीं भी । लोग अपनइलन भी, सतइलन भी, घुमइलन भी, छकइलन भी आउ भरमइलन भी ।)    (मपध॰02:12:6:1.18)
125    सुनवइया (= सुनने वाला) (गीत सुन के अवाक् रह गेली । एतना सुंदर, मधुर, रसगर कि पीते जाऊँ, पीते जाऊँ, मन भरे के नामे न लेइत हे । हर शब्द, छंद पर सुनवइया के मुँह से अनजाने वाह-वाह निकलइत हे । कंठ से जे अवाज के लय, तान निकलइत हे सुनवइया के कान से मन, मन से दिल तक लगातार उतरइत जाइत हे ।)    (मपध॰02:12:16:1.13)
126    सून (= शून्य) (उनकर अभेयास के ई धागा काम के बेअस्तता के कसमकस में भी कभी न टूटल आ सितारवादन में इनकर दिलचस्पी के पारा कभी सून डिगरी पर न पहुँचल ।)    (मपध॰02:12:12:3.16)
127    सोझा-सोझी (तुलसी दास जी नियन हम उनकर वंदना करऽ ही जे हमर बढ़ते कदम में लंघी मारे के नकाम कोरसिस कइलन आउ कामयाब नञ् होला पर फेर मुँह खिसोड़ के हमर खैरखाह के लाइन में खड़ा हो गेलन । हम अपन अइसन प्रशंसक के अच्छा से पछानऽ ही । ऊ कतनो ठकुरसोहाती कर लेथ बकि सोझासोझी आँख नञ् मिला पयतन कभी ।)    (मपध॰02:12:4:1.18)
128    सोहामन (= सुहावन) (हे वृक्ष श्रेष्ठ ! बरहोग वला ई बात के हम छाती पर पत्थल धर के बरदास कर लेही बकि अब जे तोहर सोहामन-सोहामन, ललहुन-ललहुन, मिठगर-मिठगर अनेक पोकहा पक-पक के पिलुआ रहल हे, धूरी में लोट रहल हे आउ तूँ साख पर पाँखी {नाक पर मक्खी}नञ् बैठे दे रहलऽ हे, ई बात हमर बरदास से बाहर हे ।)    (मपध॰02:12:5:1.13)
129    हजार-बजार (= हजारों की राशि; बहुत बड़ी रकम) (कोय सुनतन त केतना तरस आत उनका कि पंद्रह-साढ़े पंद्रह हजार के बन्हल मासिक पगार छोड़ के सहर-सहर, गाँव-गाँव, गली-गली, दुआरी-दुआरी ढनकल चलली हम । जहें साँझ ओहें बिहान । सैंकड़ो लोग तो अइसन मिललन जिनकर दिमाग में ई बात घर कइले हल कि हम उनका से हजार-बजार के सहजोग लेके दिल्ली भाग जाम ।)    (मपध॰02:12:4:1.9)
130    हथियाना (= हाथ में लेना; कब्जा या दखल करना; प्रपंच से हड़पना) ("लऽ छोटकी, इ रख ल ... तोहर सास हमरा देलको हे, तेल लगावे के बदले । अरे सब तो ... आउ चलाँक बड़की आउ मंझली ... ओखनीए हथिया लेलको हे । अब ई बुढ़िया के पास हइए का हइ ।" ... बड़की फुआ के हथेली पर झिलमिला रहल हल दादी के सतलड़ा हार ।)    (मपध॰02:12:21:2.16)
131    हरहराना (कोयल के मीठ रागिनी हरहरा के बरसइत मेघन के छटा मानव मन के तरंगित करते रहऽ हे ।)    (मपध॰02:12:18:3.27)
132    हरियरी (= हरियाली) (दूर-दूर से ऊ अपन बउसाव भर नमी आउ खनिज लवण सोख-सोख के तोरा सप्लाय करते रहल, बकि कभी तोरा सन हरियरी नञ् चाभ सकल ।)    (मपध॰02:12:5:1.10)
133    हुलकी (~ मारना) (जहिया से तोहरा में ई सो-पचास बरहोग फूट गेलो आउ बड़की इनरा सूख गेलो, कोय हुलकी मारे अइलो हे तोरा दने ?)    (मपध॰02:12:6:1.3)
 

No comments: