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Sunday, June 02, 2013

91. मगही उपन्यास "बिसेसरा" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



बिरायौ॰ = "बिसेसरा" (मगही उपन्यास) - श्री राजेन्द्र कुमार यौधेय; प्रथम संस्करणः अक्टूबर 1962;  प्रकाशकः यौधेय प्रकाशन,  नियामतपुर, पो॰ - घोरहुआँ, पटना; मूल्य - सवा दो रुपया; कुल 82 पृष्ठ ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ, आउ दोसर संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

यौधेय जी मगही शब्द के अन्तिम अकार के उच्चरित दर्शावे खातिर 'फूल बहादुर' में जयनाथपति जइसने हाइफन के प्रयोग कइलथिन ह । जैसे - 'लगऽ' के स्थान पर 'ल-ग' ; ‘रहऽ के स्थान पर र-ह ;  बनऽ के स्थान पर ब-न ; ‘कोसऽ  के स्थान पर को-स इत्यादि । ई मगही कोश में एकरूपता खातिर अवग्रहे चिह्न के प्रयोग कइल गेले ह । हाइफन के प्रयोग लमगर शब्द के तोड़के सही उच्चारण के दर्शावे ल भी कइलथिन ह । जैसे - 'एकजनमिआपन' के स्थान पर 'एक-ज-नमिआपन' ; 'जोतनुअन' के स्थान पर 'जो-तनुअन' ; 'लगवहिए' के स्थान पर 'लग-वहिए' इत्यादि ।

मूल पुस्तक में शब्द के आदि या मध्य में प्रयुक्त वर्ण-समूह 'अओ' के बदल के '' कर देल गेले ह । जइसे - अओरत  के स्थान मेंऔरत’; नओकरी  के स्थान में नौकरी, इत्यादि ।

कुल शब्द-संख्या : 1614

ठेठ मगही शब्द ('' से '' तक) : 
1324    रंडी-पतुरिआ     (आउ पढ़ल-लिक्खल अदमी का गावत-बजावत । पढ़ल-लिक्खल लोग तो गवइ-बजवइ से घिनाऽ हे, कहे हे कि इ सए काम राड़ कौम के हे, रंडी-पतुरिआ के हे ।)    (बिरायौ॰28.14)
1325    रइअत (= रैयत)     (पहिले मल्लिक मालिक लग केउ मलगुजारी देवे चाहे सलामी देवे जाए त हेंट्ठे बइठे, भुँइए पर । का बाभन रइअत, का कुरमी रइअत । त बाभन लोग गते-गते चँउकी पर बइठे लगल । त फिन कुरमी लोग बइठे लगल ।)    (बिरायौ॰16.2)
1326    रगड़ा-झगड़ा     (न गे, सोबरनी के केउ चाहे कि फुसलाऽ ली त इ होवे ओला बात न हे । ... बाकि बेमन के बिआह ठीक न होवे हे, न गे । इ बात में एन्ने अदमी जोतनुअन से नीमन हे । उ सब में मेहररुअन के बड्डी दुख रहऽ हइ । रोज मारपीट, रगड़ा-झगड़ा ... ।)    (बिरायौ॰53.16)
1327    रग-रेसा     (अरे कइली से सब्भे अदमी, का बड़का का छोटका, काहे थर-थर करे हे, एही से कि कइली से छिप्पल न हे एक्को तितुली के रग-रेसा ! कहुँ खोल देलक तो मातवरी के टिपोरी आउ कोठा-सोफा के फुटानी एगो लमहर चौल बन जात ।)    (बिरायौ॰39.22-23)
1328    रगेदना     (चोपचक से गोहार चलत आउ एन्ने कसइलीचक से, भुइँअन के दक्खिन भागे ला छोड़ देवल जात । आज सोमार हे न । दसवें रोज के डीउ रहल । बिसेसरा के रगेद देवल जाएत मुसहरी से । बिसेसरा सब कमिआ के बिगाड़ रहल हे, कमिआ कहुँ बिगड़ गेल त खेतिए चौपट हो जात । ओकरा रगेद देना जरुरी हे ।; भुमंडल बाबू पिछुआऽ गेलन, पलटुआ आ तोखिआ पिठिआठोक रगेदित हे । बिसेसरा एकसिरकुनिए धउग रहल हे । मन्नी भगतिनिआ के टँगरी में का जनी कहाँ के बल आ गेलइ, ओहु हुँपकुरिए दउगित हे ।)    (बिरायौ॰74.7, 8; 75.16)
1329    रजपुत (= राजपूत)     (कुरमी लोग तो अपनहुँ हर जोत लेत हल, बाकि भुमिहार के हर छूने न । से बाभनो जोतनुआ नओ जाना बेस बुझलक । … बढ़ामन आउ रजपुत लोग फिन एही करलक ।)    (बिरायौ॰74.21)
1330    रट्ठेनएँले     (बाप रे बाप, एतने गो में तो एतना रुसा-फुल्ली करऽ हइ, दू बरिस के बाद तो आउ रोज रट्ठेनएँले रहतइ । न चुप रहबें ? अच्छा, ले एक पुरिआ आउ खा ले बाकि अबकी मुँह बएलें हें तो उठा के पटक्क देबउ ।)    (बिरायौ॰39.7)
1331    रतगरे     (रतगरे से चुड़कुट्टी सुरु होए, बहरी माँदर धँमसे, पचड़ा गवाए । एक पचड़ा खतम होए आउ भगत भर काबू टिटकारी मारे - "टीन-ट्री-पट-काक-छू !")    (बिरायौ॰9.10)
1332    रत-पठसाल (दे॰ रत-पठसाला)     (रत-पठसाल खोलल गेल । बजरंग के भराव ओला दरखत नाया-नाया कम्पा से भर गेल । बजरंग फिनो हाँथी-घोड़ा सपनाए लगल ।)    (बिरायौ॰49.25)
1333    रत-पठसाला (= रात्रि-पाठशाला)     (हम हिंआ दु-तीन रोज से एगो रत-पठसाला खोलली हे । पलटु-तोखिआ आउ दू-तीन गो बुतरु सए पढ़े हे, तोरा दिआ सुनली कि पढ़े में इँकसता ह । त आज से तुँहो पठसाला पर आवल करऽ ।)    (बिरायौ॰36.15)
1334    रमाइन     (गुलगुल दुब्भी । बिसेसरा पड़ रहल ओही पर । मालिक जनु भितरहीं हथिन । बेगर बोलएले भितरे जाना ठीक न हे । मालिक अपने चाल पारतन । रमाइन के एगो जोड़ती गुनगुनाए लगल बिसेसरा ।)    (बिरायौ॰62.3)
1335    रमौनिहार     (इ मुसहरिआ में ढोल बजऽ हइ हो, लपक ... अकान तो ... "पसिखाना भीर ओला चबुतरा पर सब्भे कोई औरते-मरदे चली जा । ... हरिजन के भलाई ला अफसरी छोड़ के मुसहरी में धुइँ रमौनिहार सामी जी के उपदेस सुन के जिनगी धन करऽ ... ।")    (बिरायौ॰20.12)
1336    रवादार     (बुतरुआ के गोदिआ से निच्चे उतारे ला चाहलक, बाकि उ उतरे पर रवादार न होल त खिसिआ के ओकरा उतार देलक - दिन भर गोदक्के चढ़त, अइसन नोंनु हे ।)    (बिरायौ॰35.4)
1337    रसहीं (= धीरे से ही)     (चन्नी माए फुसफुसएलन - सुनले हें कि न गे सोबरनी । / - का माए, हँम तो कुच्छो नँ जानऽ ही । - ओहु रसहीं बोलल ।)    (बिरायौ॰6.18)
1338    रसे-रसे (= धीरे-धीरे)     (आउ भगतवा जाके देखलक उनका, चुत्तड़ में दरद । अप्पन झोरी में से एक ठो ओर गोलिआवल एक बित्ता के डंटा इँकासलक, आउ गोरवा आउ कमरवा के जोड़वा भिजुन, चुतड़वा देने से किचकिचाऽ के डंटवा के देरी ले गड़ओले रहल । रसे-रसे कुछ बुदबुदएवो करे ।)    (बिरायौ॰8.11)
1339    रहंता (= रहनेवाला)     ( भाइ, बहिन लोगिन ! हम्मर घर इ इलाका में न हे । हम ही आन ठग के रहंता, बाइली आदमी । हाले हम एही इलाका से हो के सहर जाइत हली । जब इ इलाका के मुसहरी स के गरीबी देखली त हम्मर आँख भर आएल ...।)    (बिरायौ॰21.2)
1340    रहता (= रस्ता; रास्ता)     (रात भर भगतवा सोंस पाड़लक, मुँहलुकाने में जतरा बनवे लगल -  त हम अब चलित ही, आपके भलाई न भुलाम । कोई दिन झाड़-फूँक के जरूरत पड़े त हमरा खबर करम । घर हे हम्मर गयाजी से दक्खिन, बोधगया के रहता में, खाली लोंदा नाँव याद रक्खम ।; हमरा मालूम भेल कि तुँहनी दोम रहता पर लाती दे देलें । कमाए से पेट न भरत त अनकर धन से के दिन गुजारा होत ?)    (बिरायौ॰7.21; 27.1)
1341    राड़     (आउ पढ़ल-लिक्खल अदमी का गावत-बजावत । पढ़ल-लिक्खल लोग तो गवइ-बजवइ से घिनाऽ हे, कहे हे कि इ सए काम राड़ कौम के हे, रंडी-पतुरिआ के हे ।)    (बिरायौ॰28.13)
1342    राह बाबा     (एतबर भगतिन । दवा-बिरो, झाड़-फूँक आउ टोटमा में तोर चन्नी माए चन्निए माए हथ, सिनका तो तुँ कलपावें हें, कलपाना चढ़तउ कि का । डाँक बाबा, टिप्पु, राम ठाकुर, जंगली मनुसदेवा, बैमत, देवि दुरगा, गोरइआ, राह बाबा, किच्चिन, भूत-परेत सब्भे खेलवऽ हथ ... न इ बड़ा बेजाए करें हें ...।)    (बिरायौ॰25.12)
1343    रिक्खी (= रिखि; ऋषि)     (पहर रात बीत चुकल हे । सामी जी जमल हथ चबुतरा पर, आज अकसरे अएलन हे । चरखा चलावित हथ आउ समझावित हथ - ... देखऽ, रिक्खी लोग मेहनत के पूजा बरोबर करलन हे, जे बेगर कमएले खा हे उ चोर हे । जे मजुरी ले हे, आउ मटिआवे हे, उ कमचोट्टा अदमी नरक में जात ।)    (बिरायौ॰24.1)
1344    रुख-रोपा-सत्ता (~ मनाना)     (आज सँउसे बगइचा उजह गेल हे, एगो बूढ़ा पेंड़ बचवो करऽ हल त ओकरा सरकारी होए के डरे पहिलहीं लोघड़ाऽ के रुख-रोपा-सत्ता मनावल गेल ।)    (बिरायौ॰11.7)
1345    रुखे (= तरफ, ओर)     (भोलवा पछिम रुखे सोझ होल, सामी जी मुसहरी देने चललन ।)    (बिरायौ॰34.12)
1346    रुसना (= रूसना; रूठना)     (- तुँ बतबनवा हें, गालु हें । जो, तोरा से हम आज से न बोलबउ । हमर सखिवा मुँह फेर के बइठ रहलइ । - रुस गेलें । ... न बोलबें । बिसेसरा ओकरा झकझोरे लगलइ ।)    (बिरायौ॰60.16)
1347    रुसा-फुल्ली     (बाप रे बाप, एतने गो में तो एतना रुसा-फुल्ली करऽ हइ, दू बरिस के बाद तो आउ रोज रट्ठेनएँले रहतइ । न चुप रहबें ? अच्छा, ले एक पुरिआ आउ खा ले बाकि अबकी मुँह बएलें हें तो उठा के पटक्क देबउ ।)    (बिरायौ॰39.5)
1348    रूसल (= रूठा हुआ)     (- बोलें न । - अच्छा, बोलबउ, बोलबउ । अब जो घरे । - तुँ रूसल हें । - न हो ।)    (बिरायौ॰60.19)
1349    रेआन     (पँड़वा तो कहे हे कि "इ गुरुअइ का करत, खाली ढकोसला रचना चाहे हे, जे में रेआन के भलाइ-करंता गिनाइ आउ रेआन केउ चाल-चलन पर सक न करे, एक्कर सब्भे रंग-ढंग चार-से-बीस के हउ, दाव मिलतउ तो दू-चार गो लड़किओ के ओन्ने हटा के बेंच-खोंच देतइ ।"; आज सरब जात के लोग गुरुअइ कर रहल हे, कलजुग न ठहरल । सब के कइसहुँ भठना ठहरल । ... हम्मर काम हल मुसहरी सेवे के ? ... बाकि का करूँ ! पहिले रेआन लोग के चेला न मुड़ऽ हली, जनेउ न दे हली । से घटला पर ओहु लोग के जजमान बनौली, एन्ने लोग जनेउ-उनेउ तोड़-ताड़ के किरिस्तान हो गेल ।)    (बिरायौ॰19.23; 46.24)
1350    रेख-उठान     (घरवन के करे में सूअर के बखोर । पुरवारी बगइचवा में एगो उजड़ल घर जेकर ओटा बहारल-सोहारल । मुसहरी के रेख-उठान आउ अधबएस छौंड़ से हिंए धुरी लगावे हे ।)    (बिरायौ॰11.13)
1351    रेघ     (बिसेसरा के लिलार पर अबीर लगौलक आउ झुम्मर उठौलक । ... रेघ पकड़ के आउ लोग दोहरएलन ।)    (बिरायौ॰31.21)
1352    रेजवन     (चबुतरा पर तिलो रक्खे के दाव न । मेहरारु सए एकदिसहाँ खचकल हे तल-उपरी । लइकन-फइकन अलगे जोड़िआल हे । लड़कोरिअन सब काहे ला चल अलइ हे, रेजवन कउहार कएले हइ, अन्नस बराऽ देलकइ की ।)    (बिरायौ॰20.22)
1353    रेजा     (आनो मुलुक में लोग छुच्छा होवे हे । बाकि उ लोग के अजादी हो हे अपना पसंद के धंधा-रोजगार करे के । हमनी के उ अजादी न हे । हमनी चाही कि सहर में जाके नौकरी-मजूरी करी, दुकानदारी करी, गड़ीवानी करी, रेजा में खटी त अइसन न कर सकऽ ही, काहे कि अजाद न ही ।)    (बिरायौ॰70.5)
1354    रेला (= सेना या समूह द्वारा चढ़ाई, धावा, हूह; धक्का, रेलपेल; धारा का बहाव; होड़; बहुतायत)     (लंगोट कसले बिसेसर आउ मकुनी अखाड़ा में उतरल । ताल ठोक के दुन्नो हाँथ मिलौलक आउ ढिब गेल । मकुनी एगो रेला देलकइ, बिसेसरा ठेलाएल गेल । बिसेसरा मकुनी के आगु मुँहे तीरलक, मकुनी अड़ गेल । बिसेसरा मकुनी के पँजरा में आ गेल, ओकरा टाँग के पीठ पर ले गेल ।; ओ, जनु सभा होतइ । देखे के चाही । उ चट सीना रिकसवा अपना मालिक भीर पहुँचा के घुरल । भीतरे गेल । भीतरे अदमी से सँड़सल, अँटान न हल । एगो हलुक रेला देके ठाड़ा होए भर दाव बनौलक आउ ठाड़ हो गेल ।)    (बिरायौ॰31.7; 51.24)
1355    रेलाना     (लोगिन बस गेल हुँए, बजे लगल मँदरा रोज बिन नागा । समय के पहाड़ी सोता में दिनन के इँचना पोठिआ रेलाएल गेल निच्चे मुँहे ।)    (बिरायौ॰11.5)
1356    रेवाज (= रिवाज, नियम, प्रथा)     (- कइसन रेवाज चललइ सब में ! / - कइसनो रेवाज चलइ, बाकि ओछ हमनिए गिनइबें ।)    (बिरायौ॰6.25, 26)
1357    रोख (~ बिगड़ना)     (बढ़ामन, बाभन, कुरमी सब्भे जात के जोतनुअन के छवाड़िक के रोख बिगड़ल, मँगरुआ के पकड़ लौलक सब भुमंडल बाबू भीर - देखी गेंहुम सिसोह रहल हल । - मार सार के दू-चार तबड़ाक ! मंगरुआ ढनमना गेल ।)    (बिरायौ॰17.9)
1358    रोखे (दे॰ रुखे)     (सल्ले-बल्ले भोलवा उठल, घरे गेल । घरे लुकना ठीक न बुझलक । अप्पन छुरवा लेलक, एक बोतल खाँटी सराब लेलक, बोलल - एक-दू दिन में तुहुँ चल अइहें । आउ दक्खिन रोखे सोझ हो गेल । जनु अप्पन बाप के बेख पर मेंहदीचक जाइत हे ।)    (बिरायौ॰43.12)
1359    रोजिना     (पहिले तो तुँ कहऽ हलें कि पढ़-लिख जात त अदमी तनी दवा-बिरो के हाल जान जाएत । ओझा-गुनी के फेरा में न रहत । फलना हीं के भूत हम्मर लइका के धर लेलक, चिलना के मइआ डाइन हे, हम्मर बेटी के नजरिआऽ देलक हे, इ लेके जे रोजिना कोहराम मच्चल रहे, से न रहत । पढ़े-लिक्खे से लुर-बुध फरिआत ।; माए-बाप हमरा भोलवा नाँव धरलक हल से हिंआ रोजिना के बोला-बगटी से मिजाज अइसन दोम हो गेल कि केकरो मिट्ठो बात हमरा न सोहाऽ हे । आज गिढ़त से झगड़ा हो गेल हे, अब हिंआ से न टरम त जान के जोखिम हे ।)    (बिरायौ॰29.6; 42.5)
1360    रोना-कनना     (पलटु एक-दू पिआली घरउआ दारू पीलक, एगो बोंग लाठी लेलक आउ सल्ले-बल्ले उत्तर मुँहे सोझ हो गेल । पिपरिआ आँटे जाके बइठ रहल । मुसहरिआ में कोई औरत पिपकार पार के रोवे लगलइ । थोड़िक देर बाद रो-कन के चुप हो गेलइ ।)    (बिरायौ॰25.3-4)
1361    रोपनी-डोभनी     (एही सब तो मातवरी-मेहिनी के चिन्हा हइ । इ सब के परतक कइसे करबें तुँहनी । तुँहनी साँझ के झुमर गएबें, अरमना करबें, हिंआ सास-पुतोह के महभारत सुरु होतउ । तुँहनी रोपनी-डोभनी करबें, कटनी करबें आउ साथ हीं साथ गीतो गएबें । हिंआ कोकसासतर आउ तोता-मैना बाँचल जतउ ।)    (बिरायौ॰65.25)
1362    रोपा-डोभा     (सावन-भादो में चार घोंट अहरी के अन्डर बोए पानी के अस्तालक पर सगर दिन लप-निहुर के बरखा-बुन्नी में भींज-तीत के रोपा-डोभा करम हँम, आउ इ जुअनिआ-मुना पसिनिआ के फेर में पइसा जिआन करत, पी-उ के गारी-गुप्ता करत ।; दू सेर खेसारी मजूरी में मिलत । दसे-बीस रुपइआ में अपनहुँ बिकली, मेढ़ानुओ बिक्कल आउ लइकनो-फइकन । मेढ़ानु के कुटनी-पिसनी, रोपा-डोभा करे पड़त, लइकन गिढ़थ के जनावर के छेंक-रोम करत ।)    (बिरायौ॰5.11; 70.11)
1363    रोमना (= चरते समय मवेशियों को भटकने से रोकना; जानवरों को चरने के लिए घेरकर रखना, चरते समय मवेशियों की देखभाल करना) (सुअर ~)     (हमनी के लइकन कमजेहन न हो हे । बाकि गरीबी के ओज्जह से पिछड़ जा हे । काहाँ घर पर पढ़इआ आउ काहाँ सुअर रोमना !)    (बिरायौ॰72.2)
1364    रोवा-रोहट     (आउ अबके मुसहरिआ में रोवा-रोहट कइसन होए लगलइ हल हो ? - भोला भाई से दरिआफऽ ।; न चुप रहबें ? अच्छा, ले एक पुरिआ आउ खा ले बाकि अबकी मुँह बएलें हें तो उठा के पटक्क देबउ । दिन-रात रोवे-रोहट करले रहे हे । न मरे हे, न जीए हे, चोला इछनाऽ देलक ... ।)    (बिरायौ॰25.13; 39.8-9)
1365    रोहता (= रोहँत; दशा, हालत; बाहर-बाहर दिखनेवाले लक्षण; स्वास्थ्य अच्छा होने या बिगड़ने के लक्षण)     (देखी मालिक, दीदा के रोग हे, खेल नँ हे । बउआ के रोहता ठीक लउके हे, इ से हमरा उम्मीद हे ।; - डाकडर से देखौलें हल ? - हूँ, डाकडर कहलक कि कारन है, हुँसटोरिआ है, दवा से ठीक हो जागा । - न बुन्नी, ठगना चाहऽ होतउ, अच्छा करलें कि दवाइ छोड़ देलें । हम तबिज बना देबउ, बिहान कखनिओ आके ले जइहें । दसे दिन में रोहता बदल जतउ ।)    (बिरायौ॰9.7; 32.12)
1366    रोहा     (अच्छा तोर लइका के आँख में ... जरी एन्ने लावऽ, देखिकऽ । फुल्लो हइ आउ रोहो । रोज अँखवा के सेंक के आँजन लगावे पड़तवऽ । हम्मर मौसेरी बहिन आँजन घँस्से हे, केत्ता अदमी के रोहा अच्छा करकइ हे ।)    (बिरायौ॰32.18)
1367    रौदार (दे॰ रवादार)     (केतेक अदमी दुख पड़ला पर लोंदा भगत हीं से भभूत लौलक, भगवान के माया, सब्भे के भलाइए होल । लोग कोटिन-किल्ला कएलक जे में लोंदा भगत के कसइलिए चक में बसावल जाए, बाकि नँ तो मल्लिके मालिक बसे ला जमीन देवे ला रौदार होल न बाभने मालिक ।)    (बिरायौ॰8.25)
1368    लंद-फंद     (पँड़वो से अबहीं बेसी हेल-मेल ठीक न हउ, समिआ बुझाऽ हउ पहुँच ओला अदमी, कहुँ लंद-फंद में फँसा देलकउ त ... ।)    (बिरायौ॰22.5)
1369    लइकन-फइकन     (भगतवा के छओ लइकवन, फेर अप्पन मेहरी, लइकन-फइकन जौरे कसइलिए चक बसे ला पहुँचल । भगत के छओ लइकन किजर निअर जुआन, उलटल सीना, केला के थम्ह निअर कल्हा ओला ... ।; दू सेर खेसारी मजूरी में मिलत । दसे-बीस रुपइआ में अपनहुँ बिकली, मेढ़ानुओ बिक्कल आउ लइकनो-फइकन । मेढ़ानु के कुटनी-पिसनी, रोपा-डोभा करे पड़त, लइकन गिढ़थ के जनावर के छेंक-रोम करत ।)    (बिरायौ॰10.4; 70.10)
1370    लइकाइ (= लड़कपन, बचपन)     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक । एत्ता दिन खेपली, लइकाइ गेल, लड़कोरी भेली, अब जाके केसो उजराए के दिन नगिजात, त अब के का एकरा छोड़ के दुसरा के हाँथ-धएना हे !)    (बिरायौ॰5.15)
1371    लइका-सिआन     (ताड़ी-सराब के पिनइ के रसे-रसे कमाऽ देना जरूरी हे, पठसाला में सब कोई लइका-सिआन, बच्चा-सरेक, मरद-मेहरारु आवऽ, तुँहनी खाली साथ द, देखऽ हम तुँहनी लागी का करऽ ही ।; त सउँसे मुसहरी के कुल्लम सरेक लइकन-सिआन आउ उमरगर अदमी जनेउ ले लेलक । पंडी जी संख फुँकलन, हरकिरतन भेल, हुँमाद धुँआल ।)    (बिरायौ॰21.17; 49.19)
1372    लउकना (= दिखना)     (देखी मालिक, दीदा के रोग हे, खेल नँ हे । बउआ के रोहता ठीक लउके हे, इ से हमरा उम्मीद हे ।)    (बिरायौ॰9.7)
1373    लगले (= तुरते, तुरन्ते)     (जे लोग गिरहत धरले हल, उ लोगिन अप्पन-अप्पन गिरहत के खरिहानी में गाँज जौर करे में जान लगा देलक, उगेन होल त लगले पसारे में बेदम्म हो गेल ।)    (बिरायौ॰41.15)
1374    लगवहिए (= लगातार)     (हम्मर भाई के गेठिआ सतावित हे । जरी देख ल । बइदक दवाई करइते-करइते घर खोंक्खड़ हो गेल । सुरु बरसात से बेमारी उपटल हे । दू महिन्ना ले लगवहिए उनाह लेलन, एक मन ले आसो-अरिस्ट पी गेलन, सोना फुँकओली, लोहा कुँकओली, बाकि कारन जरी बिचो न होल ।)    (बिरायौ॰7.25)
1375    लगुआ-भगुआ     (खाली हमनी के गरीब गुने लोग छोटजतिआ कहे हे । लुग्गा-फट्टा के मेहिनी धन के बात हे । जउन जात तलवर हे, तउन मेहिनी हे । दाइ-लउँड़ी, नौकर-नफ्फर, लगुआ-भगुआ सब धन के सिंगार हइ । इ में जात के छोटइ-बड़इ के कउन बात हइ ।)    (बिरायौ॰56.24-25)
1376    लजाकुर (= लज्जालु, शर्मीला)     (ले बिसेसरा, हें तकदीर ओला । आज चँताइए जएतें हल, भागो सोबरनी आके हमरा जगौलक आउ कहलक कि बरखवा में बिसेसरा भिंजित होतइ, मड़इआ उदाने हइ, बोलाऽ लेतहु हल । ... सोबरनिए के भेजलुक हल पहिले । बाकि बड़जतिअन निअर लजाकुर न हे, रहवे में से लौट गेल । त हम अइलुक ... ।)    (बिरायौ॰76.27)
1377    लटना (= दुबराना; दुर्बल होना)     (बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के । बाकि हम्मर बात पर कान न देलक । अप्पन देह के भुँज देलक बिख के घम्मर में । हाए, सउँसे जिल्ला में बरऽ हल सोबरनी, से देखते-देखते लट के परास हो गेल ।)    (बिरायौ॰77.21)
1378    लड़ंत     (तोखिआ - अरे तुँ तो ठठलें हल, घंटन ले तर-उप्पर होइत रहलें, हमरा तो बीसे मिनट में चित कर देलकइ हल । अब बिसेसर हाँथ मिलावत । देखऽ चौगिरदी के सब्भे नामी-गिरामी लड़ंतन के उ पीठ-लेटउनी कर चुक्कल हे ।)    (बिरायौ॰30.27)
1379    लड़ंतिआ (< लड़ंत + 'आ' प्रत्यय)     (सुनी जा भाई ! कसइलीचक के मुसहरी में अखाड़ा हे, धुरी लगावे हे बलमा, कमेसरा, पलटु आउ बिसेसरा ! … इ हे तोखिआ, पेंच में माहिर हे, पत बरिस दस-पाँच लड़ंतिआ के मिट्टी चुमावे हे ।; आज इलाका के नामी लड़ंतिआ मकुनी अहीर के बद्दी होत बिसेसर माँझी से । नामी लड़ंतिआ पलटु के ओस्ताद हे बिसेसर माँझी ।)    (बिरायौ॰30.16; 31.4, 5)
1380    लड़कोरी     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक । एत्ता दिन खेपली, लइकाइ गेल, लड़कोरी भेली, अब जाके केसो उजराए के दिन नगिजात, त अब के का एकरा छोड़ के दुसरा के हाँथ-धएना हे !; चबुतरा पर तिलो रक्खे के दाव न । मेहरारु सए एकदिसहाँ खचकल हे तल-उपरी । लइकन-फइकन अलगे जोड़िआल हे । लड़कोरिअन सब काहे ला चल अलइ हे, रेजवन कउहार कएले हइ, अन्नस बराऽ देलकइ की ।)    (बिरायौ॰5.15; 20.22)
1381    लतवस     (आउ सीधा-सपट्टा मजूर में से अदमी जागल । उ एन्ने-ओन्ने जरी ताकलक आउ बाबू साहेब से अझुराऽ गेल । बिसेसरा खूब सरिआऽ के लतवस देलकइन । लोग धउगल तखनी ले उ अप्पन रिकसा लेले दू-तीन बिग्घा दूर हल ।)    (बिरायौ॰51.16)
1382    लतवसना (= लतियाना)     (बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के ।)    (बिरायौ॰77.19)
1383    लथेरना     (हउ रजनीतिआ हबगब ? करले हें अदमी के संगत ? अब हम चललुक मुटुकवा । बिसेसरा चलल सीना तान के, लथेरलक हे मुटुकवा के । इ सब जानवे कउची करे हे अबहीं ।)    (बिरायौ॰56.8)
1384    लपना-निहुरना     (सावन-भादो में चार घोंट अहरी के अन्डर बोए पानी के अस्तालक पर सगर दिन लप-निहुर के बरखा-बुन्नी में भींज-तीत के रोपा-डोभा करम हँम, आउ इ जुअनिआ-मुना पसिनिआ के फेर में पइसा जिआन करत, पी-उ के गारी-गुप्ता करत ।)    (बिरायौ॰5.10)
1385    लप्पड़-थप्पड़     (बाकि मँगरुआ न उठल खटिआ पर से । आज खटिआ पर से न उठल, बिहान सलाम करना छोड़ देत । सेकरा बाद साथहुँ बइठे के हिआव करे लगत । ओकरा लप्पड़-थप्पड़ कर देना जरूरी हे ।)    (बिरायौ॰17.8)
1386    लफार     (पह फट्टे खनी असमान एकदम्मे निबद्दर हल, बाकि तुरंते बदरी कचरिआए लगल । लफार पछिआ उठल । देखित-देखित में चउगिरदी करिवा बादर तोप देलक । बड़का-बड़का बूँद टिपटिपावे लगल ।; झरक निअर दिन । दिन भर लफार पछिआ । अदमी लुक्कल रहे दिन भर । साँझ होए त अदमी के जान में जान आवे ।)    (बिरायौ॰41.8; 46.8)
1387    लमढेंग     (का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰66.9)
1388    लमहर (= लम्बा, बड़ा)     (सब्भे एक देने डोरिआएल । सौ डेढ़ सौ डेग के अन्दाज उत्तर जाके लोगिन ठुकमुकिआऽ गेल । पलटु अकसरे बढ़ल चल गेल, एगो लमहर खेत के चौगिरदी घुम गेल, भुनकल - साह-गाह ले अएलुक, जीउ से खटका इँकास दे आउ जुट जो ।; अरे कइली से सब्भे अदमी, का बड़का का छोटका, काहे थर-थर करे हे, एही से कि कइली से छिप्पल न हे एक्को तितुली के रग-रेसा ! कहुँ खोल देलक तो मातवरी के टिपोरी आउ कोठा-सोफा के फुटानी एगो लमहर चौल बन जात ।; केतना तो सहरवा में बाल-बुतरु सुधा मेहरारु संगे मोटर पर इँकसऽ हइ । सहर में लमहरो अदमी के मेहरारुन सब परदा में न रहऽ हथी । लोगिन कहे हे कि मुसहर-दुसाध के मेहरारु सब परदा में न रहे हे, इ से लोग छोटजतिआ गिना हे ।)    (बिरायौ॰26.2; 40.1; 56.15)
1389    लर-जर     (भगत के छओ गो कमासुत लइकन फिन बसे ला आएल हे, इ बात के खबर सँउसे कसलीचक में हो गेल । सब्बे पट्टी के लोग जुटल । बाभन मालिक जिक धर लेलक - भगत अप्पन लर-जर साथे हमरे जमीन में बसे ।; थकल-माँदल कहुँ खीस-पीत कर लीं, मन गरमाल आउ साइत के मारल मार-पीट कर बइठली त एक्को रोआँ साबित न बचत । हिंआ ही हम ससुरार में, सउँसे मुसहरी ओकरे लर-जर हे । जरी सुन ओकरा आँख देखवऽ ही, ओकरा पर गुड़कऽ ही आउ सउँसे मुसहरी हमरे पर ले लाठी तइआर हो जा हे ।)    (बिरायौ॰10.9; 34.7)
1390    लरताँगर (= लरबर; शिथिल, ढीला-ढाला; चेतना-शून्य)     (सुरु बरसात से बेमारी उपटल हे । दू महिन्ना ले लगवहिए उनाह लेलन, एक मन ले आसो-अरिस्ट पी गेलन, सोना फुँकओली, लोहा कुँकओली, बाकि कारन जरी बिचो न होल । ओन्ने झपसी होए त पारु हो जा हलन, उगेन होए त टनटनाऽ जाथ । बाकि तोरा से का छिपइवऽ, इ घड़ी तो एकदम्मे लरताँगर हथ ।; लाख रुपइआ के बात कहलें सोबरनी दीदी ! आज के करनाह समाज के जदगर-लिखंता लोग के विचार-कनखी लरताँगर हे !)    (बिरायौ॰8.3; 66.12)
1391    ललकना     (गोहार चढ़ आएल । दुतरफी ढेलवाही होए लगल । बिसेसर भइआ कहलन - मर मिटना हे, बाकि पिछलत्ती न देना हे । पलटुआ एकबएग ललकल आगु मुँहें, आउ भुमंडल बाबू के गोहार भाग चलल ।)    (बिरायौ॰75.12)
1392    ललटेन (= लालटेन)     (पित्तर के चमाचम ललटेन बर रहल हे । सउँसे मुसहरी के कुल्ले अदमी जुटल हे । चबुतरा पर तिलो रक्खे के दाव न ।)    (बिरायौ॰20.19)
1393    लल्लो-चप्पो     (त तो खुब्बे भलाई करतउ, गिरहत के अन्न खतउ, से हमनी के पट्टी रहतउ । जरी सुन, केउ के सूअर-माकर केकरो खेत में पड़लउ आउ बोला-बगटी होलउ, बस धर-पकड़ करौलकउ । अबहिंए हमनी के चेत जाना बेसतर हे । जहाँ हमनी लास-फुस लगएलें, लल्लो-चप्पो कएलें कि डेरा जमा देलकउ आउ आगु चल के हमनिए के दिक-सिक करतउ ।)    (बिरायौ॰22.1)
1394    लहरा (एक ~ बरखना)     (पटना-गया रेलवे लाइन के बगल में एगो बजार । असाढ़ के महिन्ना हे । दिन फुलाइत हे । पच्छिम से बरसात के पहिला घट्टा उठल, एक लहरा बरख गेल, बाकि घट्टा न हटल, घोकसले रहल ।)    (बिरायौ॰68.2)
1395    लाट (= समीप का या सुविधाजनक स्थान, यथा: लाट के खेत)     (इ मुसहरिआ आप लोग के लाट में हवऽ, आप लोग के जोर पर हम हकविसवे सम्हार लेम । हमनी के गोटी लाल अस्सो करके होत ।)    (बिरायौ॰47.7)
1396    लाठी-बद्दी     (बिसेसरा भरभराए लगल - आज भोलवा के टोकारा देलिवऽ हल मंगरु चा । कहलिअइ - "देख भोलवा, जिनगी अकारथ जतउ, पढ़वे-लिखबें त लोक-परलोक दुन्नो बनतउ । लाठी-बद्दी के जमाना गेलउ, नाया जमाना में ओही अदमी हे, जे पढ़ल-लिखल हे, देस-परदेस के खबर रक्खे हे ... ।")    (बिरायौ॰13.5)
1397    लाती     (हमरा मालूम भेल कि तुँहनी दोम रहता पर लाती दे देलें । कमाए से पेट न भरत त अनकर धन से के दिन गुजारा होत ?)    (बिरायौ॰27.1)
1398    लाल-पिअर (~ होना = गुस्सा करना)     (- आइँ हो भोलवा, तुँ आज गिरहतवा से गारी-गुप्ता काहे ला करलहीं हे ? तोखिआ दरिआफलक । - बरखवा छिमा होतहीं लगले पसारे कहलक त कहलिअइ कि जरी भुइँवो तो बराइ, अइसे पसारे से तो नोकसवानी होतइ । एही पर लाल-पिअर होए लगल, बड़का भइवा अलइ त ओहु चनचनाए लगल ... ।)    (बिरायौ॰42.18)
1399    लास-फुस     (त तो खुब्बे भलाई करतउ, गिरहत के अन्न खतउ, से हमनी के पट्टी रहतउ । जरी सुन, केउ के सूअर-माकर केकरो खेत में पड़लउ आउ बोला-बगटी होलउ, बस धर-पकड़ करौलकउ । अबहिंए हमनी के चेत जाना बेसतर हे । जहाँ हमनी लास-फुस लगएलें, लल्लो-चप्पो कएलें कि डेरा जमा देलकउ आउ आगु चल के हमनिए के दिक-सिक करतउ ।)    (बिरायौ॰22.1)
1400    लास-फुस (= संबंध, लगाव) (~ लगाना)     (अब हम चलुँ कनिआ ! हम तो लास-फुस लगवित हली आप लोग से कि कुछ लुर-बुध होत बाकि जब मालिक लोग के नगवार हे त का आम !)    (बिरायौ॰66.13)
1401    लिखना (~ ~)     (आउ पढ़े से का होतइ । माए-बाप के दुलरनी बेटी हली, जाके छौ महिन्ना ले अहिरटोली के पठसाला में पढ़ली होत । तीन-चार गो किताब पढ़ गेली हल, लिखनो लिख ले हली ... बाकि का फएदा होल ... ।)    (बिरायौ॰38.7)
1402    लिट्टी     (एगो बुतरु हे ओकरे माया-मोह हे, न त जलगु ले अप्पन सवाँग ठीक हे, तलगु ले दू गो लिट्टी मोहाल न रहत ।)    (बिरायौ॰5.18)
1403    लिट्टी-अँकुरी     (लिट्टी-अँकुरी के दोकान भीर पहुँचल । मैदवा के लिटिआ बड़ी मजगर बुझाऽ हइ । दू पइसा में एक लिट्टी, बाकि गुल्लर एतबर तो रहवे करऽ हइ । दुअन्नी के चार ठो टटका लिट्टी, एकन्नी के अँकुरी ... अच्छा लगऽ हइ ।)    (बिरायौ॰55.6)
1404    लिप्पल-पोतल     (बिच्चे मुसहरी एगो नीम के पेंड़ फुलाइत हे । चार गो गबड़ा । सब घर बेकेंबाड़ी के । पुरब तरफ एगो तेली के दुकान, सटले पसिखाना । पसिखनवा के पिछुत्ती एगो मिट्टी के चबुतरा लिप्पल-पोतल ।)    (बिरायौ॰11.12)
1405    लुक (= ?)     (- त गोहुमा के बीग आव जाके, जेकर हइ सेकरे हीं । - गिलटु के घरे ? ... कुत्ता लगे लगतइ । - तोरा डर लगऽ हउ त लाव, हम बीग आवऽ हिक । - अन्छा, ले आवी लुक, बाकि एक मन हइ ।)    (बिरायौ॰27.8)
1406    लुकलुक (बेर ~ करना = बेर लुकलुकाना)     (बेर लुकलुक करित हल । पुन्ना पाँड़े के लेके अकलु लौटल । देखतहीं बजरंग के जीउ हरिअर हो गेल ।)    (बिरायौ॰46.9)
1407    लुग्गा (= साड़ी)     (सोबरनी (दह-दह पीअर लुग्गा, हरिअर कचनार झुल्ला पेन्हले) अबीर लेके झाँझ झँझकारित आगु बढ़ल । बिसेसरा के लिलार पर अबीर लगौलक आउ झुम्मर उठौलक ।; लुग्गा फिंचे ला बहराएल कमेसरा बहू मुँहलुकाने में । नदिए पर तोखिआ बहू भेंटा गेलइ ।; चन्नी माए नाया हरिअर कचनार लुग्गा पेन्हले हथ । सौ-पचास अदमी के भीड़ हे उनका भीर ।; आजे राते सोबरनी आउ बिसेसरा के समझाऽ बुझाऽ के सगाई कराऽ देलिक । से इ सोबरनी लुग्गा देलक हे ।)    (बिरायौ॰31.14; 52.14; 77.1, 25)
1408    लुग्गा-फट्टा     (खाली हमनी के गरीब गुने लोग छोटजतिआ कहे हे । लुग्गा-फट्टा के मेहिनी धन के बात हे । जउन जात तलवर हे, तउन मेहिनी हे । दाइ-लउँड़ी, नौकर-नफ्फर, लगुआ-भगुआ सब धन के सिंगार हइ । इ में जात के छोटइ-बड़इ के कउन बात हइ ।; अब अदमी बिआह करत आ जरी लाल-पीअर लुग्गो-फट्टा न पेन्हलक त बिआह कउची होलइ । न बाजे-गाजा, न गीते-झुमर, न खाने-पान होलइ, त बिआह कउची होलइ ।)    (बिरायौ॰56.23; 61.10)
1409    लुदकी (~ चाल)     (रहतवे पर एगो कुत्ती आँख मुँदले पड़ल हल, सामी जी के देख के घोंघिआल, बाकि भुक्कल न, लुदकी चाल में उठ के भागल ।)    (बिरायौ॰34.23)
1410    लुर (= लूर)     (तोखिआ मेरौलक - इक्का डेढ़ बरिस से लोगिन पाँड़े के पँओलग्गी करित हे, आउ अबहीं ले एक्को किताब पढ़े के लुर केकरो न होलइ हे । पाँड़े के फेरा में तो लगे हे अदमी आउ बुड़बक बन जाएत ।; सभा-सोसाइटी चलवे के लुर सिखलें हें ? एक काम कर । अबहीं रह जो दू सत्ता आउ । हमरा साथे नवजुआन सभा के कामकरंता कमिटी के बइठकी में भाग ले ।)    (बिरायौ॰27.26; 64.10)
1411    लुर-बुध (~ फरिआना)     (पहिले तो तुँ कहऽ हलें कि पढ़-लिख जात त अदमी तनी दवा-बिरो के हाल जान जाएत । ओझा-गुनी के फेरा में न रहत । फलना हीं के भूत हम्मर लइका के धर लेलक, चिलना के मइआ डाइन हे, हम्मर बेटी के नजरिआऽ देलक हे, इ लेके जे रोजिना कोहराम मच्चल रहे, से न रहत । पढ़े-लिक्खे से लुर-बुध फरिआत ।; अब हम चलुँ कनिआ ! हम तो लास-फुस लगवित हली आप लोग से कि कुछ लुर-बुध होत बाकि जब मालिक लोग के नगवार हे त का आम !; सहजू सिंह के पुतोह से सोबरनी लुर-बुध सीख रहल हे, ओकरे पर चाँप चढ़ावे ला सहजू सिंह के कहल जात । उ छोटजतिआ मेहरारु के सहसरंग काहे करत !)    (बिरायौ॰29.7; 66.14; 78.3)
1412    लुसफुसाना     (से तो हइए हइ गे, पढ़त-लिक्खत कउची बाकि खाली हिरिस हइ आउ का । जाए ला मनवे लुसफुसाइत रहतउ ।)    (बिरायौ॰53.5)
1413    लुहेंगड़ा (= लुँगेड़ा)     (बिसेसरा बिड़ी के फेरा में गँउआ में गेल, सउआ के दोकनवा भीर गँउआ के लुहेंगड़वन के जमकड़ा तो लगले रहऽ हइ, एहु बिड़िआ सुलगाऽ के बइठ गेल । सउए टुभकल - आज मुसहरिआ में दफदार अलउ हल ?)    (बिरायौ॰17.16)
1414    ले (= तक)     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.8)
1415    ले लाठी (= लाठी लेकर के)     (थकल-माँदल कहुँ खीस-पीत कर लीं, मन गरमाल आउ साइत के मारल मार-पीट कर बइठली त एक्को रोआँ साबित न बचत । हिंआ ही हम ससुरार में, सउँसे मुसहरी ओकरे लर-जर हे । जरी सुन ओकरा आँख देखवऽ ही, ओकरा पर गुड़कऽ ही आउ सउँसे मुसहरी हमरे पर ले लाठी तइआर हो जा हे ।)    (बिरायौ॰34.5)
1416    लेखा (= समान, जैसा)     (गलिआ में दू गो चार गो अउरत-मेढ़ानु तो बरमहल अइतहीं-जइतहीं रहऽ हइ, बाकि चन्नी माए के देख के सोबरनी चुप हो गेल । अप्पन सन लेखा केस के हगुआवित-हगुआवित चन्नी माए ठड़े-ठड़े टुभक पड़लन - का भार-भीर परलउ हे गे सोबरनी । एगो लइका भेलउ सेइ से बुढ़ी हो गेलें ।)    (बिरायौ॰6.2)
1417    लेदाह (= लेदहा)     (घरवा के सजउनी देख के बिसेसरा अकचकाएल निअर कएले हल । एतने में एगो लेदाह अदमी उँचका कुरसिआ पर गद देबर लद गेलइ ।; का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰51.26; 66.8)
1418    लोग-बाग     (गान्ही जी के हिरदा में लोग-बाग ला नेह के समुन्दर हलफऽ हल ! जेकर हिरदा में मुलुक के लोग धिआ-पुता ला ओइसन नेह पनपत उ अजादिए के डाहट लगवत ।)    (बिरायौ॰62.17)
1419    लोर (= आँसू)     (आजे राते सोबरनी आउ बिसेसरा के समझाऽ बुझाऽ के सगाई कराऽ देलिक । से इ सोबरनी लुग्गा देलक हे । भगवान लोर पोछथिन सब के ।/ सब केउ अप्पन-अप्पन घर गेल ।)    (बिरायौ॰77.25)
1420    लोहबन्दा     (चलऽ, झगड़ा-रगड़ा करना बेस न हे, टर जइते जा । सेराऽ जाएत त आवत अदमी । सब औरते-मरदे लइका-सिआन के लेके दक्खिन मुँहें सोझ होल, बाकि बिसेसरा पलटुआ आउ तोखिआ-उखिआ दसन छौंड़ ढिब्बल हे अप्पन-अप्पन लोहबन्दा लेके । सब के दुरगर पहुँचा के मन्नी भगतिनिआ घुर आएल ।)    (बिरायौ॰75.9)
1421    विचार-कनखी     (हमनी मजूर के आउ तलवरन के विचार-कनखी में भारी फरक हइ कनिआ । हमनी ओही अदमी के सुत्थर कहबइ जेकर बनकस बेस होतइ ।; लाख रुपइआ के बात कहलें सोबरनी दीदी ! आज के करनाह समाज के जदगर-लिखंता लोग के विचार-कनखी लरताँगर हे !; कइसन घिनावन हे पुरान नओंनेम कि जे कोई परजात से सादी करे ओकर जन-फरजन के हिरदा में बरोबर हिनजइ के काँटा चुभित रहे । समाज में नाया विचार-कनखी छवाड़िक लोग न लावत त आउ कउन लावत ।)    (बिरायौ॰66.1, 12; 78.26)
1422    विरोधतइ     (अच्छा, इ काम तुँ करऽ, हमनी के कोई विरोधतइ न हे । बाकि 'जुआन-सभा' के सवांग बनऽ ह न ? बिभूति बाबू जोर मारलन ।)    (बिरायौ॰67.20)
1423    सँउसे (= सउँसे; समूचा)     (मलिकाइन धउग के बहरी आके खबर करलन, सब कोई भितरे दउगल, सँउसे हवेली गाँओ के अदमी से सड़ँस गेल, मालिक बेटी के बाँइ आँख के मुँदाऽ के किताब पढ़ावल गेल, अच्छर चिन्हावल गेल, सरसों गिनावल गेल ... ।)    (बिरायौ॰9.16)
1424    सँकरिआना     (दसे-बीस रुपइआ में अपनहुँ बिकली, मेढ़ानुओ बिक्कल आउ लइकनो-फइकन । मेढ़ानु के कुटनी-पिसनी, रोपा-डोभा करे पड़त, लइकन गिढ़थ के जनावर के छेंक-रोम करत । कहिओ मनो सँकरिआल आउ कमाए न जाइ तो गारी-गुप्ता मार-पीट ।)    (बिरायौ॰70.12)
1425    सँकरिआल     (कोई के लइका अधरतिए से छरिआल हे । केउ के कुछ हे, केउ के कुछ । चनिओ माए के जीउ सँकरिआले निअर हल बाकि दुआरी पर आएल अदमिअन के तो मन रखहीं पड़तइन ।)    (बिरायौ॰32.5)
1426    सँकारना     (बिहने पहर भगत अपन लइकन के समझौलक - देखी जा, लोभ बड़का भूत हे । एकर दाओ में आना न चाही । लोभ में पड़के जहाँ केकरो खेती-बारी के भार लेवे ला सँकारलऽ कि फिनो कोल्हु के बैल बनलऽ, न जिनगी के कउनो ओर बुझतवऽ, न छोर ।)    (बिरायौ॰10.22)
1427    सँड़सल     (- ओ, जनु सभा होतइ । देखे के चाही । उ चट सीना रिकसवा अपना मालिक भीर पहुँचा के घुरल । भीतरे गेल । भीतरे अदमी से सँड़सल, अँटान न हल । एगो हलुक रेला देके ठाड़ा होए भर दाव बनौलक आउ ठाड़ हो गेल ।)    (बिरायौ॰51.23)
1428    सँसरी     (सामी जी निहा-फींच के निहचिन्ते होलन हल, से सोबरनी पहुँचल । सुइआ दिआवे ला सोबरनी अंगरखवा के हटा के बचवा के देहवा उघारकइ । तनिक्को गोस न हलइ, खाली ठठरी बचित हलइ । बोलल - एन्ने सुख के परास हो गेलइ मालिक । खाली सँसरिए तो बचित हइ ।)    (बिरायौ॰37.22)
1429    सँहता (= सस्ता)     (के-के घंटा पर दवइआ देवे ला कहलकथिन हल ? ऊँ ? पूछना कउन जरूरी हइ । होमीपत्थी तो बुझाऽ हइ, मँगनी के बाँटे ला सँहता गुने डकटरवन रक्खऽ हइ । न फएदा करऽ हइ, न हरजे करऽ हइ ।)    (बिरायौ॰38.12)
1430    संकराँत (= सकरात; संक्रान्ति)     (गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।)    (बिरायौ॰7.4)
1431    संको     (- अरे मारे न रे मुँहझौंसा, तोरे से हमरा दिन निबहे ला हे ! हमरा तुँ जेत्ता पेर लें, फेर पछतएबें ... पेर ले ...। - अब का खाउँ, इ कुतिआ हमरा दू कोर खाहुँ देवत ! हे भगवान, अइसन जोरु से बेजोरु के अदमी नीमन हे ... संको बिसेसर आज ले सगाइ न करलक हे, बेस करलक जे बेमाउग-मेहरी के हे, न तो हमरे निअर कोरहाग में पड़त हल ...।; दुन्नो पट्टी केत्ता उँच्चा-उँच्चा मकान हइ ? लगऽ हइ असमाने में ठेंकल हइ । सब मकनवा नए हइ । संको देहतवा में केत्ता बरिस सेती सिरमिट्टी न मिलऽ हलइ । जनु सब सिरमिटिआ से सहरे में मकान ... ।)    (बिरायौ॰33.16; 56.11)
1432    संचे     (आउ संचे उ महिन्ना पुरते-पुरते खेत-बधार घुमे लगलन । लोंदा भगत के नाँओ खिल गेल । अब कसइलीचक में केउ बेराम पड़े, आउ औसान से कारन न हटे त लोंदा भगत कन अदमी धउगे भभूत लागी ।)    (बिरायौ॰8.18)
1433    संचो     (संचो चौकन्ना रहे के चाही, की न हो ?)    (बिरायौ॰19.25)
1434    संडक (= सड़क)     (बिसेसरा खूब सरिआऽ के लतवस देलकइन । लोग धउगल तखनी ले उ अप्पन रिकसा लेले दू-तीन बिग्घा दूर हल । आधा घड़ी ले अप्पन गोर के सइकिलिआ पर उपरे-निच्चे करे के कलाबाजी करला पर अप्पन रिकसा लेले उ ओजउना हल जेजउना भीड़ से संडक जाम हल ।)    (बिरायौ॰51.19)
1435    संतोख (= संतोष)     (ओन्ने झपसी होए त पारु हो जा हलन, उगेन होए त टनटनाऽ जाथ । बाकि तोरा से का छिपइवऽ, इ घड़ी तो एकदम्मे लरताँगर हथ । लटपटाए दिआ सुनके कर-कुटुम पोरसिसिओ आ-जा रहलन हे । चलऽ जरी देख-सुन ल, संतोख तो होत ... ।; हम बिसेसर बाबू आउ सोबरनी देइ से मिनती करऽ ही कि उ लोग एतने से संतोख न कर लेथ बलुक घूम-घूम के आनो ठग के मजूरन के मेंटगिरी करथ, राह देखावथ ।)    (बिरायौ॰8.4; 82.5)
1436    संसकिरित (= संस्कृत)     (आउ हिंआ बइद लोग हमनी के अँगना में अएबे न करत, अप्पन दवा-बिरो के हाल हमनी के बतएवे न करत, संसकिरित पढ़एवे न करत । त आज बइद लोग माँगता-खाता बनल हथ ।; पाँड़े जी अपनहीं तो मिडिल ले पढ़ल हथ, उ कहाँ ले पढ़ौथुन, संसकिरित अलबत्ते थोड़ा-बहुत जानऽ होतन त संसकिरित से कुच्छो फएदे न हवऽ । हम अंगरेजियो बतबुअ जे में चिट्ठी-पतरी में अंगरेजी में नाँव लिख लेबऽ ।)    (बिरायौ॰29.20; 36.18. 19)
1437    सइतुक (= सैतुक; कौतुक, लीला; ढकोसला, मक्कारी; नरघट)     (... अब तुँहीं सोंच कि अइसन बउराहा-सुराहा से के सगाई करके हँसारत करतइ । - इ तो सइतुक बात हइ, दीदी । अब अदमी बिआह करत आ जरी लाल-पीअर लुग्गो-फट्टा न पेन्हलक त बिआह कउची होलइ । न बाजे-गाजा, न गीते-झुमर, न खाने-पान होलइ, त बिआह कउची होलइ ।)    (बिरायौ॰61.9)
1438    सउआ (< साव + 'आ' प्रत्यय)     (बिसेसरा बिड़ी के फेरा में गँउआ में गेल, सउआ के दोकनवा भीर गँउआ के लुहेंगड़वन के जमकड़ा तो लगले रहऽ हइ, एहु बिड़िआ सुलगाऽ के बइठ गेल । सउए टुभकल - आज मुसहरिआ में दफदार अलउ हल ?)    (बिरायौ॰17.15, 17)
1439    सए (= सब्भे; सभी)     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक ।; गिढ़थ लोग भगोड़वन के दुसित हथिन, कहऽ तो जनमभुँइ छोड़ के भागल फिरना । खनदानी कमिआ कहुँ भाग सके हे ? इ सए खंजखोर हे ।; चबुतरा पर तिलो रक्खे के दाव न । मेहरारु सए एकदिसहाँ खचकल हे तल-उपरी । लइकन-फइकन अलगे जोड़िआल हे ।; इ चबूतरा के पक्का बनावल जात आउ छा देवल जात । इ में पठसाला रहत । सरकार से कह-सुन के हम एगो कुइँआ खना-बन्हा देबुअ, सए किसिम के दवा-बिरो रक्खम, जे में बिना दवा-बिरो के केउ मरे न पाए ।)    (बिरायौ॰5.12; 14.20; 20.20; 21.12)
1440    सकपकाना     (भंडरकोनी ओला गबड़वा में दू गो लइकन पँक-पड़उअल में रमल हल । अररवा पर जाके सामी जी पुकारलन - लइकवन डेराएले निअर सकपकाएल पँकवा में से उप्पर होइत गेलइ ।)    (बिरायौ॰35.26)
1441    सकरपंच (~ में पड़ना)     (मल्लिक-मालिक डाँक ठोकलक - त हम दू-दू हर के जोत देबुअ, चार बरिस ले खइहन-बिहन देबुअ आउ रहे लागी पँकइटा के बनल एक कित्ता अप्पन मकान फेर । बाभन मालिक कहलक - मुसलमान हीं रहबऽ त जात भरनठ हो जतवऽ । / का बोले बेचारा भगत । भारी सकरपंच में पड़ल ।)    (बिरायौ॰10.17)
1442    सकरपंज (दे॰ सकरपंच) (~ में पड़ना)     (पूरा खरमंडल हो गेल । सरकार, अइसन बिघिन पड़ गेल हे कि सब कएल-धएल गुरमट्टी हो रहल हे । बरिआती के लोग सब जनेउ लेले हथ, सूअर-माकर खएबे न करथ । डिब्बा ओला घीउ के बनल पुरिओ न खाथ । बड़ा सकरपंज में पड़ गेली हे ।)    (बिरायौ॰48.24)
1443    सकसकाना     (उ बोलल - उतर जाइ बाबू, इ गल्ली में अब एक्को डेग आगु न बढ़ सके हे । हमहुँ एकदम सकसकाऽ गेली । चार पइसा के मजूरी करऽ ही, कहुँ रिकसा टूटल त दस-बीस डंडे देवे पड़त ... । बाप रे बाप, एकदम थरबस गेली की ... ।)    (बिरायौ॰50.16)
1444    सकुचाना     (पुरबारी मुसहरी । लमगुड्डा झोललका सुअरवा के अकसरे कन्हेटले जा रहल हल । बजरंग बाबू के देखके बड़ा सकुचाऽ गेल । 'सलाम सरकार' कहके हाली-हाली डेग उठएलक । सुअरवा के दुअरिआ भीर बजाड़ के मुड़ल ।)    (बिरायौ॰48.3)
1445    सगर (= पूरा, समूचा)     (सावन-भादो में चार घोंट अहरी के अन्डर बोए पानी के अस्तालक पर सगर दिन लप-निहुर के बरखा-बुन्नी में भींज-तीत के रोपा-डोभा करम हँम, आउ इ जुअनिआ-मुना पसिनिआ के फेर में पइसा जिआन करत, पी-उ के गारी-गुप्ता करत ।)    (बिरायौ॰5.10)
1446    सगाइ, सगाई (= मंगनी; कुछ हिन्दू जातियों में विवाहित स्त्री की पति के रहते या पति के मर जाने पर दूसरी शादी)     (हमनी में सगाइ होवऽ हइ त अब सब जात में टापाटोइआ सगाइओ होंहीं लगल । विधवा-आसरम में से कल्हे न एगो बढ़ामन सगाइ करके जाइत हलइ । खाली हमनी के गरीब गुने लोग छोटजतिआ कहे हे ।; अब तुँहीं सोंच कि अइसन बउराहा-सुराहा से के सगाई करके हँसारत करतइ ।)    (बिरायौ॰56.17; 61.8)
1447    सजउनी (= सजावट)     (ओ, जनु सभा होतइ । देखे के चाही । उ चट सीना रिकसवा अपना मालिक भीर पहुँचा के घुरल । भीतरे गेल । भीतरे अदमी से सँड़सल, अँटान न हल । एगो हलुक रेला देके ठाड़ा होए भर दाव बनौलक आउ ठाड़ हो गेल ।)    (बिरायौ॰51.25)
1448    सटकना-दबकना     (बलमा आएल तइसहीं बोलल - सरुप कुछ टोहे में बुझाऽ आवित हे, भारी गोरिन्दा हे । जनु सब साह-गाह लेवे ला भेजलक हे । भोलवा कनहुँ सटक-दबक जाए त बेस हइ ।)    (बिरायौ॰43.8)
1449    सटका     (हम डेराऽ के कह देलिक कि अबकी उ आवत तो ओकरा दू-चार सटका लगाऽ के ओन्ने सोझ कर देबइ सरकार । हमनी के पहिले काहाँ मालूम हल कि उ कमनिस हे ।)    (बिरायौ॰19.7)
1450    सटले     (बिच्चे मुसहरी एगो नीम के पेंड़ फुलाइत हे । चार गो गबड़ा । सब घर बेकेंबाड़ी के । पुरब तरफ एगो तेली के दुकान, सटले पसिखाना ।)    (बिरायौ॰11.11)
1451    सड़ँसना     (मलिकाइन धउग के बहरी आके खबर करलन, सब कोई भितरे दउगल, सँउसे हवेली गाँओ के अदमी से सड़ँस गेल, मालिक बेटी के बाँइ आँख के मुँदाऽ के किताब पढ़ावल गेल, अच्छर चिन्हावल गेल, सरसों गिनावल गेल ... ।)    (बिरायौ॰9.16)
1452    सत्ता (= सप्ताह)     (हम उ दिन चल गेली आउ एक्के सत्ता में घुरली । बाकि एक दिन कबले सोबरनी के मेंहदीचक के भोलवा के हाँथ धरा चुकलन हल ओकर बाप ।; सभा-सोसाइटी चलवे के लुर सिखलें हें ? एक काम कर । अबहीं रह जो दू सत्ता आउ । हमरा साथे नवजुआन सभा के कामकरंता कमिटी के बइठकी में भाग ले ।)    (बिरायौ॰40.24; 64.11)
1453    सत्तु-लिट्टी     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.8)
1454    सन     (गलिआ में दू गो चार गो अउरत-मेढ़ानु तो बरमहल अइतहीं-जइतहीं रहऽ हइ, बाकि चन्नी माए के देख के सोबरनी चुप हो गेल । अप्पन सन लेखा केस के हगुआवित-हगुआवित चन्नी माए ठड़े-ठड़े टुभक पड़लन - का भार-भीर परलउ हे गे सोबरनी । एगो लइका भेलउ सेइ से बुढ़ी हो गेलें ।)    (बिरायौ॰6.2)
1455    सपरना     (केत्ता बेस होतइ हल जदि कहतिक - कल्हे ओरिआऽ गेलइ, सत्तू हइ, परसिवऽ ? रोज सपरऽ ही अब नीमन से बोलबइ, ताना न देबइ, गरिअबइ न ... बाकि ... बान पड़ गेलइ जनु ।; सब कोई अप्पन-अप्पन मड़इआ पर नाया फूस चढ़ाऽ के निच्चु बना रहल हे । एसों मुसहरी के रौनक बढ़ जात, पाँच-छौ अदमी सपरित हे खपड़ा चढ़वे ला छौनी पर ।)    (बिरायौ॰22.21; 76.2)
1456    सफइ (= सफाई)     (अहिरो अब सफइ से रहे हे । बाकि इ मुसहर मँगरुआ ... ।)    (बिरायौ॰16.14)
1457    सबले (= सबसे; ~ पुरान = सबसे पुराना)     ( मोरहर नद्दी के अरारा पर एगो डबल मुसहरी । लोग कहऽ हथ कि कसइलीचक के चारो मुसहरिआ में सबले पुरान अग्गिनकोनी मुसहरिआ जे दखिनवारी कहल जाहे, सिरिफ एक्के सौ साल पुरान हे ।)    (बिरायौ॰7.2)
1458    सबलोगा     (- बिसेसर भाई चुप्पे रहतन ? मोहन बाबू बोललन । - पहिले से तो हम गूँग जरुरे हली बाकि जइसहीं आपलोग सबलोगा भक्खा में कार सुरू करली तइसहीं हम्मर मुँह के बखिआ तड़तड़ाऽ गेल ।)    (बिरायौ॰67.8)
1459    सब्भे (= सभी)     ( गयाजी देन्ने के एगो झुनकुट बूढ़ अपिआ मुसहर संकराँत में पुनपुन्ना नद्दी किछारे लगे ओला राजघाट मेला में आल हल, भारी भगत हल । टोना-जादू, झाड़-फूँक, मंतर-जंतर, पचड़ा-जोगिड़ा सब्भे कुछ में पम्पाइल ।)    (बिरायौ॰7.6)
1460    समिआ (< सामी + 'आ' प्रत्यय)     (- आँइँ हो, त समिआ रतवा के कहाँ रहऽ हइ ? - गउँआ में चल जा हइ । कातो भुमंडल बाबू से चिन्हा-परचे हइ । उनके कन खाए-पिए हे ।; एक तो छौंड़ा के मुए से जीउ छोटा हल, सेकरा पर कुलछनी औरत के चाल-ढाल से अलगे दुनिआ हँसारत हल, का जनी काहे ला तो केतेक दिन समिआ हीं गेल ... अब हम हुआँ का जाउँ सरकार !)    (बिरायौ॰21.21; 44.3)
1461    सम्हर (= ?)     (- का हइ माए, इ घड़ी ? - इ घड़ी अइलुक हे तोरा बोलवे । देखित हें इ सम्हर, रात भर बरखा बरखतउ । भींजल रहबें त बेराम पड़ जएबें । चल हाली ।)    (बिरायौ॰76.19)
1462    सरकार     (बोलल - आवऽ भगतजी, ठहरना चाहऽ ह त हिंए ठहर जा, कोई बात के तकलीफ न होतवऽ । उ गछुलिआ आँटे दू बोझा पोरा रक्खल हइ, लेके पड़ रहऽ, बेसी जुड़जुड़ी बुझावऽ त दिसलाइओ हे, आग ताप ले सकऽ ह । खाए ला लिट्टी के जोगाड़ हो जतवऽ । - जी न सरकार, खाली दू मुट्ठी पोरा मिल जाए । खाए-पीए ला कोई झंझट-पटपट के परोजन न हे, हे थोड़िक चूड़ा ।)    (बिरायौ॰7.17)
1463    सरदी-खोंखी     ("खाएँ-खाएँ !" - बुझा हइ सरदिओ-खोंखी हइ । - सरदिए-खोंखी से तो जहुअलइ हे, गरीब के बाल-बच्चा हइ, जीए ला होतइ त जीतइ न तो कलट-कलट के मूँ जतइ । कुछ दवाइओ-बिरो देतथिन हल ।)    (बिरायौ॰35.11, 12)
1464    सरदी-गरमी     (- चन्नी माए, चन्नी माए ! अब न केउ पुछइ । बड़ा चलती हलइ । भुइँआ पर गोरे न हलइ । - चन्नी माए हीं अब केउ झाँकिए न मारे । केकरो जरी सुन सरदी-गरमी बुझाएल, चट सीन सामी जी भीर धउगल । पैसा-कौड़ी लगहीं के न ।)    (बिरायौ॰52.18)
1465    सरबर     (अब हरवाही छोड़ना चाहे हे त दू मन के बदला में पचास मन माँगऽ हहु ! दे न पावे त जबरदस्ती पकड़ के काम करे ला ले आवऽ हहु । बरमहल धिरउनी । हमरा से सरबर करके कन्ने जएबें, चोरी-बदमासी में फँसा देबउ, बस जेहल में सड़ित रहिहें । त अब ओहु सबके नाया जमाना के हावा लग गेलइ हे ।)    (बिरायौ॰73.6)
1466    सरम-हया (= शरम-हया)     (सरकार, हम्मर केउ कहना में न हे । हम नताइत से आम त पढ़म । बाकि सरकार के पइसा न छू सकऽ ही । अइसन बेसरम-हया के न ही कि सरकार से बिदियो लेम आउ पइसो खाम ... जी न ।)    (बिरायौ॰37.11)
1467    सरापा-सरापी     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी ।)    (बिरायौ॰53.19)
1468    सरिआत     (बरिआती के लोग सब जनेउ लेले हथ, सूअर-माकर खएबे न करथ । डिब्बा ओला घीउ के बनल पुरिओ न खाथ । बड़ा सकरपंज में पड़ गेली हे । समधी कहऽ हथ कि सब्भे कोई पहिले जनेउ ले लेवे, निहा-फींच ले, तब अन्न पाएम, बीच न । कहे-सुने से सब सरिआत जनेउ लेवे ला तइआर हथ, बाकि जनेउ केऽ देत हमनी के ?)    (बिरायौ॰48.25)
1469    सरिआना     (आउ सीधा-सपट्टा मजूर में से अदमी जागल । उ एन्ने-ओन्ने जरी ताकलक आउ बाबू साहेब से अझुराऽ गेल । बिसेसरा खूब सरिआऽ के लतवस देलकइन । लोग धउगल तखनी ले उ अप्पन रिकसा लेले दू-तीन बिग्घा दूर हल ।)    (बिरायौ॰51.16)
1470    सरेकगर     (लइकन खनो बेला-फार जमवे, खनो बाघ-बकरी । बुढ़वन चौपड़ पाड़ना सुरु कएलक । एक घंटा ले असमान घोकसल रहल । सरेकगर लइकन चिक्का में पिल पड़ल ।)    (बिरायौ॰41.13)
1471    सलिआना (~ चढ़ाना)     (सब केउ लोंदा भगत के कसइलिए चक में रहे ला कहे लगल, मल्लिक-मालिक अपनहुँ घिघिअएलन, बाकि लोंदा भगत 'नँ' से 'हाँ' न कहलक । कहलक - सरकार, हम्मर पुरखन के जहाँ पिढ़ी हे, हुँआँ से हम कइसे हट सकऽ ही, हुँआँ दीआ-बत्ती के करत ? सलिआना के चढ़ावत ?)    (बिरायौ॰9.21)
1472    सल्ले-बल्ले     (चोट बेसी न लगलइन हल बाकि ठेहुनवा लोहलुहान हो गेलइन हल । उठ के सामी जी सल्ले-बल्ले चल गेलन ।; सल्ले-बल्ले भोलवा उठल, घरे गेल । घरे लुकना ठीक न बुझलक । अप्पन छुरवा लेलक, एक बोतल खाँटी सराब लेलक, बोलल - एक-दू दिन में तुहुँ चल अइहें । आउ दक्खिन रोखे सोझ हो गेल । जनु अप्पन बाप के बेख पर मेंहदीचक जाइत हे ।)    (बिरायौ॰24.10; 43.10)
1473    सवदिया     (भुमंडल बाबू मुखिअइ ला अड्डी रोपलन । बजरंग अप्पन सान में फुल्लल हल, अब चौंकल । रोज अप्पन सवदिया कसइलीचक भेजे । फिरन्ट लोग जसुसी ला गलिअन में चक्कर काटे लगल ।)    (बिरायौ॰44.21)
1474    सवाँग     (एगो बुतरु हे ओकरे माया-मोह हे, न त जलगु ले अप्पन सवाँग ठीक हे, तलगु ले दू गो लिट्टी मोहाल न रहत ।)    (बिरायौ॰5.17)
1475    सवांग     (- आज तोरा नवजुआन साभा के सवांग बना लेवल जात । मोहन बाबू कहलन । - हाँ, अब कार सुरू करऽ । आज से साभा के कार गँवइए बोली में होए जे में बिसेसर भाई के अनभुआर न बुझाइन । बिभूति बाबू कहलन ।)    (बिरायौ॰67.1)
1476    सवांगिन     (आज के खेला में जसिआ सोबरनी के पाट बड़ी बेस ढंग से करलक । जसिआ सोबरनी से कम सुत्थरो, सवांगिन न हे ! ओइसने गितहारिन । खेला के कोई बनउरी मत समझिअ ।)    (बिरायौ॰31.24)
1477    सहमिल्लू     (जदि सउँसे गाँव के लोग जौरागी चाहे सहमिल्लू खेती करना चाहे त करे बाकि एकरा ला दबाव न देवल जाए ।)    (बिरायौ॰63.1)
1478    सहसरंग (= संसर्ग)     (- अब तुँ अपना में हिनतइ के भओना पावें हे कि न ? - जी न । आप के सहसरंग से हमरा में थोड़-बहुत रजनीतिआ-समाजिआ हबगब पैदा होल ।; हमरा उम्मेद हे कि छवाड़िक लोक हकबिसवे हम्मर काम में साथ देत, चाहे कोई जात होए । दिनगत अदमी के आँख जेतना जल्दी सहसरंग से खुलत ओतना अच्छर चिन्हे से न ।; सहजू सिंह के पुतोह से सोबरनी लुर-बुध सीख रहल हे, ओकरे पर चाँप चढ़ावे ला सहजू सिंह के कहल जात । उ छोटजतिआ मेहरारु के सहसरंग काहे करत !)    (बिरायौ॰63.4; 64.2; 78.4)
1479    सहिए साँझ     (अकलु खलीफा के बोलावल गेल - जा, पलटुआ आउ तोखिआ के हाल तो सुनवे करलऽ होत । कह देहु, के रोज सामी जी साथ देतथिन । सहिए साँझ सउँसे मुसहरिआ के झोल न देलिक हे त बजरंग नाँव न ।; कद्दर तो पलटुओ के बहुत कम गेलइ हे । मँदरा बजावे में पुछाऽ हल, मार पलटु भइआ, पलटु भइआ ! अब सामी जी के रेडिओ सहिए-साँझ से घोंघिआए लगे हे, अब पलटु के माँदर भुआ जएतन !)    (बिरायौ॰45.3; 52.21)
1480    सहेंटना     (अकलु अप्पन बिन्हा-चइली ले लेलक, झुलंग कुरता पेन्हलक, सहेंट के मुरेठा बान्हलक ... चलल झुमित । तिराकोनी पहुँचल मुसहरिआ में ।; पच्छिम से बरसात के पहिला घट्टा उठल, एक लहरा बरख गेल, बाकि घट्टा न हटल, घोकसले रहल । जनु झपसी लगावत । सहेंट के मुरेठा बाँधले, कान्हा पर बिन्हाचइली लेले बिसेसरा बढ़ल अप्पन गाँव देन्ने उत्तर-पच्छिम मुँहें । अन्हमुहान होइत-होइत पहुँचल अप्पन मुसहरिआ में ।)    (बिरायौ॰45.10; 68.3)
1481    साँझ (~ के ~)     (त उनका साँझ के साँझ पठसाला पर जरुरे भेजऽ । हम उनका मन लगा के पढ़ा देबुअ, जे में चिट्ठी-पतरी बाँच सकथ, किताब चल सकइन ।)    (बिरायौ॰38.1, 2)
1482    साँझे-बिहने (= शाम-सुबह)     (पहिले तो तुँ कहऽ हलें कि पढ़-लिख जात त अदमी तनी दवा-बिरो के हाल जान जाएत । ओझा-गुनी के फेरा में न रहत । फलना हीं के भूत हम्मर लइका के धर लेलक, चिलना के मइआ डाइन हे, हम्मर बेटी के नजरिआऽ देलक हे, इ लेके जे रोजिना कोहराम मच्चल रहे, से न रहत । पढ़े-लिक्खे से लुर-बुध फरिआत ।; बेचारी सोबरनी के केत्ता चोटी कहली - ए गे सोबरनी, तोरा न बनतउ भोलवा से, ओकरा पर बड़जतिअन के पराछुत पड़ल हउ साँझे-बिहने माउग के लतवस्से के ।)    (बिरायौ॰29.8; 77.19)
1483    साँप-बिच्छा     (हमनिओ के मन करे हे खटिआ-मचिआ पर साँप-बिच्छा से निहचिंत होके सुत्ते के, बेमउगत के मरित अप्पन सवाँगन के परान बचावे ला डाकडर हीं से दू बून दवाइ लावे ला हमहुँ चाहऽ ही, बाकि का अइसन कर पावऽ ही ?)    (बिरायौ॰69.25)
1484    साँसत     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी । कहुँ पुतोह के इरखा पर सास फँसरी लगावत, कहुँ सास के साँसत से उबिआऽ के पुतोह बिख पीके जान हतत ।)    (बिरायौ॰53.20)
1485    साइँ (= स्वामी)     (खेला के कोई बनउरी मत समझिअ । इ हे सैतुक खेला । हाले इ घटल हल । एक बार बोलऽ कंठासुर साइँ के जय ! जय ! जय !)    (बिरायौ॰31.24)
1486    साइत     (साइत के बात । एक रोज मल्लिक मालिक के बेबिआहल बुनिआ के दहिना आँख में पत्थर के गोली से चोट लग गेल, आँख लाल बिम्म हो गेल । डाकडर-हकीम के कउन कमी हल, बाकि आँख में जोत नहिंए आल ।; इ मत कह भाई । सब्भे जोतनुअन के सुर बिगड़ल हउ, साइत के बात हे । तुँ तो पलखत पाके तड़काऽ-पड़काऽ देतहीं, आउ हिंआ पड़तइ हल सउँसे मुसहरी पर । बेफएदे कुन्नुस बढ़ावे से कुछ मिले-जुले ला हइ ? हट जएबें त ठंढाऽ जतइ ।)    (बिरायौ॰9.1; 43.1)
1487    साध     (तोर पुरुख जगत सीधा मरदाना तो गाँओ-जेवार में दीआ लेके ढुँढ़े-खोजे से कहुँ मिलत आउ सेकरा तुँ उगटा-पुरान करे हें ! ओकरा ले बेसी सुद्धा, साध, सुपाटल आउर के हे, कह तो ... बाकि पटरी बइठे के बात ।)    (बिरायौ॰6.7)
1488    सानी (= सनी, सन, -सा)     (- ए हो, तोरा से ढेर सानी बात बतिआए ला हे, चलें न उ पिपरिआ आँटे । - चलऽ न ।)    (बिरायौ॰18.17)
1489    साभा (= सभा)     (- आज तोरा नवजुआन साभा के सवांग बना लेवल जात । मोहन बाबू कहलन । - हाँ, अब कार सुरू करऽ । आज से साभा के कार गँवइए बोली में होए जे में बिसेसर भाई के अनभुआर न बुझाइन । बिभूति बाबू कहलन ।; आज मुसहरिआ में साभा हलइ होवे ला बाकि अबके सुनली कि बिसेसरा पर चाँप चढ़वे ला पुरवारी आउ पछिआरी मुसहरिआ के लोगिन आज पंचित करे गेल हे ... । सरूप कहलक ।)    (बिरायौ॰67.3; 80.14)
1490    सामता (= साँवला)     (एक पट्टी सामी जी उज्जर कपास चद्दर ओढ़ले जम्मल हथ । नाटा खुँटी के, पातर-दुबर, मुठान चकइठ, पर नाक चाकर, सामता रंग, सुकवार । सुत्थर न त छँइछनो न । माथा, मोंछ, डाढ़ी सब घोंटएले ।)    (बिरायौ॰20.17)
1491    सामी (= स्वामी)     (सामी जी रुमाल से आँख पोछऽ हथ, रोनी सूरत बना के, मेहरारु निअर मेहिन अवाज में भरल गला से - "उ दिन से हमरा नींद हराम हो गेल । बस एही मन करे कि एही इलाका के भलाई में अपना के खपा देउँ । सरकारी नौकरी हल, छोड़-छाड़ के हिंआ अइली । जल्दी से जल्दी हम इ टोला के गरीबी आउ पिछड़लपनइ के भगा देना चाहऽ ही । ...")    (बिरायौ॰21.4)
1492    साह-गाह (~ लेना)     (सब्भे एक देने डोरिआएल । सौ डेढ़ सौ डेग के अन्दाज उत्तर जाके लोगिन ठुकमुकिआऽ गेल । पलटु अकसरे बढ़ल चल गेल, एगो लमहर खेत के चौगिरदी घुम गेल, भुनकल - साह-गाह ले अएलुक, जीउ से खटका इँकास दे आउ जुट जो ।)    (बिरायौ॰26.3)
1493    साह-गाह (= पता-ठिकाना; छानबीन) (~ लेना)     (बलमा आएल तइसहीं बोलल - सरुप कुछ टोहे में बुझाऽ आवित हे, भारी गोरिन्दा हे । जनु सब साह-गाह लेवे ला भेजलक हे । भोलवा कनहुँ सटक-दबक जाए त बेस हइ ।)    (बिरायौ॰43.8)
1494    सिंगार (धन के ~)     (खाली हमनी के गरीब गुने लोग छोटजतिआ कहे हे । लुग्गा-फट्टा के मेहिनी धन के बात हे । जउन जात तलवर हे, तउन मेहिनी हे । दाइ-लउँड़ी, नौकर-नफ्फर, लगुआ-भगुआ सब धन के सिंगार हइ । इ में जात के छोटइ-बड़इ के कउन बात हइ ।)    (बिरायौ॰56.25)
1495    सिंगारना (= सेंगारना, जमा करना)     (ए, खाक समझलऽ हे, अरे ऊ मारपीट करा के मोकदमा खड़ा कराना चाहे हे, फिन ठाट से हरिजन देन्ने से पैरबी करत, अराम से खात-पेन्हत आउ दस पइसा सिंगारवो करत ।)    (बिरायौ॰72.23)
1496    सितल्लम (= सितअलम; शीत से बचने भर की हलकी छावनी; अस्थायी झोपड़ी या छप्पर)     (हम जाइत ही जरा घरे, जरा बढ़ामनी के खबर जनाऽ देउँ ! दू रोज में एगो दू-छपरा सितल्लम ला बनावे पड़त । उदान में रहना ठीक न होत, हम ठहरली दिनगत अदमी ।)    (बिरायौ॰47.15)
1497    सिन (= व्यक्ति का उपनाम 'सिंह')     (नदी किछारे भीड़ हे, आगु सेनापति बाबू सिन के पीछु बिसेसरा, सोबरनी, आतमा बाबू आउ आन लोग ! नद्दी में भर कोर पानी आ गेल हे, लोग नाव पर बइठित गेल, खुलल नाव !)    (बिरायौ॰82.20)
1498    सिन (= सन, सनी, सानी, -सा)     (तोरा से हमरा जरा बतिआना हे ! बइठऽ ।/ सामी जी ओज्जे बइठ गेलन आउ बिसेसरो गद सिन बइठ गेल ।)    (बिरायौ॰36.13)
1499    सिनका     (आँइ हो तोखिआ, आज तुँ चन्नी मइआ के पिटलहीं काहे ला ! मायो के पिटे हे अदमी । दुत मरदे । भला कहऽ तो, सउँसे मुसहरी के मेंट चन्नी माए । एतबर भगतिन । दवा-बिरो, झाड़-फूँक आउ टोटमा में तोर चन्नी माए चन्निए माए हथ, सिनका तो तुँ कलपावें हें, कलपाना चढ़तउ कि का ।)    (बिरायौ॰25.10)
1500    सिरगरम (= सुसुम, हलका गरम)     (सामी जी ओकर गटवा पर तीन गो अँगुरिआ जरी सुन रखलकथिन । - देहवा तो धम-धम बुझाऽ हइ । एकरा पानी सिरगरम करके देवल करऽ ।)    (बिरायौ॰35.8)
1501    सिरमिट्टी (= सिरमिट; सिमेंट)     (दुन्नो पट्टी केत्ता उँच्चा-उँच्चा मकान हइ ? लगऽ हइ असमाने में ठेंकल हइ । सब मकनवा नए हइ । संको देहतवा में केत्ता बरिस सेती सिरमिट्टी न मिलऽ हलइ । जनु सब सिरमिटिआ से सहरे में मकान ... ।)    (बिरायौ॰56.11, 12)
1502    सिरिफ     (मोरहर नद्दी के अरारा पर एगो डबल मुसहरी । लोग कहऽ हथ कि कसइलीचक के चारो मुसहरिआ में सबले पुरान अग्गिनकोनी मुसहरिआ जे दखिनवारी कहल जाहे, सिरिफ एक्के सौ साल पुरान हे ।)    (बिरायौ॰7.3)
1503    सिलेट (= स्लेट)     (- आओ रे भोलवा, लाख बरिस जीमें । कहिआ से हिंआ आवे ला सुरु कर रहले हें ...। - आजे से चा । देखित नँ ह, इक्का सिलेट किनलिवऽ हे ।; उ न जतवऽ सामी जी । बिसेसरा केता कह के ले गेलइ हल त एक रोज गेल हल ... । सिलेटो किनलक हल से बिलाइए तोड़ देलकइ ... । आउ पढ़े से का होतइ ।)    (बिरायौ॰13.13; 38.5)
1504    सिलेट-पिनसिल     (हमरा राते एकलटा में ले जाके कहे लगलइ कि देखो हम्मर पठसाला में आवो तो मँगनी के किताब, सिलेट-पिनसिल मिलेगा आउ साथ हीं तुमको भर घर के कपड़ा-लत्ता मुफुत देवेगा, पाँच रुपइआ पत महिन्ना तलब फेर देगा ।)    (बिरायौ॰19.17)
1505    सिसोहना     (बढ़ामन, बाभन, कुरमी सब्भे जात के जोतनुअन के छवाड़िक के रोख बिगड़ल, मँगरुआ के पकड़ लौलक सब भुमंडल बाबू भीर - देखी गेंहुम सिसोह रहल हल । - मार सार के दू-चार तबड़ाक ! मंगरुआ ढनमना गेल ।)    (बिरायौ॰17.10)
1506    सीधा (= सिद्धा; भोजन बनाने का कच्चा सामान, पकाने या सिझाने का सामान)     (सरकार बात इ हे कि हमरा खाए-पीए के दिक-सिक हे, छुट्टा होए के ओजह से केउ घटला पर डेउढ़ो-सवाइ अनाज न देथिन । साँझ ला सीधा रहल त बिहने नदारत, बिहने जुरल त साँझ के एकादसी । पढ़ना-लिखना जुरला के हे ।; इ मुसहरिआ आप लोग के लाट में हवऽ, आप लोग के जोर पर हम हकविसवे सम्हार लेम । हमनी के गोटी लाल अस्सो करके होत । खाली हमरा दू महिन्ना के सीधा के इंतजाम कर देवल जाए ।)    (बिरायौ॰37.1; 47.9)
1507    सीधा-सपट्टा     (आउ सीधा-सपट्टा मजूर में से अदमी जागल । उ एन्ने-ओन्ने जरी ताकलक आउ बाबू साहेब से अझुराऽ गेल । बिसेसरा खूब सरिआऽ के लतवस देलकइन । लोग धउगल तखनी ले उ अप्पन रिकसा लेले दू-तीन बिग्घा दूर हल ।)    (बिरायौ॰51.15)
1508    सीन (= सन, सनी, सानी, -सा)     (जे आवित गेल, से दू-चार गो नाया-पुरान गावित गेल, बाकि जम्मल न । न 'धोबिनिया' ओला मजगर बुझाल न 'ननदे-भौजइआ' ओला । पलटु गते-सीन मँदरवा के भुइँवा में रख देलक ।; बजरंग ठाड़ा हो गेल । बोलल - अपने चट सीन मुसहरिआ में घुमिए आउ ।; पाँच मन के जनावर घींच के लइली हे, सेकरा पर दुअन्नी । बेगर पैसा देले तो बिसेसरा एक डेग न बढ़े दे सके हे, इ पक्का बुझी । उ चट सीन अगाड़ी बढ़ के ठाड़ हो गेल ।; हम्मर मुसहरिआ में एगो मुसहरनी हइ, उ केतना गीत बनाइए के गा दे हइ । बाकि आन औरतिअन चिन्ह ले हइ त रोक दे हइ, त फिनो असली गावे लगऽ हइ । - केतना सीन के हइ हो ? - फिन बेलूरा ओला बात । - बेलूरा हम ही, कि तुँ हें ।; सुन, छओ बरिस पहिले के बात हउ । उ घड़ी तुँ नँ अएलें हल । हम्मर तब बिआह न होल हल । हम्मर एगो सक्खी हल । उ घड़ी सोल्लह के सीन होइत हलइ ।)    (बिरायौ॰24.22; 47.13; 51.11; 56.4; 58.20)
1509    सीना (= सीन, सनी, सन, सना, -सा)     (- ओ, जनु सभा होतइ । देखे के चाही । उ चट सीना रिकसवा अपना मालिक भीर पहुँचा के घुरल । भीतरे गेल । भीतरे अदमी से सँड़सल, अँटान न हल । एगो हलुक रेला देके ठाड़ा होए भर दाव बनौलक आउ ठाड़ हो गेल ।)    (बिरायौ॰51.22)
1510    सीफत (= सिफ़त; गुण, विशेषता)     (का जानी केत्ता अदमी के भरमाऽ के हम अप्पन जाल में फँसएले रहली, केतेक अदमी दवा-बिरो करवत हल त अच्छा होत हल, से हम्मर चक्कर में पड़के मू गेल । केतेक कारन अपनहीं अच्छा हो जा हे । इ में भगत के कोई सीफत न हे ।)    (बिरायौ॰77.7)
1511    सुकवार     (एक पट्टी सामी जी उज्जर कपास चद्दर ओढ़ले जम्मल हथ । नाटा खुँटी के, पातर-दुबर, मुठान चकइठ, पर नाक चाकर, सामता रंग, सुकवार । सुत्थर न त छँइछनो न । माथा, मोंछ, डाढ़ी सब घोंटएले ।; सामी जी बुझलन कि कुतवा उनका पर धउगत अब । से उ ललटेन के बीग-उग के भाग चललन । बेचारे सुकवार अदमी, अइसन ठेंस लगलइन कि हुँपकुरिए गिर पड़लन ।; भुमंडल बाबू सुकवार अदमी, ढनमनएलन आउ तीन ढबकनिआ खाके गिर पड़लन बेचारे । पलटुआ पैना चलैलक बाकि इ का ? भुमंडल बाबू के देह पर मन्नी भगतिनिआ गिरल हे ।)    (बिरायौ॰20.18; 24.7; 75.18)
1512    सुक्खल (= सूखा)     (सोबरनी अँगनवा में ठाड़ा भेल, नदिआ देन्ने ताकलक - सुक्खल ढनढन नद्दी, एक्को ठोप पानी नँ । अब एकरा में कहिओ पानी न अतइ, कातो मुँहवे भरा गेलइ ! हाए रे मोरहर नद्दी !)    (बिरायौ॰5.1)
1513    सुखना (= सूखना)     (सामी जी निहा-फींच के निहचिन्ते होलन हल, से सोबरनी पहुँचल । सुइआ दिआवे ला सोबरनी अंगरखवा के हटा के बचवा के देहवा उघारकइ । तनिक्को गोस न हलइ, खाली ठठरी बचित हलइ । बोलल - एन्ने सुख के परास हो गेलइ मालिक । खाली सँसरिए तो बचित हइ ।)    (बिरायौ॰37.21)
1514    सुख-माँस (~ होना)     (बुतरुआ के गोदिआ से निच्चे उतारे ला चाहलक, बाकि उ उतरे पर रवादार न होल त खिसिआ के ओकरा उतार देलक - दिन भर गोदक्के चढ़त, अइसन नोंनु हे । दिन भर खिन-खिन करित रहऽ हइ सामी जी, सुख-माँस हो गेलइ हे, देखहु न जरिक ।)    (बिरायौ॰35.5)
1515    सुघरिन (= सुघड़िन; सुगृहिणी, घर-गृहस्थी के कामों में प्रवीण स्त्री; सुन्दर स्त्री; चतुर, निपुण, सुडौल, सुन्दर)     (माए कहित रहऽ हल, हम्मर बेटी जइसन सुपाटल, सुभओगर, सुघरिन, घरुआरिन भर कसइलीचक में न होतइ ।)    (बिरायौ॰23.1)
1516    सुतना (= सोना)     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।; आज सगरो नाया जमाना के किरिंग पसर रहल हे, जे सुतल हल, उ जगित हे । जे ठुमकल हल, उ बढ़ चलल हे । जे आजो भँगेड़ी निअर भंगुआल पड़ल रहत, उ फिन आउ कब जागत ।; हमनिओ के मन करे हे खटिआ-मचिआ पर साँप-बिच्छा से निहचिंत होके सुत्ते के, बेमउगत के मरित अप्पन सवाँगन के परान बचावे ला डाकडर हीं से दू बून दवाइ लावे ला हमहुँ चाहऽ ही, बाकि का अइसन कर पावऽ ही ?)    (बिरायौ॰5.6; 69.12, 25)
1517    सुताना (= सुलाना)     (मंतर आउ नाँच के सुन-देख के लोग मुँह लुका के हँस्से लगल, बाकि लइकवा अकचकाएल निअर होके चुप हो गेलइ । ले जा एकरा घरे, सुते लगतवऽ त झाँप-तोप के सुता दिहऽ, बेनिआ हउँक दिहऽ ... ।)    (बिरायौ॰32.27)
1518    सुत्थर (= सुन्दर)     (एक पट्टी सामी जी उज्जर कपास चद्दर ओढ़ले जम्मल हथ । नाटा खुँटी के, पातर-दुबर, मुठान चकइठ, पर नाक चाकर, सामता रंग, सुकवार । सुत्थर न त छँइछनो न । माथा, मोंछ, डाढ़ी सब घोंटएले ।; का गपवा मेरौनिहरवन के इ न समुझ पड़इ कि केकरो मुठान केतनो नीमन होइ, बाकि लेदाह, चाहे मिरकिटाह अदमी के सुत्थर न मानल जा सके हे । बौनो चाहे लमढेंग अदमी के नाक-आँख सुत्थर हो सके हे, त का उ सुत्थर मद्धे गिनाएत ।)    (बिरायौ॰20.18; 66.8, 9)
1519    सुत्थर-सुभओगर     (- तोरे इआद आवित हल । - हम्मर ? हमरा ले सुत्थर-सुभओगर आउ केउ न हइ, मोहनी न हइ ?)    (बिरायौ॰59.19)
1520    सुदखउआ (= सुदखौक)     (इ चक्की से छुटकारा पाना खेल न हे । दस-बीस रुपइआ गिढ़थ के देइओ देम, त दूसर सुदखउआ छाती पर सवार हो जात रुपइआ ला । फिनो देह धरे पड़त ।)    (बिरायौ॰70.14)
1521    सुदखौक     (सब केउ के पढ़वल जात जे में केउ 'काला अच्छर भइँस बरोबर' न रहे । सब केउ बुधिआर हो जाए जे में केकरो सुदखौक, जमिनदार, कलाल-पासी ठगे न पावे ।)    (बिरायौ॰21.15)
1522    सुद्धा     (तोर पुरुख जगत सीधा मरदाना तो गाँओ-जेवार में दीआ लेके ढुँढ़े-खोजे से कहुँ मिलत आउ सेकरा तुँ उगटा-पुरान करे हें ! ओकरा ले बेसी सुद्धा, साध, सुपाटल आउर के हे, कह तो ... बाकि पटरी बइठे के बात ।)    (बिरायौ॰6.7)
1523    सुन (= सन, सनी, सानी, -सा) (तनी ~; जरी ~; तनिक्को ~)     (हाले दुपहरिवा खनी तनी सुन पसिखाना देने गेली, एने इ गारी-गुप्ता करित हल, तोखी के माए डाँटलकथी त कहुँ जाके चुप होल । एकरा अप्पन रूप के गुमान हइ ।; सामी जी ओकर गटवा पर तीन गो अँगुरिआ जरी सुन रखलकथिन । - देहवा तो धम-धम बुझाऽ हइ । एकरा पानी सिरगरम करके देवल करऽ ।; बुतरुआ के गोदी लेके उ पच्छिम मुँहे बढ़ल । सामी जी जरी सुन पुरुब बढ़ के उत्तर ओली गलिआ धर लेलन, कोई भेंटलइन न ।; भोलवा बोलल - हम तोरा आज ले तनिक्को सुन सुख न पहुँचा पउली । हमरा बड़ा मलाल हे ।)    (बिरायौ॰25.19; 35.7, 20; 41.19)
1524    सुन-गुन     (हमनी के घटिए का हवऽ, कुछ तो लुर होतइ बाकि केकरा से पढ़े के ? दफदरवा के समिए बोलाऽ के ले अलवऽ, जे में पँड़वा डेराऽ के अपनहीं भाग जाए बाकि पँड़वा के पहिलहीं सुन-गुन मिल गेलइ । बस चट उ उपरे पैरवी कर देलकइ ।)    (बिरायौ॰20.6)
1525    सुपाटल     (तोर पुरुख जगत सीधा मरदाना तो गाँओ-जेवार में दीआ लेके ढुँढ़े-खोजे से कहुँ मिलत आउ सेकरा तुँ उगटा-पुरान करे हें ! ओकरा ले बेसी सुद्धा, साध, सुपाटल आउर के हे, कह तो ... बाकि पटरी बइठे के बात ।; माए कहित रहऽ हल, हम्मर बेटी जइसन सुपाटल, सुभओगर, सुघरिन, घरुआरिन भर कसइलीचक में न होतइ ।)    (बिरायौ॰6.7; 22.23)
1526    सुभओगर     (माए कहित रहऽ हल, हम्मर बेटी जइसन सुपाटल, सुभओगर, सुघरिन, घरुआरिन भर कसइलीचक में न होतइ ।; - तोरे इआद आवित हल । - हम्मर ? हमरा ले सुत्थर-सुभओगर आउ केउ न हइ, मोहनी न हइ ?)    (बिरायौ॰22.23; 59.19)
1527    सुभाव (= स्वभाव)     (जउन दिन बाबा बरजोरी हमरा एकर हाँथ धरौलन तउने दिन से हम्मर सुभाव बिगड़ गेल । ओही दिन से चिड़चिड़ाही हो गेली, टेंढ़िआ हो गेली, अइँठलाह हो गेली ... ।)    (बिरायौ॰23.3)
1528    सुर (~ बिगड़ल होना)     (इ मत कह भाई । सब्भे जोतनुअन के सुर बिगड़ल हउ, साइत के बात हे । तुँ तो पलखत पाके तड़काऽ-पड़काऽ देतहीं, आउ हिंआ पड़तइ हल सउँसे मुसहरी पर । बेफएदे कुन्नुस बढ़ावे से कुछ मिले-जुले ला हइ ? हट जएबें त ठंढाऽ जतइ ।)    (बिरायौ॰43.1)
1529    सुरगुन     (घर में जेकरा कन नित्तम दिन मुँह-फुलउअल, कहा-सुनी आउ झगड़ा के सुरगुन होइत रहे ओकरा ले बढ़के आउ के अभागा हे !)    (बिरायौ॰42.2)
1530    सुसुम (= सिरगरम, हलका गरम)     (सामी जी ओकर गटवा पर तीन गो अँगुरिआ जरी सुन रखलकथिन । - देहवा तो धम-धम बुझाऽ हइ । एकरा पानी सिरगरम करके देवल करऽ । - तातल पानी कइसे पितइ सामी जी ? सुसुम पानी दिक ?)    (बिरायौ॰35.9)
1531    सूअर-माकर     (त तो खुब्बे भलाई करतउ, गिरहत के अन्न खतउ, से हमनी के पट्टी रहतउ । जरी सुन, केउ के सूअर-माकर केकरो खेत में पड़लउ आउ बोला-बगटी होलउ, बस धर-पकड़ करौलकउ । अबहिंए हमनी के चेत जाना बेसतर हे । जहाँ हमनी लास-फुस लगएलें, लल्लो-चप्पो कएलें कि डेरा जमा देलकउ आउ आगु चल के हमनिए के दिक-सिक करतउ ।; पूरा खरमंडल हो गेल । सरकार, अइसन बिघिन पड़ गेल हे कि सब कएल-धएल गुरमट्टी हो रहल हे । बरिआती के लोग सब जनेउ लेले हथ, सूअर-माकर खएबे न करथ । डिब्बा ओला घीउ के बनल पुरिओ न खाथ । बड़ा सकरपंच में पड़ गेली हे ।)    (बिरायौ॰21.25; 48.22-23)
1532    से (= इसलिए; कि)     (चन्नी माए के बात से मध चुअ हल, से सोबरनी चुप्पी नाध देलक । मने-मने चन्नी माए के सातो कुरसी के कोसऽ होत, एकरा में सक न ।; सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत । हमरा का भूत-परेत के डर-भय हे । पाले चूड़ा हइए हे, फाँक के दू घोंट पानी पी जाम । से उ कुइवाँ नगीच आल ।; सामी जी निहा-फींच के निहचिन्ते होलन हल, से सोबरनी पहुँचल । सुइआ दिआवे ला सोबरनी अंगरखवा के हटा के बचवा के देहवा उघारकइ ।)    (बिरायौ॰6.13; 7.11; 37.19)
1533    से से (= उससे, उसके कारण)     (- त बिआह करबें हमरा से । - बिआह तो हम न करम । - काहे ? डेराऽ हें कि कमा-कजाऽ के खिआवे पड़त । - से से न डेराऽ ही । डेराऽ ही बिआह के खरचा से, कि हरवाही गच्छे पड़त खरचा ला । आउ तब जिनगी भर कोल्हु के बैल निअर पेरित रहम अप्पन जिनगी के ।; इ सब डेओढ़-पट्टी रहे द दीदी । बिसेसर से तोर पिरित के खिस्सा हम पहिलहीं से जानऽ ही । इ खिस्सा जे आज सुनौलऽ हे, से से इ पता लगल कि कइसे तोरा ओकरा बोलचाल बन्द होल । बाकि सदिआ के एक्के-दू रोज पहिले ओकरा से कातो बात होलवऽ हल तोरा ... ।)    (बिरायौ॰60.1; 61.23)
1534    सेकरा     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।; बाकि मँगरुआ न उठल खटिआ पर से । आज खटिआ पर से न उठल, बिहान सलाम करना छोड़ देत । सेकरा बाद साथहुँ बइठे के हिआव करे लगत ।)    (बिरायौ॰5.8; 17.7)
1535    सेकरे     (ए भाई, अइसे कहें हें त जे उच्चा-निच्चा करली से तो करिए गुजारली बाकि अब हमरा बड़ी पछतावा हो रहल हे । आज ले इ काम न कहिओ करली ... । - त गोहुमा के बीग आव जाके, जेकर हइ सेकरे हीं ।)    (बिरायौ॰27.5)
1536    सेती (= से)     (पलटु मूँड़ी उठएलक - जी न सरकार, हमरा सेती न हो सके हे । जब केउ देखलक न त थाना में का जाउँ । अप्पन अखबत बिगाड़ना ठीक न हे । दू-चार दिन में अपने निठाह पता लगत ... ।; दुन्नो पट्टी केत्ता उँच्चा-उँच्चा मकान हइ ? लगऽ हइ असमाने में ठेंकल हइ । सब मकनवा नए हइ । संको देहतवा में केत्ता बरिस सेती सिरमिट्टी न मिलऽ हलइ । जनु सब सिरमिटिआ से सहरे में मकान ... ।)    (बिरायौ॰44.16; 56.11)
1537    सेबर (= सबर, सपर)     (ठीक कहऽ हथ छक्कड़ सिंह, ठीक कहऽ हथ । एही बात सबके जँचल । भुमंडल बाबू के एकबएग धक सेबर लगल । जदि बिसेसरा खड़ा होल त न भुमंडले बाबू जिततन, न बजरंगे बाबू जिततन ।)    (बिरायौ॰73.16)
1538    सेराना     (चलऽ, झगड़ा-रगड़ा करना बेस न हे, टर जइते जा । सेराऽ जाएत त आवत अदमी । सब औरते-मरदे लइका-सिआन के लेके दक्खिन मुँहें सोझ होल, बाकि बिसेसरा पलटुआ आउ तोखिआ-उखिआ दसन छौंड़ ढिब्बल हे अप्पन-अप्पन लोहबन्दा लेके । सब के दुरगर पहुँचा के मन्नी भगतिनिआ घुर आएल ।)    (बिरायौ॰75.7)
1539    सेसर (= श्रेष्ठ)     (मँगरु चा भुनक गेलन - जब तुँहीं अइसन कहें हें त आउ के पढ़त । सब ले सेसर तो तुँ हलें, दुइए महिन्ना में दस बरिस के भुलाएल अच्छर चिन्ह लेलें, किताबो धरधरावे लगलें, से तुँहीं अब न पढ़बें, त हमनी बुढ़ारी में अब का पढ़म ।)    (बिरायौ॰27.21)
1540    सैतुक (= कौतुक, खेल-तमाशा, नट का काम, बाजीगरी, लीला, स्वांग)     (खेला के कोई बनउरी मत समझिअ । इ हे सैतुक खेला । हाले इ घटल हल । एक बार बोलऽ कंठासुर साइँ के जय ! जय ! जय !)    (बिरायौ॰31.24)
1541    सोंस (~ पाड़ना)     (रात भर भगतवा सोंस पाड़लक, मुँहलुकाने में जतरा बनवे लगल -  त हम अब चलित ही, आपके भलाई न भुलाम ।)    (बिरायौ॰7.19)
1542    सोझ (= सीधा)     (चन्नी माए झूठ न कहऽ हथिन, हे इ मरदाना सुद्धे, बाकि हमरे मुँहवा से एक्को नीमन, सोझ बात तो न इँकलइ ।; पलटु एक-दू पिआली घरउआ दारू पीलक, एगो बोंग लाठी लेलक आउ सल्ले-बल्ले उत्तर मुँहे सोझ हो गेल ।; सल्ले-बल्ले भोलवा उठल, घरे गेल । घरे लुकना ठीक न बुझलक । अप्पन छुरवा लेलक, एक बोतल खाँटी सराब लेलक, बोलल - एक-दू दिन में तुहुँ चल अइहें । आउ दक्खिन रोखे सोझ हो गेल ।)    (बिरायौ॰22.15; 25.2; 43.12)
1543    सोझा (= सीधा)     (बिसेसर बाबू ओइसने जदुगर हथ । इनकर जादू से लाख बरिस के गुंगी टूट गेल छुच्छन के घड़ी-घंटा में । आउ देखऽ इ भुइँआ-छवाड़िक के जे भुल-भुलइआ ओला लीख के मेटाऽ के नाया रहता, सोझा रहता निरम के बढ़ रहल हे आगु मँहे ।)    (बिरायौ॰81.24)
1544    सोझे (= सीधे, सीधी तरफ)     (लइकवन सोझे दक्खिन मुँहे धउग गेलइ, दू घर के बाद ओला घरवा के दुहरिआ पर ठाड़ हो गेलइ । सामिओ जी पिठिआठोके पहुँचलन ।)    (बिरायौ॰36.2)
1545    सोमार (= सोमवार)     (चोपचक से गोहार चलत आउ एन्ने कसइलीचक से, भुइँअन के दक्खिन भागे ला छोड़ देवल जात । आज सोमार हे न । दसवें रोज के डीउ रहल । बिसेसरा के रगेद देवल जाएत मुसहरी से । बिसेसरा सब कमिआ के बिगाड़ रहल हे, कमिआ कहुँ बिगड़ गेल त खेतिए चौपट हो जात । ओकरा रगेद देना जरुरी हे ।)    (बिरायौ॰74.6)
1546    सोहाना (= अच्छा लगना)     (सोबरनी के जीउ पितपिताऽ गेलइ । बुतरुआ के गोदिआ में लेके टोन छोड़कइ - चल, अइसने कठजीउ के एगो मुठरी देल पार लगतउ ? तुँहीं सोहतहीं हल त कउन दुख हल ।; - कद्दर तो पलटुओ के बहुत कम गेलइ हे । मँदरा बजावे में पुछाऽ हल, मार पलटु भइआ, पलटु भइआ ! अब सामी जी के रेडिओ सहिए-साँझ से घोंघिआए लगे हे, अब पलटु के माँदर भुआ जएतन ! - ए गे, अइसे कहें हें त इ रेडिउआ के अवजवा हमरा न सोहाऽ हइ ।)    (बिरायौ॰33.11; 52.23)
1547    हँथउठाइ     (सहजु साही के दादा गाँइ के महतो हलन, जेठ जोतनुआ । जमीनदारी किनलन त मल्लिक मालिक जरे लगल । आखिर बाज गेलन मल्लिक मालिक से । पीछु उ जमीनदारी दे देलक साहिए के, साही जे कुछ नमंतरी रुपइआ हँथउठाइ दे देलन सेइ पर । साही के रोआब हल गाँइ-जेवार में । केकर दिन हल उ घड़ी साही से आँख मिलावे के ।)    (बिरायौ॰64.18)
1548    हँम (= हम)     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.5)
1549    हँमरनइ     (तोखिआ - ... अब बिसेसर हाँथ मिलावत । देखऽ चौगिरदी के सब्भे नामी-गिरामी लड़ंतन के उ पीठ-लेटउनी कर चुक्कल हे ।/ बिसेसरा - तुँहनी चाहें हें कि बिसेसरो के हँमरनइ खतम हो जाए । चल बिहान हम सकार लेबइ !)    (बिरायौ॰31.1)
1550    हँसारत     (एक तो छौंड़ा के मुए से जीउ छोटा हल, सेकरा पर कुलछनी औरत के चाल-ढाल से अलगे दुनिआ हँसारत हल, का जनी काहे ला तो केतेक दिन समिआ हीं गेल ... अब हम हुआँ का जाउँ सरकार ! गिरहतवा बेचारा लौट आल ।; जब आप अप्पन गाँव के माथ हो के कहित ही त हम इनकारऽ ही कइसे । चली हम इ लोग के जनेउ दे देही । बाकि बड़हिआ के बात में लोग फिन न आ जाथ ... । - न सरकार, ओकर बात में कइसे आम । - सेइ पहिलहीं कह देही, पिछाड़ी गड़बड़ी होत त दुनिआ हँसारत होत ।; अब तुँहीं सोंच कि अइसन बउराहा-सुराहा से के सगाई करके हँसारत करतइ ।)    (बिरायौ॰44.3; 49.17; 61.8)
1551    हँस्सी (= हँसी)     (हमरा तो बड़ी हँस्सी आवे हे इ सुन-सुन के हो ।; - तोरे से काम हे ... तोर बुतरुआ के का नाँव हवऽ ।/ भितरे से ओकरा हँस्सी बर रहल हल, बाकि कइसहुँ अधबएस मेढ़ानु निअर बोलल - नाँव कउची रहतइ सामी जी, मुसहर के लइका हइ, हम तो एकरा घोंघा कहऽ हिक ।)    (बिरायौ॰19.14; 35.1)
1552    हउआ (= हावा; हवा)     (सोबरनी ओला गितवा न इआद हउ - नेहवा के हउआ के झिरके से मसकऽ हइ, जिनगी हइ फरीछ के फूल !; - इ घड़ी हिंआ का करित हें ? - घरवा में मच्छर से निंदे न आल, त हउआ गुने हिंआ पड़ी चल अइली । - घरवा में सुतना जरूरी का हलउ, इ तो चाँप न हलउ कि सड़ चाहे गल, रहे पड़तउ घरे में । अँगनवा में सुत रहतें ।)    (बिरायौ॰53.26; 59.6)
1553    हकविस, हकबिस (~ सम्हारना)     (इ मुसहरिआ आप लोग के लाट में हवऽ, आप लोग के जोर पर हम हकविसवे सम्हार लेम । हमनी के गोटी लाल अस्सो करके होत ।; हमरा उम्मेद हे कि छवाड़िक लोक हकबिसवे हम्मर काम में साथ देत, चाहे कोई जात होए । दिनगत अदमी के आँख जेतना जल्दी सहसरंग से खुलत ओतना अच्छर चिन्हे से न ।)    (बिरायौ॰47.8; 64.1)
1554    हक्कम (~ अदमी)     (से तो हम जानित ही कि तलवर केउ होए बाकि सउँसे मुसहरी में सबले मातवर तुँहीं ह । भोलवा से हमरा सब काम चल जा हल । हक्कम अदमी हल ।)    (बिरायौ॰43.25)
1555    हक्कर (= मुक्त होने का प्रयास; असफल होने पर बी बंधन से मुक्त होने का प्रयास; बँधे मवेशियों का घुमाकर पगहा से छूटने का प्रयास) (~ पेरना)     (एक बेरी गिलटु के भाई के कंगरेसिआ दुकान के निराली पिए ला एक बरिस ला कट्टिस कर देवल गेल । साही जी गिलटु के पच्छ ले लेलन - निराली पीना तो निसखोरी न हे, एकर घर करना ठीक न हे । एतना उनकर कहना हल कि भुमंडल बाबू गड़गड़एलन - हूँह, इनकर बेटा माउग साथे रिकसा पर पटना में सगरो बुलित फिरऽ हइन आउ इ पंचित के मिद्धी बने ला हक्कर पेरले हथ । चुप रहऽ ।)    (बिरायौ॰17.3)
1556    हगाना-मुताना     (आउ एकबएग चिचिआए लगल उ - इअ लगी जाँओ रे, हँम छँउरी सुतिए उठके बढ़नी धरम, झाड़म-बहारम, इनरा में उबहन सरकाम, दस चरुइ पानी तीरम, नन्ह-बुटना के हगाम-मुताम, छिपा-लोटा, पानी-काँजी कए के जुझना लेल सत्तु-लिट्टी के जोगाड़ करम, सेकरा पर बेर झुके ले एक अँजुरी फरही-फुटहा के नेंवान नँ ।)    (बिरायौ॰5.7)
1557    हगुआना (= खुजलाना)     (गलिआ में दू गो चार गो अउरत-मेढ़ानु तो बरमहल अइतहीं-जइतहीं रहऽ हइ, बाकि चन्नी माए के देख के सोबरनी चुप हो गेल । अप्पन सन लेखा केस के हगुआवित-हगुआवित चन्नी माए ठड़े-ठड़े टुभक पड़लन - का भार-भीर परलउ हे गे सोबरनी । एगो लइका भेलउ सेइ से बुढ़ी हो गेलें ।)    (बिरायौ॰6.3)
1558    हतना     (भगत इनकारतहीं जाए । आखिर मल्लिक-मलकिनी केंबाड़ी के पल्ला के औंड़ा से कहलन - भगत जी, हम्मर बात रख देथिन, न तो हम भुक्खे जीउ हत देम ... ।; अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? बिहने से लेके निसबदिआ ले सास-पुतोह, ननद-भौजाई, बाप-बेटा के महभारत । गाड़ी-गुप्ता झोंटा-झोंटउअल, सरापा-सरापी । कहुँ पुतोह के इरखा पर सास फँसरी लगावत, कहुँ सास के साँसत से उबिआऽ के पुतोह बिख पीके जान हतत ।; अब इ बेचारी अप्पन बेटवा से इ सब बात खोल सके हे न । का जनी ओकरा कइसन लगइ । मान ले इ भेओ ओकरा मालूम होइ आउ उ जान हते पर अमादा हो जाए ? - इ में जान हते ला काहे चाहतइ । इ में सरम के तो कोई बात न हइ ।)    (बिरायौ॰9.26; 53.20; 79.21, 22)
1559    हदिआहा     (- बिसेसरा के मन टोलें हल भोलवा ? - इ काम में गुहिअलवा साथ न देतउ हो, पीना-खाना तहाक ले तो छोड़ले जा हे । दीढ़ अदमी न हइ । एकदम्मे गिद्दी ओला ओकर रंग-ढंग हउ, अइसन हदिआहा तो भर मुसहरी में कोई न हे ।)    (बिरायौ॰25.25)
1560    हद्दे-बद्दे (= जल्दी-जल्दी, हड़बड़ी में)     (सोबरनी चल पड़ल । ठीके-ठीक दुपहरिआ हो रहल हल, पच्छिम देने घट्टा निअर बुझलइ - बाप रे, गैर का अतइ ? हद्दे-बद्दे घर आल ।; मुखिआइन हद्दे-बद्दे निछक्का घीउ में कचउड़ी छानलन, हलुआ घोंटलन, पंडी जी पा-उ के ढेकरलन ।; भुमंडल बाबू हद्दे-बद्दे पानी पी के उठलन, जुत्ता पेन्हलन, छाता लेलन । माए के कँहड़े के अवाज सुनलन । - मन बेस हवऽ न माए ? - हाँ बबुआ । कहुँ जाइत हें का ?)    (बिरायौ॰39.3; 46.17; 79.1)
1561    हपचा (= कीचड़ वाली जगह; किचकिल, हिचाड़, हील, कादो-कीच)     (मजुरवा आउ जोर लगाऽ के रिकसवा के तीरे लगल । बाकि उ तिनमन्ना बोझा लेके बढ़ न सकल । हपचवा में से इँकस जतइ हल त कइसहुँ बढ़ौतइ हल ।)    (बिरायौ॰50.14)
1562    हबगब (= भले-बुरे को समझने की शक्ति; सूझबूझ, समझ, विवेक)     (हउ रजनीतिआ हबगब ? करले हें अदमी के संगत ? अब हम चललुक मुटुकवा । बिसेसरा चलल सीना तान के, लथेरलक हे मुटुकवा के । इ सब जानवे कउची करे हे अबहीं ।; - अब तुँ अपना में हिनतइ के भओना पावें हे कि न ? - जी न । आप के सहसरंग से हमरा में थोड़-बहुत रजनीतिआ-समाजिआ हबगब पैदा होल ।)    (बिरायौ॰56.7; 63.5)
1563    हमरा (= हमें, हमको, मुझे, मुझको)     ( सोंचलक - एही ठग टिक जाना बेस होत । हमरा का भूत-परेत के डर-भय हे । पाले चूड़ा हइए हे, फाँक के दू घोंट पानी पी जाम ।; रात भर भगतवा सोंस पाड़लक, मुँहलुकाने में जतरा बनवे लगल -  त हम अब चलित ही, आपके भलाई न भुलाम । कोई दिन झाड़-फूँक के जरूरत पड़े त हमरा खबर करम ।)    (बिरायौ॰7.10, 21)
1564    हमरा-तोरा     (जे लोग कहऽ हथ "आवऽ माँझी जी, हमरा-तोरा में कोई भेद न हे" आउ बलजोरी साथहीं खटिआ-मचिआ पर बइठावऽ हथ, उनका हमनी लुच्चा समझऽ ही, समझऽ ही इ बखत पर गदहा के बाबा कहे ओला तत के अदमी हथ, कुछ काम निकासे ला इ चपलुसी कर रहलन हे ।)    (बिरायौ॰12.5)
1565    हमरे     (भगत के छओ गो कमासुत लइकन फिन बसे ला आएल हे, इ बात के खबर सँउसे कसलीचक में हो गेल । सब्बे पट्टी के लोग जुटल । बाभन मालिक जिक धर लेलक - भगत अप्पन लर-जर साथे हमरे जमीन में बसे ।)    (बिरायौ॰10.9)
1566    हमहुँ     (तोरे निअर हमरा अप्पन पहिल मरदाना से न बनऽ हल । त हम सोचली कि अपनो जिनगी के जराना आउ दुसरो के साँस न लेवे देना ठीक नँ हे । ओहु माउग कर लेलक हमहुँ मरदाना कर लेली ।)    (बिरायौ॰6.10)
1567    हम्मर (= हमारा, मेरा)     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक ।; रात भर भगतवा सोंस पाड़लक, मुँहलुकाने में जतरा बनवे लगल -  त हम अब चलित ही, आपके भलाई न भुलाम । कोई दिन झाड़-फूँक के जरूरत पड़े त हमरा खबर करम । घर हे हम्मर गयाजी से दक्खिन, बोधगया के रहता में, खाली लोंदा नाँव याद रक्खम ।)    (बिरायौ॰5.12, 13; 7.21)
1568    हर (= हल)     (बाभन मालिक जिक धर लेलक - भगत अप्पन लर-जर साथे हमरे जमीन में बसे । मल्लिक मालिक अलगे अपने जमीन में बसाना चाहे । बाभन मालिक कहलक - हम सब्भे लोग एकक हर के जोतो देबुअ, साल भर के खइहन-बिहन देबुअ आउ घर छावे-बनावे के भार हमरे पर रहल ।; बीसन बरिस से इ मुसहरी में कुल्ले सगाई हमहीं करावित अइली हे, कंठी हमहीं देवित अइली हे । त अब पँड़वा सगाई करावे ला चाहे हे, जनेउ बेचे ला चाहे हे । भूख मरे हे त हर जोते, कुदारी पारे ।)    (बिरायौ॰10.11; 77.14)
1569    हरजा     (के-के घंटा पर दवइआ देवे ला कहलकथिन हल ? ऊँ ? पूछना कउन जरूरी हइ । होमीपत्थी तो बुझाऽ हइ, मँगनी के बाँटे ला सँहता गुने डकटरवन रक्खऽ हइ । न फएदा करऽ हइ, न हरजे करऽ हइ ।)    (बिरायौ॰38.14)
1570    हरजोतवा (= हरवाहा)     (पठसाला के चरचा चलल, त बिसेसरा बोलल कि हम तो अब पढ़वे न करम । पढ़म तइओ हरजोतवे रहम, न पढ़म तइओ हरजोतवे ।)    (बिरायौ॰27.19)
1571    हरवाहा     (कटनी होतहीं गिढ़थ उलट गेल - बेगर रुपइआ भरले पैदा कइसे ले जएबऽ, खइहन के डेओढ़िआ लगतवऽ । अनाज के भाव एकदम गिरल हे । जउन बेरा अनाज देलिवऽ हल, मसुरी पत मन अठारह रुपइआ बिक्कऽ हल, इ घड़ी बारह हे, डेओढ़िआ देबऽ तइओ हमरा डाँड़े लगित हे, बाकि हरवाहा गुने कम्मे लेइत हिवऽ ... ।)    (बिरायौ॰14.18)
1572    हरवाही     (रुपइआ बिना सूद रहतवऽ, जहिआ हमरा हीं हरवाही छोड़ देबऽ आउ आन केउ हीं देह धरबऽ तहिए दिहऽ । जे एक बिग्घा खेत तोरा जिम्मा रहतवऽ ओकर पैदा ले जाए में आँइ-बाँइ न करबुअ ।; - त बिआह करबें हमरा से । - बिआह तो हम न करम । - काहे ? डेराऽ हें कि कमा-कजाऽ के खिआवे पड़त । - से से न डेराऽ ही । डेराऽ ही बिआह के खरचा से, कि हरवाही गच्छे पड़त खरचा ला । आउ तब जिनगी भर कोल्हु के बैल निअर पेरित रहम अप्पन जिनगी के । हरवाही के दमघोंटवा घम्मर में अकुलाइत रहम, अकुलाइत रहम ।)    (बिरायौ॰14.12; 60.1, 3)
1573    हरसट्ठे     (का जात का परजात, सब केउ दुसे लगल बजरंग आउ भुमंडल बाबू के । - हरसट्ठे छोटजतिअन से न ढिबना चाही । जोतनुआ लोग कहलक ।)    (बिरायौ॰75.25)
1574    हरिंग (= हरिण, हिरन)     (सोबरनी अकसरे बइठल हल । एक ओछार बरखा बरख गेल हे । भुँइआ ओद्दा हे । सोबरनी अँगुरी से जमीन पर चित्तर तिरित हे । पेंड़-बगात हे, पँजरे में दूगो हरिंग कुदक्का मारित हे ।)    (बिरायौ॰58.7)
1575    हरिअर (~ कचनार)     (सोबरनी (दह-दह पीअर लुग्गा, हरिअर कचनार झुल्ला पेन्हले) अबीर लेके झाँझ झँझकारित आगु बढ़ल । बिसेसरा के लिलार पर अबीर लगौलक आउ झुम्मर उठौलक ।; बेर लुकलुक करित हल । पुन्ना पाँड़े के लेके अकलु लौटल । देखतहीं बजरंग के जीउ हरिअर हो गेल ।; चन्नी माए नाया हरिअर कचनार लुग्गा पेन्हले हथ । सौ-पचास अदमी के भीड़ हे उनका भीर ।)    (बिरायौ॰31.14; 46.10; 77.1)
1576    हरिआना     (देखित-देखित में चउगिरदी करिवा बादर तोप देलक । बड़का-बड़का बूँद टिपटिपावे लगल । छिमा होके तनी देर फुहिआल । फिन झरझराऽ देलक । तनी देर फिन मचहल भेल । फिन लगल ठेठाऽ-ठेठाऽ के उझले । थोड़िक्के देर ठहरल बाकि संसार हरिआऽ गेल ।; कुच्छो होइ, सोबरनी गुरु तो बन गेल । मार मजे से बीस रुपइआ पावित हे । हमनी के उ का पढ़ावत, अपनहीं कउन पढ़ल हे । बाकि ए गे, इ महिनवा से सोबरनी हरिआऽ गेलइ हे । भोलवा से बेचारी के पटरी न बइठे से जिनगी कोरहाग हो गेलइ हल ।)    (बिरायौ॰41.11; 53.8)
1577    हलफना     (गान्ही जी के हिरदा में लोग-बाग ला नेह के समुन्दर हलफऽ हल ! जेकर हिरदा में मुलुक के लोग धिआ-पुता ला ओइसन नेह पनपत उ अजादिए के डाहट लगवत ।)    (बिरायौ॰62.17)
1578    हलफल्ली     (लोगिन में ओझइ, भूत-परेत के जे भरम फैलल हे ओकरा हटवे के कोरसिस करम । अनपढ़ लोग के अछरउटी सिखवे के कोरसिस करम, भोजपुरिआ-मगहिआ किताब पढ़े के हलफल्ली पैदा करम ।)    (बिरायौ॰63.25)
1579    हलफा (= तरंग, लहर)     (नदी किछारे भीड़ हे, आगु सेनापति बाबू सिन के पीछु बिसेसरा, सोबरनी, आतमा बाबू आउ आन लोग ! नद्दी में भर कोर पानी आ गेल हे, लोग नाव पर बइठित गेल, खुलल नाव ! ... नद्दी में हलफा उठे लगल ।)    (बिरायौ॰82.22)
1580    हलुक     (ओ, जनु सभा होतइ । देखे के चाही । उ चट सीना रिकसवा अपना मालिक भीर पहुँचा के घुरल । भीतरे गेल । भीतरे अदमी से सँड़सल, अँटान न हल । एगो हलुक रेला देके ठाड़ा होए भर दाव बनौलक आउ ठाड़ हो गेल ।)    (बिरायौ॰51.24)
1581    ह-ह ह-ह (~ करना)     (रात खनी करिवा बादर उठल आउ लगल ह-ह ह-ह करे । भित्ती तर सटक के बिसेसरा बचना चाहलक बाकि चोटगर बरखा आउ ठठ गेल । ओकर कपड़ा-लत्ता भींज के पोतन हो गेल, कहाँ जाए ?)    (बिरायौ॰76.6)
1582    हाँए-हाँए     (चन्नी माए झूठ न कहऽ हथिन, हे इ मरदाना सुद्धे, बाकि हमरे मुँहवा से एक्को नीमन, सोझ बात तो न इँकलइ । दिन भर गिढ़थ के उबिअउनी-खोबसन से जरल-भुनल आवऽ हल घरे भुक्खे-पिआसे हाँए-हाँए करित, हम तनी एक लोटा पानी लाके देतिक, दूगो मीठ बात करतिक, बेचारा के मिजाज एत्ता खराब न होतइ हल ।)    (बिरायौ॰22.16)
1583    हाँहे-फाँहे (= हाँफे-फाँफे)     (अन्हारहीं गिरहतवा बोलवे अलइ । आएल त जानलक कि उ साँझहीं ददहर भाग गेल । सोचलक गिरहतवा - बीच में छोड़ देत त हम्मर कुल्लम पैदा खरिहानिए में रह जाएत, इआ भगवान ... हाँहे-फाँहे बेचारा उ पहुँचल मेंहदीचक, पुछताछ करलक ।)    (बिरायौ॰43.18)
1584    हाउ-हाउ     (सए हाउ-हाउ गोहुमा के बलवा के ममोड़े लगल । घड़िए-घंटा में दसन कट्ठा खेत के टुंग-टांग के फँड़िआऽ लेलक । चलती-चलाँत एकक मुट्ठा बूँट के झँगरी ले लेवित गेल ।; भोलवा ठीके-ठीक दुपहरिआ के खरिहानी से घरे आल । हाउ-हाउ दू-चार मुट्ठी सत्तु इँगललक । बोलल - बड़ा मन असकताइत हे । खटिआ बिछाऽ के पड़ रहल ।; - बड़ी हाउ-हाउ निगलले हँहीं बिसेसरा । - हाँ, भर निसा पानी पी लेबइ । दिहें तो ।)    (बिरायौ॰26.4; 41.16; 55.19)
1585    हाली (= जल्दी)     (- आज नवे घड़ी न अन्हरिआ मारतइ भोलवा, अब चली जो । - घँसक हाली । सब्भे उढ़कल हुआँ से ।; - जाए दे हम कुँआरे रहम । बिसेसरा बोलल । - जिक धरबें ? अरे कर ले हाली बिआह, न तो फिन दोआह लड़की से बिआह करे पड़तउ ! कइली बोलल ।)    (बिरायौ॰26.8; 41.1)
1586    हाले (= हाल में)     (बेचारा के बेटा हाले उखड़लइ हे आउ आज इ संकट आ गेलइ, कउन जाने जोतनुअन सब का करऽ हइ । तोखिआ भोलवा के बिपत के अप्पन बिपत बुझलक ।)    (बिरायौ॰43.5)
1587    हावा (= हवा)     (दफदरवा फिनो अलवऽ हल, तोरो खोजित हलवऽ, हमरा एकदिसहाँ ले जाके कहे लगल कि देख इ पँड़वा कमनिस हे । एकरा मुसहरी में से जल्दी भगा दे न तो तोरा, मँगरुआ के आउ बिसेसरा के जेहलखाना के हावा ... ।; बुतरुआ बिहनहीं से छरिआल हइ, सोबरनी ओकरा टाँगले चल आएल नदिआ आँटे पँकड़वा तर । - बइठ, कइसन बढ़िआँ हावा झिरकिन हइ । ले इ झिटकी । बचवा झिटकिआ लेके चुक्के-मुक्के बइठ गेलइ ।; त अब ओहु सबके नाया जमाना के हावा लग गेलइ हे ।)    (बिरायौ॰19.5; 22.11; 73.8)
1588    हिंआ (= हीयाँ; यहाँ)     (आओ रे भोलवा, लाख बरिस जीमें । कहिआ से हिंआ आवे ला सुरु कर रहले हें ...)    (बिरायौ॰13.11)
1589    हिंए (= हीएँ; यहीं)     (झोपड़वा में एगो जोतनुआ एगो खटोला पर खरहट्टे गोरथरिआ देन्ने माथ कएले पड़ल हल । बोलल - आवऽ भगतजी, ठहरना चाहऽ ह त हिंए ठहर जा, कोई बात के तकलीफ न होतवऽ ।)    (बिरायौ॰7.13)
1590    हिआव     (बाकि मँगरुआ न उठल खटिआ पर से । आज खटिआ पर से न उठल, बिहान सलाम करना छोड़ देत । सेकरा बाद साथहुँ बइठे के हिआव करे लगत । ओकरा लप्पड़-थप्पड़ कर देना जरूरी हे ।; - बाकि अब महिन्ना दू महिन्ना ला हिंआ से टर जाना बेसतर हउ, न तो का जनी सब मार-पीट करे ला चाहउ ...। - पलटु भाई हीं बिअहवा हइन एही से छौ-पाँच में ही । मुसहरिआ में चढ़े के हिआव तो सए के नहिंए पड़तइ ...।)    (बिरायौ॰17.7; 42.25)
1591    हिकमत-हिरफत     (इ मुसहरिआ आप लोग के लाट में हवऽ, आप लोग के जोर पर हम हकविसवे सम्हार लेम । हमनी के गोटी लाल अस्सो करके होत । खाली हमरा दू महिन्ना के सीधा के इंतजाम कर देवल जाए । हम्मर इजमत देखी, कोई न कोई हिकमत-हिरफत से सब्भे मुसहरी के ओट न हँथिआऽ लेली त फिन हम्मर नाँव पुन्ना नँ !)    (बिरायौ॰47.10)
1592    हिगरवाना     (पहिले से जानती हल कि समिआ हमरे छाती पर मूँग दरे ला मुसहरी से रहल हे तो ओकरा पलक मारित में गतरे-गतरे हिगरवा देती हल बाकि हमरा तनी सुन भनको न मिलल पंडी जी, आपो चुप्पेचाप हट गेली ।)    (बिरायौ॰46.13)
1593    हिगराना     (सउँसे कसइलीचक में सब ले खनदानी हथ भुमंडल बाबू । केउ उठा दे तो अँगुरी । धन केकरो होए, जमिनदारी केकरो होए, बाकि पंचित में भुमंडले बाबू के माथा पर फेंटा बँधाऽ हे, जेकरा चाहथ उठा लेथ, जेकरा चाहथ हिगरा देथ ।)    (बिरायौ॰16.18)
1594    हिनजइ     (कइसन घिनावन हे पुरान नओंनेम कि जे कोई परजात से सादी करे ओकर जन-फरजन के हिरदा में बरोबर हिनजइ के काँटा चुभित रहे । समाज में नाया विचार-कनखी छवाड़िक लोग न लावत त आउ कउन लावत ।)    (बिरायौ॰78.25)
1595    हिनतइ     (मुसलमान चाहे किरिसतान के छूअल पानी फिन आप न पीअम, बाकि इ से उ लोग के मन में हिनतइ के भओना कन्ने जम्मे हे । जदगर बढ़ामन तो छुच्छे हथ, अनपढ़े हथ बाकि उनकर मन में हिनतइ के भओना न बसे ।; हमनी ओहर एही से समझल जा ही कि गुलाम ही, बंधुआ ही आउ साथहीं साथ छुच्छो ही । हमनी अछरउटी से हीन ही, हमनी में हिनतइ के भओना घर करले हे । हमनी में राजनीतिआ-समाजिआ हबगब न हे ।)    (बिरायौ॰12.13, 14; 71.6)
1596    हिनसतइ     (- रेआन के मुखिआ हो जाए से हमनी के केतना हिनसतइ हे । बजरंग कहलक । - ढकनी भर पानी में डूब के मर जाना बेसतर हे एकरा ले ! रेआनो में एकदम भुइँआ । भला कहऽ । भुमंडल बाबू जोड़लन ।)    (बिरायौ॰73.21)
1597    हिरिस     (से तो हइए हइ गे, पढ़त-लिक्खत कउची बाकि खाली हिरिस हइ आउ का । जाए ला मनवे लुसफुसाइत रहतउ ।)    (बिरायौ॰53.4)
1598    हीं (= के यहाँ)     (केतेक अदमी दुख पड़ला पर लोंदा भगत हीं से भभूत लौलक, भगवान के माया, सब्भे के भलाइए होल ।)    (बिरायौ॰8.22)
1599    हुँआँ     (सब केउ लोंदा भगत के कसइलिए चक में रहे ला कहे लगल, मल्लिक-मालिक अपनहुँ घिघिअएलन, बाकि लोंदा भगत 'नँ' से 'हाँ' न कहलक । कहलक - सरकार, हम्मर पुरखन के जहाँ पिढ़ी हे, हुँआँ से हम कइसे हट सकऽ ही, हुँआँ दीआ-बत्ती के करत ? सलिआना के चढ़ावत ?)    (बिरायौ॰9.20)
1600    हुँपकुरिए (~ गिरना; ~ दउगना)     (सामी जी बुझलन कि कुतवा उनका पर धउगत अब । से उ ललटेन के बीग-उग के भाग चललन । बेचारे सुकवार अदमी, अइसन ठेंस लगलइन कि हुँपकुरिए गिर पड़लन ।; भुमंडल बाबू पिछुआऽ गेलन, पलटुआ आ तोखिआ पिठिआठोक रगेदित हे । बिसेसरा एकसिरकुनिए धउग रहल हे । मन्नी भगतिनिआ के टँगरी में का जनी कहाँ के बल आ गेलइ, ओहु हुँपकुरिए दउगित हे ।)    (बिरायौ॰24.8; 75.17)
1601    हुँमाद (= हुमाध; समिधा)     (त सउँसे मुसहरी के कुल्लम सरेक लइकन-सिआन आउ उमरगर अदमी जनेउ ले लेलक । पंडी जी संख फुँकलन, हरकिरतन भेल, हुँमाद धुँआल ।; दखिनवारी मुसहरी में अन्हारहीं जमकड़ा लगल । पुन्ना पाँड़े विराजित हथ बिच्चे ठइँआ । सउँसे मुसहरी के लोग आवे हे, गोर टो-टो के बइस जाहे । हुँमाद जरित हे, संख फुँकाइत हे, पलटु आउ तोखिआ के गोर न थमाइत हे ।)    (बिरायौ॰49.20; 57.23)
1602    हुँसटोरिआ     (- डाकडर से देखौलें हल ? - हूँ, डाकडर कहलक कि कारन है, हुँसटोरिआ है, दवा से ठीक हो जागा ।)    (बिरायौ॰32.10)
1603    हुआँ (= वहाँ)     (चलती हल बाकि पलटु के बहिनी पिठिआठोक चल आल हे । अब हम कउन मुँह लेके हुआँ जा ही ! एक तो छौंड़ा के मुए से जीउ छोटा हल, सेकरा पर कुलछनी औरत के चाल-ढाल से अलगे दुनिआ हँसारत हल, का जनी काहे ला तो केतेक दिन समिआ हीं गेल ... अब हम हुआँ का जाउँ सरकार ! गिरहतवा बेचारा लौट आल ।)    (बिरायौ॰44.1, 4)
1604    हुक     (अगे, खाली कहे ला सब बड़जतिआ हइ, जानलें ? ... घर के कल्लह से अजीज होके केतना जोगी हो जात । केतना के हुक से ढाँसी-बोखार धर ले हइ, केतना बउराहा हो जा हइ ।)    (बिरायौ॰53.21)
1605    हूँह     (एक बेरी गिलटु के भाई के कंगरेसिआ दुकान के निराली पिए ला एक बरिस ला कट्टिस कर देवल गेल । साही जी गिलटु के पच्छ ले लेलन - निराली पीना तो निसखोरी न हे, एकर घर करना ठीक न हे । एतना उनकर कहना हल कि भुमंडल बाबू गड़गड़एलन - हूँह, इनकर बेटा माउग साथे रिकसा पर पटना में सगरो बुलित फिरऽ हइन आउ इ पंचित के मिद्धी बने ला हक्कर पेरले हथ । चुप रहऽ ।)    (बिरायौ॰17.2)
1606    हेंट्ठे (= नीचे)     (पहिले मल्लिक मालिक लग केउ मलगुजारी देवे चाहे सलामी देवे जाए त हेंट्ठे बइठे, भुँइए पर । का बाभन रइअत, का कुरमी रइअत । त बाभन लोग गते-गते चँउकी पर बइठे लगल । त फिन कुरमी लोग बइठे लगल ।)    (बिरायौ॰16.1)
1607    हेंठहीं (= नीचे ही)     (अरे आज तो एही बेरा से बइठिका गूँज रहल हे, एक ठो उपरी अदमी बुझाऽ हइ । कोई हितु होतइन । भितरे जाना ठीक न हे, हेंठहीं घाँस पर लोघड़ रहुँ तब । अकानुँ लोग का बतिआइत हे ।)    (बिरायौ॰57.2)
1608    हेन-पतर     (अगे मइओ गे, हम्मर माँए के देल सए गहना-गुड़िआ इ मरदाना हेन-पतर कर देलक । केते तुरी गोजी-पएना चला के हम्मर मँगासा फोड़ देलक, कनबोज घवाहिल कर देलक, ठेहुना के हड्डी छटका देलक ।)    (बिरायौ॰5.13)
1609    हेलना (= घुसना)     (गलिआ में पाँच-पाँच बरिस के दू गो लड़की कन्धा जोड़ाऽ के ताल पर गोड़ मार-मार के झुम्मर पारित हल - "अगे चूड़ि लागी/ अगे चूड़ी लागी नोंचली जजात गे, चूड़ी लागी ।" सामी जी के देख के दुन्नो हँस्सित भागल, एगो झोपड़ी में हेल गेल ।; टोनू चरचा करलक - सुनली कि मुसहरिआ में अबके तीन-चार गो बाइली अदमी हेलल हे, पुलिस का अलइ ?)    (बिरायौ॰34.21; 80.13)
1610    हेल्ले (= हले ले)     (- आँइँ ! अच्छर आवऽ हइ ? त 'बगुला बइठा नद्दी किनारे' ओला कितब्बा देहीं । - पढ़ भोलवा हेल्ले ।)    (बिरायौ॰13.25)
1611    हैबत (= दुविधा, चिंता)     (बाकि एँसवो कइ ठो कमिआ एही सत्ता में हिंओ से भागत जरुरे । मोरंग, जिरवा, नौरंग, टोनुआ, ... पन्ना पाँड़े समझौलन सब के - देखऽ, भागल फिरना बेस न हे । दुख के अँगेजे के चाही, दुख-सुख तो लगले हे । भुक्खे मरे के हैबत से भाग खड़ा होना ठीक न हे ।)    (बिरायौ॰14.23)
1612    हो     (कहे हे, सउँसे जिनगी अब मुसहरिए सेवम । गरीब-गुरवा के भलाई करे ला आएल हे । - उँ, संचे ? - हाँ, हो, तोरा से से झुट्ठो कहित हिवऽ, ठेओड़-पट्टी ओला बात से जानवे करऽ ह कि हमरा घीन हे ।; (- ए हो, तोरा से ढेर सानी बात बतिआए ला हे, चलें न उ पिपरिआ आँटे । - चलऽ न ।; हमनी के पहिले काहाँ मालूम हल कि उ कमनिस हे । - कमनिस हइ हो ? - हाँ, गँउआ के लोगिन बोलित हलइ कि कमनिस कमिअन के बहका दे हे आउ रोपनी चाहे टँड़वाही बेजी गिरहत के काम छोड़वा दे हे ।; - बरिअतिआ आजे न अतउ हो ? - मुँहलुकान होइए रहलइ हे सरकार, अब देरी न हइ ।; - आज कइसन रहलउ बिसेसरा ? मुटुकवा हे । - आज तो एकदम्मे देवाला हउ हो, कुल्लम एक ठो अठन्नी । तीन आना के लिट्टी-अँकुरी लेलुक हे । रात के बुतात भर बच्चऽ हउ । अप्पन कह ।; - चललें का ? आज पारक में किरतन होतउ, अएबें न ? - न हो, बड़ी रात हो जा हइ । नकली गीत हमरा न अच्छा लगे । - नकली गीत कइसन हो हे हो ?)    (बिरायौ॰18.10, 17; 19.9; 48.5; 55.11, 23)
1613    होमीपत्थी (= होमियोपैथी)     (के-के घंटा पर दवइआ देवे ला कहलकथिन हल ? ऊँ ? पूछना कउन जरूरी हइ । होमीपत्थी तो बुझाऽ हइ, मँगनी के बाँटे ला सँहता गुने डकटरवन रक्खऽ हइ । न फएदा करऽ हइ, न हरजे करऽ हइ ।; - सामी जी, इ गोलिआ होमीपत्थी हइ ? - हाँ, इ होमिए पत्थी हवऽ । - त कातो होमीपत्थी दवाई फएदा न करऽ हइ । - न, कउन कहलकवऽ हे कि होमीपत्थी दवाई फएदा न करऽ हइ ? एकर तारिफ तो दुनिआ के लोग करित हे । अब तो सगरो होमीपत्थी अस्पताल खुल रहल हे । - बिसेसरा तो कहऽ हइ सामी जी कि होमीपत्थी से बेरामी अच्छा होवऽ हइ त तलवर अदमिअन अपने काहे आलापत्थी दवाई करावऽ हथिन ? - न न, होमीपत्थी दुसाए जुगुत चीज न हे, तुँ खाली धिरजा धर के एकरा दवाई देले जा, भगवान चाहतन त ...)    (बिरायौ॰38.12, 16, 17, 18, 19, 20, 22, 24)
1614    हौड़ा (= हौरा)     (पाँड़े देक गाँओ-जेवार में रकम-रकम के हौड़ा उड़े लगल, सँझवा के मुसहरिआ में बनिवा न आल ।)    (बिरायौ॰17.14)

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