विजेट आपके ब्लॉग पर

Wednesday, August 01, 2012

65. कहानी संग्रह "अजब रंग बोले" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


अरंबो॰ = "अजब रंग बोले" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार श्री रवीन्द्र कुमार; प्रकाशक - जिज्ञासा प्रकाशन, झेलम अपार्टमेन्ट, राजेन्द्रनगर, पटना: 800 016; प्रथम संस्करण - 2000  ई॰; 103 पृष्ठ । मूल्य 120/- रुपये ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 754

ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
पृष्ठ
0.
हमरा ई कहना हे
5-6
0.
हमरो ई कहना हे
7-9
0.
यथाक्रम
10-10



1.
उज्जर कौलर
11-16
2.
कोनमा आम
17-21
3.
व्यवस्था
22-27
4.
अभिभावक
28-33



5.
उपास
34-39
6.
आग
40-45
7.
नो बज्जी गाड़ी
46-51
8.
खीरी मोड़
52-60



9.
घर बड़का गो हो गेल
61-67
10.
कन्धा
68-72
11.
देओतन के बापसी
73-80
12.
फालतु अमदी
81-85



13.
सूअर
86-90
14.
पित्तर के फुचकारी
91-94
15.
मन के पंछी
95-98
16.
सभ्भे स्वाहा
99-103

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):

390    दंड-परनाम (थोड़िक्के देर में डागडर साहेब आ गेलन । हम्मर पहलमान भाय उनखर बैग थाम्हले । हम उठ के दंड-परनाम कइली ।)    (अरंबो॰61.8)
391    दखिनबारी (अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे । ... दुपहरिया में लाला भइया हीं जाय लगली । सटले दखिनबारी घर, लाला भइया के हे ।)    (अरंबो॰81.5)
392    दन्ने (= तरफ) ( वयस्क शिक्षा में का काम होवऽ हे, सेही देखे ला पटना से दुमका अयली हे । दुमका से बिलौक ऑफिस जाय के हे । एगो जीप बरमसिया दन्ने जा रहल हल । लिफ्ट माँगली आउ चल देली ।; ठाकुर टुड्डू दा के नजर थोड़िक्के दूर पर खड़ा पुलिस जीप दन्ने उठ जाहे । - दादा, हम पुलिस साथे नञ अयली हे । ई तो रास्ता में भेंटा गेल से जीप पर चढ़ गेली । हम पुलिस के अमदी नञ ही ।)    (अरंबो॰11.5; 14.12)
393    दरकना (ईसों एक्को बूँद-बरखा नञ बरसल हल । किसान आसमान ताकइत रह गेलन आउ धरती के करेजा दरक गेल हल ।)    (अरंबो॰35.24)
394    दरिद्दर (= दलिद्दर; दरिद्र) (सीता जी जनकपुर से विदा हो गेलन । जनकपुर श्रीहीन हो गेल। सौंसे जनकपुर दरिद्दर हो गेल । आझो दरिदरे हे ।; मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?)    (अरंबो॰73.3; 79.17)
395    दरोजा (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।)    (अरंबो॰17.6)
396    दलिद्दर (= दरिद्र, गरीब; दरिद्री; दारिद्र्य, गरीबी) (ओही दिनमा से, ठीक दिवालिए के दिनमा से ओकर भाग के दीया टिमटिमाय लगल हल । दलिदरा घर में घुसल, आउ हमरा पर पीए के आउ लड़े के जोम सवार भेल ।)    (अरंबो॰102.5)
397    दवाय-बीरो (अब तो सोमनाथ जी अकेलुआ रह गेलन हल । सोमनाथ जी के होमियोपैथी के बेस अध्ययन हे । ऊ एगो टुटलाही अलमारी के ठीक करउलन । शहर से दवाय-बीरो मँगउलन, अउ इलाज शुरू करलन ।)    (अरंबो॰56.13)
398    दसखत (= दस्तखत, सही, हस्ताक्षर) (सब के पता रहऽ हे कि हम्मर लोग चउतरफी हथियारबंद रहऽ हथ । सरकारी कर्मचारी जे वोट लेवे आवऽ हथ, तनी-मनी हीला-हवाला के बाद, परिस्थिति समझ के, दसखत कर-कर के बैलोट पेपर दनादन बढ़इले चल जा हथ ।; कहऽ अध्यक्ष महोदय, बहाली के चिट्ठी सब जगह भेज देल गेल ? - जी अब तक तो ओकरा पर हम्मर दसखतो नञ होल हे ।)    (अरंबो॰24.7; 26.10)
399    दाम-साम (रामधनी मन में सोंचलक - होलियो रोज आवऽ हे ! छौंड़ा के मन आज रख लेल जाय । बस ऊ दोकनदार से ओकर दाम-साम करे लगल ।)    (अरंबो॰91.14)
400    दिक (~ करना) (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।)    (अरंबो॰9.16)
401    दिनमा (= दिन को) (एक दिनमा माय के मन बहुत्ते खराब हो गेल । नानी, मौसी आउ केत्ते ने मेहरारू माय के घेरले हलन । हम जो जाइयो चाही तो जाइए न मिले । एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में । आउ तब बात समझ में आल । मौसी हँसके कहलक - ले, तोर दुलार छिना जइतउ !)    (अरंबो॰18.23)
402    दिमाना (= दिवाना) (धनुआँ सुत्तल हल । गाल पर बहल लोर के सुक्खल धार इंजोरिया में भक-भक लउक रहल हल । रामधनी धनुआँ पर झुक गेल । ओकर परेम में दिमाना नियर करे लगल ।)    (अरंबो॰94.5)
403    दुआरी (= द्वार; दरवाजा) (मामू जी, आप भी घर के बाहर चले जाएँ तो अच्छा होगा । - ई आदेश शेर सिंह के हे । ... शेर सिंह सोचऽ हथ - एतना ऐबनारमल हम काहे हो गेली ? ... मामू का सोचऽ होतन ? लइकइयाँ उनखरे दुआरी पर बीतल हे ।)    (अरंबो॰48.1)
404    दुखाना (= अ॰क्रि॰ दुखना; स॰क्रि॰ दुख देना) (देखऽ, चिन्ता करे के कोय बात नञ हे ! हम्मर कन्धा दुखा गेल हे जरूर, मगर तोरा कन्धा पर चढ़ावे खातिर हम भगवान से जिनगी माँगम । झर-झर, झर-झर मेघ बरिस गेल । रोलाय के बेग जब थिरायल तो मेहरारू कयसूँ बोल पयलन - हमरा तो अब एक्के फिकिर हे, अपने के कन्धा कउन ... ? बादल हहास मार के फिनुँ बरिस पड़ल ।)    (अरंबो॰72.20)
405    दुरगहूँ-दुरगहूँ (= दूर-दूर तक भी) (घर के भिरिए में लेटर-बकस हल । ऊ पहलहीं पता चला लेलक हल कि एकरे में चिट्ठी लगावे से चिट्ठी दुरगहूँ-दुरगहूँ रेल-मटर से गाँउ-सहर, सब ठामा पहुँच जाहे ।)    (अरंबो॰98.17)
406    दुलरूआ (= दुलारा) (- भइया, धीरूआ कहाँ हे ? - धनबाद में । - ऊ तो ले-दे के धनबादे बसिए गेलो । घर के झंझट से ओकरा कुछ लेना-देना नञ हे । छोटका सबसे जादे दुलरूआ होवऽ हे आउ से ही से ऊ सबसे जादे लापरवाहो हे ।)    (अरंबो॰63.15)
407    दुसाध (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । … बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल ।)    (अरंबो॰44.1)
408    दुहारी (= दुआरी; द्वार, दरवाजा) (तुरते ऊ पिअरिया से बोलल - पिअरिया, देख, डागडर साहेब से मत कहिहँऽ कि हमरा ऊ पैना से नक्के पर मारलक हे । कह दीहें कि अइसन ठेस लगल कि दुहरिए से टकरा गेलूँ ।)    (अरंबो॰100.7)
409    देखना-सुनाना (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰69.14)
410    देवाल (= दीवार) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।)    (अरंबो॰11.7)
411    देहगर (भइँस के दूध पीयत, अखाड़ा में तनी मट्टी लगावत तब तनी देहगर हो जायत । शहर में रहके तो ई मुरदा होल जा रहल हे, मुरदा । - नाना बोललन हल ।)    (अरंबो॰48.25)
412    दोकनदार (= दुकानदार) (रामधनी मन में सोंचलक - होलियो रोज आवऽ हे ! छौंड़ा के मन आज रख लेल जाय । बस ऊ दोकनदार से ओकर दाम-साम करे लगल ।; अरे, खरीदे के मन नञ रहो तो दाम पूछल नञ करऽ । दोकनदार के घुड़की सुन के रामधनी सकदम में पड़ गेल । कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ?)    (अरंबो॰91.13, 18)
413    दोकान (= दुकान) (कइसहूँ फिन बोलल - अच्छे भाई, ने हम्मर बात ने तोहर । पौने दू रूपइया में दे हऽ ? - एज्जा मोल-जोल नञ होवऽ हे । केउ दोसर दोकान देखऽ ।)    (अरंबो॰92.1)
414    दोस (= दोष; दोस्त) (अरे ऊ मरायत हल थोड़े, ओक्कर साथिए-संगी ओकरा मरवा देलक ... कातो ओहू अप्पन दोस के मार देलक हल ।; ई तो हम्मर दोस के बेटा, मिन्टू हे । ई हमरा साथ अइसन कइसे कर सकऽ हे ?; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।; तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल । जखनी तक जमायत नञ रहऽ हल, हम बाबू के दोस बनल रहऽ हली ।)    (अरंबो॰28.4; 29.21; 82.9; 83.13)
415    दोसर (= दूसरा) (दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे । आदिवासी आउ दिक्कू में कुछ टेंशन हे । तीर-धनुष आउ बन्दूक से लड़ाय होवऽ । मजिस्टेट, पुलिस सब गस्ती लगा रहलन हे ।; एगो दोसरो घटना उनका आद पड़ऽ हे । रामदीन जी आउ पारस जी बइठका पर बइठल हलन । एगो तेसर अमदी परगट होयल ।; दोसर-दोसर मरीज के देख रहलन हल । मगर हमरा बइठइले हलन । हमरो से बीच-बीच में थोड़े-थाक बतिअउते जा हलन ।; एक डागडर से दोसर डागडर हीं, दोसर से तेसर डागडर हीं जाही । पैर में सनिचरा समा गेल हे ।)    (अरंबो॰13.28; 31.21; 74.18; 75.10)
416    धउगना (= दौड़ना) (रामनाथ जी लइका के हाँथ धइले गोली के अवाज दन्ने चल देलन हल । लइका छोड़ा के भाग चलल हल । रामनाथ जी ओक्कर पीछे-पीछे धउग रहलन हल ।; जब से पुल बनल हल, जहाना से अतौलह होइत खीरी मोड़ आउ फेन पाली जाय के कत्ते आसान हो गेल हल । बाठ रे बाठ ! मार नया-नया बस फरफर उड़इत रहऽ हल । - खीरी मोड़ ! ... खीरी मोड़ ... रट लगउते नञ जाने कत्ते बस झोंक्का देइत, धउगते रहऽ हल ।; एकलौती बेटी हे । बेस लइका के तलास हे । बियाह ठीक करे वास्ते धउग रहली हे । मुजफ्फरपुर, पटना, टाटा, धनबाद, बोकारो । गया जी में भी चक्कर लगा रहली हे ।; नहा के माँ दुर्गा पूजा करे सीसा के मढ़ायल फोटो भिरी जाय के तइयारी में ही । एगो लइका धउगल आके कहऽ हे - सर, गुल्लू मेडिकल टेस्ट में कम्पीट कर गया ।)    (अरंबो॰44.28; 52.12; 73.14; 79.28)
417    धउगा-धउगी (= दौड़ा-दौड़ी) (सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।; दिन भर खेत में चिरइँ-चुरगुन चेंचें, चेंचें करइत रहऽ हल । हमनी पाँचो भाय चिरइँ पकड़े ला धउगा-धउगी करइत रहऽ हली ।)    (अरंबो॰59.22; 62.20)
418    धमधमाना (रमबिलसवा के माथा चकराय लगल । पिअरिया के केस हवा में फुरफुर उड़ रहल हल । हाय रे हाय ! ओइसन कपूर से धमधमायल, तील के तेल से सँभारल केस कइसन भूअर-भूअर हो गेल हल !)    (अरंबो॰102.8)
419    धरना (= रखना, पकड़ना) (रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?)    (अरंबो॰41.26; 42.7, 9)
420    धराना (= रखवाना; पकड़ाना) (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।)    (अरंबो॰43.5)
421    धात-धात (बिलइया के नानी धात-धात कइलका आउ बाल्टी के दूध ओघड़ा गेल । ओतने बड़ा बाल्टी के दूध टेढ़-मेढ़ होके ढेर दूर तक बह गेल ।)    (अरंबो॰17.11)
422    धीया-पुत्ता (पेट काट के करजा भरना मोसकिल बात हे । धीया-पुत्ता वाला घर में कहियो केकरो का भेलो, तो केकरो का । पइसा लौटावे के शक्ति नञ होत ।)    (अरंबो॰36.14)
423    धुइयाँ (= धुआँ) (बात धीरे-धीरे धुइयाँ नियर फइले लगल । कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत ।; कछुआ छाप अगरबत्ती के धुइयाँ कोठरी के हवा में मिल-जुल गेल हल । मच्छड़-डाँसा कहीं दबकल पड़ल होता ।)    (अरंबो॰25.9; 71.13)
424    धूरी (= धूलि) (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !)    (अरंबो॰18.10)
425    धोकड़ी (= जेभी; जेब) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?)    (अरंबो॰42.8)
426    धौंकड़ी (अब गया, गया से चौरी आउ चौरी से गया आवे-जाय के धौंकड़ी नञ करे पड़त । सोमनाथ जी नउकरी से अवकाश प्राप्त कर चुकलन हे ।)    (अरंबो॰52.15)
427    नकटी (= नककटी, कटी नाक वाली {स्त्री}; नाक की मैल) ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।)    (अरंबो॰93.14, 15)
428    नजायज (= नाजायज) (मुचकुन जी जायज-नजायज पर विचार करे लगलन हल । जायज बात ला ओहू दौड़े लगलन हल । सोंचे के बात हे, जायज पैरबी करावे वाला केत्ते अमदी होवऽ हे ? - नजायज भी चुन लेतन होत तो अभी जिनगी दोसर रहत होत ।; गाम के लोग उनखर रोआब मानऽ हथ । बेस पढ़ावे वाला मास्टर में उनखर सुमार हल । अनुशासन के मामला में खुब्बे कड़ा हलन । का मजाल, कउनो उनखा से नजायज काम ले ले ।)    (अरंबो॰35.20; 69.24)
429    नजीक (= नजदीक, पास) (फिन अवाज दन्ने, तिरछे कोना काटले, चल देलन हल । लइका पाँच मिनिट के दूरी पर हल । लइका के नजीक पहुँचियो गेलन हल ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।)    (अरंबो॰41.20, 25)
430    नञ (= नयँ; नहीं) (हमरा कहानी संग्रह छपावे ला मगध यूनिवर्सिटी में विभागाध्यक्ष डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन हमरा हुरइत रहऽ हलन । किसान कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के विभागाध्यक्ष आउ हम्मर मित्र प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा प्रकाशन ला हमरा कम दिक नञ कइलन ।; दूर-दूर तक कोय बस्ती नञ । अब बाँस के जंगल शुरू हो गेल हल । दूर एगो ललटेन के बत्ती देखाय पड़ल ।)    (अरंबो॰9.16, 11.21)
431    नद्दी (= नदी) (एगो गाँधीवादी नद्दी के धारे पलट देलन हल । हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग का तो चेतना जगावे अइली हल । ई आदिवासी से, निरक्षर से, निर्धन से मिले-जुले से का तो हमनी के चेतना जागत । अजगुत बात ।; माय के सब बगइचा दन्ने ले गेलन हल । फिन नद्दी दन्ने । हम सब बात जान गेली हल । एक दिन चुपचाप हम नद्दी अकेल्ले चल गेली । माय कहीं नञ मिलल । लौट के कोनमा आम भिरी गेली । कोय नञ हल । हम रामजी नियर रो-रो के कोनमा आम से पूछे लगली - हम्मर माय केन्ने गेल ?; बाप के जे एत्ते दुलारते देखलक से ऊ फुट-फुट के काने लगल । रामधनियों से नञ रहल गेल । बुतरूओ से बत्तर ऊ काने लगल । आँख से लोर बरखा के नद्दी नीयर बहे लगल ।)    (अरंबो॰13.24; 19.14, 15; 94.14)
432    नमहस्सी (< नाम+हँसी) (परसादी हमरा से बोलऽ हल - पढ़ा-लिखा के बिरजुआ के बी.डी.ओ. बनौली से गलती कइली । एगो सीसी में अंग्रेजी दारू लाके दे दे हल आउ कोठरिए में बइठ के पीए कहऽ हल । ... जो एगो जमायत नञ रहल, हँसी-मजाक नञ होल तो ई का पीना होल । बी.डी.ओ. के बाप कातो कलाली में बइठ के नञ पीए । ओक्कर नमहस्सी होयत । एहू कउनो बात होल । कातो हाकिम के नाक एकरा से कट जाइत ।)    (अरंबो॰85.3)
433    नय (= नञ; नहीं) (हम तो छुटतहीं बोलम - सरकार, घोड़िया के देख लेल जाय । अइसन ने तूँ एही समझ लऽ कि हमरा टमटम हाँके के लूरे नय हे ।)    (अरंबो॰100.24)
434    नराज (= नाराज) (भोला बाबू अपन मेहरारू के दखल-अंदाजी से नराजो हो जा हलन ।)    (अरंबो॰89.24)
435    नहकारना (= नकारना; अस्वीकार करना) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ? पौरुष आउ अहंकार से हम सब नहकारले हली ।; रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल । मालिक के छोटका बेटा पुछलन हल - तुम्हीं लिए होगे । आउ आखिर लिफाफा चोराबे ला हींआँ भूत आवेगा ? तुम्हीं मेरा कोठरी बहाड़ने आते हो । बताओ ठीक-ठीक, नहीं तो हाँथ-पैर सब तोड़ देंगे । बिलसवा एकदम नहकार गेल हल ।)    (अरंबो॰79.19; 98.9)
436    नानी-घर (= ननिहाल) (नानी मरल, नाता टूटल । ... मइयो के मरला जमाना बीत गेल । नाता टूट जा हे का ? नानी के सराध में नोम्मा जाय पड़ल । नोम्मा हम्मर नानी-घर ! नोम्मा हम्मर नानी के गाम ! टुट्टल नाता देखे अइली हे । सच्चो टूट जा हे का ?; बाबू बीसे-एकइस बरिस के होतन कि बाबा मर गेलन । मम्मा अप्पन नइहर गेल हल, जइसन सुनऽ ही । बाबू उनखा लावे ला अप्पन नानी घर गेलन । एन्ने लूटपाट मच गेल ।)    (अरंबो॰19.20; 78.11)
437    नाया (= नया) (देखऽ ने, आझ सोहराय हे । सब कोय नाया-नाया कुरता-पइँट पेन्ह-पेन्ह के मेला घुरे गेलन हे । हमरो चले कहऽ हलन । अइसन डोम नीयर मैला पेन्ह के जइतूँ होत ?)    (अरंबो॰97.17)
438    निकसना (= निकलना) (एकबैग ओकील साहेब दन्ने मुँह करके हम पूछली - अब का करे के हे ? मगही के एगो हम्मर मुँह से निकसल बात लोग नञ समझ रहलन हे । अचरज से हम्मर मुँह ताक रहलन हे ।; दिवाकर मुँह पर विजय के मुस्कान ओढ़ले कमरा के बाहर निकसलन ।; मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।; अपने के ई शोभा नञ दे हे । मामू के निकस जाय ला कहना लाजिम नञ हल ।)    (अरंबो॰21.9; 24.22; 34.9; 51.8)
439    निकासना (= निकालना) (घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; नेता सबके भासन सुन के उनखर कान गरम हो गेल हल । अंगरेजन के ई देस से निकासहीं के काम हे !; बड़कू के आउ पहलमान के बेटा के हमनी अभी बाहर निकास देली हे । बाढ़ भेज देली हे ।; देवी-देओतन जे निकास देल गेलन हल, ओही सीरा घर में तो नञ, मगर किराए के मकान में अब फिन स्थापित हो गेलन हे ।; अमदी हमउमिर के साथ बइठ के गप-सप करके समय निकास दे हे । अब तो परसादियो चल देलक । अब हम केकरा से बोली, बतियाइ ?)    (अरंबो॰14.21, 22; 35.5; 67.18; 80.16; 85.7)
440    निच्चे (= नीचे) (तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल ।)    (अरंबो॰62.4)
441    नीयर (= निर, नियन; जैसा, समान) (ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।; रामधनी के आउ नञ रहल गेल । गते-गते चोर नीयर ऊ अप्पन माय के खटिया भिरी गेल ।)    (अरंबो॰94.2, 3)
442    नीसा (= नशा) (पहलमानो, भइए के रस्ता पर हल । जमीन खरीदे के ओकरा नीसा हल । बड़का भइया आउ पहलमान दुन्नू मिलके जमीन पाँच बिगहा से डेढ़ सौ बिगहा कर देलन हल ।)    (अरंबो॰66.10)
443    नुकना (= छिपना) (ई आम से ऊ आम तर बउड़ा रहल हे । हमनी बगैचवा के पुरवारी-उतरवारी कोनमा में कोनमा आम दन्ने कनखी से ताक रहली हे । गमे तब न । गुल्ली खोज के ओही कोनमा आम के चार चक्कर लगावऽ । एन्ने हमनी सब फिन नुक जइबो । खोजइत रहऽ ।; ("बिलास जी कन्ने हथ ? ... एतना फरेब ? ... ई धाँधली ? ... जनता के राहत का मिलत ?" गियारी साफ करे के वास्ते खखरलन हल । 'पिच !' - कफ के एगो नुक्कल टुकड़ा ठेला के सड़क पर आ गिरल हल ।; भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।)    (अरंबो॰18.19; 38.7; 86.8
444    नुकाना (= छिपाना) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल ।; चिट्ठी लिफाफा के भितरे रख देलक आउ ओकर मुँह भात से साट देलक । तब ओकरा अप्पन पैंट के नीचे कम्मर भिरी नुका लेलक । रतिए मैदान जाय के बहाने से एगो लोटा लेले बहरायल ।)    (अरंबो॰98.4, 15)
445    नोंचना (= नोचना; नख आदि से खुजलाना; उखाड़ना, उजाड़ना; खरोंचना; क्षत या विदीर्ण करना) (गबड़ा भिरी खड़ा हली । तनी सा ठेला गेली । आउ गन्दा, बदबूदार पानी में गिर पड़ली । हम्मर सौंसे बदन में जोंक लपट गेल । गन्दा पानी के कीड़ा हम्मर बदन नोंचले हे ।)    (अरंबो॰79.23)
446    नो-बज्जी (~ गाड़ी = नौ बजे वाली गाड़ी) (कभी इतिहास, कभी भूगोल, कभी अंगरेजी जोर-जोर से बोल के पढ़ना जरूरी हल । तनिक्को से जे रुकली कि नाना के टेर सुनाय पड़ऽ हल । - शेरसिंह, बोली नञ सुन रहलिअउ हे । झुकऽ हीं का रे ? ... हम जो जिरिक्को रुकली तो फिन बोल-बोल के पढ़ना शुरू कइली । ... झक-झक, झक-झक, झक-झक ... टीं ... ईं ... ईं ... करइत नो बज्जी गाड़ी होयल, तब हमरा छुटकारा ।)    (अरंबो॰49.24)
447    नोमी (= नोम्मी; नवमी तिथि; नववाँ) (तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल ।)    (अरंबो॰62.3)
448    न्योता-पेहानी (राजधानी से गाम ऊ लउट अइलन हल । सात-आठ दिन बाद एगो शोक-संदेश मिलल । न्योता हल, मिन्टू के मउअत के ब्रह्म-ज्योनार के । पारस जी से प्रोफेसर रामदीन के न्योता-पेहानी चलऽ हल । रामदीन जी चउक पड़लन । तो राजधानी में पारसे जी के बेटा मिन्टू के मारल जाय पर चरचा हो रहल हल !)    (अरंबो॰31.2)
449    पँच-पँच (= पाँच-पाँच) (कोनमे आम के जड़ तरी सब गिरबा देली चोरवा से । बालुओ सब आउ गुलियो । आँख बंद के बंद । देखता बाबू साहेब कइसे ? थोड़े दूर एन्ने-ओन्ने घुमा-फिरा के उनखा छोड़ देल गेल । अब खोजऽ बबुआ ! नञ तो पँच-पँच चट्टी सब लेबो । ... खोजऽ ... आउ फिन खोज के छूअ केकरो । नञ तो चोर बनतो के ?)    (अरंबो॰18.15)
450    पँजरा (ओक्का-बोक्का तीन-तरोक्का लउआ-लाठी चन्दन-काठी ... कउनो ने कउनो चोर होइए जा हे । चोरवा के दुन्नूँ हाथ फइलल । ओकरा में भर पँजरा धूरी । ओकरा में रोपल, खड़ा एगो गुल्ली । आउ चोरवा के दुन्नूँ आँख बंद कइले कउनो ने कउने छउँड़ा । हमनी सब पुछइत जा रहली हे - कहाँ जाहँऽ ? चोरवा बोलऽ हे - नानी घर !; एतने में कस के अंधड़ चले लगल । धूरी से अकास भर गेल । गरदा के मारे कुच्छो ठीक-ठीक सुझहूँ नञ लगल ।)    (अरंबो॰18.10; 99.13)
451    पइँचा-कौड़ी (गंगा माय जखनी हमनी के जमीन निगल जा हलन, हमनी खाय-खाय के मोहताज हो जा हली । पइँचा-कौड़ी से कयसहूँ दिन कटऽ हल ।)    (अरंबो॰62.13)
452    पच (~ से) (भोला बाबू के तनी खोंखी उठल । बलगम के एगो नुक्कल टुकड़ा खड़खड़ायल । मटर के खिड़की से मूँड़ी बाहर निकास के पच से फेंकलन ।)    (अरंबो॰86.9)
453    पचीसी (एतनिए में बाबा के मुरती ओकर आँख के तरे नाचे लगल । अखनी बाबा लुंगी आउ कुरता पेन्हले पिपरा भिरी वाला घरा में बइठल होतन । दु-चार अमदी आउ बइठल होतन । सोहराय में पचीसी हुआँ पर बिच्छल होत ।)    (अरंबो॰96.3)
454    पटाना (= पड़ना, लेटना) (खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ । ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल ।)    (अरंबो॰93.26)
455    पठरू (= बकरी का बच्चा; पाठा या पाठी) (बाबू जी कचहरी से आ गेलन । अढ़ाय बज रहल हे । भोरउआ कचहरी में देर पहिलहूँ होवऽ हल । उनखर मुँह दन्ने आँख उठयली ।... हम्मर बेटा के गोदी में पठरू नियर उठयले, खड़ाऊँ पहिरले खड़ा हथ ।)    (अरंबो॰84.13)
456    पढ़ल-लिक्खल (= पढ़ल-लिखल) (सब हाकिम एक्के बात पर जोर दे रहलन हल - हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग, ई पिछड़ल इलाका में अइली हे ।; एगो गाँधीवादी नद्दी के धारे पलट देलन हल । हमनी पढ़ल-लिक्खल लोग का तो चेतना जगावे अइली हल । ई आदिवासी से, निरक्षर से, निर्धन से मिले-जुले से का तो हमनी के चेतना जागत । अजगुत बात ।)    (अरंबो॰13.10, 24)
457    पढ़ल-लिखल (= पढ़ा-लिखा) (तोरा अइसन पढ़ल-लिखल लोग के चेतना जो जागत तब समाज जागत ।; नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन ।; छोटा बेटा औफिस चल जा हे । पुतोह घर-दुआर संभालऽ हथ । भोजन बनावे से लेके लइका सँभाले तक उनखर ड्यूटी हे । थोड़े पढ़ल-लिखल हथ ।)    (अरंबो॰13.19; 48.8; 81.19)
458    पढ़ाय (= पढ़ाई) (गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन । छनका फिन लगल - छन !! बाप रे ! ... कॉलेज के पढ़ाय पूरा करइत-करइत भइयो गुजर गेलन ।; काहे नञ मर जाऊँ ? चौबीस हजार रूपइया ग्रुप इन्स्योरेन्स के हम्मर परिवार के तो भेंटा जायत । फिनो पेंशन आउ जी.पी.एफ. आउ ग्रेचुटी के रुपईया । बेटी के बियाह, बाल-बच्चा के पढ़ाय पूरा करे के बस एक्के गो उपाह हे - हम्मर मिरतु आने मुकती !)    (अरंबो॰55.15; 74.5)
459    पढ़ाय-लिखाय (= पढ़ाई-लिखाई) (एक साल सूखा पड़ल । सोमनाथ जी के खेती-बारी के चिन्ता हल । नउकरी से छुट्टी लेके अप्पन ध्यान खेती-बारी पर केन्द्रित कइलन हल । महीना दू महीना गाँव रहे पड़ल हल । बाल-बच्चा के पढ़ाय-लिखाय लेल मेहरारू-बच्चा सबके शहर में छोड़ देलन हल । खेती-बारी तो सँभल गेल हल मगर लइकन के पढ़ाय-लिखाय ? सब चौपट ।; हमरा से हम्मर पढ़ाय-लिखाय के बात पूछऽ हलन । बड़गो होके का बनमऽ रे ?)    (अरंबो॰53.10, 11; 83.21)
460    पढ़ौनी (=पढ़उनी; अध्यापन कार्य) (नौकरी ला पढ़ौनी विभाग हम चुनली हल । सोभाविक हे, घर के सब पढ़ताहर हमरे जिम्मे ।; हम सोंचऽ हली, जब हम्मर माथे नञ काम करऽ हे, तो नौकरी आउ केत्ते दिन कर सकम ? घरो पर पढ़उनी के काम बन्द करे पड़त ।)    (अरंबो॰66.18; 75.16)
461    पतरकी (= पतली) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।)    (अरंबो॰17.13)
462    पन-छो (= पान-छो; पाँच-छह) (तब से ई नियम बन गेल हल । कउनो सुराजी मिटिन, पन-छो कोस के गिरिद होवे, ऊहाँ पहुँचना उनखा जरूरी हल ।)    (अरंबो॰35.6)
463    परकी साल (= परसाल) (तीन बरिस से बेटी ला लइका ढूँढ़ रहली हे । बेटी बी.ए. औनर्स कइलक तभिए से । परकी साल एम.ए. । देखे में साफ-सुत्थर हे । बेस हे । ई सीता लगी एगो राम चाहऽ ही ।)    (अरंबो॰73.12)
464    परनाम (= प्रणाम) (हाँ, एगो फरक ऊ महसूस करऽ हथ । लइकन सब, जे पैर छूके परनाम करऽ हल, अब खाली हाथे जोड़ के परनाम करऽ हे । कउनो-कउनो तो मटिआइयो देहे । जब से बेटा बागी हो गेल हल, डाँट-फटकार कर के अप्पन अधिकार अपने समाप्त कर लेलन हल ।)    (अरंबो॰54.16, 17)
465    परपंच (= प्रपंच) (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।)    (अरंबो॰65.28)
466    परफेसर (= प्रोफेसर) (एगो जुआन नजीक आके देखलक हल - अरे, मर तो नञ गेलइ ? ... सरबा ओकील बनऽ हल ! रामनाथ जी के नजीक से देखतहीं ऊ जुआन के मुँह से निकस पड़ल हल - परफेसर साहेब ! ... गुरुजी ! ... हम चीन्ह नञ सकली ।; आझ के जमाना में पैरबी चलऽ हे । परफेसर शेर सिंह भी दूध के धोबल नञ हथ । कुछ न कुछ पैरबी सुनिए ले हथ ।; अब सब कामना पूरा होवे ला हे । हम परफेसर बनम ।)    (अरंबो॰43.24; 46.13; 79.10)
467    परबी (= परब; पर्व; दशहरा, होली आदि पर्वों के अवसर पर सहायकों, नौकर-चाकर तथा पवनियाँ को उपहार स्वरूप दिया जाने वाला धन या सामान; पर्व से सम्बन्धित) (सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत । फिनूँ परबियो लगी तो सर-सरजाम लेवे के हे । दुइए रूपइया में सब्भे करे के हे ।; ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल ।)    (अरंबो॰92.13; 93.2)
468    परभाव (= प्रभाव) (कोय के हँसी-खोसी के परभाव ओकरा पर नञ पड़ल हल । मगर ई देख के, ओकरो आँख छलछला आयल । ओक्कर लोर से डाँड़-टिल्हा, घर-दुआर सब्भे ओद्दा हो गेल ।)    (अरंबो॰94.18)
469    परसताहर (= परसने वाला) (बहरसी कोठरी में भर कोठरी अमदी । सब बाबू के दोस । खूब खाना-पीना चलऽ हल । परसादी साव आने परसादी चच्चा के जिम्मे पीए के हिसाब । हम परसताहर । कचौड़ी, पकौड़ी छना रहल हे । धउग-धउग के परसना हम्मर ड्यूटी ।)    (अरंबो॰84.5)
470    परानी (दुन्नु ~ = पति-पत्नी) (आठ बरिस हमर बेटी के बियाह के हो गेल । आझो हमनी दुन्नु परानी करजा-पैंचा उतारिए रहली हे ।)    (अरंबो॰73.5)
471    परेम (= प्रेम) (देख, पहिले परिवार में हमनी सात-आठ अमदी हली । दू कोठरी के घर हल । एक्के चूल्हा जुटऽ हल । सब में बड परेम हल ।)    (अरंबो॰67.13)
472    पसुली (= पसली) (सरबा अइसे नञ बतइतउ । तनी पसुलिया हम्मर हाथ में धरा दे । एक्कर दुन्नू हँथवे काट ले हिअइ । सड़सड़ लइका के बदन पर छेकुनी से मार पड़ल ।)    (अरंबो॰43.5)
473    पसेना (= पसीना) (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल ।)    (अरंबो॰99.1)
474    पहड़तल्ली (तनी-तनी अँधारे रहऽ हल । बाप-बेटा पहड़तल्ली दन्ने चल दे हली । हाँ, लौटे बखत बड़का जमात हो जा हल ।)    (अरंबो॰83.11)
475    पहलमान (= पहलवान) (सच्चो ऊ बदहोस हो गेलन । हाथ-पैर ओयसीं अईंठल । पहलमान भाय डागडर हीं दउड़ल । का करे के चाही आउ का नञ, कुछ समझे में नञ आवे ।)    (अरंबो॰61.5)
476    पहिलहीं (= पहले ही) (तोर बाप, बुचकुनमा जब चारे बरिस के हल, तभिए बाबूजी चल देलन हल । ओक्कर पहिलहीं माय दुनियाँ से चल देलक हल ।)    (अरंबो॰34.15)
477    पहिलहूँ (= पहले भी) (बाबू जी कचहरी से आ गेलन । अढ़ाय बज रहल हे । भोरउआ कचहरी में देर पहिलहूँ होवऽ हल ।)    (अरंबो॰84.12)
478    पाछू (= पीछे) (बी.डी.ओ. साहेब कहऽ हलन - ई लइका तो जीनियस हे । एकरा आइ.ए.एस. होवे के चाही । नाना 'हाँ-हूँ' तो कह दे हलन मगर उनखा ई बात पसंद नञ हल । पाछू में बोलऽ हलन - आई.ए.एस. का होयत ? अरे हम्मर नाती तो दरोगा होयत, दरोगा ।; जिनगी के किताब के पन्ना पाछू पलटा हे । सोमनाथ जी पढ़ऽ हथ । सब पेज लगातार नञ, बस जहाँ-तहाँ से । समय के आँधी पलट के जे पन्ना सामने कर दे हे, सोमनाथ जी ओहे पढ़े लगऽ हथ ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।)    (अरंबो॰49.11; 52.17; 94.2)
479    पाट-पुरजा (= पार्ट-पुरजा) (कुछ अमदी से सेट् एगो मिसिन नियर होवऽ हे । सेट् के पाट-पुरजा घिसऽ हे । टुटऽ हे । एक-दू गो पाट-पुरजा बचल रहलो से सब बेकार ।)    (अरंबो॰85.10-11, 11)
480    पाटी (= पार्टी) (एक जनवरी के रात तक हम ठीके हली । पाटी खयली । सिलेमा देखली । नया साल मनौली ।)    (अरंबो॰74.9)
481    पान-छो (= पन-छो; पाँच-छह) (हमनी आने हम आउ हम्मर समर्थक, पान-छो दोस मिल के चार-पाँच सो वोट दे देली । का मजाल कि कउनो हुज्जत करे ।; इसकूल से कौलेज, कौलेज से इनवरसीटी । सोंचऽ हलन, देह तनी आउ साथ दे । पान-छो बरिस कट जाए, बस । फिन तो मउजे-मउज हे ।)    (अरंबो॰24.4; 87.1)
482    पिंसिल (= पेंशन) (सरकार पिंसिल एतना भर दे देहे जेतना में दुन्नू परानी के गुजर-बसर आसानी से हो जाइत । फिन कधियो कोय बेमार पड़ली, कधियो मेहरारूए के रोग-बेआधि होल तो गाँव में डागडर-वइद के समस्या हे ।)    (अरंबो॰55.4)
483    पिच ("बिलास जी कन्ने हथ ? ... एतना फरेब ? ... ई धाँधली ? ... जनता के राहत का मिलत ?" गियारी साफ करे के वास्ते खखरलन हल । 'पिच !' - कफ के एगो नुक्कल टुकड़ा ठेला के सड़क पर आ गिरल हल ।)    (अरंबो॰38.7)
484    पिचाना (= दबना) (मन नञ लगऽ हे । ई लगऽ हे जरूर कि हॉल के सब दीवार एक दोसर से सट्टल आ रहल हे । सब भाग जइतन । खाली हम ओकरा में पिचा जायम ! हॉल से भागे चाहऽ ही ।)    (अरंबो॰76.24)
485    पित्तर (= पीतल) (लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।)    (अरंबो॰92.12)
486    पिराना (= पीड़ा होना; दुखना; थकना) (धनुआँ के मम्माँ अपने बेटवे के गरिया रहल हल । पास-पड़ोस के दु-चार अमदी मजा लेवे ला जामा हो गेलन हल । धनुआँ के मम्माँ कस-कस के गरिअइले हल । आउ तखनी तक गरिअइते रहल जखनी तक ओकर मुँह पिरा नञ गेल ।)    (अरंबो॰92.26)
487    पीयर (= पीला) (विमल जी के होमियोपैथिक किताब पढ़े के चस्का लग चुकल हे । इसकूल से आवे के बाद अब एकरे में समय ऊ दे हथ । पचास बरिस पार के अमदी । भक-भक गोर हला । अब तनी पीयर लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰68.3)
488    पीरी (= पीलिया) (करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।; लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰68.5, 7; 69.15)
489    पुरजी (डागडर साहेब पुरजी में लिखलन हल - डिप्रेशन बैलियम-5 ।; पुरजी में लिखऽ हथ - ऐक्यूट डिप्रेशन ऐण्ड सडेन डिसऐपियरेन्स - सिन्टामिल टेबलेट, रात में सोने समय एक ।)    (अरंबो॰74.16; 75.26)
490    पुरनकी (= पुरानी) (1967 से अब तक गया में रहली । गया के निवासी हो गेली । हम्मर पुरनकी कहानी पर नालन्दा जिला के भाषा के परभाव हे । बाद के कहानी पर गया जिला के परभाव हे । गया, जहाना में ओझा लोग 'आदमी' के अमदी बोलऽ हथ ।)    (अरंबो॰8.24)
491    पुरबारी (= पूरब तरफ वाला) (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !)    (अरंबो॰18.2)
492    पुरबारी-उतरबारी (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !)    (अरंबो॰18.2)
493    पुरूवारी (= पुरबारी; पूरब वाला) (खिस्सा चलइत रहल । दादी-पोता खिस्सा कहते-सुनते कखनी सुत गेलन, एक्कर केकरो खबर नञ । ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल ।)    (अरंबो॰93.26)
494    पुरैनियाँ (= पूर्णिया) (मटर में बइठल, भोला बाबू के आद पड़ल - एक बेर पटना से पुरैनियाँ जा रहलन हल । पटना से बरौनिएँ तक के टिकस लेलन हल । बरौनी में गाड़ी बदल के छोटकी लैन के गाड़ी पर बैठलन ।)    (अरंबो॰88.6)
495    पेन्हना (= पहनना) (एतनिए में बाबा के मुरती ओकर आँख के तरे नाचे लगल । अखनी बाबा लुंगी आउ कुरता पेन्हले पिपरा भिरी वाला घरा में बइठल होतन । दु-चार अमदी आउ बइठल होतन । सोहराय में पचीसी हुआँ पर बिच्छल होत ।)    (अरंबो॰96.2)
496    पेन्हना-ओढ़ना (= पहनना-ओढ़ना) (मुचकुन जी कुछ सोंचे नञ चाहऽ हथ । मगर विचार आउ घटना उछल-उछल के ढीठ लइका नीयर, लाख भगाहूँ पर गोदी में आके बइठ जाहे । ... सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी ।; करेजा जे पहिले उभरल हल, अब चापुट लगऽ हे । जब से पीरी होल, तब से उनखर ढाँचा में ई परिवर्तन आयल । जखनी पेन्हले-ओढ़ले रहऽ हलन, तब लोग उनखा मलेटरी के कौनो भारी अफसर बुझऽ हलन । पीरी के बाद उनखर जे बदन टूटल, से फिन बनल नञ ।)    (अरंबो॰34.9; 68.6)
497    पैन-पोखरा (आज चलती हे तऽ विलास जी के । गाम-के-गाम मारा से तबाह हे । कुइयाँ पताल चल गेल । पैन-पोखरा सुख के खट-खट हो गेल । मगर विलास जी अइसनो गिरानी में दस हाथ चकला कुइयाँ खनउलन । मटर ओकरा में बइठउलन । की हड़-हड़ पानी टानऽ हे !)    (अरंबो॰20.1)
498    पैना (= पइना; डंडा) (तुरते ऊ पिअरिया से बोलल - पिअरिया, देख, डागडर साहेब से मत कहिहँऽ कि हमरा ऊ पैना से नक्के पर मारलक हे । कह दीहें कि अइसन ठेस लगल कि दुहरिए से टकरा गेलूँ ।)    (अरंबो॰100.6)
499    पोड़ना (= पोरना, लगाना) (तेल ~) (हाय रे हाय ! ओइसन कपूर से धमधमायल, तील के तेल से सँभारल केस कइसन भूअर-भूअर हो गेल हल ! जब से हम्मर घर आल, एक्को पइसा तेलो पोड़े के नाम से नञ देलूँ होत ! हाय रे हाय !!)    (अरंबो॰102.9)
500    पोवार (- नञ, हम लेम तो ओइसने लेम ! - ओइसन लेके तूँ का करम्हीं रे, आँय ? तोरा ओकरो से नीमन ला देबउ । ओइसन पोवार नीयर पीयर फुचकारी का लेमँऽ, तोरा हम चानी नीयर चमचम ला देबउ । हहरऽ हँ काहे ला ?)    (अरंबो॰91.3)
501    फइटम-फइटी (हम्मर जिनगी के सबसे जादा परभावित करेवाला व्यक्ति श्री हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी हथ । ऊ हला तो हम्मर सहपाठी आउ मित्र मगर शुरूए से परिपक्व कवि आउ साहित्यकार हलन । हमनी में कहानी आउ उपन्यास लेके खूब बहस होवऽ हल । देखे वाला के लगऽ होत कि कब दुन्नू में फइटम-फइटी हो जाइत ।; तखनी हम अठमी या नोमी किलास में पढ़ऽ हली । हम्मर आउ छोटका भाय, सब आउ निच्चे किलास में । छोटका तो तखनी पढ़वो नञ करऽ हल । दिन भर सबसे फइटम-फइटी करइत रहऽ हल ।)    (अरंबो॰9.10; 62.5)
502    फर-फर (अब तो बस के भरमार हल । कत्ते ने कोच बस फर-फर उड़इत चलऽ हल । हर पाँच मिनिट पर एगो बस ।)    (अरंबो॰54.13)
503    फरमैस (= फरमाइश) (ओत्ते-ओत्ते रात तो चऊँके-बरतन में बीत जा हे । ओकरो पर पाँड़े के फरमैस । कभी ई कर, तो कभी ऊ कर ! मिजाज तो कुँढ़ जा हे ।)    (अरंबो॰97.14)
504    फलाना (= फलना; अमुक) (एक बेर प्रोफेसरो साहब के गाड़ी लुटायल हल । ... खरीद-फरोख खतम करके जब लउटलन तो गाड़ी लापता । एन्ने-ओन्ने खूब खोजलन हल । मगर गाड़ी जे रहे तब ने मिले । हतास होके थाना में सनहा दरज करावे गेलन । बातचीत के सिलसिला में ऊ थानेदार के बतउलन हल कि फलाना मंत्री तो हम्मर चेला हे ।)    (अरंबो॰28.20)
505    फाँड़ना (= फाड़ना) (लइका डेरा गेल ल । ऊ आँख फाँड़ के ताजक रहल हे । जे एगो घटना हल, ओकरा ला ऊ तइयार नञ हल ।)    (अरंबो॰53.5)
506    फाँड़ा (= धोती का अगला भाग जिसे उठाकर सामान रखने को थैला-सा बनाते हैं) (रामधनी कंधा पर गमछी रखलक आउ फाँड़ा में दू गो रूपइया । चलल बजार । बजार पहुँचे पर एक ठामा देखलक कि ढेर-सा पित्तर के फुचकारी लटक रहल हे - ठीक बुद्धन के बेटवा, छोटुए के जइसन ।)    (अरंबो॰91.10)
507    फिन (= फिनुँ; फेर; फिर) (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; गंगा माय फिन निगलल खेत उगल दे हलन । तखनी तक एक पसल मारल जा हल । फेन कुछ गोहूँ, कुछ मसुरी आउ कुच्छो से कुच्छो उपजऽ हल ।)    (अरंबो॰17.6; 62.16)
508    फिनुँ (= फिन, फेन, फेर; फिर, बाद में) (थोड़े देर में भइया होस में आ गेलन । एन्ने-ओन्ने, हमनी दन्ने ताकलन । सायद उनखा सुस्ती लग रहल हल । फिनुँ सुत गेलन ।)    (अरंबो॰61.17)
509    फिनूँ (= फेन; फिर) (- कामे तो भगवान हे बाबू ! ... मेहरारू के बोली में कोय बनावटीपन नञ हल । का निष्ठा से काम में ऊ फिनूँ जुट गेल, देखतहीं बनऽ हल ।; भइया बोलइत-बोलइत अलोप जा हथ । का सोंचे लगऽ हथ, नञ समझ सकऽ ही । - तोहनी तो जानऽ हँ, बड़कू आउ छोटकू, कोय ठीक से पढ़-लिख नञ सकल । ... हम चाहऽ हली कि चपरासियो वाला कउनो नोकरी ओकरा जे मिल जाइत होत, तो ई माहौल से ओकरा छुटकारा मिल जाइत होत । ... भइया फिनूँ गुम हो गेलन हल ।)    (अरंबो॰12.15; 67.8)
510    फुरफुर (रमबिलसवा के माथा चकराय लगल । पिअरिया के केस हवा में फुरफुर उड़ रहल हल । हाय रे हाय ! ओइसन कपूर से धमधमायल, तील के तेल से सँभारल केस कइसन भूअर-भूअर हो गेल हल !)    (अरंबो॰102.7)
511    फुल्लल (= फुला हुआ) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।)    (अरंबो॰20.16)
512    फेट्टा (= फेंट्टा; पगड़ी, मुरेठा) (ललटेनमा तनी नजीक लाउ रे । इ कौनो खोफिया लगऽ हउ ! दू जुआन लपट के गटबा दुन्नू थाम ले । दु जुआन गट्टा धर लेलक हल । - हाँ, ठीक हे । धोकड़िया आउ फेटबा में तनी टोइया मार के देख ले, कहीं टिपटिपवा तो नञ धइले हउ ?)    (अरंबो॰42.8)
513    फेन (= फिनूँ, फिनुँ; फिर) (जउन खेत में खुँटियारिए-खुँटियारी होय ओकरो बीच से पहिले लड़िकन चलऽ हथ । चलइत-चलइत एगो रस्ता उपजऽ हे । एकरे पगडंडी कहल जा हे । समय के साथ एही पगडंडी राजपथ बन जाहे आरू फेन एकरा पर बड़-बड़ुआ भी चले लगऽ हथ ।; हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; फेन दोसर बेर दुमका के ओही क्षेत्र में अइली हे ।; ठाकुर टुड्डू दा !! ... ठाकुर टुड्डू दा पलट के देखऽ हथ । फेन मुँह फेर के चल दे हथ । हम लगभग दउड़ पड़ऽ ही ।; कानाफूसी होवे लगल - अध्यक्ष महोदय भ्रष्टाचार के खिलाफ हथ । पइरवी के खिलाफ हथ । ... कातो फेन से इंटरव्यू ला कागज भेजावल जाइत ।; एकरा चीन्हऽ हऽ रामदीन जी ? एही न हम्मर एकलौता बेटा, मिन्टू हे । फेन मिन्टू दन्ने मुँह करके पारस जी कहलन - तनी चच्चा के डाँट तो दे । डेरा तो दे ।)    (अरंबो॰5.8; 12.10; 13.28; 14.5; 25.10; 31.9)
514    फैदा (आञ रे ! सुनलिअउ तू पियाज खाहीं ? किसोरिया कहऽ हलउ कि तूँ अंडो खाय लगलहीं ? - नञ मइया, ई बात नञ हे । पटनमा में हम कस के जे बिमार पड़लियइ हल ने, तब डागडर अंडा, मास खाय ला कहलथिन हल । बोललथिन हल कि ई सब खाय से दवाय जल्दी फैदा करतो । मास तो नञ खयली, मगर ...। - ओ ! डागडर कहलको हल । जेही कहिअइ, अइसन कइसे करत विमला ?)    (अरंबो॰70.13)
515    फोटू (= फोटो) (घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।)    (अरंबो॰14.21)
516    फोहा (साँप के ~) (बंशीधर नाम सुनलऽ हे ? ई लइका उनखर हे । सब गैर मजरूआ आम जमीन के मालिक । ... बित्तन दुसाध के बाप-दादा उनखरे जमीन जोतइत-कोड़इत रहलन । उनखर घर में चोरी होल, बित्तन दुसाध जेल में । सौंसे गाम जानऽ हे - चोरी के कइलक आउ चोरी के करइलक हल । ... एतनिए कसूर हल कि तनी ऊ अईंठ के बोलऽ हल । ... रामजतन हरवाहा मजूरी माँगलक हल - सौंसे बदन सुक्खल जुत्ता आउ लाठी से फोड़ देल गेल हल । ... ई छउँड़ा ओही साँप के फोहा हे ।)    (अरंबो॰44.6)
517    बइठका (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; रात में एक घंटा ऊ अनपढ़ के अक्षर-ज्ञान देवे के बीड़ा उठयलन । का उमरगर, का बच्चा, सब के ई अप्पन बइठका पर जमा कइलन । अक्षर-ज्ञान  आउ पढ़ाय के महत्व पर प्रकाश डाललन ।)    (अरंबो॰17.7; 56.19)
518    बइठकी (गिरीश हीं बइठकी में हम, गिरीश रंजन, हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी आउ जिज्ञासा प्रकाशन के प्रकाशक श्री सत्येन्द्र जी गपशप में मसगूल हली । बात-बात में हम्मर कहानी संग्रह के प्रकाशन के बात उठल । पांडुलिपि तइयार हल ।; साँझ होयत हीं पढ़े ला बइठ जाना जरूरी हल । हाथ-गोड़ धोके, चक-चक जपानी बइठकी भिजुन किताब लेके हमरा बइठना जरूरी हल ।)    (अरंबो॰9.20; 49.19)
519    बइठना-बोलना (सोमनाथ जी के रहल नञ गेल । चिल्ला के ऊ बोल पड़लन - अरे कउन बात के तकरार हे ? का बइठ-बोल के फैसला नञ कर सकऽ ही ?)    (अरंबो॰59.24)
520    बउआ (= बबुआ; छोटा बालक; बच्चे अथवा अपने से छोटे के लिए स्नेहपूर्ण संबोधन का शब्द) (सगरो अमदी दउड़ावल गेल । ई असपताल से ऊ असपताल । कोय दुर्घटना होयल होत तो असपताल में भरती होयत । मगर बउआ के कोय अता-पता नञ चलल । देर रात हार-पार के अध्यक्ष महोदय बउआ के एगो फोटो लेले थाना पहुँचलन ।; अखबार में ऊ अपहरण के खबर पढ़ऽ हलन । ई सब खबर उनखा बाहियात लगऽ हल । मगर अप्पन साथ घटल घटना में उनखा शक पक्का हो गेल - उनखर बउआ के अपहरण होल हे ।; तीन-चार दिन से हम्मर बउआ गायब हे । लगऽ हे, कोय ओक्कर अपहरण कर लेलक ।)    (अरंबो॰25.17, 19, 24; 26.14)
521    बउड़ाना (= बउराना; आम के पेड़ में मंजर लगना; बउआना; सपना देखना; नींद में जो-सो बड़बड़ाना) (ई आम से ऊ आम तर बउड़ा रहल हे । हमनी बगैचवा के पुरवारी-उतरवारी कोनमा में कोनमा आम दन्ने कनखी से ताक रहली हे । गमे तब न । गुल्ली खोज के ओही कोनमा आम के चार चक्कर लगावऽ । एन्ने हमनी सब फिन नुक जइबो । खोजइत रहऽ ।; नींद आवे के नाम नञ ले । आउ नींद जे आयल तो रातों भर बउड़यते रहल । ... डाकपीन ओक्कर चिट्ठी लेले ओक्कर घर गेल हे । बाबा के ऊ कस-कस के पुकारले हे । बाबा घर पर हइए नञ हथ । कहाँ चल जा हथ ?)    (अरंबो॰18.17; 98.21)
522    बउड़ाना (तूँ कौन हऽ ? रात में काहे बउड़ायल चलऽ हऽ ? फेन सरदार बोललन हल - ई अदालत में एकरो सुनबाय हो जाइत । अभी तनी छउँड़ा के फैसला कर लेवे दे ।; हम कहाँ से कहाँ बउड़ा रहली हे ? ... नञ जाने कखनी से मेहरारू बिछौना भिरी खड़ी हलन । नजर मिलतहीं उनखर सवाल होल । - अपने के ई शोभा नञ दे हे । मामू के निकस जाय ला कहना लाजिम नञ हल ।)    (अरंबो॰42.12; 51.5)
523    बखत (= वक्त; समय) (ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।)    (अरंबो॰94.1)
524    बचल-खुचल (बाबू, जंगले हमनी के घर हल । आझो घर हे । जंगली जानवर के सिकार करऽ हली । जंगल के बचल-खुचल जमीन पर थोड़े-थाक खेती-बारी करऽ हली । सरकारी कानून बनल आउ जंगल से हम आदिवासी बेदखल हो गेली ।)    (अरंबो॰15.13)
525    बच्चल-खुच्चल (= बचल-खुचल; बचा-खुचा) (बिलसवा एगो दीया के बत्ती उसक-उलक आउ दोसरो-दोसर दीया के बच्चल-खुच्चल तेल ओकरे में ढार देलक, जेकरा में ई जादे देर तालुक जरे ।)    (अरंबो॰95.4)
526    बच्छड़ (= बच्छर; वत्सर, वर्ष) (बच्चा बड़का भइया से कह रहल हल - अब तो दू बच्छड़ में हमहूँ रिटायर करम । गामे में रहे ला सोंचली हे ।)    (अरंबो॰66.24)
527    बच्छिर (= बच्छर; वत्सर; वर्ष) (गाँव में घर पर बाबू जी मरलन हल । तखनी सोमनाथ दस-एगारह बच्छिर के होतन ।; माय माला जपइते-जपइते बिच्चे में बोलऽ हे - दुलहिन, हीएँ पर खीर लाके देहू । हमरे भिरी खायत । मेहरारू खीर जाम में दे जा हथ । पैंतीस-चालीस बच्छिर के विमल जी माइए भिरी गबर-गबर खीर खा रहलन हे ।; दू बच्छिर पहिले एगो खत लिखलन हल - तोर जुगेसर चच्चा चल देलन । ... जुगेसर चचा के घर ठीक हम्मर घर के सटले उतरबारी घर हल ।; गिरानी के जमाना । खानो-खरची तो जुम्मे के चाही । बिलसवा के दादा सेही गुने नउए बच्छिर के उमिर में ओकरा एक ठामा कोरसिस करके सहर में नौकर रखवा देलन हल ।)    (अरंबो॰55.15; 70.6; 82.17; 95.13)
528    बजार (= बाजार) (रामधनी कंधा पर गमछी रखलक आउ फाँड़ा में दू गो रूपइया । चलल बजार । बजार पहुँचे पर एक ठामा देखलक कि ढेर-सा पित्तर के फुचकारी लटक रहल हे - ठीक बुद्धन के बेटवा, छोटुए के जइसन ।)    (अरंबो॰91.10, 11)
529    बझाना (= फँसाना) (तखनिए एगो दोसर जुआन तमक के बोलल हल - कहलिअउ ने, ई सार खोफिया हउ खोफिया ।  हमनी के बात में बझा देलकउ आउ फँसा देलकउ ! सब तइयार हो जो ।)    (अरंबो॰44.19)
530    बड (= बड़; बहुत) (शेरसिंह बड सिगरेट पीयऽ हथ । बस, एही एगो ऐब उनखा में हे । बीसो सिगरेट दुइए-तीन घंटा में फूक देतन ।; अप्पन जिनगी के आखरी भाग अमदी के अप्पन जलम-भूमी में बिताबे के चाही । ... तों अइमा तो हमरो बड सहारा मिलत ।; देख, पहिले परिवार में हमनी सात-आठ अमदी हली । दू कोठरी के घर हल । एक्के चूल्हा जुटऽ हल । सब में बड परेम हल ।; भतीजा के पढ़ावे के बड कोसिस कइलन । मगर कोय खास पढ़-लिख नञ सकल ।)    (अरंबो॰47.25; 66.27; 67.13; 68.10)
531    बड़ (= बड़ा; बहुत) (घर में सब लोग हथ । दूर-दूर से ताकऽ हथ, मगर हमरा भिरी कोय नञ आवऽ हथ । हम अप्पन झोला से फोटू निकास के देखावऽ ही, मगर कोय नञ सटऽ हे । रात के हड़िया-रस्सी हम्मर खातिर में निकासल जाहे । हम पीयऽ ही नञ, मगर बड़ जोर देवे पर एगो गिलास भर ले ही ।; ई बात ठीक हे कि ई मामला में ऊ कड़ा हथ । जल्दी उनखा से कोई सट नञ सकऽ हे । मगर समाजे जब कमजोर हो गेल तो उनखरो कड़ापन में तनी कमी आयल हे । अइसे आउ बात में ऊ बड़ विनम्र हथ ।)    (अरंबो॰14.23; 46.17)
532    बड़का (= बड़ा) (खेले देबे के मन नञ तो ... ... हेरे ! ... ... हेरे !! ... ... आउ ओहू में बड़का आम के तरे खेलऽ ही । पुरबारी-उतरबारी कोनमा में जे आम के पेड़ हे, कोनमा आम, ओकरा तरे । एतबड़ मोट ओक्कर डाल-डहुँगी फइलल हे कि की मजाल एक्को रत्ती धूप ओकरा तरे घुस आवे !; हमनी बड़का घर छोड़ के किराया के छोटगर मकान में आ गेली । पूजा-पाठ बन्द । जे देवी-देओता हमर कुल के नास रोक नञ सकलन, उनखर पूजा-पाठ काहे ला ? सैद हम्मर बाबू जी के मन में एही विचार तखनी होयत ।; बाबू जी के रोपल पौधा सब अब झमठगर गाछ बन चुकल हे । मिटइत परिवार एगो बड़का जंगल में बदल गेल हे । अमदी के जंगल ।; बड़का बेटा एम.एस-सी. के इम्तिहान दे रहल हे । मंझला, नागपुर में इंजियरी पढ़ रहल हे । तेसरका मेडिकल के कम्पीटीसन के इम्तिहान में बइठल हे ।)    (अरंबो॰18.1; 78.27; 79.4, 6)
533    बड़गर (= बड़ा) (चयन समिति के सब सदस्य बइठल हथ । एगो बड़गर कुर्सी पर अध्यक्ष महोदय बइठल हथ । साक्षात्कार चल रहल हे ।)    (अरंबो॰22.1)
534    बड़गो (= बड़गर) (प्रोफेसरो साहेब के ताव आ गल हल । अप्पन पत्नी के रिक्सा से घर छोड़ के तुरते मंत्री जी के पास पहुँच गेलन हल । मंत्री जी के बड़गो अहाता में कइठो गाड़ी लगल हल । एगो गाड़ी अनमन उनखरे गाड़ी नियर लगऽ हल । मगर ई का, नम्बर प्लेट दोसर हल ।; हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।; सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल ।; नाना मामूली पढ़ल-लिखल अमदी हलन । अक्षर ज्ञान हल, बस । मगर हलन बड़गो किसान । नाती के पढ़ा-लिखा के दरोगा बनावे चाहऽ हलन । नाना के रोब-दाब हल । गाम के बड़गो किसान रहे गुने दरोगा, बी.डी.ओ., सब हाकिम तसरीफ लावऽ हलन ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस । बड़गो ओकील हलन ।)    (अरंबो॰29.4; 31.14; 35.14; 48.9, 10; 82.9)
535    बड़-बड़ुआ (जउन खेत में खुँटियारिए-खुँटियारी होय ओकरो बीच से पहिले लड़िकन चलऽ हथ । चलइत-चलइत एगो रस्ता उपजऽ हे । एकरे पगडंडी कहल जा हे । समय के साथ एही पगडंडी राजपथ बन जाहे आरू फेन एकरा पर बड़-बड़ुआ भी चले लगऽ हथ ।)    (अरंबो॰5.8)
536    बड़ाय (= बड़ाई) (सब जन हँसे लगलन । नाना अप्पन बड़ाय सुनके मुसकी छोड़लन । संतोख से उनखर सटकल मुँह चिक्कन, फुल्लल देखाय पड़े लगल ।)    (अरंबो॰20.15)
537    बढ़ती (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे -  एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।)    (अरंबो॰20.4, 6)
538    बतियाना (= बात करना) (- अपने कउन संगठन से जुड़ल हथ ? वामपंथी या दक्खिनपंथी ? - हमनी दक्खिनपंथी ही । अपने से तनी एही ला बतियाय चल अइली ।; अच्छा, चलऽ, हाथ-गोड़ धोवऽ, फिन बतियायम ।)    (अरंबो॰58.21; 69.3)
539    बत्तर (= बदतर) (बाप के जे एत्ते दुलारते देखलक से ऊ फुट-फुट के काने लगल । रामधनियों से नञ रहल गेल । बुतरूओ से बत्तर ऊ काने लगल । आँख से लोर बरखा के नद्दी नीयर बहे लगल ।)    (अरंबो॰94.14)
540    बनाय तरी (सपासप पछिया चल रहल हल । गरमी के दुपहर । पसेना से तरबतर रमबिलसवा घोड़िया के रह-रह के ताल देले हल । ओकरा सोझे पच्छिम जाय के हे । आउ एत्ते कड़ा धूप । घोड़ियो बनाय तरी हाँफले हे ।)    (अरंबो॰99.3)
541    बमकना (रोक के घुमावे खातिर घोड़िया के लगाम खींच लेलक । से घोड़िया हिनहिनाय लगल आउ लगल लेताड़ी मारे । गोस्सा से रमबिलसवा ओकरा मार सट्टी, मार सट्टी धुन देलक । घोड़िया अकास से बात करे लगल । एकबैग घोड़िया बमकल आउ एगो झुक्कल पेड़ के डाली से टकरा गेल ।)    (अरंबो॰102.16)
542    बमछना (घोड़िया बमछे लगल । से, रमबिलसवा ओकरा दुलारे-मलारे लगल । ओकर गियारी के लगाम ऊ एकदम्मे ढिल्ली छोड़ देलका । घोड़िया फिनुँ अप्पन चाल में आ गेल आउ एन्ने रमबिलसवो ।)    (अरंबो॰100.30)
543    बरदास (= बरदाश्त, सहन) (पहिले हमनी आजाद हली । अब तो गुलाम ही, गुलाम । आजाद मुलुक में गुलाम ...। मगर अब गुलामी बरदास नञ होवऽ हे ।; बड़कू के कहना हल, हम्मर हम्मर बाप के सब जायदाद अरजल हे । संझला चच्चा के एकरा पर कोय हक नञ हे । पहलमान के बेटा के कहना हल, ई सब जायदाद हम्मर बाप के अरजल हे । ... अब कोय केकरो बरदास करे ला तइयार नञ हे ।; पिअरिया !! अगे पिअरिया !! ... ऊँह, मत बोललँऽ । देख, थोड़हीं दूर तो आउ रहलो हे । जिरी देर आउ बरदास कर । नक्का झाँपले रहिहँऽ ! नक्का से खुनमा अभियो तालुक बहिए रहलो हे ?; रमबिलसवा भोकार पाड़-पाड़ के रो पड़ल । डागडर साहेब से बरदास नञ भेल, से ऊ अप्पन टोप हिलइते-डुलइते हुँआँ पर से चोर नीयर चुप्पे-चाप घसक देलन।)    (अरंबो॰15.20; 64.25; 99.18; 103.9)
544    बरना (= जलना) (ऊ गाँधी जी हलन । उनखर चेतना जागल हल । एगो जागल चेतना दीया के काम कइलक हल । कत्ते ने दीया बर उठल हल ।; सोमनाथ जी धउगलन अवाजे दन्ने । साथे-साथे उनखर चेलो-चाटी । देखऽ हथ अँधारे में अहरा पर कुछ लोग खड़ी हथ । बीच-बीच में चोरबत्ती बरऽ हे । बन्दूको चले के अवाज आवऽ हे । धउगा-धउगी मच्चल हे ।)    (अरंबो॰13.23; 59.22)
545    बर-बर ("हम नञ पढ़म जा ।", जोर से चिल्ला के कहली हल, "नो बज्जी गाड़ी ना आयत तो का, रात भर पागल नियन हम बर-बर करइत रही ?" - "तो बस, मत पढ़ऽ । ... ई हरामजादा दरोगा का बनत ?")    (अरंबो॰50.18)
546    बरिआर (= बरियार; मजबूत) (एकबैग समुच्चे घटना ओक्कर आँख के आगे कौंध गेल ् ऊ बेड पर से उठे के कोरसिस करे लगल । मगर देखऽ हे कि उठे के जिरिक्को सकतीए नञ मिल रहल हे । ओक्कर हाथ-पैर कोय बरिआर जउरी से जइसे बँधल हे ।)    (अरंबो॰103.2)
547    बरिस (= बरस; वर्ष) (तोर बाप, बुचकुनमा जब चारे बरिस के हल, तभिए बाबूजी चल देलन हल ।; बच्चा, भइया से हँस्सी कइलक - का भइया, अभियो तोरा रेलेगाड़ी चलावे के मन करऽ हो ? - से का ? - मंझला भइया कहऽ हलथुन कि भइया टी टी, छिक-छिक करइत रहऽ हथुन । अब तो तोरा रिटायरो कइला बरिस भर होलो ।; अच्छा, ई बताउ बच्चा कि घर तों के बरिस पर अइलाँ हे ? - हाँ, अबरी घर ढेर दिन पर अइली हे ।; चर-पाँच बरिस पहिले लाला बाबू के बाबू जी आने जमुना बाबू बैकुण्ठवासी हो गेलन हल । जमुना बाबू आने हम्मर चच्चा । हम्मर बाबू के जिगरी दोस ।)    (अरंबो॰34.15; 64.18; 65.3; 82.7)
548    बहरसी (= बाहर) (बरमसिया में वयस्क शिक्षा के कार्यालय हे । कार्यालय के बहरसी देवाल पर एगो बड़का पोस्टर टँगल हे । एगो आदिवासी जुवती एगो बच्चा के दूध पिया रहल हे । दुन्नू छाती एकदम उघरल हे ।; फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; बिलास जी धड़धड़ायल भीतर घुस गेलन हल आउ मुचकुन जी ठकमकायल बहरसी खड़ी रहलन हल । थोड़िक्के देर में बिलास जी, मुचकुन जी के भीतर ले गेलन हल । ऑफिस के भीतर देखऽ हथ - चक-चक कुरसी, टेबुल लगल हे । दिनो में सगरो बिजली-बत्ती जर रहल हे ।)    (अरंबो॰11.7; 17.7; 36.24)
549    बहाड़ना (= बुहारना; झाड़ू से साफ करना) (रतिए में बिलसवा अइँटा तरे चाप के नुकावल लिफाफा निकासलक । एही लिफाफा खातिर तो ओक्कर पीठ फाड़ देल गेल हल । मालिक के छोटका बेटा पुछलन हल - तुम्हीं लिए होगे । आउ आखिर लिफाफा चोराबे ला हींआँ भूत आवेगा ? तुम्हीं मेरा कोठरी बहाड़ने आते हो । बताओ ठीक-ठीक, नहीं तो हाँथ-पैर सब तोड़ देंगे । बिलसवा एकदम नहकार गेल हल ।)    (अरंबो॰98.7)
550    बहिन (= बहीन; बहन) (मेहरारू के रोज-रोज के ताना करेजा छेद करऽ हे । ... तोरा की औकात हो ? दरिद्दर तो हऽ । बहिन के बियाह में सब कुछ लुटा देलऽ । अब तोरा के काम देतो ?)    (अरंबो॰79.17)
551    बहुत्ते (= बहुत ही) (मजूरी के सिवाय आउ हमनी ला का बचल हे ? जंगल के ठेकेदार हमनी सबसे सब काम ले हे । मजूरियो बहुत्ते कम दे हे । ... ई पूछऽ न बाबू, तनी सा मजूरी देके हमनी से का का नञ ले लेहे ?; एक दिनमा माय के मन बहुत्ते खराब हो गेल । नानी, मौसी आउ केत्ते ने मेहरारू माय के घेरले हलन । हम जो जाइयो चाही तो जाइए न मिले । एन्ने नाना ओझा-गुनी बोलवउलन । कातो पानी पढ़े कहलन । भगत बोललन - लड़का होत । एही एक घड़ी में । आउ तब बात समझ में आल । मौसी हँसके कहलक - ले, तोर दुलार छिना जइतउ !)    (अरंबो॰15.18; 18.23)
552    बाठ (= वाह !) (जब से पुल बनल हल, जहाना से अतौलह होइत खीरी मोड़ आउ फेन पाली जाय के कत्ते आसान हो गेल हल । बाठ रे बाठ ! मार नया-नया बस फरफर उड़इत रहऽ हल ।)    (अरंबो॰52.10)
553    बामन (= बावन) (हम्मर घर से रमधानी पाँड़े के घर, फिन रमधानी पाँड़े के घर से रमजानी मियाँ के घर, फिन पतरकी गल्ली से घुम्मल-घुम्मल मिठकी कुइयाँ तक आउ फिन मिठकी कुइयाँ से असमान फइल गेल । नञ जाने कत्ते बड़गो होतइ ई असमान ! ... ... बामन कोस के ।)    (अरंबो॰17.15)
554    बाल-बच्चा (तोहनी अब गाम आके रहे चाहमा तो सोंचे पड़तउ । अब तो तोहनी के बालो-बच्चा जो खरिहान से अनाज उठावे चाहतउ तो खून-फसाद हो सकऽ हे ।; अबरी अप्पन घर, ढेर दिन पर बाले-बच्चे संग अयली हे । सब कुछ बदलल-बदलल लग रहल हे ।)    (अरंबो॰64.28; 81.1)
555    बाल-बुतरू (माय के मउअत के बाद बाबू जी एकदम अकेल्ला पड़ गेलन हल । अइसे तो घर में हम्मर छोटा भाय, ओक्कर कनियाय आउ एगो-दुग्गो बाल-बुतरू सब हथ ।)    (अरंबो॰81.15)
556    बिक्कल (= बिका हुआ) (भोला बाबू समय आउ सरीर के उपयोग खूब कस के कइलन हल । एक-एक मिनिट उनखर बिक्कल हल । कउनो इयार-दोस से भी बोले-बतियाय के समय नञ हल । ट्यूशन के एगो बैच गेल आउ दोसर खड़ा हल ।)    (अरंबो॰89.6)
557    बिगना (= फेंकना) (ई हम जानऽ ही कि ठिकेदार के अमदी हमरो जान के गाँहक बन जइतन । जे हो, सफेदपोस से उनखर बिसवास उठ गेल हे, ऊ बिसवास हमरो लौटावे के हे । मन करऽ हे, अप्पन सउँसे लिबास, सफेद, उज्जर कौलर फाड़ के बिग दी ।; एन्ने बाबू जी हमरा पास कम खत लिखऽ हथ । मगर उनखर हर खत में कउनो न कउनो इयार-दोस के मउअत के चरचा जरूरे रहऽ हे । हम्मर मेहरारू अइसन खत पढ़ के बुदबुदा हलन आउ फिन खत फाड़ के बिग दे हलन ।)    (अरंबो॰16.8; 82.22)
558    बिच्चे (~ में = बीच में; बीच में ही) (हाँ रे, विलास जी के तो बढ़ती हइए हे -  एगो जुआन बिच्चे में टोक के कहलक - अइसे तोहनी विलास जी के बारे में जे कह लऽ, मगर ई बात दुनियाँ जानऽ हे कि मसोमतिया के खेत हड़प के ऊ अप्पन बढ़ती देखा रहलन हे ।; एगो बूढ़ा अमदी बिच्चे में टोक के बोललन - एगो बात कहिअउ ?; साढ़े सात बजे घड़ी देख के बंशीधर जी के हीआँ से चललन हल । गाड़ी पकड़े ला, टीसन । मोसकिल से तीन पाव जमीन टीसन पहुँचे में आउ रहल होत, बिच्चे में अपने से, ई जोखिम में फँस गेलन हल । बंशीधर जी के हीआँ बेटी के बिआह ठीक करे ला गेलन हल ।; लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल ।)    (अरंबो॰20.4, 7; 42.18; 53.24)
559    बिच्छा (= बिच्छू) (हम चाहऽ ही बड़गो होवे पर ऊ बिच्छा नियर बड़गो-बड़गो मोछ रख ले । लोग एकरा देखिए के भय खायथ ।)    (अरंबो॰31.14)
560    बियाह-सादी (= विवाह-शादी) (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल ।)    (अरंबो॰53.23)
561    बिलाय (= बिल्ली) (बिलइया के नानी धात-धात कइलका आउ बाल्टी के दूध ओघड़ा गेल । ओतने बड़ा बाल्टी के दूध टेढ़-मेढ़ होके ढेर दूर तक बह गेल ।)    (अरंबो॰17.11)
562    बिलौक (= ब्लॉक) ( वयस्क शिक्षा में का काम होवऽ हे, सेही देखे ला पटना से दुमका अयली हे । दुमका से बिलौक ऑफिस जाय के हे । एगो जीप बरमसिया दन्ने जा रहल हल । लिफ्ट माँगली आउ चल देली ।; सुराज आयल आउ साथे-साथ लोग के मन में बड़गो अमदी बने के साध भी आयल । पइसा बढ़ावे के नया-नया उपाय सोंचे जाय लगल । छोटकनिया नेतो के लोक-सेवा के नाम पर पैरबी करे बिलौक, सहर, रजधानी जाय पड़ऽ हल ।; भिनसरवे खटिया त्याग देवे के उनखर पुरान आदत हे । कउनो तमाकू चढ़ा के दे देलको तो ठीक, नञ तो टिकिया ताखा से उतार के अपने सब कइलन । थोड़े देर गुड़-गाड़ कइलन आउ फिन हाथ-मुँह धो के, छड़ी लेले पहाड़ी दन्ने चल देलन ।)    (अरंबो॰11.5; 35.16; 83.2)
563    बुढ़उ (आखिर बुढ़उ कब तक हीआँ पड़ल रहतन ? घुरना-टहलना सब बन्द । इनखा आवे से हमरा जेहल हो गेल हे । - ऊ अपने चल जइतन । - रिटायर होके अइलन हे, ई बात काहे तूँ भुला जा हऽ ?)    (अरंबो॰87.29)
564    बुतरू (= बालक, बच्चा) (एगो बुतरू के रिरियाय के अवाज कान में पड़ रहल हल । लगऽ हल, जइसे कउनो ओकरा डेंगा रहल हल ।; रामनाथ नजीक पहुँच के देखऽ हथ - दु-चार गो ललटेन हे । दस-बारह गो अमदी हथ । एगो अमदी, एगो बुतरू के हाथ धइले हथ । बुतरू रो रहल हे । ओक्कर गाल पर तमेचा पर तमेचा जब-तब आ बइठऽ हे ।; लाचार हो रामधनी आगे बढ़ल । सोंचे लगल, टीने के काहे ने ले लेऊँ ? चर-पाँचे आना में तो काम चल जाइत । अरे बुतरू जात के हिरिस हइ, आउ का ! अप्पन रहते ऊ तुरते भुला जाइत । पित्तर के फुचकारी ओकर खियालो से उतर जाइत ।; ओन्ने रामधनी पुरूवारी ओसरा में खटिया पर पटायल हल । आउ का जन्ने काहे, ओकरा धनुआँ के माय के आद आ रहल हल । धनुआँ के माय साँप काटे से मर गेल हल । मरे बखत ऊ चेतउले गेल हल - देखिहऽ जी, छउँड़ा पर धियान रखिहऽ । अइसन ने टूअर-टापर बुतरू नीयर हम्मर पाछू में एहू बिलट-बिलट के मर जाय ।)    (अरंबो॰41.13, 26; 92.11; 94.2)
565    बुताना (= बुझाना) (कुछ नाल बंदूक चमक उठल हल । जादेतर देसिए बन्दूक । भाला, लाठी ... । - चारो दन्ने छितरा जो । ... मुँह से एक्को सबद नञ निकसे ... ललटेनमन बुता दे ... ।)    (अरंबो॰44.23)
566    बुनिया (= बुंदिया) (ढोल-मँजीरा पर फाग के धूरी उड़ रहल हल । सगरो मस्तीए-मस्ती छायल हल । गोस्सा के मारे धनुआँ के मम्माँ, परबियो में कुच्छो नञ पकउलक । पोतवा लागी खाली चार पइसा के बुनिया आउ दू पइसा के तेलही जिलेबी ले आल ।)    (अरंबो॰93.3)
567    बुलना (= चलना, टहलना) (ओघड़ायल ~) (फिन चन्ना मामू दरोजा के बाहरो देखाय पड़े लगलन । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! अंगनो में आउ बहरसी बइठको दन्ने ।; नाना के अँगुरी पकड़ले रामधनी पाँड़े के घर तक जाके देख अइली हल । चन्ना मामू बुल्लऽ हथ ! गोड़ ने हाथ, ओघड़ायल बुल्लऽ हथ !; मइया गे, कन्धइया चढ़म । खड़ी काहे हीं ? बयठीं ने गे मइया । माय जे खड़ा हलन, बइठ गेलन । पाँच-छो बरिस के बुतरू माय के कन्धा पर सवार हो गेल । - अब खड़ी हो जो । बुलहीं ने गे मइया । माय खड़ी हो गेल । फिन बुले लगल अँगना में ।)    (अरंबो॰17.6, 9; 70.23)
568    बूढ़-पुरान (बूढ़-पुरनियाँ) (भइया के दरबार लगल हे । हमनी पाँचो भाय एके ठामा नञ जाने कत्ते दिन पर जमा होली हे । बूढ़-पुरान हमनी पाँचो भाय के पांडव कहऽ हथ ।)    (अरंबो॰64.12)
569    बेकती (= व्यक्ति) (बरौनी में गाड़ी बदल के छोटकी लैन के गाड़ी पर बैठलन । मीयाँ-बीबी आउ तीन गो बच्चा ।)    (अरंबो॰88.8)
570    बेटी-दमाद (लइका जुआन हो गेल हल । ओक्कर बियाहो-सादी के बात ऊ सोंचे लगलन हल । मगर ई का ? लइका एही बिच्चे अप्पन मरजी से बियाह कर लेलक हल । घर से नाता तोड़ लेलक । ओक्कर पढ़ाय-लिखाय के सिलसिलो छिन्न-भिन्न हो गेल हल । लइका के इंजीयर, डागडर बनावे के सपना चूर-चूर हो गेल । सोमनाथ जी गोस्सा में तमतमायल गाँव में भाषण देलन हल - हम अप्पन अरजल सब खेत बेच देम । बेटी-दमाद के दे देम ।; सोमनाथ जी सोंचऽ हथ - अब तो बुढ़ापो आ गेल । नौकरियो से अवकाश प्राप्त कर लेली । अब गाम जाके बसी या कउनो बेटी-दमाद जोरे रह के जिनगी के शेष भाग काट दी ?)    (अरंबो॰53.28; 54.28)
571    बेमार (= बीमार) (हाकिम मस्टरनी से पुछलन - ठीक-ठाक चलइत हो न ? - हाँ बाबू, सब ठीके चलइत हे । फेन बोलल - हम्मर बच्चा बेमार हे ।; सरकार पिंसिल एतना भर दे देहे जेतना में दुन्नू परानी के गुजर-बसर आसानी से हो जाइत । फिन कधियो कोय बेमार पड़ली, कधियो मेहरारूए के रोग-बेआधि होल तो गाँव में डागडर-वइद के समस्या हे ।)    (अरंबो॰12.10; 55.5)
572    बेमारी (= बीमारी) (विमल जी के जब पीरी होल, इयार-दोस सब मिल के अस्पताल, डागडर कइलन । देखउलन-सुनउलन । लइका के खबर देल गेल - बाप के पीरी हो गेलउ । आके सेवा-सुरसा करहीं । पचास बरिस पार के अमदी लगी ई बेमारी जानलेवा होवऽ हे ।)    (अरंबो॰69.16)
573    बेला (= बिना) (सबुनायल, नील दियल, साफ कपड़ा जहाँ पेन्ह-ओढ़ के बाहर निकसे ला तइयार होवऽ हलन, रमौतरवा, उनखर तनी गो भतीजा लहरी करे लगऽ हल - बड़का बाबू, गोदी । ... हमहूँ तोहरे साथ जइबो । बेला गोदी लेले, दुलारले गुजर नञ ।)    (अरंबो॰34.11)
574    बेलाँ (~ माने = बिना माने या अर्थ के, व्यर्थ) (कोनमा आम काट देल गेल हे । एही सच्चाय घुर-फिर के हमरा पर परगट होवऽ हे । खून-फसाद सब बेलाँ माने लगऽ हे ।; ई चुनाव तो फोर्स हे ! कत्ते कैंडिडेट तो बेलाँ इमतिहाने देले खूब अच्चा नम्बर ले अइलन हे । जे कुछ न जानऽ हथ, ओही सब के लेवे पड़त ।; जखनी भोला बाबू लइका हलन, तखनिए से एगो गारी पढ़ऽ हलन । बेलाँ ओक्कर माने समझले । बड़का, का छोटा, केकरो से जब मन रंज होवऽ हलन, तब कह दे हलन - सूअर !)    (अरंबो॰21.6; 26.21; 88.23)
575    बैंकड्राफ (= बैंकड्राफ्ट) (एक बार हम ओकरा खत देली । तोरा बड़का बाबू से मिले के मन नञ करऽ हउ ? हम तोरा कत्ते परपंच करके पढ़इली-लिखइली । बिलायत भेजली । कहाँ-कहाँ से ओत्ते पइसा जुटइली । ... जानऽ हऽ एक्कर जवाब ऊ का देलक ? हिसाब जोड़-जाड़ के लिख के भेजलक कि हमरा पढ़ावे-लिखावे में अपननी के जादे से जादे पचास हजार रूपइया लगलो होत । बैंकड्राफ भेज रहली हे ।)    (अरंबो॰66.3)
576    बोडर (= बोर्डर) (सरकारी इसकूल में मास्टरी करऽ हली । जगन्नाथपुर में । बिहार आउ उड़ीसा के बोडर पर ।)    (अरंबो॰71.20)
577    बोद-बुदक्कड़ ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।)    (अरंबो॰93.11)
578    बोद्दा (= भोद्दा; सुस्त, धीमा; भोंदू) ("बोद्दा रानी / बोद-बुदक्कड़ / चुल्हा ऊपर लक्कड़ / चुल्हा पर चकटी / धनुआँ के सास नकटी ।" धनुआँ अप्पन सास के नकटी सुन के लजा गेल । ऊ मम्माँ के अप्पन छोटे-छोटे हाथ से मारे लगल । मम्माँ हँसइत-हँसइत बोलल - अच्छा भाय, धनुआँ के सास नञ, रानी के सास नकटी । तब कहीं धनुआँ अप्पन हाथ रोकलक ।)    (अरंबो॰93.10)
579    बोलना-बतियाना (भोला बाबू समय आउ सरीर के उपयोग खूब कस के कइलन हल । एक-एक मिनिट उनखर बिक्कल हल । कउनो इयार-दोस से भी बोले-बतियाय के समय नञ हल । ट्यूशन के एगो बैच गेल आउ दोसर खड़ा हल । कउनो कुटुम या दोस आइयो जा हलन तो भोला बाबू के ठीक से बोले-बतियाय के समय नञ हल । जो बोलवो-बतिअइवो कइलन तो ई भाव से जइसे उनखनी पर कउनो बड़का एहसान कर रहलन हे । ई बात नञ हल कि उनखो बोले-बतियाय में मन नञ लगऽ हल ।)    (अरंबो॰89.6, 8, 8-9, 10)
580    बोलावा (= बुलाहट) (थोड़िक्के देर बाद अध्यक्ष महोदय के बोलावा आयल ।)    (अरंबो॰26.7)

No comments: