अरंबो॰ = "अजब
रंग बोले"
(मगही कहानी संग्रह), कहानीकार – श्री रवीन्द्र कुमार; प्रकाशक - जिज्ञासा प्रकाशन, झेलम अपार्टमेन्ट, राजेन्द्रनगर, पटना: 800 016; प्रथम संस्करण - 2000 ई॰; 103
पृष्ठ । मूल्य – 120/- रुपये ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 754
ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
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विषय-सूची
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पृष्ठ
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0.
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हमरा
ई कहना हे
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5-6
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0.
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हमरो
ई कहना हे
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7-9
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0.
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यथाक्रम
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10-10
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1.
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उज्जर
कौलर
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11-16
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2.
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कोनमा
आम
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17-21
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3.
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व्यवस्था
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22-27
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4.
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अभिभावक
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28-33
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5.
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उपास
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34-39
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6.
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आग
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40-45
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7.
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नो
बज्जी गाड़ी
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46-51
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8.
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खीरी
मोड़
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52-60
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9.
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घर
बड़का गो हो गेल
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61-67
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10.
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कन्धा
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68-72
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11.
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देओतन
के बापसी
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73-80
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12.
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फालतु
अमदी
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81-85
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13.
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सूअर
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86-90
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14.
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पित्तर
के फुचकारी
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91-94
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15.
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मन
के पंछी
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95-98
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16.
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सभ्भे
स्वाहा
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99-103
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ठेठ मगही शब्द ("ग"
से "थ" तक):
194 गट्टा (= हथेली और हाथ का जोड़, कलाई, पहुँचा, मणिबंध; गाँठ; बीज, यथा: कमलगट्टा) (~ पकड़ना) (फिन ऊ आँख मूँद लेलन । डागडर साहेब गट्टा पकड़लन आउ नाड़ी के गति जाँचे लगलन । उनखर मुख पर संतोख के भाव हे ।; ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल ।; पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल ।) (अरंबो॰40.13; 42.6, 7)
195 गते-गते (= धीरे-धीरे) (रामधनी के आउ नञ रहल गेल । गते-गते चोर नीयर ऊ अप्पन माय के खटिया भिरी गेल ।) (अरंबो॰94.3)
196 गप-खिस्सा (हमनी बगइचा में बैठल ही । कोनमा आम तर खटोला पर नाना ओंठगल हथ । गाम के आठ-दस लोग ओहीं पर नाना के घेरले भुइएँ में बइठल हथ । किसिम-किसिम के गप-खिस्सा चल रहल हे ।) (अरंबो॰19.27)
197 गबड़ा (= गड्ढा; खाई) (समाज के विषमता के खाइ कइसे पाटल जाय ? ढेर ऊँचा टिल्हा के थोड़े ढाहे के चाही । गबड़ो तनी भराय के चाही । ... मगर ई काम कइसे होयत ?; गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । हम्मर सौंसे बदन में जोंक लपट गेल । गन्दा पानी के कीड़ा हम्मर बदन नोंचले हे ।) (अरंबो॰58.6; 79.21)
198 गबर-गबर (माय माला जपइते-जपइते बिच्चे में बोलऽ हे - दुलहिन, हीएँ पर खीर लाके देहू । हमरे भिरी खायत । मेहरारू खीर जाम में दे जा हथ । पैंतीस-चालीस बच्छिर के विमल जी माइए भिरी गबर-गबर खीर खा रहलन हे ।) (अरंबो॰70.7)
199 गमना-बुझना (सब गम-बुझ के रामधनी सौदा कइलक आउ घर लौट गेल । बजार से अइते देख के धनुआँ हुलसइते बाप के भिरी गेल ।) (अरंबो॰92.14)
200 गरियाना (= गाली देना) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।; धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । पास-पड़ोस के दु-चार अमदी मजा लेवे ला जामा हो गेलन हल । धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।) (अरंबो॰92.22, 24, 25, 26)
201 गाँहक (= ग्राहक) (ई हम जानऽ ही कि ठिकेदार के अमदी हमरो जान के गाँहक बन जइतन । जे हो, सफेदपोस से उनखर बिसवास उठ गेल हे, ऊ बिसवास हमरो लौटावे के हे । मन करऽ हे, अप्पन सउँसे लिबास, सफेद, उज्जर कौलर फाड़ के बिग दी ।; दारू पी के ओकरा मनहूस कहलूँ । गारी देलूँ ! मारलूँ ! अइसन ढकेल देलूँ कि भित्ती से टकरा के ओक्कर माथा फुट गेल हल । ओही दिनमा से हम्में ओक्कर जान के गाँहक बनल हलूँ । ओही रतबा ऊ हम्मर असरा में मुँह में एक्को दाना खुद्दियो डालवो नञ कइलक हल ।) (अरंबो॰16.6; 102.2)
202 गाछ-बिरिछ (हम्मर गाम में रामजी के कथा होबऽ हल । सीता माय के पापी रावन उठा के जब ले गेल तब रामजी विलाप कर-कर के सीताजी के पता गाछ-बिरिछ से पूछऽ हलन ।) (अरंबो॰19.12)
203 गान्हीं (= गाँधी) (आझ बहुत्ते बात आद पड़ रहल हे । जिनगी में पहिला दफ्फे मोजफ्फरपुर गेलन हल । कँगरेस के अधिवेशन हल । तखनी जुआन हलन । खादी के धोती आउ गंजी पहिरले । - गान्हीं जी के जय ! जमाहिर लाल जी के जय ! नारा लगउते, हाथ में तिरंगा झंडा लेले गेलन हल ।) (अरंबो॰35.3)
204 गाम (= गाँव) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰19.21, 28)
205 गारी (= गाली) (मिन्टू आज इसकूल में एगो बच्चा के अइसन ठेल देलन कि ओक्कर माथा-कपार फुट गेल । इनखा जे अक्षर ज्ञान होयल तो ओक्कर उपयोग इसकूल के दीवार पर गरिये लिखे में कइलन हे ।) (अरंबो॰31.29)
206 गारी-बात (~ सुनना) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.17)
207 गियारी (= गला; गरदन) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल ।; खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ?; घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।) (अरंबो॰36.3, 7; 101.1)
208 गिरानी (= महँगाई) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !; ओकर बाप तो कहिए गुम हो गेलन हल । तब एकरा होसो नञ होत । तब से बिलसवा के बाबे ओकर देख-रेख करऽ हलन । गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही ।) (अरंबो॰20.1; 95.12)
209 गिरिद (= गिर्द; इर्द-गिर्द) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।) (अरंबो॰35.6)
210 गिल्ला (= गीला) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक ।) (अरंबो॰95.7)
211 गीत-नाध (एकबैग रोबा-कन्नी मच गेल । गीत-नाध सब रुक गेल । मौसी हमरा गोद में लेके रोबे लगल ! माय मर गेलौ ।) (अरंबो॰18.28)
212 गुड़-गाड़ (~ करना) (भिनसरवे खटिया त्याग देवे के उनखर पुरान आदत हे । कउनो तमाकू चढ़ा के दे देलको तो ठीक, नञ तो टिकिया ताखा से उतार के अपने सब कइलन । थोड़े देर गुड़-गाड़ कइलन आउ फिन हाथ-मुँह धो के, छड़ी लेले पहाड़ी दन्ने चल देलन ।) (अरंबो॰83.1)
213 गुदाल (= तेज आवाज में बोलने अथवा पुकारने की क्रिया) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.22)
214 गुने (= के कारण) (नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन । नाना के रोब-दाब हल । गाम के बड़गो किसान रहे गुने दरोगा, बी.डी.ओ., सब हाकिम तसरीफ लावऽ हलन ।; - अरे शेरू, तूँ तो दिलेर सिंह के नाती हो । नाम शेरसिंह और आवाज में कड़क नहीं ? - एही गुने तो एकरा शहर से देहात ले अयली हे ।; गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।) (अरंबो॰48.10, 24; 95.13)
215 गुरपिंडा (= गुरुपिंडा) (एकबैग बिलसवा के धियान घरवा के सुगवा पर चल गेल । गुरपिंडा पर जब पढ़े जा हलूँ तभिए पिपरा पर से ओकरा निकासलूँ हल । बाप रे ! गुरू जी एकरा लगी कत्ते मार मारलथिन हल !) (अरंबो॰96.7)
216 गेंदड़ा (= गेंदरा, गेनरा) (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे ।) (अरंबो॰95.16)
217 गेंदौड़ा, गेदौड़ा (कूड़ा-कचरा आउ उकट-पकट के रख दे हल । अब तो घिनामन नियर ढेर बचल हे । उकटल-पुकटल गेंदौड़ा ।; सरीर के सब ऊर्जा उपयोग में लावल जा चुकल हल । सरीर के नाम पर खाली ठठरिए बचल हे । गेदौड़ा नियर उकटल-पुकटल सरीर ।) (अरंबो॰89.4; 90.8)
218 गैरमकरूआ (= गरमजरूआ) (कराहइत पुछलन हल - ई लइका कौन हे, जेकरा मार पड़ रहल हे ? - बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक ।) (अरंबो॰43.28)
219 गोइठा (~ जोरना/ जोड़ना) (हम्मर बेटा आझ परबियो में, एक्को दाना खुदियो, मुँह में नञ डाललक हे । होली जइसन, सोना नीयर परब फिनूँ कहिया आत ? के देखलक हे । अधरतियो में ऊ गोइठा जोर के पकावे चलल ।) (अरंबो॰94.12)
220 गोड़ (= पैर) (नञ जाने गोस्सा हमरा में केन्ने से आके समा गेल हल । जे नाना से आझ तक रूबरू नञ बतिऔली हल, से किताब-कौपी उठाके उनके सामने फेंक देली । जापानी चक-चक बइठकी में गोस्सा से एक सूट मारली । सीसो फूट गेल आउ गोड़ो कट गेल ।; भतपकवा पाँड़े आउ दिक कइले रहऽ हे । कखनियो कहतो - गोड़ दाब, कखनियो कहतो - तेल लगाओ । हम तो ओकर हुकुम के मारे बेदम रहऽ ही ।; अजी बाबा ! तूँ हमरा अपने भिरी बोला लऽ । हम तोहर सब कहना मानबो । अब पढ़े से नञ मटिअइबो । मन लगा के तोर गोड़ो दाबबो ।) (अरंबो॰50.22; 97.12, 22)
221 गोदानना (= जी में लगाना; आज्ञा का पालन करना) (बेटा ? कइसन बेटा ? जे समर्थ बाप के कहना में नञ रहल ऊ असमर्थ बाप के का गोदानत ? का सेवा-टहल करत ?) (अरंबो॰55.4)
222 गोदी (= गोद) (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी । ... हमहूँ तोहरे साथ जइबो । बेला गोदी लेले, दुलारले गुजर नञ ।) (अरंबो॰31.7; 34.8, 10, 11)
223 गोर-नार (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; हम्मर संझला चच्चा एकदमें अंगरेज नियर गोरनार हलन । कसरत करऽ हलन । घोड़ा चढ़ऽ हलन । एकबैग उनखा लकवा मार देलक ।) (अरंबो॰31.6; 78.19-20)
224 गोल-मटोल (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।) (अरंबो॰31.6)
225 गोसबर (= गोस्सा करने वाला) (मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।) (अरंबो॰46.9)
226 गोसाना (= गुस्सा करना) (मने-मने कहियो गोसा जा हली । आझ बाबू जो तमाकू चढ़ा के माँगतन तो खुब्बे देर से देम, चाहे ऊ केत्ते ने गोसाथ !; हम परसताहर । कचौड़ी, पकौड़ी छना रहल हे । धउग-धउग के परसना हम्मर ड्यूटी । बस एक्के बात से खुन्नुस बरऽ हल - केतिनियो जल्दी करऽ मगर बाबू जी के गोसाय के आदत बनल हे ।) (अरंबो॰83.18; 84.7
227 गोस्सा (= गुस्सा) (मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।; अब रामधनी के गोस्सा के कोय ठेकाना नञ रहल । दे थप्पड़ दे थप्पड़ धनुआँ के अन्हुआ देलक । धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल ।) (अरंबो॰46.8; 92.18)
228 गोहूँ (= गोहूम; गोधूम; गेहूँ) (गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।) (अरंबो॰62.17)
229 घर-दुआर (सरजुग सिंह अप्पन नौकर भेज के घर-दुआर साफ करवा देथ । भात, दाल, तरकारी, दही, अँचार, भर थरिया उसाह के उनखा भोजन ला भेजवा देथ ।; छोटा बेटा औफिस चल जा हे । पुतोह घर-दुआर संभालऽ हथ । भोजन बनावे से लेके लइका सँभाले तक उनखर ड्यूटी हे ।; कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰54.3; 81.18; 94.19)
230 घिघियाना (= गिड़गिड़ाना) (तीन रूपइया काहे, हम तो तोरा सवा तीनों गो दे देतियो होत, बाकि अखनी हमरा हीं बेसी पइसे नञ हे । नञ तो एत्ते घिघिअयतियो होत नञ । एहू दू रूपइया हम बुतरू के मन रक्खे ला दे रहलियो हे ।) (अरंबो॰92.7)
231 घिनामन (= घिनौना) (सरकार पिंसिल एतना भर दे देहे जेतना में दुन्नू परानी के गुजर-बसर आसानी से हो जाइत । फिन कधियो कोय बेमार पड़ली, कधियो मेहरारूए के रोग-बेआधि होल तो गाँव में डागडर-वइद के समस्या हे । गाँव में अप्पन सिर सब दिन गिरल रहत । आउ फिन गाँव के आज के घिनामन रूप !; मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।) (अरंबो॰55.7; 101.15)
232 घींचना (= खींचना) (घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰100.1)
233 घुरना (= घूमना-फिरना) (आझ समारोह हे । ठीके में पटना, दिल्ली के लोग अइलन हे । सूट-बूट में हाकिम सब घुर रहलन हे । बड़का मंच बनल हे । आदिवासी सब उत्सव के डरेस पहिरले हथ । ढोल-मांजर बज रहल हे । सादा खादी के डरेस में एगो अमदी एगो जीप से उतर के मंच पर अइलन ।; भोला बाबू, टाटा से गया लौट रहलन हे । राँची के बाद रामगढ़ पहुँचे के हे । ... पता चलल रामगढ़ भिरी पुल टुट गेल हे । गाड़ी घुर के रामगढ़ पहुँचत ।) (अरंबो॰13.2; 86.3)
234 घुरना-टहलना (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ?) (अरंबो॰87.29)
235 चंदला (= चांदिल, गंजा) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।) (अरंबो॰19.22)
236 चउतरफी (= चारों तरफ) (हमनी आने हम आउ हम्मर समर्थक, पान-छो दोस मिल के चार-पाँच सो वोट दे देली । का मजाल कि कउनो हुज्जत करे । सब के पता रहऽ हे कि हम्मर लोग चउतरफी हथियारबंद रहऽ हथ ।; सरजुग सिंह अप्पन नौकर भेज के घर-दुआर साफ करवा देथ । भात, दाल, तरकारी, दही, अँचार, भर थरिया उसाह के उनखा भोजन ला भेजवा देथ । ... कधियो कालीसिंह हीआँ से नस्ता । चउतरफी परेम के बरखा हो रहल हल ।; सोमनाथ जी के आँख में नींद नञ । अभियो रात बाकिए होयत । भुरूकवो नञ उगल हे । चउतरफी सन्नाटा हे ।) (अरंबो॰24.5; 54.5; 58.4)
237 चक-चक (बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; बच्चा कानपुर से आ रहल हे । एअरफोर्स में हे । सुन्दर छो फुट्टा जुआन । चक-चक गोर ।) (अरंबो॰36.26; 63.6)
238 चकटी ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।) (अरंबो॰93.13)
239 चकला (= चौला; चौड़ा; विस्तृत; खेती की जमीन का एकछित्तर बड़ा खंड) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.2)
240 चट्टी (= परस्पर हथेली से हथेली पर आघात करने की मुद्रा या उससे उत्पन्न आवाज; हथेली पर छड़ी आदि की मार जिससे 'चट' या 'सट' शब्द हो) (कोनमे आम के जड़ तरी सब गिरबा देली चोरवा से । बालुओ सब आउ गुलियो । आँख बंद के बंद । देखता बाबू साहेब कइसे ? थोड़े दूर एन्ने-ओन्ने घुमा-फिरा के उनखा छोड़ देल गेल । अब खोजऽ बबुआ ! नञ तो पँच-पँच चट्टी सब लेबो । ... खोजऽ ... आउ फिन खोज के छूअ केकरो । नञ तो चोर बनतो के ?) (अरंबो॰18.15)
241 चन्दन-काठी (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.8)
242 चन्ना (= चन्दा, चाँद, चन्द्रमा) (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।) (अरंबो॰17.6)
243 चर-पाँच (= चार-पाँच) (हम्मर बाबू पहलमान हलन । चर-पाँच बिगहा खेत हल । कोय साल जो गंगा माय के लीला करे के मन होवऽ हल तो हमनी के सौंसे खेत अप्पन पेट में समा ले हलन ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।; लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।) (अरंबो॰62.6; 82.7; 92.10-11)
244 चलता (~ करना) (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ? - तब तो, उनखा चलता करे के कउनो उपाय सोचे पड़त ।; एक्को मिनिट लगी उनखा छोड़े ला दुन्नु छउँड़ा तइयारे नञ होवऽ हल । ओही दुन्नु में से एगो छउँड़ा कातो हमरा चलता करे के उपाह सोंचत ?) (अरंबो॰88.4, 12)
245 चलती (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰19.28)
246 चानी (= चाँदी) (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?) (अरंबो॰91.3)
247 चापना (= दाबना) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल ।) (अरंबो॰98.4)
248 चापुट (= चपटा) (पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल । करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे ।) (अरंबो॰68.4)
249 चाह (= चाय) (ई हम जानऽ ही कि ठिकेदार के अमदी हमरो जान के गाँहक बन जइतन । जे हो, सफेदपोस से उनखर बिसवास उठ गेल हे, ऊ बिसवास हमरो लौटावे के हे । मन करऽ हे, अप्पन सउँसे लिबास, सफेद, उज्जर कौलर फाड़ के बिग दी । नीरू, हम्मर मेहरारू हमरा ताक रहलन हल । - ई का, चाह के पियाली में चाह ओयसहीं पड़ल हे, आउ अपने ... ?; प्रोफेसर रामदीन एगो छोटगर चाह के दुकान पर चाह पी रहलन हल । चाह पीएवालन के ई सब बात सुन रहलन हल।; रामदीन जी चाह के पइसा चुकउलन आऊ अप्पन गन्तव्य चल देलन ।; हाकिम चाह मंगइलन हल । - जी ! हम चाह नञ पीअऽ ही ।; गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।; डागडर साहेब एकदम्मे चुप्पी नाधले हलन । - बाबू, तोरा हम एगो टरे चाह के कप-कस्तरी रक्खे ला बना देबो । खाली तूँ हम्मर पिअरिया के जान बचा दऽ ।) (अरंबो॰16.11; 28.5, 9; 37.14, 15, 22; 102.20)
250 चाही (= चाहिए) (समाज के विषमता के खाइ कइसे पाटल जाय ? ढेर ऊँचा टिल्हा के थोड़े ढाहे के चाही । गबड़ो तनी भराय के चाही । ... मगर ई काम कइसे होयत ?; सच्चो ऊ बदहोस हो गेलन । हाथ-पैर ओयसीं अईंठल । पहलमान भाय डागडर हीं दउड़ल । का करे के चाही आउ का नञ, कुछ समझे में नञ आवे ।; बिसुन, हम्मर बाद सब भाय में सबसे बड़ा तो हँऽ । तोरा अइसन बोले के नञ चाही ।) (अरंबो॰58.6; 61.5; 64.5)
251 चिकरना (= चिल्लाना) (अब रामधनी के गोस्सा के कोय ठेकाना नञ रहल । दे थप्पड़ दे थप्पड़ धनुआँ के अन्हुआ देलक । धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल ।) (अरंबो॰92.20)
252 चिक्कन (= चिकना) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰20.16)
253 चिनगी (= चिनगारी) (गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल । एकबैग घोड़िया बमकल आउ एगो झुक्कल पेड़ के डाली से टकरा गेल । रमबिलसवा के आँख से चिनगी नियर उड़ल ।) (अरंबो॰102.17)
254 चिरइँ (दिन भर खेत में चिरइँ-चुरगुन चेंचें, चेंचें करइत रहऽ हल । हमनी पाँचो भाय चिरइँ पकड़े ला धउगा-धउगी करइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰62.20)
255 चिरइँ-चुरगुन (दिन भर खेत में चिरइँ-चुरगुन चेंचें, चेंचें करइत रहऽ हल । हमनी पाँचो भाय चिरइँ पकड़े ला धउगा-धउगी करइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰62.19)
256 चिरइँ-चुरगुनी (भोर होवे के लच्छन परगट होवे लगल । चिरइँ-चुरगुनी के अनोर ब्यापे लगल ।) (अरंबो॰71.27)
257 चीनी (= शक्कर) (नानी झुट्ठे-झुट्ठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला दे हल । नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही ।) (अरंबो॰17.16)
258 चीन्हना (= चिन्हना; पहचानना) (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे ।; एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।) (अरंबो॰31.8; 43.24)
259 चुट्टी (~ काटना) (हम माय भिरी गेली । आँख अंगुरी से खोले लगली । खुले - बंद हो जाय ! खुले, बंद हो जाय !! ... चुट्टी काटली । माय आँख खोलबे नञ करे । घबड़ा के पुकारे लगली - माय ! ... माय !! ... माय बोले तब ने । नाना भोकार पाड़ के रोबे लगलन । हमरा भर अकबार उठा के दलान दन्ने लेले चल देलन ।) (अरंबो॰19.8)
260 चुनना-बीछना (ई सेंगरन में जादेतर कहानी ओंहीं से उठावल गेल हे जहाँ सड़ाँध हे । नजरिया साफ रहला से कहानी ला विषय के चुने-बीछे में रवीन्द्र भाय के बड़ा कामयाबी हासिल भेल हे ।) (अरंबो॰6.3)
261 चुप्पे-चाप (= चुपचाप ही) (रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।) (अरंबो॰103.10)
262 चौखुट्टा (= चौखूटा) (तखनी असमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ, अंगने भर के । भइया अंगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।; असमान चौखुट्टा से टेढ़-मेढ़ होवे लगल । असमान बहे लगल दूध नियर ।) (अरंबो॰17.2, 10)
263 छउँड़ा (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !; तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।) (अरंबो॰18.11; 42.13; 94.1)
264 छन (ललटेन से सोमनाथ के छनका लगल - छन ! बाप रे !; गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन । छनका फिन लगल - छन !! बाप रे ! ... कॉलेज के पढ़ाय पूरा करइत-करइत भइयो गुजर गेलन ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।) (अरंबो॰55.12, 17, 19)
265 छनका (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?"; गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन । छनका फिन लगल - छन !! बाप रे ! ... कॉलेज के पढ़ाय पूरा करइत-करइत भइयो गुजर गेलन ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।) (अरंबो॰53.3; 55.17, 19)
266 छिनाना (= छिन जाना) (एक दिनमा माय के मन बहुत्ते खराब हो गेल । नानी, मौसी आउ केत्ते ने मेहरारू माय के घेरले हलन । हम जो जाइयो चाही तो जाइए न मिले । एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में । आउ तब बात समझ में आल । मौसी हँसके कहलक - ले, तोर दुलार छिना जइतउ !) (अरंबो॰18.27)
267 छेकुनी (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल ।) (अरंबो॰43.6)
268 छोटकनिया (~ नेता) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰35.15)
269 छोटका (= छोटा वाला) (बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल । बंशीधर जी के छोटका बेटा संझउकिए से गायब हल । घर नञ लउटल हल । लोग चिंतित हलन । ई हाल में जादे बातचीत पर जोर नञ देके राते के लउटना बाजिब समझलन हल ।) (अरंबो॰42.19)
270 छोटगर (= छोटा) (प्रोफेसर रामदीन एगो छोटगर चाह के दुकान पर चाह पी रहलन हल । चाह पीएवालन के ई सब बात सुन रहलन हल।; हमनी बड़का घर छोड़ के किराया के छोटगर मकान में आ गेली । पूजा-पाठ बन्द । जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।) (अरंबो॰28.5; 78.27)
271 छो-फुट्टा (~ जुआन) (बच्चा कानपुर से आ रहल हे । एअरफोर्स में हे । सुन्दर छो फुट्टा जुआन । चक-चक गोर ।) (अरंबो॰63.6)
272 जंजलतरी (हमरा तो एक दिन अचरज भेल जब डॉक्टर श्री रामनरेश मिश्र हंस हमरा कहलन कि हितोपदेश, पंचतन्त्र आउ कइए गो कहानी सब मगह क्षेत्र के जंजलतरी में लिखल गेल हे । डोभी से हजारीबाग जाय के रस्ता में चौपारण मिलऽ हे । चौपारण के हर देहात में ढेर मनी पुरान कहानी सुने-गुने में आवऽ हे ।) (अरंबो॰5.17)
273 जइथीं (= जइतहीं; जाते ही) (रमबिलसवा अप्पन घरावली दन्ने मूहाँ कर के बोलल - अगे होय ! सुनऽ हीं, डागडर हीरो बाबू बड भलमानस हथिन । जइथीं के साथ ऊ तो पूछे लगतन - क्या है ? कैसे आए हो ?) (अरंबो॰99.5)
274 जइसी (= जइसीं, जइसहीं; जैसे ही) (मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।) (अरंबो॰101.14)
275 जइसीं (= जइसहीं; जैसे ही) (मिन्टू जइसीं आयल हल, ओइसहीं लउट गेल । दण्डो-नमस्कार नञ कइलक हल ।) (अरंबो॰29.23)
276 जउरी (= रज्जु; रस्सी) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।) (अरंबो॰103.2)
277 जउरे (= जौरे; साथ-साथ; साथ में) (- चल शेरू, ढेर पढ़लऽ । किताब-कोपी मोड़ऽ । अब बिहान । नाना-नाती के जउरे भोजन, आउ फिर भर जाम दूध सधाबे के ड्यूटी । कुँख के भर जाम दूध पीयऽ हली । नञ जे पीलूँ, तो नाना के घुड़की ।; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ ।) (अरंबो॰49.27; 87.14)
278 जखनी (= जिस क्षण; जब) (मुचकुन जी सोंच रहलन हे - ई किरोध केकरा पर ? ... किरोध तो मन के विकार हे । ... किरोध के आग जखनी तक गंगा जल नीयर शीतल नञ हो जायत, अन्न-जल गरहन नञ करम ।; जखनी उनखर मेहरारू के लकवा के लच्छन परगट होल, बेटा के बुलावे खातिर कलकत्ता चिट्ठी लिखलन हल ।; तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली ।; जखनी भोला बाबू लइका हलन, तखनिए से एगो गारी पढ़ऽ हलन । बेलाँ ओक्कर माने समझले । बड़का, का छोटा, केकरो से जब मन रंज होवऽ हलन, तब कह दे हलन - सूअर !; धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।) (अरंबो॰39.13; 69.10; 83.12; 88.23; 92.26)
279 जनावर (= जानवर) (पहिले हमनी आजाद हली । अब तो गुलाम ही, गुलाम । आजाद मुलुक में गुलाम ...। मगर अब गुलामी बरदास नञ होवऽ हे । सेही से जे तीर-कमान जंगली जनावर पर चलावऽ हली, अब दू टाँग वाला जनावरो पर चलावे लगली । ... जोर-जुलुम के एगो हद होवऽ हे ।; हम तुरते उनखर पैर पकड़ के बोलम - सरकार, आझ से जे पीउँ तो गो हतिया ! सच्चे पीए से अमदी जनावर हो जाहे । डागडर बाबू, तों हमरा जुत्ता से मारऽ मगर बुढ़िया के कयसूँ अच्छा कर दऽ !) (अरंबो॰15.21; 100.20)
280 जन्ने-तेन्ने (= जन्ने-तन्ने; इधर-उधर) (उनखर सब चौकसी बेअरथ साबित हो रहल हल । लइका घरो से पइसा-कउड़ी चोरा के जन्ने-तेन्ने लापता होवे लगल हल । सोमनाथ जी के शक्ति लइका ढूँढ़े में, लइका के समझावे में, अच्छा रस्ता पर लावे में खरच होवे लगल ।) (अरंबो॰53.21)
281 जमाहिर (= जवाहर) (आझ बहुत्ते बात आद पड़ रहल हे । जिनगी में पहिला दफ्फे मोजफ्फरपुर गेलन हल । कँगरेस के अधिवेशन हल । तखनी जुआन हलन । खादी के धोती आउ गंजी पहिरले । - गान्हीं जी के जय ! जमाहिर लाल जी के जय ! नारा लगउते, हाथ में तिरंगा झंडा लेले गेलन हल ।) (अरंबो॰35.3)
282 जरना (= बरना; जलना) (बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; अगरबत्ती जर रहल हे ।) (अरंबो॰36.27; 70.4)
283 जराना (= जारना, बारना, नेसना; जलाना) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन ।) (अरंबो॰69.27)
284 जरिक्को (= जिरिक्को; जरा भी; तनिक भी) (एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल । फिन हम्मर छोटा बाबू अइलन । मम्मा के आँख में ऊ जरिक्को नञ सोहा हलन ।) (अरंबो॰78.14)
285 जलम-भूमी (= जन्मभूमि) (अप्पन जिनगी के आखरी भाग अमदी के अप्पन जलम-भूमी में बिताबे के चाही । ... तों अइमा तो हमरो बड सहारा मिलत ।) (अरंबो॰66.27)
286 जात (= जाति; वर्ग) (रामधनी के मिजाज गरम हो गेल - अरे ससुर, कहलिअउ तो, ला देबउ । एत्ते जिद्दी काहे हो जाहँऽ ? / बुतरू के जात, झिड़की सुन के चुप हो गेल ।; लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।) (अरंबो॰91.9; 92.11)
287 जाम (= काँसे का कटोरा) (- चल शेरू, ढेर पढ़लऽ । किताब-कोपी मोड़ऽ । अब बिहान । नाना-नाती के जउरे भोजन, आउ फिर भर जाम दूध सधाबे के ड्यूटी । कुँख के भर जाम दूध पीयऽ हली । नञ जे पीलूँ, तो नाना के घुड़की ।; माय माला जपइते-जपइते बिच्चे में बोलऽ हे - दुलहिन, हीएँ पर खीर लाके देहू । हमरे भिरी खायत । मेहरारू खीर जाम में दे जा हथ । पैंतीस-चालीस बच्छिर के विमल जी माइए भिरी गबर-गबर खीर खा रहलन हे ।) (अरंबो॰49.27, 28; 70.6)
288 जिनगी (= जिन्दगी) (गाड़ी से महाविद्यालय, महाविद्यालय से कोचिंग इन्स्टीच्यूट, फेन घर । एही तो उनखर जिनगी हल ।) (अरंबो॰30.2)
289 जिरिक्को (= जरा भी) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।; एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।) (अरंबो॰96.18; 103.1)
290 जिरी (= जरी,तनी; थोड़ा) (दरोगा जी, जिरी शेरसिंह से अंगरेजी पूछ के देखहू । आझकल कुछ पढ़ऽ-लिखऽ हे का नञ ?; दीयवा मिंझाइल जा रहल हल । से बिलसवा ओकर बत्ती उसका देलक । दीया में तेल तो भरले हल, खाली बतिए जिरी जर गेल हल ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ !) (अरंबो॰48.13; 96.14; 100.9)
291 जिरी-मनी (फिनूँ रमबिलसवा के धिआन पिअरिया दन्ने गेल । - अगे होय ! दरदिया जिरी-मनी कमलउ कि नञ ?) (अरंबो॰101.8-9)
292 जुआन (= जवान) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे - एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।; पारस बाबू राजधानिएँ में डेरा पर आके मिललन हल । ऊ उदास हलन । बतउलन हल - मिन्टू अब जुआन हो गेल हे । ओक्कर सोखी आउ बदमासी अब अकास छूए लगल हे । अब दिन-रात ऊ पीले रहऽ हे । लाज-लेहाज सब खतम ।) (अरंबो॰20.4; 32.6)
293 जुआनी (= जवानी) (ओकरा का बुझायत, लुटावे के भी एगो अप्पन आनन्द होवऽ हे । जुआनी सुराज के नीसा में बीत गेल ।) (अरंबो॰39.3)
294 जुकती (= युक्ति) (अभी सब कुछ खतम नञ होल हे । मिन्टू के कन्धा पर खेती-बारी के भार लादऽ । कुछ जिम्मेदारी के भार सौंपऽ । ओक्कर बिआहो कर दऽ । आइ.ए. तक पढ़ल हे । कउनो जुकती से एगो नौकरी ओकरा ला जुटावऽ !) (अरंबो॰32.12)
295 जुत्ता (= जूता) (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।; हम तुरते उनखर पैर पकड़ के बोलम - सरकार, आझ से जे पीउँ तो गो हतिया ! सच्चे पीए से अमदी जनावर हो जाहे । डागडर बाबू, तों हमरा जुत्ता से मारऽ मगर बुढ़िया के कयसूँ अच्छा कर दऽ !) (अरंबो॰83.14; 100.20)
296 जुमना (= प्रबन्ध अथवा जुगाड़ हो सकना) (गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।) (अरंबो॰95.13)
297 जुवती (= युवती) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।) (अरंबो॰11.8)
298 जेत्ते (= जितना) (~ ... तेत्ते) (का बस, का आउटो, सब जगह मिन्टुए के मारल जाय के चरचा हल । ... अच्छा होल, ऊ मारल गेल । केकरो बहू-बेटी के इज्जत ई सहर में सुरक्षित नञ हल । ... ओक्कर गिरोह रंगदारी टैक्स बसूलऽ हल । ... केकरो गाड़ी, तो केकरो हीरो होंडा छिना गेल । ... बैक डकैती के ऊ सरगना हल । ... जेत्ते मुँह तेत्ते बात ।) (अरंबो॰28.14)
299 जेन्ने-जेन्ने (= जन्ने-जन्ने; जिधर-जिधर) (माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो । जेन्ने-जेन्ने मइया, ओन्ने-ओन्ने बछवा ! बाबा हीं से नानी हीं अइली ।) (अरंबो॰18.22)
300 जेभी (= जेब) (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।) (अरंबो॰37.19)
301 जेहल (= जेल) (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ?) (अरंबो॰88.1)
302 जेही (= जेहे; सेहे; ओही, ओहे; वही) (आञ रे ! सुनलिअउ तू पियाज खाहीं ? किसोरिया कहऽ हलउ कि तूँ अंडो खाय लगलहीं ? - नञ मइया, ई बात नञ हे । पटनमा में हम कस के जे बिमार पड़लियइ हल ने, तब डागडर अंडा, मास खाय ला कहलथिन हल । बोललथिन हल कि ई सब खाय से दवाय जल्दी फैदा करतो । मास तो नञ खयली, मगर ...। - ओ ! डागडर कहलको हल । जेही कहिअइ, अइसन कइसे करत विमला ?) (अरंबो॰70.14)
303 जोगाना (= सँभाल कर रखना) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक । फिन अप्पन टीन के बक्सा से एगो सरी के कलम निकासलक । जब ऊ दोसर दर्जा में पढ़ऽ हल, तभिए से ई कलम ऊ जोगइले हल ।) (अरंबो॰95.9)
304 जोड़ना-जाड़ना (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।) (अरंबो॰66.2)
305 जोम (= धुन, आवेश, जोश, उत्साह, उबाल, उफान; अभिमान) (~ सवार होना) (ओही दिनमा से, ठीक दिवालिए के दिनमा से ओकर भाग के दीया टिमटिमाय लगल हल । दलिदरा घर में घुसल, आउ हमरा पर पीए के आउ लड़े के जोम सवार भेल ।) (अरंबो॰102.5)
306 जोरगर (= जोरदार) (उनखर दोसर जोर पढ़ाय पर हल । ऊ कहऽ हलन हम्मर सरीर में तो जोर हे मगर दिमग में नञ । कुछ पढ़-लिख नञ सकली । तोहनी सब दिमागो से जोरगर बन ।) (अरंबो॰62.28)
307 जोर-जुलुम (पहिले हमनी आजाद हली । अब तो गुलाम ही, गुलाम । आजाद मुलुक में गुलाम ...। मगर अब गुलामी बरदास नञ होवऽ हे । सेही से जे तीर-कमान जंगली जनावर पर चलावऽ हली, अब दू टाँग वाला जनावरो पर चलावे लगली । ... जोर-जुलुम के एगो हद होवऽ हे ।) (अरंबो॰15.21- 22)
308 जोरे (= जौरे; साथ) (हम दादा दन्ने हाथ बढ़ावऽ ही । अब ऊ हमरा जोरे चले लगलन ।; सोमनाथ जी सोंचऽ हथ - अब तो बुढ़ापो आ गेल । नौकरियो से अवकाश प्राप्त कर लेली । अब गाम जाके बसी या कउनो बेटी-दमाद जोरे रह के जिनगी के शेष भाग काट दी ?; महन्थ जी हम्मर बाबू जी के परम मित्र । सादी-बियाह नञ कइलन हल । सेकरे से तो का, महन्थ जी कहला हलन । ओकील हलन । बाबुए जी जोरे रोज कचहरी जा हलन ।) (अरंबो॰14.16; 54.28; 82.13)
309 झक-झक (सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी । ... हमहूँ तोहरे साथ जइबो । बेला गोदी लेले, दुलारले गुजर नञ । झक-झक साफ कपड़ा के मलिन होवे के पहले भय रहऽ हल ।) (अरंबो॰34.11)
310 झमठगर (बाबू जी के रोपल पौधा सब अब झमठगर गाछ बन चुकल हे । मिटइत परिवार एगो बड़का जंगल में बदल गेल हे । अमदी के जंगल ।) (अरंबो॰79.3)
311 झरक (~ लगना) (अनखा के धूप नानिए के लगऽ हे । सोचे के बात हे । बगइचा में कहीं धूप आउ झरक लगऽ हे !) (अरंबो॰17.21)
312 झरकना (= जलना; झुलसना) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?") (अरंबो॰53.4)
313 झर-झर (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.22)
314 झाँपना (= झापना; ढँकना) (पिअरिया !! अगे पिअरिया !! ... ऊँह, मत बोललँऽ । देख, थोड़हीं दूर तो आउ रहलो हे । जिरी देर आउ बरदास कर । नक्का झाँपले रहिहँऽ ! नक्का से खुनमा अभियो तालुक बहिए रहलो हे ?) (अरंबो॰99.18)
315 झाड़ना-झूड़ना (एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली । फुलपइंट छोड़ के, ई धोती-कुरता के बाना ? ... अपने के तो जाने चल जाइत होत । रामनाथ जी के झाड़झूड़ के उठावल गेल हल ।) (अरंबो॰43.26)
316 झापना (= ढँकना) (रमबिलसवा एक हाँथ से घोड़िया के लगाम धइले हल । दोसर हाथ से ऊ अप्पन घरावली के अँखिया आउ मूहाँ ओकरे अँचरवा से झाप देलक ।) (अरंबो॰99.16)
317 झुकना (= ऊँघना) (साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल । कभी इतिहास, कभी भूगोल, कभी अंगरेजी जोर-जोर से बोल के पढ़ना जरूरी हल । तनिक्को से जे रुकली कि नाना के टेर सुनाय पड़ऽ हल । - शेरसिंह, बोली नञ सुन रहलिअउ हे । झुकऽ हीं का रे ?) (अरंबो॰49.22)
318 झुक्कल (= झुका हुआ) (रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल । एकबैग घोड़िया बमकल आउ एगो झुक्कल पेड़ के डाली से टकरा गेल ।) (अरंबो॰102.16)
319 झुट्ठे-झुट्ठे (नानी झुट्ठे-झुट्ठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला दे हल । नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही ।) (अरंबो॰17.16)
320 झुट्ठे-मुट्ठे (एतनिएँ में ठप-ठप, ठप-ठप केबाड़ी पर अँगुरी बन उट्ठल । बिलसवा खड़कंत हो गेल । दोआत, कलम, कागज सब अप्पन-अप्पन जगह पर चल गेल । झुट्ठे-मुट्ठे उँह-आँह करइत बिलसवा केबाड़ी खोललक ।) (अरंबो॰97.27)
321 झुट्ठो (= व्यर्थ में) (- बाबू जी तो झुट्ठो झाँव-झाँव करइत रहऽ हथ । - पुतोह के ई बात बाबू जी के कानो में पड़ल होत । बकझक करना कम कर देलन हे । लगऽ हे, जइसे छोड़िए देलन हे ।) (अरंबो॰82.1)
322 झौंसाना (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।) (अरंबो॰37.22)
323 टटाना (= अ॰क्रि॰ मांसपेशियों में दर्द होना; निराहार अथवा कम खाकर रहना; स॰क्रि॰ मांसपेशियों में दर्द देना; निराहार अथवा कम खिलाकर रखना) (भुखले ~) (ओत्ते-ओत्ते रात तो चऊँके-बरतन में बीत जा हे । ओकरो पर पाँड़े के फरमैस । कभी ई कर, तो कभी ऊ कर ! मिजाज तो कुँढ़ जा हे । जो पाँड़े के काम नञ कइलियो तो रातो भर कधियो भुखले टटा देलको ।) (अरंबो॰97.16)
324 टपका-टोइया (एसों आम आम कम मंजरायल । कोनमा आम में एक्को मंजर देखाइयो नञ पड़े । अंधड़-बतास सब झेल के मंजर, अमौरी बनल आउ फिन अमौरी, आम । टपका-टोइया आम कउनो-कउनो गाछ में देखाइयो पड़े लगल । मगर कोनमा आम में एक्को नञ ।) (अरंबो॰20.11)
325 टर-ट्यूशन (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।; विज्ञान के ग्रेजुएट हलन । टर-ट्यूशन में भिड़ गेलन । मेहनती अमदी । अच्छे कमाय-कजाय लगलन हल ।) (अरंबो॰69.7-8; 86.15)
326 टरे (= ट्रे; tray) (डागडर साहेब एकदम्मे चुप्पी नाधले हलन । - बाबू, तोरा हम एगो टरे चाह के कप-कस्तरी रक्खे ला बना देबो । खाली तूँ हम्मर पिअरिया के जान बचा दऽ । - चुपचाप अइसहीं पड़े रहो । - हमरा का भेल जे पड़ल रहूँ ? - तुम्हारा हाथ-पैर टूट गया है ।) (अरंबो॰102.20)
327 टरेनिंग (= टरेनी; ट्रेनिंग) (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।) (अरंबो॰69.8)
328 टानना (= खींचना) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.3)
329 टिकस (= टिकट) (मटर में बइठल, भोला बाबू के आद पड़ल - एक बेर पटना से पुरैनियाँ जा रहलन हल । पटना से बरौनिएँ तक के टिकस लेलन हल । बरौनी में गाड़ी बदल के छोटकी लैन के गाड़ी पर बैठलन ।; जइसीं टिकस कटावे वास्ते उतरे लगलन, दुन्नु छउँड़ा गोड़े छान लेलक हल । जाइए नञ दे हल । चिचियाए लगऽ हल । गाड़ियो खुल गेल आउ टिकसो नञ कटा सकलन हल ।) (अरंबो॰88.6, 9, 10)
330 टिपटिपवा (= पिस्तौल; रिवॉल्वर) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?) (अरंबो॰42.9)
331 टिल्हा (= टीला; ऊँची जमीन) (गाँव के अप्पन एगो राजनीति होवऽ हे । टिल्हा जो ढह गेल तो तुलना में दोसरो भाग ऊँच्चा देखाय पड़े लगल । बस ! ... सैद लोग के एहू आशा हो गेल हल कि सोमनाथ अप्पन खेत-पथार बेचतन ।; समाज के विषमता के खाइ कइसे पाटल जाय ? ढेर ऊँचा टिल्हा के थोड़े ढाहे के चाही । गबड़ो तनी भराय के चाही । ... मगर ई काम कइसे होयत ?) (अरंबो॰54.6; 58.5)
332 टिसटिसी (= टीस) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।) (अरंबो॰69.26)
333 टीपन (= जन्मकुंडली) (बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?) (अरंबो॰79.14)
334 टीसन (= स्टेशन) (साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।) (अरंबो॰42.17)
335 टुटलाही (= टूटी हुई) (अब तो सोमनाथ जी अकेलुआ रह गेलन हल । सोमनाथ जी के होमियोपैथी के बेस अध्ययन हे । ऊ एगो टुटलाही अलमारी के ठीक करउलन । शहर से दवाय-बीरो मँगउलन, अउ इलाज शुरू करलन ।) (अरंबो॰56.13)
336 टुट्टल (= टूटा) (नानी मरल, नाता टुट्टल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?) (अरंबो॰19.19, 21)
337 टूअर-टापर (~ बच्चा) (रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे । हाय रे हाय ! बचवा के मारिए देलक । अरे ! टूअर-टापर बचवा पर हत्था उठयते गलियो नञ गेलउ रे ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।) (अरंबो॰92.23; 94.2)
338 टेढ़-मेढ़ (= टेढ़ा-मेढ़ा) (टेढ़-मेढ़ पक्का रास्ता से जीप जा रहल हल । चारों तरफ जंगले-जंगल । अँधार होल जा रहल हल ।; असमान चौखुट्टा से टेढ़-मेढ़ होवे लगल । असमान बहे लगल, दूध नियर !) (अरंबो॰11.17; 17.10)
339 टेरना (= ऊँचे स्वर में गाना; गुहराना, पुकारना; अनुनय-विनय करना; अटकल या अनुमान लगाना) (ढेना के पुलिस वाला पकड़ के ले गेल हल । कुच्छो बेचारा जानवो नञ करऽ हल । कोय कसूर रहे तब न । ओक्कर बस एक्के गो कसूर हल । ऊ एगो जुआन मेहरारू के मरद हल । बस । ... ढेना केकरो टेरवो नञ करऽ हल । ... हमनी अमदी नञ ही ? हमनी के इज्जत आउ लाज नञ हे ?) (अरंबो॰15.27)
340 टोइया (~ मारना = टो-टा कर चेक करना) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?) (अरंबो॰42.8)
341 टोना (हाकिम, हमरा अच्छा पढ़े-लिखे नञ आवऽ हे । अंगरेजी तो एकदम्मे नञ । हिन्दी हरूफ टो-टो के पढ़ ले ही । कयसूँ अप्पन सही बना सकऽ ही । बस !) (अरंबो॰37.6)
342 ठकमकाना (बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।) (अरंबो॰36.23)
343 ठामा (= जगह, स्थान) (भइया के दरबार लगल हे । हमनी पाँचो भाय एके ठामा नञ जाने कत्ते दिन पर जमा होली हे । बूढ़-पुरान हमनी पाँचो भाय के पांडव कहऽ हथ ।; हमनी पाँचो भाय पाँच जगह रहे लगली । सबके हँड़िया अलग-अलग । कधियो बिआह-सादी में एक्के ठामा जमा होली ।) (अरंबो॰64.11; 67.16)
344 ठिसुआना (= लजाना; संकोच करना) (धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । . .. आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल । रामधनी खिसियायल, ठिसुआयल ओज्जा से हट गेल ।) (अरंबो॰92.27)
345 ठुमुर-ठुमुर (= बहुत धीरे-धीरे) (घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰100.1)
346 डरेस (= ड्रेस) (आझ समारोह हे । ठीके में पटना, दिल्ली के लोग अइलन हे । सूट-बूट में हाकिम सब घुर रहलन हे । बड़का मंच बनल हे । आदिवासी सब उत्सव के डरेस पहिरले हथ । ढोल-मांजर बज रहल हे । सादा खादी के डरेस में एगो अमदी एगो जीप से उतर के मंच पर अइलन ।) (अरंबो॰13.2, 3)
347 डाँग (= मोटी पुष्ट लाठी, लौर, लउर) (एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।) (अरंबो॰43.16)
348 डाँटना-दबारना (- अप्पन भविष्य ला तो कुच्छो रखऽ । - अप्पन उपदेश अपने पास रखऽ । उनखा डाँट-दबार के हम चुप रखऽ हली ।) (अरंबो॰66.15)
349 डाँड़-टिल्हा (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰94.19)
350 डाँसा (= डाँस; मच्छड़; मच्छर) (बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल । एगो मुसकी विमल जी के चेहरा पर उभरल । एगो डाँसा टस से माथा पर डँसलक । एहू हमरा सुत्ते नञ देत ।) (अरंबो॰70.1)
351 डाकपीन (= डाकिया) (नींद आवे के नाम नञ ले । आउ नींद जे आयल तो रातों भर बउड़यते रहल । ... डाकपीन ओक्कर चिट्ठी लेले ओक्कर घर गेल हे । बाबा के ऊ कस-कस के पुकारले हे । बाबा घर पर हइए नञ हथ । कहाँ चल जा हथ ?; रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।) (अरंबो॰98.22, 25)
352 डागडर (= डॉक्टर) (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल । घर से नाता तोड़ लेलक । ओक्कर पढ़ाय-लिखाय के सिलसिलो छिन्न-भिन्न हो गेल हल । लइका के इंजीयर, डागडर बनावे के सपना चूर-चूर हो गेल ।; विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।) (अरंबो॰53.26; 69.14)
353 डागडरी (= डॉक्टर का काम) (सोमनाथ जी के समय डागडरी आउ मस्टरी में कट रहल हे ।) (अरंबो॰59.16)
354 डाढ़ी-मोछ (= दाढ़ी-मूँछ) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।) (अरंबो॰19.22)
355 डाल-डहुँगी (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; वंश-वृक्ष बड़का गो हो गेल । ओक्कर बड़का डाल-डहुँगी फइलल हे । अपने भार से चरमरा के ई टूटे चाहऽ हे ।) (अरंबो॰18.3; 67.20)
356 डुब्बल (= डूबा हुआ) (हीयाँ के लोग निरक्षर हथ । अंधकार में डुब्बल हथ । अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में हीयाँ के लोग के लावे के हे ।) (अरंबो॰13.11)
357 डेंगाना (= पीटना; पीटकर या झटका देकर फसल का अन्न निकालना) (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।) (अरंबो॰41.13)
358 डेराना (= अ॰क्रि॰ डरना; स॰क्रि॰ डराना) (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे ।) (अरंबो॰31.10)
359 डोम (देखऽ ने, आझ सोहराय हे । सब कोय नाया-नाया कुरता-पइँट पेन्ह-पेन्ह के मेला घुरे गेलन हे । हमरो चले कहऽ हलन । अइसन डोम नीयर मैला पेन्ह के जइतूँ होत ?) (अरंबो॰97.18)
360 ढिल्ली (= ढिल्ला; ढीला) (घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।) (अरंबो॰101.1)
361 ढेला-ढुक्कर (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰83.14)
362 तइयो (= तो भी) (नानी झुट्ठे-झुट्ठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला दे हल । नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही ।; पाठक जी देशभक्ति, शिक्षा आउ शिक्षण पर भासन देइत रहऽ हथ । हाथ-पैर भाँजऽ हथ । उनखर बात कोय सुने ला तैयार नञ हे, तइयो ऊ बाज नञ आवऽ हथ ।; घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰17.17; 76.12; 100.1)
363 तखनी (= उस समय, उस क्षण) (तखनी असमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ, अंगने भर के । भइया अंगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।; आझ बहुत्ते बात आद पड़ रहल हे । जिनगी में पहिला दफ्फे मोजफ्फरपुर गेलन हल । कँगरेस के अधिवेशन हल । तखनी जुआन हलन । खादी के धोती आउ गंजी पहिरले । - गान्हीं जी के जय ! जमाहिर लाल जी के जय ! नारा लगउते, हाथ में तिरंगा झंडा लेले गेलन हल ।; गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन ।; हमनी बड़का घर छोड़ के किराया के छोटगर मकान में आ गेली । पूजा-पाठ बन्द । जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; जखनी भोला बाबू लइका हलन, तखनिए से एगो गारी पढ़ऽ हलन । बेलाँ ओक्कर माने समझले । बड़का, का छोटा, केकरो से जब मन रंज होवऽ हलन, तब कह दे हलन - सूअर !; धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।) (अरंबो॰17.2; 35.2; 55.15; 78.29; 88.23; 92.26)
364 तनिक्को (= थोड़ा-सा भी; जरा-सा भी) (जे तनिक्को नञ जानऽ हे, ओकरे चुने पड़त । मंत्री जी के सिफारिश ... जादेतर अइसने-अइसने लोग योग्य घोषित कइल जइतन, जे भ्रष् तरीका अपनउलन हे ।) (अरंबो॰25.1)
365 तनी (= थोड़ा-सा, जरा-सा) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?; तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।) (अरंबो॰42.8, 13)
366 तनी-मनी (= थोड़ा-बहुत) (रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही । ई महक से हम्मर नाक फटऽ हे । मगर ठाकुर टुड्डू दा के मन रखे के हे । अइसे इनखे साथ एक-दू बेर तनी-मनी लेली हे ।; सब के पता रहऽ हे कि हम्मर लोग चउतरफी हथियारबंद रहऽ हथ । सरकारी कर्मचारी जे वोट लेवे आवऽ हथ, तनी-मनी हीला-हवाला के बाद, परिस्थिति समझ के, दसखत कर-कर के बैलोट पेपर दनादन बढ़इले चल जा हथ ।; माय के मउअत के बाद बाबू जी एकदम अकेल्ला पड़ गेलन हल । अइसे तो घर में हम्मर छोटा भाय, ओक्कर कनियाय आउ एगो-दुग्गो बाल-बुतरू सब हथ । पोता-पोती से उनखर मन तनी-मनी जरूरे बहल जा होत ।) (अरंबो॰14.24; 24.6; 81.15)
367 तमाकू (= तम्बाकू) (भिनसरवे खटिया त्याग देवे के उनखर पुरान आदत हे । कउनो तमाकू चढ़ा के दे देलको तो ठीक, नञ तो टिकिया ताखा से उतार के अपने सब कइलन । थोड़े देर गुड़-गाड़ कइलन आउ फिन हाथ-मुँह धो के, छड़ी लेले पहाड़ी दन्ने चल देलन ।; मने-मने कहियो गोसा जा हली । आझ बाबू जो तमाकू चढ़ा के माँगतन तो खुब्बे देर से देम, चाहे ऊ केत्ते ने गोसाथ !) (अरंबो॰82.29; 83.18)
368 तर-उपर (= नीचे-ऊपर) (दरोगा जी, जिरी शेरसिंह से अंगरेजी पूछ के देखहू । आझकल कुछ पढ़ऽ-लिखऽ हे का नञ ? दरोगाजी मोछ अइँठइत दबंग बोली में पुछलथिन हल - शेरसिंह, हमारे सवाल का जवाब दोगे ? का पुछतन, का नञ, मन तर-उपर होवइत रहऽ हल । - हाऊ ए टाइगर इज किल्ड ? - इट इज किल्ड विथ ए गन । - वाह ! वाह !! ... खूब ।) (अरंबो॰48.17)
369 तरबा (= तलवा) (~ के गोस्सा / लहर कपार पर चढ़ना) (डागडरो साहेब कम चलाक थोड़हीं हथ ! ऊ तुरते भाँप जइता कि का बात हे । लखतहीं तो उनखर तरबा के गोस्सा, कपार पर चढ़ जायत । ऊ बिगड़ के डावटे लगतन - नसेबाज ! बदमास !! पीकर अपने पत्नी को पीटता है आउ ले आया एहाँ । यह कोई तेरे बाप का अस्पताल है ?) (अरंबो॰100.16)
370 तलब (= वेतन, तनख्वाह; चाह, इच्छा; जरूरत; मांग; बुलाहट) (नौकरी के आखरी बखत में भइया के पैंतालीस सौ, छियालीस सौ रूपइया तलब भेंटा हल । चार-पाँच सौ अपना लगी रख के सब पइसा ऊ पहलमाने के हाँथ में दे दे हलन । काहे ला ? - हैसियत बढ़ावे ला ।) (अरंबो॰67.10)
371 तहिया (= उस दिन; उस समय) (नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन । नाना के रोब-दाब हल । गाम के बड़गो किसान रहे गुने दरोगा, बी.डी.ओ., सब हाकिम तसरीफ लावऽ हलन । उनखर खातिरदारियो खुब्बे होवऽ हल । तहिया के तनी-तनी ठो घटना आँख तरे घुरे लगल ।) (अरंबो॰48.11)
372 तातल (= गरम) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?") (अरंबो॰53.3)
373 तालुक (= तलुक; तलक, तक) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल । अभियो तालुक सचाय बचऽ हे । हमरा नीयर दलिद्दर, अगियानी अमदी के भी लोग इयाद करऽ हथ ।; हम्मर छोटका लइका धउगल आवऽ हे - बाबू जी, बाबा कचहरी से अभियो तालुक नञ अइलन हे । ना अइतन का ? - आवऽ होथुन बेटा । लइका धउग के चल जाहे ।; बिलसवा एगो दीया के बत्ती उसक-उलक आउ दोसरो-दोसर दीया के बच्चल-खुच्चल तेल ओकरे में ढार देलक, जेकरा में ई जादे देर तालुक जरे ।) (अरंबो॰36.5; 83.4; 95.5)
374 तितकी (टेबुल पर अगरबत्ती के राख भरक के गिरल । अगरबत्ती तितकी नियर लाल-लाल अन्धार कोठरी में आउ साफ देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰70.18)
375 तिन-चार (= तीन-चार) (घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰100.1)
376 तिरछी (~ काटना) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे । जीप से उतर के हमनी पइदल कहीं झुक के तो कहीं तिरछी काट के ललटेन दन्ने बढ़ली । हाँ, सच्चो एगो वयस्क शिक्षा के केन्द्र चल रहल हल ।) (अरंबो॰12.3)
377 तिरछे कोना (~ काटना) (फिन अवाज दन्ने, तिरछे कोना काटले, चल देलन हल । लइका पाँच मिनिट के दूरी पर हल । लइका के नजीक पहुँचियो गेलन हल ।) (अरंबो॰41.19)
378 तिलक-दहेज (बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?) (अरंबो॰79.15)
379 तीन-तरोक्का (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.6)
380 तुरतमें (= तुरन्त ही) (मंत्री जी के चेहरा पर एक मिनिट ला सिकन उभरल हल । मगर तुरतमें ऊ सामान्य हो गेलन हल ।; मंत्री जी अप्पन आदेशपाल के एगो अमदी के बोलावे के आदेश देलन । तुरतमें एगो अमदी आयल हल । प्रोफेसर रामदीन अचम्भा में पड़ गेलन हल । - अरे ! ई तो मिन्टू हे । पहाड़पुर गाम के उनखर सहपाठी, पारस जी के बेटा, मिन्टू ।; बड़का भइया ठीक तो हथ ? - हाँ, अभी तो ठीके हथ । उनखा बदहोसी के दौरा पड़े लगल हे । ... अच्छा पहिले हाथ-पैर धो ले । नस्ता कर ले । तुरतमें उनखा नींद पड़ल हे ।) (अरंबो॰29.10, 18; 63.10)
381 तेत्ते (= उतना) (जेत्ते ... ~) (का बस, का आउटो, सब जगह मिन्टुए के मारल जाय के चरचा हल । ... अच्छा होल, ऊ मारल गेल । केकरो बहू-बेटी के इज्जत ई सहर में सुरक्षित नञ हल । ... ओक्कर गिरोह रंगदारी टैक्स बसूलऽ हल । ... केकरो गाड़ी, तो केकरो हीरो होंडा छिना गेल । ... बैक डकैती के ऊ सरगना हल । ... जेत्ते मुँह तेत्ते बात ।) (अरंबो॰28.14)
382 तेलही (= तेल वाला; तेल में बना) (ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल ।) (अरंबो॰93.3)
383 तेसर (= तीसरा) (एगो दोसरो घटना उनका आद पड़ऽ हे । रामदीन जी आउ पारस जी बइठका पर बइठल हलन । एगो तेसर अमदी परगट होयल ।) (अरंबो॰31.22)
384 तेसरका (= तीसरा; संझला) (बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।) (अरंबो॰79.8)
385 थम्हाना (= सौंपना, पकड़ाना, धराना) (सब गम-बुझ के रामधनी सौदा कइलक आउ घर लौट गेल । बजार से अइते देख के धनुआँ हुलसइते बाप के भिरी गेल । रामधनी अप्पन हाथ के फुचकारी ओक्कर हाथ में थम्हा देलक । धनुआँ जे टीन के फुचकारी देखलक, से जर के खाक हो गेल ।) (अरंबो॰92.16)
386 थाम्हना (बच्चा डर से थर-थर काँप रहल हल । कँपस रहल हल । रामनाथ जी बोललन हल - हमरा पर जो तनिक्को विश्वास हो तो ई तूफान हम थाम्हेम के कोरसिस करी । ... पाँच मिनिट के मोहलत चाहऽ ही ।) (अरंबो॰44.25)
387 थिराना (= स्थिर होना, रुकना, ठहरना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.23)
388 थोड़िक्के (= थोड़े ही) (ठाकुर टुड्डू दा के नजर थोड़िक्के दूर पर खड़ा पुलिस जीप दन्ने उठ जाहे । - दादा, हम पुलिस साथे नञ अयली हे । ई तो रास्ता में भेंटा गेल से जीप पर चढ़ गेली । हम पुलिस के अमदी नञ ही ।; थोड़िक्के देर बाद मंत्री जी के कार दिखाय पड़ल ।; थोड़िक्के देर बाद अध्यक्ष महोदय के बोलावा आयल ।; मम्मा जादे दिन नञ बच सकल । थोड़िक्के दिन के बाद हम्मर मइयो चल देलक ।) (अरंबो॰14.12; 26.3, 7; 78.18)
389 थोड़े-थाक (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली ।; दोसर-दोसर मरीज के देख रहलन हल । मगर हमरा बइठइले हलन । हमरो से बीच-बीच में थोड़े-थाक बतिअउते जा हलन ।) (अरंबो॰15.13; 74.19)
195 गते-गते (= धीरे-धीरे) (रामधनी के आउ नञ रहल गेल । गते-गते चोर नीयर ऊ अप्पन माय के खटिया भिरी गेल ।) (अरंबो॰94.3)
196 गप-खिस्सा (हमनी बगइचा में बैठल ही । कोनमा आम तर खटोला पर नाना ओंठगल हथ । गाम के आठ-दस लोग ओहीं पर नाना के घेरले भुइएँ में बइठल हथ । किसिम-किसिम के गप-खिस्सा चल रहल हे ।) (अरंबो॰19.27)
197 गबड़ा (= गड्ढा; खाई) (समाज के विषमता के खाइ कइसे पाटल जाय ? ढेर ऊँचा टिल्हा के थोड़े ढाहे के चाही । गबड़ो तनी भराय के चाही । ... मगर ई काम कइसे होयत ?; गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । हम्मर सौंसे बदन में जोंक लपट गेल । गन्दा पानी के कीड़ा हम्मर बदन नोंचले हे ।) (अरंबो॰58.6; 79.21)
198 गबर-गबर (माय माला जपइते-जपइते बिच्चे में बोलऽ हे - दुलहिन, हीएँ पर खीर लाके देहू । हमरे भिरी खायत । मेहरारू खीर जाम में दे जा हथ । पैंतीस-चालीस बच्छिर के विमल जी माइए भिरी गबर-गबर खीर खा रहलन हे ।) (अरंबो॰70.7)
199 गमना-बुझना (सब गम-बुझ के रामधनी सौदा कइलक आउ घर लौट गेल । बजार से अइते देख के धनुआँ हुलसइते बाप के भिरी गेल ।) (अरंबो॰92.14)
200 गरियाना (= गाली देना) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।; धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । पास-पड़ोस के दु-चार अमदी मजा लेवे ला जामा हो गेलन हल । धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।) (अरंबो॰92.22, 24, 25, 26)
201 गाँहक (= ग्राहक) (ई हम जानऽ ही कि ठिकेदार के अमदी हमरो जान के गाँहक बन जइतन । जे हो, सफेदपोस से उनखर बिसवास उठ गेल हे, ऊ बिसवास हमरो लौटावे के हे । मन करऽ हे, अप्पन सउँसे लिबास, सफेद, उज्जर कौलर फाड़ के बिग दी ।; दारू पी के ओकरा मनहूस कहलूँ । गारी देलूँ ! मारलूँ ! अइसन ढकेल देलूँ कि भित्ती से टकरा के ओक्कर माथा फुट गेल हल । ओही दिनमा से हम्में ओक्कर जान के गाँहक बनल हलूँ । ओही रतबा ऊ हम्मर असरा में मुँह में एक्को दाना खुद्दियो डालवो नञ कइलक हल ।) (अरंबो॰16.6; 102.2)
202 गाछ-बिरिछ (हम्मर गाम में रामजी के कथा होबऽ हल । सीता माय के पापी रावन उठा के जब ले गेल तब रामजी विलाप कर-कर के सीताजी के पता गाछ-बिरिछ से पूछऽ हलन ।) (अरंबो॰19.12)
203 गान्हीं (= गाँधी) (आझ बहुत्ते बात आद पड़ रहल हे । जिनगी में पहिला दफ्फे मोजफ्फरपुर गेलन हल । कँगरेस के अधिवेशन हल । तखनी जुआन हलन । खादी के धोती आउ गंजी पहिरले । - गान्हीं जी के जय ! जमाहिर लाल जी के जय ! नारा लगउते, हाथ में तिरंगा झंडा लेले गेलन हल ।) (अरंबो॰35.3)
204 गाम (= गाँव) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰19.21, 28)
205 गारी (= गाली) (मिन्टू आज इसकूल में एगो बच्चा के अइसन ठेल देलन कि ओक्कर माथा-कपार फुट गेल । इनखा जे अक्षर ज्ञान होयल तो ओक्कर उपयोग इसकूल के दीवार पर गरिये लिखे में कइलन हे ।) (अरंबो॰31.29)
206 गारी-बात (~ सुनना) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.17)
207 गियारी (= गला; गरदन) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल ।; खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ?; घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।) (अरंबो॰36.3, 7; 101.1)
208 गिरानी (= महँगाई) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !; ओकर बाप तो कहिए गुम हो गेलन हल । तब एकरा होसो नञ होत । तब से बिलसवा के बाबे ओकर देख-रेख करऽ हलन । गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही ।) (अरंबो॰20.1; 95.12)
209 गिरिद (= गिर्द; इर्द-गिर्द) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।) (अरंबो॰35.6)
210 गिल्ला (= गीला) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक ।) (अरंबो॰95.7)
211 गीत-नाध (एकबैग रोबा-कन्नी मच गेल । गीत-नाध सब रुक गेल । मौसी हमरा गोद में लेके रोबे लगल ! माय मर गेलौ ।) (अरंबो॰18.28)
212 गुड़-गाड़ (~ करना) (भिनसरवे खटिया त्याग देवे के उनखर पुरान आदत हे । कउनो तमाकू चढ़ा के दे देलको तो ठीक, नञ तो टिकिया ताखा से उतार के अपने सब कइलन । थोड़े देर गुड़-गाड़ कइलन आउ फिन हाथ-मुँह धो के, छड़ी लेले पहाड़ी दन्ने चल देलन ।) (अरंबो॰83.1)
213 गुदाल (= तेज आवाज में बोलने अथवा पुकारने की क्रिया) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.22)
214 गुने (= के कारण) (नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन । नाना के रोब-दाब हल । गाम के बड़गो किसान रहे गुने दरोगा, बी.डी.ओ., सब हाकिम तसरीफ लावऽ हलन ।; - अरे शेरू, तूँ तो दिलेर सिंह के नाती हो । नाम शेरसिंह और आवाज में कड़क नहीं ? - एही गुने तो एकरा शहर से देहात ले अयली हे ।; गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।) (अरंबो॰48.10, 24; 95.13)
215 गुरपिंडा (= गुरुपिंडा) (एकबैग बिलसवा के धियान घरवा के सुगवा पर चल गेल । गुरपिंडा पर जब पढ़े जा हलूँ तभिए पिपरा पर से ओकरा निकासलूँ हल । बाप रे ! गुरू जी एकरा लगी कत्ते मार मारलथिन हल !) (अरंबो॰96.7)
216 गेंदड़ा (= गेंदरा, गेनरा) (गेंदड़ा तल्ले से बिलसवा एगो मचोरल-मचारल सादा कागज निकासलक । पक्का पर ओकरा तान देलक आउ लगल अप्पन बाबा हीं चिट्ठी लिखे ।) (अरंबो॰95.16)
217 गेंदौड़ा, गेदौड़ा (कूड़ा-कचरा आउ उकट-पकट के रख दे हल । अब तो घिनामन नियर ढेर बचल हे । उकटल-पुकटल गेंदौड़ा ।; सरीर के सब ऊर्जा उपयोग में लावल जा चुकल हल । सरीर के नाम पर खाली ठठरिए बचल हे । गेदौड़ा नियर उकटल-पुकटल सरीर ।) (अरंबो॰89.4; 90.8)
218 गैरमकरूआ (= गरमजरूआ) (कराहइत पुछलन हल - ई लइका कौन हे, जेकरा मार पड़ रहल हे ? - बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक ।) (अरंबो॰43.28)
219 गोइठा (~ जोरना/ जोड़ना) (हम्मर बेटा आझ परबियो में, एक्को दाना खुदियो, मुँह में नञ डाललक हे । होली जइसन, सोना नीयर परब फिनूँ कहिया आत ? के देखलक हे । अधरतियो में ऊ गोइठा जोर के पकावे चलल ।) (अरंबो॰94.12)
220 गोड़ (= पैर) (नञ जाने गोस्सा हमरा में केन्ने से आके समा गेल हल । जे नाना से आझ तक रूबरू नञ बतिऔली हल, से किताब-कौपी उठाके उनके सामने फेंक देली । जापानी चक-चक बइठकी में गोस्सा से एक सूट मारली । सीसो फूट गेल आउ गोड़ो कट गेल ।; भतपकवा पाँड़े आउ दिक कइले रहऽ हे । कखनियो कहतो - गोड़ दाब, कखनियो कहतो - तेल लगाओ । हम तो ओकर हुकुम के मारे बेदम रहऽ ही ।; अजी बाबा ! तूँ हमरा अपने भिरी बोला लऽ । हम तोहर सब कहना मानबो । अब पढ़े से नञ मटिअइबो । मन लगा के तोर गोड़ो दाबबो ।) (अरंबो॰50.22; 97.12, 22)
221 गोदानना (= जी में लगाना; आज्ञा का पालन करना) (बेटा ? कइसन बेटा ? जे समर्थ बाप के कहना में नञ रहल ऊ असमर्थ बाप के का गोदानत ? का सेवा-टहल करत ?) (अरंबो॰55.4)
222 गोदी (= गोद) (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी । ... हमहूँ तोहरे साथ जइबो । बेला गोदी लेले, दुलारले गुजर नञ ।) (अरंबो॰31.7; 34.8, 10, 11)
223 गोर-नार (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।; हम्मर संझला चच्चा एकदमें अंगरेज नियर गोरनार हलन । कसरत करऽ हलन । घोड़ा चढ़ऽ हलन । एकबैग उनखा लकवा मार देलक ।) (अरंबो॰31.6; 78.19-20)
224 गोल-मटोल (मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ । रामदीन जी, पारस जी हीं गेल हलन । एगो गोर-नार, गोल-मटोल लइका अप्पन बाप, पारस जी के गोदी में बइठल हल ।) (अरंबो॰31.6)
225 गोसबर (= गोस्सा करने वाला) (मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।) (अरंबो॰46.9)
226 गोसाना (= गुस्सा करना) (मने-मने कहियो गोसा जा हली । आझ बाबू जो तमाकू चढ़ा के माँगतन तो खुब्बे देर से देम, चाहे ऊ केत्ते ने गोसाथ !; हम परसताहर । कचौड़ी, पकौड़ी छना रहल हे । धउग-धउग के परसना हम्मर ड्यूटी । बस एक्के बात से खुन्नुस बरऽ हल - केतिनियो जल्दी करऽ मगर बाबू जी के गोसाय के आदत बनल हे ।) (अरंबो॰83.18; 84.7
227 गोस्सा (= गुस्सा) (मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।; अब रामधनी के गोस्सा के कोय ठेकाना नञ रहल । दे थप्पड़ दे थप्पड़ धनुआँ के अन्हुआ देलक । धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल ।) (अरंबो॰46.8; 92.18)
228 गोहूँ (= गोहूम; गोधूम; गेहूँ) (गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।) (अरंबो॰62.17)
229 घर-दुआर (सरजुग सिंह अप्पन नौकर भेज के घर-दुआर साफ करवा देथ । भात, दाल, तरकारी, दही, अँचार, भर थरिया उसाह के उनखा भोजन ला भेजवा देथ ।; छोटा बेटा औफिस चल जा हे । पुतोह घर-दुआर संभालऽ हथ । भोजन बनावे से लेके लइका सँभाले तक उनखर ड्यूटी हे ।; कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰54.3; 81.18; 94.19)
230 घिघियाना (= गिड़गिड़ाना) (तीन रूपइया काहे, हम तो तोरा सवा तीनों गो दे देतियो होत, बाकि अखनी हमरा हीं बेसी पइसे नञ हे । नञ तो एत्ते घिघिअयतियो होत नञ । एहू दू रूपइया हम बुतरू के मन रक्खे ला दे रहलियो हे ।) (अरंबो॰92.7)
231 घिनामन (= घिनौना) (सरकार पिंसिल एतना भर दे देहे जेतना में दुन्नू परानी के गुजर-बसर आसानी से हो जाइत । फिन कधियो कोय बेमार पड़ली, कधियो मेहरारूए के रोग-बेआधि होल तो गाँव में डागडर-वइद के समस्या हे । गाँव में अप्पन सिर सब दिन गिरल रहत । आउ फिन गाँव के आज के घिनामन रूप !; मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।) (अरंबो॰55.7; 101.15)
232 घींचना (= खींचना) (घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰100.1)
233 घुरना (= घूमना-फिरना) (आझ समारोह हे । ठीके में पटना, दिल्ली के लोग अइलन हे । सूट-बूट में हाकिम सब घुर रहलन हे । बड़का मंच बनल हे । आदिवासी सब उत्सव के डरेस पहिरले हथ । ढोल-मांजर बज रहल हे । सादा खादी के डरेस में एगो अमदी एगो जीप से उतर के मंच पर अइलन ।; भोला बाबू, टाटा से गया लौट रहलन हे । राँची के बाद रामगढ़ पहुँचे के हे । ... पता चलल रामगढ़ भिरी पुल टुट गेल हे । गाड़ी घुर के रामगढ़ पहुँचत ।) (अरंबो॰13.2; 86.3)
234 घुरना-टहलना (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ?) (अरंबो॰87.29)
235 चंदला (= चांदिल, गंजा) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।) (अरंबो॰19.22)
236 चउतरफी (= चारों तरफ) (हमनी आने हम आउ हम्मर समर्थक, पान-छो दोस मिल के चार-पाँच सो वोट दे देली । का मजाल कि कउनो हुज्जत करे । सब के पता रहऽ हे कि हम्मर लोग चउतरफी हथियारबंद रहऽ हथ ।; सरजुग सिंह अप्पन नौकर भेज के घर-दुआर साफ करवा देथ । भात, दाल, तरकारी, दही, अँचार, भर थरिया उसाह के उनखा भोजन ला भेजवा देथ । ... कधियो कालीसिंह हीआँ से नस्ता । चउतरफी परेम के बरखा हो रहल हल ।; सोमनाथ जी के आँख में नींद नञ । अभियो रात बाकिए होयत । भुरूकवो नञ उगल हे । चउतरफी सन्नाटा हे ।) (अरंबो॰24.5; 54.5; 58.4)
237 चक-चक (बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; बच्चा कानपुर से आ रहल हे । एअरफोर्स में हे । सुन्दर छो फुट्टा जुआन । चक-चक गोर ।) (अरंबो॰36.26; 63.6)
238 चकटी ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।) (अरंबो॰93.13)
239 चकला (= चौला; चौड़ा; विस्तृत; खेती की जमीन का एकछित्तर बड़ा खंड) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.2)
240 चट्टी (= परस्पर हथेली से हथेली पर आघात करने की मुद्रा या उससे उत्पन्न आवाज; हथेली पर छड़ी आदि की मार जिससे 'चट' या 'सट' शब्द हो) (कोनमे आम के जड़ तरी सब गिरबा देली चोरवा से । बालुओ सब आउ गुलियो । आँख बंद के बंद । देखता बाबू साहेब कइसे ? थोड़े दूर एन्ने-ओन्ने घुमा-फिरा के उनखा छोड़ देल गेल । अब खोजऽ बबुआ ! नञ तो पँच-पँच चट्टी सब लेबो । ... खोजऽ ... आउ फिन खोज के छूअ केकरो । नञ तो चोर बनतो के ?) (अरंबो॰18.15)
241 चन्दन-काठी (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.8)
242 चन्ना (= चन्दा, चाँद, चन्द्रमा) (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।) (अरंबो॰17.6)
243 चर-पाँच (= चार-पाँच) (हम्मर बाबू पहलमान हलन । चर-पाँच बिगहा खेत हल । कोय साल जो गंगा माय के लीला करे के मन होवऽ हल तो हमनी के सौंसे खेत अप्पन पेट में समा ले हलन ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।; लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।) (अरंबो॰62.6; 82.7; 92.10-11)
244 चलता (~ करना) (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ? - तब तो, उनखा चलता करे के कउनो उपाय सोचे पड़त ।; एक्को मिनिट लगी उनखा छोड़े ला दुन्नु छउँड़ा तइयारे नञ होवऽ हल । ओही दुन्नु में से एगो छउँड़ा कातो हमरा चलता करे के उपाह सोंचत ?) (अरंबो॰88.4, 12)
245 चलती (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰19.28)
246 चानी (= चाँदी) (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?) (अरंबो॰91.3)
247 चापना (= दाबना) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल ।) (अरंबो॰98.4)
248 चापुट (= चपटा) (पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल । करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे ।) (अरंबो॰68.4)
249 चाह (= चाय) (ई हम जानऽ ही कि ठिकेदार के अमदी हमरो जान के गाँहक बन जइतन । जे हो, सफेदपोस से उनखर बिसवास उठ गेल हे, ऊ बिसवास हमरो लौटावे के हे । मन करऽ हे, अप्पन सउँसे लिबास, सफेद, उज्जर कौलर फाड़ के बिग दी । नीरू, हम्मर मेहरारू हमरा ताक रहलन हल । - ई का, चाह के पियाली में चाह ओयसहीं पड़ल हे, आउ अपने ... ?; प्रोफेसर रामदीन एगो छोटगर चाह के दुकान पर चाह पी रहलन हल । चाह पीएवालन के ई सब बात सुन रहलन हल।; रामदीन जी चाह के पइसा चुकउलन आऊ अप्पन गन्तव्य चल देलन ।; हाकिम चाह मंगइलन हल । - जी ! हम चाह नञ पीअऽ ही ।; गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।; डागडर साहेब एकदम्मे चुप्पी नाधले हलन । - बाबू, तोरा हम एगो टरे चाह के कप-कस्तरी रक्खे ला बना देबो । खाली तूँ हम्मर पिअरिया के जान बचा दऽ ।) (अरंबो॰16.11; 28.5, 9; 37.14, 15, 22; 102.20)
250 चाही (= चाहिए) (समाज के विषमता के खाइ कइसे पाटल जाय ? ढेर ऊँचा टिल्हा के थोड़े ढाहे के चाही । गबड़ो तनी भराय के चाही । ... मगर ई काम कइसे होयत ?; सच्चो ऊ बदहोस हो गेलन । हाथ-पैर ओयसीं अईंठल । पहलमान भाय डागडर हीं दउड़ल । का करे के चाही आउ का नञ, कुछ समझे में नञ आवे ।; बिसुन, हम्मर बाद सब भाय में सबसे बड़ा तो हँऽ । तोरा अइसन बोले के नञ चाही ।) (अरंबो॰58.6; 61.5; 64.5)
251 चिकरना (= चिल्लाना) (अब रामधनी के गोस्सा के कोय ठेकाना नञ रहल । दे थप्पड़ दे थप्पड़ धनुआँ के अन्हुआ देलक । धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल ।) (अरंबो॰92.20)
252 चिक्कन (= चिकना) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰20.16)
253 चिनगी (= चिनगारी) (गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल । एकबैग घोड़िया बमकल आउ एगो झुक्कल पेड़ के डाली से टकरा गेल । रमबिलसवा के आँख से चिनगी नियर उड़ल ।) (अरंबो॰102.17)
254 चिरइँ (दिन भर खेत में चिरइँ-चुरगुन चेंचें, चेंचें करइत रहऽ हल । हमनी पाँचो भाय चिरइँ पकड़े ला धउगा-धउगी करइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰62.20)
255 चिरइँ-चुरगुन (दिन भर खेत में चिरइँ-चुरगुन चेंचें, चेंचें करइत रहऽ हल । हमनी पाँचो भाय चिरइँ पकड़े ला धउगा-धउगी करइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰62.19)
256 चिरइँ-चुरगुनी (भोर होवे के लच्छन परगट होवे लगल । चिरइँ-चुरगुनी के अनोर ब्यापे लगल ।) (अरंबो॰71.27)
257 चीनी (= शक्कर) (नानी झुट्ठे-झुट्ठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला दे हल । नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही ।) (अरंबो॰17.16)
258 चीन्हना (= चिन्हना; पहचानना) (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे ।; एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।) (अरंबो॰31.8; 43.24)
259 चुट्टी (~ काटना) (हम माय भिरी गेली । आँख अंगुरी से खोले लगली । खुले - बंद हो जाय ! खुले, बंद हो जाय !! ... चुट्टी काटली । माय आँख खोलबे नञ करे । घबड़ा के पुकारे लगली - माय ! ... माय !! ... माय बोले तब ने । नाना भोकार पाड़ के रोबे लगलन । हमरा भर अकबार उठा के दलान दन्ने लेले चल देलन ।) (अरंबो॰19.8)
260 चुनना-बीछना (ई सेंगरन में जादेतर कहानी ओंहीं से उठावल गेल हे जहाँ सड़ाँध हे । नजरिया साफ रहला से कहानी ला विषय के चुने-बीछे में रवीन्द्र भाय के बड़ा कामयाबी हासिल भेल हे ।) (अरंबो॰6.3)
261 चुप्पे-चाप (= चुपचाप ही) (रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।) (अरंबो॰103.10)
262 चौखुट्टा (= चौखूटा) (तखनी असमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ, अंगने भर के । भइया अंगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।; असमान चौखुट्टा से टेढ़-मेढ़ होवे लगल । असमान बहे लगल दूध नियर ।) (अरंबो॰17.2, 10)
263 छउँड़ा (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !; तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।) (अरंबो॰18.11; 42.13; 94.1)
264 छन (ललटेन से सोमनाथ के छनका लगल - छन ! बाप रे !; गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन । छनका फिन लगल - छन !! बाप रे ! ... कॉलेज के पढ़ाय पूरा करइत-करइत भइयो गुजर गेलन ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।) (अरंबो॰55.12, 17, 19)
265 छनका (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?"; गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन । छनका फिन लगल - छन !! बाप रे ! ... कॉलेज के पढ़ाय पूरा करइत-करइत भइयो गुजर गेलन ।; फिन छनका लगल - छन !! बाप रे ! ... मइया के मउअत ! अब पूरा घर जोड़े वाला कड़ी भी गायब ।) (अरंबो॰53.3; 55.17, 19)
266 छिनाना (= छिन जाना) (एक दिनमा माय के मन बहुत्ते खराब हो गेल । नानी, मौसी आउ केत्ते ने मेहरारू माय के घेरले हलन । हम जो जाइयो चाही तो जाइए न मिले । एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में । आउ तब बात समझ में आल । मौसी हँसके कहलक - ले, तोर दुलार छिना जइतउ !) (अरंबो॰18.27)
267 छेकुनी (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल । लइका चित्कार कर उठल ।) (अरंबो॰43.6)
268 छोटकनिया (~ नेता) (सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰35.15)
269 छोटका (= छोटा वाला) (बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल । बंशीधर जी के छोटका बेटा संझउकिए से गायब हल । घर नञ लउटल हल । लोग चिंतित हलन । ई हाल में जादे बातचीत पर जोर नञ देके राते के लउटना बाजिब समझलन हल ।) (अरंबो॰42.19)
270 छोटगर (= छोटा) (प्रोफेसर रामदीन एगो छोटगर चाह के दुकान पर चाह पी रहलन हल । चाह पीएवालन के ई सब बात सुन रहलन हल।; हमनी बड़का घर छोड़ के किराया के छोटगर मकान में आ गेली । पूजा-पाठ बन्द । जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।) (अरंबो॰28.5; 78.27)
271 छो-फुट्टा (~ जुआन) (बच्चा कानपुर से आ रहल हे । एअरफोर्स में हे । सुन्दर छो फुट्टा जुआन । चक-चक गोर ।) (अरंबो॰63.6)
272 जंजलतरी (हमरा तो एक दिन अचरज भेल जब डॉक्टर श्री रामनरेश मिश्र हंस हमरा कहलन कि हितोपदेश, पंचतन्त्र आउ कइए गो कहानी सब मगह क्षेत्र के जंजलतरी में लिखल गेल हे । डोभी से हजारीबाग जाय के रस्ता में चौपारण मिलऽ हे । चौपारण के हर देहात में ढेर मनी पुरान कहानी सुने-गुने में आवऽ हे ।) (अरंबो॰5.17)
273 जइथीं (= जइतहीं; जाते ही) (रमबिलसवा अप्पन घरावली दन्ने मूहाँ कर के बोलल - अगे होय ! सुनऽ हीं, डागडर हीरो बाबू बड भलमानस हथिन । जइथीं के साथ ऊ तो पूछे लगतन - क्या है ? कैसे आए हो ?) (अरंबो॰99.5)
274 जइसी (= जइसीं, जइसहीं; जैसे ही) (मुँह पर से अँचरा जइसि हटावऽ हे कि ओकर मिआज भय से भर गेल । मुहाँ केत्ते घिनामन लग रहल हल ।) (अरंबो॰101.14)
275 जइसीं (= जइसहीं; जैसे ही) (मिन्टू जइसीं आयल हल, ओइसहीं लउट गेल । दण्डो-नमस्कार नञ कइलक हल ।) (अरंबो॰29.23)
276 जउरी (= रज्जु; रस्सी) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।) (अरंबो॰103.2)
277 जउरे (= जौरे; साथ-साथ; साथ में) (- चल शेरू, ढेर पढ़लऽ । किताब-कोपी मोड़ऽ । अब बिहान । नाना-नाती के जउरे भोजन, आउ फिर भर जाम दूध सधाबे के ड्यूटी । कुँख के भर जाम दूध पीयऽ हली । नञ जे पीलूँ, तो नाना के घुड़की ।; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ ।) (अरंबो॰49.27; 87.14)
278 जखनी (= जिस क्षण; जब) (मुचकुन जी सोंच रहलन हे - ई किरोध केकरा पर ? ... किरोध तो मन के विकार हे । ... किरोध के आग जखनी तक गंगा जल नीयर शीतल नञ हो जायत, अन्न-जल गरहन नञ करम ।; जखनी उनखर मेहरारू के लकवा के लच्छन परगट होल, बेटा के बुलावे खातिर कलकत्ता चिट्ठी लिखलन हल ।; तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली ।; जखनी भोला बाबू लइका हलन, तखनिए से एगो गारी पढ़ऽ हलन । बेलाँ ओक्कर माने समझले । बड़का, का छोटा, केकरो से जब मन रंज होवऽ हलन, तब कह दे हलन - सूअर !; धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।) (अरंबो॰39.13; 69.10; 83.12; 88.23; 92.26)
279 जनावर (= जानवर) (पहिले हमनी आजाद हली । अब तो गुलाम ही, गुलाम । आजाद मुलुक में गुलाम ...। मगर अब गुलामी बरदास नञ होवऽ हे । सेही से जे तीर-कमान जंगली जनावर पर चलावऽ हली, अब दू टाँग वाला जनावरो पर चलावे लगली । ... जोर-जुलुम के एगो हद होवऽ हे ।; हम तुरते उनखर पैर पकड़ के बोलम - सरकार, आझ से जे पीउँ तो गो हतिया ! सच्चे पीए से अमदी जनावर हो जाहे । डागडर बाबू, तों हमरा जुत्ता से मारऽ मगर बुढ़िया के कयसूँ अच्छा कर दऽ !) (अरंबो॰15.21; 100.20)
280 जन्ने-तेन्ने (= जन्ने-तन्ने; इधर-उधर) (उनखर सब चौकसी बेअरथ साबित हो रहल हल । लइका घरो से पइसा-कउड़ी चोरा के जन्ने-तेन्ने लापता होवे लगल हल । सोमनाथ जी के शक्ति लइका ढूँढ़े में, लइका के समझावे में, अच्छा रस्ता पर लावे में खरच होवे लगल ।) (अरंबो॰53.21)
281 जमाहिर (= जवाहर) (आझ बहुत्ते बात आद पड़ रहल हे । जिनगी में पहिला दफ्फे मोजफ्फरपुर गेलन हल । कँगरेस के अधिवेशन हल । तखनी जुआन हलन । खादी के धोती आउ गंजी पहिरले । - गान्हीं जी के जय ! जमाहिर लाल जी के जय ! नारा लगउते, हाथ में तिरंगा झंडा लेले गेलन हल ।) (अरंबो॰35.3)
282 जरना (= बरना; जलना) (बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।; अगरबत्ती जर रहल हे ।) (अरंबो॰36.27; 70.4)
283 जराना (= जारना, बारना, नेसना; जलाना) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन ।) (अरंबो॰69.27)
284 जरिक्को (= जिरिक्को; जरा भी; तनिक भी) (एन्ने लूटपाट मच गेल । ... मम्मा के आवे पर, सुनऽ ही, बाबा के लहासो उठावे के पइसा नञ हल । फिन हम्मर छोटा बाबू अइलन । मम्मा के आँख में ऊ जरिक्को नञ सोहा हलन ।) (अरंबो॰78.14)
285 जलम-भूमी (= जन्मभूमि) (अप्पन जिनगी के आखरी भाग अमदी के अप्पन जलम-भूमी में बिताबे के चाही । ... तों अइमा तो हमरो बड सहारा मिलत ।) (अरंबो॰66.27)
286 जात (= जाति; वर्ग) (रामधनी के मिजाज गरम हो गेल - अरे ससुर, कहलिअउ तो, ला देबउ । एत्ते जिद्दी काहे हो जाहँऽ ? / बुतरू के जात, झिड़की सुन के चुप हो गेल ।; लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।) (अरंबो॰91.9; 92.11)
287 जाम (= काँसे का कटोरा) (- चल शेरू, ढेर पढ़लऽ । किताब-कोपी मोड़ऽ । अब बिहान । नाना-नाती के जउरे भोजन, आउ फिर भर जाम दूध सधाबे के ड्यूटी । कुँख के भर जाम दूध पीयऽ हली । नञ जे पीलूँ, तो नाना के घुड़की ।; माय माला जपइते-जपइते बिच्चे में बोलऽ हे - दुलहिन, हीएँ पर खीर लाके देहू । हमरे भिरी खायत । मेहरारू खीर जाम में दे जा हथ । पैंतीस-चालीस बच्छिर के विमल जी माइए भिरी गबर-गबर खीर खा रहलन हे ।) (अरंबो॰49.27, 28; 70.6)
288 जिनगी (= जिन्दगी) (गाड़ी से महाविद्यालय, महाविद्यालय से कोचिंग इन्स्टीच्यूट, फेन घर । एही तो उनखर जिनगी हल ।) (अरंबो॰30.2)
289 जिरिक्को (= जरा भी) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।; एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।) (अरंबो॰96.18; 103.1)
290 जिरी (= जरी,तनी; थोड़ा) (दरोगा जी, जिरी शेरसिंह से अंगरेजी पूछ के देखहू । आझकल कुछ पढ़ऽ-लिखऽ हे का नञ ?; दीयवा मिंझाइल जा रहल हल । से बिलसवा ओकर बत्ती उसका देलक । दीया में तेल तो भरले हल, खाली बतिए जिरी जर गेल हल ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ !) (अरंबो॰48.13; 96.14; 100.9)
291 जिरी-मनी (फिनूँ रमबिलसवा के धिआन पिअरिया दन्ने गेल । - अगे होय ! दरदिया जिरी-मनी कमलउ कि नञ ?) (अरंबो॰101.8-9)
292 जुआन (= जवान) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे - एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।; पारस बाबू राजधानिएँ में डेरा पर आके मिललन हल । ऊ उदास हलन । बतउलन हल - मिन्टू अब जुआन हो गेल हे । ओक्कर सोखी आउ बदमासी अब अकास छूए लगल हे । अब दिन-रात ऊ पीले रहऽ हे । लाज-लेहाज सब खतम ।) (अरंबो॰20.4; 32.6)
293 जुआनी (= जवानी) (ओकरा का बुझायत, लुटावे के भी एगो अप्पन आनन्द होवऽ हे । जुआनी सुराज के नीसा में बीत गेल ।) (अरंबो॰39.3)
294 जुकती (= युक्ति) (अभी सब कुछ खतम नञ होल हे । मिन्टू के कन्धा पर खेती-बारी के भार लादऽ । कुछ जिम्मेदारी के भार सौंपऽ । ओक्कर बिआहो कर दऽ । आइ.ए. तक पढ़ल हे । कउनो जुकती से एगो नौकरी ओकरा ला जुटावऽ !) (अरंबो॰32.12)
295 जुत्ता (= जूता) (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।; हम तुरते उनखर पैर पकड़ के बोलम - सरकार, आझ से जे पीउँ तो गो हतिया ! सच्चे पीए से अमदी जनावर हो जाहे । डागडर बाबू, तों हमरा जुत्ता से मारऽ मगर बुढ़िया के कयसूँ अच्छा कर दऽ !) (अरंबो॰83.14; 100.20)
296 जुमना (= प्रबन्ध अथवा जुगाड़ हो सकना) (गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।) (अरंबो॰95.13)
297 जुवती (= युवती) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।) (अरंबो॰11.8)
298 जेत्ते (= जितना) (~ ... तेत्ते) (का बस, का आउटो, सब जगह मिन्टुए के मारल जाय के चरचा हल । ... अच्छा होल, ऊ मारल गेल । केकरो बहू-बेटी के इज्जत ई सहर में सुरक्षित नञ हल । ... ओक्कर गिरोह रंगदारी टैक्स बसूलऽ हल । ... केकरो गाड़ी, तो केकरो हीरो होंडा छिना गेल । ... बैक डकैती के ऊ सरगना हल । ... जेत्ते मुँह तेत्ते बात ।) (अरंबो॰28.14)
299 जेन्ने-जेन्ने (= जन्ने-जन्ने; जिधर-जिधर) (माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो । जेन्ने-जेन्ने मइया, ओन्ने-ओन्ने बछवा ! बाबा हीं से नानी हीं अइली ।) (अरंबो॰18.22)
300 जेभी (= जेब) (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।) (अरंबो॰37.19)
301 जेहल (= जेल) (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ?) (अरंबो॰88.1)
302 जेही (= जेहे; सेहे; ओही, ओहे; वही) (आञ रे ! सुनलिअउ तू पियाज खाहीं ? किसोरिया कहऽ हलउ कि तूँ अंडो खाय लगलहीं ? - नञ मइया, ई बात नञ हे । पटनमा में हम कस के जे बिमार पड़लियइ हल ने, तब डागडर अंडा, मास खाय ला कहलथिन हल । बोललथिन हल कि ई सब खाय से दवाय जल्दी फैदा करतो । मास तो नञ खयली, मगर ...। - ओ ! डागडर कहलको हल । जेही कहिअइ, अइसन कइसे करत विमला ?) (अरंबो॰70.14)
303 जोगाना (= सँभाल कर रखना) (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक । फिन अप्पन टीन के बक्सा से एगो सरी के कलम निकासलक । जब ऊ दोसर दर्जा में पढ़ऽ हल, तभिए से ई कलम ऊ जोगइले हल ।) (अरंबो॰95.9)
304 जोड़ना-जाड़ना (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।) (अरंबो॰66.2)
305 जोम (= धुन, आवेश, जोश, उत्साह, उबाल, उफान; अभिमान) (~ सवार होना) (ओही दिनमा से, ठीक दिवालिए के दिनमा से ओकर भाग के दीया टिमटिमाय लगल हल । दलिदरा घर में घुसल, आउ हमरा पर पीए के आउ लड़े के जोम सवार भेल ।) (अरंबो॰102.5)
306 जोरगर (= जोरदार) (उनखर दोसर जोर पढ़ाय पर हल । ऊ कहऽ हलन हम्मर सरीर में तो जोर हे मगर दिमग में नञ । कुछ पढ़-लिख नञ सकली । तोहनी सब दिमागो से जोरगर बन ।) (अरंबो॰62.28)
307 जोर-जुलुम (पहिले हमनी आजाद हली । अब तो गुलाम ही, गुलाम । आजाद मुलुक में गुलाम ...। मगर अब गुलामी बरदास नञ होवऽ हे । सेही से जे तीर-कमान जंगली जनावर पर चलावऽ हली, अब दू टाँग वाला जनावरो पर चलावे लगली । ... जोर-जुलुम के एगो हद होवऽ हे ।) (अरंबो॰15.21- 22)
308 जोरे (= जौरे; साथ) (हम दादा दन्ने हाथ बढ़ावऽ ही । अब ऊ हमरा जोरे चले लगलन ।; सोमनाथ जी सोंचऽ हथ - अब तो बुढ़ापो आ गेल । नौकरियो से अवकाश प्राप्त कर लेली । अब गाम जाके बसी या कउनो बेटी-दमाद जोरे रह के जिनगी के शेष भाग काट दी ?; महन्थ जी हम्मर बाबू जी के परम मित्र । सादी-बियाह नञ कइलन हल । सेकरे से तो का, महन्थ जी कहला हलन । ओकील हलन । बाबुए जी जोरे रोज कचहरी जा हलन ।) (अरंबो॰14.16; 54.28; 82.13)
309 झक-झक (सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी । ... हमहूँ तोहरे साथ जइबो । बेला गोदी लेले, दुलारले गुजर नञ । झक-झक साफ कपड़ा के मलिन होवे के पहले भय रहऽ हल ।) (अरंबो॰34.11)
310 झमठगर (बाबू जी के रोपल पौधा सब अब झमठगर गाछ बन चुकल हे । मिटइत परिवार एगो बड़का जंगल में बदल गेल हे । अमदी के जंगल ।) (अरंबो॰79.3)
311 झरक (~ लगना) (अनखा के धूप नानिए के लगऽ हे । सोचे के बात हे । बगइचा में कहीं धूप आउ झरक लगऽ हे !) (अरंबो॰17.21)
312 झरकना (= जलना; झुलसना) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?") (अरंबो॰53.4)
313 झर-झर (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.22)
314 झाँपना (= झापना; ढँकना) (पिअरिया !! अगे पिअरिया !! ... ऊँह, मत बोललँऽ । देख, थोड़हीं दूर तो आउ रहलो हे । जिरी देर आउ बरदास कर । नक्का झाँपले रहिहँऽ ! नक्का से खुनमा अभियो तालुक बहिए रहलो हे ?) (अरंबो॰99.18)
315 झाड़ना-झूड़ना (एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली । फुलपइंट छोड़ के, ई धोती-कुरता के बाना ? ... अपने के तो जाने चल जाइत होत । रामनाथ जी के झाड़झूड़ के उठावल गेल हल ।) (अरंबो॰43.26)
316 झापना (= ढँकना) (रमबिलसवा एक हाँथ से घोड़िया के लगाम धइले हल । दोसर हाथ से ऊ अप्पन घरावली के अँखिया आउ मूहाँ ओकरे अँचरवा से झाप देलक ।) (अरंबो॰99.16)
317 झुकना (= ऊँघना) (साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल । कभी इतिहास, कभी भूगोल, कभी अंगरेजी जोर-जोर से बोल के पढ़ना जरूरी हल । तनिक्को से जे रुकली कि नाना के टेर सुनाय पड़ऽ हल । - शेरसिंह, बोली नञ सुन रहलिअउ हे । झुकऽ हीं का रे ?) (अरंबो॰49.22)
318 झुक्कल (= झुका हुआ) (रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल । एकबैग घोड़िया बमकल आउ एगो झुक्कल पेड़ के डाली से टकरा गेल ।) (अरंबो॰102.16)
319 झुट्ठे-झुट्ठे (नानी झुट्ठे-झुट्ठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला दे हल । नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही ।) (अरंबो॰17.16)
320 झुट्ठे-मुट्ठे (एतनिएँ में ठप-ठप, ठप-ठप केबाड़ी पर अँगुरी बन उट्ठल । बिलसवा खड़कंत हो गेल । दोआत, कलम, कागज सब अप्पन-अप्पन जगह पर चल गेल । झुट्ठे-मुट्ठे उँह-आँह करइत बिलसवा केबाड़ी खोललक ।) (अरंबो॰97.27)
321 झुट्ठो (= व्यर्थ में) (- बाबू जी तो झुट्ठो झाँव-झाँव करइत रहऽ हथ । - पुतोह के ई बात बाबू जी के कानो में पड़ल होत । बकझक करना कम कर देलन हे । लगऽ हे, जइसे छोड़िए देलन हे ।) (अरंबो॰82.1)
322 झौंसाना (मुचकुन जी चाह के कप उठइलन हल । हाकिम सौ के एगो नोट अप्पन कोट के जेभी से निकास के मुचकुन जी दन्ने बढ़उलन हल । - बिलास जी का काम आपके सिफारिश से तुरंत हो जाएगा । यह आपका हिस्सा । - जी ! - गरम चाह से मुचकुन जी के सौंसे कंठ झौंसा गेल हल ।) (अरंबो॰37.22)
323 टटाना (= अ॰क्रि॰ मांसपेशियों में दर्द होना; निराहार अथवा कम खाकर रहना; स॰क्रि॰ मांसपेशियों में दर्द देना; निराहार अथवा कम खिलाकर रखना) (भुखले ~) (ओत्ते-ओत्ते रात तो चऊँके-बरतन में बीत जा हे । ओकरो पर पाँड़े के फरमैस । कभी ई कर, तो कभी ऊ कर ! मिजाज तो कुँढ़ जा हे । जो पाँड़े के काम नञ कइलियो तो रातो भर कधियो भुखले टटा देलको ।) (अरंबो॰97.16)
324 टपका-टोइया (एसों आम आम कम मंजरायल । कोनमा आम में एक्को मंजर देखाइयो नञ पड़े । अंधड़-बतास सब झेल के मंजर, अमौरी बनल आउ फिन अमौरी, आम । टपका-टोइया आम कउनो-कउनो गाछ में देखाइयो पड़े लगल । मगर कोनमा आम में एक्को नञ ।) (अरंबो॰20.11)
325 टर-ट्यूशन (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।; विज्ञान के ग्रेजुएट हलन । टर-ट्यूशन में भिड़ गेलन । मेहनती अमदी । अच्छे कमाय-कजाय लगलन हल ।) (अरंबो॰69.7-8; 86.15)
326 टरे (= ट्रे; tray) (डागडर साहेब एकदम्मे चुप्पी नाधले हलन । - बाबू, तोरा हम एगो टरे चाह के कप-कस्तरी रक्खे ला बना देबो । खाली तूँ हम्मर पिअरिया के जान बचा दऽ । - चुपचाप अइसहीं पड़े रहो । - हमरा का भेल जे पड़ल रहूँ ? - तुम्हारा हाथ-पैर टूट गया है ।) (अरंबो॰102.20)
327 टरेनिंग (= टरेनी; ट्रेनिंग) (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।) (अरंबो॰69.8)
328 टानना (= खींचना) (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.3)
329 टिकस (= टिकट) (मटर में बइठल, भोला बाबू के आद पड़ल - एक बेर पटना से पुरैनियाँ जा रहलन हल । पटना से बरौनिएँ तक के टिकस लेलन हल । बरौनी में गाड़ी बदल के छोटकी लैन के गाड़ी पर बैठलन ।; जइसीं टिकस कटावे वास्ते उतरे लगलन, दुन्नु छउँड़ा गोड़े छान लेलक हल । जाइए नञ दे हल । चिचियाए लगऽ हल । गाड़ियो खुल गेल आउ टिकसो नञ कटा सकलन हल ।) (अरंबो॰88.6, 9, 10)
330 टिपटिपवा (= पिस्तौल; रिवॉल्वर) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?) (अरंबो॰42.9)
331 टिल्हा (= टीला; ऊँची जमीन) (गाँव के अप्पन एगो राजनीति होवऽ हे । टिल्हा जो ढह गेल तो तुलना में दोसरो भाग ऊँच्चा देखाय पड़े लगल । बस ! ... सैद लोग के एहू आशा हो गेल हल कि सोमनाथ अप्पन खेत-पथार बेचतन ।; समाज के विषमता के खाइ कइसे पाटल जाय ? ढेर ऊँचा टिल्हा के थोड़े ढाहे के चाही । गबड़ो तनी भराय के चाही । ... मगर ई काम कइसे होयत ?) (अरंबो॰54.6; 58.5)
332 टिसटिसी (= टीस) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल ।) (अरंबो॰69.26)
333 टीपन (= जन्मकुंडली) (बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?) (अरंबो॰79.14)
334 टीसन (= स्टेशन) (साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।) (अरंबो॰42.17)
335 टुटलाही (= टूटी हुई) (अब तो सोमनाथ जी अकेलुआ रह गेलन हल । सोमनाथ जी के होमियोपैथी के बेस अध्ययन हे । ऊ एगो टुटलाही अलमारी के ठीक करउलन । शहर से दवाय-बीरो मँगउलन, अउ इलाज शुरू करलन ।) (अरंबो॰56.13)
336 टुट्टल (= टूटा) (नानी मरल, नाता टुट्टल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?) (अरंबो॰19.19, 21)
337 टूअर-टापर (~ बच्चा) (रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे । हाय रे हाय ! बचवा के मारिए देलक । अरे ! टूअर-टापर बचवा पर हत्था उठयते गलियो नञ गेलउ रे ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।) (अरंबो॰92.23; 94.2)
338 टेढ़-मेढ़ (= टेढ़ा-मेढ़ा) (टेढ़-मेढ़ पक्का रास्ता से जीप जा रहल हल । चारों तरफ जंगले-जंगल । अँधार होल जा रहल हल ।; असमान चौखुट्टा से टेढ़-मेढ़ होवे लगल । असमान बहे लगल, दूध नियर !) (अरंबो॰11.17; 17.10)
339 टेरना (= ऊँचे स्वर में गाना; गुहराना, पुकारना; अनुनय-विनय करना; अटकल या अनुमान लगाना) (ढेना के पुलिस वाला पकड़ के ले गेल हल । कुच्छो बेचारा जानवो नञ करऽ हल । कोय कसूर रहे तब न । ओक्कर बस एक्के गो कसूर हल । ऊ एगो जुआन मेहरारू के मरद हल । बस । ... ढेना केकरो टेरवो नञ करऽ हल । ... हमनी अमदी नञ ही ? हमनी के इज्जत आउ लाज नञ हे ?) (अरंबो॰15.27)
340 टोइया (~ मारना = टो-टा कर चेक करना) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?) (अरंबो॰42.8)
341 टोना (हाकिम, हमरा अच्छा पढ़े-लिखे नञ आवऽ हे । अंगरेजी तो एकदम्मे नञ । हिन्दी हरूफ टो-टो के पढ़ ले ही । कयसूँ अप्पन सही बना सकऽ ही । बस !) (अरंबो॰37.6)
342 ठकमकाना (बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।) (अरंबो॰36.23)
343 ठामा (= जगह, स्थान) (भइया के दरबार लगल हे । हमनी पाँचो भाय एके ठामा नञ जाने कत्ते दिन पर जमा होली हे । बूढ़-पुरान हमनी पाँचो भाय के पांडव कहऽ हथ ।; हमनी पाँचो भाय पाँच जगह रहे लगली । सबके हँड़िया अलग-अलग । कधियो बिआह-सादी में एक्के ठामा जमा होली ।) (अरंबो॰64.11; 67.16)
344 ठिसुआना (= लजाना; संकोच करना) (धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । . .. आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल । रामधनी खिसियायल, ठिसुआयल ओज्जा से हट गेल ।) (अरंबो॰92.27)
345 ठुमुर-ठुमुर (= बहुत धीरे-धीरे) (घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰100.1)
346 डरेस (= ड्रेस) (आझ समारोह हे । ठीके में पटना, दिल्ली के लोग अइलन हे । सूट-बूट में हाकिम सब घुर रहलन हे । बड़का मंच बनल हे । आदिवासी सब उत्सव के डरेस पहिरले हथ । ढोल-मांजर बज रहल हे । सादा खादी के डरेस में एगो अमदी एगो जीप से उतर के मंच पर अइलन ।) (अरंबो॰13.2, 3)
347 डाँग (= मोटी पुष्ट लाठी, लौर, लउर) (एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।) (अरंबो॰43.16)
348 डाँटना-दबारना (- अप्पन भविष्य ला तो कुच्छो रखऽ । - अप्पन उपदेश अपने पास रखऽ । उनखा डाँट-दबार के हम चुप रखऽ हली ।) (अरंबो॰66.15)
349 डाँड़-टिल्हा (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰94.19)
350 डाँसा (= डाँस; मच्छड़; मच्छर) (बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल । एगो मुसकी विमल जी के चेहरा पर उभरल । एगो डाँसा टस से माथा पर डँसलक । एहू हमरा सुत्ते नञ देत ।) (अरंबो॰70.1)
351 डाकपीन (= डाकिया) (नींद आवे के नाम नञ ले । आउ नींद जे आयल तो रातों भर बउड़यते रहल । ... डाकपीन ओक्कर चिट्ठी लेले ओक्कर घर गेल हे । बाबा के ऊ कस-कस के पुकारले हे । बाबा घर पर हइए नञ हथ । कहाँ चल जा हथ ?; रातो भर डाकपीन, चिट्ठी आउ बाबा ओक्कर मगज में घुरइत रहल । लइका के सोतंत्र मन गुलामी के सिकड़ी से मुक्ति पावे ला छटपटा रहल हल ।) (अरंबो॰98.22, 25)
352 डागडर (= डॉक्टर) (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल । घर से नाता तोड़ लेलक । ओक्कर पढ़ाय-लिखाय के सिलसिलो छिन्न-भिन्न हो गेल हल । लइका के इंजीयर, डागडर बनावे के सपना चूर-चूर हो गेल ।; विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।) (अरंबो॰53.26; 69.14)
353 डागडरी (= डॉक्टर का काम) (सोमनाथ जी के समय डागडरी आउ मस्टरी में कट रहल हे ।) (अरंबो॰59.16)
354 डाढ़ी-मोछ (= दाढ़ी-मूँछ) (मामू के माथा मूड़ल हल । डाढ़ी-मोछ साफ । नाना के चंदला माथा आउ चिक्कन भे गेल हे । नाना के मुँह उदास लगऽ हे ।) (अरंबो॰19.22)
355 डाल-डहुँगी (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; वंश-वृक्ष बड़का गो हो गेल । ओक्कर बड़का डाल-डहुँगी फइलल हे । अपने भार से चरमरा के ई टूटे चाहऽ हे ।) (अरंबो॰18.3; 67.20)
356 डुब्बल (= डूबा हुआ) (हीयाँ के लोग निरक्षर हथ । अंधकार में डुब्बल हथ । अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में हीयाँ के लोग के लावे के हे ।) (अरंबो॰13.11)
357 डेंगाना (= पीटना; पीटकर या झटका देकर फसल का अन्न निकालना) (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।) (अरंबो॰41.13)
358 डेराना (= अ॰क्रि॰ डरना; स॰क्रि॰ डराना) (एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे ।) (अरंबो॰31.10)
359 डोम (देखऽ ने, आझ सोहराय हे । सब कोय नाया-नाया कुरता-पइँट पेन्ह-पेन्ह के मेला घुरे गेलन हे । हमरो चले कहऽ हलन । अइसन डोम नीयर मैला पेन्ह के जइतूँ होत ?) (अरंबो॰97.18)
360 ढिल्ली (= ढिल्ला; ढीला) (घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।) (अरंबो॰101.1)
361 ढेला-ढुक्कर (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली । मगर जमायत होइतहीं हम अकेल्ला पड़ जा हली । किनारे-किनारे हम ढेला-ढुक्कर के जुत्ता से सूट मारइत, मनुआयल चलइत रहऽ हली ।) (अरंबो॰83.14)
362 तइयो (= तो भी) (नानी झुट्ठे-झुट्ठे कहके बिना चिनिए वाला दूध पिला दे हल । नानी हीं माय साथे जो अइवो करऽ ही, तइयो ओक्कर बात नञ मानऽ ही ।; पाठक जी देशभक्ति, शिक्षा आउ शिक्षण पर भासन देइत रहऽ हथ । हाथ-पैर भाँजऽ हथ । उनखर बात कोय सुने ला तैयार नञ हे, तइयो ऊ बाज नञ आवऽ हथ ।; घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰17.17; 76.12; 100.1)
363 तखनी (= उस समय, उस क्षण) (तखनी असमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ, अंगने भर के । भइया अंगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।; आझ बहुत्ते बात आद पड़ रहल हे । जिनगी में पहिला दफ्फे मोजफ्फरपुर गेलन हल । कँगरेस के अधिवेशन हल । तखनी जुआन हलन । खादी के धोती आउ गंजी पहिरले । - गान्हीं जी के जय ! जमाहिर लाल जी के जय ! नारा लगउते, हाथ में तिरंगा झंडा लेले गेलन हल ।; गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन ।; हमनी बड़का घर छोड़ के किराया के छोटगर मकान में आ गेली । पूजा-पाठ बन्द । जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; जखनी भोला बाबू लइका हलन, तखनिए से एगो गारी पढ़ऽ हलन । बेलाँ ओक्कर माने समझले । बड़का, का छोटा, केकरो से जब मन रंज होवऽ हलन, तब कह दे हलन - सूअर !; धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।) (अरंबो॰17.2; 35.2; 55.15; 78.29; 88.23; 92.26)
364 तनिक्को (= थोड़ा-सा भी; जरा-सा भी) (जे तनिक्को नञ जानऽ हे, ओकरे चुने पड़त । मंत्री जी के सिफारिश ... जादेतर अइसने-अइसने लोग योग्य घोषित कइल जइतन, जे भ्रष् तरीका अपनउलन हे ।) (अरंबो॰25.1)
365 तनी (= थोड़ा-सा, जरा-सा) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?; तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।) (अरंबो॰42.8, 13)
366 तनी-मनी (= थोड़ा-बहुत) (रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही । ई महक से हम्मर नाक फटऽ हे । मगर ठाकुर टुड्डू दा के मन रखे के हे । अइसे इनखे साथ एक-दू बेर तनी-मनी लेली हे ।; सब के पता रहऽ हे कि हम्मर लोग चउतरफी हथियारबंद रहऽ हथ । सरकारी कर्मचारी जे वोट लेवे आवऽ हथ, तनी-मनी हीला-हवाला के बाद, परिस्थिति समझ के, दसखत कर-कर के बैलोट पेपर दनादन बढ़इले चल जा हथ ।; माय के मउअत के बाद बाबू जी एकदम अकेल्ला पड़ गेलन हल । अइसे तो घर में हम्मर छोटा भाय, ओक्कर कनियाय आउ एगो-दुग्गो बाल-बुतरू सब हथ । पोता-पोती से उनखर मन तनी-मनी जरूरे बहल जा होत ।) (अरंबो॰14.24; 24.6; 81.15)
367 तमाकू (= तम्बाकू) (भिनसरवे खटिया त्याग देवे के उनखर पुरान आदत हे । कउनो तमाकू चढ़ा के दे देलको तो ठीक, नञ तो टिकिया ताखा से उतार के अपने सब कइलन । थोड़े देर गुड़-गाड़ कइलन आउ फिन हाथ-मुँह धो के, छड़ी लेले पहाड़ी दन्ने चल देलन ।; मने-मने कहियो गोसा जा हली । आझ बाबू जो तमाकू चढ़ा के माँगतन तो खुब्बे देर से देम, चाहे ऊ केत्ते ने गोसाथ !) (अरंबो॰82.29; 83.18)
368 तर-उपर (= नीचे-ऊपर) (दरोगा जी, जिरी शेरसिंह से अंगरेजी पूछ के देखहू । आझकल कुछ पढ़ऽ-लिखऽ हे का नञ ? दरोगाजी मोछ अइँठइत दबंग बोली में पुछलथिन हल - शेरसिंह, हमारे सवाल का जवाब दोगे ? का पुछतन, का नञ, मन तर-उपर होवइत रहऽ हल । - हाऊ ए टाइगर इज किल्ड ? - इट इज किल्ड विथ ए गन । - वाह ! वाह !! ... खूब ।) (अरंबो॰48.17)
369 तरबा (= तलवा) (~ के गोस्सा / लहर कपार पर चढ़ना) (डागडरो साहेब कम चलाक थोड़हीं हथ ! ऊ तुरते भाँप जइता कि का बात हे । लखतहीं तो उनखर तरबा के गोस्सा, कपार पर चढ़ जायत । ऊ बिगड़ के डावटे लगतन - नसेबाज ! बदमास !! पीकर अपने पत्नी को पीटता है आउ ले आया एहाँ । यह कोई तेरे बाप का अस्पताल है ?) (अरंबो॰100.16)
370 तलब (= वेतन, तनख्वाह; चाह, इच्छा; जरूरत; मांग; बुलाहट) (नौकरी के आखरी बखत में भइया के पैंतालीस सौ, छियालीस सौ रूपइया तलब भेंटा हल । चार-पाँच सौ अपना लगी रख के सब पइसा ऊ पहलमाने के हाँथ में दे दे हलन । काहे ला ? - हैसियत बढ़ावे ला ।) (अरंबो॰67.10)
371 तहिया (= उस दिन; उस समय) (नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन । नाना के रोब-दाब हल । गाम के बड़गो किसान रहे गुने दरोगा, बी.डी.ओ., सब हाकिम तसरीफ लावऽ हलन । उनखर खातिरदारियो खुब्बे होवऽ हल । तहिया के तनी-तनी ठो घटना आँख तरे घुरे लगल ।) (अरंबो॰48.11)
372 तातल (= गरम) (- "बाबूजी, 'अनुभव' माने ?" लम्फ के रोसनी में एगो लइका हिन्दी के किताब पढ़ रहल हे । तनी गो लइका के 'अनुभव' के माने बताना हे । बाप ओंहीं पर बइठल हथ । बाप अप्पन लइका के हाथ पकड़ के लम्फ के गरम सीसा में तनी सटा दे हथ । - "बाप रे !" लइका चिल्लायल हल । छनका लगल हल । - "तातल लम्फ के सीसा में हाथ सटावे से हाथ झरकऽ हे, ई अनुभव तोरा होलो ?") (अरंबो॰53.3)
373 तालुक (= तलुक; तलक, तक) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल । अभियो तालुक सचाय बचऽ हे । हमरा नीयर दलिद्दर, अगियानी अमदी के भी लोग इयाद करऽ हथ ।; हम्मर छोटका लइका धउगल आवऽ हे - बाबू जी, बाबा कचहरी से अभियो तालुक नञ अइलन हे । ना अइतन का ? - आवऽ होथुन बेटा । लइका धउग के चल जाहे ।; बिलसवा एगो दीया के बत्ती उसक-उलक आउ दोसरो-दोसर दीया के बच्चल-खुच्चल तेल ओकरे में ढार देलक, जेकरा में ई जादे देर तालुक जरे ।) (अरंबो॰36.5; 83.4; 95.5)
374 तितकी (टेबुल पर अगरबत्ती के राख भरक के गिरल । अगरबत्ती तितकी नियर लाल-लाल अन्धार कोठरी में आउ साफ देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰70.18)
375 तिन-चार (= तीन-चार) (घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰100.1)
376 तिरछी (~ काटना) (दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल । हाकिम कहलन - सैद, ई केन्द्र चल रहल हे । जीप से उतर के हमनी पइदल कहीं झुक के तो कहीं तिरछी काट के ललटेन दन्ने बढ़ली । हाँ, सच्चो एगो वयस्क शिक्षा के केन्द्र चल रहल हल ।) (अरंबो॰12.3)
377 तिरछे कोना (~ काटना) (फिन अवाज दन्ने, तिरछे कोना काटले, चल देलन हल । लइका पाँच मिनिट के दूरी पर हल । लइका के नजीक पहुँचियो गेलन हल ।) (अरंबो॰41.19)
378 तिलक-दहेज (बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?) (अरंबो॰79.15)
379 तीन-तरोक्का (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.6)
380 तुरतमें (= तुरन्त ही) (मंत्री जी के चेहरा पर एक मिनिट ला सिकन उभरल हल । मगर तुरतमें ऊ सामान्य हो गेलन हल ।; मंत्री जी अप्पन आदेशपाल के एगो अमदी के बोलावे के आदेश देलन । तुरतमें एगो अमदी आयल हल । प्रोफेसर रामदीन अचम्भा में पड़ गेलन हल । - अरे ! ई तो मिन्टू हे । पहाड़पुर गाम के उनखर सहपाठी, पारस जी के बेटा, मिन्टू ।; बड़का भइया ठीक तो हथ ? - हाँ, अभी तो ठीके हथ । उनखा बदहोसी के दौरा पड़े लगल हे । ... अच्छा पहिले हाथ-पैर धो ले । नस्ता कर ले । तुरतमें उनखा नींद पड़ल हे ।) (अरंबो॰29.10, 18; 63.10)
381 तेत्ते (= उतना) (जेत्ते ... ~) (का बस, का आउटो, सब जगह मिन्टुए के मारल जाय के चरचा हल । ... अच्छा होल, ऊ मारल गेल । केकरो बहू-बेटी के इज्जत ई सहर में सुरक्षित नञ हल । ... ओक्कर गिरोह रंगदारी टैक्स बसूलऽ हल । ... केकरो गाड़ी, तो केकरो हीरो होंडा छिना गेल । ... बैक डकैती के ऊ सरगना हल । ... जेत्ते मुँह तेत्ते बात ।) (अरंबो॰28.14)
382 तेलही (= तेल वाला; तेल में बना) (ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल ।) (अरंबो॰93.3)
383 तेसर (= तीसरा) (एगो दोसरो घटना उनका आद पड़ऽ हे । रामदीन जी आउ पारस जी बइठका पर बइठल हलन । एगो तेसर अमदी परगट होयल ।) (अरंबो॰31.22)
384 तेसरका (= तीसरा; संझला) (बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।) (अरंबो॰79.8)
385 थम्हाना (= सौंपना, पकड़ाना, धराना) (सब गम-बुझ के रामधनी सौदा कइलक आउ घर लौट गेल । बजार से अइते देख के धनुआँ हुलसइते बाप के भिरी गेल । रामधनी अप्पन हाथ के फुचकारी ओक्कर हाथ में थम्हा देलक । धनुआँ जे टीन के फुचकारी देखलक, से जर के खाक हो गेल ।) (अरंबो॰92.16)
386 थाम्हना (बच्चा डर से थर-थर काँप रहल हल । कँपस रहल हल । रामनाथ जी बोललन हल - हमरा पर जो तनिक्को विश्वास हो तो ई तूफान हम थाम्हेम के कोरसिस करी । ... पाँच मिनिट के मोहलत चाहऽ ही ।) (अरंबो॰44.25)
387 थिराना (= स्थिर होना, रुकना, ठहरना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰72.23)
388 थोड़िक्के (= थोड़े ही) (ठाकुर टुड्डू दा के नजर थोड़िक्के दूर पर खड़ा पुलिस जीप दन्ने उठ जाहे । - दादा, हम पुलिस साथे नञ अयली हे । ई तो रास्ता में भेंटा गेल से जीप पर चढ़ गेली । हम पुलिस के अमदी नञ ही ।; थोड़िक्के देर बाद मंत्री जी के कार दिखाय पड़ल ।; थोड़िक्के देर बाद अध्यक्ष महोदय के बोलावा आयल ।; मम्मा जादे दिन नञ बच सकल । थोड़िक्के दिन के बाद हम्मर मइयो चल देलक ।) (अरंबो॰14.12; 26.3, 7; 78.18)
389 थोड़े-थाक (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली ।; दोसर-दोसर मरीज के देख रहलन हल । मगर हमरा बइठइले हलन । हमरो से बीच-बीच में थोड़े-थाक बतिअउते जा हलन ।) (अरंबो॰15.13; 74.19)
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