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Friday, March 13, 2009

7. अन्तिम मुलकात एगो अजनबी से

अन्तिम मुलकात एगो अजनबी से

[डॉ॰ श्रीकान्त शास्त्री (1923-1973) सम्बन्धित संस्मरण]

लेखक - प्रो॰ वीरेन्द्र कुमार वर्मा (जन्मः 10-1-1939)

हम्मर भुरुकवा दस बजे के बाद उगे हे । आउर दिन के तरह ऊहो दिन भुरुकवा उगे के इन्तजार में बिछाओन पर ओघड़ाल हली कि छोटकी बेटी हँकारलक - "कोय मिले ला अयलथुन हे ।"
"केऽ ...?"
"अरे, उठके देखहो न, हम नञ् चिन्हऽ हकिओ !"

कुनमुनाइत ठुनकैत नीन से बिदाई ले के बाहर निकललूँ ! बैठकी में मिलला मगही के मीसन । जी, मीसन, डॉ॰ श्रीकान्त ! गोर देह, मुदा समय के मार से छत-बिछत सरीर पर लेपल झाईं, कारिख, जहाँ-तहाँ झुर्री से झाँकइत हतासा के टेढ़-मेढ़ लकीर ! परनाम-पाती भेल । आउर हम भौंचके देख रहलूँ हें । बार-बार, अनेक बार निहार रहलूँ हें । ई उहे श्रीकान्त जी हथ, जिनका से पहिलुक मिलन मगही-हिन्दी के प्रसिद्ध साहितकार श्री हरिश्चन्द्र प्रियदर्शी के घर होल हल । कउनो मिटिंग हल । मगही के बिस्तार वेबहार, विकास पर बल देबे ला । विचार कैल गेल । उहे मिटिंग में डॉ॰ सरयू के एक अंकीय पतरिका 'शोध' बीज पइलक हल ! उ छोड़ऽ, श्रीकान्त जी के बात हे ! जवान-जुआन देह, परसस्त ललाट, चमकइत आँख, विसवास से भरल आवाज ! एक सपना जे मीसन में बदल गेल इया डॉ॰ श्रीकान्त के सउँसे निगल गेल । आउर आज ! टूटल काँच निअर उ सपना के कन-कन जे पूरे सरीर पर पसर के उनका अजनबी बना रहल हे ! न बाबा ! दुनु श्रीकान्त के बीच बड़गो अन्तराल हे ! बड़गो !

"अरे मौसिऔत की घुर-घुर देख रहलऽ हे ?"
"हाँ, तोहरे देख रहलूँ हँ ! कउन हाल कर लेलऽ हे ! "
"आध गो सरीर तो बिमारी खइलको आउर समपूरन सरूप मगही के उपेछा ! मगह के वासी मगही नञ् बोलतन, नञ् लिखतन, त कि मदरास आउ महाराष्ट्र के अदमी बोलत या लिखत ! पर, केकरा समझाऊँ, के सुनत ! सभे के तो गाय के दूध माय के दूध से जादे मीठ लग रहल हे ! हम त हार गेलिओ, मीसन में असफल हो गेलिओ ! "

"ई की बोल रहलऽ हे तूँ ! तोहरा निअर जोद्धा कबहिओ हार माने वाला हो सकऽ हे की ?"
"तऽ अब की करिओ ? घर-दुआर बिखर गेलो, अप्पन पराया हो गेलो । हम गाँव-गाँव घुमते रहलूँ ! लोगन के जगबइत रहलूँ, मुदा सुतल के न जगइबऽ, जागल के नीन के केऽ तोड़ सकऽ हे । ..." (एक छन ठहराव)

"ए वर्मा जी, एक बात हमरा से सीखऽ ! मगही भाई लोगन अउपचारिक सुआगत-सम्मान में कभिओ कान-कुतुर नञ् करतन, मुदा जब काम के बात करवऽ तऽ ढेंका कस के चुप्पी साध लेथुन । 'स्व' से 'पर' तक के जतरा करे के उनका गेयाने नञ् हे, आउर कुछ अमदी में अगर अइसन परेरना हे तऽ समाज में उनकर पहिचान मिटाबे ला, सभे जुट जा हथ । "तू महात्मा बनवऽ ? हम तोहरा अमदीयो से नीचे लुढ़का देबो !"

"ई सब नञ् हे श्रीकान्त जी ! असल में ई समइए विघटन के हे, विखराव के हे, मानव-मूल्य के गिरावट के हे ! साहित, संस्कृति, संस्कार, कला के हरासमान जुग हे ई ! अमदी-अमदी के बीच कटाव हो गेल हे । खुद अपने में भी अमदी के कटाव हे । अमदी के split personality हो गेल हे ! एहो गुनी सभे कुछ बदल गेलइ हे ।"

"ठीक हे, मुदा इहे जुग में तो बिहार के आउर लोक-बानी हे ! उठ रहल हे, लिखताहर के संख्या में दिन-दूना रात चौगुना बढ़ोतरी हे ! मुदा मगही के की हाल हे ! लिखताहर के गिनती जरूरे बढ़ल हे, मुदा पाठक । पाठके नञ् तऽ भासा के की हाल होत ! रोज-ब-रोज पत्र-पत्रिका पूरा जोश से, संकलप से, निकालल जा हे, आउर एक-दू अंक के बाद दस्तावेजी खाता में बिला जा हे । प्रश्न ई नञ् हे कि लिखताहर लिखे, प्रश्न हे समाज में मगही के मान-सम्मान होय । गाय के दूध पी के सरीर फैलावऽ, मुदा गाय के दूध से मन-आतमा के परितृप्त करऽ ! माय के दूध संजीवनी हे । मगही में तभिए निम्मन रचना आयत, जब मगहवासी भासा में प्राण-संचार करतन ! ई तू गाँठ बान्ह लऽ ।

"नञ् श्रीकान्त जी, मीसन हवा में घुल-मिल गेलो ! ई चिनगारी कभी न कभी धुँधुऐतो । आउर, उ दिन दूर नञ् हो । तोहर समरपन व्यर्थ नञ् हे, ई विसवास हे ! चलऽ, आवऽ, भोजन पर जुटऽ ।"

एगो आम अदमी, आम रूप धारन कयले, सरल, सादा याने आम खाना खा के बस एक खास बात कहलन, "मन के दरद कुछ बाँट लेलियो । कुछ हलका महसूस कर रहलियो हे ! माय के बेटन से अधिक सहज भाव से मउसी के बेटा मिललऽ ! देखऽ, फेर कब गला-गला मिलइत ही ! अच्छा, अब चलबो ! आउर सब से मिलना हे ।"

श्रीकान्त जी गेलन, चल गेलन, बिछुड़ गेलन । अब ... ???

['मगही पत्रिका', अंक-7, जुलाई 2002, पृ॰ 19, 40; सम्पादकः धनंजय श्रोत्रिय]

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