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Sunday, March 08, 2009

4. तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते

तुम्हीं सो गए दास्ताँ कहते-कहते

[डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री (1923-1973) सम्बन्धित संस्मरण ]

लेखक - तारकेश्वर भारती (30 सितम्बर 1925 - 1996 (?))

हम 'मगही' में न 'नैनाकाजर' कहानी लिखतूँ हल न डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री जी से हम्मर जान-पहचान होत हल । बात ई हल कि शास्त्री जी के दउड़-धूप कैला से एकंगरसराय में एगो मगही सम्मेलन (6 जनवरी 1957) बोलावल गेल । डॉ॰ शिवनन्दन प्रसाद हम्मर लँगोटिया इयार हथ । ऊ शास्त्री जी से हमरा बारे में का बतिऔलन कि मगही सम्मेलन में सामिल होबे ला हमरो नेवता मिलल । गया से एकंगर पहुँचलूँ । शास्त्री जी हमरा करेजा से लगा लेलन । डॉ॰ संपत्ति अर्याणी उहँई खड़ा हलन । ऊ शास्त्री जी से पुछलन कि ई के हथ ? जवाब मिलल - 'मगही' में 'नैनाकाजर' कहानी अपने पढ़ली हे न ? ऊ कहानी के लेखक भारती जी ईहे हथ । ऊ कहानी पढ़े से बिसवास होबे हे कि मगही में भी समर्थ कहानी सफलता के साथ लिखल जा सके हे । हम झेप गेलूँ । अदना लेखक के ऐसन तारीफ शास्त्री जी के स्नेह कहल जा सके हे आउ का ? बाद में ऊ हम्मर परिचय कत्ते विद्वान से करैलन आउर परिचय के माध्यम हल वही 'नैनाकाजर' उहाँ हम देखलूँ कि ऊ सम्मेलन के कर्ता, धर्ता, विधाता शास्त्रीए जी हथ । शास्त्री जी सगरो नाचल चलथ । छोट-छोट बात के धेयान रखथ । उहाँ मगही भायचारा के गंगा बहा देलन शास्त्री जी । एतना उमंग, एतना लगन, एतना खेयाल - बात अप्पन बेटा-बेटी के बिआह में भी साइते कोय रखे हे । खाय-पीये में, मिले-जुले में, बैठे-उठे में भी उहाँ मगहिए बोलल जा हल । ऐसन बुझा हल कि हिन्दी के बनवास दे देल गेल हे ।

हम्मर कार्यक्षेत्र गया रहल, लेकिन शास्त्री जी के तो समूचे बिहार हो गेल हल इया ई कहल जाय कि मगही संसार हल । ई गुने हमरा-उनका बीच में मुलकात कोय दस बरिस तक न होल । अखबार से उनकर मगही आन्दोलन के जानकारी मिलते रहल ।

हम गया छोड़ के दहपर ऐलूँ । पटना में आ रहलूँ हल । एकंगर उतरलूँ कोय काम से । शास्त्री जी देख लेलन ! जा रहलूँ हल कि गला फाड़ के पुकारलन । देखऽ ही तो शास्त्री जी ! गले-गले मिललन । हाल-चाल पूछलन । फिर हाथ पकड़ले-पकड़ले हलवाई के दुकान पर बैठा देलन । दुनूँ भाय डट के पूड़ी-मिठाय खैलूँ; पान भी खिलौलन । तब पुछलन, अच्छा ई तो बतावऽ, एकंगर कइसे ऐला ? हम बतौली कि अब हम गया न रहऽ ही, दहपर हाई स्कूल में हेडमास्टर ही । सुनते हुलस गेलन । हेडमास्टर ही ई सुन के न । ई गुने कि हम्मर इलाका में आ गेला हे, तो मिलजुल के मगही के कुछ काम करम । बतौलन कि एजो 'मगध शोध संस्थान' नाम के संस्था खोले के विचार हे आउर एकरा में अपने के सहयोग देबे पड़त । हम कहली कि अपने के आग्याँ पर हम जहाँ कहब उहाँ हाजिर होम ।

कैक महीना बाद 'मगध शोध संस्थान' के गठन ला नालन्दा में भिक्षु जगदीश काश्यप के सभापतित्व में एगो बड़गो बैठक बुलावल गेल । ओकरा में भारत सरकार के उपमंत्री प्रो॰ सिद्धेश्वर प्रसाद, नालन्दा पालि इंस्टीच्यूट के आधा दर्जन प्राध्यापक, डॉ॰ सरयू प्रसाद, प्रो॰ मौआर इत्यादि भी सरीक होलन हल । हम देखली कि सब कोय शास्त्री जी के आदर करऽ हलन । आदर न, लेहाज कहल जाय तो जादा सही होत । वहाँ शास्त्री जी संस्थान के जरूरत पर जे भाषण कैलन ओकरा से साफ झलकऽ हल कि मगही के सम्हारे ला केतना उमतायल हलन, केतना बेदम हलन आउर मगही में शोध कार्य करे के समय आ गेल हे एकरा केतना साफ-साफ देखऽ हलन । संस्थान गठित हो गेल तो ऐसन नितरैलन जैसे कि उनका दौलत मिल गेल । हमरा ताजुब बुझाल कि मगही के नाम पर हिन्दी-सेवी विद्वान के भी ऊ जुटा लेलन । उनकर मीठा तर्क के सामने आदमी झुक जा हल ।

शास्त्री जी संस्थान के कार्यक्रम तैयार करके एगो बैठक में लैलन तब हम उनकर सूझ आउर कल्पना-शक्ति के कायल हो गेलूँ । लगल कि एतना दिन तक ऊ मगही आउर शोधे पर सोचते रहलन हल आउर कुछ पर न । लेकिन, परोगराम एतना बोझिल हल कि हमनी सब के ऊ व्यवहारिक न लगल । तब शास्त्री जी ऊ परोगराम के एक गुटका संस्करण भी आगे बढ़ौलन । ओकरे ले के काम आगे बढ़ावे के विचार तय होल । संस्थान के काम पर संशय पैदा होबऽ हल तब शास्त्री जी ओकरा आनन-फानन दूर कर दे हलन । लगऽ हल कि समस्या के समाधान ला हमनी के माथापच्ची करे पड़ऽ हल आउर ऊ समाधान रेडीमेड रखले रहऽ हलन ।

'शोध' पत्रिका के प्रकाशन के सफलता पर हमरा सन्देह हल । भाय सरयू बाबू भी एकरा बड़ा कठिन काम समझऽ हलन । लेकिन शास्त्री जी अप्पन व्यथा में पहले अँटौले रहऽ हलन कि काम कब-कैसे होत आउर घबड़ाहट न देखाबऽ हलन । उनकर वाणी में ऐसन प्रेरणा बसऽ हल कि अलसाय आउर कदराय में केकरो बनवे न करऽ हल ।

मगही वर्तनी आउर मगही भाषा के विस्तार आउर क्षमता पर ऐसे तो कैक बैठक में बोलऽ हलन लेकिन संस्थान के राजगीर अधिवेशन में ऊ विषय पर उनकर भाषण बहुत सारगर्भित आउर महत्त्वपूर्ण समझल गेल । उनके व्यक्तित्व के जादू हल कि ऊ अधिवेशन में मिनिस्टर भी पधारलन आउर भाषा आउर साहित्य के भारी-भरकम विद्वान भी । ऊ अधिवेशन तरुण जी के आर्थिक सहयोग से सफल हो सकल, लेकिन संघटनकर्ता तो शास्त्री जी ही हलन । उनका में आदमी के पहचाने के विशेष शक्ति हल, ई माने पड़े हे । केकरा से कौन काम हो सके हे, ई उनका बारीकी से पता हल । काम कराबे के ढंग उनकर अद्भुत हल । पहले प्रेरणा दे के पीछे हट जा हलन । आगे बढ़ते देख के पीछे-पीछे चले लगऽ हलन । आगे बढ़ऽ हियो, चलल आबऽ पीछे-पीछे - ई उनका पसंद न हल । उनका नेतागिरी के सौख न हल, लेकिन उनका में गुने ऐसन हल कि उनका नेता मान के चले पड़ऽ हल ।

शास्त्री जी से हमरा अन्तिम भेंट अप्पन विद्यालय के साहित्यिक आयोजन के समय पर होल । उनका निमंत्रण देली हल तुलसी शतवार्षिकी में अध्यक्षता करे ला । ऐलन; उनकर स्वागत कैली । उदास देखली तो हाल-चाल पुछली । तोतरा के बोललन कि हमरा लकवा मार देलको ह । बोल न सकियो, लेकिन तोहर आदेस पर नै कैसे ऐतूँ हल । हाजिर हो गेलियो । हम्मर दिल बैठ गेल, उनकर हालत देख के । उनका सभापति के आसन पर बइठौली आउर अपने कार्य-संचालन कैली । सभापति के हैसियत से कुछ बोल न सकलन । अप्पन आदमी पर एतना खेयाल, एतना नेह बिरला आदमी रखऽ हथ । ऊ औसर पर विद्यालय परिवार से एक भारी चूक हो गेल हल ओक्कर मलाल जिनगी भर रहत । रात के विद्वान, कवि, लेखक आउर आमंत्रित सज्जन भोजन कैलन । होस न रहल कि शास्त्री जी न बैठलन । सुबह पता चलल कि शास्त्री जी न खैलन काहे कि उनका डालडा से परहेज हे, अप्पन तन्दुरुस्ती के खयाल से । एतना सरमिंदा हो गेली कि बरनन न कर सकऽ ही । शास्त्री जी भी काहे न कहलन कि हमरा वास्ते दू ठो सुखल रोटी बनवा द । छेमा माँगली तब मुसका के बोललन - का हरज होल ? न खइली । सोचली कि उपास रह गेला से अच्छे होत । पेट सुद्ध हो जात । ऐसन सज्जनता पर प्राण न्योछावर !! अप्पन डेरा में ले जा के दूध-रोटी खिलौली । प्रेम से खैलन । न सिकवा न सिकायत । क्षमाशीलता के अजगुत मिसाल । चले लगलन तो झिझक के गाड़ी भाड़ा बढ़ौली । हम्मर हाथ मोड़ के कहलन - भाय भारती जी, अपना में ई सब न चले हे । हम बोलाबी तू चल आबऽ, तूँ बोलैला हम चल ऐलियो - गाड़ी भाड़ा का ?

बात तो मामूली लगे हे, लेकिन मामूली घटना से ही तो आदमी के बड़प्पन और इन्सानियत के पहचान होबे हे । शास्त्री जी बहुत मिलनसार हलन । आउर मिलनसार वही हो सके हे, जेकरा में घमंड न रहे । विचार आउर रहन-सहन आउर पहनावा में बहुत सादा हलन । कभी-कभी कपड़ा फटल-चिटल आउर मइल भी पहिनले उनका देखलूँ हल । कपड़ा-लत्ता के बारे में थोड़ा लापरवाह हलन । सोचऽ हलन, हमरा देखाबे के हे ? जैसन ही तैसन सही । एकरो में लोग शास्त्री जी के चीन्हिये ले हथ तो आउर का चाही ? आदमी गोरा-चिट्टा हलन आउर देह भारी-भारी । उमर निढाल, पर तो भी होठ लाल-लाल । आँख में नेह-कातरता साफ झलकऽ हलन । भौं घना । कुल मिला के व्यक्तित्व प्रभावशाली हलन ।

उठ गेला तो लगे हे मगही के जीवनदानी चल गेला । मगही माता के गोदी आज सूना-सूना लगे हे ।

['बिहान', दिसम्बर 1973; 'मगही पत्रिका', अंक-7, जुलाई 2002, पृ॰ 12-13; सम्पादकः धनंजय श्रोत्रिय]

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