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Saturday, October 19, 2013

100. कहानी संग्रह "गमला में गाछ" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



गमेंगा॰ = "गमला में गाछ" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार - रामचन्द्र 'अदीप'; प्रकाशक - चन्द्रकान्ता प्रकाशन, बिहारशरीफ (नालन्दा); प्राप्ति स्थानः विकास पदाधिकारी, भारतीय जीवन बीमा निगम, कमरूद्दीन गंज (पार्क के निकट), बिहारशरीफ, नालन्दा - 803101; संस्करण 1994 ई॰; 58 पृष्ठ । मूल्य 21 रुपइया ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 576

ई कहानी संग्रह में कुल 16 कहानी हइ ।

क्रम सं॰
विषय-सूची 
लेखक
पृष्ठ
0.
सूची
-------
iii
0.
मत-सम्मत
डॉ॰ ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'
iv
0.
अप्पन समय के दस्तावेजी एलबम
मिथिलेश सिंह
v-vii
0.
कहे दीहऽ
डॉ॰ लक्ष्मण प्रसाद चन्द
viii-xi
0.
मानऽ ही कि ...
रामचन्द्र 'अदीप'
xii-xiii




1.
हकासल कंठ

1-3
2.
संजोगल सपना

4-7
3.
ओढ़ल चद्दर

8-10
4.
बाँट-बखरा

11-14




5.
खुंडी-खुंडी आदमी

15-17
6.
पोखरा के मछली

18-20
7.
नइका तराजू

21-24
8.
गाँव के देस

25-29




9.
सँझउकी सूरज के धूप

30-32
10.
सहरे के छहुँरी में

33-35
11.
धोखड़ल जमीन

36-38
12.
ओढ़ल जिनगी के जखम

39-42




13.
गमला में गाछ

43-46
14.
नइका राह के राही

47-50
15.
बगिया के धूप

51-55
16.
लूक लगल आदमी

56-58


ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):
325    पंघत (कोय-कोय तो कह रहल हल कि अपनो फूफा के मरला पर भी नोह-नखुरी नइ करइलक हे । एतने में प्रसाद साहेब अइलन । भंडार में उनका हेले से मना कर देल गेल, काहे कि उनको नोह-नखुरी नइ होल हल । भोज के पंघत बइठते-बइठते तो सउँसे गाँव में चरचा होल कि बम्बेवली के भाय-भतीजा अइसन कि अपनो अदमी के कजा करला पर नोह-नखुरी नइ कइलक, छुत्तक नइ लेलक ... काहे नइ लेलक !)    (गमेंगा॰28.29)
326    पइरना (= पैरना, तैरना) (सिन्हा साहेब लड़की देखे ले कानपुर से कलकत्ता आउ बम्बई से बंगलोर तक के चक्कर लगावे लगलन । ऊ जमीन आउ जड़ पकड़े खातिर पइर रहलन हल तो लड़का एकदम्मे फुलंगी धइले हल ।)    (गमेंगा॰46.14)
327    पछली (अइसे तो आज भोरहीं से मदन जी चंगलाल हलन लेकिन पछली से उनकर नजर घड़ी पर चल जा हल । चरबज्जी गाड़ी के समय उनका मालूम हे ।)    (गमेंगा॰39.1)
328    पछान (= पहचान) (दरद आउ टीस जे गाँव में हे ऊ शहरो में हे । गाँव के सिमाना में शहर सेंध मार रहल हे, तो शहर के बेलस माटी पर गाँव के गोड़ भी धरा रहल हे । एकरा एक तरह से संक्रान्ति कहल जा सकऽ हे । एकर पछान के जरूरत हे । आदमी अपनो शहर में हेरा जाहे ।)    (गमेंगा॰ix.26)
329    पछानना (= पहचानना) (ई एकदम सब्बड़ सच हे कि दहशत भरल आदमी के अइसन जंगल में राम के साथ लक्ष्मण (रामचन्द्र अदीप - लक्ष्मण प्रसाद चन्द) नइ छोड़ रहल हे आउ ई भी सच हे कि जंगल के खुंखार जानवर के जबड़ा आउ पंजा हमरा से जादे ओहे पछाने हे ।; लड़की जे घर से विदा होल त बड़ी मोसकिले से नइहर दने ताकऽ हल - काहे कि  ऊ बड़गो शहर के नक्शा में अइसन ने बँधल कि नइहर के लोग-बाग के अब पछानलो मोसकिल होवऽ हल ।; आज ऊ जउन गली से निकलथ, लोग-बाग उनका पछानिये ले हथ ।)    (गमेंगा॰xiii.28; 1.12; 33.15)
330    पठरु (कैलास बइठल-बइठल अपन गाँव के भोज-भइबी के याद करे लगल । पूजा से छट्ठी-एतवार सब मिलजुल के मनावऽ हे । पठरु पड़े, देवास लगे तो की मजाल कि टोला-टाटी के आदमी नइ आवे । अइसन संस्कार ओकरा गामे से मिलल हल ।)    (गमेंगा॰10.22)
331    पढ़ाय (मोहन के दुन्नू भाय बलेसर-चनेसर पुश्तैनी जर-जमीन आउ जायदाद के दाव पर लगाके मोहन के ऊँचगर से ऊँचगर पढ़ाय करावे ले कसमे खा लेलक हे ।)    (गमेंगा॰36.13)
332    पढ़ाय-लिखाय (रामसेवक बाबू नौकरी में हला । वेतन तो कमहीं हल लेकिन बाल-बच्चा के पढ़ाय-लिखाय में कउनो कोताही नइ करऽ हलन ।; मुज्जू भाय खानदानी कब्रिस्तान दने रोजे टहले जा हलन । पुरखन के मजार देर तलुक हिअइते रहऽ हलन । फिनु इमामबाड़ा के चबूतरा पर सुस्ताय लगऽ हलन ।)    (गमेंगा॰4.5; 17.19)
333    पत्तल (पहिले पंघत में प्रसाद साहेब अपन लड़कन के बइठा देलका । गउआँ अपन लोटा लेले आ जुमलन हल । पत्तल बिछल । पूड़ी, तियन, साग आउ अंत में दही-भूरा । लड़कन लेल तो एकदम्मे अजुबा लग रहल हल ।)    (गमेंगा॰29.6)
334    पनपल (नौकरी-पेशा पर पनपल मानसिकता आउ बिचौलिया-संस्कार से अँखुआल अलगाव तो हमर परम्परा, मानव-मूल्य के उम्दा परम्परा के एकदम्मे धकिया रहल हे ।)    (गमेंगा॰x.10)
335    पनियाना (बाग-बगइचा, आम-अमरुद आउ लीची-कटहर के सवाद तो आझो उनकर मुँह पनिया दे हे । उनका एक-एक चीज याद हे । मंगरुआ, बिनेसरा आउ मोहन के साथ नदी में चुभकी आउ बगइचा के नुक्काचोरी के कहानी तो पढ़ावे खनी भी उदाहरण में ठोकिये दे हलन ।)    (गमेंगा॰52.7)
336    परान (= प्राण) (कहानी दरोजा पर के रहे या देवाल पर लगल बड़गो तख्ती के, भीतर के ठहरल हावा के रहे या अंगना में जमकल पानी के - सब में आदमी के छछनल परान आउ हकासल कंठ नजर आवत ।)    (गमेंगा॰ix.4)
337    परानी ( गाँव में लोग-बाग समझावे-बुझावे लगऽ हलन । लेकिन शहर में अइसन मामला घरेलू मामला समझल जाहे । एकरा में दोसर के दखल देना ठीक नइ । अइसन नाजुक बखत में बदरु दुन्नू परानी एगो कोना में दम साधले सटकल लोर गिरावऽ हल ।; अइसन बात सुनके बदरु दुन्नू परानी के होशे उड़ गेल । रात भर छो-पाँच करते रहल । कखनउँ नीन नइ आल ।; आमदनी के कमी आउ बढ़ल खरचा के दबाव के चलते अब लड़कन घर के कमरा-कोठरी के उपयोग के बात सोचे लगल । अमर जी के घरवली के कमर-खोसनी तो पहिलहीं छितरा गेल हल । अब दुन्नू परानी एक्के कोठरी में समटा गेलन। घर के गहमा-गहमी आउ हल्ला-हसरत से तंग आके दुन्नू परानी सोचऽ हलन कि रिटायर होला पर बचल-खुचल पैसा-कौड़ी लेके जिनगी के बाकी दिन बेटिये सब के घर में काटे में भला हे ।)    (गमेंगा॰14.15, 22; 31.25, 27)
338    पहिलका (= पहिलउका) (जवानी के पहिलका दिन तो हँसते-खेलते गुजर गेल । एहे हँसी-खेल में दू लड़की आउ एक लड़का भी आ गेल ।; आज जब रिटायर होके ऊ घर जा रहलन हल तब उनका कॉलेज के पहिलका दिन हाजिर हो रहल हे । कमेटी के समय हल । मंत्री रामजी बाबू एकदम्मे गो-महादेव !)    (गमेंगा॰40.29; 53.10)
339    पुन्न-परताप (= पुण्य-प्रताप) (बेचारा बूढ़ा लुज-लुज हो गेलन हे, लेकिन आझो तलुक की नउका आउ की पुरनका - सबके भीतर उनका लेल सरधा हे । की मजाल कि आज भी उनका सामने कोय सिकरेट पी ले । कॉलेज तो उनकर पुन्न-परताप के फल हे ।)    (गमेंगा॰53.15)
340    पुरखन (ओकरा लगऽ हल कि पुरखन के कब्रिस्तान जइसन हवेली आउ गाँव हिगरावल हे । लेकिन ई सब मानऽ हे कि रमजीवा, लखना आउ सोहरइया के बिना मोहर्रम के तजिया आउ सिपर कइसे उठत ?; मुज्जू भाय खानदानी कब्रिस्तान दने रोजे टहले जा हलन । पुरखन के मजार देर तलुक हिअइते रहऽ हलन । फिनु इमामबाड़ा के चबूतरा पर सुस्ताय लगऽ हलन ।)    (गमेंगा॰12.16; 17.18)
341    पुरजा-पुरजी (टर-टिसनी के बासी पइसा आउ घरवलन के बेहवार ओकरा एगो इस्कूल खोले लेल मजबूर कर देलक । इस्कूल के सइनबोड चढ़ गेल । ... सउँसे शहर में लउडीस्पीकर आउ पुरजा-पुरजी से प्रचार कइलक ।)    (गमेंगा॰38.10)
342    पुरनका (रोजी-रोजगार के भाग-दौड़ में घर बड़ी आगू निकल गेल, अंगना-ओसरा से देवाल तक चकचका गेल, लेकिन अपन बूढ़ माय-बाप के साथे-साथ बुतरून के सोभाव में कोय तफड़का नइ पड़ल । बुतरून के पढ़े लेल ओहे पुरनका इस्कूल आउ खेले-धूपे ले ओहे गली के धूरी-झिकटी, जेकरा से ओकर नया-नया कपड़ा भी पुराने लगऽ हे ।; आज जब रिटायर होके ऊ घर जा रहलन हल तब उनका कॉलेज के पहिलका दिन हाजिर हो रहल हे । कमेटी के समय हल । मंत्री रामजी बाबू एकदम्मे गो-महादेव ! केकरो एक बात नइ कहथ, लेकिन उनकर तो अजबे प्रभाव हल । बेचारा बूढ़ा लुज-लुज हो गेलन हे, लेकिन आझो तलुक की नउका आउ की पुरनका - सबके भीतर उनका लेल सरधा हे ।; पुरनका घर छोड़के नया जमीन कीनके एगो निम्मन मकान बनइलक । ढेरो खेत खरीदलक । गामे में शहर के सुविधावला घर हल ।)    (गमेंगा॰9.7; 53.13; 54.11)
343    पुरनकी (गाँव जब शहर में गोड़ रोपऽ हे तब ऊ अपन पछान खातिर लमहर धाप रखऽ हे, जेकरा से लमहर लकीर खिंचा जाय, लेकिन ओकर गोड़ में शहर के बेड़ी पड़ल हे । फेर पुरनकी हवेली तो खाली हवाखोरी के जगह अइसन देखाय पड़ऽ हे आउ नइकी इमारत मुँह बिजका-बिजका के ओकरा चिढ़ावे लगे हे ।)    (गमेंगा॰ix.31)
344    पूजा-पाहुर (जसन के रंगत से आसपास के लोग चौंधिया गेलन । फेर गाँव आके भी एगो भोज भेल । पूजा-पाहुर कइलक । गाँव-गोरइया से लेके डाकबाबा आउ डिहवाल के चढ़ावा चढ़ल । भगत से फुलधरिया तक अघा गेल ।)    (गमेंगा॰9.16)
345    पोरसिसिया (उनका लग रहल हल कि मेहमान के पोरसिसिया में अगर लड़कन भी साथे चले तो दीदी के कुछ ढाढ़स बँधत । ढील रिश्ता फेर से कसा जात । कत्तेक बेर दीदी ताना मार-मारके अपन चिट्ठी लिखलक हल ।)    (गमेंगा॰27.5)
346    फक्का (= फाँका) (एगो थरिया में फरही आउ ढेलवा गुड़ आल । प्रसाद साहेब तो भोज के इंतजाम देखे बहरा गेलन आउ लड़कन के हाथ थरिया दने बढ़िये नइ रहऽ हल । फूआ के कहला पर एका फक्का उठइलक लेकिन गुड़ उठाके फेर थरिये में रख देलक ।)    (गमेंगा॰28.24)
347    फरल (= फला हुआ) (की मजाल कि कोय तनिक अईंठ के चले उनका सामने । लेकिन आज तो सब कुछ उजड़ गेल हे । बच रहल हे खाली दूगो नरियर के पेड़ । चरचा करते-करते राम बाबू आउ सौकत देखलन कि नरियर के पेड़ घौरे-घौर फरल हे । ऊ दुन्नू घौर के देखइत एक दोसरा दने ताके लगलन आउ फेर चाय के पियाली में डूब गेलन ।)    (गमेंगा॰35.30)
348    फरही (बम्बेवली के भाय-भतीजा के नाम सुनके टोला-टाटी के जन्नी-मरद आउ बुतरुन से घर भर गेल । टुट्टल खटिया पर बिछल पुरान गेनरा पर बम्बेवली के भाय-भतीजन बइठल हलन । एगो थरिया में फरही आउ ढेलवा गुड़ आल ।)    (गमेंगा॰28.21)
349    फरियाना (सौकत चाय के चुस्की के साथ-साथ ढेरोढेर खिस्सा निकाल देलक । राम बाबू के फरिया-फरिया के एक-एक कहानी बतावे लगल ।)    (गमेंगा॰35.24)
350    फसकना (दारू के प्रभाव से उनकर देह-धच्चर के सब धागा छितरा रहल हल । शारदा दीदी आउ बाल-बुतरुन के भविस तो परिवार के रहन-सहन से झलके लगऽ हल । ई हालत पर प्रसाद साहेब के मलोला आवऽ हल लेकिन नरेश बाबू पर उनकर सलाह के कोय असरे नइ होवऽ हल । धीरे-धीरे रिश्ता के रसरी भी फसके लगल ।)    (गमेंगा॰26.21)
351    फसिल (= फसल) (उनका मालुम हो गेल कि गाँव ऊ गाँव नइ रहल । हियाँ भी दिनादिनी लूट-पाट, मार-पीट आउ अपहरण हो रहल हे । फसिल जब घर आ जाय तब समझऽ कि तोहर ।; राजो जी के बात सुनके भाय बोलल - "हिस्सा तो सब में सब के हे । तोहरा समेत, तोहर बेटा-पुतोह के नौकरी में हिस्सा नइ हे की ? आखिर तों भी तो एहे खेत के एगो फसिल हो । हमर बेटा खेतिहर होल आउ तोहर डॉक्टर । बँटवारा तो फारे-फार होवे के चाही ।")    (गमेंगा॰55.3, 17)
352    फारे-फार (सहिये साँझ तो मुनेसरा के मार देलक से आझ तलुक कुछ पता नइ भेल । अब गाँव के जिनगी भी भारी हो गेल हे । राजो जी तनी चउँक गेला आउ फेर सब कुछ फारे-फार पूछे लगला ।; राजो जी के बात सुनके भाय बोलल - "हिस्सा तो सब में सब के हे । तोहरा समेत, तोहर बेटा-पुतोह के नौकरी में हिस्सा नइ हे की ? आखिर तों भी तो एहे खेत के एगो फसिल हो । हमर बेटा खेतिहर होल आउ तोहर डॉक्टर । बँटवारा तो फारे-फार होवे के चाही ।")    (गमेंगा॰55.1, 18)
353    फुटानी (मदन जी अकबकाय लगला । अपन सब ठाट-बाट के भीतर एगो दरार देखाय पड़े लगल । उनकर घरवली तो हियाँ तक कहे लगली कि कविता सधारने घर में जात हल तो कउन हरज हल । सुखले फुटानी पर ई सब केतना खतरनाक काम होल ।)    (गमेंगा॰41.27)
354    फुलंगी (सिन्हा साहेब लड़की देखे ले कानपुर से कलकत्ता आउ बम्बई से बंगलोर तक के चक्कर लगावे लगलन । ऊ जमीन आउ जड़ पकड़े खातिर पइर रहलन हल तो लड़का एकदम्मे फुलंगी धइले हल ।)    (गमेंगा॰46.14)
355    फुलधरिया (जसन के रंगत से आसपास के लोग चौंधिया गेलन । फेर गाँव आके भी एगो भोज भेल । पूजा-पाहुर कइलक । गाँव-गोरइया से लेके डाकबाबा आउ डिहवाल के चढ़ावा चढ़ल । भगत से फुलधरिया तक अघा गेल ।)    (गमेंगा॰9.17)
356    फेकाल (शहर में कौनो उत्सव रहे या कौनो संस्था के काम या खेल के मैदान - दुन्नू लड़कन अपन अफरा-तफरी में पहुँच जाय । ई चमक-दमक के धक्का से कर-किताब दूरे फेकाल रहऽ हल । परीक्षा के समय में किताब के गरदा-धूरी साफ होवऽ हल ।)    (गमेंगा॰23.1)
357    फेनो (एहे मानसिकता के दोसर कहानी 'बाँट-बखरा' में भी गाँव से शहर के यात्रा हे । संयुक्त परिवार लेल गाँव यूरिया हे त शहर तेजाब । बदरू अपन दुन्नू बेटन के सम्वेदनहीनता से खिन्न फेनो गामे के रुख लेहे ।)    (गमेंगा॰vi.23)
358    फोटू (लाल बाबू बइठका में टँगल बाबूजी के फोटू निहारे लगलन । समय केतना तेजी से भागल, सोचवो नइ कइलन हल कि एतना जल्दी उनका नौकरी से मोहलत मिल जात । कलहीं के जलमल बेटी इस्कूल-कौलेज के सीमा नापते-नापते अपन गोड़ पर खड़ी हो गेल ।; गेंठ जोड़ के दुन्नू परानी पूजा पर बइठलन हल । घरवाली के कमर-खोसनी में सउँसे घर आउ आलमारी के ताला के कुंजी के गुच्छा तो देखतहीं बनऽ हल । घर में एगो अलगे पूजाघर बनउलन हल । सब देवी-देवता के मूर्ति आउ फोटू से ओकरा सजावल गेल हल ।)    (गमेंगा॰22.9; 30.9)
359    फोहबा (महेश कत्तेक दिन से छुट्टी माँग रहल हल, मुदा ई साले-गिरह के चलते नइ मिलल । ओकर घरवली के गोड़ भारी हल । ... ओकर घरवली के टोला-टाटी वलन मिलके अस्पताल ले गेलन हल । ... महेश देखलक कि ओकर घरवली बेहोश हे आउ बगल में फोहबा नींद में सूतल हे । फोहबा लड़का अब नइ रहल । महेश वाड से बाहर निकलल आउ जोर-जोर से काने लगल ।)    (गमेंगा॰58.29)
360    बइठका (नया साल के मोबारकवादी आउ खैर-सलाह तो बदली होला पर भी देते रहऽ हलन । बिदाई या सम्मान समारोह में उनका खाली रहे के चाही, एकाध फोटू उपराइये ले हलन । उनकर बइठका तो एगो तस्वीर-घर हो गेल हल ।; आजादी आन्दोलन में मुजफ्फर भाय के जानदार भूमिका हल । विदेशी शासन के खिलाफ दिन-रात बहस-तकरार करते रहऽ हलन । बइठका में आल-गेल लोग-बाग के अंगरेजी शासन के जोर-जुलुम के बात बतावऽ हलन ।; बड़ी लकधक से तैयारी हो रहल हे । घर-दुआर साफ करा देल गेल हे । बइठका में कुरसी, सोफा आउ अनेगन समान सजा देल गेल हे ।)    (गमेंगा॰4.14; 15.11; 21.4)
361    बइठकी (ढेरो दिन के बाद अइसन भोरहीं आवे के कारन जाने खातिर सक्सेना साहेब उत्सुक हो गेलन । लड़कन के कहे में कउनो सकसकी नइ बुझाल । डॉक्टर कहे लगल - "बाबूजी, तोहर रोज-रोज के बइठकी से अब डर लगे लगल कि कहीं एकर असर लड़कन पर भी ने पड़ जाय ।")    (गमेंगा॰49.25)
362    बइठनइ (कउनो सभा-सोसाइटी में आगू बइठनइ रामसेवक बाबू के सोभाव हल । नामी-गिरामी हस्ती आउ वजनदार अधिकारी से मेल-जोल बढ़ावे के कला में कमाल के काम करऽ हलन ।)    (गमेंगा॰4.6)
363    बखत (= वक्त, समय) (गाँव में लोग-बाग समझावे-बुझावे लगऽ हलन । लेकिन शहर में अइसन मामला घरेलू मामला समझल जाहे । एकरा में दोसर के दखल देना ठीक नइ । अइसन नाजुक बखत में बदरु दुन्नू परानी एगो कोना में दम साधले सटकल लोर गिरावऽ हल ।)    (गमेंगा॰14.15)
364    बगात (ओहे सब के साथे-साथ बदरु मियाँ भी बड़ी रंग से उम्दा होली गावऽ हे । जितिया में एक तुरिया तो साड़ी पेन्ह के नाचलक भी । सउँसे बैसाख बगाते में कटऽ हल । दिन भर नात-कव्वाली, गीत-गाना आउ बेमौसमी गीत होतहीं रहऽ हल ।)    (गमेंगा॰12.21)
365    बघुआना (दिन भर नात-कव्वाली, गीत-गाना आउ बेमौसमी गीत होतहीं रहऽ हल । हवेली के बेगम आउ बीबी पर नया-नया तर्ज उभरऽ हल । कउनो-कउनो मोलायम धुन के सुर हवेली दने चल जाय तो सिवली मियाँ बघुआ के देखऽ हल ।)    (गमेंगा॰12.24)
366    बचल-खुचल (हलीम तो ढाका से धकियाइये देल गेल हल । देश अइते ओकर जीभ बचल-खुचल पुस्तइनी जायदाद के हिस्सा-बखरा ले लपलपाय लगल ।; घर के गहमा-गहमी आउ हल्ला-हसरत से तंग आके दुन्नू परानी सोचऽ हलन कि रिटायर होला पर बचल-खुचल पैसा-कौड़ी लेके जिनगी के बाकी दिन बेटिये सब के घर में काटे में भला हे ।)    (गमेंगा॰17.6; 31.27)
367    बच्छरो-बच्छर (कहानी लिखनइ के ई सफर में भाय बाँकेनन्दन प्रसाद सिन्हा, निदेशक, आकाशवाणी, पटना के नइ भूल सकऽ ही, जे बच्छरो-बच्छर पहिले कमीज के कालर पकड़ हमरा फेर से कहानीकार बनावे खातिर झकझोर के खड़ा कर देलक हल ।; ढेर रात गेला तक कैलास ओइसहीं छो-पाँच करते रहल । आखिर अपन गाँववला नौकर के बोलइलक आउ टेबुल साफ करे ले कहलक । रमकिसना हैरत में पड़ गेल । आज बच्छरो-बच्छर बाद ओकरा साथे सोफा पर बइठल । कैलास खा-पीके उठल आउ अपन घरवली से कहलक - "कल घर चले के हे ।"; बेटन से मुलाकात कइला बच्छरो-बच्छर हो जा हल । लाल बाबू तो ई बीच अप्पन लड़कन के नाम भी भूल रहलन हल ।)    (गमेंगा॰xiii.20; 10.29; 22.19)
368    बझल (अपन लड़कन साथ बदरु दोकान में एतना ने रम गेल कि कखनउँ मोहलत नइ । भोर से साँझ तलुक ऊ भीड़ में बझल रहऽ हल ।; होली तो अब बदरु के गियारिये में बझल रह जाहे । ओकर घरवली के मन जितिया-नाच देखे ले ललचऽ हल ।; हरिद्वार से रामेश्वर तक के बात में बझल लड़कन के प्रसाद साहेब नालन्दा के इतिहास उकट-उकट के समझा रहलन हल ।)    (गमेंगा॰13.19, 24; 27.23)
369    बड़की (~ बेटी) (अपन बड़की बेटी कविता के शादी में भी एहे तड़क-भड़क काम देलक हल । आज उनकर दोसरकी बेटी के बात हल । रह-रह के उनका सामने कविता के शादी के बात ताजा हो जा हल ।)    (गमेंगा॰41.10)
370    बड़गर (लाल साहेब अपन कोठी देखके एगो अजीब संतोख के साँस ले हलन । बेटा-बेटी तो विदेशी होइये गेल हल । अपन निशानी के रूप में हल तो खाली ई बड़गर कोठी, जेकरा में रिटायर जिनगी के दिन गिन रहलन हल ।; ई सबके सब परदेसी अइसन हो गेलन हे । लेकिन हाँ, उनका में अभियो अपन शहर से जिला-जेवार तक के इतिहास आउ कभी अपन राज के नक्शा लेके ढेरोढेर चरचा करऽ हथ । बड़गर शहर में रहला के बाद भी ऊ सब में अपन छोटगर शहर के मोह बचल हे ।)    (गमेंगा॰18.3; 35.7)
371    बड़गो (कहानी दरोजा पर के रहे या देवाल पर लगल बड़गो तख्ती के, भीतर के ठहरल हावा के रहे या अंगना में जमकल पानी के - सब में आदमी के छछनल परान आउ हकासल कंठ नजर आवत ।; पैसा के पौधा जेत्तक बड़गो होते जा रहल हे, जीवन-संबंध के कोमल लुहगर टूसा ओतने मरुआइल नजर आ रहल हे ।; एक दिन कैलास महानगर के इयार-दोस्त के सहजोग से कलकत्ता के साल्ट लेक में एगो बड़गो कोठी कीन लेलक । कोठी किनतहीं बड़ी धूमधाम से एगो जसन मनावल गेल ।; कम आमदनी आउ बड़गो शहर लाल बाबू के दुन्नू बेटन के तबाह कइले हल । अपन भागम-भाग में ऊ तो माइयो-बाप के भुला देलक हल आउ बहिन सुनीता के नौकरी जानके तो एकदम्मे निहचित हो गेल हल ।)    (गमेंगा॰ix.2; x.15; 9.13; 22.14)
372    बड़गो-बड़गो (मदन जी अइसे तो हलन मँझलके आदमी, लेकिन अपन तड़क-भड़क से बड़गो-बड़गो के मात देले हलन । उनकर बात-विचार आउ रहन-सहन से केतना आदमी तो देखिए के चकमका जा हल ।; बड़गो-बड़गो अधिकारी सब से उनका परिचय हल ।)    (गमेंगा॰40.15, 23)
373    बड़बोली (लड़का जइसहीं नौकरी में गेल कि बरतुहार के बेयार बहे लगल । मास्टर साहेब रामसेवक बाबू के बात से एकदमें प्रभावित हो गेलन हल । उनकर बड़बोली में मास्टर साहेब अपन परिवार के भविस निहारे लगलन हल । रिश्ता तय हो गेल ।)    (गमेंगा॰5.20)
374    बड़ाय (खत-किताब के सिलसिला जोर पकड़ले हल । हलीम बंगाल के बड़ाय लिखऽ हल आउ कलीम कराँची के । मुज्जू भाय बइठका में चाय-पानी पीअ हलन आउ दुन्नू भाय के चिट्ठी लोग-बाग के सुनावऽ हलन ।)    (गमेंगा॰16.9)
375    बढ़ंती (कैलास लेल कलकत्ता अब अनुभुआर अइसन नइ लगे हे । ओकर पुस्तइनी रोजगार के जड़ तो गामे में हे, लेकिन खरीदार महानगरे में हे । ओकर बढ़ंती देखके तो गाँववला के भी सक-सुभा होवऽ हे ।)    (गमेंगा॰8.3)
376    बननइ (सामाजिक संबंध के बदलइत तेवर, पारिवारिक अइना के खुंडी-खुंडी होनइ, संबंधन के अजनबीपन, पल-पल बनिअउटी रिश्ता के बननइ आउ मेटनइये तो रचनाकार के कुरेदऽ हे ।)    (गमेंगा॰xii.14)
377    बनल (जब आदमी समाज से बिखर के अपन छाती पर हाथ रखे लगल तब ओकरा अइसन बुझाल कि ऊ भीतर से मसुआइल हे, खुंडी-खुंडी हे आउ कतरल हे कत्तेक जगह से । आदमी के समेटल आदमीयत के देवाल दरकल हे, धोखड़ल हे । ई दरकनइ से बनल दरार से देखला पर ओकर भीतर के गुम्मी भी गुनगुनाइत नजर आ रहल हे ।)    (गमेंगा॰viii.27)
378    बनिअउटी (सामाजिक संबंध के बदलइत तेवर, पारिवारिक अइना के खुंडी-खुंडी होनइ, संबंधन के अजनबीपन, पल-पल बनिअउटी रिश्ता के बननइ आउ मेटनइये तो रचनाकार के कुरेदऽ हे ।; ऊ तो अपने सादी-बियाह के मंजल खेलाड़ी हलन । लेकिन डाक्टर लड़का अपन बाप के बनिअउटी विचार से ऊब गेल हल ।)    (गमेंगा॰xii.13; 6.13)
379    बन्हल-छेकाल (कॉलेज से रिटायर करे के मतलब थोड़े हे कि काम के गियान कम जाहे ! तोहरे साथ बाल-बुतरुन भी बन्हल-छेकाल रहत । उकी, एगो मास्टर कइलियो हे तो अढ़ाय सो रुपइया महिना लेवो करऽ हको आउ महीना में एक अठवारा नदारत ।)    (गमेंगा॰51.5)
380    बरतुहार (लड़का जइसहीं नौकरी में गेल कि बरतुहार के बेयार बहे लगल ।)    (गमेंगा॰5.18)
381    बरतुहारी (जइसहीं अनिल डाक्टर होल त ढेरो-ढेर कुटुम्ब ओकर बरतुहारी लेल आवे लगला ।)    (गमेंगा॰2.2)
382    बरदास (साहेब के कोठी के सब सुख-सुविधा अब महेश के जिनगी के हिस्सा हो गेल हल । जाड़ा तो कउनो सूरत से कट जा हल, मुदा गरमी तो अब बरदासे नइ होवऽ हल । कहाँ साहेब के घर पर के फ्रीज के पानी, पंखा आउ लूक चले वला दिन में भी ठंढगर भित्तर ।)    (गमेंगा॰57.9)
383    बरना (ऊब ~) (रंजन के अमेरिका जइतहीं बर-बरतुहारी से घर गरमाय लगल । सामाजिक घेरा-घेरी से सिन्हा साहेब के ऊब बरे लगल ।)    (गमेंगा॰45.8)
384    बर-बरतुहार (अमर जी अब बर-बरतुहार से ठीक तरह से बतियावे लगलन हल । सोचऽ हलन कि रिटायर होला पर लड़कन के शादी पर सीधा असर पड़त । ले-देके अमर जी अपन दुन्नू लड़कन के शादी लगले-लगल निवाह देलन ।)    (गमेंगा॰31.8)
385    बर-बरतुहारी (रंजन के अमेरिका जइतहीं बर-बरतुहारी से घर गरमाय लगल । सामाजिक घेरा-घेरी से सिन्हा साहेब के ऊब बरे लगल ।; लड़कन के डॉक्टर आउ इंजीनियर होते-होते बर-बरतुहारी के भीड़ जूमे लगल । उनकर घरवली तो कउनो नेउता-पेहानी में जा हली तो सुन्नर लड़की आउ निमन परिवार के छानबीन करते रहऽ हली ।)    (गमेंगा॰45.7; 48.12)
386    बर-बीमारी (कैलास अपन गाँव के इयार-दोस लेल जान बिछइले रहऽ हल । बर-बीमारी में तो हाथ खोल दे हल । तर-तेहवार खूब जोश-खरोश से मना के समूचे गाँव के चौंधिया दे हल ।)    (गमेंगा॰8.21)
387    बरात (= बारात) (दुआर पर जब बरात लगल हल तो टोला-महल्ला के आँख टँगले रह गेल । मारे गाजा-बाजा आउ मोटरगाड़ी से अइसन बरात तो महल्ला लेल एकदम नावा हल । शादी के महिनो-महिना बाद चरचा के विषय बनल रहल ।)    (गमेंगा॰41.17, 18)
388    बराहिल (जब अउरो बुतरून साथे खेलते-धुपते ऊ चल जा हल तब देखऽ हल कि हवेली के मालिक अपन लड़कन पर केतना बिगड़ऽ हलन ओकरा साथ खेलते देखके । बराहिल तो बदरुआ अइसन लड़कन के फाटके पर से खदेड़ दे हल ।)    (गमेंगा॰11.6)
389    बसियाना (मोहन लेल ससुरार बसिया रहल हल । घरवली भी भर मुँह बोले में हिचके लगली । मोहन हिन्दी माध्यम के हल तो घरवली अंगरेजी माध्यम के ।)    (गमेंगा॰37.29)
390    बाँट-बखरा (एहे मानसिकता के दोसर कहानी 'बाँट-बखरा' में भी गाँव से शहर के यात्रा हे । संयुक्त परिवार लेल गाँव यूरिया हे त शहर तेजाब ।)    (गमेंगा॰vi.20)
391    बात-विचार (मदन जी अइसे तो हलन मँझलके आदमी, लेकिन अपन तड़क-भड़क से बड़गो-बड़गो के मात देले हलन । उनकर बात-विचार आउ रहन-सहन से केतना आदमी तो देखिए के चकमका जा हल ।)    (गमेंगा॰40.15)
392    बान्हना (ओकरा उमेद हे कि सउँसे परिवार लेल नेउता आबत । लेकिन अपन आउ उनकर परिवार के देखके ओकर मन कइसन तो हो जाहे । फिन ढाढ़स बान्हके सोचऽ हे कि अइसन परिवार में अइला-गेला पर परिवार के संस्कार बदलत । ई लेल अइसन मौका पर चुकाय नइ होवे के चाही ।)    (गमेंगा॰10.15)
393    बान्हा-बान्ही (कथानक, चरित, संवेदना, समय आउ विचार के साथे-साथ समाजगत दबाव से कहानी के कत्तेक जगह संघर्ष के सामना करे पड़ऽ हे । ई संघर्ष कहानी के सच हे । अगर कहानीकार अधिनायक होके एकरा बान्हा-बान्ही करे लगऽ हे तब कहानी के हार हो जाहे आउ हारल कहानी के कहानीकार जीत के झंडा नइ फहरा सकऽ हे ।)    (गमेंगा॰xi.2)
394    बाप-माय (सुनीता अपन बियाह लेल किसिम-किसिम के नाटक देखते ऊब गेल हल । कामकाजी लड़की होला पर भी हरदम ओहे नाटक, ओहे तिलक-दहेज के बात । बेचारी चुप रह जा हल तो खाली बाप-माय के भावना के धियान धरके ।)    (गमेंगा॰24.12)
395    बिचमान (= मध्यस्थ) (एक दिन भतिज-पुतोह आउ उनकर भोजाय में ठोनाबादी होल । बात बढ़ते गेल आउ फेर तो भाय, फूआ आउ राजो जी भी लपटा गेला । उनका तहिये लगल कि बिचमान बने में केतना महँगा पड़ल ।)    (गमेंगा॰55.10)
396    बिछौना (= बिछावन) (मारके ~ करना; फर के ~ करना) (अभी तो रतगरे हल । सिन्हा साहेब बिछौना पर उठके बइठलन हल । घर के चुप्पी सड़क पर तेज गाड़ी के आवाज से रह-रह के टूट रहल हल ।)    (गमेंगा॰43.5)
397    बिजकाना (गाँव जब शहर में गोड़ रोपऽ हे तब ऊ अपन पछान खातिर लमहर धाप रखऽ हे, जेकरा से लमहर लकीर खिंचा जाय, लेकिन ओकर गोड़ में शहर के बेड़ी पड़ल हे । फेर पुरनकी हवेली तो खाली हवाखोरी के जगह अइसन देखाय पड़ऽ हे आउ नइकी इमारत मुँह बिजका-बिजका के ओकरा चिढ़ावे लगे हे ।)    (गमेंगा॰ix.33)
398    बित्ता (~ भर के) (सिन्हा साहेब के बेटी तो बित्ते भर के हल कि ओकर नाम पहाड़ पर के इस्कूल में लिखा देल गेल हल । फेर लगले अपन दोसरो बेटा के नाम पहाड़े पर के इस्कूल में लिखा देलन हल ।)    (गमेंगा॰43.18)
399    बिहान (= सुबह; आनेवाला कल) (बिहान भोरहीं मेहमान के बड़कागाँव जाय ले बस, टमटम-तांगा आउ कोस भर पैदल चले लेल शरीर आउ मन के तैयार करे लगलन । नरेश बाबू के गाम से प्रसाद साहेब परिचित हलन ।)    (गमेंगा॰27.26)
400    बिहियाना (तहिया एज्जा तक तो उनकर दरोजे हल । भला, दरबार जइसन घर, नौकर-चाकर, लौंड़ी-नफ्फर ! तहिया केतना रजगज हल ! राम बाबू के ई बात पर बड़ी उलझन होवऽ हल । भला, सउँसे शहर तो नया पुराना आउ पुराना नया हो रहल हे तो कतेक बात बिहियावथ ।)    (गमेंगा॰35.1)
401    बुढ़ारी (होली तो अब बदरु के गियारिये में बझल रह जाहे । ओकर घरवली के मन जितिया-नाच देखे ले ललचऽ हल । होली के याद अइते तो बुढ़ारियो में मन-मिजाज बदले लगऽ हल । छउँरापुता केतना तंग करऽ हल ! हुरदंग ! अपनो घर रंगा जा हल ।; जब कभी लाल बाबू कानपुर जा हलन तो अनिल के हालत देखके एकदम फट जा हलन । बेचारे मन के बात मने में रखले घूर आवऽ हलन । उनका लेल पूरब आउ पच्छिम दुन्नू दने के सुरुज डूबले हल । बेचारे के बुढ़ारी अन्हेर से ढँकल हल ।; बेटन के तेउरी तो उनका बुढ़ारियो में नइ छोड़त । ऊ मनेमन रिटायर के बाद वला पेंसन के पास भी पहुँचे लगलन हल । कौन जाने कि बेटा लोग बुढ़ारी लेल मिलल सरकारी सुविधा के अपन औकाते में जोड़ले रहे ।)    (गमेंगा॰13.26; 23.22; 31.29, 31)
402    बुतरून (= बच्चे) (रोजी-रोजगार के भाग-दौड़ में घर बड़ी आगू निकल गेल, अंगना-ओसरा से देवाल तक चकचका गेल, लेकिन अपन बूढ़ माय-बाप के साथे-साथ बुतरून के सोभाव में कोय तफड़का नइ पड़ल । बुतरून के पढ़े लेल ओहे पुरनका इस्कूल आउ खेले-धूपे ले ओहे गली के धूरी-झिकटी, जेकरा से ओकर नया-नया कपड़ा भी पुराने लगऽ हे ।)    (गमेंगा॰9.6, 7)
403    बुतात (भाय लोग अइतहीं एगो फैसला कइलक । एक-एक पखवारा दोकान अपन-अपन हिकमत से चलावल जाय । नफा-नोकसान के भागी चलावेवला होत । तखनई दोसर कहलक - जे दोकान चलावत ऊ घड़ी अब्बा आउ अम्मी के बुतात ओहे देत । दोसर रिक्शा चलावे या ठेला, ओकरा कोय मतलब नइ ।)    (गमेंगा॰14.20)
404    बून-बरसात (घर के बुतरू सब तो पढ़े के नाम पर इस्कूल में जात । अइसे तो हरदम बगइचा में धउगा-धउगी करते रहऽ हे । गाम के इस्कूलो की हे । रउद आउ बून-बरसात सहियारे में छप्पर कहियो साथ नइ देलक ।)    (गमेंगा॰36.9)
405    बेआरल (मास्टर साहेब बड़का लड़का के नौकरी के जोगाड़ बइठा देलन हल । नौकरी में घुसतहीं मास्टर साहेब परिवार के ऊँच-नीच के बात ओकरा समझावे लगलन हल । घर-परिवार के बोझ-बखरा लड़का के पहिलके तनखाह के साथ कर देलन हल । बेआरल लड़का घर-परिवार के बात की समझत ? अभियो मास्टर साहेब के नौकरी बचल हल, ई लेल घर के बात घरहीं रह जा हल ।)    (गमेंगा॰5.15)
406    बेकत (ओकर लंगोटिया यार किसना गाँव छोड़के शहर में पान-बीड़ी के दोकान खोल देलक हल । दोकान खुब्बे चलऽ हल । किसना सब बेकत संगे केतना अराम से रहे हे । बदरु अपन मन के बात किसना से कहलक । ओकरा गाँव में बेचहीं के की हल ? जे हल ओकरा औने-पौने में बेचके शहर सोझिया गेल ।)    (गमेंगा॰13.12)
407    बेगराना (= हिगराना; अलग होना या करना) (बदरु सोचऽ हल कि गाँव में साग-भाजी से ऊ सउँसे घर के जोड़ले हल लेकिन नगर के नोट तो ओकर बेटन के बेगरा रहल हे । पुतहुन के आपसी गर-गलबात के सवाले नइ हल । हिस्सा-बखरा तक आके बात रुकऽ हल ।)    (गमेंगा॰14.7)
408    बेचा-बेची (कोठी के बेचा-बेची के एतना ने खत-किताब आवे लगल कि लाल साहेब के बोलतिए बंद हो गेल । एक दिन छोटका लड़का एगो मारवाड़ी दोस्त के साथ अचानक आ गेल । कोठी बेचइ के बात भाय से विदेशे में तय हो गेल हल ।)    (गमेंगा॰20.8)
409    बेजा (= बेजाय) (कहीं-कहीं लड़की के उँचगर शिक्षा आउ नौकरी के सवाल पर अइसन बात सुने पड़ऽ हल कि उनकर तो होशे उड़ जा हल । जाहिल जमात में लड़की के उँचगर शिक्षा आउ कामकाजी होना भी केतना बेजा समझल जाहे । सगरो नारी-आन्दोलन फैलल हे ।)    (गमेंगा॰24.6)
410    बेजाय (दुन्नू के एक्के समय छुट्टी लेनइ ठीक नइ हे । फेर बाल-बुतरु भी हल । ओकरे लेल रुक गेल । राजो बाबू तनि हिचक के बोललन - "बात तो ठीक हे, लेकिन बाल-बुतरुन के जउरे लेले अइतऽ हल तो कउन बेजाय होत हल । ऊ सब के देखला भी केतना दिन हो गेल ।" / रतन फेर समझइलक - "अभी की बेजाय होल हे । अगर घरे जाय के हे तो जइहऽ । लेकिन पहिले हमरा जउरे राँची चलऽ । वहाँ बालो-बुतरुन से मुलाकात हो जइतो ।")    (गमेंगा॰52.21, 22)
411    बेटा-पुतहु (आभिजात्य वर्ग में निर्णय लेनइ जतना असान हे, ओतना मध्य आउ निम्न वर्ग में नइ, तभिये तो 'नइका राह के राही' के सक्सेना साहेब बेटा-पुतहु के संस्कार बदले के प्रस्ताव पर अलग जीअइ के कठोर कदम उठा ले हथ ।)    (गमेंगा॰vii.23)
412    बेलस (दरद आउ टीस जे गाँव में हे ऊ शहरो में हे । गाँव के सिमाना में शहर सेंध मार रहल हे, तो शहर के बेलस माटी पर गाँव के गोड़ भी धरा रहल हे । एकरा एक तरह से संक्रान्ति कहल जा सकऽ हे । एकर पछान के जरूरत हे । आदमी अपनो शहर में हेरा जाहे ।)    (गमेंगा॰ix.24)
413    बेहवार (= व्यवहार) (टर-टिसनी के बासी पइसा आउ घरवलन के बेहवार ओकरा एगो इस्कूल खोले लेल मजबूर कर देलक । इस्कूल के सइनबोड चढ़ गेल । मोटगर अच्छर में लिखइलक - "शिक्षा का माध्यम अंगरेजी, हम सुनहले भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं । प्रतियोगिताओं में सफलता की गारंटी ।")    (गमेंगा॰38.6)
414    बोझ-बखरा (मास्टर साहेब बड़का लड़का के नौकरी के जोगाड़ बइठा देलन हल । नौकरी में घुसतहीं मास्टर साहेब परिवार के ऊँच-नीच के बात ओकरा समझावे लगलन हल । घर-परिवार के बोझ-बखरा लड़का के पहिलके तनखाह के साथ कर देलन हल । बेआरल लड़का घर-परिवार के बात की समझत ? अभियो मास्टर साहेब के नौकरी बचल हल, ई लेल घर के बात घरहीं रह जा हल ।)    (गमेंगा॰5.14)
415    बोड (= बोर्ड) (बिहारशरीफ आवइवली बस में मिसमाँमीस भीड़ । ... बिहारशरीफ पहुँचके होटल खोजे में देरी नइ लगल । ढेरोढेर होटल के बोड बस अड्डे पर लगल हल ।; जोरदार अंधड़ में राते इस्कूल के सइनबोड जगह-जगह से लटक गेल हल । मोहन इस्कूल के ईमारत पर चढ़के ओकरा ठीक करे लगल । एक हाथ में हथौड़ी आउ दोसर हाथ में काँटी पकड़ले हल । बोड हरदम नीचे लटक जा हल आउ काँटी टेढ़ होके रह जा हल ।)    (गमेंगा॰27.16; 38.27)
416    बोलना-बतिआना (मोहन के दुन्नू भाय बलेसर-चनेसर पुश्तैनी जर-जमीन आउ जायदाद के दाव पर लगाके मोहन के ऊँचगर से ऊँचगर पढ़ाय करावे ले कसमे खा लेलक हे । माय-बाप तो दुन्नू के बात सुन-सुन के दम साधले टुकुर-टुकुर आसमाने हिअइते रहऽ हथ । अब तो बोले-बतिआय के नाम पर रात-दिन खाँसते रहऽ हथ ।)    (गमेंगा॰36.15)
417    बोलहटा (लाल बाबू के दुन्नू लड़कन के बियाह बिना नौकरियो-धंधा के हो गेल । ससुराल वलन अपन-अपन दमाद के नौकरी के भरोसा दिला के लाल बाबू निहचित करा देलकन हल । सुनील अपन ससुरार वला के बोलहटा पर कलकत्ता चल गेल अउ अनिल कानपुर ।)    (गमेंगा॰23.6)
418    भगिना (भोरहीं शारदा दीदी के हाथ पर वजनगर लिफाफा धरइत छोटका भगिना के साथ लेले प्रसाद साहेब घर से विदा होलन । बेचारा भगिना के अंगा पर गाँव के गरदा अपन असर डालले हल । रास्ता भर तांगा-टमटम करइत बेचारा भगिना खुब्बे उपयोगी लग रहल हल आउ बम्बई जइसन महानगर लेल तो अइसन घरेलू लड़का के उपयोग अनमोल हे ।; उनका सौकत मियाँ, तारकेसर आउ कपिलदेव से अजीब उलझन होवऽ हे । ई सब जब भी आवऽ हथ तो मामू से भगिना तक के सवाल राम बाबू से करऽ हथ । शहर के ढेरोढेर परिवार के बाप-बेटा, माय-बेटी से गोतनी-सैतिन के गरमाल-ठंढाल कहानी तो उनकर ठोरे पर रहऽ हे ।)    (गमेंगा॰29.19, 21; 34.3)
419    भतिज-पुतोह (तब भी राजो जी के मन गाँव में लगिये रहल हल । एकरा सवाद के फेर कहऽ या उनकर प्रकृति । एक दिन भतिज-पुतोह आउ उनकर भोजाय में ठोनाबादी होल । बात बढ़ते गेल आउ फेर तो भाय, फूआ आउ राजो जी भी लपटा गेला ।)    (गमेंगा॰55.8)
420    भर (~ मुँह बोलना) (लड़की अंगरेजी इस्कूल के पढ़ल हल । गाँव के घर में ऊ दू-चारे दिन में कुम्हलाय लगल । गोतनी आउ लड़कन से भर मुँह बोलियो नइ सकल आउ सास-ससुर से मुलकात तो गोड़-लगाइये तक रहल । मोहन अपन माय-बाप, भाय-भोजाय के कुरबानी के बात घरवली से कहते-कहते थक गेल हल, लेकिन बेअसर रहल ।; मोहन लेल ससुरार बसिया रहल हल । घरवली भी भर मुँह बोले में हिचके लगली । मोहन हिन्दी माध्यम के हल तो घरवली अंगरेजी माध्यम के ।)    (गमेंगा॰37.14, 29)
421    भविस (= भविष्य) (लड़का जइसहीं नौकरी में गेल कि बरतुहार के बेयार बहे लगल । मास्टर साहेब रामसेवक बाबू के बात से एकदमें प्रभावित हो गेलन हल । उनकर बड़बोली में मास्टर साहेब अपन परिवार के भविस निहारे लगलन हल । रिश्ता तय हो गेल ।; दारू के प्रभाव से उनकर देह-धच्चर के सब धागा छितरा रहल हल । शारदा दीदी आउ बाल-बुतरुन के भविस तो परिवार के रहन-सहन से झलके लगऽ हल ।)    (गमेंगा॰5.20; 26.18)
422    भागम-भाग (= भाग-दौड़) (ई माने में अदीप जी के कहानी संग्रह 'गमला में गाछ' पाठक से सम्वाद स्थापित करइत अपन समय के ढेरकुनी छवि जिंदा कर दे हे, जेकर चेहरा पर लिखल जिनगी के भागम-भाग आउ दुख-दरद के साफ-साफ हरफ में लिखल इतिहास पढ़ल जा सकऽ हे ।; कम आमदनी आउ बड़गो शहर लाल बाबू के दुन्नू बेटन के तबाह कइले हल । अपन भागम-भाग में ऊ तो माइयो-बाप के भुला देलक हल आउ बहिन सुनीता के नौकरी जानके तो एकदम्मे निहचित हो गेल हल ।)    (गमेंगा॰v.10; 22.15)
423    भाय (= भाई) (आजादी मिले के मिलल बाकि अंग काटके कीमत चुकता करके, जेकर परिणाम भेल पाकिस्तान । अंग-अंग के दरद 'खुंडी-खुंडी आदमी' के मुज्जू भाय से जादे के जानऽ हे, जेकर एक भाय पच्छिम त एक भाय पूरब चल गेल ।; कहानी लिखनइ के ई सफर में भाय बाँकेनन्दन प्रसाद सिन्हा, निदेशक, आकाशवाणी, पटना के नइ भूल सकऽ ही, जे बच्छरो-बच्छर पहिले कमीज के कालर पकड़ हमरा फेर से कहानीकार बनावे खातिर झकझोर के खड़ा कर देलक हल ।)    (गमेंगा॰vi.28, 29; xiii.17)
424    भाय-भतीजा (बम्बेवली के भाय-भतीजा के नाम सुनके टोला-टाटी के जन्नी-मरद आउ बुतरुन से घर भर गेल । टुट्टल खटिया पर बिछल पुरान गेनरा पर बम्बेवली के भाय-भतीजन बइठल हलन ।)    (गमेंगा॰28.19, 21)
425    भाय-भोजाय (मोहन के नाम निमन कॉलेज में लिखा गेल । ओकर भाय-भोजाय सोचऽ हल कि घर में एक्को के आगू निकले से घर के बाल-बुतरुन के जिनगी में इंजोर आ जात ।; लड़की अंगरेजी इस्कूल के पढ़ल हल । गाँव के घर में ऊ दू-चारे दिन में कुम्हलाय लगल । गोतनी आउ लड़कन से भर मुँह बोलियो नइ सकल आउ सास-ससुर से मुलकात तो गोड़-लगाइये तक रहल । मोहन अपन माय-बाप, भाय-भोजाय के कुरबानी के बात घरवली से कहते-कहते थक गेल हल, लेकिन बेअसर रहल ।)    (गमेंगा॰36.5; 37.16)
426    भाय-भौजाय (इस्कूल के बढ़ावेवला योजना के बोझ तले अकाल के मारल घर से आवेवला खत दबल रह गेल । भाय-भौजाय के मनसूबा आउ तेयाग-तपसिया के बात मोहन के टीसऽ हल लेकिन तखनिये तावा पर तबल घरवली के आँख सामने आ जा हल ।)    (गमेंगा॰38.19)
427    भित्तर (= अन्दर का कमरा, सोने का कमरा) (राजो जी के भी एगो भित्तर मिल गेल । ओकरा में एगो पलँगरी लगा देल गेल, साथ में ओकरा पर एगो सुजनी आउ तकिया ।; साहेब के कोठी के सब सुख-सुविधा अब महेश के जिनगी के हिस्सा हो गेल हल । जाड़ा तो कउनो सूरत से कट जा हल, मुदा गरमी तो अब बरदासे नइ होवऽ हल । कहाँ साहेब के घर पर के फ्रीज के पानी, पंखा आउ लूक चले वला दिन में भी ठंढगर भित्तर ।)    (गमेंगा॰54.23; 57.10)
428    भुंजा (कॉलेज जाय घड़ी डोमन दरजी के दोकान पर चनेसर मोहन के साथे गेल हल आउ चेता-चेता के कहलक हल कि कपड़ा के सिलाय में देहातीपन के नामोनिशान नइ रहे के चाही । मोहन के दुन्नू भोजाय ओकरा ले चुन-चुन के कपड़ा किनलन हल । बक्सा में घी, सत्तू आउ भुंजा के साथ ढेरोढेर हिदायद देल गेल हल ।)    (गमेंगा॰37.1)
429    भुलाल (लेकिन देर रात जब ऊ अपन कोठी पर आवऽ हल तो परिवार के एक-एक आदमी के हुलिया आउ बात देख-सुनके ओकर सब निसा फट जा हल । घरनी अपन मगहियापन के छाव छोड़वे नइ करऽ हली । माय-बाप भी गाँव के याद में भुलाल रहऽ हलन ।)    (गमेंगा॰9.27)
430    भोज-भइबी (कैलास बइठल-बइठल अपन गाँव के भोज-भइबी के याद करे लगल । पूजा से छट्ठी-एतवार सब मिलजुल के मनावऽ हे । पठरु पड़े, देवास लगे तो की मजाल कि टोला-टाटी के आदमी नइ आवे । अइसन संस्कार ओकरा गामे से मिलल हल ।)    (गमेंगा॰10.21)
431    भोजाय (= भौजाई) (कॉलेज जाय घड़ी डोमन दरजी के दोकान पर चनेसर मोहन के साथे गेल हल आउ चेता-चेता के कहलक हल कि कपड़ा के सिलाय में देहातीपन के नामोनिशान नइ रहे के चाही । मोहन के दुन्नू भोजाय ओकरा ले चुन-चुन के कपड़ा किनलन हल ।)    (गमेंगा॰36.25)
432    भोरउकी (अइसन बात सुनके बदरु दुन्नू परानी के होशे उड़ गेल । रात भर छो-पाँच करते रहल । कखनउँ नीन नइ आल । भोरउकी अजान के साथ बदरु अपन पुस्तइनी टीन के बक्सा आउ घरवली के छेकुनी लेले अपन घर से बहरा गेल । सुरुज निकले के पहिले गाँव के मंदिर के घंटा के अवाज सुनाय पड़े लगल ।; जब लड़कन छोटगर हल तो भोरउकी चाय के साथ उनकर पारिवारिक जिनगी शुरू होवऽ हल । उनकर घरवली तो चाय के चस्का अपन नइहरे से लइलकी हल ।; ढेरो-ढेर आदमी के निहोरा कइला पर ओकरा ई नौकरी मिलल हल । नौकरी की हल, बस भोरउकी से लेके साँझ तक मालिक-मलकीनी के आवाज पर नाचते रहऽ हल । भोरउकी चाय से लेके रात के रसोय तक के भार ओकरे पर हल ।)    (गमेंगा॰14.24; 48.1; 56.5, 6)
433    भोरहीं (= भोर में ही) (बिहान भोरहीं मेहमान के बड़कागाँव जाय ले बस, टमटम-तांगा आउ कोस भर पैदल चले लेल शरीर आउ मन के तैयार करे लगलन । नरेश बाबू के गाम से प्रसाद साहेब परिचित हलन ।; ढेरो दिन के बाद अइसन भोरहीं आवे के कारन जाने खातिर सक्सेना साहेब उत्सुक हो गेलन । लड़कन के कहे में कउनो सकसकी नइ बुझाल । डॉक्टर कहे लगल - "बाबूजी, तोहर रोज-रोज के बइठकी से अब डर लगे लगल कि कहीं एकर असर लड़कन पर भी ने पड़ जाय ।")    (गमेंगा॰27.26; 49.23)
434    मँझलका (= मँझोलका, मँझलउका) (मदन जी अइसे तो हलन मँझलके आदमी, लेकिन अपन तड़क-भड़क से बड़गो-बड़गो के मात देले हलन । उनकर बात-विचार आउ रहन-सहन से केतना आदमी तो देखिए के चकमका जा हल ।)    (गमेंगा॰40.14)
435    मँझोलका (समय के धक्का से धकियाल आदमी के धाह धीरे-धीरे खतम होल जाहे आउ राम बाबू देखऽ हथ कि मैदान के जगह मकान उग रहल हे आउ शहर के नामी-गिरामी हवेली, महल, चमन आउ कमरा अब मँझोलका होके छोटकन में छितरा रहल हे ।)    (गमेंगा॰34.9)
436    मंजल (~ खेलाड़ी) (ऊ तो अपने सादी-बियाह के मंजल खेलाड़ी हलन । लेकिन डाक्टर लड़का अपन बाप के बनिअउटी विचार से ऊब गेल हल ।)    (गमेंगा॰6.12)
437    मंतर (= मात्र) (नामे ~ के = नाम मात्र का) (घरनी अपन मगहियापन के छाव छोड़वे नइ करऽ हली । माय-बाप भी गाँव के याद में भुलाल रहऽ हलन । खाली बुतरून खातिर कलकतिया फैशन नीमन लगऽ हल, लेकिन बोल-चाल आउ रहन-सहन में नामे मंतर के तफड़का पड़ल हल ।)    (गमेंगा॰9.28)
438    मउगत (= मौत) (नरेश बाबू के मउगत के खबर प्रसाद साहेब के ठोरे पर रह गेल । ऊ सउँसे बोझ अपने मन पर लादले किरिया-करम के आखिर दिन ले जोड़-घटाव करे लगलन ।)    (गमेंगा॰26.29)
439    मगहियापन (लेकिन देर रात जब ऊ अपन कोठी पर आवऽ हल तो परिवार के एक-एक आदमी के हुलिया आउ बात देख-सुनके ओकर सब निसा फट जा हल । घरनी अपन मगहियापन के छाव छोड़वे नइ करऽ हली । माय-बाप भी गाँव के याद में भुलाल रहऽ हलन ।)    (गमेंगा॰9.26)
440    मनउती (= मनौती, मन्नत) (ई मकान खातिर अमर जी आउ उनकर घरवली केतना मनउती माँगलन हल । तीरथ-जतरा में जहाँ भी जा हलन, देवी-देवता से मकान आउ परिवार के उन्नति के मनउती माँगवे करऽ हलन ।)    (गमेंगा॰30.10, 12)
441    मनेमन (= मनहीं मन) (जइसहीं अनिल डाक्टर होल त ढेरो-ढेर कुटुम्ब ओकर बरतुहारी लेल आवे लगला । नरायन बाबू मनेमन तय कइले हलन कि अनिल के बियाह डाक्टरे लड़की से करतन । अइसन बात सोचके उनकर मन में एगो अजबे ताजगी आ जा हल । गाड़ी-छागर से बड़गो मकान के नक्शा ऊ मनेमन बनइले हलन ।)    (गमेंगा॰2.3, 5)
442    मरुआइल (पैसा के पौधा जेत्तक बड़गो होते जा रहल हे, जीवन-संबंध के कोमल लुहगर टूसा ओतने मरुआइल नजर आ रहल हे ।)    (गमेंगा॰x.16)
443    मलपूआ (पढ़े आउ खेले में उनकर दुन्नू लड़कन जोरदार हल । लाल बाबू मनेमन मलपूआ छानते रहऽ हलन । उनका भरोसा हल कि दुन्नू लड़का ऊँचगरे ओहदा पर जात आउ तब उनकर हाथ हरदम ओदगरे रहत । भला, एगो बेटी निबाहना कौन मोसकिल होत ?)    (गमेंगा॰22.23)
444    मलोला (दारू के प्रभाव से उनकर देह-धच्चर के सब धागा छितरा रहल हल । शारदा दीदी आउ बाल-बुतरुन के भविस तो परिवार के रहन-सहन से झलके लगऽ हल । ई हालत पर प्रसाद साहेब के मलोला आवऽ हल लेकिन नरेश बाबू पर उनकर सलाह के कोय असरे नइ होवऽ हल । धीरे-धीरे रिश्ता के रसरी भी फसके लगल ।)    (गमेंगा॰26.20)
445    मसुआइल (= मसुआयल) (जब आदमी समाज से बिखर के अपन छाती पर हाथ रखे लगल तब ओकरा अइसन बुझाल कि ऊ भीतर से मसुआइल हे, खुंडी-खुंडी हे आउ कतरल हे कत्तेक जगह से ।)    (गमेंगा॰viii.24)
446    मसोमात (राजो बाबू लटफरेम पर चाय के दोकान में चल गेला । चाय पीअइत एगो उमरदराज बुढ़िया पर नजर पड़ गेल, सधुआइन हो गेल हल । ओकरा देखते उनका अपन फूआ के याद आ गेल । बेचारी बियाह के तुरते बाद मसोमात हो गेल हल ।)    (गमेंगा॰53.30)
447    महँगारी (सुनील के ससुरारवला ओकरा टिसनी पकड़ा देलकन । महल्ला के बाल-बुतरू के साथे-साथ घरो के लड़कन के पढ़ावे लगल । सबेरे से रात तलुक घरे-घरे जाके पढ़इते-पढ़इते एकदम्मे चूर हो जा हल । जिनगी के भागम-भाग आउ कमरतोड़ महँगारी से ओकर सउँसे चेहरा के रंग बदरंग हो गेल हल ।)    (गमेंगा॰23.10)
448    माँगा-माँगी (रामसेवक बाबू अपन बेटी के बियाह एकदमें सादा-सादी ढंग से निबाह देलन । ताम-झाम आउ माँगा-माँगी के नाम पर मास्र साहेब के मुँहे नइ खुलल ।)    (गमेंगा॰5.29)
449    माटी (दरद आउ टीस जे गाँव में हे ऊ शहरो में हे । गाँव के सिमाना में शहर सेंध मार रहल हे, तो शहर के बेलस माटी पर गाँव के गोड़ भी धरा रहल हे । एकरा एक तरह से संक्रान्ति कहल जा सकऽ हे । एकर पछान के जरूरत हे । आदमी अपनो शहर में हेरा जाहे ।)    (गमेंगा॰ix.24)
450    मालिक-मलकीनी (ढेरो-ढेर आदमी के निहोरा कइला पर ओकरा ई नौकरी मिलल हल । नौकरी की हल, बस भोरउकी से लेके साँझ तक मालिक-मलकीनी के आवाज पर नाचते रहऽ हल । भोरउकी चाय से लेके रात के रसोय तक के भार ओकरे पर हल ।; मालिक-मलकीनी के बाहर रहला पर महेश नहाय से लेके सोफा पर बइठे के भी अनुभव करऽ हल ।; मालिक-मलकीनी जब कउनो पिकनिक पर बाहर निकल जा हलन तब महेश के फुरसत मिलऽ हल आउ ऊ घरे पर अपन समय गुजारऽ हल ।)    (गमेंगा॰56.6, 14; 57.21)
451    मिंझाना (= बुतना, बुझना; बुताना, बुझाना) (बोले के तो सक्सेना साहेब बोल गेला । लेकिन अब सक्सेना साहेब तेजी से मिंझाय लगला । ऊ अब मनेमन कउनो गंभीर फैसला के तैयारी में लग गेलन । ऊ अपन घरोवली के समझा देलन कि उपयोगितावादी युगके फल के सवाद अइसने कसैला होवऽ हे ।)    (गमेंगा॰50.7)
452    मिठगर (समय जइते की देर लगऽ हे ? सक्सेना साहेब के घर भी गुंजार करे लगल । उनका दुन्नू परानी खातिर अब मिठगर दिनचर्या हो गेल हल । उनकर घरवली तो दुनिया भर के तर-ताबीज से पोता-पोती के हाथ आउ गियारी भर देलकी हल ।)    (गमेंगा॰49.10)
453    मिसमाँमीस (~ भीड़) (बिहारशरीफ आवइवली बस में मिसमाँमीस भीड़ । बस के भीतर बिछल बेंच । जातरी के तराऊपरी । लड़कन तो भीतर से तिलमिला गेल ।)    (गमेंगा॰27.13)
454    मुँह-फुलउअल (बदरु के लड़कन के निकाह-बियाह होतहीं घर के नक्शा बदल गेल आउ कुच्छे बच्छर में अँगना गूँजे लगल । गोतनी में मुँह-फुलउअल आउ ठोनाबादी होतहीं रहऽ हल । कखनऊँ-कखनऊँ भाइयो में झगड़ा हो जा हल ।)    (गमेंगा॰14.2)
455    मुठान (आज फेर मदन जी के आँख तर कविता बेटी के मुठान घूम जाहे । ओकर शादी के एक-एक सरेजाम झकझका रहल हे ।)    (गमेंगा॰42.16)
456    मुरझाल (नरायन बाबू पइसा, दुनिया के सुविधा आउ विलासिता के समान के मरम अब समझ गेलन हल कि बापो-बेटा के बीच में पइसा के झमेटगर पेड़ के छँहुरी में केतना रउद हे । पइसा के अइसन पेड़ तर अपन खूनो के रिश्ता केतना मुरझाल हे ।)    (गमेंगा॰3.18)
457    मुलकात (= मुलाकात) (लड़की अंगरेजी इस्कूल के पढ़ल हल । गाँव के घर में ऊ दू-चारे दिन में कुम्हलाय लगल । गोतनी आउ लड़कन से भर मुँह बोलियो नइ सकल आउ सास-ससुर से मुलकात तो गोड़-लगाइये तक रहल । मोहन अपन माय-बाप, भाय-भोजाय के कुरबानी के बात घरवली से कहते-कहते थक गेल हल, लेकिन बेअसर रहल ।; महेश के बड़गो दिक्कतदारी तो ई हल कि नौकरी लगे के पहिले हीं बियाह कर लेलक हल आउ लगले बुतरुओ हो गेल हल । बियाह आउ बुतरु के बाप बने तलुक तो मत पूछऽ, रोजे-रोज ओकरा मुसीबत से मुलकात होते रहऽ हल ।)    (गमेंगा॰37.15; 56.4)
458    मेटनइ (सामाजिक संबंध के बदलइत तेवर, पारिवारिक अइना के खुंडी-खुंडी होनइ, संबंधन के अजनबीपन, पल-पल बनिअउटी रिश्ता के बननइ आउ मेटनइये तो रचनाकार के कुरेदऽ हे ।)    (गमेंगा॰xii.14)
459    मैटिक (मैटिके के परीक्षाफल से मोहन लेल घरवलन के मोह बढ़ गेल हल । भरोसा बढ़ल कि मोहने ई पुश्तैनी कच्चा घर के पक्का इमारत में बदलत । अइसन निमन रिजल्ट तो बलदेव आउ किसोरी के लड़कन लइवो नइ कइलक हल लेकिन ओकर इमारत तो दुरिये से नजर आवऽ हे ।)    (गमेंगा॰36.1)
460    मोटगर (बेचारी ने तो पुतहू के देख सकली आउ नइ तो अपन बेटी सुनीता के ताम-झाम । लाल बाबू अपन थकल शरीर पर परिवार के बोझ धइले मोटगर चश्मा से दूर-दूर तक हियावे के कोरसिस करऽ हलन ।; सुनीता घबड़ाल नइ, कहे लगल - लेन-देन आउ दहेज के सवाल कन्ने से उठे के चाही ? तनी बतावऽ तो ! तोहर बेटा के 'बंधुआ मजूर' के नौकरी हे । हम मोटगर आमदनी के नौकरी करऽ ही । भला, हम तोहर बोझ बनम । हमरा तो तोहर बेटा आउ परिवार के बोझ उठावे पड़त ।; बैंक के आफिस खुले ले समान सब आवे लगल । उनका मालूम हो गेल हल कि बैंकवला सोलह हजार महिना देत आउ परिवार रहेवला मकान के किराया बस डेढ़े हजार हे । मकान किराया देके भी भायलोग के हाथ में मोटगर हिस्सा आ जात ।)    (गमेंगा॰23.27; 24.26; 32.21)
461    मोमबत्ती (~ होना) (ढेरो-ढेर बच्छर तलुक उनका मंसूरी जाय के सिलसिला लगल रहल । मत पूछऽ कि बेटी ले तो सउँसे मंसूरी धाँग के ओकरा ले कपड़ा-जुत्ता कीनऽ हलन । अपने से कंघी लगाके बेटी के जूड़ा-चोटी ठीक करऽ हलन । बेटी के जिद्द के सामने तो ऊ एकदम्मे से मोमबत्ती हो जा हलन ।)    (गमेंगा॰44.6)
462    मोलायम (= मुलायम) (बाहर पढ़े-लिखे वलन लड़का-लड़की के लिवास, बातचीत, हो-हुड़दंग आउ छेड़ा-छाड़ी तो फाटक आउ हवेली के उपरकी रोबदाब के मोलायम अनुवाद लगऽ हल । बदरु अपन गाँव के ई नक्शा तो सोचियो नइ सकऽ हल ।)    (गमेंगा॰12.7)
463    रउद (= रौदा; धूप) (नरायन बाबू पइसा, दुनिया के सुविधा आउ विलासिता के समान के मरम अब समझ गेलन हल कि बापो-बेटा के बीच में पइसा के झमेटगर पेड़ के छँहुरी में केतना रउद हे ।)    (गमेंगा॰3.18)
464    रजगज ( रिक्शा रोकके राम बाबू पान खाय लगलन तो सौकत फेर पुछलक - एहो पान-गुमटी तो कमाले साहेब के दरोजा पर लगल हे । तहिया एज्जा तक तो उनकर दरोजे हल । भला, दरबार जइसन घर, नौकर-चाकर, लौंड़ी-नफ्फर ! तहिया केतना रजगज हल !)    (गमेंगा॰34.31)
465    रजगजाल (शारदा दीदी, मेहमान नरेश बाबू आउ उनकर बाबूजी मोखतार साहेब - तहियो एहे छोट-मोट परिवार हल । मोखतार साहेब के खुब्बे चलती हल । हाकिम-हुकुम आउ नामी-गिरामी लोग-बाग से बइठका रजगजाल रहऽ हल । रात-रात भर चौपाल ।)    (गमेंगा॰26.11)
466    रतगरे (अभी तो रतगरे हल । सिन्हा साहेब बिछौना पर उठके बइठलन हल । घर के चुप्पी सड़क पर तेज गाड़ी के आवाज से रह-रह के टूट रहल हल ।)    (गमेंगा॰43.5)
467    रसे-रसे (= धीरे-धीरे) (मोखतार साहेब के मरते ही नरेश बाबू कच्चे उमर से कचहरिये में खप गेलन । रसे-रसे मोखतार साहेब के दाव-पेंच से बनल मिलकियत पर अब दोसर के नाम चढ़े लगल ।)    (गमेंगा॰28.8)
468    रसोय-पानी (बड़ी लकधक से तैयारी हो रहल हे । घर-दुआर साफ करा देल गेल हे । बइठका में कुरसी, सोफा आउ अनेगन समान सजा देल गेल हे ।)    (गमेंगा॰21.3)
469    रिजप (= रिजव, reserved) (जाहिल जमात में लड़की के उँचगर शिक्षा आउ कामकाजी होना भी केतना बेजा समझल जाहे । सगरो नारी-आन्दोलन फैलल हे । अब तो लड़की के हर जगह सीट रिजप रहऽ हे ।)    (गमेंगा॰24.7)
470    रोकाबा-रोकाबी (नौकरी के उतार-चढ़ाव आउ आगू-पाछू करे के तुम्बाफेरी ऊ लोग देख रहलन हल । नौकरी में बदला-बदली आउ रोकाबा-रोकाबी के झमेला से ऊ लोग एकदम्मे दूर रहे ले चाहऽ हलन ।)    (गमेंगा॰48.21)
471    रोग-बेमारी (अपन घरवली के देहाती समझके नरायन बाबू जिनगी के बड़गो जोड़-घटाव में एकल्ले हिसाब करऽ हलन । बेचारी त शरीरो से एकदमे लाचारे हली । कउनो न कउनो रोग-बेमारी लगले रहऽ हल ।)    (गमेंगा॰2.8)
472    रोजगरिया ( रामसेवक बाबू के गुमान परमान पकड़ रहल हल । बेटा के बियाह के सवाल पर उनकर सब आदर्श ताखा पर चढ़ गेल हल । लगले लहार एगो धनकुबेर आदमी से बरतुहारी के बात बइठ गेल । बेचारा रोजगरिया आदमी पइसा से अन्हराल हल ।; एहे चलते तो ऊ बड़गो रोजगरिया के सामने भी अपन देहाती रोब-रुतबा के ऊँचा उठइले रहल । लेकिन चड्ढा साहेब से ओकरा अइसन उमेद नइ हल । ऊ त अपन घरवइया जइसन नजीक हलन ।)    (गमेंगा॰6.24; 10.24)
473    रोजिना (बदरु अपन गलिये के साथी-संगी के साथ सियाना होल हल । ओकर अलगे दुनिया हल । सकेरे आउ सँझउकी सभे छान से धूआँ निकलऽ हल लेकिन दरोजा के बाहर गली में गारी-गुपता, उकटा-पउँची तो रोजिना के हिस्सा हल । लेकिन गली के झगड़ा हवेली जइसन थाना-कचहरी नइ जा हल ।)    (गमेंगा॰12.13)
474    रोजिन्ना (बड़ी तेज रफ्तार से बदलइत अपन कोठी के तेउरी से सक्सेना साहेब मनेमन घबड़ाय लगलन हल । अपन बेटा-पतोह के रोजिन्ना वली बात उनका घरवली से मालूम होइये जा हल । सक्सेना साहेब निम्मन ओहदा से रिटायर होलन हल ।)    (गमेंगा॰47.2)
475    रोवा-कन्नी (भोज के दिन प्रसाद बाबू हपन बुतरुन के साथ बड़कागाम पहुछलन । घर पहुँचते के साथ शारदा दीदी के पास गेला आउ गोड़ छुलका । दीदी तो नालन्दा के मूरुत जइसन टुट्टल-फुट्टल गुमसुम हली । गोरनार देह पर उज्जर-उज्जर कपड़ा साटले हली । सउँसे घर में रोवा-कन्नी होवे लगली ।)    (गमेंगा॰28.15)
476    लंगो-तंगो (लंगो-तंगो आउ छितराल आदमी के पूरा-पूरा देखाय पड़े के लड़ाइये तो आज के आदमी के मजबूरी हे ।; तीन-तीन बेटी आउ एक बेटा के पढ़ाय, फेर बियाह । हालत तो अइसहीं लंगो-तंगो रहल ।)    (गमेंगा॰xii.7; 52.12)
477    लउडीस्पीकर (= लाउडस्पीकर, loudspeaker) (टर-टिसनी के बासी पइसा आउ घरवलन के बेहवार ओकरा एगो इस्कूल खोले लेल मजबूर कर देलक । इस्कूल के सइनबोड चढ़ गेल । ... सउँसे शहर में लउडीस्पीकर आउ पुरजा-पुरजी से प्रचार कइलक ।)    (गमेंगा॰38.10)
478    लकधक (आज अन्हरगरे से लाल बाबू मनसूबा बाँधले हथ । बजार से सब सर-समान आइये गेल हे । बड़ी लकधक से तैयारी हो रहल हे ।; टेलिग्राम के ऊ बेर-बेर पढ़ रहलन हल । ओहे छोट कागज पर नरेश बाबू के सउँसे जिनगी के नक्शा अलबन जइसन झलके लगल । प्रसाद साहेब तहिया बुतरुए हलन । शारदा दीदी के बियाह केतना लकधक से होल हल ।; अपन बड़की बेटी कविता के शादी में भी एहे तड़क-भड़क काम देलक हल । आज उनकर दोसरकी बेटी के बात हल । रह-रह के उनका सामने कविता के शादी के बात ताजा हो जा हल । ओकर शादी केतना लकधक से कइलन हल ।; सक्सेना साहेब अपन लड़कन के बियाह बड़ी लकधक आउ धूमधाम से कइलन । उनकर इंजीनियर बेटा के बियाह तो कउनो बड़गो इंजीनियर के बेटी से आउ डॉक्टर बेटा के बियाह कउनो डॉक्टरनी से होल ।)    (गमेंगा॰21.2; 25.6; 41.12; 48.23)
479    लगल (कहानी दरोजा पर के रहे या देवाल पर लगल बड़गो तख्ती के, भीतर के ठहरल हावा के रहे या अंगना में जमकल पानी के - सब में आदमी के छछनल परान आउ हकासल कंठ नजर आवत ।)    (गमेंगा॰ix.1)
480    लगले (~ लहार) (रामसेवक बाबू के गुमान परमान पकड़ रहल हल । बेटा के बियाह के सवाल पर उनकर सब आदर्श ताखा पर चढ़ गेल हल । लगले लहार एगो धनकुबेर आदमी से बरतुहारी के बात बइठ गेल । बेचारा रोजगरिया आदमी पइसा से अन्हराल हल ।)    (गमेंगा॰6.23)
481    लटफरेम (गाड़ी खुले में देर हल । उनका लगल कि बाहर निकलके तनि टहलल जाय । समाने की हल । एगो अटैची । हाथ में अटैची उठइलका आउ लटफरेम पर आ गेला ।; राजो बाबू लटफरेम पर चाय के दोकान में चल गेला ।)    (गमेंगा॰53.25, 27)
482    लदनइ (जइसे-जइसे रिटायर होवे के दिन नजीक आवे लगल, राजो बाबू अपन सर-समान तहियावे लगलन हल । धीरे-धीरे करके सब समान राँची भेज देलका । एक्के बेर ट्रक पर समान लदनइ उनका ठीक नइ लगऽ हल । आस्ते-आस्ते ऊ सब समान ओरियाय देलन हलन ।)    (गमेंगा॰53.18)
483    लमहर (= लम्मा, लमगर; लम्बा) (एकरा देखनइ हे तो अदीप के 'बिखरइत गुलपासा' देखल जा सकऽ हे । 'बिखरइत गुलपासा' मगही कहानी साहित के दुआर पर एगो जोरदार धमाका हल । तब लगे लगल हल कि मगही कहानी खिस्सा के परिभाषा से ऊपर आ गेल हे । फेर तो एगो लमहर डिढ़ारी खिंचा गेल ।; अइसे तो आज भोरहीं से मदन जी चंगलाल हलन लेकिन पछली से उनकर नजर घड़ी पर चल जा हल । चरबज्जी गाड़ी के समय उनका मालूम हे । साइत आज कुछ लेट रहे - अइसन सोचके एगो लमहर साँस खींचइत तनि एन्ने-ओन्ने हिआवे लगऽ हथ ।)    (गमेंगा॰ix.10; 39.3)
484    लहार (लगले ~) (रामसेवक बाबू के गुमान परमान पकड़ रहल हल । बेटा के बियाह के सवाल पर उनकर सब आदर्श ताखा पर चढ़ गेल हल । लगले लहार एगो धनकुबेर आदमी से बरतुहारी के बात बइठ गेल । बेचारा रोजगरिया आदमी पइसा से अन्हराल हल ।)    (गमेंगा॰6.23)
485    लाख-लीख (कैलास लेल कलकत्ता अब अनुभुआर अइसन नइ लगे हे । ओकर पुस्तइनी रोजगार के जड़ तो गामे में हे, लेकिन खरीदार महानगरे में हे । ओकर बढ़ंती देखके तो गाँववला के भी सक-सुभा होवऽ हे । लोग समझऽ हथ कि एतना पइसा जोड़े भर तो कैलास पढ़लो नइ हे । अब लाख-लीख के बात तो ओकर ठोरे पर रहऽ हे ।)    (गमेंगा॰8.4)
486    लाज-लिहाज (प्रसाद साहेब लोकाचारी आउ लाज-लिहाज से लदल नरेश बाबू के सराध में शरीक होवे के दिन-तारीख तलाशे लगला । उनकर दिमाग में नरेश बाबू के जिनगी के समुच्चे इतिहास-भूगोल नाचे लगल ।)    (गमेंगा॰26.6)
487    लाजे-लिहाजे (शादी हो गेल । कविता के विदागरी के समय समधी आउ लड़का के रुख बदल गेल हल । लेकिन लाजे-लिहाजे सब चपोतल रहल । कुछेक दिन बाद कविता के खत में टी॰वी॰ आउ फ्रीज के नक्शा आवे लगल ।)    (गमेंगा॰41.23)
488    लिखनइ (कहानी लिखनइ के ई सफर में भाय बाँकेनन्दन प्रसाद सिन्हा, निदेशक, आकाशवाणी, पटना के नइ भूल सकऽ ही, जे बच्छरो-बच्छर पहिले कमीज के कालर पकड़ हमरा फेर से कहानीकार बनावे खातिर झकझोर के खड़ा कर देलक हल ।)    (गमेंगा॰xiii.17)
489    लिखल ( ई माने में अदीप जी के कहानी संग्रह 'गमला में गाछ' पाठक से सम्वाद स्थापित करइत अपन समय के ढेरकुनी छवि जिंदा कर दे हे, जेकर चेहरा पर लिखल जिनगी के भागम-भाग आउ दुख-दरद के साफ-साफ हरफ में लिखल इतिहास पढ़ल जा सकऽ हे ।)    (गमेंगा॰v.9, 11)
490    लुग्गा-फट्टा (नौकरी की हल, बस भोरउकी से लेके साँझ तक मालिक-मलकीनी के आवाज पर नाचते रहऽ हल । भोरउकी चाय से लेके रात के रसोय तक के भार ओकरे पर हल । फेर लुग्गा-फट्टा सब ओकरे जिम्मे हल । जन्नी के कपड़ा साफ करे में ओकरा शरम लगऽ हल आउ मन तो गरान से भर जा हल ।)    (गमेंगा॰56.7)
491    लुज-लुज (आज जब रिटायर होके ऊ घर जा रहलन हल तब उनका कॉलेज के पहिलका दिन हाजिर हो रहल हे । कमेटी के समय हल । मंत्री रामजी बाबू एकदम्मे गो-महादेव ! केकरो एक बात नइ कहथ, लेकिन उनकर तो अजबे प्रभाव हल । बेचारा बूढ़ा लुज-लुज हो गेलन हे, लेकिन आझो तलुक की नउका आउ की पुरनका - सबके भीतर उनका लेल सरधा हे ।)    (गमेंगा॰53.12)
492    लुहगर (पैसा के पौधा जेत्तक बड़गो होते जा रहल हे, जीवन-संबंध के कोमल लुहगर टूसा ओतने मरुआइल नजर आ रहल हे ।)    (गमेंगा॰x.16)
493    लूक (= लू) (साहेब के कोठी के सब सुख-सुविधा अब महेश के जिनगी के हिस्सा हो गेल हल । जाड़ा तो कउनो सूरत से कट जा हल, मुदा गरमी तो अब बरदासे नइ होवऽ हल । कहाँ साहेब के घर पर के फ्रीज के पानी, पंखा आउ लूक चले वला दिन में भी ठंढगर भित्तर ।)    (गमेंगा॰57.10)
494    लूगा-फट्टा (= लुग्गा-फट्टा) (फूआ ई जानके खुश होल कि राजो जी अब गामे में रहतन । बेचारी तो भाय-भतीजन आउ उनकर सब के घरवली से एकदम तन्नोतराज हो गेली हल । खाय-पीये के तो कउनो ठेकाने नइ हल । लूगा-फट्टा फींचे के बाते छोड़ द ।)    (गमेंगा॰54.22)
495    लेटफारम (= लटफारम, पलेटफारम, प्लैटफॉर्म) (रामसेवक बाबू रेल के डिब्बा में बइठल सोच रहलन हल कि बेटा से सादी-बियाह के बात कइसे शुरू कइल जात ? ... गाड़ी रुकतहीं लेटफारम से निकलके टैक्सी में बइठ गेलन । लड़की के बाप के दिमाग में तो अजबे अंधड़-तूफान चल रहल हल ।)    (गमेंगा॰7.21)
496    लेनइ (आभिजात्य वर्ग में निर्णय लेनइ जतना असान हे, ओतना मध्य आउ निम्न वर्ग में नइ, तभिये तो 'नइका राह के राही' के सक्सेना साहेब बेटा-पुतहु के संस्कार बदले के प्रस्ताव पर अलग जीअइ के कठोर कदम उठा ले हथ ।; बेटा रतन केतनउँ कहलक लेकिन सब बेअसर हो गेल । पुतोह तो अपन काम छोड़के नइ आ सकली, बाल-बुतरुन के देख-भाल में रह गेली । दुन्नू के एक्के समय छुट्टी लेनइ ठीक नइ हे ।)    (गमेंगा॰vii.20; 52.18)
497    लोकाचारी (प्रसाद साहेब लोकाचारी आउ लाज-लिहाज से लदल नरेश बाबू के सराध में शरीक होवे के दिन-तारीख तलाशे लगला । उनकर दिमाग में नरेश बाबू के जिनगी के समुच्चे इतिहास-भूगोल नाचे लगल ।)    (गमेंगा॰26.6)
498    लोग-बाग ( गाँव में लोग-बाग समझावे-बुझावे लगऽ हलन । लेकिन शहर में अइसन मामला घरेलू मामला समझल जाहे । एकरा में दोसर के दखल देना ठीक नइ । अइसन नाजुक बखत में बदरु दुन्नू परानी एगो कोना में दम साधले सटकल लोर गिरावऽ हल ।; आजादी आन्दोलन में मुजफ्फर भाय के जानदार भूमिका हल । विदेशी शासन के खिलाफ दिन-रात बहस-तकरार करते रहऽ हलन । बइठका में आल-गेल लोग-बाग के अंगरेजी शासन के जोर-जुलुम के बात बतावऽ हलन ।)    (गमेंगा॰14.15; 15.12)
499    वजनगर (भोरहीं शारदा दीदी के हाथ पर वजनगर लिफाफा धरइत छोटका भगिना के साथ लेले प्रसाद साहेब घर से विदा होलन । बेचारा भगिना के अंगा पर गाँव के गरदा अपन असर डालले हल ।)    (गमेंगा॰29.18)
500    वाड (= वार्ड) (ओकर घरवली के टोला-टाटी वलन मिलके अस्पताल ले गेलन हल । ... महेश देखलक कि ओकर घरवली बेहोश हे आउ बगल में फोहबा नींद में सूतल हे । फोहबा लड़का अब नइ रहल । महेश वाड से बाहर निकलल आउ जोर-जोर से काने लगल ।)    (गमेंगा॰58.30)
501    विदागरी (शादी हो गेल । कविता के विदागरी के समय समधी आउ लड़का के रुख बदल गेल हल । लेकिन लाजे-लिहाजे सब चपोतल रहल । कुछेक दिन बाद कविता के खत में टी॰वी॰ आउ फ्रीज के नक्शा आवे लगल ।; लड़कावला तो मदन जी के नाज-नखड़ा, तड़क-भड़क से गुमसुम हो गेलन हल । ऊ मनसूबा बाँधले हलन कि बिना माँगले एतना मिलत कि लाम कइसे ? फेर बिना मावगले मिलवे करत तो चिन्हारो होना भी ठीक नइ । लेकिन विदागरी घड़ी सब मनसूबा पर पानी फिर गेल ।)    (गमेंगा॰41.22; 42.4)
502    सँझउकी (बदरु अपन गलिये के साथी-संगी के साथ सियाना होल हल । ओकर अलगे दुनिया हल । सकेरे आउ सँझउकी सभे छान से धूआँ निकलऽ हल लेकिन दरोजा के बाहर गली में गारी-गुपता, उकटा-पउँची तो रोजिना के हिस्सा हल । लेकिन गली के झगड़ा हवेली जइसन थाना-कचहरी नइ जा हल ।; आज ही घरनी के बेर-बेर हिदायत दे रहलन हल - "देखऽ सरितामाय । आज ही के समय हे । पंडी जी के कहल-बदल हे । सँझउकी आ जइतन । सगुन के दिन हे । कुटुम्ब के अइतहीं नास्ता-पानी हो जाय के चाही आउ लगले सरिता के देख लेतन । सब कुछ तनि ठीक-ठाक से होवे के चाही ।"; उनकर घरवली तो दुनिया भर के तर-ताबीज से पोता-पोती के हाथ आउ गियारी भर देलकी हल । एन्ने सक्सेना साहेब पोता-पोती के गियान के बात बतावे में नइ चूकऽ हलन । लेकिन दुन्नू पुतोह उनकर सँझउकी आदत से चिढ़ते रहऽ हली । सोचऽ हली कि ससुर के ताश, शतरंज, साहित, सिकरेट आउ रोजे रात के गिलास वला कहकहा के दौर के असर तो लड़कन पर पड़वे करत ।)    (गमेंगा॰12.12; 39.9; 49.13)
503    संजोगल (सेंगरन के कहानी 'हकासल कंठ' के नरायन बाबू के संजोगल सपना पइसा के घनघोर बरसात में बह जाहे आउ उनकर कंठ हकासल के हकासले रह जाहे । 'संजोगल सपना' के रामसेवक बाबू भी हथ । उनको एगो सपना हल, मतलबी के सपना, जेकरो टुटनइ देखल जा सकऽ हे ।)    (गमेंगा॰vi.8, 10)
504    संतोख (= संतोष) (लाल साहेब अपन कोठी देखके एगो अजीब संतोख के साँस ले हलन । बेटा-बेटी तो विदेशी होइये गेल हल । अपन निशानी के रूप में हल तो खाली ई बड़गर कोठी, जेकरा में रिटायर जिनगी के दिन गिन रहलन हल ।; सामाजिक, राजनीतिक चरचा के गरमा-गरमी बहस तो एगो हिस्सा हो जा हल । तिलक-दहेज से शादी-बियाह के रीति-रिवाज के बात उठऽ हल तब लाल साहेब अपन बुतरून के बियाह पर लेल फैसला से संतोख के साँस ले हलन ।)    (गमेंगा॰18.1, 19)
505    सइनबोड (= साइनबोर्ड, signboard) (टर-टिसनी के बासी पइसा आउ घरवलन के बेहवार ओकरा एगो इस्कूल खोले लेल मजबूर कर देलक । इस्कूल के सइनबोड चढ़ गेल । मोटगर अच्छर में लिखइलक - "शिक्षा का माध्यम अंगरेजी, हम सुनहले भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं । प्रतियोगिताओं में सफलता की गारंटी ।"; जोरदार अंधड़ में राते इस्कूल के सइनबोड जगह-जगह से लटक गेल हल । मोहन इस्कूल के ईमारत पर चढ़के ओकरा ठीक करे लगल ।)    (गमेंगा॰38.7, 25)
506    सकसकी (ढेरो दिन के बाद अइसन भोरहीं आवे के कारन जाने खातिर सक्सेना साहेब उत्सुक हो गेलन । लड़कन के कहे में कउनो सकसकी नइ बुझाल । डॉक्टर कहे लगल - "बाबूजी, तोहर रोज-रोज के बइठकी से अब डर लगे लगल कि कहीं एकर असर लड़कन पर भी ने पड़ जाय ।")    (गमेंगा॰49.24)
507    सक-सुभा (= शक-शुबहा) (कैलास लेल कलकत्ता अब अनुभुआर अइसन नइ लगे हे । ओकर पुस्तइनी रोजगार के जड़ तो गामे में हे, लेकिन खरीदार महानगरे में हे । ओकर बढ़ंती देखके तो गाँववला के भी सक-सुभा होवऽ हे ।)    (गमेंगा॰8.3)
508    सकेरे (= सबेरे) (बदरु अपन गलिये के साथी-संगी के साथ सियाना होल हल । ओकर अलगे दुनिया हल । सकेरे आउ सँझउकी सभे छान से धूआँ निकलऽ हल लेकिन दरोजा के बाहर गली में गारी-गुपता, उकटा-पउँची तो रोजिना के हिस्सा हल । लेकिन गली के झगड़ा हवेली जइसन थाना-कचहरी नइ जा हल ।)    (गमेंगा॰12.12)
509    सटकल (गाँव में लोग-बाग समझावे-बुझावे लगऽ हलन । लेकिन शहर में अइसन मामला घरेलू मामला समझल जाहे । एकरा में दोसर के दखल देना ठीक नइ । अइसन नाजुक बखत में बदरु दुन्नू परानी एगो कोना में दम साधले सटकल लोर गिरावऽ हल ।)    (गमेंगा॰14.15)
510    सथाना (= स्थिर या शांत होना) (मौसमी रचना तो फिलिम के कौवाली के समान बड़ी जोर-शोर के साथ आवऽ हे आउ पछिया नियन साँझ होते-होते सथा जाहे । घटना के भी अजब-अजब मौसम हे ई देश में ।)    (गमेंगा॰xii.22)
511    सधारन (= साधारण) (मदन जी अकबकाय लगला । अपन सब ठाट-बाट के भीतर एगो दरार देखाय पड़े लगल । उनकर घरवली तो हियाँ तक कहे लगली कि कविता सधारने घर में जात हल तो कउन हरज हल । सुखले फुटानी पर ई सब केतना खतरनाक काम होल ।)    (गमेंगा॰41.27)
512    सधुआइन (राजो बाबू लटफरेम पर चाय के दोकान में चल गेला । चाय पीअइत एगो उमरदराज बुढ़िया पर नजर पड़ गेल, सधुआइन हो गेल हल । ओकरा देखते उनका अपन फूआ के याद आ गेल । बेचारी बियाह के तुरते बाद मसोमात हो गेल हल ।)    (गमेंगा॰53.29)
513    सब्बड़ (~ सच) (ई एकदम सब्बड़ सच हे कि दहशत भरल आदमी के अइसन जंगल में राम के साथ लक्ष्मण (रामचन्द्र अदीप - लक्ष्मण प्रसाद चन्द) नइ छोड़ रहल हे आउ ई भी सच हे कि जंगल के खुंखार जानवर के जबड़ा आउ पंजा हमरा से जादे ओहे पछाने हे ।)    (गमेंगा॰xiii.23)
514    समदना (महेश कत्तेक दिन से छुट्टी माँग रहल हल, मुदा ई साले-गिरह के चलते नइ मिलल । ओकर घरवली के गोड़ भारी हल । महेश देर-सबेर लेल पास-पड़ोस के समद देलक हल । ढेर रात के बाद जब जशन खतम होल तब महेश हाँहें-फाँफे घर दने धउग गेल ।)    (गमेंगा॰58.20)
515    समांग (नरायन बाबू दुन्नू परानी ऊ बड़गो कोठी में एकदमे हेरा गेलन हल । घरवली के सेहत आउरो खराब रहे लगल हल आउ अब तो नरायन बाबू के समांग भी नइ हल कि अपन घरवली के सेवा-टहल करथ ।)    (गमेंगा॰3.1)
516    समुच्चे (भला, एगो बेटी निबाहना कौन मोसकिल होत ? लाल बाबू अपन बेटन के सामने ऊँचगरे भाव भरऽ हलन । लेकिन लड़कन तो अपने के समुच्चे शहर में छितरा देलक हल, पढ़े में समेटे तब ने !; प्रसाद साहेब लोकाचारी आउ लाज-लिहाज से लदल नरेश बाबू के सराध में शरीक होवे के दिन-तारीख तलाशे लगला । उनकर दिमाग में नरेश बाबू के जिनगी के समुच्चे इतिहास-भूगोल नाचे लगल ।; कहानी-कविता आउ गीतो-गजल लिखे लगलन । चार गो बड़ा आदमी से जान-पछान हइये हल । समुच्चे शहर में जहाँ कहीं सभा-गोष्ठी होवे तब उनका नेउता जरूर पड़ऽ हल ।)    (गमेंगा॰22.27; 26.8; 40.21)
517    समुन्नर (दशहरा-पूजा के अवसर पर उनकर दुन्नू लड़कन पहाड़ आउ समुन्नर के जतरा पर निकललन हल । सक्सेना साहेब अइसने अवसर के तलाश में हलन । ऊ ग्राहक बोलाके अपन कोठी के बेच देलन आउ लगले एगो कम कीमतवला छोटगर मकान कीन लेलन ।)    (गमेंगा॰50.13)
518    समेटल (जब आदमी समाज से बिखर के अपन छाती पर हाथ रखे लगल तब ओकरा अइसन बुझाल कि ऊ भीतर से मसुआइल हे, खुंडी-खुंडी हे आउ कतरल हे कत्तेक जगह से । आदमी के समेटल आदमीयत के देवाल दरकल हे, धोखड़ल हे ।)    (गमेंगा॰viii.25)
519    सरजाम (दरोजा पर कुरसी लगल हे लेकिन बइठे के मन नइ । एक गोड़ भीतर आउ एक बाहर करले हथ । चउन-भउन हो रहलन हल । बीच-बीच में घर के भीतर तलुक हो आवऽ हथ । सब सरजाम देखके उनका एगो अजबे संतोख होवऽ हल ।)    (गमेंगा॰39.7)
520    सर-समान (जहाँ भी नौकरी पर रहऽ हलन, ऊ कोठी के नाज-नक्सा के सरोसमान पठइते रहऽ हलन । ई सुनसान दिन के बातो नइ सोचलन हल । लेकिन ई कोठी के भाग अइसन हल कि एकरा ठीकेदार आउ इंजीनियर के देख-रेख में बनवावल गेल आउ रहे के समय में एकल्ले लाल साहेब रहलन ।; आज अन्हरगरे से लाल बाबू मनसूबा बाँधले हथ । बजार से सब सर-समान आइये गेल हे । बड़ी लकधक से तैयारी हो रहल हे ।; जइसे-जइसे रिटायर होवे के दिन नजीक आवे लगल, राजो बाबू अपन सर-समान तहियावे लगलन हल । धीरे-धीरे करके सब समान राँची भेज देलका ।; राजो बाबू तो सोचवो नइ कइलका हल कि गाम में रहे लेल आउ सर-समान के जरूरत पड़त ।)    (गमेंगा॰19.8; 21.2; 53.17; 54.18)
521    सर-सिनेमा (बक्सा में घी, सत्तू आउ भुंजा के साथ ढेरोढेर हिदायद देल गेल हल । शहरी खूबी-खराबी के जेतना ढंग से कहल जा सकऽ हल, मोहन से कहल गेल । शहर के चमक-दमक आउ सर-सिनेमा के रोग के बात बतावल गेल । जाय घड़ी बलदेव आउ किसोरी के इमारत के हवाला भी देल गेल ।)    (गमेंगा॰37.4)
522    सराध (= श्राद्ध) ( प्रसाद साहेब लोकाचारी आउ लाज-लिहाज से लदल नरेश बाबू के सराध में शरीक होवे के दिन-तारीख तलाशे लगला । उनकर दिमाग में नरेश बाबू के जिनगी के समुच्चे इतिहास-भूगोल नाचे लगल ।; बंबई के बान्द्रा से बिहारशरीफ के नक्शा नजर तर नाचे लगल । हवाई जहाज से पटना उतरइत प्रसाद साहेब पहिले सराध में शरीक होवइ के बात सोचलन । लेकिन लड़कन के जिद के सामने उनकर एक्को नइ चलल आउ बिहारशरीफ में एक दिन टिकके पावापुरी, नालन्दा आउ राजगीर देखे के बात तय हो गेल ।; कविता के ससुरार गेला महिना भर बीतल हल कि अइसन ने खबर आल कि सउँसे घर के देवाल हिले लगल । गैस-चूल्हा के धोखाधड़ी से कविता गुजर गेली हल आउ सराध के चिट्ठी मदन जी के हाथ में आल ।)    (गमेंगा॰26.7; 27.9; 42.15)
523    सरेजाम (दे॰ सरजाम) (सरितामाय उत्साह के साथ 'हाँ' में 'हाँ' कर दे हथ । लड़की आज देख लेल जात । मदन जी लड़का के माय-बाप आउ नाता-गोता से साफ-साफ बात कर लेलन हे । उनका सब के साथ आवे ले एगो अपनो आदमी लगा देलन हे । समय आउ सरेजाम सब पर उनकर नजर दौड़ रहल हे ।; आज फेर मदन जी के आँख तर कविता बेटी के मुठान घूम जाहे । ओकर शादी के एक-एक सरेजाम झकझका रहल हे ।)    (गमेंगा॰40.4; 42.17)
524    सवाद (= स्वाद) (बोले के तो सक्सेना साहेब बोल गेला । लेकिन अब सक्सेना साहेब तेजी से मिंझाय लगला । ऊ अब मनेमन कउनो गंभीर फैसला के तैयारी में लग गेलन । ऊ अपन घरोवली के समझा देलन कि उपयोगितावादी युगके फल के सवाद अइसने कसैला होवऽ हे ।)    (गमेंगा॰50.9)
525    सहियारना (घर के बुतरू सब तो पढ़े के नाम पर इस्कूल में जात । अइसे तो हरदम बगइचा में धउगा-धउगी करते रहऽ हे । गाम के इस्कूलो की हे । रउद आउ बून-बरसात सहियारे में छप्पर कहियो साथ नइ देलक ।; होटल के बेयरा ठंढा-गरम परस रहल हल । देर में साहेब आउ मेम साहेब के हिगराल मेहमान गोठना गेलन आउ उनकर अवाज लड़खड़ाय लगल । उनका सहियारना भी एगो अजबे काम हल । भीड़ में कखनो-कखनो मेम साहेब आउ साहेब भी देखाय पड़ जा हलन ।)    (गमेंगा॰36.9; 58.14)
526    सहिये साँझ (= दिन दहाड़े) (सहिये साँझ तो मुनेसरा के मार देलक से आझ तलुक कुछ पता नइ भेल । अब गाँव के जिनगी भी भारी हो गेल हे । राजो जी तनी चउँक गेला आउ फेर सब कुछ फारे-फार पूछे लगला ।)    (गमेंगा॰54.30)
527    सहेजल (कोठी के बेचा-बेची के एतना ने खत-किताब आवे लगल कि लाल साहेब के बोलतिए बंद हो गेल । ... लाल साहेब एक-एक समान अपन मन-मिजाज आउ सवाद से जमा कइलन हल । ऊ मुरुत बनल देख रहलन हल कि उनकर सहेजल सपना बिक रहल हे ।)    (गमेंगा॰20.19)
528    साँप-बिच्छा (बँटवारा के बात बदरु मियाँ ले साँप-बिच्छा के जहर जइसन बदहोश करेवाला माने रखऽ हल ।)    (गमेंगा॰11.1)
529    साइत (= शायद) (अइसे तो आज भोरहीं से मदन जी चंगलाल हलन लेकिन पछली से उनकर नजर घड़ी पर चल जा हल । चरबज्जी गाड़ी के समय उनका मालूम हे । साइत आज कुछ लेट रहे - अइसन सोचके एगो लमहर साँस खींचइत तनि एन्ने-ओन्ने हिआवे लगऽ हथ ।)    (गमेंगा॰39.3)
530    साथे (ढेर रात गेला तक कैलास ओइसहीं छो-पाँच करते रहल । आखिर अपन गाँववला नौकर के बोलइलक आउ टेबुल साफ करे ले कहलक । रमकिसना हैरत में पड़ गेल । आज बच्छरो-बच्छर बाद ओकरा साथे सोफा पर बइठल । कैलास खा-पीके उठल आउ अपन घरवली से कहलक - "कल घर चले के हे ।"; जब अउरो बुतरून साथे खेलते-धुपते ऊ चल जा हल तब देखऽ हल कि हवेली के मालिक अपन लड़कन पर केतना बिगड़ऽ हलन ओकरा साथ खेलते देखके । बराहिल तो बदरुआ अइसन लड़कन के फाटके पर से खदेड़ दे हल ।)    (गमेंगा॰10.29; 11.4)
531    सादा-सादी (रामसेवक बाबू अपन बेटी के बियाह एकदमें सादा-सादी ढंग से निबाह देलन । ताम-झाम आउ माँगा-माँगी के नाम पर मास्र साहेब के मुँहे नइ खुलल ।)    (गमेंगा॰5.28)
532    साफगोई (= सच्ची बात कह देना, लगी-लिपटी न रखना, दो टूक बात करना) (ई कहानी सेंगरन में आज के जुग-जमाना में परिवार से समाज के बीच आपसी रिश्ता आउ संबंध में जे बदलाव आउ बिखराव हमर आँख के सामने झलक रहल हे, ओकर चित्र साफगोई के साथ उभारे के जे सजग कोसिस कइल गेल हे, ऊ दिल आउ दिमाग के झकझोर देहे ।)    (गमेंगा॰iv.8)
533    साबका (= साबिका; वास्ता, सरोकार, पाला; काम (पड़ना, होना)) (मशीन जइसन काम करे में ओकरा जेत्तेक दिक्कत होवे, लेकिन बड़गो आदमी के साथ रहे से सुख-सुविधा भी मिलवे करऽ हल । जाड़ा में हाथ सेंके के हीटर, खाना बनावे के गैस-चुल्हा आउ कपड़ा साफ करेवली मशीन से ओकरा रोज साबका पड़ऽ हल । मालिक-मलकीनी के बाहर रहला पर महेश नहाय से लेके सोफा पर बइठे के भी अनुभव करऽ हल ।)    (गमेंगा॰56.14)
534    सास-ससुर (लड़की अंगरेजी इस्कूल के पढ़ल हल । गाँव के घर में ऊ दू-चारे दिन में कुम्हलाय लगल । गोतनी आउ लड़कन से भर मुँह बोलियो नइ सकल आउ सास-ससुर से मुलकात तो गोड़-लगाइये तक रहल । मोहन अपन माय-बाप, भाय-भोजाय के कुरबानी के बात घरवली से कहते-कहते थक गेल हल, लेकिन बेअसर रहल ।)    (गमेंगा॰37.15)
535    साहित (= साहित्य) (एकरा देखनइ हे तो अदीप के 'बिखरइत गुलपासा' देखल जा सकऽ हे । 'बिखरइत गुलपासा' मगही कहानी साहित के दुआर पर एगो जोरदार धमाका हल । तब लगे लगल हल कि मगही कहानी खिस्सा के परिभाषा से ऊपर आ गेल हे । फेर तो एगो लमहर डिढ़ारी खिंचा गेल ।; उनकर घरवली तो दुनिया भर के तर-ताबीज से पोता-पोती के हाथ आउ गियारी भर देलकी हल । एन्ने सक्सेना साहेब पोता-पोती के गियान के बात बतावे में नइ चूकऽ हलन । लेकिन दुन्नू पुतोह उनकर सँझउकी आदत से चिढ़ते रहऽ हली । सोचऽ हली कि ससुर के ताश, शतरंज, साहित, सिकरेट आउ रोजे रात के गिलास वला कहकहा के दौर के असर तो लड़कन पर पड़वे करत ।)    (गमेंगा॰ix.7; 49.14)
536    सिंगार-पटार (होटल के बेयरा ठंढा-गरम परस रहल हल । देर में साहेब आउ मेम साहेब के हिगराल मेहमान गोठना गेलन आउ उनकर अवाज लड़खड़ाय लगल । उनका सहियारना भी एगो अजबे काम हल । भीड़ में कखनो-कखनो मेम साहेब आउ साहेब भी देखाय पड़ जा हलन । मेम साहेब तो दिन भर सिंगारे-पटार में लगल हली ।)    (गमेंगा॰58.16)
537    सिकरेट (उनकर घरवली तो दुनिया भर के तर-ताबीज से पोता-पोती के हाथ आउ गियारी भर देलकी हल । एन्ने सक्सेना साहेब पोता-पोती के गियान के बात बतावे में नइ चूकऽ हलन । लेकिन दुन्नू पुतोह उनकर सँझउकी आदत से चिढ़ते रहऽ हली । सोचऽ हली कि ससुर के ताश, शतरंज, साहित, सिकरेट आउ रोजे रात के गिलास वला कहकहा के दौर के असर तो लड़कन पर पड़वे करत ।; बेचारा बूढ़ा लुज-लुज हो गेलन हे, लेकिन आझो तलुक की नउका आउ की पुरनका - सबके भीतर उनका लेल सरधा हे । की मजाल कि आज भी उनका सामने कोय सिकरेट पी ले । कॉलेज तो उनकर पुन्न-परताप के फल हे ।)    (गमेंगा॰49.15; 53.14)
538    सिमाना (दरद आउ टीस जे गाँव में हे ऊ शहरो में हे । गाँव के सिमाना में शहर सेंध मार रहल हे, तो शहर के बेलस माटी पर गाँव के गोड़ भी धरा रहल हे । एकरा एक तरह से संक्रान्ति कहल जा सकऽ हे । एकर पछान के जरूरत हे । आदमी अपनो शहर में हेरा जाहे ।)    (गमेंगा॰ix.23)
539    सिरजन (= सृजन) (कहानी तो कहानी हे, ई जलमउती हे आउ सिरजनहार के हाथ खाली सिरजन होवऽ हे, ऊ आम आउ खास दुन्नू बनावऽ हे । सिरजन तो आज भी सब ठइयाँ समान रूप से समान ढंग से हो रहल हे । दरद आउ टीस जे गाँव में हे ऊ शहरो में हे ।)    (गमेंगा॰ix.19, 21)
540    सिरजनहार (कहानी तो कहानी हे, ई जलमउती हे आउ सिरजनहार के हाथ खाली सिरजन होवऽ हे, ऊ आम आउ खास दुन्नू बनावऽ हे ।)    (गमेंगा॰ix.19)
541    सिलाय (= सिलाई) ( कॉलेज जाय घड़ी डोमन दरजी के दोकान पर चनेसर मोहन के साथे गेल हल आउ चेता-चेता के कहलक हल कि कपड़ा के सिलाय में देहातीपन के नामोनिशान नइ रहे के चाही । मोहन के दुन्नू भोजाय ओकरा ले चुन-चुन के कपड़ा किनलन हल ।)    (गमेंगा॰36.24)
542    सुन्नर (= सुन्दर) (लड़कन के डॉक्टर आउ इंजीनियर होते-होते बर-बरतुहारी के भीड़ जूमे लगल । उनकर घरवली तो कउनो नेउता-पेहानी में जा हली तो सुन्नर लड़की आउ निमन परिवार के छानबीन करते रहऽ हली ।)    (गमेंगा॰48.13)
543    सुस्ताना (मुज्जू भाय खानदानी कब्रिस्तान दने रोजे टहले जा हलन । पुरखन के मजार देर तलुक हिअइते रहऽ हलन । फिनु इमामबाड़ा के चबूतरा पर सुस्ताय लगऽ हलन ।; उनकर एहे ताजगी के चलते दोसर-दोसर शहर में नौकरी करे वलन साथी-संगी जब आवऽ हथ तो उनके तर सुस्ताय में सुविधा महसूस करऽ हथ ।)    (गमेंगा॰17.20; 33.19)
544    सेंगरन (= संग्रह) (ई कहानी सेंगरन में आज के जुग-जमाना में परिवार से समाज के बीच आपसी रिश्ता आउ संबंध में जे बदलाव आउ बिखराव हमर आँख के सामने झलक रहल हे, ओकर चित्र साफगोई के साथ उभारे के जे सजग कोसिस कइल गेल हे, ऊ दिल आउ दिमाग के झकझोर देहे ।; ई सेंगरन एगो अइसन कथा-यात्रा में पाठक के साथे-साथ लेले चलऽ हे, जेकरा से गुजरइत ऊ अपन समय के त्रासदी से रूबरू होवऽ हे ।; सेंगरन के कहानी 'हकासल कंठ' के नरायन बाबू के संजोगल सपना पइसा के घनघोर बरसात में बह जाहे आउ उनकर कंठ हकासल के हकासले रह जाहे ।; कुल मिलाके 'गमला में गाछ' कहानी सेंगरन, मध्य, उच्च, कस्बाई आउ महानगरीय जीवन के प्रामाणिक दस्तावेजी एलबम बन गेल हे, जेहमा समाज के छवि साफ-साफ देखल-परखल जा सकऽ हे ।)    (गमेंगा॰iv.5; v.11; vi.7; vii.26)
545    सो (= सौ) (कॉलेज से रिटायर करे के मतलब थोड़े हे कि काम के गियान कम जाहे ! तोहरे साथ बाल-बुतरुन भी बन्हल-छेकाल रहत । उकी, एगो मास्टर कइलियो हे तो अढ़ाय सो रुपइया महिना लेवो करऽ हको आउ महीना में एक अठवारा नदारत ।)    (गमेंगा॰51.6)
546    सोझियाना (बदरु अपन घरे दने के धूप-छाँह में होश सम्हारलक । तनि बड़गो होला पर बाप ओकर माथा पर तरकारी के डलिया धर देलक । फेर की, ऊ तरकारी के नाम लेते-लेते फाटक आउ हवेली दने सोझिया जा हल । अब कउनो रोक-टोक नइ रह गेल हल । फाटक आउ हवेली के चस्का में बदरु हरदम ओन्नय सोझिया जाय ।)    (गमेंगा॰11.10; 12.2)
547    सोना-चानी (भाय लोग के जबरदस्ती विदा होवे घड़ी पुस्तइनी जायदाद औने-पौने में बेचके सोना-चानी, रुपया-पइसा दे दे के विदा कइलन हल ।)    (गमेंगा॰17.4)
548    सोभाव (रामसेवक बाबू के सोभाव से लोगबाग परिचित हथ । जब कउनो उहापोह के समय आवे हे तब ऊ कूआँ के निरार पर बइठ के ओकर ठहरल पानी के देर-देर तक हिअइते रहऽ हथ ।)    (गमेंगा॰4.1)
549    सोहनगर (गाँव गिर रहल हे, जेकर ढेला-ढक्कर पर नइका पौधा पाँख फैला रहल हे । ऊ पाँख चाहे जेतना सोहनगर लगे, लेकिन ओकरा सहारा देवे लेल जे बेयार सामने आ रहल हे ओकरा से पौधा के फल-फूल आउ हरियरी पर जानलेवा हमला मानल जाय ।)    (गमेंगा॰viii.7)
550    हकासल (सेंगरन के कहानी 'हकासल कंठ' के नरायन बाबू के संजोगल सपना पइसा के घनघोर बरसात में बह जाहे आउ उनकर कंठ हकासल के हकासले रह जाहे ।; कहानी दरोजा पर के रहे या देवाल पर लगल बड़गो तख्ती के, भीतर के ठहरल हावा के रहे या अंगना में जमकल पानी के - सब में आदमी के छछनल परान आउ हकासल कंठ नजर आवत ।)    (गमेंगा॰vi.7, 9, 10; ix.4)
551    हपसना (दीदी तो नालन्दा के मूरुत जइसन टुट्टल-फुट्टल गुमसुम हली । गोरनार देह पर उज्जर-उज्जर कपड़ा साटले हली । सउँसे घर में रोवा-कन्नी होवे लगली । दीदी के तो कानलो नइ जा हल । खाली हपस-हपस के लोर पोछऽ हली ।)    (गमेंगा॰28.16)
552    हरजा (= हरज, हर्ज) (पड़ोसिया गोतिया अइसनो समय में चुप नइ रहल । शारदा के तो अपन शहरी हाल मालूम हल लेकिन लग रहल हल कि तनि नोह-नखुरी करिये लेत हल तो कौन हरजा हल । आखिर ई गाँव हे ।)    (गमेंगा॰29.2)
553    हरियर (नरायन बाबू कुरसी पर बइठल मरीज के हल्ला-गुल्ला सुन रहलन हल । उनकर आँख पर हरियर पट्टी बँधल हे । हालहीं में मोतियाबिंद के आपरेशन होल हल ।)    (गमेंगा॰1.4)
554    हवन-हुमाद (नवका संगीत के सामने पूजा के शंख के आवाज दबे लगल । हवन-हुमाद के सुगंध तो इतर के फुचकारी के सामने गंधहीन होइये रहल हल ।)    (गमेंगा॰31.21)
555    हाँहें-फाँफे (महेश कत्तेक दिन से छुट्टी माँग रहल हल, मुदा ई साले-गिरह के चलते नइ मिलल । ओकर घरवली के गोड़ भारी हल । महेश देर-सबेर लेल पास-पड़ोस के समद देलक हल । ढेर रात के बाद जब जशन खतम होल तब महेश हाँहें-फाँफे घर दने धउग गेल ।)    (गमेंगा॰58.21)
556    हाकिम-हुकुम (शारदा दीदी, मेहमान नरेश बाबू आउ उनकर बाबूजी मोखतार साहेब - तहियो एहे छोट-मोट परिवार हल । मोखतार साहेब के खुब्बे चलती हल । हाकिम-हुकुम आउ नामी-गिरामी लोग-बाग से बइठका रजगजाल रहऽ हल । रात-रात भर चौपाल ।)    (गमेंगा॰26.10)
557    हाथ-गोड़ (~ चलाना) (मोहन लेल ससुरार बसिया रहल हल । घरवली भी भर मुँह बोले में हिचके लगली । मोहन हिन्दी माध्यम के हल तो घरवली अंगरेजी माध्यम के । नौकरी लेल मोहन हाथ-गोड़ चला-चला के अब थक रहल हल । ऊ अब अपन जिनगी के जुगाड़ लेल टिसनी के बात सोचे लगल ।)    (गमेंगा॰37.31)
558    हारल (कथानक, चरित, संवेदना, समय आउ विचार के साथे-साथ समाजगत दबाव से कहानी के कत्तेक जगह संघर्ष के सामना करे पड़ऽ हे । ई संघर्ष कहानी के सच हे । अगर कहानीकार अधिनायक होके एकरा बान्हा-बान्ही करे लगऽ हे तब कहानी के हार हो जाहे आउ हारल कहानी के कहानीकार जीत के झंडा नइ फहरा सकऽ हे ।)    (गमेंगा॰xi.2)
559    हावा (= हवा) (कहानी दरोजा पर के रहे या देवाल पर लगल बड़गो तख्ती के, भीतर के ठहरल हावा के रहे या अंगना में जमकल पानी के - सब में आदमी के छछनल परान आउ हकासल कंठ नजर आवत ।)    (गमेंगा॰ix.2)
560    हिंछा (= इच्छा) (सक्सेना साहेब अपन लड़कन के बियाह बड़ी लकधक आउ धूमधाम से कइलन । उनकर इंजीनियर बेटा के बियाह तो कउनो बड़गो इंजीनियर के बेटी से आउ डॉक्टर बेटा के बियाह कउनो डॉक्टरनी से होल । पुतहुन के सुन्नरता तो देखते बनऽ हल । भला, ऊ हलन भी तो नामी-गिरामी परिवार के । सक्सेना साहेब के घरवली तो एहे हिंछा लेके दिन-रात देवी-देवता के गोहारते रहऽ हली ।)    (गमेंगा॰48.27)
561    हिआना (रामसेवक बाबू के सोभाव से लोगबाग परिचित हथ । जब कउनो उहापोह के समय आवे हे तब ऊ कूआँ के निरार पर बइठ के ओकर ठहरल पानी के देर-देर तक हिअइते रहऽ हथ ।)    (गमेंगा॰4.3)
562    हिकमत (भाय लोग अइतहीं एगो फैसला कइलक । एक-एक पखवारा दोकान अपन-अपन हिकमत से चलावल जाय । नफा-नोकसान के भागी चलावेवला होत ।)    (गमेंगा॰14.18)
563    हिगराना (= पृथक् करना) (अइसन में जे कहल जात ओकरा आम आउ खास में हिगराके देखनइ की संभव हे ?; अदीप के कहानी अइसने सिरजन हे, जे आम आउ खास के हिगरावऽ हे नइ, बलुक आदमी के आदमी मानके ओकर भीतर के नजरा रहल हे ।)    (गमेंगा॰x.22, 28)
564    हिगराल (शहर तो गाँव से जादे हिगराल नजर आल । बड़ी सोच-विचार के बदरु दायरा महल्ला में इमामवाड़ा के बगले में दोकान खोललक आउ चाह-नास्ता के काम शुरू कइलक ।; गते-गते गमलक कि मोहल्ला भी हिगराले हे । जउरे ईद-बकरीद आउ अफतारी करे वला हाजी के ऊ दुरिए से देख सकऽ हल ।; राजो जी जइसे-जइसे गाँव के गली-गली से भीतर तलुक गेला ओइसे-ओइसे उनका लगे लगल कि गाँव से खेत-खन्हा तक दरकल हे, हिगरे-हिगर हिगराल हे ।)    (गमेंगा॰13.15, 20; 55.6)
565    हित-कुटुम्ब (कैलास अपन गाँव के इयार-दोस लेल जान बिछइले रहऽ हल । बर-बीमारी में तो हाथ खोल दे हल । तर-तेहवार खूब जोश-खरोश से मना के समूचे गाँव के चौंधिया दे हल । इयार-मीत, हित-कुटुम्ब से दलान भरल रहऽ हल आउ चुल्हा कखनऊँ ठंढइवे नइ करऽ हल ।)    (गमेंगा॰8.22)
566    हिदायद (= हिदायत) (तहिया साहेब के शादी के सालगिरह हल । कोठी तो देवाली जइसन सजवल गेल हल । खान-पियन के तैयारी खातिर कउनो बड़गो होटल से आदमी आल हल । बेर-बेर महेश के किसिम-किसिम के हिदायद देवल जा रहल हल ।)    (गमेंगा॰58.3)
567    हियँउका (शादी-बियाह के साथे बेटा-बेटी विदेश के नागरिक हो गेल हल । लड़कन लेल अपन जलमउती देश के माने बाबूजी के बचल जिनगी के कुच्छेक दिन भर रह गेल हल । अखबार आउ टी॰वी॰ से हियँउका  समाचार तो मिलते रहऽ हल आउ लाल साहेब अपन समाचार चिट्ठी-पतरी से पढ़इते रहऽ हलन ।)    (गमेंगा॰19.2)
568    हियाँ (शादी-बियाह के साथे बेटा-बेटी विदेश के नागरिक हो गेल हल । लड़कन लेल अपन जलमउती देश के माने बाबूजी के बचल जिनगी के कुच्छेक दिन भर रह गेल हल । अखबार आउ टी॰वी॰ से हियँउका  समाचार तो मिलते रहऽ हल आउ लाल साहेब अपन समाचार चिट्ठी-पतरी से पढ़इते रहऽ हलन । लाल साहेब यार-दोस्त आउ लड़कन हियाँ चिट्ठी लिखे में अपन समय गुजार रहलन हल ।; अपन पहुँच आउ पैरवी के रुतवा देखाके शादी एकदम बड़गो आदमी हियाँ कइलन हल । उनकर ससुरार वला भी समझे लगलन कि अइसे तो मदन जी जे रहथ लेकिन कामधाम में एकदम्मे हीरा हथ ।; उनका मालुम हो गेल कि गाँव ऊ गाँव नइ रहल । हियाँ भी दिनादिनी लूट-पाट, मार-पीट आउ अपहरण हो रहल हे । फसिल जब घर आ जाय तब समझऽ कि तोहर ।)    (गमेंगा॰19.4; 41.15; 55.2)
569    हियाना (कैलास जब रोजगार हियावऽ हल तो मन असमान में खिल जा हल आउ जब परिवार पर नजर पड़ऽ हल त माथा झुकिए जा हल ।; देश तो आजाद हो गेल लेकिन उनकर अपने घर फेर तेजी से गुलाम होवे ले तोड़-फोड़ मचावे लगल । भाय लोग अपन निमन खुशहाली लेल पूरब-पछिम हियावे लगलन ।)    (गमेंगा॰10.4; 15.19)
570    हिला-हुज्जत (आखिर हिला-हुज्जत करते-करते राजो बाबू अपन गाँव के रस्ता धरिये लेलन । डॉक्टर बेटा केतना समझइलक कि चलऽ तों हमरे साथ सरकारी कोआटर में रहिहऽ । बाल-बुतरुन के साथ तोहर मन बहलते रहतो ।)    (गमेंगा॰51.1)
571    हिस्सा-बखरा (बदरु सोचऽ हल कि गाँव में साग-भाजी से ऊ सउँसे घर के जोड़ले हल लेकिन नगर के नोट तो ओकर बेटन के बेगरा रहल हे । पुतहुन के आपसी गर-गलबात के सवाले नइ हल । हिस्सा-बखरा तक आके बात रुकऽ हल ।; आखिर उनकर बोल फूटल - "तो हम्मर हिस्सा-बखरा नइ हइ की ? एतना जगह-जमीन खरीदल गेल, ओकरा में भी तो हम्मर हिस्सा हइये ने हे ।")    (गमेंगा॰14.8; 55.13)
572    हुलकी (~ मारना) (लाल साहेब अपन समय के बात सोचऽ हलन । अपन यार-दोस्त आउ नाता-गोता के दुख-सुख में केतना अपनउती देखावऽ हलन । कमजोर के ऊ खुब्बे सहयोग दे हलन । उनका लगे लगल हल कि आर्थिक अंधड़ खाली विदेशी बात नइ रह गेल हे । नाता-गोता से मिलल अनुभव साथे हे । अब तो ऊ सब हुलकीयो नइ मारऽ हथ, कहीं तो भीड़े लगल रहऽ हल ।)    (गमेंगा॰19.24)
573    हेराना (= अ॰क्रि॰ खोना, खो जाना; स॰क्रि॰ खोना; खो देना) (दरद आउ टीस जे गाँव में हे ऊ शहरो में हे । गाँव के सिमाना में शहर सेंध मार रहल हे, तो शहर के बेलस माटी पर गाँव के गोड़ भी धरा रहल हे । एकरा एक तरह से संक्रान्ति कहल जा सकऽ हे । एकर पछान के जरूरत हे । आदमी अपनो शहर में हेरा जाहे ।)    (गमेंगा॰ix.27)
574    हेलना (= घुसना) (कोय-कोय तो कह रहल हल कि अपनो फूफा के मरला पर भी नोह-नखुरी नइ करइलक हे । एतने में प्रसाद साहेब अइलन । भंडार में उनका हेले से मना कर देल गेल, काहे कि उनको नोह-नखुरी नइ होल हल । भोज के पंघत बइठते-बइठते तो सउँसे गाँव में चरचा होल कि बम्बेवली के भाय-भतीजा अइसन कि अपनो अदमी के कजा करला पर नोह-नखुरी नइ कइलक, छुत्तक नइ लेलक ... काहे नइ लेलक !; घर जायवला टीसन पर उतरके बजार में हेलला कि उनका गाँव के आदमी मिले लगल । हाल-चाल आउ पूछताछ में ऊ सबसे कहथ कि अब हम गामे में रहम ।)    (गमेंगा॰28.28; 54.3)
575    होनइ ('बिखरइत गुलपासा' से 'गमला में गाछ' तक के जतरा में अदीप के कहानी एक नया तेवर लेके आल । कहानी खाली आम आदमी के हिस्सा बनके रह जाय, एकरा से आम जीवन के संवेदना जरूर सहलावल जात । लेकिन अइसन कहनइ आउ होनइ में कउनो न कउनो लीक के धमक आवे हे ।)    (गमेंगा॰ix.17)
576    हो-हुड़दंग (बाहर पढ़े-लिखे वलन लड़का-लड़की के लिवास, बातचीत, हो-हुड़दंग आउ छेड़ा-छाड़ी तो फाटक आउ हवेली के उपरकी रोबदाब के मोलायम अनुवाद लगऽ हल । बदरु अपन गाँव के ई नक्शा तो सोचियो नइ सकऽ हल ।)    (गमेंगा॰12.6)
 

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