अरंबो॰ = "अजब
रंग बोले"
(मगही कहानी संग्रह), कहानीकार – श्री रवीन्द्र कुमार; प्रकाशक - जिज्ञासा प्रकाशन, झेलम अपार्टमेन्ट, राजेन्द्रनगर, पटना: 800 016; प्रथम संस्करण - 2000 ई॰; 103
पृष्ठ । मूल्य – 120/- रुपये ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 754
ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
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विषय-सूची
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पृष्ठ
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0.
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हमरा
ई कहना हे
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5-6
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0.
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हमरो
ई कहना हे
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7-9
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0.
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यथाक्रम
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10-10
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1.
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उज्जर
कौलर
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11-16
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2.
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कोनमा
आम
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17-21
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3.
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व्यवस्था
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22-27
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4.
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अभिभावक
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28-33
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5.
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उपास
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34-39
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6.
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आग
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40-45
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7.
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नो
बज्जी गाड़ी
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46-51
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8.
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खीरी
मोड़
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52-60
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9.
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घर
बड़का गो हो गेल
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61-67
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10.
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कन्धा
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68-72
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11.
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देओतन
के बापसी
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73-80
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12.
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फालतु
अमदी
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81-85
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13.
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सूअर
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86-90
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14.
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पित्तर
के फुचकारी
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91-94
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15.
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मन
के पंछी
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95-98
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16.
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सभ्भे
स्वाहा
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99-103
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ठेठ मगही शब्द ("अ"
से "ख" तक):
1 अँधार (= अंधकार) (टेढ़-मेढ़ पक्का रास्ता से जीप जा रहल हल । चारों तरफ जंगले-जंगल । अँधार होल जा रहल हल ।; अब अँधार सबके एक्के रंग में बदल देलक हल । लाल मट्टी के धरती करिया हो गेल हल ।; कुछ अजगुत हो रहल हे । सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।; तोरा गोलि के मरलको ? - ई कहना मोसकिल हे । अँधार हल । अँधार आउ बढ़ल जा रहल हे । शिक्षा के रोसनी से ई दूर हो सकऽ हे ।) (अरंबो॰11.17, 20; 59.21; 60.14, 16)2 अँधारा (= अँधार, अन्हार; अन्धकार) (बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल । एतने में बिलसवा के धियान खिड़की के बाहर चल गेल । अगल-बगल सगरो अँधारा होल जा रहल हल ।) (अरंबो॰96.27)
3 अंधड़ (= आँधी) (एतने में कस के अंधड़ चले लगल । धूरी से अकास भर गेल । गरदा के मारे कुच्छो ठीक-ठीक सुझहूँ नञ लगल ।) (अरंबो॰99.13)
4 अंधड़-बतास (एसों आम आम कम मंजरायल । कोनमा आम में एक्को मंजर देखाइयो नञ पड़े । अंधड़-बतास सब झेल के मंजर, अमौरी बनल आउ फिन अमौरी, आम ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ ! कत्ते पिआर ह्मर मन में तोरा खातिर हे । देख, एत्ते अंधड़ो-बतास में हम तोरा लगी घर से निकस अयलूँ ।) (अरंबो॰20.10; 100.10)
5 अइँटा (= ईंट) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल ।) (अरंबो॰98.4)
6 अइसन (= ऐसा) (एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन ।) (अरंबो॰82.21)
7 अइसहीं (= अइसीं; इसी तरह) (डागडर साहेब एकदम्मे चुप्पी नाधले हलन । - बाबू, तोरा हम एगो टरे चाह के कप-कस्तरी रक्खे ला बना देबो । खाली तूँ हम्मर पिअरिया के जान बचा दऽ । - चुपचाप अइसहीं पड़े रहो । - हमरा का भेल जे पड़ल रहूँ ? - तुम्हारा हाथ-पैर टूट गया है ।) (अरंबो॰102.17)
8 अइसीं (= अयसीं, अइसहीं; इसी तरह) (लइका डेरा गेल ल । ऊ आँख फाँड़ के ताजक रहल हे । जे एगो घटना हल, ओकरा ला ऊ तइयार नञ हल । सोमनाथ के जिनगी के अनुभव अइसीं होयत रहऽ हल ।; बिलसवा सोंचे लगल - गुरूजी अइसीं चिट्ठी लिखे ला बतइलथिन हल ने ?) (अरंबो॰53.5; 95.20)
9 अकबार (भर ~ ) (हम माय भिरी गेली । आँख अंगुरी से खोले लगली । खुले - बंद हो जाय ! खुले, बंद हो जाय !! ... चुट्टी काटली । माय आँख खोलबे नञ करे । घबड़ा के पुकारे लगली - माय ! ... माय !! ... माय बोले तब ने । नाना भोकार पाड़ के रोबे लगलन । हमरा भर अकबार उठा के दलान दन्ने लेले चल देलन ।) (अरंबो॰19.10)
10 अकेलुआ (= अकेला) (अकेलुआ सोमनाथ जी जब से गाम में रहे लगलन तो उनखा बुझाइल, अब तो केकरो से कोय सम्बन्ध रहिए नञ गेल हे । गाम के बहू-बेटी के देख के कउनो ताना कसे से बाज नञ आवऽ हे । खीखी ! खीखी !! बेसरम नियर हँसऽ हे । बड़ा-छोटा के कउनो लिहाजे नञ ।; अब तो सोमनाथ जी अकेलुआ रह गेलन हल । सोमनाथ जी के होमियोपैथी के बेस अध्ययन हे । ऊ एगो टुटलाही अलमारी के ठीक करउलन । शहर से दवाय-बीरो मँगउलन, अउ इलाज शुरू करलन ।) (अरंबो॰56.5, 12)
11 अकेल्ले (= अकेले) (माय के सब बगइचा दन्ने ले गेलन हल । फिन नद्दी दन्ने । हम सब बात जान गेली हल । एक दिन चुपचाप हम नद्दी अकेल्ले चल गेली । माय कहीं नञ मिलल । लौट के कोनमा आम भिरी गेली । कोय नञ हल । हम रामजी नियर रो-रो के कोनमा आम से पूछे लगली - हम्मर माय केन्ने गेल ?; आझ हमरा भोजन करे के मन नञ हे । हमरा अकेल्ले छोड़ दऽ !) (अरंबो॰19.15; 47.23)
12 अखतियार (= वश, नियंत्रण) (चाहऽ हथ, कुछ सोंचूँ नञ । मगर सब बात उनखर अखतियार के बाहर होल जा रहल हे ।) (अरंबो॰69.20)
13 अखनी (= अभी, इस क्षण) (तीन रूपइया काहे, हम तो तोरा सवा तीनों गो दे देतियो होत, बाकि अखनी हमरा हीं बेसी पइसे नञ हे । नञ तो एत्ते घिघिअयतियो होत नञ । एहू दू रूपइया हम बुतरू के मन रक्खे ला दे रहलियो हे ।; अरे बाप रे ! अखनी तो ऊ अँधारे में पड़ल होत ? आउ घर में के होत ? केत्ते पियारा जीऊ हइ ?) (अरंबो॰92.6; 96.10)
14 अगियानी (= अज्ञानी) ("तोरा के नञ जानऽ हे ? हाकिम, नेता, जे भी जिला में भेटा जा हथ, अपने के हाल-चाल जरूरे पूछऽ हथ ।" मुचकुन जी के मन गरब से भर उठल हल । नञ जाने कइसन भा से गियारी भर आयल हल । अभियो तालुक सचाय बचऽ हे । हमरा नीयर दलिद्दर, अगियानी अमदी के भी लोग इयाद करऽ हथ ।) (अरंबो॰36.5)
15 अगे (~ होय !) (रमबिलसवा अप्पन घरावली दन्ने मूहाँ कर के बोलल - अगे होय ! सुनऽ हीं, डागडर हीरो बाबू बड भलमानस हथिन । जइथीं के साथ ऊ तो पूछे लगतन - क्या है ? कैसे आए हो ?; फिनूँ रमबिलसवा के धिआन पिअरिया दन्ने गेल । - अगे होय ! दरदिया जिरी-मनी कमलउ कि नञ ?) (अरंबो॰99.4; 101.8)
16 अघाना (फिन सुराज होवे के घोसना होल हल । उनखर आँख में नींदे नञ । साफ-सुत्थर कुरता लगइले गाम से कसबा अइलन हल । तिरंगा फहरइलन हल । लोग-बाग के बातचीत सुनके, अघा के गाम लउट अइलन हल ।) (अरंबो॰35.13)
17 अच्छे (= अन्छे, अच्छऽ; अच्छा) (- नञ, हम लेम तो ओइसने, जइसन छोटुआ के हइ । - अच्छे, चुप रह। ला देबउ । / ऊ बुतरूआ फिनूँ लाहरी करे लगल । रामधनी के मिजाज गरम हो गेल - अरे ससुर, कहलिअउ तो, ला देबउ । एत्ते जिद्दी काहे हो जाहँऽ ?; अरे, खरीदे के मन नञ रहो तो दाम पूछल नञ करऽ । दोकनदार के घुड़की सुन के रामधनी सकदम में पड़ गेल । कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ?) (अरंबो॰91.6, 19)
18 अजगुत (= आश्चर्य) (एगो गाँधीवादी नद्दी के धारे पलट देलन हल । हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग का तो चेतना जगावे अइली हल । ई आदिवासी से, निरक्षर से, निर्धन से मिले-जुले से का तो हमनी के चेतना जागत । अजगुत बात ।) (अरंबो॰13.26)
19 अठ-दस (= आठ-दस) (कभी कउनो छुट्टी के दिन अठ-दस अमदी हम्मर दुआरी पर जमा होतन होत । ... बहरसी कोठरी में भर कोठरी अमदी । सब बाबू के दोस । खूब खाना-पीना चलऽ हल ।) (अरंबो॰84.3)
20 अठमी (= अष्टमी तिथि; अठमा; आठवाँ) (तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल ।) (अरंबो॰62.3)
21 अढ़ाय (= अढ़ाई; ढाई) (बाबू जी कचहरी से आ गेलन । अढ़ाय बज रहल हे । भोरउआ कचहरी में देर पहिलहूँ होवऽ हल ।) (अरंबो॰84.11)
22 अता-पता (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल ।) (अरंबो॰25.17)
23 अनखा (= अनोखा) (अनखा के धूप नानिए के लगऽ हे । सोचे के बात हे । बगइचा में कहीं धूप आउ झरक लगऽ हे !) (अरंबो॰17.20)
24 अनचोक्के (= अचानक) (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे । अप्पन घर से जादे ई घर में हम्मर लइकइयाँ कटल । ... अनचोक्के इयाद पड़ल - हम केकरा से मिले जा रहली हे ? लाला भइया के सोअरग सिधारला दू महिन्ना हो गेल । बाबू जी चिट्ठी लिखलन हल ।) (अरंबो॰81.7)
25 अनदेसा (= अंदेसा, अनेसा; आशंका; शंका, सन्देह; चिंता, फिक्र; अमंगल होने का डर) (भइया चालिस पार नञ कर सकलन हल । माय के अनदेसा ठीके हल । माय दहाड़ मार के रो रहल हल ।; एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन । उनखो लगऽ होत, अइसन ने मउअत के मनहूस कार छाया उनखरो छोट परिवार पर न पड़ जाय । मन में अनदेसा उठे लगऽ होत ।) (अरंबो॰71.22; 82.24)
26 अनमन (= हू-बहू) (प्रोफेसरो साहेब के ताव आ गल हल । अप्पन पत्नी के रिक्सा से घर छोड़ के तुरते मंत्री जी के पास पहुँच गेलन हल । मंत्री जी के बड़गो अहाता में कइठो गाड़ी लगल हल । एगो गाड़ी अनमन उनखरे गाड़ी नियर लगऽ हल । मगर ई का, नम्बर प्लेट दोसर हल ।) (अरंबो॰29.5)
27 अनेसा (= अंदेसा; आशंका; शंका, सन्देह; चिंता, फिक्र; अमंगल होने का डर) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली । दू तारीख के भोरे उठतहीं हमरा अभास होल कि बाबू जी सोअरगबासी हो गेलन हे । बइठल रहली, ई इन्तजार में कि बिहार से कउनो न कउनो ई दुखद समाचार सुनावे ला आयत । दिन चढ़इत गेल । अब हमरा लगे लगल कि हम्मर ई अनेसा काल्पनिक हे ।) (अरंबो॰74.13)
28 अनोर (= कोलाहल; चिल्लाहट; शोर-गुल) (भोर होवे के लच्छन परगट होवे लगल । चिरइँ-चुरगुनी के अनोर ब्यापे लगल ।) (अरंबो॰71.27)
29 अन्धार (= अन्हार; अंधकार) (टेबुल पर अगरबत्ती के राख भरक के गिरल । अगरबत्ती तितकी नियर लाल-लाल अन्धार कोठरी में आउ साफ देखाय पड़े लगल ।) (अरंबो॰70.18)
30 अन्हार (= अंधकार) (पारस जी अप्पन लइका, मिन्टू के खेती-गिरहस्ती में लगावे के कोरसिस कइलन हल, पर सब बेअरथ । बिआहो करा देलन । दू-तीन गो बेटीओ पइदा हो गेल हल । पारस जी जानऽ हथ कि दुइए बेटी के घर बसावे में ऊ उजड़ गेलन हल । हीआँ तो तिन-तिन गो पोती के सवाल हे । उनखा अन्हार लगऽ हल ।) (अरंबो॰32.19)
31 अन्हुआना (अब रामधनी के गोस्सा के कोय ठेकाना नञ रहल । दे थप्पड़ दे थप्पड़ धनुआँ के अन्हुआ देलक । धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल ।) (अरंबो॰92.19)
32 अपनहीं (= स्वयं ही; आप ही) (तखनी असमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ, अंगने भर के । भइया अंगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन । रो-कान के जो गाड़ी उनखा से छीनियो ले हली तो गाड़ी गिरे के पहले थल से अपनहीं गिर पड़ऽ हली ।) (अरंबो॰17.4)
33 अपनहूँ (= स्वयं भी, खुद भी; आप भी) (चाहऽ हलन, हम्मर बेटा खूब पढ़-लिख ले । विलायत जाय । ई काम वास्ते पइसो-कौड़ी जुटउले हलन । मगर अनिलबा अइसन संगत में पड़ल, सब बाते बदल गेल । विमल जी अपनहूँ बड़गो डागडर रहतन होत । घर के सहजोग नञ मिलल । टर-ट्यूशन कर के बी.एस.सी. तक पढ़ पयलन । टरेनिंग कर के सरकारी इसकूल में मास्टर हो गेलन ।) (अरंबो॰69.7)
34 अबरी (= इस बार; आइन्दा, भविष्य में) (अच्छा, ई बताउ बच्चा कि घर तों के बरिस पर अइलाँ हे ? - हाँ, अबरी घर ढेर दिन पर अइली हे । - ईसों मंझलो तो रिटायर हो गेलो । गाम आवऽ हउ ? का तो शहर में प्रेस खोललक हे । किताब छापऽ हे । सवाल छापऽ हे ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । बस से उतरतहीं भर राह आँख फाड़ले रहली - सैद जो कौन इयार-दोस भेंटा जाथ ।; बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ ! कत्ते पिआर ह्मर मन में तोरा खातिर हे । देख, एत्ते अंधड़ो-बतास में हम तोरा लगी घर से निकस अयलूँ ।) (अरंबो॰65.4; 81.1; 96.25; 100.8)
35 अभास (= आभास) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली । दू तारीख के भोरे उठतहीं हमरा अभास होल कि बाबू जी सोअरगबासी हो गेलन हे । बइठल रहली, ई इन्तजार में कि बिहार से कउनो न कउनो ई दुखद समाचार सुनावे ला आयत । दिन चढ़इत गेल । अब हमरा लगे लगल कि हम्मर ई अनेसा काल्पनिक हे ।) (अरंबो॰74.10)
36 अभियो (= अभी भी) (सोमनाथ जी पढ़लन हल। सत्ता आउ शक्ति बन्दूक के नाल से आवऽ हे । मगर दुनियाँ में सबसे बड़का ई परयोग तो असफल रहल । पूंजीवाद के जीत हो गेल । मगर सोमनाथ जी अभियो मानऽ हथ कि सच्चाई लाल मटिए हे ।; सोमनाथ जी के आँख में नींद नञ । अभियो रात बाकिए होयत । भुरूकवो नञ उगल हे । चउतरफी सन्नाटा हे ।; मइया अभियो हमरा बुतरूए समझऽ हे ।) (अरंबो॰58.1, 3; 70.8)
37 अमदी (= अदमी; आदमी) (शायद जिनगी भर अमदी अपनहीं के खोज करइत रहऽ हे । अप्पन मट्टी, अप्पन स्वरूप आउ अप्पन मूल प्रकृति के पकड़े के कोशिश ऊ करइत रहऽ हे ।; 1967 से अब तक गया में रहली । गया के निवासी हो गेली । हम्मर पुरनकी कहानी पर नालन्दा जिला के भाषा के परभाव हे । बाद के कहानी पर गया जिला के परभाव हे । गया, जहाना में ओझा लोग 'आदमी' के अमदी बोलऽ हथ ।; हम दुन्नू अमदी मस्टरनी के मुँह देख रहली हल ।) (अरंबो॰7.9; 8.26; 12.13)
38 अलचार (= लाचार) (पाठक जी देशभक्ति, शिक्षा आउ शिक्षण पर भासन देइत रहऽ हथ । हाथ-पैर भाँजऽ हथ । उनखर बात कोय सुने ला तैयार नञ हे, तइयो ऊ बाज नञ आवऽ हथ । काहे ? हमरा लगऽ हे, बेमार अमदी, बूढ़ा अमदी, अलचार के देख के महात्मा बुद्ध भी डिप्रेशन में आ गेलन होत ।) (अरंबो॰76.14)
39 अलचारी (= लाचारी) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल ।) (अरंबो॰69.28)
40 अलोपना (= गुम होना, लुप्त होना) (भइया बोलइत-बोलइत अलोप जा हथ । का सोंचे लगऽ हथ, नञ समझ सकऽ ही । - तोहनी तो जानऽ हँ, बड़कू आउ छोटकू, कोय ठीक से पढ़-लिख नञ सकल । ... हम चाहऽ हली कि चपरासियो वाला कउनो नोकरी ओकरा जे मिल जाइत होत, तो ई माहौल से ओकरा छुटकारा मिल जाइत होत । ... भइया फिनूँ गुम हो गेलन हल ।) (अरंबो॰67.1)
41 अवाज (= आवाज) (एक रात पढ़ाना सुरूए कइलन हल कि - धायँ !! ... ठायँ ! ... ठायँ !! ... कत्ते तरह के अवाज कहीं नजीके से आयल । फिन चीख-पुकार के अवाज ! ... कुछ अजगुत हो रहल हे । सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने ।; टमटमा एगो हिचकोला खइलक आउ पिअरिया गदिया पर से, पँवदनिया पर लोघड़ा गेल । - ई का ? - रमबिलसवा के मुँह से हड़बड़ाल अवाज निकस गेल ।) (अरंबो॰59.19, 20; 101.18)
42 असमान (= आसमान) (तखनी असमान चौखुट्टा हल । दुनियाँ, अंगने भर के । भइया अंगना में लोहा के पहिया के गाड़ी चलावऽ हलन ।; असमान चौखुट्टा से टेढ़-मेढ़ होवे लगल । असमान बहे लगल दूध नियर ।; आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ? - तब तो, उनखा चलता करे के कउनो उपाय सोचे पड़त । / भोला बाबू जइसे असमान से धरती पर गिर पड़लन ।) (अरंबो॰17.2, 10; 88.5)
43 असरा (= आसरा) (दारू पी के ओकरा मनहूस कहलूँ । गारी देलूँ ! मारलूँ ! अइसन ढकेल देलूँ कि भित्ती से टकरा के ओक्कर माथा फुट गेल हल । ओही दिनमा से हम्में ओक्कर जान के गाँहक बनल हलूँ । ओही रतबा ऊ हम्मर असरा में मुँह में एक्को दाना खुद्दियो डालवो नञ कइलक हल ।) (अरंबो॰102.2)
44 असान (= आसान) (खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ? - नञ मुचकुन जी, ई बात नञ हे । असान किस्ती पर करजा मिल जाहे । थोड़े-थोड़े करके पूरा चुकावे पड़ऽ हे ।) (अरंबो॰36.9)
45 असानी (= आसानी) (बड़गो-बड़गो किसान बरसात से निरास होवे पर, अप्पन-अप्पन खेत में कुइयाँ खनउलन । मटर बइठउलन । मुचकुन जी के आद हे, बिलास जी सोमार के उनखा पास अइलन हल । उनखा से कहलन हल - तोहूँ अप्पन खेत में कुइयाँ खना लऽ, मटर बइठा लऽ । पुरान सुराजी अमदी हऽ । तोरा सब असानी से मिल जइतो ।) (अरंबो॰35.28)
46 असामी (= प्रजा; अभियुक्त, कैदी; दूसरे की जमीन पर खेती करने वाला किसान, रैयत) (अपने कउनो कोचिंग इन्स्टीच्यूट से सम्बद्ध तो नञ हऽ ? ई सब मोट-मोट असामी के हिट लिस्ट पर रखऽ हथ ।) (अरंबो॰30.1)
47 अहरा (कुछ अजगुत हो रहल हे । सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।) (अरंबो॰59.21)
48 आगू (= आगे) (घोड़िया आगू बढ़ल जा रहल हल । से ऊ ओकरा रोकलक । अब ओन्ने जाय से कौन दरकार ? रोगिए नञ रहल तो रोग फिर कइसन ?) (अरंबो॰102.10)
49 आझ (= आज) (आझ समारोह हे । ठीके में पटना, दिल्ली के लोग अइलन हे । सूट-बूट में हाकिम सब घुर रहलन हे । बड़का मंच बनल हे । आदिवासी सब उत्सव के डरेस पहिरले हथ । ढोल-मांजर बज रहल हे । सादा खादी के डरेस में एगो अमदी एगो जीप से उतर के मंच पर अइलन ।; बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली ।) (अरंबो॰13.2; 15.12)
50 आझकल (दरोगा जी, जिरी शेरसिंह से अंगरेजी पूछ के देखहू । आझकल कुछ पढ़ऽ-लिखऽ हे का नञ ?) (अरंबो॰48.13)
51 आञ (= आञँ; अयँ) (आञ रे ! सुनलिअउ तू पियाज खाहीं ? किसोरिया कहऽ हलउ कि तूँ अंडो खाय लगलहीं ?) (अरंबो॰70.9)
52 आटी-पाटी (धिरूओ हमरे साथ रहके पढ़लक-लिखलक हल । इंजीयर बनल हल । हाकिम बन के अप्पन मेहरारू जोरे कार पर आटी-पाटी खायत चलऽ हल ।) (अरंबो॰66.22)
53 आद (= याद) (देर आउ बेस कहानी लिखावे के श्रेय श्री बाँकेनन्दन जी के जाहे । … संग्रह प्रकाशन के अवसर पर उनखा हम आद कर रहली हे ।; प्रोफेसर रामदीन जी के आद हे - गाड़ी पार्क करके राजधानी के मार्किट के भीतर गेलन हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता ।; मिन्टू सम्बन्धी सब बात उनका आद पड़ऽ हे । तखनी मिन्टू पाँचे-छौ बरिस के होयथ ।; एगो दोसरो घटना उनका आद पड़ऽ हे । रामदीन जी आउ पारस जी बइठका पर बइठल हलन । एगो तेसर अमदी परगट होयल ।; लइका आउ घोड़ा तनी सोख होवे के चाही हो बिसुन ! मगर तों जो कहलाँ तो हम डाँट देम । ... मिन्टुआ जे ओहीं पर मड़ला रहल हल, सेल कबड्डी पार । ढेर बात मिन्टू सम्बन्धी आज रामदीन जी के आद पड़ रहल हे ।; एक बार के घटना रामदीन जी के आउ आद पड़ऽ हे । ... पारस जी अप्पन जुआन, एकलौता बेटा के गाली-गलौज कर रहलन हल ।; रामनाथ जी भुइयाँ में गिरल छटपटा रहलन हल । .. एगो अवाज - अरे ! ई तो कुटुम ... फिर रामनाथ जी के कुछ आद नञ हे । कइसे सहर पहुँचलन ?) (अरंबो॰8.30; 28.16; 31.5, 21; 32.3, 20; 45.4)
54 आने (= याने, यानी, अर्थात्) (पहलमान, आने हम्मर भाय नन्दू, बईठल भइया के बात सुन रहल हल । हमनी नन्दू के पहलमाने कहइत रहऽ ही ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।) (अरंबो॰65.20; 82.8)
55 आपिस (= वापस; आपस) (ऊ फुट-फुट के रोवे लगल - डागडर बाबू, हमरा छोड़ दऽ । डागडर बाबू, पिअरियो के किरिया करम करे के हे । ... घोड़ियो आपिस करे के हे ! चारे घड़ी ला तो माँग के लयलूँ हल ।) (अरंबो॰103.5)
56 आरू (= और) (जउन खेत में खुँटियारिए-खुँटियारी होय ओकरो बीच से पहिले लड़िकन चलऽ हथ । चलइत-चलइत एगो रस्ता उपजऽ हे । एकरे पगडंडी कहल जा हे । समय के साथ एही पगडंडी राजपथ बन जाहे आरू फेन एकरा पर बड़-बड़ुआ भी चले लगऽ हथ ।) (अरंबो॰5.8)
57 आल-गेल (सोमनाथ जी सोंचइत-सोंचइत गहरा नींद में चल गेलन । ई सब बात आल-गेल हो गेल ।) (अरंबो॰59.14)
58 इंजियरी (एगो बेटा नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । हरेक महीना पाँच सौ रूपइया भेजना जरूरी हे ।) (अरंबो॰73.18)
59 इंजीयर (= इंजीनियर) (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल । घर से नाता तोड़ लेलक । ओक्कर पढ़ाय-लिखाय के सिलसिलो छिन्न-भिन्न हो गेल हल । लइका के इंजीयर, डागडर बनावे के सपना चूर-चूर हो गेल ।; धिरूओ हमरे साथ रहके पढ़लक-लिखलक हल । इंजीयर बनल हल । हाकिम बन के अप्पन मेहरारू जोरे कार पर आटी-पाटी खायत चलऽ हल ।) (अरंबो॰53.26; 66.21)
60 इंजोरिया (रामधनी के आउ नञ रहल गेल । गते-गते चोर नीयर ऊ अप्पन माय के खटिया भिरी गेल । धनुआँ सुत्तल हल । गाल पर बहल लोर के सुक्खल धार इंजोरिया में भक-भक लउक रहल हल ।) (अरंबो॰94.4)
61 इनखनी (= इनकन्हीं) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?) (अरंबो॰12.17)
62 इनवरसीटी (= यूनिवर्सिटी) (इसकूल से कौलेज, कौलेज से इनवरसीटी । सोंचऽ हलन, देह तनी आउ साथ दे । पान-छो बरिस कट जाए, बस । फिन तो मउजे-मउज हे ।) (अरंबो॰87.1)
63 इयार-दोस (= यार-दोस्त) (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । बस से उतरतहीं भर राह आँख फाड़ले रहली - सैद जो कौन इयार-दोस भेंटा जाथ ।) (अरंबो॰69.14; 81.3)
64 इसकूल (= इस्कूल; स्कूल) (मिन्टू आज इसकूल में एगो बच्चा के अइसन ठेल देलन कि ओक्कर माथा-कपार फुट गेल । इनखा जे अक्षर ज्ञान होयल तो ओक्कर उपयोग इसकूल के दीवार पर गरिये लिखे में कइलन हे ।) (अरंबो॰31.27, 28)
65 ईसों (=एसों, ई साल; इस वर्ष) (बैजनाथ बाबू {के आम} ई सों सबसे कम मंजरायल हथ । मगर अभियो जो देखल जाय तो इनका से जादे केकरा रब्बी होत ?; ईसों एक्को बूँद-बरखा नञ बरसल हल । किसान आसमान ताकइत रह गेलन आउ धरती के करेजा दरक गेल हल ।; ईसों मंझलो तो रिटायर हो गेलो । गाम आवऽ हउ ? का तो शहर में प्रेस खोललक हे । किताब छापऽ हे । सवाल छापऽ हे ।) (अरंबो॰20.13; 35.23)
66 उँच्चा (= ऊँचा) (जहाँ से सादी-बियाह के बात तोड़ल जा चुकल हल, अनिलवा ओहीं जाके बियाह कर लेलक ? बाप आउ खनदान के मट्टी में मिला देलक ? कउनो उँच्चा उद्देस रहे तो कुछ कहलो जाय ।) (अरंबो॰69.18)
67 उँह-आँह (एतनिएँ में ठप-ठप, ठप-ठप केबाड़ी पर अँगुरी बन उट्ठल । बिलसवा खड़कंत हो गेल । दोआत, कलम, कागज सब अप्पन-अप्पन जगह पर चल गेल । झुट्ठे-मुट्ठे उँह-आँह करइत बिलसवा केबाड़ी खोललक ।) (अरंबो॰97.28)
68 उकटना-पकटना (= उगटना-पुगटना; उलटना-पलटना) (राह में केते ने कोयला के खदान भेंटा हे । कुज्जु में देखऽ हथ, ढेर जमीन उकटल-पकटल पड़ल हे । सौंसे धरती के लोग कोड़-खन के रख देलन हे । लगऽ हे जैसे सूअर के बखोर हे । ई सब करतूत अमदिए के । कातो धरती से उपयोगी चीज निकासऽ हथ ।; कूड़ा-कचरा आउ उकट-पकट के रख दे हल । अब तो घिनामन नियर ढेर बचल हे । उकटल-पुकटल गेंदौड़ा ।) (अरंबो॰86.4-5; 88.3)
69 उकटना-पुकटना (उपयोगी चीज सब छाँट के जे बचल, से होल कूड़ा-कचरा । अमदी ओकरा फेंक देलन । अप्पन थोंथना गड़उले सूअर ओकरा उकट-पुकट रहल हे ।; अब तो घिनामन नियर ढेर बचल हे । उकटल-पुकटल गेंदौड़ा ।; सरीर के सब ऊर्जा उपयोग में लावल जा चुकल हल । सरीर के नाम पर खाली ठठरिए बचल हे । गेदौड़ा नियर उकटल-पुकटल सरीर ।) (अरंबो॰89.1, 4; 90.8)
70 उघरना (= खुलना, प्रकट होना, दिखाई देना) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।; ई उघरल सच हे कि बुतरू ला जइसे भोजन में माय के दूध जरूरी हे, ओयसहीं वयस्क ला शिक्षा ।) (अरंबो॰11.9, 12)
71 उज्जर (= उज्ज्वल, उजला, सफेद) (पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ । चौड़ा गट्टा से मास के परत काफी उतर चुकल हे । लमछड़ शरीर । उज्जर बाल । करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे ।) (अरंबो॰68.4)
72 उतरबारी (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; दू बच्छिर पहिले एगो खत लिखलन हल - तोर जुगेसर चच्चा चल देलन । ... जुगेसर चचा के घर ठीक हम्मर घर के सटले उतरबारी घर हल ।) (अरंबो॰18.2; 82.19)
73 उतरबारी-पुरबारी (हम टमटम भिरी खड़ा हली । आधा बगैचा जोतल हल । गाछ-बिरीछ कब कट गेल, कहना मोसकिल हे । खाली एक्के गो बड़का आम के पेड़ कट्टल पड़ल हे, उतरबारी-पुरबारी कोनमा आम वाला पेड़, कोनमा आम ।) (अरंबो॰20.26)
74 उद्देस (= उद्देश्य) (जहाँ से सादी-बियाह के बात तोड़ल जा चुकल हल, अनिलवा ओहीं जाके बियाह कर लेलक ? बाप आउ खनदान के मट्टी में मिला देलक ? कउनो उँच्चा उद्देस रहे तो कुछ कहलो जाय ।) (अरंबो॰69.18)
75 उनखर (= उनकर; उनका) (अनुशासन के कड़ाय से पालनकरे, करावे वाला अमदी ऊ हलन । मगर अप्पन घर के हिसाब मेम ऊ फेल कर गेलन हल । लइका बहक गेल हल । तरह-तरह के शिकायत उनखरो कान में आवे लगल हल ।) (अरंबो॰53.19)
76 उपछना (कधियो मछरी मारे ला जगह ढूँढ़ली । पानी उपछली आउ मछरी पकड़ली ।) (अरंबो॰62.21)
77 उपास (= उपवास) (- भइया खा लऽ ! ... आँख उठा के देखऽ हथ, बुचकुनमा खड़ी हे । कँपसल बोली से मिनती कर रहल हे । - हम्मर तीन रोज के उपास । ... सुन लेलऽ ?) (अरंबो॰39.9)
78 उपाह (= उपाय) (काहे नञ मर जाऊँ ? चौबीस हजार रूपइया ग्रुप इन्स्योरेन्स के हम्मर परिवार के तो भेंटा जायत । फिनो पेंशन आउ जी.पी.एफ. आउ ग्रेचुटी के रुपईया । बेटी के बियाह, बाल-बच्चा के पढ़ाय पूरा करे के बस एक्के गो उपाह हे - हम्मर मिरतु आने मुकती !; - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ? - तब तो, उनखा चलता करे के कउनो उपाय सोचे पड़त । / भोला बाबू जइसे असमान से धरती पर गिर पड़लन । … एक्को मिनिट लगी उनखा छोड़े ला दुन्नु छउँड़ा तइयारे नञ होवऽ हल । ओही दुन्नु में से एगो छउँड़ा कातो हमरा चलता करे के उपाह सोंचत ?) (अरंबो॰74.5; 88.12)
79 उमरगर (रात में एक घंटा ऊ अनपढ़ के अक्षर-ज्ञान देवे के बीड़ा उठयलन । का उमरगर, का बच्चा, सब के ई अप्पन बइठका पर जमा कइलन । अक्षर-ज्ञान आउ पढ़ाय के महत्व पर प्रकाश डाललन ।) (अरंबो॰56.18)
80 उमिर (= उमर, उम्र) (जेत्ते मुँह, ओत्ते बात । मुचकुन जी केकरा का कहता ? केक्कर केक्कर मुँह पकड़ले चलता । साठ बरिस उमिर पार कर चुकलन हे । सरीरो धीरे-धीरे जवाब देवे लगल हे ।; बाबू जी के अब कचहरी जाय के मन नञ करऽ हे । ओकालतखाना में उनखर उमिर के सैदे ओकील-मोखतार जी बच रहलन हे । केकरा से बोलतन-चालतन ?; गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।) (अरंबो॰34.4; 82.15; 95.13)
81 उरेहना (एकरे पगडंडी कहल जा हे । समय के साथ एही पगडंडी राजपथ बन जाहे आरू फेन एकरा पर बड़-बड़ुआ भी चले लगऽ हथ । रवीन्द्र भाय आज से पैंतालिस साल पहिले अइसने पगडंडी उरेहलन हल जे आज राजपथ बन गेल हे । मगही के विकास के जतरा में रवीन्द्र भाय के बड़ी काम कइल हल ।) (अरंबो॰5.9)
82 उसकाना (= दीपक की बत्ती को ऊपर उठाना, लौ तेज करना; उत्तेजित करना) (दीयवा मिंझाइल जा रहल हल । से बिलसवा ओकर बत्ती उसका देलक । दीया में तेल तो भरले हल, खाली बतिए जिरी जर गेल हल ।; बतिया फिनूँ मद्धिम होल जा रहल हल । बिलसवा ओक्कर बत्ती अबरी जादे उसका देलक । दीया के बतिया मटमटायल आउ तेज होके लहके लगल ।) (अरंबो॰96.13, 26)
83 उसाहना (= थारी, टोकरी आदि कोर से ऊपर तक पूरा भरना; प्रबंध या जुगाड़ करना; काम के लिए मुहैया करना; किसी पर आघात करने हेतु हथियार आदि उठाना) (सरजुग सिंह अप्पन नौकर भेज के घर-दुआर साफ करवा देथ । भात, दाल, तरकारी, दही, अँचार, भर थरिया उसाह के उनखा भोजन ला भेजवा देथ ।) (अरंबो॰54.4)
84 ऊँच्चा (= ऊँचा) (गाँव के अप्पन एगो राजनीति होवऽ हे । टिल्हा जो ढह गेल तो तुलना में दोसरो भाग ऊँच्चा देखाय पड़े लगल । बस ! ... सैद लोग के एहू आशा हो गेल हल कि सोमनाथ अप्पन खेत-पथार बेचतन ।) (अरंबो॰54.7)
85 एकदम्मे (= बिलकुल; बिलकुल ही) (हाकिम, हमरा अच्छा पढ़े-लिखे नञ आवऽ हे । अंगरेजी तो एकदम्मे नञ । हिन्दी हरूफ टो-टो के पढ़ ले ही । कयसूँ अप्पन सही बना सकऽ ही । बस !; घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।) (अरंबो॰37.5; 101.1)
86 एकबैक (= एकबैग; एक-ब-एक) (एकबैक कड़कड़ायल अवाज उनखर मुँह से निकसल हल - रूक जाओ हत्यारो ! रूक जाओ !! ... आग कैसे लगी, मैं बताता हूँ । - अरे ! ई सरबा रंगरेजी बोलऽ हउ । दू डाँग देहीं, तब एकरो बात सुनल जाइत ई अदालत में ।; - आइ से, यू गेट आउट ! ... एगो बम के धमाका । ... एकबैक सन्नाटा छा गेल । शेरसिंह अप्पन कोठरी में पड़ल हथ । सब लोग जा चुकलन हे ।) (अरंबो॰43.14; 47.19)
87 एकबैग (= एकाएक, अचानक) (एकबैग रोबा-कन्नी मच गेल । गीत-नाध सब रुक गेल । मौसी हमरा गोद में लेके रोबे लगल ! माय मर गेलौ ।; एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।; "घबराइए नहीं । अभी जो मिला, उसमें से आपका हिस्सा, फिर जब ऐसा केस लाइएगा तो ... हाकिम मुसुक के कहलन हल ।" - "जीऽ ... ?" एकबैग सब बात मुचकुन जी के समझ में आ गेल हल । मुचकुन जी कुरसी छोड़ के कमरा से बाहर ।; हम्मर संझला चच्चा एकदमें अंगरेज नियर गोरनार हलन । कसरत करऽ हलन । घोड़ा चढ़ऽ हलन । एकबैग उनखा लकवा मार देलक ।) (अरंबो॰18.28; 21.8; 37.26; 78.20)
88 एकाँ-एकी (= एका-एकी; एक-एक कर के, बारी-बारी से) (चयन समिति के सब सदस्य बइठल हथ । एगो बड़गर कुर्सी पर अध्यक्ष महोदय बइठल हथ । साक्षात्कार चल रहल हे । एकाँ-एकी उम्मीदवार बोलावल जा हथ ।; अच्छा दिवाकर जी, तू अइसने करऽ । अपन मन से एक-एक कर के पाँच सवाल करऽ । एकाँ-एकी उनकर जवाब देइत चल जा ।) (अरंबो॰23.16)
89 एकाक (पैरबीकार जेभी से एगो लिखल कागज निकास के टेबुल पर रख देलन । - टौप करे में कुच्छो कसर रहत तो लइका अपने के सेवा में हाजिर हो जाइत । शायद एकाक गो सवाल लिखहीं के जरूरत पड़े ।) (अरंबो॰47.9)
90 एकान्ती (आझ हमरा भोजन करे के मन नञ हे । हमरा अकेल्ले छोड़ दऽ ! ... आऊ एकान्ती के सफर शुरू हो गेल ।) (अरंबो॰47.24)
91 एज्जा (= यहाँ) (कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ? - एज्जा मोल-जोल नञ होवऽ हे । केउ दोसर दोकान देखऽ ।) (अरंबो॰92.1)
92 एतना (= इतना) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?) (अरंबो॰12.19)
93 एतनिए (= एतने; इतना ही) (ऊर जाके, फाइल पर दस्तखत करके, सीधे हमरा पास भेज दऽ । हम तोर कार्यालय में भेजवा देबो । ... आऊ व्यवस्था से जो तोरा एतनिए नफरत हो तो दोसर उपाय हे, तों त्यागपत्र दे दऽ ।) (अरंबो॰27.3)
94 एतबड़ (= एतना; इतना; इतना बड़ा; बहुत बड़ा) (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । मामू इसारा कइलन आउ एगो अदमी बइठका से बाहर चल गेल । शेर सिंह जब गोस्सा में आवऽ हथ तो अंगरेजिये-हिन्दी बोलऽ हथ । लइका, मेहरारू किनखो ई पूछे के हिम्मत नञ हे कि का भेल । मामू सन्न हो बइठल हथ । एतबड़ गोसबर तो उनखर भगिना कहियो नञ हल ।) (अरंबो॰18.3; 46.9)
95 एत्ते (= इतना; यहीं) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?; टिक-टिक, टिक-टिक ... टिकटिक-टिकटिक ... दुआरी के सिकड़ी कौनो बजा रहल हे । उठके केबाड़ी खोललन । - का हो रामौतार ? हाल-चाल बेस न ? एत्ते रात के ?; देख, अबरी भर तूँ हमरा ला झूठ बोल ले । हम तोरा अब कधियो नञ मारबउ । तोरा जिरी सा डाँटवो नञ करबउ ! कत्ते पिआर ह्मर मन में तोरा खातिर हे । देख, एत्ते अंधड़ो-बतास में हम तोरा लगी घर से निकस अयलूँ ।) (अरंबो॰12.19; 68.16; 100.10)
96 एन्ने-ओन्ने (= इधर-उधर) (कोनमे आम के जड़ तरी सब गिरबा देली चोरवा से । बालुओ सब आउ गुलियो । आँख बंद के बंद । देखता बाबू साहेब कइसे ? थोड़े दूर एन्ने-ओन्ने घुमा-फिरा के उनखा छोड़ देल गेल । अब खोजऽ बबुआ ! नञ तो पँच-पँच चट्टी सब लेबो । ... खोजऽ ... आउ फिन खोज के छूअ केकरो । नञ तो चोर बनतो के ?; एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता । एन्ने-ओन्ने खूब खोजलन हल । मगर गाड़ी जे रहे तब ने मिले ।) (अरंबो॰18.14; 28.18)
97 एसों (= चालू वर्ष में, इस वर्ष) (एसों आम आम कम मंजरायल । कोनमा आम में एक्को मंजर देखाइयो नञ पड़े । अंधड़-बतास सब झेल के मंजर, अमौरी बनल आउ फिन अमौरी, आम ।; बेटी के एम.ए. तक पढ़यली । ... बेटी के उमर बढ़ रहल हे । ओक्कर बियाह एसों करना जरूरी हे । मंगली हे । जल्दी ओक्कर टीपन केकरो से मेले नञ खाहे । मन लायक लइका चाहऽ ही । मगर ओकरा ला तिलक-दहेज दे सकम ?) (अरंबो॰20.9; 79.13)
98 एही (= यही) (हाँ, तोर बउआ कब से गायब हे ? - जी, एही तीन-चार दिन से ।) (अरंबो॰27.6)
99 एहू (= यह भी, ये भी) (मुचकुन जी के एक्के बात के दुख हल - बुचकुनमों पचास बरिस के होत । आझ तक हमरा एहू नञ समझ सकल ? एहू कातो कहले चलऽ हे - भइया गाँधी जी बनऽ हथ ! गाँधी जी वाला हैसियत हन, जे गाँधी जी बनऽ हथ ?; बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन । भित्ती पर बुद्ध भगवान के मुरूत लटकल हल । बूढ़ा अमदी के अलचारी से एहू डरा गेलन हल ।; एगो मुसकी विमल जी के चेहरा पर उभरल । एगो डाँसा टस से माथा पर डँसलक । एहू हमरा सुत्ते नञ देत । खिड़की पर रखल कछुआ छाप अगरबत्ती सुलगा लेलन आउ बिछौना पर पटा गेलन ।) (अरंबो॰38.18; 69.28; 70.1)
100 ओंठगना (हमनी बगइचा में बैठल ही । कोनमा आम तर खटोला पर नाना ओंठगल हथ । गाम के आठ-दस लोग ओहीं पर नाना के घेरले भुइएँ में बइठल हथ । किसिम-किसिम के गप-खिस्सा चल रहल हे ।) (अरंबो॰19.25)
101 ओंहीं (= ओहीं; वहीं) (रामनाथ जी के होस आयल । आँख खोलऽ हथ तो देखऽ हथ उनखर बड़का बेटा, विनय एगो टूल पर बइठल हे । उनखर मेहरारू, बेटी सब ओंहीं पर खड़ी हथ । अस्पताल के कमरा हे ।) (अरंबो॰40.8)
102 ओइसहीं (= वैसे ही) (मिन्टू जइसीं आयल हल, ओइसहीं लउट गेल । दण्डो-नमस्कार नञ कइलक हल ।) (अरंबो॰29.23)
103 ओइसीं (= ओइसहीं; वैसे ही) (रेनु के माय खाँसइत-खाँसइत बेदम हो जा हलन । बलगम के साथ खूनो आ जा हल । डागडर-हकीम करइली हल । कधियो ठीक आउ कधियो ओइसीं ।) (अरंबो॰66.17)
104 ओकील (= वकील) (एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।; एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल !; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस । बड़गो ओकील हलन ।; महन्थ जी हम्मर बाबू जी के परम मित्र । सादी-बियाह नञ कइलन हल । सेकरे से तो का, महन्थ जी कहला हलन । ओकील हलन । बाबुए जी जोरे रोज कचहरी जा हलन ।) (अरंबो॰21.8; 43.22; 82.9, 13)
105 ओकील-मोखतार (बाबू जी के अब कचहरी जाय के मन नञ करऽ हे । ओकालतखाना में उनखर उमिर के सैदे ओकील-मोखतार जी बच रहलन हे । केकरा से बोलतन-चालतन ?) (अरंबो॰82.15)
106 ओक्कर (= ओकर; उसका) (भइया चुप रहलन हल । फिन कहलन हल- रेनुआँ खाली तोरे बेटी हउ ? का, ओक्कर बेटी नञ हइ ? बखत आवे दे । ऊ सब करत ।) (अरंबो॰63.27)
107 ओक्का-बोक्का (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !) (अरंबो॰18.5)
108 ओघड़ाना (नाना के अँगुरी पकड़ले रामधनी पाँड़े के घर तक जाके देख अइली हल । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! गोड़ ने हाथ, ओघड़ायल बुल्लऽ हथ !) (अरंबो॰17.9)
109 ओजह (= वजह, कारण) (खेत में सोना के सुनहरा बालिए देखाय पड़ऽ हल । जहर, जे जमीन-जायदाद के ओजह से उगल हल, देखाय नञ पड़ऽ हल ।) (अरंबो॰65.15)
110 ओज्जा (= वहाँ, उस जगह) (धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । . .. आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल । रामधनी खिसियायल, ठिसुआयल ओज्जा से हट गेल ।) (अरंबो॰92.27)
111 ओत्ते (= उतना; वहीं) (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।; ओत्ते-ओत्ते रात तो चऊँके-बरतन में बीत जा हे । ओकरो पर पाँड़े के फरमैस । कभी ई कर, तो कभी ऊ कर ! मिजाज तो कुँढ़ जा हे ।) (अरंबो॰66.1; 97.14)
112 ओद्दा (= आर्द्र, गीला) (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।) (अरंबो॰94.19)
113 ओन्ने-ओन्ने (= उधर-उधर) (माय के मन खराब रहे लगल । बाबू, माय के नानी हीआँ भेज देलन । साथे-साथे हमरो । जेन्ने-जेन्ने मइया, ओन्ने-ओन्ने बछवा ! बाबा हीं से नानी हीं अइली ।) (अरंबो॰18.22)
114 ओयसहीं (= ओयसीं, ओइसहीं; वैसे ही) (- सर, तूँ पूजा-पाठ करऽ हऽ कि नञ ? - करऽ ही । या देवी सर्वभूतेषु ... - खूब विश्वास के साथ ? - नञ ! बस जइसे भोजन करऽ ही, कयसूँ जीए ला, ओयसहीं ।) (अरंबो॰77.18)
115 ओयसीं (= ओइसहीं; वैसे ही) (सच्चो ऊ बदहोस हो गेलन । हाथ-पैर ओयसीं अईंठल ।) (अरंबो॰61.4)
116 ओसरा (= ओसारा) (फिन माय बेटा के कन्धा पे चढ़उले ओसरा पर चढ़लन । फिन कोठरी में । खटिया पर बिछौना बिछल हल । बेटा के ओकरा पर ओघड़ा देलन ।) (अरंबो॰70.25)
117 ओही (= वही) (ई चुनाव तो फोर्स हे ! कत्ते कैंडिडेट तो बेलाँ इमतिहाने देले खूब अच्चा नम्बर ले अइलन हे । जे कुछ न जानऽ हथ, ओही सब के लेवे पड़त ।) (अरंबो॰26.22)
118 ओहू (= वह भी) (अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।; अब तो रमौतरवो जुआन हो गेल । अप्पन संगी-साथी में कातो ओहू कहले चलऽ हे - बड़का बाबू कमाय के हाल नञ जानऽ हथ !; मुचकुन जी जायज-नजायज पर विचार करे लगलन हल । जायज बात ला ओहू दौड़े लगलन हल । सोंचे के बात हे, जायज पैरबी करावे वाला केत्ते अमदी होवऽ हे ? - नजायज भी चुन लेतन होत तो अभी जिनगी दोसर रहत होत ।) (अरंबो॰28.3; 34.13; 35.19)
119 कइसहूँ (= कइसूँ, कयसूँ, कयसहूँ; किसी तरह) (अरे, खरीदे के मन नञ रहो तो दाम पूछल नञ करऽ । दोकनदार के घुड़की सुन के रामधनी सकदम में पड़ गेल । कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ?) (अरंबो॰91.19)
120 कखनी (= किस क्षण, कब) (हम कहाँ से कहाँ बउड़ा रहली हे ? ... नञ जाने कखनी से मेहरारू बिछौना भिरी खड़ी हलन । नजर मिलतहीं उनखर सवाल होल । - अपने के ई शोभा नञ दे हे । मामू के निकस जाय ला कहना लाजिम नञ हल ।; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ । कखनी पोता सुत जाए तो कखनी बाबा, से पते नञ चले ।; खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ ।) (अरंबो॰51.6; 87.16, 17; 93.24)
121 कट्टल (= कटा हुआ) (हम टमटम भिरी खड़ा हली । आधा बगैचा जोतल हल । गाछ-बिरीछ कब कट गेल, कहना मोसकिल हे । खाली एक्के गो बड़का आम के पेड़ कट्टल पड़ल हे, उतरबारी-पुरबारी कोनमा आम वाला पेड़, कोनमा आम ।) (अरंबो॰20.26)
122 कड़ाय (= कड़ाई) (अनुशासन के कड़ाय से पालनकरे, करावे वाला अमदी ऊ हलन । मगर अप्पन घर के हिसाब मेम ऊ फेल कर गेलन हल । लइका बहक गेल हल ।) (अरंबो॰53.17)
123 कत्ते (= केत्ते; केतना हीं; कितना ही) (कलेन्डर के कत्ते पत्ता उलटा गेल, रामनाथ जी के पता नञ हे । मगर आँख खुले पर देखऽ हथ - एगो दरोगा, दूगो सिपाही के साथ खड़ा हथ ।; अब तो बस के भरमार हल । कत्ते ने कोच बस फर-फर उड़इत चलऽ हल । हर पाँच मिनिट पर एगो बस ।) (अरंबो॰40.17; 54.13)
124 कधियो (= कभियो; कभी) (सरजुग सिंह अप्पन नौकर भेज के घर-दुआर साफ करवा देथ । भात, दाल, तरकारी, दही, अँचार, भर थरिया उसाह के उनखा भोजन ला भेजवा देथ । ... कधियो कालीसिंह हीआँ से नस्ता । चउतरफी परेम के बरखा हो रहल हल ।; कधियो कान में बोल सुनाय पड़ऽ हल - अरे अप्पन बेटा के जो सुधारिए नञ सकलन तो गाँव के का सुधारतन ?) (अरंबो॰54.5, 19)
125 कनखी (ई आम से ऊ आम तर बउड़ा रहल हे । हमनी बगैचवा के पुरवारी-उतरवारी कोनमा में कोनमा आम दन्ने कनखी से ताक रहली हे । गमे तब न । गुल्ली खोज के ओही कोनमा आम के चार चक्कर लगावऽ । एन्ने हमनी सब फिन नुक जइबो । खोजइत रहऽ ।) (अरंबो॰18.18)
126 कनन-मुँहा (हम माय भिरी जाय लगली । मौसी हमरा जाइए नञ दे । हम माय के मरे के सब मरम जानऽ हली । हम्मर माय कत्ते बार हमरा सामने मरल हल । आँख बंद करके खटिया पर ओघड़ा जा हल । नकल करके आँख मूँद ले हल । - बड़ बदमासी करऽ हँ, ले हम मर जा ही - कह के जीभ मुँह के बाहर निकास दे हल । कत्ते चुट्टी काटे पर हँस के आँख खोल दे हल । ... हम माय के मरे के मरम जानऽ हली । माय भिरी जाय ला तड़फड़ा रहली हल । नाना कनन-मुँहा होके मौसी से बोललन - जाय देहीं ।) (अरंबो॰19.5)
127 कनना (= रोना) (धनुआँ भोकार पाड़-पाड़ के चिकरे लगल । ओन्ने धनुआँ के मम्माँ ओकरा जे कनते सुनलक से हाँहे-फाँफे धउगल आइल । रामधनी से छीन के पोता के अप्पन करेजा से साट लेलक आउ गुदाल कर-कर के लगल रामधनी के गरियावे ।) (अरंबो॰92.20)
128 कनियाय (= दुलहन; पत्नी; नई-नवेली वधू; रिश्ते में छोटों की स्त्रियों के लिए आदरसूचक सम्बोधन शब्द) (माय के मउअत के बाद बाबू जी एकदम अकेल्ला पड़ गेलन हल । अइसे तो घर में हम्मर छोटा भाय, ओक्कर कनियाय आउ एगो-दुग्गो बाल-बुतरू सब हथ ।) (अरंबो॰81.14)
129 कन्धइया (= कन्हा; कन्धा) (मइया गे, कन्धइया चढ़म । खड़ी काहे हीं ? बयठीं ने गे मइया । माय जे खड़ा हलन, बइठ गेलन । पाँच-छो बरिस के बुतरू माय के कन्धा पर सवार हो गेल ।) (अरंबो॰70.20)
130 कन्धा (~ चढ़ाना) (फिन दादी के कन्धा चढ़इली । फिर भउजी के । आउ अन्त में माय के । चालिस छोड़ पचास टप गेली हल । ... जिन्दा ही ।; देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।) (अरंबो॰71.25; 72.20)
131 कमाना-कजाना (तोरा छोड़, तोर बापो के हमहीं पोसलिअउ । तोर बाप, बुचकुनमा जब चारे बरिस के हल, तभिए बाबूजी चल देलन हल । ओक्कर पहिलहीं माय दुनियाँ से चल देलक हल । हम कमाय के जे हाल नञ जानती होत तो तोर बाप के आउ तोरा कइसे खिला-पिला के पोसती होत ? अब तोर बाप छोड़, तोहूँ कमाय लायक होलँऽ । कमो-कजो । सब दिन हमहीं करइत रहबउ ?; विज्ञान के ग्रेजुएट हलन । टर-ट्यूशन में भिड़ गेलन । मेहनती अमदी । अच्छे कमाय-कजाय लगलन हल ।) (अरंबो॰34.18-19; 86.15)
132 कमाय (= कमाई) (हाँ, हम तो कई कोचिंग इन्स्टीच्यूट से सम्बद्ध ही । बेस कमाय हो जाहे । ओकरा से घर बनावे ला जमीन खरीदली हे ।) (अरंबो॰30.2)
133 कयसहूँ (= कइसहूँ; कयसूँ) (गंगा माय जखनी हमनी के जमीन निगल जा हलन, हमनी खाय-खाय के मोहताज हो जा हली । पइँचा-कौड़ी से कयसहूँ दिन कटऽ हल ।) (अरंबो॰62.13)
134 कयसूँ (= किसी तरह) (हाकिम, हमरा अच्छा पढ़े-लिखे नञ आवऽ हे । अंगरेजी तो एकदम्मे नञ । हिन्दी हरूफ टो-टो के पढ़ ले ही । कयसूँ अप्पन सही बना सकऽ ही । बस !; शेरसिंह जिनगी में अब तक कुछ नञ कर पइलन हे । शहर में एगो मकानो नञ बना सकलन हे । दू कोठरी वाला मकान किराया लेले हथ । कयसूँ मर-पछड़ के एगो बेटी के बिआह कइलन हे ।; - सर, तूँ पूजा-पाठ करऽ हऽ कि नञ ? - करऽ ही । या देवी सर्वभूतेषु ... - खूब विश्वास के साथ ? - नञ ! बस जइसे भोजन करऽ ही, कयसूँ जीए ला, ओयसहीं ।; हम तुरते उनखर पैर पकड़ के बोलम - सरकार, आझ से जे पीउँ तो गो हतिया ! सच्चे पीए से अमदी जनावर हो जाहे । डागडर बाबू, तों हमरा जुत्ता से मारऽ मगर बुढ़िया के कयसूँ अच्छा कर दऽ !) (अरंबो॰37.6; 47.16; 77.18; 100.21)
135 करखा (= कारिख; कालिख) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.18)
136 करछाहूँ (~ दोआत) (बिलसवा सरी के कलम करछाहूँ दोआत में डुबइलक आउ लगल लिक्खे - अजी बाबा, हमरा हींआँ मन नञ लगऽ हे । हरसट्ठे हींआँ गारिए-बात सुनइत दिन जाहे । जिरिक्को सा बरतन-बासन में करखा लगल रहलो तो खैर नञ । मलकिनियाँ, काने धर के उखाड़े लगऽ हथ ।) (अरंबो॰96.15)
137 करजा-पैंचा (आठ बरिस हमर बेटी के बियाह के हो गेल । आझो हमनी दुन्नु परानी करजा-पैंचा उतारिए रहली हे ।; हम डिप्रेशन में हली । हम्मर हाल मिसेज चौधरी आउ चौधरी जी दुन्नु परानी जान गेलन हल ।) (अरंबो॰73.5-6, 8)
138 करम-कीट (= कंजूस, लिच्चड़, उपलब्ध सुविधा का उपयोग न करनेवाला; आलसी, कुछ काम-धाम न करनेवाला) (एक्को पइसा कमाय के नञ, मगर मउज देखऽ, तिन-तिन बेटी जनमा लेलन । उनखर बिआहो ला तो पइसा होवे के चाही । मगर ई करम-कीट के कुच्छो समझ में आवे तब न !) (अरंबो॰32.23)
139 करिया (= काला) (अब अँधार सबके एक्के रंग में बदल देलक हल । लाल मट्टी के धरती करिया हो गेल हल ।; दस-बारह मेहरारू एगो ललटेन घेरले बइठल हलन । सब करिया आदिवासी मेहरारू । सिलौट पर अक्षर-ज्ञान देल जा रहल हल ।) (अरंबो॰11.20; 12.6)
140 करीगर (= कारीगर) (ओकर माय-बाप हमरा से बियाह कइलका हल हम्मर बेटि सुख-चैन से एगो करीगर के घर रहत ! सुख-चैन तो ओकरा नञ मिलल मगर जिनगी भर ओकरा लाते-गारी मिलइत रहल ।) (अरंबो॰101.24)
141 करीगरी (= कारीगरी) (हम तो छुटतहीं बोलम - सरकार, घोड़िया के देख लेल जाय । अइसन ने तूँ एही समझ लऽ कि हमरा टमटम हाँके के लूरे नय हे । अरे हम कउन-कउन काम नञ कइलूँ ? टमटम हाकलूँ हम । लकड़ी फाड़लूँ हम । करीगरी के काम कइलूँ हम !) (अरंबो॰100.25)
142 कहमा (= कहाँ; किधर) (सेवा निवृत्त होवे पर गामे में बस गेलन हल । मगर गाम के माहौल तो सहरो से गेल-गुजरल हल । मगर सवाल ई हल कि अब ऊ जाथ तो कहमा जाथ ।) (अरंबो॰30.22)
143 कहिनो (= कहियो) (हम चल अयली । हम जे कहिनो कउनो बन्धन नञ मानली, अब बुढ़ापा में का मानम ? ... परसादी अप्पन मउअत के इन्तजार में हल । ... मर का गेल, तर गेल ।) (अरंबो॰85.4)
144 कहिया (= कब, किस दिन) (हम्मर बेटा आझ परबियो में, एक्को दाना खुदियो, मुँह में नञ डाललक हे । होली जइसन, सोना नीयर परब फिनूँ कहिया आत ?) (अरंबो॰94.10)
145 कहियो (= कभी; किसी दिन) (केकरो गलत रस्ता पे देख के ऊ डाँट दे हलन । कहियो कोय बड़गो अमदी भी उनखर डाँट के दायरा में आ जा हलन ।; मने-मने कहियो गोसा जा हली । आझ बाबू जो तमाकू चढ़ा के माँगतन तो खुब्बे देर से देम, चाहे ऊ केत्ते ने गोसाथ !; रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ ।) (अरंबो॰53.16; 83.18; 87.15, 16)
146 का जन्ने काहे (= की जनी काहे; न जाने क्यों) (खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ । ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल ।) (अरंबो॰93.26)
147 काँटी (= दियासलाई की तिल्ली) (फिन एगो सिगरेट पीए के तलब होयल । डिब्बा से निकासलन । सलाय पर एगो काँटी घिसायल आऊ फुर से अवाज ।) (अरंबो॰50.3)
148 कागज-पत्तर (हम प्रेस रिपोर्टर ही । एगो टेप रेकॉडर, एगो कैमरा आउ तनी कागज-पत्तर हम्मर दुन्नू कंधा के झोला में लटकइत रहऽ हे । अखबार ला खबर जमा करना हम्मर धंधा हे ।) (अरंबो॰11.1)
149 कातो (मुचकुन जी के एक्के बात के दुख हल - बुचकुनमों पचास बरिस के होत । आझ तक हमरा एहू नञ समझ सकल ? एहू कातो कहले चलऽ हे - भइया गाँधी जी बनऽ हथ ! गाँधी जी वाला हैसियत हन, जे गाँधी जी बनऽ हथ ?; परसादी हमरा से बोलऽ हल - पढ़ा-लिखा के बिरजुआ के बी.डी.ओ. बनौली से गलती कइली । एगो सीसी में अंग्रेजी दारू लाके दे दे हल आउ कोठरिए में बइठ के पीए कहऽ हल । ... जो एगो जमायत नञ रहल, हँसी-मजाक नञ होल तो ई का पीना होल । बी.डी.ओ. के बाप कातो कलाली में बइठ के नञ पीए । ओक्कर नमहस्सी होयत । एहू कउनो बात होल । कातो हाकिम के नाक एकरा से कट जाइत ।; राह में केते ने कोयला के खदान भेंटा हे । कुज्जु में देखऽ हथ, ढेर जमीन उकटल-पकटल पड़ल हे । सौंसे धरती के लोग कोड़-खन के रख देलन हे । लगऽ हे जैसे सूअर के बखोर हे । ई सब करतूत अमदिए के । कातो धरती से उपयोगी चीज निकासऽ हथ ।; भोला बाबू बड़बड़ा रहलन हल - कातो हमरो चलता करे ला ऊ उपाय सोंचत ! ... सूअर !) (अरंबो॰38.18; 85.2, 3-4; 86.6; 90.10)
150 कातो (हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग का तो चेतना जगावे अइली हल । ई आदिवासी से, निरक्षर से, निर्धन से मिले-जुले से का तो हमनी के चेतना जागत ।; सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली । का तो जंगलो से लकड़ी काटे के काम गैरकानूनी हे । ... हमनी कानून, नियम का जाने गेली ।; एकरे ला ढेना के मार लाठी, मार लाठी सब चूर देलन हल । का तो हमनी सूअर ही, सूअर ।; एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में ।; कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत ।; अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।; अब तो रमौतरवो जुआन हो गेल । अप्पन संगी-साथी में कातो ओहू कहले चलऽ हे - बड़का बाबू कमाय के हाल नञ जानऽ हथ !) (अरंबो॰13.24-25, 26; 15.14, 30; 18.25; 25.10; 28.3; 34.13)
151 कार (= काला) (एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन । उनखो लगऽ होत, अइसन ने मउअत के मनहूस कार छाया उनखरो छोट परिवार पर न पड़ जाय । मन में अनदेसा उठे लगऽ होत ।) (अरंबो॰82.23)
152 किताब-कोपी (- चल शेरू, ढेर पढ़लऽ । किताब-कोपी मोड़ऽ । अब बिहान । नाना-नाती के जउरे भोजन, आउ फिर भर जाम दूध सधाबे के ड्यूटी । कुँख के भर जाम दूध पीयऽ हली । नञ जे पीलूँ, तो नाना के घुड़की ।) (अरंबो॰49.26)
153 किरिया-करम (= क्रिया-कर्म) (ऊ फुट-फुट के रोवे लगल - डागडर बाबू, हमरा छोड़ दऽ । डागडर बाबू, पिअरियो के किरिया करम करे के हे । ... घोड़ियो आपिस करे के हे ! चारे घड़ी ला तो माँग के लयलूँ हल ।) (अरंबो॰103.4)
154 किरोध (= क्रोध) (मुचकुन जी सोंच रहलन हे - ई किरोध केकरा पर ? ... किरोध तो मन के विकार हे । ... किरोध के आग जखनी तक गंगा जल नीयर शीतल नञ हो जायत, अन्न-जल गरहन नञ करम ।; पहिले किरोध में केकरो पर बरिस पड़ऽ हलन । फेन खाली माय पर । अब केकरा पर बरसथ ?) (अरंबो॰39.10, 13; 82.3)
155 किलान (तुरतमें ऊ किलान पर से दोआत निकासलक । दोआत एकदम सुक्खल हल, से गिल्ला बनावे खातिर ऊ ओकरा में लोटवा से दू-चार ठोप पानी टपका देलक ।) (अरंबो॰95.6)
156 किलास (= क्लास) (तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल ।) (अरंबो॰62.3, 4)
157 कुँखना (- चल शेरू, ढेर पढ़लऽ । किताब-कोपी मोड़ऽ । अब बिहान । नाना-नाती के जउरे भोजन, आउ फिर भर जाम दूध सधाबे के ड्यूटी । कुँख के भर जाम दूध पीयऽ हली । नञ जे पीलूँ, तो नाना के घुड़की ।) (अरंबो॰49.27)
158 कुँढ़ना (= कुढ़ना) (ओत्ते-ओत्ते रात तो चऊँके-बरतन में बीत जा हे । ओकरो पर पाँड़े के फरमैस । कभी ई कर, तो कभी ऊ कर ! मिजाज तो कुँढ़ जा हे ।) (अरंबो॰97.15)
159 कुइयाँ (= कुआँ) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।; आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰17.14; 19.28; 20.2)
160 कुटुम (= कुटुम्ब, सम्बन्धी, रिश्तेदार) (धायँ । एगो आवाज । रामनाथ भुइयाँ पर गिरके छटपटा रहलन हल । - पकड़ ले सरबा के ! भागे न पाबउ ! - अरे ! ई तो कुटुम हथ ।; रामनाथ जी भुइयाँ में गिरल छटपटा रहलन हल । .. एगो अवाज - अरे ! ई तो कुटुम ... फिर रामनाथ जी के कुछ आद नञ हे । कइसे सहर पहुँचलन ? कइसे अस्पताल पहुँचलन ? के लइलक हल ?) (अरंबो॰41.11; 45.4)
161 केकरो (= किसी को) (केकरो गलत रस्ता पे देख के ऊ डाँट दे हलन । कहियो कोय बड़गो अमदी भी उनखर डाँट के दायरा में आ जा हलन ।) (अरंबो॰53.15)
162 केक्कर (= केकर; किसका) (बिसुन, हम्मर बाद सब भाय में सबसे बड़ा तो हँऽ । तोरा अइसन बोले के नञ चाही । धिरूओ कधियो जो गाड़ी से गाम आयत तो नाम केक्कर होत ? सब जानतन, गाड़ी एही घर के हे ।) (अरंबो॰64.5)
163 केतबड़ (= कितना बड़ा) (देख, पहिले परिवार में हमनी सात-आठ अमदी हली । दू कोठरी के घर हल । एक्के चूल्हा जुटऽ हल । सब में बड परेम हल । ... अब केतबड़ घर-परिवार हो गेल हे । सब भतीजा-भतीजी के नामो आद नञ होतौ ।) (अरंबो॰67.14)
164 केत्ते (= कितना) (रस्ता में हाकिम से पुछली - ई काम ला, इनखनी के केत्ते रूपइया भेंटा हे ? - मात्र पचास रूपइया । - बस, एतने ला एत्ते मेहनत ?) (अरंबो॰12.17)
165 केबाड़ी (= किवाड़) (टिक-टिक, टिक-टिक ... टिकटिक-टिकटिक ... दुआरी के सिकड़ी कौनो बजा रहल हे । उठके केबाड़ी खोललन । - का हो रामौतार ? हाल-चाल बेस न ? एत्ते रात के ?) (अरंबो॰68.16)
166 केमाड़ी (= केबाड़ी; किवाड़, दरवाजा) (बिलसवा एकदम नहकार गेल हल । एकरा खातिर ओकरा केत्ते मार पड़ल हल । मगर जिनगी में पहिला चोरी कइलक हल, सेहू पक्का चोर बनके । केमाड़ी भीतर से लगा लेलक । - ओह, एत्ते कीमती लिफाफा ई हे ।) (अरंबो॰98.10)
167 कोट-कचहरी (दिन-रात मर-मोकदमा, कोट-कचहरी, छल-परपंच से हम्मर मन अब भर गेल हे ।) (अरंबो॰65.2)
168 कोनमा (= कोना; कोने वाला) (हाँ हजूर, एही ऊ कोनमा आम हे ।; अनखा के धूप नानिए के लगऽ हे । सोचे के बात हे । बगइचा में कहीं धूप आउ झरक लगऽ हे ! खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !) (अरंबो॰17.1; 18.2)
169 कोय (= कोई) (केकरो गलत रस्ता पे देख के ऊ डाँट दे हलन । कहियो कोय बड़गो अमदी भी उनखर डाँट के दायरा में आ जा हलन ।; गाँव के हर लड़ाई-झगड़ा के फैसला सोमनाथ जी करऽ हलन । उनखर बात सब मानऽ हलन । उनखर फैसला के खिलाफ कोय नञ जा सकऽ हल । ... मगर अब ऊ का बोलथ ? केकरो का कहथ ? एक्के गो असफलता सोमनाथ जी के कमजोर कर देलक हल ।) (अरंबो॰53.16; 54.22)
170 कोरसिस (= कोशिश) (ई पोस्टर के अरथ लगावे के कोरसिस करऽ ही । सैद अरथ के नजदीक पहुँचियो जाही । ई उघरल सच हे कि बुतरू ला जइसे भोजन में माय के दूध जरूरी हे, ओयसहीं वयस्क ला शिक्षा ।; पारस जी अप्पन लइका, मिन्टू के खेती-गिरहस्ती में लगावे के कोरसिस कइलन हल, पर सब बेअरथ । बिआहो करा देलन । दू-तीन गो बेटीओ पइदा हो गेल हल । पारस जी जानऽ हथ कि दुइए बेटी के घर बसावे में ऊ उजड़ गेलन हल । हीआँ तो तिन-तिन गो पोती के सवाल हे । उनखा अन्हार लगऽ हल ।; गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।) (अरंबो॰11.10; 32.16; 95.14)
171 खखरना ("बिलास जी कन्ने हथ ? ... एतना फरेब ? ... ई धाँधली ? ... जनता के राहत का मिलत ?" गियारी साफ करे के वास्ते खखरलन हल ।) (अरंबो॰38.6)
172 खखसना (खखस के, गियारी साफ करके बोललन हल - का सरकार मुस्तीये {? मुफ्तीये} में मटर दे दे हथ ?) (अरंबो॰36.7)
173 खट-खट (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !) (अरंबो॰20.1)
174 खड़कंत (= सावधान, चौकन्ना) (एतनिएँ में ठप-ठप, ठप-ठप केबाड़ी पर अँगुरी बन उट्ठल । बिलसवा खड़कंत हो गेल । दोआत, कलम, कागज सब अप्पन-अप्पन जगह पर चल गेल । झुट्ठे-मुट्ठे उँह-आँह करइत बिलसवा केबाड़ी खोललक ।) (अरंबो॰97.26)
175 खड़ी (= खड़ा) (- भइया खा लऽ ! ... आँख उठा के देखऽ हथ, बुचकुनमा खड़ी हे । कँपसल बोली से मिनती कर रहल हे । - हम्मर तीन रोज के उपास । ... सुन लेलऽ ?; रामनाथ जी के होस आयल । आँख खोलऽ हथ तो देखऽ हथ उनखर बड़का बेटा, विनय एगो टूल पर बइठल हे । उनखर मेहरारू, बेटी सब ओंहीं पर खड़ी हथ । अस्पताल के कमरा हे ।; सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।) (अरंबो॰39.8; 40.8; 59.21; 70.20, 22, 23)
176 खनतलासी (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ? तेसर अमदी उनखर खनतलासी लेलक हल आउ कहलक हल - कुछ नञ हे सरदार ।) (अरंबो॰42.10)
177 खरदना (= खरीदना) (हाँ, हाँ, काहे नञ करत ? ... आद हो, बाढ़ शहर वाला जमीन खरदे ला रूपइया के जरूरत हल । हमनी सब भाय कुछ ने कुछ देली । मगर धिरूआ देलक हल ? ऊ तो सुरूए से मतलबी हे ।) (अरंबो॰64.1)
178 खाहिस (= ख्वाहिश; कामना, अरमान) (उनखर खाहिस हल कि हम्मर नाती दरोगा बने । अइँठल-उठल मोछ, बगल में लटकइत रिवॉल्वर, माथा पर कनटोपा, हाथ में रूल, लाल-लाल आँख से सबके घुरइत, गाम वालन के गाली-गलौज करइत, सिपाहियो के फटकारइत - दरोगा के रोब-दाब वाला एही रूप नाना के मन में छायल होयत ।) (अरंबो॰49.13)
179 खिसियाना (= रुष्ट होना; नाराज होना; खफा होना; क्रुद्ध होना) (धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । . .. आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल । रामधनी खिसियायल, ठिसुआयल ओज्जा से हट गेल ।; घोड़िया के चाल धीमा पड़ते जा रहल हल । रमबिलसवा खिसिया के ओकरा तिन-चार सट्टी देलक । घोड़िया अप्पन जान लगा के घींचे लगल । तइयो, ठुमुर-ठुमुर । मरल अइसन घोड़ी के दमे केतना ?) (अरंबो॰92.27; 99.21)
180 खिस्सा (= किस्सा) (रात में पोता, भोले बाबू जउरे सुते चल आवऽ हल । बाबा, पोता के कहियो 'नन बितना' के, तो कहियो 'कम खोराक' के, तो कहियो 'थूक तोर दाढ़ी में, बन्दूक तोर मोछ में' वाला खिस्सा सुनावथ ।; रस्से-रस्से साँझ हो गेल । फिनूँ रात । दादी-पोता ओसरे में खटिया पर पड़ गेलन । मम्माँ खिस्सा सुनावे लगल ।; खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ ।) (अरंबो॰87.16; 93.6, 24)
181 खुँटियारी (= ईख की कटी फसल के जड़ से निकली दूसरी फसल तथा वह खेत; अरहर आदि की फसल कटने पर बची खूँटी; इस प्रकार का खेत; बैलगाड़ी की पटरी के छेद से ऊपर निकली या उठी खूँटी) (कहे ला हम ई चाहइत ही कि जउन खेत में खुँटियारिए-खुँटियारी होय ओकरो बीच से पहिले लड़िकन चलऽ हथ । चलइत-चलइत एगो रस्ता उपजऽ हे । एकरे पगडंडी कहल जा हे ।) (अरंबो॰5.5)
182 खुन्नुस (= खुनस; किसी बात की मन में पड़ी गाँठ; गुरी, अनबन, अप्रसन्नता; बैर-भाव, द्वेष) (~ बरना) (हम परसताहर । कचौड़ी, पकौड़ी छना रहल हे । धउग-धउग के परसना हम्मर ड्यूटी । बस एक्के बात से खुन्नुस बरऽ हल - केतिनियो जल्दी करऽ मगर बाबू जी के गोसाय के आदत बनल हे ।; ऊह । तोर चुपिये से तो हमरा खुन्नुस बरऽ हे । देखिअउ अब कइसन हउ ?) (अरंबो॰84.6; 101.12)
183 खुब्बे (= खुब, बहुत) (गाम के लोग उनखर रोआब मानऽ हथ । बेस पढ़ावे वाला मास्टर में उनखर सुमार हल । अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले ।) (अरंबो॰69.23)
184 खुसफइली (जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे । ... ओही पइसा के दुकान बना देली हल । आशा हल कहिनो जो घर लौट के आयत तो घर के खुसफइली देखत ।) (अरंबो॰66.5)
185 खेत-पथार (गाँव के अप्पन एगो राजनीति होवऽ हे । टिल्हा जो ढह गेल तो तुलना में दोसरो भाग ऊँच्चा देखाय पड़े लगल । बस ! ... सैद लोग के एहू आशा हो गेल हल कि सोमनाथ अप्पन खेत-पथार बेचतन ।) (अरंबो॰54.8)
186 खेती-गिरहस्ती (पारस जी अप्पन लइका, मिन्टू के खेती-गिरहस्ती में लगावे के कोरसिस कइलन हल, पर सब बेअरथ । बिआहो करा देलन । दू-तीन गो बेटीओ पइदा हो गेल हल । पारस जी जानऽ हथ कि दुइए बेटी के घर बसावे में ऊ उजड़ गेलन हल । हीआँ तो तिन-तिन गो पोती के सवाल हे । उनखा अन्हार लगऽ हल ।) (अरंबो॰32.16)
187 खेती-गिरहस्थी (खेती-गिरहस्थी कइसे होवऽ हे, एक्कर चिन्ता ओकरा हे ?) (अरंबो॰65.7)
188 खेती-बारी (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली ।; अभी सब कुछ खतम नञ होल हे । मिन्टू के कन्धा पर खेती-बारी के भार लादऽ । कुछ जिम्मेदारी के भार सौंपऽ ।; एक साल सूखा पड़ल । सोमनाथ जी के खेती-बारी के चिन्ता हल । नउकरी से छुट्टी लेके अप्पन ध्यान खेती-बारी पर केन्द्रित कइलन हल । महीना दू महीना गाँव रहे पड़ल हल ।; खेती-बारी तो सँभल गेल हल मगर लइकन के पढ़ाय-लिखाय ? सब चौपट ।) (अरंबो॰15.13; 32.10; 53.8, 9, 12)
189 खेबा (= खेप; बार) (छनका गरम लम्फ से कत्ते बार ने लगल हे । हर बार एगो नया अनुभव । लकड़ी के बड़का कुन्दा आरा मशीन में लगावल जाहे । छर्र...ऽ... ऽ । एक खेबा, दू खेबा में एगो चौकोर उपयोगी सिल्ला निकसऽ हे ।) (अरंबो॰55.27)
190 खोंखी (= खाँसी) (भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।) (अरंबो॰86.8)
191 खोराक (= खुराक) (बिछौना पर करवट सले-बले बदल लेलन । मगर टेहुना के टिसटिसी बढ़ल जा रहल हल । बत्ती जरा के एक खोराक दवाय बना के खा लेलन ।) (अरंबो॰69.27)
192 खोसामद-बरामद (ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल । धनुआँ मुँह फुलउले हल से बड़ी खोसामद-बरामद करे पर तनी-मनी खइलक-पीलक ।) (अरंबो॰93.4)
193 खोसी (= खुशी) (जइसे-जइसे सरेख होयत गेली, बाबू के बात समझ में आवे लगल हल । समझ का, बढ़े लगल, खोसी खतम होवे लगल आउ सरीरो कमजोर होवे लगल हल ।) (अरंबो॰63.3)
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