खोंकेचा॰ = "खोंइछा के चाउर", लेखक - घमण्डी राम उर्फ रामदास आर्य; प्रकाशकः श्यामसुन्दरी साहित्य-कला धाम, बेनीबिगहा, बिक्रम (पटना); पहिला संस्करण - 2000; मूल्य - 50 रुपये; 74+6 पृष्ठ ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 568
ई निबंध सेंगरन (संग्रह) में कुल 9 निबंध हइ ।
क्रम सं॰ | विषय-सूची | पृष्ठ |
0. | निछावर | 7-8 |
0. | भूमिका | 9-12 |
0. | अप्पन बात | 13-14 |
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1. | खोंइछा के चाउर | 17-22 |
2. | माटी के दीया | 23-28 |
3. | सिन्होरा | 29-33 |
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4. | पनघट | 34-42 |
5. | केल्हुआड़ी | 43-47 |
6. | कुम्हार | 48-53 |
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7. | खिड़की | 54-60 |
8. | दोल्हा-पाती | 61-66 |
9. | अगिन के सात फेरा | 67-74 |
ठेठ मगही शब्द (अ से द तक):
1 अँखमुनौवल (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
2 अँगऊ (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... बाबाजी के अँगऊ,... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
3 अंगेया (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... बिआह में पैरपूजी, समधी मिलन, बड़ के अंगेया, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.3)
4 अखरखन (अदमी के बन्हुआ मजूर लेखा बूझे लगलन । फिर का ? अखरखन जादे दिन न निबहे, चलती सब दिन एके समान न रहे ।) (खोंकेचा॰48.24)
5 अगराना (अदमी के खुशी के ठिकाना न । ऊ इतराय लगल, अगराय लगल ।; धरती माय के गोद, किरखी मइया के कोख प्यार से सटा लेवऽ हे अप्पन बुतरू के । हवा ओकरा सुघरावऽ हे, आकास ओकरा अगरावऽ हे ।) (खोंकेचा॰26.8; 65.26)
6 अगिलका (इन साल के हिसाब-किताब आउ अगिलका साल के योजना बनावल जायत इहँई । कभी-कभी कचहरी के रूप धारन कर लेत केल्हुआड़ी ।) (खोंकेचा॰45.21)
7 अच्छत (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.8)
8 अछइत (= छइते; रहते) (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।; सोनार सोना अछइत लंगटा, लोहार लोहा रहइत फकीर, बड़ही लकड़ी अछइत बहिर, पनहेरी पान रखइत दँतचिहार, हजाम छुड़ा-कैंची अछइत उधार, ठठेरा ताम्बा-पीतर अछइत पातर ।) (खोंकेचा॰42.10; 53.21, 22, 23)
9 अझुरहट (अदमी के रहता सूझइत गेल - अझुरहट मेंटइत गेल - अटपटाहट छँटइत गेल - कुहा सँसरइत गेल आउ लउकइत गेल मंजिल के दुआर ।) (खोंकेचा॰24.28)
10 अटपटाहट (अदमी के रहता सूझइत गेल - अझुरहट मेंटइत गेल - अटपटाहट छँटइत गेल - कुहा सँसरइत गेल आउ लउकइत गेल मंजिल के दुआर ।) (खोंकेचा॰24.28)
11 अता-पता (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.17)
12 अत्ती-पत्ती (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
13 अदमी (= आदमी) (सृष्टि पर पहिले पानी आयल तब अदमी । पानी में अमीवा, घोंघा, सितुहा, बेंग, बेंगुची, मेंढ़क, बानर, बनमानुख - फिर अदमी, इहे क्रमवार विकास के सिलसिला मानल गेल हे अदमी के ।) (खोंकेचा॰34.12, 13)
14 अनठाना (विनती सुनइत सुनइत ब्रह्मा घठा गेलन - सुरूज अनठा देलन ।) (खोंकेचा॰23.18)
15 अन्हरिया (फिर ओही दुर्दशा - फिर अन्हार । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास - बरइत दीया बुत गेल, घुच-घुच अन्हरिया फिर भूत बन के दउड़े लगल ।) (खोंकेचा॰25.12)
16 अपसवारथी (अदमी के संस्कार एगो कोठरी में सिमट के कछुआ लेखा बन गेल हे । अदमी अपसवारथी हो गेल । पास-पड़ोस से कोई मतलब न रह गेल ।) (खोंकेचा॰59.16)
17 अमोला (जादे मीठा बनबे त सब रस चाभ के आँठी लेखा फेंक देतउ । बाकि तू माय हे, ममता के मूरती । आँठियो से अमोला बन के तू सृष्टि के सिरजन करइते रहबे ।) (खोंकेचा॰71.26)
18 अरउआ (बैल के पीछे एगो अदमी अरउआ लेके हाँक रहल हे ।; नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... किसान के हाथ में खनती, हरवाहा के हाथ में अरउआ, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰44.14; 64.27)
19 अरघ (= अरग, अर्घ्य) (कातिक में छठ के अवसर पर पनघट धरती पर सरग उतार के रख देवऽ हे । चारो ओर धूप-दीप के गन्ह, अरघ के परसादी के मीठगर महक, पिअर-पिअर वस्त्र के चमक 'पीताम्बरधारी' कृष्ण के साक्षात् दरसन करा देहे ।; नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... छठी मइया के अरघ में बाँस के कोलसूप, छठ के परसादी में ठेकुआ आउ कसार, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰36.24; 64.24)
20 अरघा (नीचे एगो टीन के अरघा बनावल हे जेकरा से रस बाल्टी इया टब में छन रहल हे । नीचे एगो अदमी बइठ के ऊख लगा रहल हे । एन्ने रस आउ ओन्ने चपुआ निकल रहल हे ।) (खोंकेचा॰44.16)
21 अरमना (खेल खेलना जरूरी हे - शरीर में फुरती-जोश आउ जवानी ला - अरमना आउ सीख-बूझ ला ।) (खोंकेचा॰62.19)
22 अरवा (~ चाउर) (अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे । अरवा चाउर निरउठ आ पवित्तर मानल जाहे । धान के सीधे सुखा के कूटला पर अरवा चाउर कहल जाहे ।; शुभ कारज-परोज आ पूजा-पाठ में अरवे चाउर के प्रयोग कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰18.1, 2, 3, 6)
23 अराधना (= आराधना) (नइहर के लोग भगवान से विनती करऽ हथ - 'हे भगवान, हम्मर बेटी दोसर के घर जा रहल हे । एकर पैरूख ससुरार ला शुभ निकले । मंगल भरल आंगछ से हम्मर बेटी ससुरार में रस-बस जाय ।' इहे असीरबाद, मंगल कामना, देव-पितर के अराधना छिपल हे खोंइछा के चाउर में ।) (खोंकेचा॰18.31)
24 अलमुनिया (डिजाइन आउ मॉडल के आधार पर कल-करखाना में तइयार होवे लगल लोहा-लक्कड़, पीतल-ताम्बा, अलमुनिया-पलास्टिक, मट्टी आउ पत्थल से ओकर विशाल रूप ।) (खोंकेचा॰49.27)
25 अलोपित (भगजोगनी बेचारी अइसन भागल कि धरती पर से अलोपित हो गेल ।) (खोंकेचा॰26.26)
26 असकत (= आसकत, आलस्य, सुस्ती) (कभी-कभी सासा, ननद, गोतनी घर से बाहर निकले के असकत से पड़ोसिन के साथे बातचीत, लेन-देन इहे भंवारी कर लेत ।) (खोंकेचा॰57.28)
27 असमान (= आसमान) (एकर जड़ पताल तक पसरल हे - असमान तक फैलल हे ।) (खोंकेचा॰61.23)
28 असीरबाद (= आशीर्वाद) (सोहागिन के सोहाग सिन्होरा में, सूजर लेखा फबइत सेनुर में, बूढ़-पुरनिया के असीरबाद में, देवी-देवता के बरदान में समेटल रहऽ हे ।) (खोंकेचा॰30.29)
29 असीरबादी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... असीरबादी में अच्छत, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.4)
30 अहथिर (= स्थिर) (पनघट आकाश लेखा अगम, पवन लेखा चंचल, आग लेखा अहथिर, क्षिति लेखा अनन्त जल लेखा शीतल हे ।) (खोंकेचा॰36.1)
31 आ (= आउ; और) (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे ।; शुभ कारज-परोज आ पूजा-पाठ में अरवे चाउर के प्रयोग कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰18.3, 6)
32 आँठी (जादे मीठा बनबे त सब रस चाभ के आँठी लेखा फेंक देतउ । बाकि तू माय हे, ममता के मूरती । आँठियो से अमोला बन के तू सृष्टि के सिरजन करइते रहबे ।) (खोंकेचा॰71.25)
33 आंगछ (= पौरा; किसी व्यक्ति, पशु या वस्तु के आने, प्राप्ति या सम्पर्क का शुभ या अशुभ फल) (बेटी के पैर पैरूख हे - ओकर गुन, सोभाव, आंगछ, लच्छन ओकरा में छिपल हे ।; नइहर के लोग भगवान से विनती करऽ हथ - 'हे भगवान, हम्मर बेटी दोसर के घर जा रहल हे । एकर पैरूख ससुरार ला शुभ निकले । मंगल भरल आंगछ से हम्मर बेटी ससुरार में रस-बस जाय ।' इहे असीरबाद, मंगल कामना, देव-पितर के अराधना छिपल हे खोंइछा के चाउर में ।) (खोंकेचा॰18.25, 30)
34 आगू (आज जादे बिआह बेमेले हो रहल हे । पइसा के आगू मेल-जोल, गुन-सोभाव के कोई बात खटाई में पड़ जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰68.9)
35 आझ (आझ भी ब्रज में, गोकुल में, मथुरा में, वृन्दावन के पनघट पर द्वापर के कृष्ण के इयाद में तरह-तरह के मेला, रासलीला, लठमार होरी मनावल जाहे ।; दोल्हा-पाती आझ से न आदम बाबा के जुग से खेले के चलनसार चलल आवइत हे ।; दीदी ! मत रो । आझ से अप्पन हिरदा आम के पत्ता लेखा कसईंधा कर ले ।) (खोंकेचा॰38.33; 61.12; 71.17)
36 आन-जान (भुरकी आउ भंवारी हवा के आवे-जाये के रहता तो हइए हल ओकर अलग अप्पन संस्कृति हे - ऊ हे पिछुती के सखी-सलेहर, पड़ोसिन के साथे घर में बइठले-बइठले आव-भगत, सुख-दुख के बातचीत, अप्पन पराया के पहचान, आन-जान आउ हेल-मेल के बरकरार रखे के साधन ।) (खोंकेचा॰56.26)
37 आन्हर (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।) (खोंकेचा॰42.10)
38 आन्ही-पानी (भोजन पकावइत गेल, जीव-जन्तु के लाश झोलइत गेल आग पर । सवाद के चस्का बढ़इत गेल, बाकि आन्ही-पानी के चपेट से ओकर रछेया कयल मुश्किल होवे लगल ।; केतना हवा-बतास, आन्ही-पानी आयल बाकि ई खेल जस के तस जामुन के लकड़ी लेखा, सखुआ के काठ लेखा कठुआयल रहल ।) (खोंकेचा॰24.25; 61.15)
39 आन्ही-बतास (फिर ओही दुर्दशा - फिर अन्हार । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास - बरइत दीया बुत गेल, घुच-घुच अन्हरिया फिर भूत बन के दउड़े लगल ।) (खोंकेचा॰25.11)
40 आपा-धापी (काहे ला दउड़-धूप, आपा-धापी, आगा-पीछा करे जाय बेचारा किसान ।) (खोंकेचा॰47.12)
41 आपुस (= आपस) (आपुस में बातचीत, संकेत-इसारा, समझ-बूझ, भाव-भंगिमा के शुरुआत भेल ।) (खोंकेचा॰54.21)
42 आमछाप (~ लुगा) (एकरा नेग में का मिलत ओहे पाँड़ेमार धोती आउ आमछाप लुगा, बस ।) (खोंकेचा॰51.17)
43 आले-औलादे (एकर काम में मददगार ओकर औरत आउ लड़कन-फड़कन । न कोई टरेनिंग न कोई डिगरी । खानदानी पेशा के खानदानी रूप आले-औलादे चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰49.33)
44 आवन-जावन (पनघट ... उहाँ भी दुख-दरद के आवन-जावन होइत रहऽ हे ।) (खोंकेचा॰41.32)
45 आहार-बेयोहार (अरवा चाउर हम्मर रीत-रेवाज, आहार-बेयोहार, संस्कार आउ संस्कृति में रसल-बसल हे ।) (खोंकेचा॰18.22)
46 इंगरउटी (= इंगुर रखने की डिबिया या पात्र, सिन्होरा) (अतना शक्ति हे छिपल चुटकी भर सेनुर में जेकरा सहेज के रखऽ हे सिन्होरा, कीया आ सबसे छोटा इंगरउटी ।) (खोंकेचा॰32.25)
47 इंगोरा (लाल दहके इंगोरा सुरूजवा किरन, अँखिया चउँध जाय देखते सेनुरवा के ।) (खोंकेचा॰32.19)
48 इनरासन (अइसन सुन्नर कि इनरासन में बइठे ला अपने आप जगह सुरच्छित हो जाय एही भाव हे हरदी देवे के ।) (खोंकेचा॰19.28)
49 इनसाल (= ई साल, इस साल) (इन साल के हिसाब-किताब आउ अगिलका साल के योजना बनावल जायत इहँई । कभी-कभी कचहरी के रूप धारन कर लेत केल्हुआड़ी ।) (खोंकेचा॰45.21)
50 इनार (= कुआँ) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... इन्नर भगवान के पूजा में इनार, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.32)
51 इन्नर (= इन्द्र) (इन्नर देवता के धेयान लगावत, विनती करत, हथजोड़ी करत आ मांगत अमरित के भण्डार भरल रहे, जग-जहान के जीव-जन्तु जिन्दा रहे ।) (खोंकेचा॰36.8)
52 ईंटा-पत्थल (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰58.29)
53 उकिल-बिकिल (= उखिल-बिखिल) (मेहरारू मर गेल साँप के काटे से, भालू उठा ले गेल छव महीना के बुतरु के, बाघ बिधुन के खा गेल बूढ़ा बाप के । ... मन उकिल-बिकिल होवे लगल ।; ओकरा कोठरी में - कोनो एकान्त जगह में बन्द कर देवल जायत तो ऊ उकिल-बिकिल हो ही जायत ।) (खोंकेचा॰23.6; 54.10)
54 उखिल-बिखिल (निकलइत खानी देखऽ - कइसे ऊ तड़पऽ हे । इन्दरी थक जाहे - हवा के आना-जाना बन्द हो जाहे - साँस लेवे में दिकदारी होवे लगऽ हे, तब उखिल-बिखिल परान खुलल हवा में उड़ल चाहऽ हे ।) (खोंकेचा॰54.6)
55 उछाँह (= उछाह, उत्साह) (बाँटेवाला के मन के उछाँह ओतने जेतना सदाबरत बाँटेवाला के ।) (खोंकेचा॰45.12)
56 उछाह (= उत्साह) (इहे हम्मर गाँव, गाँव के हम निवासी आउ निवासी के हिरदा के हुलास आउ मन के उछाह हे केल्हुआड़ी ।) (खोंकेचा॰46.24)
57 उजहना (= समाप्त होना) (बाँस के बंसरोपन मानल गेल हे । बाँस काट के न रोपाय, जड़ से उखाड़ के एक जगह से दूसरा जगह लगावल जाहे । बाँस के कतनो काटल जाय, उजह न सकऽ हे, कोंपल फेंकइते जायत ।; मँड़वा झलासी से छावल जाहे आउ मूंज के रस्सी से बान्हल जाहे । झलासी के सोभाव बाँसे लेखा । केतनो कोई उजाहे के कोरसिस करे, झलासी उजह न सके । इहाँ तक कि झलासी में आगो लगा देला पर फिन उपज जायत ।) (खोंकेचा॰68.17, 24)
58 उजाहना (= समाप्त करना, उजाड़ना) (मँड़वा झलासी से छावल जाहे आउ मूंज के रस्सी से बान्हल जाहे । झलासी के सोभाव बाँसे लेखा । केतनो कोई उजाहे के कोरसिस करे, झलासी उजह न सके । इहाँ तक कि झलासी में आगो लगा देला पर फिन उपज जायत ।) (खोंकेचा॰68.24)
59 उज्जर (सेनुरदान फह-फह उज्जर सन से करावल जाहे । एकर भाव ई हे कि माय के केस सन लेखा उज्जर होयलो पर सोहाग अचल रहे ।) (खोंकेचा॰31.17)
60 उसनना (= उसीनना; उष्ण करना) (नीचे एगो अदमी बइठ के ऊख लगा रहल हे । एन्ने रस आउ ओन्ने चपुआ निकल रहल हे । सुक्खल चपुआ चुल्हा में झोंकायत इया फिर परब-त्योहार में पकवान बनावे, खाना बनावे, धान उसने में जरना के काम आयत ।) (खोंकेचा॰44.19)
61 उसीनना (= उसनना; उष्ण करना) (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰18.4)
62 उसीना (~ चाउर) (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰18.4, 5)
63 एंगारी (= अंगेरी, अंगेरा, अगेरा) (ओन्ने खेत में केतारी छिला रहल हे - एंगारी एक तरफ आउ ऊख के बोझा एक तरफ । एक बोझा छिलऽ - ऊख केल्हुआड़ी में आउ एंगारी घरे । ओकरा से गोरू-डांगर के हरिअर बुतात इया सुखा के पतई बना दऽ । फिर जरना इया मड़ई छावे के काम में लावऽ ।) (खोंकेचा॰44.3)
64 एतवार (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.8)
65 एन्ने (~ ... ओन्ने) (एन्ने बरिआत खा-पीके नाच-गान में मशगूल आउ ओन्ने मँड़वा में बिआह के रस्म-रेवाज शुरू ।) (खोंकेचा॰72.2)
66 ओंठघन (= ओंठगन) (अब चौकोना काठ के भंवारी बनावल गेल आउ ओकरा में लकड़ी, बाँस के ओंठघन इया लोहा के छड़ चार-पाँच अंगुरी के दूरी पर रोकट लगा देवल गेल आउ ओही बन गेल जंगला ।) (खोंकेचा॰56.7)
67 ओका-वोका (= ओक्का-वोका) (नया जमाना के नया रीत, विज्ञान के चकाचौंध, विज्ञापन के बरसात, नया पीढ़ी के नया रस्म-रेवाज सब जगह ठाट जमौले हे बाकि गाँव के कनघीच्चो, बाघ-बकरी, ओका-वोका, आन्ही-पानी, अत्ती-पत्ती, गुल्ली-डंटा, चिक्का-कबड्डी, आँख-मिचौनी, गोटी, ताश के खेल झमाठ बर-पीपर लेखा आज भी ज्यों के त्यों अप्पन रूप निखारले हे ।) (खोंकेचा॰64.13)
68 ओक्का-वोका (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
69 ओखरी (= ऊखल) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... धान कूटे ला ओखरी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.28)
70 ओझागुनी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... ओझागुनी के भभूत, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.4)
71 ओटा-दीरखा (एही लेल घर के कोना-सान्ही, ओटा-दीरखा, छत-मुंडेर सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰27.26)
72 ओन्ने (एन्ने ... ~) (एन्ने बरिआत खा-पीके नाच-गान में मशगूल आउ ओन्ने मँड़वा में बिआह के रस्म-रेवाज शुरू ।) (खोंकेचा॰72.2)
73 ओसउनी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... ओसउनी में सूप, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
74 कँवाची-फराठी (भंवारी में लकड़ी इया बाँस के कँवाची-फराठी लगा के आड़ कर देवल गेल ताकि कीट-फतिंगा कोठरी में भीतर न घुस सके ।) (खोंकेचा॰56.3)
75 कंकड़-पत्थल (एकरा बाद लकड़ी के एगो पटरा पर लोंदा के गुंधे लगत । एक्को कंकड़-पत्थल, झिटका-झिटकी न रहे के चाही । ... एक्को कंकड़-पत्थल मिल जायत तो ओकर सब मेहनत गुरमाटी । सब कयल-धयल पर पानी फिर जायत ।) (खोंकेचा॰50.3, 5)
76 ककहरा (भारती के शास्त्रार्थ में पराजित होयला पर शंकराचार्य इहे पनघट पर आके 'यौनशिक्षा’ के ककहरा पढ़ना शुरू कयलन ।; ओकर बनावल सुरसती के पूजा करके लोग बड़का-बड़का बिदमान, बुद्धिमान, कलक्टर, औफिसर, डाक्टर, इंजीनियर बन जयतन बाकि एकर बाल-बच्चा, बेटा-बेटी, औरत-पुतोह ककहरा भी न जाने । ऊ सोचऽ हे, ककहरा जान के, पोथी-पतरा पढ़ के का करब ? ई धन्धा कइसे चलत, पेट कइसे भरत ?) (खोंकेचा॰37.13; 51.22)
77 कचड़ना (मटखान से मट्टी लायत । पानी डाल के ओकरा फुलायत, फिर लात से धँकच-धँकच के, कचड़-कचड़ के मक्खन लेखा मोलायम बना देत ।) (खोंकेचा॰50.2)
78 कचवनियाँ (= कच्चे आटे में मेवा, घी, शक्कर आदि मिलाकर बनाया लड्डू, कसार) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.8)
79 कठुआना (केतना हवा-बतास, आन्ही-पानी आयल बाकि ई खेल जस के तस जामुन के लकड़ी लेखा, सखुआ के काठ लेखा कठुआयल रहल ।) (खोंकेचा॰61.16)
80 कनघीच्चो (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
81 कनबहरी (सबके मुँह पर ताला, आँख में रतौंधी, कान में कनबहरी, दिमाग में भरेठ आउ हिरदा में गरदा समा गेल हे ।) (खोंकेचा॰64.10)
82 कनबहिर (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।) (खोंकेचा॰42.10)
83 कनेया (= कन्या) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... कनेया के अँचरा में खोंइछा के चाउर, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.21)
84 कपटी (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.12)
85 करखाना (= कारखाना) (आज नदी, झील, झरना, तलाब, आहर, पोखर, सब जगह पनघट आँसू बहा रहल हे । ओकर कोख फैक्ट्री के गन्दला से, शहर के नाली से, करखाना के प्रदूषित जल से कहँर रहल हे ।) (खोंकेचा॰42.3)
86 करमी (इहाँ केल्हुआड़ी हे - गाँव के सनमत हे । एक गाँव के बात रहे तब न । ई तो सगरे जेवारे-जेवारे करमी के पात लेखा पसरल हे ।) (खोंकेचा॰46.20)
87 कराह (= कड़ाह) (कल-कराह-केल्हुआड़ी गाँव भर के बाल-बुतरू, बूढ़ा-जवान के अरमान । गाँव के केल्हुआड़ी गाँव के संस्कृति - गाँव के रीत-रेवाज, बात-बेयोहार, रहन-सहन, आचार-विचार, मेल-मिलाप, खान-पान, सुख-दुख के संगम हे ।; ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप ।) (खोंकेचा॰43.1, 13, 14)
88 करिंग (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... दमाही में मेह, पटवन में चाँड़ आउ करिंग, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
89 करीगरी (= कारीगरी) (गेयान के कपाट खुलल - बुद्धि के करीगरी करुणा से करामात में बदल गेल । अब आग पर ओकर अधिकार हो गेल - प्रकृति के भयंकर प्रभाव पर ओकर कब्जा हो गेल ।; ताजमहल के चांदनी रूप, खजुराहो के मूरत में करीगरी के चमत्कार, कोणार्क के सूर्यमन्दिर में संगीत के गूंज इहे पनघट के परतछ रूप हे ।) (खोंकेचा॰24.20; 38.14)
90 करूआ (~ तेल) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... मालिश ला करूआ तेल, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.6)
91 कलटना (= एक ओर झुकना; एकवई होना, तिरछा होना, झुक जाना; अपनी जगह से हटना; दुख झेलना) (तड़प-तड़प के लहकइत रहल, खखन-खखन के जरइत रहल । काँपइत रहल अदमी - छटपटाइत रहल बुद्धि भरल अदमी - कलटइत रहल कुल-परिवार ।) (खोंकेचा॰24.11)
92 कलशा (= कलश) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, मंडप में कलशा, हाथ में डंडा, बरतन के बीच बरहगुना, पूजा-पाठ में चरनामरित, .... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.18)
93 कल्ह (एही से दोल्हा-पाती आज भी जिन्दा हे आउ भविष्य में भी जीवित रहत ओतने शान-सउकत के साथ ओतने महिमा-गरिमा के साथ जेतना कल्ह हल आउ आज भी हे ।) (खोंकेचा॰66.6)
94 कवांची (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।) (खोंकेचा॰32.5)
95 कसईंधा (दीदी ! मत रो । आझ से अप्पन हिरदा आम के पत्ता लेखा कसईंधा कर ले ।; थोड़ा सह, थोड़ा अकड़ - ठीक आम लेखा थोड़ा मीठा थोड़ा खट्टा । कसईंधा बन के जी ।) (खोंकेचा॰71.17, 24)
96 कसार (= चावल के आटे में घी शक्कर मिलाकर बनाया लड्डू, कचवनियाँ ) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।; नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... छठी मइया के अरघ में बाँस के कोलसूप, छठ के परसादी में ठेकुआ आउ कसार, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰18.8; 64.24)
97 कहिया (= कब; कहियो = कभी भी) (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे । आज एकरा लोग ढोंग आउ रद्दी के टोकरी में फेंकल कागज के समान समझे लगलन हे । बाकि ऊ लोग एकर महातम सवीकार करतन जिनका अप्पन घरनी से कहियो पटरी न खायल ।) (खोंकेचा॰68.3)
98 काना-फूस्सी (सास मेला-हाट गेल हे, शादी-बिआह में घर से बहरिआयल हे, ननद अप्पन सखी-सलेहर में मस्त हे, गोनी काना-फूस्सी में मगन हे, नया-नोहर औरत के गोदी में दुधमुँहा बच्चा हे, ओकरा बेमारी हो गेल हे - हाबा-डाबा धर लेल हे - गोड़ में पिंड़री चढ़ रहल हे - मरदाना खेत-खरिहान में, ऑफिस-कचहरी में काम करे निकसल हे, अइसन स्थिति में का करे बेचारी रजमतिया ।) (खोंकेचा॰57.12)
99 कान्हा (= कन्धा) (हरीश हर के एक भाग हे जेकरा से पालो के साथ-साथ बैल के कान्हा पर रखल जाहे ।) (खोंकेचा॰69.8)
100 कारज (बिआह-शादी, देवी-देवता के पूजा, गृहवास, जन्म-दिन, मंगल कारज, विजय-दिवस के अवसर पर आज भी माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰26.33)
101 कारज-परोज (भारतीय संस्कृति में नर-नारी दुन्नो के बराबर सम्मान देल गेल हे । सुरसती, लछमी के साथे-साथे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के भी पूजा कयल जाहे । इहे कारण हे कि बिआह-शादी, कारज-परोज में पति-पत्नी दुन्नो गेंठी जोड़ के बइठऽ हथ आ पूजा-पाठ के बिधि पूरा करऽ हथ ।; शुभ कारज-परोज आ पूजा-पाठ में अरवे चाउर के प्रयोग कयल जाहे ।; गाँव के बगइचा, तलाब, देवस्थल, अखाड़ा, बइठका, चौपाल, परब-त्योहार, सड़क-गली, चौराहा, चरवाही, कीरतन मंडली, शादी-बिआह, कारज-परोज के बारे में इहँई निरनय होयत आउ जे निरनय होयत ऊ ब्रह्मा के लकीर - सब केउ भगवान के चरनामरित लेखा सिर चढ़ावत - आँख मून के सिरोधार्य करत ।) (खोंकेचा॰17.22; 18.6; 46.1)
102 कारज-परोजन (कोनो कारज-परोजन के सूचना देवे ला हे, बयना-पेहानी पेठावे ला हे, चुप्पे-चोरी कोई सामान देवे ला हे तब इहे भंवारी काम देवऽ हे ।) (खोंकेचा॰57.29)
103 किकुरना (विधान सभा आउ संसद एकर झोपड़िए में किकुरल हे ।) (खोंकेचा॰52.13)
104 किरखी (= कृषि) (धरती माय के गोद, किरखी मइया के कोख प्यार से सटा लेवऽ हे अप्पन बुतरू के ।) (खोंकेचा॰65.25)
105 किरिन (= किरिंग; किरण) (जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰31.30)
106 कीया (= किऔरी; सूखा सिन्दूर रखने की छोटी डिबिया) (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।; अतना शक्ति हे छिपल चुटकी भर सेनुर में जेकरा सहेज के रखऽ हे सिन्होरा, कीया आ सबसे छोटा इंगरउटी ।) (खोंकेचा॰32.4, 25)
107 कुँहड़ (बेमेल बिआह जिनगी भर के कुँहड़, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बर्बाद, सब के संस्कार खराब ।) (खोंकेचा॰68.5)
108 कुच-कुच (~ करिया) (रात घुच-घुच अन्हरिया - कुच-कुच करिया रात ।) (खोंकेचा॰23.21)
109 कुदारी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... खेत कोड़े ला कुदारी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.8)
110 कुल-खनदान (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।; हम्मर कुल-खनदान के नामहँसी न होवे के चाही ।) (खोंकेचा॰67.16; 71.26)
111 कुहा (अदमी के रहता सूझइत गेल - अझुरहट मेंटइत गेल - अटपटाहट छँटइत गेल - कुहा सँसरइत गेल आउ लउकइत गेल मंजिल के दुआर ।; जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰24.28; 31.31)
112 केंवाड़ी (= किवाड़) (खिड़की कोनो पदारथ थोड़े हे । ऊ तो हिरदा के हुलस, मन के पीड़ा, बुद्धि आउ विवेक के केंवाड़ी हे । बुद्धि के केंवाड़ी खुल्ला रहे के चाही ।) (खोंकेचा॰60.6)
113 केतवर (= केतवड़; कितना; तु॰ एतवर, एतवड़) (केतवर बड़का यज्ञ ऊ करवा रहल हे - केतना बड़का इन्तजाम ।) (खोंकेचा॰44.1)
114 केतारी (= ईख, ऊख, गन्ना) (ओन्ने खेत में केतारी छिला रहल हे - एंगारी एक तरफ आउ ऊख के बोझा एक तरफ ।) (खोंकेचा॰44.3)
115 केल्हुआड़ी (= कोलसार) (कल-कराह-केल्हुआड़ी गाँव भर के बाल-बुतरू, बूढ़ा-जवान के अरमान । गाँव के केल्हुआड़ी गाँव के संस्कृति - गाँव के रीत-रेवाज, बात-बेयोहार, रहन-सहन, आचार-विचार, मेल-मिलाप, खान-पान, सुख-दुख के संगम हे ।) (खोंकेचा॰43.1, 2)
116 केवाल (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... माथ मले ला केवाल के मट्टी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.29)
117 केस-मोकदमा (ऊ लोग एकर महातम सवीकार करतन जिनका अप्पन घरनी से कहियो पटरी न खायल । तलाक, मार-पीट, झगड़ा-तकरार, केस-मोकदमा सौ तरह के जंजाल ।) (खोंकेचा॰68.3)
118 कोना-सान्ही (जरवलक त जगमग जगमग, चकमक चकमक - सगरे इंजोर, कोना-सान्ही सब जगह उजाला - सगरे खुशियाली ।; एही लेल घर के कोना-सान्ही, ओटा-दीरखा, छत-मुंडेर सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰24.31; 27.26)
119 कोरसिस (अदमी जलमइते - बचपने से चतुर-सुजान हृष्ट--पुष्ट बने के कोरसिस करे लगऽ हे ।) (खोंकेचा॰62.22)
120 कोलसूप (तुलसी के चउरा, देवी-देवता के मन्दिल, मंगल-कलश, गंगा के कछार, सुरूज बाबा के कोलसूप, पर्व-त्योहार के अरघ, पूजा-पाठ में भगवान के आरती, बाहर-भीतर, घर-आंगन - सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।; गाँव के कनघीच्चो, बाघ-बकरी, .... के खेल झमाठ बर-पीपर लेखा आज भी ज्यों के त्यों अप्पन रूप निखारले हे । ओतने महत्व रखले हे जेतना होरी में रंग-अबीर, दीवाली में दीया आउ सलाई, छठ में कोलसूप आउ खरना के खीर के महातम हे ।) (खोंकेचा॰27.4; 64.17)
121 कोल्हुआड़ी (= केल्हुआड़ी) (कोल्हुआड़ी जब चालू होयत तो एक्के साथ । जगह जमीन के कमी होयला पर बारी-बारी से सभे अप्पन-अप्पन ऊख के पेराई करतन ।) (खोंकेचा॰46.15)
122 कोहबर (कोई बिआह के गीत गा रहल हे, ... कोई पउता-पेहानी सजा रहल हे, कोई कॉपी में नेवता-हँकारी लिख रहल हे, कोई मर-मजाक में डूबल हे, साली-सरहज कोहबर लिखे में व्यस्त हे ।) (खोंकेचा॰30.20)
123 खँखोरना (= खखोरना) (कब ले भकोसइत रहत ई आग - कब ले खँखोरइत रहत ई शोला - कब ले दबोरइत रहत ई लफार ?) (खोंकेचा॰24.15)
124 खखनना (हहरइत रहल, छछनइत रहल, खखनइत रहल अदमी प्रकाश ला ।; शेर-चीता, बाघ-भालू, सियार-हरिन, साँप-छुछुन्दर, खरगोश, बनबिलार - सब जर के राख । पंछी फड़फड़ा के रह गेल । तीन हाथ के अदमी, दू पैर के अदमी का करे - कहाँ जाय ? तड़प-तड़प के लहकइत रहल, खखन-खखन के जरइत रहल ।) (खोंकेचा॰23.1; 24.10)
125 खनती (= खनित्र) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... किसान के हाथ में खनती, हरवाहा के हाथ में अरउआ, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.27)
126 खनदान (= खानदान) (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.16)
127 खरना (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।; सुरूज भगवान के छठ बरत में ठेकुआ, शादी-बिआह में लड़ुआ, होली-तीज में पुआ-पकवान, हित-नाता के शरबत, परसउती के गुड़ हरदी, परबइतिन के खरना के खीर में गुड़े के जरूरत पड़ऽ हे ।) (खोंकेचा॰18.7; 47.20)
128 खर-पात (पहिले पेड़ के टहनी आउ खर-पात के कुटिया बनयलक । बाँस के टटरी आउ फिर मट्टी के मकान के कहानी बनइत गेल ।) (खोंकेचा॰55.17)
129 खानी (= खनी; क्षण, पल, समय) (निकलइत खानी देखऽ - कइसे ऊ तड़पऽ हे । इन्दरी थक जाहे - हवा के आना-जाना बन्द हो जाहे - साँस लेवे में दिकदारी होवे लगऽ हे, तब उखिल-बिखिल परान खुलल हवा में उड़ल चाहऽ हे ।) (खोंकेचा॰54.4)
130 खिलकट (बीतल आउ देखल खिलकट संगोरइत गेल । प्रकाश के फिन गोड़ लगलक, विनती कयलक - 'ओऽम् तमसो मा ज्योतिर्गमय' ।) (खोंकेचा॰23.14)
131 खुरबुदी (ओही तरह सुग्गा, मैना, खुरबुदी, कउआ, चील्ह, बाज, बटेर, गरुड़, मोर, बगेड़ी जइसन धरती-आकाश में चले आउ उड़ेवाला जीव-जन्तु के बोलइत मूरत बना के धर देत ।) (खोंकेचा॰50.14)
132 खुल्ला (= खुला) (बुद्धि के केंवाड़ी खुल्ला रहे के चाही ।; खिड़की खुल्ला रहला पर सब कुछ साफ-साफ देखाई देवऽ हे ।; खिड़की खुल्ला रहे से मानवता जिन्दा रहऽ हे ।) (खोंकेचा॰60.6, 9, 11)
133 खूँटाठोक (~ बरिआर) (ई खेल अदमी के उत्पत्ति के साथ-साथ उत्पन्न भेल । पुरान हे इतिहास एकर आउ खूँटाठोक बरिआर हे एकर ताल ।) (खोंकेचा॰61.25)
134 खेत-बधार (आज सब कोठा-अटारी, खेत-बधार, नोकरी-चाकरी बिजनेस पर दखल जमा लेलन ।) (खोंकेचा॰52.10)
135 खेती-गिरहस्ती (आग लेखा बज्जर गिर जाय, प्रकृति के प्रकोप पड़ जाय, दुश्मन के आघात टूट पड़े तइयो बिआह के गठबन्हन, खेती-गिरहस्ती, बाल-बच्चा, बंस-बरखा पर कोई असर न पड़े ।) (खोंकेचा॰68.27)
136 खेलवइया (= खिलाड़ी) (साफ-सुथरा जगह, पीपर के छाँह, लचकइत डउँघी, डोलइत पत्ता, बरगद के बरोह - मनगर छुँहुरी, कचनार डार, पात, मीठगर मीठगर पीपर आउ बरगद के फर - गुबुर-गुबुर खाय में, फुदुर-फुदुर डाल पर फुदके में - जे आनन्द जे उल्लास दोल्हा-पाती के खेलवइया के मिलऽ हे ऊ बड़का-बड़का शान-शउकत से भरल लाखों-करोड़ों सोना-चानी के ईंटा से मढ़ल स्टेडियम में न मिले ।) (खोंकेचा॰65.30)
137 खोंइछा (खोंइछा के चाउर बेटी के सनमान, कोख के ममता, गोदी के दुलार, हीया के उद्गार आउ लछमी के पेयार हे ।; नइहर के लोग भगवान से विनती करऽ हथ - 'हे भगवान, हम्मर बेटी दोसर के घर जा रहल हे । एकर पैरूख ससुरार ला शुभ निकले । मंगल भरल आंगछ से हम्मर बेटी ससुरार में रस-बस जाय ।' इहे असीरबाद, मंगल कामना, देव-पितर के अराधना छिपल हे खोंइछा के चाउर में ।; खोंइछा के चाउर बेचल न जाय । ओकर खीर इया कोई पकवान बना के घर-आंगन, बाहर-भीतर सब के मुँह मीठा कयल जाहे ।; 'सुरूज लेखा बरइत रहे, चान लेखा चमकइत रहे आउ सबके बरइत-चमकइत देखे के गुन-सोभाव मन में भरल रहे' - एही कामना छिपल हे खोंइछा के हरदी देवे के ।) (खोंकेचा॰17.1; 18.31; 19.1; 20.9)
138 खोंखर (जब विश्वकर्मा के अवतार भेल तब उनकर घमंड के निशा टूटल । भगुआयल उठलन तब एहसास भेल ऊँच बँड़ेरी खोंखर बाँस । ताड़ पर से गिरलन तब खजूर पर अँटक गेलन ।) (खोंकेचा॰48.16)
139 खोंटी (भाई बहिन के आम के पत्ता के खोंटी देवऽ हे, फिन पानी । बहिन खोंटी काट के एगो चुक्का में गिरावइत जाहे । बहिन दूधार रोयबो करऽ हे ।) (खोंकेचा॰71.15)
140 खोंढ़र (अदमी पहिले-पहिले धरती पर जहाँ पावे उहँई पसर जाय, फोंफ काटे लगे । धूप से बचे ला पेड़ के छाँह के शरण लेलक फिर एगो ठउर बनावे के कोरसिस कयलक तो पेड़ के खोंढ़र आउ पहाड़ के कन्दरा में रहे लगल ।) (खोंकेचा॰55.15)
141 खोईछा (= खोंइछा, खोइँछा) (बेटी होवे इया पुतोह, बिदाई के समय ओकरा खोईछा देल जाहे । खोईछा में देल जाहे अरवा चाउर, दुब्भी, हरदी आउ पइसा ।) (खोंकेचा॰17.25, 26)
142 खोर (= एक बार कड़ाह में ईख का राबा तैयार होने की मात्रा) (ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप । एक खोर, दू खोर, जादे से जादे तीन खोर - एक दिन में तीन खोर । एक बार में जतना रस कराह में उझिला गेल ऊ एक खोर कहायल । एक खोर मउनी में डाल-डाल के सेरा देवल गेल, ऊ चक्की कहायल आउ जे लड़ुआ लेखा बन्हायल से भेली कहायल ।) (खोंकेचा॰43.15, 16, 17)
143 गँरउटी (= गरउँटी) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... बैल के गँरउटी, दूध-दही के मटका, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.25)
144 गउर-गनेस (गउर-गनेस के पूजा करके, दुल्हा-दुल्हिन के आँख में काजर करके मँड़वा में सबके सामने होवऽ हे सेनुरदान ।) (खोंकेचा॰32.5)
145 गठबन्हन (आग लेखा बज्जर गिर जाय, प्रकृति के प्रकोप पड़ जाय, दुश्मन के आघात टूट पड़े तइयो बिआह के गठबन्हन, खेती-गिरहस्ती, बाल-बच्चा, बंस-बरखा पर कोई असर न पड़े ।) (खोंकेचा॰68.27)
146 गड़गड़ाना (सबेर भेल आउ केल्हुआड़ी के मजमा देखे लायक । कोई बाल्टी कोई टीन, कोई लोटा लेके आ रहल हे आउ भर-भर के रस घरे ले जा रहल हे । कोई उहँई गड़गड़ा रहल हे, त कोई घरे जाके खीर घाँट रहल हे आउ कोई तरहत्थी पर चाट रहल हे ।) (खोंकेचा॰43.25)
147 गड़ना (एही कारन हे कि सोहागिन के मांग पर सेनुर देखइते आँख नीचे हो जाहे, मूड़ी गड़ जाहे, नजर झुक जाहे ।) (खोंकेचा॰32.15)
148 गड़ाना (मँड़वा गड़ा गेला पर जमीन साफ-सुथरा करके हरीश, बाँस के छड़ी गाड़ल जाहे ।) (खोंकेचा॰68.33)
149 गद्दी (सेनुर के ~) (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।) (खोंकेचा॰32.3)
150 गनना-मनना (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे ।; गनना-मनना में दुन्नो के प्रकृति, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, मेल-जोल, वर्तमान-भविष्य के पटरी बइठावल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.26; 68.6)
151 गन्ह (कातिक में छठ के अवसर पर पनघट धरती पर सरग उतार के रख देवऽ हे । चारो ओर धूप-दीप के गन्ह, अरघ के परसादी के मीठगर महक, पिअर-पिअर वस्त्र के चमक 'पीताम्बरधारी' कृष्ण के साक्षात् दरसन करा देहे ।) (खोंकेचा॰36.24)
152 गर-गवाही (इहाँ के फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसला । कोई गर-गवाही न । पूरा केल्हुआड़ी - पूरा गाँव । कोई चुगली न, कोई चुप्पा-चोरी न, सब कुछ खुल्ला - आसमान लेखा साफ, रूआ के फाहा लेखा मोलायम ।) (खोंकेचा॰46.7)
153 गलबात (सास आउ ननद तो घूम-फिर लेत, एक दूसरा से गलबात कर लेत ।) (खोंकेचा॰57.8)
154 गवना-दोंगा (= गौना-दोंगा) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... गउना-दोंगा में पउता-पेहानी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.1)
155 गहना-गुड़िया (= गहना-गुरिया) (बिआह में साया-साड़ी, गहना-गुड़िया, सिंगार-पटाे, पउता-पेहानी के महातम तो हइए हे, बाकि दुल्हा-दुल्हिन, वरपक्ष-कन्यापक्ष, मातृकुल आउ पितृकुल के मिलन इहे सिन्होरा करावऽ हे ।) (खोंकेचा॰31.4)
156 गाँव-गँवई (आदिवासी इलाका, हरिजन के बस्ती आउ गाँव-गँवई में आज भी कच्चा मकान में भुरकी, भंवारी आउ जंगला के रूप निरेखल जा सकऽ हे ।) (खोंकेचा॰56.15)
157 गारी (गारियो देवल जायत बाकि गीते में, गुदगुदी बरे ओला गारी । सब बिध हो गेला पर कन्यादान होयत ।) (खोंकेचा॰72.4)
158 गिट्टी (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे । खिड़की भी काठ, लोहा, गिट्टी, सिरमिट से बने लगल ।) (खोंकेचा॰58.29, 30)
159 गिट्टी-छड़ (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰58.29)
160 गिरहस्ती (आग लेखा बज्जर गिर जाय, प्रकृति के प्रकोप पड़ जाय, दुश्मन के आघात टूट पड़े तइयो बिआह के गठबन्हन, खेती-गिरहस्ती, बाल-बच्चा, बंस-बरखा पर कोई असर न पड़े ।; बर-कन्या बैल के दुगो कन्धा । गिरहस्ती जीवन के बोझ रूपी पालो उनकर कन्धा पर ।) (खोंकेचा॰68.27; 69.10)
161 गिरिल (= ग्रिल) (काठ इया लोहा के चउखट बना के ओकरा में छड़ इया गिरिल लगावल जाहे ।) (खोंकेचा॰59.2)
162 गुनगर (अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे ।) (खोंकेचा॰18.1)
163 गुन-सोभाव (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।; गनना-मनना में दुन्नो के प्रकृति, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, मेल-जोल, वर्तमान-भविष्य के पटरी बइठावल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.16; 68.6)
164 गुबुर-गुबुर (= गबर-गबर) (साफ-सुथरा जगह, पीपर के छाँह, लचकइत डउँघी, डोलइत पत्ता, बरगद के बरोह - मनगर छुँहुरी, कचनार डार, पात, मीठगर मीठगर पीपर आउ बरगद के फर - गुबुर-गुबुर खाय में, फुदुर-फुदुर डाल पर फुदके में - जे आनन्द जे उल्लास दोल्हा-पाती के खेलवइया के मिलऽ हे ऊ बड़का-बड़का शान-शउकत से भरल लाखों-करोड़ों सोना-चानी के ईंटा से मढ़ल स्टेडियम में न मिले ।) (खोंकेचा॰65.29)
165 गुरमाटी (एक्को कंकड़-पत्थल मिल जायत तो ओकर सब मेहनत गुरमाटी । सब कयल-धयल पर पानी फिर जायत ।) (खोंकेचा॰50.6)
166 गुल्ली-डंटा (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
167 गेंठी (भारतीय संस्कृति में नर-नारी दुन्नो के बराबर सम्मान देल गेल हे । सुरसती, लछमी के साथे-साथे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के भी पूजा कयल जाहे । इहे कारण हे कि बिआह-शादी, कारज-परोज में पति-पत्नी दुन्नो गेंठी जोड़ के बइठऽ हथ आ पूजा-पाठ के बिधि पूरा करऽ हथ ।) (खोंकेचा॰17.22)
168 गेरा (उधर ललकी किरिन फूटल आउ इधर बैल के गेरा में बान्हल घंटी टनटन आवाज से लोग के रिझावे लगल ।; बस, लड़का-लड़की के गेरा में बिआह के एगो फन्दा लगा देवल जा रहल हे तइयो बिआह के बचल-खुचल रूप अबहियों झलकऽ हे, हुलकऽ हे आउ चुप्पे-चोरी अप्पन पहिलका ठाट जमौले हे ।) (खोंकेचा॰43.11; 68.11)
169 गोइठा (~ में घीव सुखाना) (पढ़ला-लिखला पर चाक चलाना भी मुश्किल हो जायत । खपड़ा आउ मंगरा पारे में बेइज्जती महसूस करत । फुटानी झाड़े में समय गँवा देत । गोइठा में घीव सुखावे से का फायदा ?) (खोंकेचा॰51.26)
170 गोटी (= गाना-गोटी) (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.3)
171 गोतिया (चान पर पहुँच के डींग हाँके लगल । मंगल आउ शुक्र ग्रह पर अप्पन गोतिया के अन्हार में दीया बार-बार के खोजे लगल ।) (खोंकेचा॰34.22)
172 गोतिया-नइया (बाँस के मंडप में, मंगल कलश के सामने, देवी-देवता, सब पुरखन, पास-पड़ोस, हित-नाता, कुटुम्ब-परिवार, गोतिया-नइया, दोस्त-मीत, सखी-सलेहर, बूढ़-जवान, बच्चा-बच्ची, औरत-मरद - सबके सामने 'कन्यादान' के बाद 'सेनुरदान' कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰31.8)
173 गोबर-गनेस (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... आग धरावे ला सलाई, परसउती के सोंठ-बत्तीसा,... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.30)
174 घठाना (विनती सुनइत सुनइत ब्रह्मा घठा गेलन - सुरूज अनठा देलन ।) (खोंकेचा॰23.17)
175 घठुआर (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।; केतना घठुआर हो गेल हे ई कुम्हार । लात से धंगयला पर चुँटियो काट देवऽ हे बाकि एकर चमड़ी एतना मोटा हो गेल हे कि समाज के परिवर्तन आउ प्रगति के बढ़इत रथ रूपी सूई के भोंकलो पर ऊ तनि सिसिअयबो न करे ।) (खोंकेचा॰42.9; 52.6)
176 घरनी (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे । आज एकरा लोग ढोंग आउ रद्दी के टोकरी में फेंकल कागज के समान समझे लगलन हे । बाकि ऊ लोग एकर महातम सवीकार करतन जिनका अप्पन घरनी से कहियो पटरी न खायल ।) (खोंकेचा॰68.3)
177 घरौंदा (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.3)
178 घिकुरी (घेराव-पथराव आउ प्रदर्शन करेवाला भाई लोग कहाँ घिकुरी मार देलन ?) (खोंकेचा॰52.24)
179 घुच-घुच (~ अन्हरिया) (रात घुच-घुच अन्हरिया - कुच-कुच करिया रात ।) (खोंकेचा॰23.21)
180 चउमास (= वर्षा ऋतु में जोतकर और घास साफ कर छोड़ी गई जमीन) (~ के खेत) (एक से एक चुनल-बिछल खेल खेलल जाहे गाँव के डघ्घर पर आउ चउमास के खेत में - आम के बगइचा में - अमरूध के बगान में ।) (खोंकेचा॰62.13)
181 चउरा (तुलसी के चउरा, देवी-देवता के मन्दिल, मंगल-कलश, गंगा के कछार, सुरूज बाबा के कोलसूप, पर्व-त्योहार के अरघ, पूजा-पाठ में भगवान के आरती, बाहर-भीतर, घर-आंगन - सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰27.3)
182 चउरेठ (= चौरेठ, चौरेठा; मांगलिक अवसरों पर काम में लाने का चावल के आटे का घोल; अइपन; पानी के साथ पीसा फुलाया चावल) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.9)
183 चक्की (एक बार में जतना रस कराह में उझिला गेल ऊ एक खोर कहायल । एक खोर मउनी में डाल-डाल के सेरा देवल गेल, ऊ चक्की कहायल आउ जे लड़ुआ लेखा बन्हायल से भेली कहायल ।) (खोंकेचा॰43.18)
184 चचरी (बइठल सन्यासी चपुआ भी बाँट रहल हे - परवइतिन के जोगाड़ जुटा रहल हे, गरीब-गुरबा के पतई भी दान दे रहल हे - केकरो मड़ई छावे ला केकरो चचरी बनावे ला ।) (खोंकेचा॰44.20)
185 चनकी (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰30.32)
186 चपुआ (= खोहिया, खोइया, ऊख की सीठी) (ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप ।; नीचे एगो अदमी बइठ के ऊख लगा रहल हे । एन्ने रस आउ ओन्ने चपुआ निकल रहल हे । सुक्खल चपुआ चुल्हा में झोंकायत इया फिर परब-त्योहार में पकवान बनावे, खाना बनावे, धान उसने में जरना के काम आयत ।) (खोंकेचा॰43.13; 44.17, 18)
187 चमकी (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।) (खोंकेचा॰32.4)
188 चमरूआ (= चमरखानी) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... चमरूआ जूता, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.5)
189 चरनामरित (गाँव के बगइचा, तलाब, देवस्थल, अखाड़ा, बइठका, चौपाल, परब-त्योहार, सड़क-गली, चौराहा, चरवाही, कीरतन मंडली, शादी-बिआह, कारज-परोज के बारे में इहँई निरनय होयत आउ जे निरनय होयत ऊ ब्रह्मा के लकीर - सब केउ भगवान के चरनामरित लेखा सिर चढ़ावत - आँख मून के सिरोधार्य करत ।) (खोंकेचा॰46.2)
190 चरवाहा (चरवाहा के चुलबुल, हरवाहा के हरख, मरदाना के दमखम, हरिन के कुलांच, ...) (खोंकेचा॰35.16)
191 चरवाही (गाँव के बगइचा, तलाब, देवस्थल, अखाड़ा, बइठका, चौपाल, परब-त्योहार, सड़क-गली, चौराहा, चरवाही, कीरतन मंडली, शादी-बिआह, कारज-परोज के बारे में इहँई निरनय होयत आउ जे निरनय होयत ऊ ब्रह्मा के लकीर - सब केउ भगवान के चरनामरित लेखा सिर चढ़ावत - आँख मून के सिरोधार्य करत ।; लइकन चरवाही करे जा हथ इया जवान लोग काम से फुर्सत में रहऽ हथ, तखनी दोल्हा-पाती खेले के अवसर मिल जाहे ।) (खोंकेचा॰45.33; 62.25)
192 चलनसार (दोल्हा-पाती आझ से न आदम बाबा के जुग से खेले के चलनसार चलल आवइत हे ।) (खोंकेचा॰61.12)
193 चाँड़ (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... दमाही में मेह, पटवन में चाँड़ आउ करिंग, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
194 चाउर (खोंइछा के ~; अरवा ~; उसीना ~) (खोंइछा के चाउर बेटी के सनमान, कोख के ममता, गोदी के दुलार, हीया के उद्गार आउ लछमी के पेयार हे ।; अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे । अरवा चाउर निरउठ आ पवित्तर मानल जाहे । धान के सीधे सुखा के कूटला पर अरवा चाउर कहल जाहे । धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰17.1; 18.1, 2, 3, 4, 5)
195 चान (पुनिया के ~; दूज के ~) (दीपावली के दिन तो दीये के पूजा होवऽ हे । ऊ दिन दीया ओतने शोभऽ हे जेतना पुनिया के चान शोभऽ हे ।; आपसी प्रेमभाव गूलर के फूल बनल जा रहल हे । दुनिया-जहान के चिन्ता दूज के चान बन गेल ।) (खोंकेचा॰27.9; 59.19)
196 चिनगी (= चिनगारी, तितकी) (धरती गगन हे पिरितिया में, गोर-सांवर बदरा हे लिपटल धरतिया में, सगरे हे एके गुंथल चिनगी ।) (खोंकेचा॰33.3)
197 चिनिया (~ रोग) (मोतियाबिन्द, गंठिया, दम्मा, चिनिया आउ पिल्ही रोग से परेशान - ठार होयल मुश्किल - हाथ में लाठी धरे पड़ल ।) (खोंकेचा॰49.3)
198 चिन्हानी (अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे ।; केल्हुआड़ी हम्मर बाप-दादा के थाती हे, पुरखन के धरोहर हे, भारतीय संस्कृति के चिन्हानी हे ।) (खोंकेचा॰18.2; 47.24)
199 चिमड़ (दोल्हा-पाती घर के बाहर मैदान में कोनो पेड़ के पास खेलल जाहे । खासकर पीपर आउ बरगद के पेड़ के नीचे ई खेल खेले के सहचार हे । पीपर आउ बरगद के डउँघी चिमड़ होवऽ हे - फुस्स से टूटे के डर न रहे - उहे लेल एकरा पर चढ़ के ई खेल खेलल जाहे ।) (खोंकेचा॰61.7)
200 चिरईं-चिरगुनी (कछार के बगान, बगइचा, जंगल-झार के चिरईं-चिरगुनी, हाथी-हरिन कतना जीव-जन्तु मउत के मुँह में समाइत जा रहल हथ ।; मँड़वा में कुम्हार के घर से बनल हाथी, चिरईं-चिरगुनी आउ माटी के खिलौना रखल जाहे ।) (खोंकेचा॰42.13; 69.4)
201 चिरईं-चिरगुन्नी (संस्कार के सूरज निकलऽ हे, धूप मुस्कुरा हे आउ अदमी चिरईं-चिरगुन्नी लेखा चहचहाये लगऽ हे ।) (खोंकेचा॰60.15)
202 चुक्कड़ (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.12)
203 चुनल-बिछल (एक से एक चुनल-बिछल खेल खेलल जाहे गाँव के डघ्घर पर आउ चउमास के खेत में - आम के बगइचा में - अमरूध के बगान में ।) (खोंकेचा॰62.12)
204 चुप्पा-चोरी (इहाँ के फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसला । कोई गर-गवाही न । पूरा केल्हुआड़ी - पूरा गाँव । कोई चुगली न, कोई चुप्पा-चोरी न, सब कुछ खुल्ला - आसमान लेखा साफ, रूआ के फाहा लेखा मोलायम ।) (खोंकेचा॰46.7)
205 चुप्पे-चोरी (बस, लड़का-लड़की के गेरा में बिआह के एगो फन्दा लगा देवल जा रहल हे तइयो बिआह के बचल-खुचल रूप अबहियों झलकऽ हे, हुलकऽ हे आउ चुप्पे-चोरी अप्पन पहिलका ठाट जमौले हे ।) (खोंकेचा॰68.12)
206 चुलबुली (दोल्हा-पाती देखे में खेल हे बाकि ओकर एगो अप्पन जिनगी हे - जिनगी हे हरख आउ हुलस के, जोश आउ जवानी के, हँसी आउ मजाक के, चुस्ती आउ चुलबुली के ।) (खोंकेचा॰65.16)
207 चुहदानी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... चूहा पकड़े ला चुहदानी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.8)
208 चूना-सिरमिट (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰58.29)
209 चूरना-चारना (बिआह के बन्हन बिपत्ति से चुरलो-चारला पर न टूटे, आउ मजगूत बनल जाहे ।) (खोंकेचा॰68.31)
210 छँउकी (आगे चल के भंवारी से कीड़ा-मकोड़ा, कीट-फतिंगा, उड़ंत साँप के खतरा बढ़ गेल । दिमाग में आयल भंवारी में पेड़ के छँउकी इया बाँस के छकुनी, फराठी लगा के रछेया करे के चाही आउ ओइसहीं अदमी कयलक भी ।) (खोंकेचा॰56.1)
211 छकुनी (आगे चल के भंवारी से कीड़ा-मकोड़ा, कीट-फतिंगा, उड़ंत साँप के खतरा बढ़ गेल । दिमाग में आयल भंवारी में पेड़ के छँउकी इया बाँस के छकुनी, फराठी लगा के रछेया करे के चाही आउ ओइसहीं अदमी कयलक भी ।) (खोंकेचा॰56.1)
212 छछनना (हहरइत रहल, छछनइत रहल, खखनइत रहल अदमी प्रकाश ला ।) (खोंकेचा॰23.1)
213 छठ (सुरूज भगवान के छठ बरत में ठेकुआ, शादी-बिआह में लड़ुआ, होली-तीज में पुआ-पकवान, हित-नाता के शरबत, परसउती के गुड़ हरदी, परबइतिन के खरना के खीर में गुड़े के जरूरत पड़ऽ हे ।) (खोंकेचा॰47.18)
214 छठ (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.7)
215 छठ-एतवार (केकरा छठ-एतवार में ऊख चढ़ावे ला हे, कहके एक डाँढ़ तूड़ लावत ।) (खोंकेचा॰44.29)
216 छनौटा (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... धान कूटे ला ओखरी, पकवान बनावे ला छनौटा, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.28)
217 छहलाना (भारत माता के फटेहाल रूप के पहिला दरसन महात्मा गाँधी के इहे पनघट पर भेल हल जब पनघट पर नेहाइत-धोवइत औरत फट्टल-चिट्टल चिथड़ा के पानी पर गरीबी के तेजाब लेखा छहलाइत देखलन आउ भारत माता के अइसन दुर्दशा पर रो देलन ।) (खोंकेचा॰41.24)
218 छान-पगहा (सिद्धार्थ के एगो महल में कैद कर देल गेल - पैर में छान-पगहा बान्ह देवल गेल ।) (खोंकेचा॰54.12)
219 छिछिआना (गुड़ के कीमत कम थोड़े हे । बेपारी छिछिआयल चलाऽ हे - छितरायल फिरऽ हे । शादी-बिआह, मरनी-हरनी, परब-तेयोहार में मधुमखी लेखा भिनभिनाइत चलऽ हे ।) (खोंकेचा॰47.16)
220 छुँहुरी (साफ-सुथरा जगह, पीपर के छाँह, लचकइत डउँघी, डोलइत पत्ता, बरगद के बरोह - मनगर छुँहुरी, कचनार डार, पात, मीठगर मीठगर पीपर आउ बरगद के फर - गुबुर-गुबुर खाय में, फुदुर-फुदुर डाल पर फुदके में - जे आनन्द जे उल्लास दोल्हा-पाती के खेलवइया के मिलऽ हे ऊ बड़का-बड़का शान-शउकत से भरल लाखों-करोड़ों सोना-चानी के ईंटा से मढ़ल स्टेडियम में न मिले ।) (खोंकेचा॰65.28)
221 छेंउकना (= छौंकना) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... तरकारी छेंउके ला छोलनी, आटा चाले ला चलनी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.28)
222 छेंका-पेसगी (दू चार गो बूढ़-पुरनियाँ उहाँ बइठ जयतन आउ अप्पन सुख-दुख के बात, टोला-परोस के चरचा आउ जर-जेवार के कथा-कहानी शुरू कर देतन । इहँई मंगरी के बिआह ठीक हो जायत । माधो के छेंका-पेसगी पड़ जायत ।) (खोंकेचा॰45.20)
223 छोटगर (= छोटा-सा) (दस से पनरह लइकन मिल-जुल के ई खेल खेलऽ हथ । पेड़ के डउँघी इया बाँस के छकुनी के एक से दू हाथ के छोटगर डंडा बना लेवल जाहे ।) (खोंकेचा॰62.30)
224 छोलनी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... तरकारी छेंउके ला छोलनी, आटा चाले ला चलनी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.29)
225 छोहगर (मोहगर आउ छोहगर माय सोहागिन पुतोह के परिछे ला बरिस-बरिस से ललसा लगयले हल ।) (खोंकेचा॰30.25)
226 जखनी (~ ... तखनी) (कुम्हार जखनी चाक चलावऽ हे तखनी सउँसे ब्रह्मांड के चित्र उहाँ दरपन में झलके लगऽ हे ।; जखनी जरूरत पड़ल तखनी तुरंत तइयार ।) (खोंकेचा॰48.7; 50.27)
227 जर-जेवार (दू चार गो बूढ़-पुरनियाँ उहाँ बइठ जयतन आउ अप्पन सुख-दुख के बात, टोला-परोस के चरचा आउ जर-जेवार के कथा-कहानी शुरू कर देतन ।) (खोंकेचा॰45.19)
228 जरना (= जारन; जलावन) (ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप ।; ओन्ने खेत में केतारी छिला रहल हे - एंगारी एक तरफ आउ ऊख के बोझा एक तरफ । एक बोझा छिलऽ - ऊख केल्हुआड़ी में आउ एंगारी घरे । ओकरा से गोरू-डांगर के हरिअर बुतात इया सुखा के पतई बना दऽ । फिर जरना इया मड़ई छावे के काम में लावऽ । कभी-कभी सुक्खल पतई केल्हुआड़ी में जरना के भी काम आवऽ हे बाकि जादे लोग एकरा अप्पन-अप्पन घरहीं ले जयतन, मड़ई छयतन इया सुखा के जरना के काम में ले अयतन ।; सुक्खल चपुआ चुल्हा में झोंकायत इया फिर परब-त्योहार में पकवान बनावे, खाना बनावे, धान उसने में जरना के काम आयत ।) (खोंकेचा॰43.14; 44.5, 6, 7, 19)
229 जराना (= जलाना) (जरवलक त जगमग जगमग, चकमक चकमक - सगरे इंजोर, कोना-सान्ही सब जगह उजाला - सगरे खुशियाली ।; बिआह-शादी, देवी-देवता के पूजा, गृहवास, जन्म-दिन, मंगल कारज, विजय-दिवस के अवसर पर आज भी माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰24.30; 27.1)
230 जरिक्को (= जरा सा भी) (बिजुली के चकाचौंध में भी आज दीया के महातम जरिक्को कम न भेल हे ।) (खोंकेचा॰27.7)
231 जहिया (~ ... तहिया) (केल्हुआड़ी जहिया से शुरू होयत तहिया से गाँव के कुछ घर के भोजन-छाजन उहँई चलत ।) (खोंकेचा॰45.1)
232 जांगर (= जांगड़, जंगरा; शरीर का बल, बूता) (केकर मजाल हे जे सोहाग पर कुदृष्टि डाल देत । ओकर आँख फूट जायत, निरबंस हो जायत, धन-सम्पत्ति बिला जायत, काया कोढ़ी हो जायत, कोख निपुत्तर हो जायत, जांगर थक जायत, कुकुर-सियार के मउअत मिलत ओकरा ।; दोल्हा-पाती हरवाहा इया चरवाहा, लइकन इया जवान खेलऽ हथ । ... जेकर जांगर में फुरती ऊ ई खेल में सेसर, जेकर दिमाग चुलबुल ऊ ई खेल में बिसेसर ।) (खोंकेचा॰32.13; 65.23)
233 जात-कुजात (छोट-बड़, जात-कुजात, धरम-कुधरम के कोई भेद-भाव न ।) (खोंकेचा॰46.17)
234 जितिया (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.7)
235 जिनोरा (= मकई) (जिनोरा आउ मखाना के भी लावा होवऽ हे बाकि बिआह में धाने के लावा भाइए मेरावत ।) (खोंकेचा॰71.1)
236 जुग (= सौभाग्य मनाते हुए दिया जाने वाला उपहार, चूड़ी के जुग; खरीदारी में बिक्रेता द्वारा दी गई अतिरिक्त वस्तु, मंगनी-चंगनी) (सेनुर के साथे 'जुग' देवे के सनचार हे । सेनुरिया रुपइये भरी सेनुर तउल के दे देत बाकि अलग से एगो पुड़िया में 'जुग' जरूर देत । इहे जुग हे - बर आ कन्या, दुल्हा आ दुल्हिन ।) (खोंकेचा॰31.25, 26, 27)
237 जूठगर (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰18.5)
238 जोसगर (= जोशीला) (दोल्हा-पाती किशोर लड़िकन के खेल हे - जोसगर जवान के खेल ।) (खोंकेचा॰61.9)
239 झपास (फिर ओही दुर्दशा - फिर अन्हार । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास - बरइत दीया बुत गेल, घुच-घुच अन्हरिया फिर भूत बन के दउड़े लगल ।) (खोंकेचा॰25.12)
240 झमाठ (= झमठगर) (नया जमाना के नया रीत, विज्ञान के चकाचौंध, विज्ञापन के बरसात, नया पीढ़ी के नया रस्म-रेवाज सब जगह ठाट जमौले हे बाकि गाँव के कनघीच्चो, बाघ-बकरी, ओका-वोका, आन्ही-पानी, अत्ती-पत्ती, गुल्ली-डंटा, चिक्का-कबड्डी, आँख-मिचौनी, गोटी, ताश के खेल झमाठ बर-पीपर लेखा आज भी ज्यों के त्यों अप्पन रूप निखारले हे ।) (खोंकेचा॰64.15)
241 झलासी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... मँड़वा छावे ला बाँस आउ झलासी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।; मँड़वा झलासी से छावल जाहे आउ मूंज के रस्सी से बान्हल जाहे । झलासी के सोभाव बाँसे लेखा । केतनो कोई उजाहे के कोरसिस करे, झलासी उजह न सके । इहाँ तक कि झलासी में आगो लगा देला पर फिन उपज जायत ।; मूंज झलासिए से निकालल जाहे । पानी में भिंगा के खूब चूरल जाहे तब ओकरा से बाँटल रस्सी मँड़वा छावे में काम आवऽ हे ।) (खोंकेचा॰65.7; 68.23, 24, 25, 29)
242 झाँपन (टाट इया कपड़ा के परदा लगाना गरीबी आउ पिछड़ापन के चिन्हानी बन गेल । जदपि कि आज भी गाँव-देहात में खिड़की के झाँपन टाट इया कपड़ा के परदा देखाई देवऽ हे ।) (खोंकेचा॰58.33)
243 झिटका (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰31.1)
244 झिटका-झिटकी (मटखान से मट्टी लायत । पानी डाल के ओकरा फुलायत, फिर लात से धँकच-धँकच के, कचड़-कचड़ के मक्खन लेखा मोलायम बना देत । एकरा बाद लकड़ी के एगो पटरा पर लोंदा के गुंधे लगत । एक्को कंकड़-पत्थल, झिटका-झिटकी न रहे के चाही ।) (खोंकेचा॰50.3)
245 टटरी (पहिले पेड़ के टहनी आउ खर-पात के कुटिया बनयलक । बाँस के टटरी आउ फिर मट्टी के मकान के कहानी बनइत गेल । ठंढ से बचे ला आउ लूक से रछेया ला टटरी के टाइट करतइत गेल बाकि साँस लेवे ला हवा आवे के धेयान हमेशा रहल ।) (खोंकेचा॰55.17, 19)
246 टहकना (टह-टह ~) (जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰31.31)
247 टह-टह (~ टहकना) (जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰31.30)
248 टिकरी (= आग पर सेंकी छोटी रोटी या लिट्टी, छोटा टिक्कड़ या टिक्कर; आटे का चिपटा गोल मीठा पकवान; आटे की एक गोलाकार चिपटी मिठाई) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.9)
249 टिटकारी (~ मारना) (मजदूर दिन-दिन भर रात-रात भर चुल्हा में पतई झोंकऽ हे, बैल के पोंछ पकड़ के टिटकारी मारऽ हे ।) (खोंकेचा॰46.30)
250 टिपनिका (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.26)
251 टुकी (खोंइछा में चाउर के अलावे देल जाहे पाँच टुकी हरदी, दुब्भी आउ पइसा ।) (खोंकेचा॰19.16)
252 टुनकना (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰31.1)
253 टुनकी (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰30.32)
254 टुह-टुह (लाल ~) (कुम्हार के आँवा ओकर सूरज-पिण्ड हे जेकरा में ऊ मट्टी के बनावल सब चीज के पाकवत - लाल भीम - टुह-टुह सिमर के फूल लेखा ।) (खोंकेचा॰50.29)
255 टोंटी (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.11)
256 टोला-परोस (दू चार गो बूढ़-पुरनियाँ उहाँ बइठ जयतन आउ अप्पन सुख-दुख के बात, टोला-परोस के चरचा आउ जर-जेवार के कथा-कहानी शुरू कर देतन ।) (खोंकेचा॰45.18)
257 ठेकुआ (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.8)
258 ठोकना-ठेठाना (ब्रह्म बिआह इया वैदिक रीति से होवेवाला बिआह ... नर-नारी, बर-कन्या, मातृपक्ष-पितृपक्ष, दू खनदान, दू खून, दू जगह, दू देह, दू सोभाव, दू आतमा के पवित्र मिलन मानल गेल हे । एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.16)
259 डउँघी (जउन आग जंगल में पसरल हल, पेड़ के डउँघी में छिपल हल, लकड़ी के अंगीठी में सिमटल हल, दीया आउ ढिबरी में बन्हायल हल, दियासलाई में कैद हल - ऊ अब जेबी में, कुरता के धोकरी में, काठ के सन्दूक में, हाथ के बेग में रखाय लगल ।; दोल्हा-पाती घर के बाहर मैदान में कोनो पेड़ के पास खेलल जाहे । खासकर पीपर आउ बरगद के पेड़ के नीचे ई खेल खेले के सहचार हे । पीपर आउ बरगद के डउँघी चिमड़ होवऽ हे - फुस्स से टूटे के डर न रहे - उहे लेल एकरा पर चढ़ के ई खेल खेलल जाहे ।) (खोंकेचा॰25.31; 61.7)
260 डघ्घर (एक से एक चुनल-बिछल खेल खेलल जाहे गाँव के डघ्घर पर आउ चउमास के खेत में - आम के बगइचा में - अमरूध के बगान में ।) (खोंकेचा॰62.13)
261 डाँढ़ (केतारी के ~) (केकरा छठ-एतवार में ऊख चढ़ावे ला हे, कहके एक डाँढ़ तूड़ लावत ।) (खोंकेचा॰44.30)
262 ढकना (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.11)
263 ढकनी (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.11)
264 ढिबरी (गेयान के कपाट अबकी फिर खुलल आउ बन गेल दीया से ढिबरी ।; ढिबरी के मिरगी धर लेल । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास में थरथरी समा जाय, भुकभुकी के बेमारी आउ फिर फक से जय सियाराम ।) (खोंकेचा॰25.16, 18)
265 ढूल-पत्ता (डोल-पत्ता, ढूल-पत्ता इया दोल्हा-पाती नाम के ई खेल कोनो गाछ-बिरिछ के पास खेलल जाहे - बिल्कुल सपाट मैदान में - खुलल आकाश में आउ साफ हवा में ।) (खोंकेचा॰62.23)
266 तकदेहान (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे । एही से सिन्होरा बड़ी होशियारी से तकदेहान देके बक्शा में बन्द करके बरिआत में ले जायल जाहे ।) (खोंकेचा॰31.2)
267 तखनी (जखनी ... ~) (कुम्हार जखनी चाक चलावऽ हे तखनी सउँसे ब्रह्मांड के चित्र उहाँ दरपन में झलके लगऽ हे ।; जखनी जरूरत पड़ल तखनी तुरंत तइयार ।) (खोंकेचा॰48.7; 50.27)
268 तरहत्थी (सबेर भेल आउ केल्हुआड़ी के मजमा देखे लायक । कोई बाल्टी कोई टीन, कोई लोटा लेके आ रहल हे आउ भर-भर के रस घरे ले जा रहल हे । कोई उहँई गड़गड़ा रहल हे, त कोई घरे जाके खीर घाँट रहल हे आउ कोई तरहत्थी पर चाट रहल हे ।) (खोंकेचा॰43.25)
269 तलाब (= तालाब) (नदी के घाट, तलाब के घाट इया इनार के घाट - जहाँ पानी भरल जाहे, स्नान करल जाहे, पानी पीयल जाहे, कपड़ा-लत्ता फींचल जाहे, गोरू-डांगर धोवल जाहे - ओकरे पुकारल जाहे पनघट के नाम से ।) (खोंकेचा॰34.2)
270 तहिया (जहिया ... ~) (केल्हुआड़ी जहिया से शुरू होयत तहिया से गाँव के कुछ घर के भोजन-छाजन उहँई चलत ।) (खोंकेचा॰45.1)
271 तिलक-दहेज (तिलक-दहेज के जुग में बिआह संस्कार के बहुते रस्म-रेवाज खतम होयल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰68.8)
272 तिलवा (= तिल) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... गाल पर तिलवा, छाती में गोदना, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.1)
273 तीज (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.7)
274 दँतचिहार (सोनार सोना अछइत लंगटा, लोहार लोहा रहइत फकीर, बड़ही लकड़ी अछइत बहिर, पनहेरी पान रखइत दँतचिहार, हजाम छुड़ा-कैंची अछइत उधार, ठठेरा ताम्बा-पीतर अछइत पातर ।) (खोंकेचा॰53.22)
275 दबोरना (कब ले भकोसइत रहत ई आग - कब ले खँखोरइत रहत ई शोला - कब ले दबोरइत रहत ई लफार ?) (खोंकेचा॰24.15)
276 दमखम (चरवाहा के चुलबुल, हरवाहा के हरख, मरदाना के दमखम, हरिन के कुलांच, ...) (खोंकेचा॰35.17)
277 दमाही (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... दमाही में मेह, पटवन में चाँड़ आउ करिंग, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
278 दम्मा (= दमा) (मोतियाबिन्द, गंठिया, दम्मा, चिनिया आउ पिल्ही रोग से परेशान - ठार होयल मुश्किल - हाथ में लाठी धरे पड़ल ।) (खोंकेचा॰49.3)
279 दरिद्दर (एही लेल माटी के दीया जरावल जाहे - अशुभ के प्रतीक, दरिद्दर के प्रतिमान उल्लू के भगावल जाहे ।) (खोंकेचा॰27.24)
280 दिकदारी (निकलइत खानी देखऽ - कइसे ऊ तड़पऽ हे । इन्दरी थक जाहे - हवा के आना-जाना बन्द हो जाहे - साँस लेवे में दिकदारी होवे लगऽ हे, तब उखिल-बिखिल परान खुलल हवा में उड़ल चाहऽ हे ।) (खोंकेचा॰54.6)
281 दिकुर (= दिका, दबर) (झट ~) (लोग कहऽ हथ कि ओकर जीवन सरापित हे । मूरत गढ़ के सूता से झट दिकुर मूड़ी काट देवऽ हे, ओहे से एकर दिन न फिरे ।) (खोंकेचा॰52.17)
282 दीया (~ बारना) (कुम्हार एगो अइसन वर्ग हे जे दीया बार के ढूँढ़लो पर देखाई न देत ।) (खोंकेचा॰52.28)
283 दुअरपूजा (दुआरी पर दुअरपूजा फिर जयमाला-स्वयंवर ।) (खोंकेचा॰72.1)
284 दुब्भी (बेटी पर घर के नारी हे । ऊ केरा के गाछ हे । एक जगह से उखाड़ के दोसर जगह रोपा हे जहाँ पुरइन के पात आउ दुब्भी लेखा फैलइत जाहे, पसरइत जाहे ।; बेटी होवे इया पुतोह, बिदाई के समय ओकरा खोईछा देल जाहे । खोईछा में देल जाहे अरवा चाउर, दुब्भी, हरदी आउ पइसा ।; दुब्भी काट के न लगावल जाय । धरती के साथे जड़ समेत धरतीए में उगावल जाहे । सभाखिन धरती के कोख हे, दुब्भी ओकर संतान ।; भंवारी के हाथ लमहर हे । पैर पसरल हे दुब्भी के जड़ लेखा, पुरइन के पात लेखा ।) (खोंकेचा॰17.18, 26; 21.10, 11; 58.11)
285 दूधार (~ रोना) (भाई बहिन के आम के पत्ता के खोंटी देवऽ हे, फिन पानी । बहिन खोंटी काट के एगो चुक्का में गिरावइत जाहे । बहिन दूधार रोयबो करऽ हे ।) (खोंकेचा॰71.16)
286 देखनगु (पार्वती आउ गणेश के पोशाक, कृष्ण भगवान के 'पीताम्बर' हम्मर संस्कृति में बड़ा देखनगु, पवित्तर आउ महान मानल गेल हे ।; सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।; ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰20.2; 30.32; 58.29)
287 देखनगु-शोभनगु (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰30.32)
288 देखनिहार (... देवी-देवता, राछस-अदमी के मूरती देख के सबके आँख चौंधिया जायत । देखनिहार के धरनिहार लग जायत ।) (खोंकेचा॰51.7)
289 दोंगा (= दुरागमन, द्विरागमन, गौना) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... गउना-दोंगा में पउता-पेहानी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.2)
290 दोल्हा-पाती (= डोल-पत्ता) (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।; दोल्हा-पाती घर के बाहर मैदान में कोनो पेड़ के पास खेलल जाहे ।; डोल-पत्ता, ढूल-पत्ता इया दोल्हा-पाती नाम के ई खेल कोनो गाछ-बिरिछ के पास खेलल जाहे - बिल्कुल सपाट मैदान में - खुलल आकाश में आउ साफ हवा में ।; पारा पारी डंडा फेंक के लइका के छूना आउ डंडा के सूँघना - इहे खेल हे दोल्हा-पाती ।; दोल्हा-पाती हरवाहा इया चरवाहा, लइकन इया जवान खेलऽ हथ ।) (खोंकेचा॰61.1; 62.23; 63.17; 65.20)
2 अँगऊ (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... बाबाजी के अँगऊ,... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
3 अंगेया (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... बिआह में पैरपूजी, समधी मिलन, बड़ के अंगेया, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.3)
4 अखरखन (अदमी के बन्हुआ मजूर लेखा बूझे लगलन । फिर का ? अखरखन जादे दिन न निबहे, चलती सब दिन एके समान न रहे ।) (खोंकेचा॰48.24)
5 अगराना (अदमी के खुशी के ठिकाना न । ऊ इतराय लगल, अगराय लगल ।; धरती माय के गोद, किरखी मइया के कोख प्यार से सटा लेवऽ हे अप्पन बुतरू के । हवा ओकरा सुघरावऽ हे, आकास ओकरा अगरावऽ हे ।) (खोंकेचा॰26.8; 65.26)
6 अगिलका (इन साल के हिसाब-किताब आउ अगिलका साल के योजना बनावल जायत इहँई । कभी-कभी कचहरी के रूप धारन कर लेत केल्हुआड़ी ।) (खोंकेचा॰45.21)
7 अच्छत (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.8)
8 अछइत (= छइते; रहते) (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।; सोनार सोना अछइत लंगटा, लोहार लोहा रहइत फकीर, बड़ही लकड़ी अछइत बहिर, पनहेरी पान रखइत दँतचिहार, हजाम छुड़ा-कैंची अछइत उधार, ठठेरा ताम्बा-पीतर अछइत पातर ।) (खोंकेचा॰42.10; 53.21, 22, 23)
9 अझुरहट (अदमी के रहता सूझइत गेल - अझुरहट मेंटइत गेल - अटपटाहट छँटइत गेल - कुहा सँसरइत गेल आउ लउकइत गेल मंजिल के दुआर ।) (खोंकेचा॰24.28)
10 अटपटाहट (अदमी के रहता सूझइत गेल - अझुरहट मेंटइत गेल - अटपटाहट छँटइत गेल - कुहा सँसरइत गेल आउ लउकइत गेल मंजिल के दुआर ।) (खोंकेचा॰24.28)
11 अता-पता (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.17)
12 अत्ती-पत्ती (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
13 अदमी (= आदमी) (सृष्टि पर पहिले पानी आयल तब अदमी । पानी में अमीवा, घोंघा, सितुहा, बेंग, बेंगुची, मेंढ़क, बानर, बनमानुख - फिर अदमी, इहे क्रमवार विकास के सिलसिला मानल गेल हे अदमी के ।) (खोंकेचा॰34.12, 13)
14 अनठाना (विनती सुनइत सुनइत ब्रह्मा घठा गेलन - सुरूज अनठा देलन ।) (खोंकेचा॰23.18)
15 अन्हरिया (फिर ओही दुर्दशा - फिर अन्हार । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास - बरइत दीया बुत गेल, घुच-घुच अन्हरिया फिर भूत बन के दउड़े लगल ।) (खोंकेचा॰25.12)
16 अपसवारथी (अदमी के संस्कार एगो कोठरी में सिमट के कछुआ लेखा बन गेल हे । अदमी अपसवारथी हो गेल । पास-पड़ोस से कोई मतलब न रह गेल ।) (खोंकेचा॰59.16)
17 अमोला (जादे मीठा बनबे त सब रस चाभ के आँठी लेखा फेंक देतउ । बाकि तू माय हे, ममता के मूरती । आँठियो से अमोला बन के तू सृष्टि के सिरजन करइते रहबे ।) (खोंकेचा॰71.26)
18 अरउआ (बैल के पीछे एगो अदमी अरउआ लेके हाँक रहल हे ।; नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... किसान के हाथ में खनती, हरवाहा के हाथ में अरउआ, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰44.14; 64.27)
19 अरघ (= अरग, अर्घ्य) (कातिक में छठ के अवसर पर पनघट धरती पर सरग उतार के रख देवऽ हे । चारो ओर धूप-दीप के गन्ह, अरघ के परसादी के मीठगर महक, पिअर-पिअर वस्त्र के चमक 'पीताम्बरधारी' कृष्ण के साक्षात् दरसन करा देहे ।; नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... छठी मइया के अरघ में बाँस के कोलसूप, छठ के परसादी में ठेकुआ आउ कसार, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰36.24; 64.24)
20 अरघा (नीचे एगो टीन के अरघा बनावल हे जेकरा से रस बाल्टी इया टब में छन रहल हे । नीचे एगो अदमी बइठ के ऊख लगा रहल हे । एन्ने रस आउ ओन्ने चपुआ निकल रहल हे ।) (खोंकेचा॰44.16)
21 अरमना (खेल खेलना जरूरी हे - शरीर में फुरती-जोश आउ जवानी ला - अरमना आउ सीख-बूझ ला ।) (खोंकेचा॰62.19)
22 अरवा (~ चाउर) (अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे । अरवा चाउर निरउठ आ पवित्तर मानल जाहे । धान के सीधे सुखा के कूटला पर अरवा चाउर कहल जाहे ।; शुभ कारज-परोज आ पूजा-पाठ में अरवे चाउर के प्रयोग कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰18.1, 2, 3, 6)
23 अराधना (= आराधना) (नइहर के लोग भगवान से विनती करऽ हथ - 'हे भगवान, हम्मर बेटी दोसर के घर जा रहल हे । एकर पैरूख ससुरार ला शुभ निकले । मंगल भरल आंगछ से हम्मर बेटी ससुरार में रस-बस जाय ।' इहे असीरबाद, मंगल कामना, देव-पितर के अराधना छिपल हे खोंइछा के चाउर में ।) (खोंकेचा॰18.31)
24 अलमुनिया (डिजाइन आउ मॉडल के आधार पर कल-करखाना में तइयार होवे लगल लोहा-लक्कड़, पीतल-ताम्बा, अलमुनिया-पलास्टिक, मट्टी आउ पत्थल से ओकर विशाल रूप ।) (खोंकेचा॰49.27)
25 अलोपित (भगजोगनी बेचारी अइसन भागल कि धरती पर से अलोपित हो गेल ।) (खोंकेचा॰26.26)
26 असकत (= आसकत, आलस्य, सुस्ती) (कभी-कभी सासा, ननद, गोतनी घर से बाहर निकले के असकत से पड़ोसिन के साथे बातचीत, लेन-देन इहे भंवारी कर लेत ।) (खोंकेचा॰57.28)
27 असमान (= आसमान) (एकर जड़ पताल तक पसरल हे - असमान तक फैलल हे ।) (खोंकेचा॰61.23)
28 असीरबाद (= आशीर्वाद) (सोहागिन के सोहाग सिन्होरा में, सूजर लेखा फबइत सेनुर में, बूढ़-पुरनिया के असीरबाद में, देवी-देवता के बरदान में समेटल रहऽ हे ।) (खोंकेचा॰30.29)
29 असीरबादी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... असीरबादी में अच्छत, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.4)
30 अहथिर (= स्थिर) (पनघट आकाश लेखा अगम, पवन लेखा चंचल, आग लेखा अहथिर, क्षिति लेखा अनन्त जल लेखा शीतल हे ।) (खोंकेचा॰36.1)
31 आ (= आउ; और) (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे ।; शुभ कारज-परोज आ पूजा-पाठ में अरवे चाउर के प्रयोग कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰18.3, 6)
32 आँठी (जादे मीठा बनबे त सब रस चाभ के आँठी लेखा फेंक देतउ । बाकि तू माय हे, ममता के मूरती । आँठियो से अमोला बन के तू सृष्टि के सिरजन करइते रहबे ।) (खोंकेचा॰71.25)
33 आंगछ (= पौरा; किसी व्यक्ति, पशु या वस्तु के आने, प्राप्ति या सम्पर्क का शुभ या अशुभ फल) (बेटी के पैर पैरूख हे - ओकर गुन, सोभाव, आंगछ, लच्छन ओकरा में छिपल हे ।; नइहर के लोग भगवान से विनती करऽ हथ - 'हे भगवान, हम्मर बेटी दोसर के घर जा रहल हे । एकर पैरूख ससुरार ला शुभ निकले । मंगल भरल आंगछ से हम्मर बेटी ससुरार में रस-बस जाय ।' इहे असीरबाद, मंगल कामना, देव-पितर के अराधना छिपल हे खोंइछा के चाउर में ।) (खोंकेचा॰18.25, 30)
34 आगू (आज जादे बिआह बेमेले हो रहल हे । पइसा के आगू मेल-जोल, गुन-सोभाव के कोई बात खटाई में पड़ जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰68.9)
35 आझ (आझ भी ब्रज में, गोकुल में, मथुरा में, वृन्दावन के पनघट पर द्वापर के कृष्ण के इयाद में तरह-तरह के मेला, रासलीला, लठमार होरी मनावल जाहे ।; दोल्हा-पाती आझ से न आदम बाबा के जुग से खेले के चलनसार चलल आवइत हे ।; दीदी ! मत रो । आझ से अप्पन हिरदा आम के पत्ता लेखा कसईंधा कर ले ।) (खोंकेचा॰38.33; 61.12; 71.17)
36 आन-जान (भुरकी आउ भंवारी हवा के आवे-जाये के रहता तो हइए हल ओकर अलग अप्पन संस्कृति हे - ऊ हे पिछुती के सखी-सलेहर, पड़ोसिन के साथे घर में बइठले-बइठले आव-भगत, सुख-दुख के बातचीत, अप्पन पराया के पहचान, आन-जान आउ हेल-मेल के बरकरार रखे के साधन ।) (खोंकेचा॰56.26)
37 आन्हर (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।) (खोंकेचा॰42.10)
38 आन्ही-पानी (भोजन पकावइत गेल, जीव-जन्तु के लाश झोलइत गेल आग पर । सवाद के चस्का बढ़इत गेल, बाकि आन्ही-पानी के चपेट से ओकर रछेया कयल मुश्किल होवे लगल ।; केतना हवा-बतास, आन्ही-पानी आयल बाकि ई खेल जस के तस जामुन के लकड़ी लेखा, सखुआ के काठ लेखा कठुआयल रहल ।) (खोंकेचा॰24.25; 61.15)
39 आन्ही-बतास (फिर ओही दुर्दशा - फिर अन्हार । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास - बरइत दीया बुत गेल, घुच-घुच अन्हरिया फिर भूत बन के दउड़े लगल ।) (खोंकेचा॰25.11)
40 आपा-धापी (काहे ला दउड़-धूप, आपा-धापी, आगा-पीछा करे जाय बेचारा किसान ।) (खोंकेचा॰47.12)
41 आपुस (= आपस) (आपुस में बातचीत, संकेत-इसारा, समझ-बूझ, भाव-भंगिमा के शुरुआत भेल ।) (खोंकेचा॰54.21)
42 आमछाप (~ लुगा) (एकरा नेग में का मिलत ओहे पाँड़ेमार धोती आउ आमछाप लुगा, बस ।) (खोंकेचा॰51.17)
43 आले-औलादे (एकर काम में मददगार ओकर औरत आउ लड़कन-फड़कन । न कोई टरेनिंग न कोई डिगरी । खानदानी पेशा के खानदानी रूप आले-औलादे चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰49.33)
44 आवन-जावन (पनघट ... उहाँ भी दुख-दरद के आवन-जावन होइत रहऽ हे ।) (खोंकेचा॰41.32)
45 आहार-बेयोहार (अरवा चाउर हम्मर रीत-रेवाज, आहार-बेयोहार, संस्कार आउ संस्कृति में रसल-बसल हे ।) (खोंकेचा॰18.22)
46 इंगरउटी (= इंगुर रखने की डिबिया या पात्र, सिन्होरा) (अतना शक्ति हे छिपल चुटकी भर सेनुर में जेकरा सहेज के रखऽ हे सिन्होरा, कीया आ सबसे छोटा इंगरउटी ।) (खोंकेचा॰32.25)
47 इंगोरा (लाल दहके इंगोरा सुरूजवा किरन, अँखिया चउँध जाय देखते सेनुरवा के ।) (खोंकेचा॰32.19)
48 इनरासन (अइसन सुन्नर कि इनरासन में बइठे ला अपने आप जगह सुरच्छित हो जाय एही भाव हे हरदी देवे के ।) (खोंकेचा॰19.28)
49 इनसाल (= ई साल, इस साल) (इन साल के हिसाब-किताब आउ अगिलका साल के योजना बनावल जायत इहँई । कभी-कभी कचहरी के रूप धारन कर लेत केल्हुआड़ी ।) (खोंकेचा॰45.21)
50 इनार (= कुआँ) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... इन्नर भगवान के पूजा में इनार, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.32)
51 इन्नर (= इन्द्र) (इन्नर देवता के धेयान लगावत, विनती करत, हथजोड़ी करत आ मांगत अमरित के भण्डार भरल रहे, जग-जहान के जीव-जन्तु जिन्दा रहे ।) (खोंकेचा॰36.8)
52 ईंटा-पत्थल (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰58.29)
53 उकिल-बिकिल (= उखिल-बिखिल) (मेहरारू मर गेल साँप के काटे से, भालू उठा ले गेल छव महीना के बुतरु के, बाघ बिधुन के खा गेल बूढ़ा बाप के । ... मन उकिल-बिकिल होवे लगल ।; ओकरा कोठरी में - कोनो एकान्त जगह में बन्द कर देवल जायत तो ऊ उकिल-बिकिल हो ही जायत ।) (खोंकेचा॰23.6; 54.10)
54 उखिल-बिखिल (निकलइत खानी देखऽ - कइसे ऊ तड़पऽ हे । इन्दरी थक जाहे - हवा के आना-जाना बन्द हो जाहे - साँस लेवे में दिकदारी होवे लगऽ हे, तब उखिल-बिखिल परान खुलल हवा में उड़ल चाहऽ हे ।) (खोंकेचा॰54.6)
55 उछाँह (= उछाह, उत्साह) (बाँटेवाला के मन के उछाँह ओतने जेतना सदाबरत बाँटेवाला के ।) (खोंकेचा॰45.12)
56 उछाह (= उत्साह) (इहे हम्मर गाँव, गाँव के हम निवासी आउ निवासी के हिरदा के हुलास आउ मन के उछाह हे केल्हुआड़ी ।) (खोंकेचा॰46.24)
57 उजहना (= समाप्त होना) (बाँस के बंसरोपन मानल गेल हे । बाँस काट के न रोपाय, जड़ से उखाड़ के एक जगह से दूसरा जगह लगावल जाहे । बाँस के कतनो काटल जाय, उजह न सकऽ हे, कोंपल फेंकइते जायत ।; मँड़वा झलासी से छावल जाहे आउ मूंज के रस्सी से बान्हल जाहे । झलासी के सोभाव बाँसे लेखा । केतनो कोई उजाहे के कोरसिस करे, झलासी उजह न सके । इहाँ तक कि झलासी में आगो लगा देला पर फिन उपज जायत ।) (खोंकेचा॰68.17, 24)
58 उजाहना (= समाप्त करना, उजाड़ना) (मँड़वा झलासी से छावल जाहे आउ मूंज के रस्सी से बान्हल जाहे । झलासी के सोभाव बाँसे लेखा । केतनो कोई उजाहे के कोरसिस करे, झलासी उजह न सके । इहाँ तक कि झलासी में आगो लगा देला पर फिन उपज जायत ।) (खोंकेचा॰68.24)
59 उज्जर (सेनुरदान फह-फह उज्जर सन से करावल जाहे । एकर भाव ई हे कि माय के केस सन लेखा उज्जर होयलो पर सोहाग अचल रहे ।) (खोंकेचा॰31.17)
60 उसनना (= उसीनना; उष्ण करना) (नीचे एगो अदमी बइठ के ऊख लगा रहल हे । एन्ने रस आउ ओन्ने चपुआ निकल रहल हे । सुक्खल चपुआ चुल्हा में झोंकायत इया फिर परब-त्योहार में पकवान बनावे, खाना बनावे, धान उसने में जरना के काम आयत ।) (खोंकेचा॰44.19)
61 उसीनना (= उसनना; उष्ण करना) (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰18.4)
62 उसीना (~ चाउर) (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰18.4, 5)
63 एंगारी (= अंगेरी, अंगेरा, अगेरा) (ओन्ने खेत में केतारी छिला रहल हे - एंगारी एक तरफ आउ ऊख के बोझा एक तरफ । एक बोझा छिलऽ - ऊख केल्हुआड़ी में आउ एंगारी घरे । ओकरा से गोरू-डांगर के हरिअर बुतात इया सुखा के पतई बना दऽ । फिर जरना इया मड़ई छावे के काम में लावऽ ।) (खोंकेचा॰44.3)
64 एतवार (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.8)
65 एन्ने (~ ... ओन्ने) (एन्ने बरिआत खा-पीके नाच-गान में मशगूल आउ ओन्ने मँड़वा में बिआह के रस्म-रेवाज शुरू ।) (खोंकेचा॰72.2)
66 ओंठघन (= ओंठगन) (अब चौकोना काठ के भंवारी बनावल गेल आउ ओकरा में लकड़ी, बाँस के ओंठघन इया लोहा के छड़ चार-पाँच अंगुरी के दूरी पर रोकट लगा देवल गेल आउ ओही बन गेल जंगला ।) (खोंकेचा॰56.7)
67 ओका-वोका (= ओक्का-वोका) (नया जमाना के नया रीत, विज्ञान के चकाचौंध, विज्ञापन के बरसात, नया पीढ़ी के नया रस्म-रेवाज सब जगह ठाट जमौले हे बाकि गाँव के कनघीच्चो, बाघ-बकरी, ओका-वोका, आन्ही-पानी, अत्ती-पत्ती, गुल्ली-डंटा, चिक्का-कबड्डी, आँख-मिचौनी, गोटी, ताश के खेल झमाठ बर-पीपर लेखा आज भी ज्यों के त्यों अप्पन रूप निखारले हे ।) (खोंकेचा॰64.13)
68 ओक्का-वोका (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
69 ओखरी (= ऊखल) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... धान कूटे ला ओखरी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.28)
70 ओझागुनी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... ओझागुनी के भभूत, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.4)
71 ओटा-दीरखा (एही लेल घर के कोना-सान्ही, ओटा-दीरखा, छत-मुंडेर सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰27.26)
72 ओन्ने (एन्ने ... ~) (एन्ने बरिआत खा-पीके नाच-गान में मशगूल आउ ओन्ने मँड़वा में बिआह के रस्म-रेवाज शुरू ।) (खोंकेचा॰72.2)
73 ओसउनी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... ओसउनी में सूप, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
74 कँवाची-फराठी (भंवारी में लकड़ी इया बाँस के कँवाची-फराठी लगा के आड़ कर देवल गेल ताकि कीट-फतिंगा कोठरी में भीतर न घुस सके ।) (खोंकेचा॰56.3)
75 कंकड़-पत्थल (एकरा बाद लकड़ी के एगो पटरा पर लोंदा के गुंधे लगत । एक्को कंकड़-पत्थल, झिटका-झिटकी न रहे के चाही । ... एक्को कंकड़-पत्थल मिल जायत तो ओकर सब मेहनत गुरमाटी । सब कयल-धयल पर पानी फिर जायत ।) (खोंकेचा॰50.3, 5)
76 ककहरा (भारती के शास्त्रार्थ में पराजित होयला पर शंकराचार्य इहे पनघट पर आके 'यौनशिक्षा’ के ककहरा पढ़ना शुरू कयलन ।; ओकर बनावल सुरसती के पूजा करके लोग बड़का-बड़का बिदमान, बुद्धिमान, कलक्टर, औफिसर, डाक्टर, इंजीनियर बन जयतन बाकि एकर बाल-बच्चा, बेटा-बेटी, औरत-पुतोह ककहरा भी न जाने । ऊ सोचऽ हे, ककहरा जान के, पोथी-पतरा पढ़ के का करब ? ई धन्धा कइसे चलत, पेट कइसे भरत ?) (खोंकेचा॰37.13; 51.22)
77 कचड़ना (मटखान से मट्टी लायत । पानी डाल के ओकरा फुलायत, फिर लात से धँकच-धँकच के, कचड़-कचड़ के मक्खन लेखा मोलायम बना देत ।) (खोंकेचा॰50.2)
78 कचवनियाँ (= कच्चे आटे में मेवा, घी, शक्कर आदि मिलाकर बनाया लड्डू, कसार) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.8)
79 कठुआना (केतना हवा-बतास, आन्ही-पानी आयल बाकि ई खेल जस के तस जामुन के लकड़ी लेखा, सखुआ के काठ लेखा कठुआयल रहल ।) (खोंकेचा॰61.16)
80 कनघीच्चो (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
81 कनबहरी (सबके मुँह पर ताला, आँख में रतौंधी, कान में कनबहरी, दिमाग में भरेठ आउ हिरदा में गरदा समा गेल हे ।) (खोंकेचा॰64.10)
82 कनबहिर (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।) (खोंकेचा॰42.10)
83 कनेया (= कन्या) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... कनेया के अँचरा में खोंइछा के चाउर, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.21)
84 कपटी (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.12)
85 करखाना (= कारखाना) (आज नदी, झील, झरना, तलाब, आहर, पोखर, सब जगह पनघट आँसू बहा रहल हे । ओकर कोख फैक्ट्री के गन्दला से, शहर के नाली से, करखाना के प्रदूषित जल से कहँर रहल हे ।) (खोंकेचा॰42.3)
86 करमी (इहाँ केल्हुआड़ी हे - गाँव के सनमत हे । एक गाँव के बात रहे तब न । ई तो सगरे जेवारे-जेवारे करमी के पात लेखा पसरल हे ।) (खोंकेचा॰46.20)
87 कराह (= कड़ाह) (कल-कराह-केल्हुआड़ी गाँव भर के बाल-बुतरू, बूढ़ा-जवान के अरमान । गाँव के केल्हुआड़ी गाँव के संस्कृति - गाँव के रीत-रेवाज, बात-बेयोहार, रहन-सहन, आचार-विचार, मेल-मिलाप, खान-पान, सुख-दुख के संगम हे ।; ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप ।) (खोंकेचा॰43.1, 13, 14)
88 करिंग (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... दमाही में मेह, पटवन में चाँड़ आउ करिंग, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
89 करीगरी (= कारीगरी) (गेयान के कपाट खुलल - बुद्धि के करीगरी करुणा से करामात में बदल गेल । अब आग पर ओकर अधिकार हो गेल - प्रकृति के भयंकर प्रभाव पर ओकर कब्जा हो गेल ।; ताजमहल के चांदनी रूप, खजुराहो के मूरत में करीगरी के चमत्कार, कोणार्क के सूर्यमन्दिर में संगीत के गूंज इहे पनघट के परतछ रूप हे ।) (खोंकेचा॰24.20; 38.14)
90 करूआ (~ तेल) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... मालिश ला करूआ तेल, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.6)
91 कलटना (= एक ओर झुकना; एकवई होना, तिरछा होना, झुक जाना; अपनी जगह से हटना; दुख झेलना) (तड़प-तड़प के लहकइत रहल, खखन-खखन के जरइत रहल । काँपइत रहल अदमी - छटपटाइत रहल बुद्धि भरल अदमी - कलटइत रहल कुल-परिवार ।) (खोंकेचा॰24.11)
92 कलशा (= कलश) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, मंडप में कलशा, हाथ में डंडा, बरतन के बीच बरहगुना, पूजा-पाठ में चरनामरित, .... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.18)
93 कल्ह (एही से दोल्हा-पाती आज भी जिन्दा हे आउ भविष्य में भी जीवित रहत ओतने शान-सउकत के साथ ओतने महिमा-गरिमा के साथ जेतना कल्ह हल आउ आज भी हे ।) (खोंकेचा॰66.6)
94 कवांची (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।) (खोंकेचा॰32.5)
95 कसईंधा (दीदी ! मत रो । आझ से अप्पन हिरदा आम के पत्ता लेखा कसईंधा कर ले ।; थोड़ा सह, थोड़ा अकड़ - ठीक आम लेखा थोड़ा मीठा थोड़ा खट्टा । कसईंधा बन के जी ।) (खोंकेचा॰71.17, 24)
96 कसार (= चावल के आटे में घी शक्कर मिलाकर बनाया लड्डू, कचवनियाँ ) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।; नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... छठी मइया के अरघ में बाँस के कोलसूप, छठ के परसादी में ठेकुआ आउ कसार, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰18.8; 64.24)
97 कहिया (= कब; कहियो = कभी भी) (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे । आज एकरा लोग ढोंग आउ रद्दी के टोकरी में फेंकल कागज के समान समझे लगलन हे । बाकि ऊ लोग एकर महातम सवीकार करतन जिनका अप्पन घरनी से कहियो पटरी न खायल ।) (खोंकेचा॰68.3)
98 काना-फूस्सी (सास मेला-हाट गेल हे, शादी-बिआह में घर से बहरिआयल हे, ननद अप्पन सखी-सलेहर में मस्त हे, गोनी काना-फूस्सी में मगन हे, नया-नोहर औरत के गोदी में दुधमुँहा बच्चा हे, ओकरा बेमारी हो गेल हे - हाबा-डाबा धर लेल हे - गोड़ में पिंड़री चढ़ रहल हे - मरदाना खेत-खरिहान में, ऑफिस-कचहरी में काम करे निकसल हे, अइसन स्थिति में का करे बेचारी रजमतिया ।) (खोंकेचा॰57.12)
99 कान्हा (= कन्धा) (हरीश हर के एक भाग हे जेकरा से पालो के साथ-साथ बैल के कान्हा पर रखल जाहे ।) (खोंकेचा॰69.8)
100 कारज (बिआह-शादी, देवी-देवता के पूजा, गृहवास, जन्म-दिन, मंगल कारज, विजय-दिवस के अवसर पर आज भी माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰26.33)
101 कारज-परोज (भारतीय संस्कृति में नर-नारी दुन्नो के बराबर सम्मान देल गेल हे । सुरसती, लछमी के साथे-साथे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के भी पूजा कयल जाहे । इहे कारण हे कि बिआह-शादी, कारज-परोज में पति-पत्नी दुन्नो गेंठी जोड़ के बइठऽ हथ आ पूजा-पाठ के बिधि पूरा करऽ हथ ।; शुभ कारज-परोज आ पूजा-पाठ में अरवे चाउर के प्रयोग कयल जाहे ।; गाँव के बगइचा, तलाब, देवस्थल, अखाड़ा, बइठका, चौपाल, परब-त्योहार, सड़क-गली, चौराहा, चरवाही, कीरतन मंडली, शादी-बिआह, कारज-परोज के बारे में इहँई निरनय होयत आउ जे निरनय होयत ऊ ब्रह्मा के लकीर - सब केउ भगवान के चरनामरित लेखा सिर चढ़ावत - आँख मून के सिरोधार्य करत ।) (खोंकेचा॰17.22; 18.6; 46.1)
102 कारज-परोजन (कोनो कारज-परोजन के सूचना देवे ला हे, बयना-पेहानी पेठावे ला हे, चुप्पे-चोरी कोई सामान देवे ला हे तब इहे भंवारी काम देवऽ हे ।) (खोंकेचा॰57.29)
103 किकुरना (विधान सभा आउ संसद एकर झोपड़िए में किकुरल हे ।) (खोंकेचा॰52.13)
104 किरखी (= कृषि) (धरती माय के गोद, किरखी मइया के कोख प्यार से सटा लेवऽ हे अप्पन बुतरू के ।) (खोंकेचा॰65.25)
105 किरिन (= किरिंग; किरण) (जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰31.30)
106 कीया (= किऔरी; सूखा सिन्दूर रखने की छोटी डिबिया) (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।; अतना शक्ति हे छिपल चुटकी भर सेनुर में जेकरा सहेज के रखऽ हे सिन्होरा, कीया आ सबसे छोटा इंगरउटी ।) (खोंकेचा॰32.4, 25)
107 कुँहड़ (बेमेल बिआह जिनगी भर के कुँहड़, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बर्बाद, सब के संस्कार खराब ।) (खोंकेचा॰68.5)
108 कुच-कुच (~ करिया) (रात घुच-घुच अन्हरिया - कुच-कुच करिया रात ।) (खोंकेचा॰23.21)
109 कुदारी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... खेत कोड़े ला कुदारी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.8)
110 कुल-खनदान (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।; हम्मर कुल-खनदान के नामहँसी न होवे के चाही ।) (खोंकेचा॰67.16; 71.26)
111 कुहा (अदमी के रहता सूझइत गेल - अझुरहट मेंटइत गेल - अटपटाहट छँटइत गेल - कुहा सँसरइत गेल आउ लउकइत गेल मंजिल के दुआर ।; जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰24.28; 31.31)
112 केंवाड़ी (= किवाड़) (खिड़की कोनो पदारथ थोड़े हे । ऊ तो हिरदा के हुलस, मन के पीड़ा, बुद्धि आउ विवेक के केंवाड़ी हे । बुद्धि के केंवाड़ी खुल्ला रहे के चाही ।) (खोंकेचा॰60.6)
113 केतवर (= केतवड़; कितना; तु॰ एतवर, एतवड़) (केतवर बड़का यज्ञ ऊ करवा रहल हे - केतना बड़का इन्तजाम ।) (खोंकेचा॰44.1)
114 केतारी (= ईख, ऊख, गन्ना) (ओन्ने खेत में केतारी छिला रहल हे - एंगारी एक तरफ आउ ऊख के बोझा एक तरफ ।) (खोंकेचा॰44.3)
115 केल्हुआड़ी (= कोलसार) (कल-कराह-केल्हुआड़ी गाँव भर के बाल-बुतरू, बूढ़ा-जवान के अरमान । गाँव के केल्हुआड़ी गाँव के संस्कृति - गाँव के रीत-रेवाज, बात-बेयोहार, रहन-सहन, आचार-विचार, मेल-मिलाप, खान-पान, सुख-दुख के संगम हे ।) (खोंकेचा॰43.1, 2)
116 केवाल (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... माथ मले ला केवाल के मट्टी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.29)
117 केस-मोकदमा (ऊ लोग एकर महातम सवीकार करतन जिनका अप्पन घरनी से कहियो पटरी न खायल । तलाक, मार-पीट, झगड़ा-तकरार, केस-मोकदमा सौ तरह के जंजाल ।) (खोंकेचा॰68.3)
118 कोना-सान्ही (जरवलक त जगमग जगमग, चकमक चकमक - सगरे इंजोर, कोना-सान्ही सब जगह उजाला - सगरे खुशियाली ।; एही लेल घर के कोना-सान्ही, ओटा-दीरखा, छत-मुंडेर सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰24.31; 27.26)
119 कोरसिस (अदमी जलमइते - बचपने से चतुर-सुजान हृष्ट--पुष्ट बने के कोरसिस करे लगऽ हे ।) (खोंकेचा॰62.22)
120 कोलसूप (तुलसी के चउरा, देवी-देवता के मन्दिल, मंगल-कलश, गंगा के कछार, सुरूज बाबा के कोलसूप, पर्व-त्योहार के अरघ, पूजा-पाठ में भगवान के आरती, बाहर-भीतर, घर-आंगन - सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।; गाँव के कनघीच्चो, बाघ-बकरी, .... के खेल झमाठ बर-पीपर लेखा आज भी ज्यों के त्यों अप्पन रूप निखारले हे । ओतने महत्व रखले हे जेतना होरी में रंग-अबीर, दीवाली में दीया आउ सलाई, छठ में कोलसूप आउ खरना के खीर के महातम हे ।) (खोंकेचा॰27.4; 64.17)
121 कोल्हुआड़ी (= केल्हुआड़ी) (कोल्हुआड़ी जब चालू होयत तो एक्के साथ । जगह जमीन के कमी होयला पर बारी-बारी से सभे अप्पन-अप्पन ऊख के पेराई करतन ।) (खोंकेचा॰46.15)
122 कोहबर (कोई बिआह के गीत गा रहल हे, ... कोई पउता-पेहानी सजा रहल हे, कोई कॉपी में नेवता-हँकारी लिख रहल हे, कोई मर-मजाक में डूबल हे, साली-सरहज कोहबर लिखे में व्यस्त हे ।) (खोंकेचा॰30.20)
123 खँखोरना (= खखोरना) (कब ले भकोसइत रहत ई आग - कब ले खँखोरइत रहत ई शोला - कब ले दबोरइत रहत ई लफार ?) (खोंकेचा॰24.15)
124 खखनना (हहरइत रहल, छछनइत रहल, खखनइत रहल अदमी प्रकाश ला ।; शेर-चीता, बाघ-भालू, सियार-हरिन, साँप-छुछुन्दर, खरगोश, बनबिलार - सब जर के राख । पंछी फड़फड़ा के रह गेल । तीन हाथ के अदमी, दू पैर के अदमी का करे - कहाँ जाय ? तड़प-तड़प के लहकइत रहल, खखन-खखन के जरइत रहल ।) (खोंकेचा॰23.1; 24.10)
125 खनती (= खनित्र) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... किसान के हाथ में खनती, हरवाहा के हाथ में अरउआ, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.27)
126 खनदान (= खानदान) (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.16)
127 खरना (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।; सुरूज भगवान के छठ बरत में ठेकुआ, शादी-बिआह में लड़ुआ, होली-तीज में पुआ-पकवान, हित-नाता के शरबत, परसउती के गुड़ हरदी, परबइतिन के खरना के खीर में गुड़े के जरूरत पड़ऽ हे ।) (खोंकेचा॰18.7; 47.20)
128 खर-पात (पहिले पेड़ के टहनी आउ खर-पात के कुटिया बनयलक । बाँस के टटरी आउ फिर मट्टी के मकान के कहानी बनइत गेल ।) (खोंकेचा॰55.17)
129 खानी (= खनी; क्षण, पल, समय) (निकलइत खानी देखऽ - कइसे ऊ तड़पऽ हे । इन्दरी थक जाहे - हवा के आना-जाना बन्द हो जाहे - साँस लेवे में दिकदारी होवे लगऽ हे, तब उखिल-बिखिल परान खुलल हवा में उड़ल चाहऽ हे ।) (खोंकेचा॰54.4)
130 खिलकट (बीतल आउ देखल खिलकट संगोरइत गेल । प्रकाश के फिन गोड़ लगलक, विनती कयलक - 'ओऽम् तमसो मा ज्योतिर्गमय' ।) (खोंकेचा॰23.14)
131 खुरबुदी (ओही तरह सुग्गा, मैना, खुरबुदी, कउआ, चील्ह, बाज, बटेर, गरुड़, मोर, बगेड़ी जइसन धरती-आकाश में चले आउ उड़ेवाला जीव-जन्तु के बोलइत मूरत बना के धर देत ।) (खोंकेचा॰50.14)
132 खुल्ला (= खुला) (बुद्धि के केंवाड़ी खुल्ला रहे के चाही ।; खिड़की खुल्ला रहला पर सब कुछ साफ-साफ देखाई देवऽ हे ।; खिड़की खुल्ला रहे से मानवता जिन्दा रहऽ हे ।) (खोंकेचा॰60.6, 9, 11)
133 खूँटाठोक (~ बरिआर) (ई खेल अदमी के उत्पत्ति के साथ-साथ उत्पन्न भेल । पुरान हे इतिहास एकर आउ खूँटाठोक बरिआर हे एकर ताल ।) (खोंकेचा॰61.25)
134 खेत-बधार (आज सब कोठा-अटारी, खेत-बधार, नोकरी-चाकरी बिजनेस पर दखल जमा लेलन ।) (खोंकेचा॰52.10)
135 खेती-गिरहस्ती (आग लेखा बज्जर गिर जाय, प्रकृति के प्रकोप पड़ जाय, दुश्मन के आघात टूट पड़े तइयो बिआह के गठबन्हन, खेती-गिरहस्ती, बाल-बच्चा, बंस-बरखा पर कोई असर न पड़े ।) (खोंकेचा॰68.27)
136 खेलवइया (= खिलाड़ी) (साफ-सुथरा जगह, पीपर के छाँह, लचकइत डउँघी, डोलइत पत्ता, बरगद के बरोह - मनगर छुँहुरी, कचनार डार, पात, मीठगर मीठगर पीपर आउ बरगद के फर - गुबुर-गुबुर खाय में, फुदुर-फुदुर डाल पर फुदके में - जे आनन्द जे उल्लास दोल्हा-पाती के खेलवइया के मिलऽ हे ऊ बड़का-बड़का शान-शउकत से भरल लाखों-करोड़ों सोना-चानी के ईंटा से मढ़ल स्टेडियम में न मिले ।) (खोंकेचा॰65.30)
137 खोंइछा (खोंइछा के चाउर बेटी के सनमान, कोख के ममता, गोदी के दुलार, हीया के उद्गार आउ लछमी के पेयार हे ।; नइहर के लोग भगवान से विनती करऽ हथ - 'हे भगवान, हम्मर बेटी दोसर के घर जा रहल हे । एकर पैरूख ससुरार ला शुभ निकले । मंगल भरल आंगछ से हम्मर बेटी ससुरार में रस-बस जाय ।' इहे असीरबाद, मंगल कामना, देव-पितर के अराधना छिपल हे खोंइछा के चाउर में ।; खोंइछा के चाउर बेचल न जाय । ओकर खीर इया कोई पकवान बना के घर-आंगन, बाहर-भीतर सब के मुँह मीठा कयल जाहे ।; 'सुरूज लेखा बरइत रहे, चान लेखा चमकइत रहे आउ सबके बरइत-चमकइत देखे के गुन-सोभाव मन में भरल रहे' - एही कामना छिपल हे खोंइछा के हरदी देवे के ।) (खोंकेचा॰17.1; 18.31; 19.1; 20.9)
138 खोंखर (जब विश्वकर्मा के अवतार भेल तब उनकर घमंड के निशा टूटल । भगुआयल उठलन तब एहसास भेल ऊँच बँड़ेरी खोंखर बाँस । ताड़ पर से गिरलन तब खजूर पर अँटक गेलन ।) (खोंकेचा॰48.16)
139 खोंटी (भाई बहिन के आम के पत्ता के खोंटी देवऽ हे, फिन पानी । बहिन खोंटी काट के एगो चुक्का में गिरावइत जाहे । बहिन दूधार रोयबो करऽ हे ।) (खोंकेचा॰71.15)
140 खोंढ़र (अदमी पहिले-पहिले धरती पर जहाँ पावे उहँई पसर जाय, फोंफ काटे लगे । धूप से बचे ला पेड़ के छाँह के शरण लेलक फिर एगो ठउर बनावे के कोरसिस कयलक तो पेड़ के खोंढ़र आउ पहाड़ के कन्दरा में रहे लगल ।) (खोंकेचा॰55.15)
141 खोईछा (= खोंइछा, खोइँछा) (बेटी होवे इया पुतोह, बिदाई के समय ओकरा खोईछा देल जाहे । खोईछा में देल जाहे अरवा चाउर, दुब्भी, हरदी आउ पइसा ।) (खोंकेचा॰17.25, 26)
142 खोर (= एक बार कड़ाह में ईख का राबा तैयार होने की मात्रा) (ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप । एक खोर, दू खोर, जादे से जादे तीन खोर - एक दिन में तीन खोर । एक बार में जतना रस कराह में उझिला गेल ऊ एक खोर कहायल । एक खोर मउनी में डाल-डाल के सेरा देवल गेल, ऊ चक्की कहायल आउ जे लड़ुआ लेखा बन्हायल से भेली कहायल ।) (खोंकेचा॰43.15, 16, 17)
143 गँरउटी (= गरउँटी) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... बैल के गँरउटी, दूध-दही के मटका, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.25)
144 गउर-गनेस (गउर-गनेस के पूजा करके, दुल्हा-दुल्हिन के आँख में काजर करके मँड़वा में सबके सामने होवऽ हे सेनुरदान ।) (खोंकेचा॰32.5)
145 गठबन्हन (आग लेखा बज्जर गिर जाय, प्रकृति के प्रकोप पड़ जाय, दुश्मन के आघात टूट पड़े तइयो बिआह के गठबन्हन, खेती-गिरहस्ती, बाल-बच्चा, बंस-बरखा पर कोई असर न पड़े ।) (खोंकेचा॰68.27)
146 गड़गड़ाना (सबेर भेल आउ केल्हुआड़ी के मजमा देखे लायक । कोई बाल्टी कोई टीन, कोई लोटा लेके आ रहल हे आउ भर-भर के रस घरे ले जा रहल हे । कोई उहँई गड़गड़ा रहल हे, त कोई घरे जाके खीर घाँट रहल हे आउ कोई तरहत्थी पर चाट रहल हे ।) (खोंकेचा॰43.25)
147 गड़ना (एही कारन हे कि सोहागिन के मांग पर सेनुर देखइते आँख नीचे हो जाहे, मूड़ी गड़ जाहे, नजर झुक जाहे ।) (खोंकेचा॰32.15)
148 गड़ाना (मँड़वा गड़ा गेला पर जमीन साफ-सुथरा करके हरीश, बाँस के छड़ी गाड़ल जाहे ।) (खोंकेचा॰68.33)
149 गद्दी (सेनुर के ~) (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।) (खोंकेचा॰32.3)
150 गनना-मनना (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे ।; गनना-मनना में दुन्नो के प्रकृति, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, मेल-जोल, वर्तमान-भविष्य के पटरी बइठावल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.26; 68.6)
151 गन्ह (कातिक में छठ के अवसर पर पनघट धरती पर सरग उतार के रख देवऽ हे । चारो ओर धूप-दीप के गन्ह, अरघ के परसादी के मीठगर महक, पिअर-पिअर वस्त्र के चमक 'पीताम्बरधारी' कृष्ण के साक्षात् दरसन करा देहे ।) (खोंकेचा॰36.24)
152 गर-गवाही (इहाँ के फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसला । कोई गर-गवाही न । पूरा केल्हुआड़ी - पूरा गाँव । कोई चुगली न, कोई चुप्पा-चोरी न, सब कुछ खुल्ला - आसमान लेखा साफ, रूआ के फाहा लेखा मोलायम ।) (खोंकेचा॰46.7)
153 गलबात (सास आउ ननद तो घूम-फिर लेत, एक दूसरा से गलबात कर लेत ।) (खोंकेचा॰57.8)
154 गवना-दोंगा (= गौना-दोंगा) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... गउना-दोंगा में पउता-पेहानी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.1)
155 गहना-गुड़िया (= गहना-गुरिया) (बिआह में साया-साड़ी, गहना-गुड़िया, सिंगार-पटाे, पउता-पेहानी के महातम तो हइए हे, बाकि दुल्हा-दुल्हिन, वरपक्ष-कन्यापक्ष, मातृकुल आउ पितृकुल के मिलन इहे सिन्होरा करावऽ हे ।) (खोंकेचा॰31.4)
156 गाँव-गँवई (आदिवासी इलाका, हरिजन के बस्ती आउ गाँव-गँवई में आज भी कच्चा मकान में भुरकी, भंवारी आउ जंगला के रूप निरेखल जा सकऽ हे ।) (खोंकेचा॰56.15)
157 गारी (गारियो देवल जायत बाकि गीते में, गुदगुदी बरे ओला गारी । सब बिध हो गेला पर कन्यादान होयत ।) (खोंकेचा॰72.4)
158 गिट्टी (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे । खिड़की भी काठ, लोहा, गिट्टी, सिरमिट से बने लगल ।) (खोंकेचा॰58.29, 30)
159 गिट्टी-छड़ (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰58.29)
160 गिरहस्ती (आग लेखा बज्जर गिर जाय, प्रकृति के प्रकोप पड़ जाय, दुश्मन के आघात टूट पड़े तइयो बिआह के गठबन्हन, खेती-गिरहस्ती, बाल-बच्चा, बंस-बरखा पर कोई असर न पड़े ।; बर-कन्या बैल के दुगो कन्धा । गिरहस्ती जीवन के बोझ रूपी पालो उनकर कन्धा पर ।) (खोंकेचा॰68.27; 69.10)
161 गिरिल (= ग्रिल) (काठ इया लोहा के चउखट बना के ओकरा में छड़ इया गिरिल लगावल जाहे ।) (खोंकेचा॰59.2)
162 गुनगर (अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे ।) (खोंकेचा॰18.1)
163 गुन-सोभाव (एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।; गनना-मनना में दुन्नो के प्रकृति, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, मेल-जोल, वर्तमान-भविष्य के पटरी बइठावल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.16; 68.6)
164 गुबुर-गुबुर (= गबर-गबर) (साफ-सुथरा जगह, पीपर के छाँह, लचकइत डउँघी, डोलइत पत्ता, बरगद के बरोह - मनगर छुँहुरी, कचनार डार, पात, मीठगर मीठगर पीपर आउ बरगद के फर - गुबुर-गुबुर खाय में, फुदुर-फुदुर डाल पर फुदके में - जे आनन्द जे उल्लास दोल्हा-पाती के खेलवइया के मिलऽ हे ऊ बड़का-बड़का शान-शउकत से भरल लाखों-करोड़ों सोना-चानी के ईंटा से मढ़ल स्टेडियम में न मिले ।) (खोंकेचा॰65.29)
165 गुरमाटी (एक्को कंकड़-पत्थल मिल जायत तो ओकर सब मेहनत गुरमाटी । सब कयल-धयल पर पानी फिर जायत ।) (खोंकेचा॰50.6)
166 गुल्ली-डंटा (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.2)
167 गेंठी (भारतीय संस्कृति में नर-नारी दुन्नो के बराबर सम्मान देल गेल हे । सुरसती, लछमी के साथे-साथे ब्रह्मा, विष्णु, महेश के भी पूजा कयल जाहे । इहे कारण हे कि बिआह-शादी, कारज-परोज में पति-पत्नी दुन्नो गेंठी जोड़ के बइठऽ हथ आ पूजा-पाठ के बिधि पूरा करऽ हथ ।) (खोंकेचा॰17.22)
168 गेरा (उधर ललकी किरिन फूटल आउ इधर बैल के गेरा में बान्हल घंटी टनटन आवाज से लोग के रिझावे लगल ।; बस, लड़का-लड़की के गेरा में बिआह के एगो फन्दा लगा देवल जा रहल हे तइयो बिआह के बचल-खुचल रूप अबहियों झलकऽ हे, हुलकऽ हे आउ चुप्पे-चोरी अप्पन पहिलका ठाट जमौले हे ।) (खोंकेचा॰43.11; 68.11)
169 गोइठा (~ में घीव सुखाना) (पढ़ला-लिखला पर चाक चलाना भी मुश्किल हो जायत । खपड़ा आउ मंगरा पारे में बेइज्जती महसूस करत । फुटानी झाड़े में समय गँवा देत । गोइठा में घीव सुखावे से का फायदा ?) (खोंकेचा॰51.26)
170 गोटी (= गाना-गोटी) (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.3)
171 गोतिया (चान पर पहुँच के डींग हाँके लगल । मंगल आउ शुक्र ग्रह पर अप्पन गोतिया के अन्हार में दीया बार-बार के खोजे लगल ।) (खोंकेचा॰34.22)
172 गोतिया-नइया (बाँस के मंडप में, मंगल कलश के सामने, देवी-देवता, सब पुरखन, पास-पड़ोस, हित-नाता, कुटुम्ब-परिवार, गोतिया-नइया, दोस्त-मीत, सखी-सलेहर, बूढ़-जवान, बच्चा-बच्ची, औरत-मरद - सबके सामने 'कन्यादान' के बाद 'सेनुरदान' कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰31.8)
173 गोबर-गनेस (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... आग धरावे ला सलाई, परसउती के सोंठ-बत्तीसा,... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.30)
174 घठाना (विनती सुनइत सुनइत ब्रह्मा घठा गेलन - सुरूज अनठा देलन ।) (खोंकेचा॰23.17)
175 घठुआर (ओकर आह आउ कराह, चित्कार आउ पिपकार सुन के पहाड़ के छाती फाट गेल । आकाश के आँसू चू गेल बाकि अदमी अतना कृतघ्न, अतना घठुआर, अतना कनबहिर, आँख अछइत आन्हर कि सब कुछ समझलो पर अप्पन सोवारथ में पनघट के सरेआम कत्ल कर रहल हे ।; केतना घठुआर हो गेल हे ई कुम्हार । लात से धंगयला पर चुँटियो काट देवऽ हे बाकि एकर चमड़ी एतना मोटा हो गेल हे कि समाज के परिवर्तन आउ प्रगति के बढ़इत रथ रूपी सूई के भोंकलो पर ऊ तनि सिसिअयबो न करे ।) (खोंकेचा॰42.9; 52.6)
176 घरनी (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे । आज एकरा लोग ढोंग आउ रद्दी के टोकरी में फेंकल कागज के समान समझे लगलन हे । बाकि ऊ लोग एकर महातम सवीकार करतन जिनका अप्पन घरनी से कहियो पटरी न खायल ।) (खोंकेचा॰68.3)
177 घरौंदा (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।) (खोंकेचा॰61.3)
178 घिकुरी (घेराव-पथराव आउ प्रदर्शन करेवाला भाई लोग कहाँ घिकुरी मार देलन ?) (खोंकेचा॰52.24)
179 घुच-घुच (~ अन्हरिया) (रात घुच-घुच अन्हरिया - कुच-कुच करिया रात ।) (खोंकेचा॰23.21)
180 चउमास (= वर्षा ऋतु में जोतकर और घास साफ कर छोड़ी गई जमीन) (~ के खेत) (एक से एक चुनल-बिछल खेल खेलल जाहे गाँव के डघ्घर पर आउ चउमास के खेत में - आम के बगइचा में - अमरूध के बगान में ।) (खोंकेचा॰62.13)
181 चउरा (तुलसी के चउरा, देवी-देवता के मन्दिल, मंगल-कलश, गंगा के कछार, सुरूज बाबा के कोलसूप, पर्व-त्योहार के अरघ, पूजा-पाठ में भगवान के आरती, बाहर-भीतर, घर-आंगन - सब जगह माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰27.3)
182 चउरेठ (= चौरेठ, चौरेठा; मांगलिक अवसरों पर काम में लाने का चावल के आटे का घोल; अइपन; पानी के साथ पीसा फुलाया चावल) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.9)
183 चक्की (एक बार में जतना रस कराह में उझिला गेल ऊ एक खोर कहायल । एक खोर मउनी में डाल-डाल के सेरा देवल गेल, ऊ चक्की कहायल आउ जे लड़ुआ लेखा बन्हायल से भेली कहायल ।) (खोंकेचा॰43.18)
184 चचरी (बइठल सन्यासी चपुआ भी बाँट रहल हे - परवइतिन के जोगाड़ जुटा रहल हे, गरीब-गुरबा के पतई भी दान दे रहल हे - केकरो मड़ई छावे ला केकरो चचरी बनावे ला ।) (खोंकेचा॰44.20)
185 चनकी (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰30.32)
186 चपुआ (= खोहिया, खोइया, ऊख की सीठी) (ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप ।; नीचे एगो अदमी बइठ के ऊख लगा रहल हे । एन्ने रस आउ ओन्ने चपुआ निकल रहल हे । सुक्खल चपुआ चुल्हा में झोंकायत इया फिर परब-त्योहार में पकवान बनावे, खाना बनावे, धान उसने में जरना के काम आयत ।) (खोंकेचा॰43.13; 44.17, 18)
187 चमकी (सोहाग के नजर-गुजर लग जाय के डर बनल रहऽ हे - एही लेल सेनुर सात तह के भीतर रखल जाहे । सेनुर के गद्दी में दूगो कागज आउ एगो करिया चमकी तीन तह । ओकरा बाद पिअर सूत के बन्हन चउथा तह । कीया इया सिन्होरा में बन्द पंचवाँ तह । कवांची के बनल पटौरी इया पिअर कपड़ा छठा तह । बक्शा में कपड़ा के भीतर सिन्होरा के रखल जाना सतवाँ तह ।) (खोंकेचा॰32.4)
188 चमरूआ (= चमरखानी) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... चमरूआ जूता, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.5)
189 चरनामरित (गाँव के बगइचा, तलाब, देवस्थल, अखाड़ा, बइठका, चौपाल, परब-त्योहार, सड़क-गली, चौराहा, चरवाही, कीरतन मंडली, शादी-बिआह, कारज-परोज के बारे में इहँई निरनय होयत आउ जे निरनय होयत ऊ ब्रह्मा के लकीर - सब केउ भगवान के चरनामरित लेखा सिर चढ़ावत - आँख मून के सिरोधार्य करत ।) (खोंकेचा॰46.2)
190 चरवाहा (चरवाहा के चुलबुल, हरवाहा के हरख, मरदाना के दमखम, हरिन के कुलांच, ...) (खोंकेचा॰35.16)
191 चरवाही (गाँव के बगइचा, तलाब, देवस्थल, अखाड़ा, बइठका, चौपाल, परब-त्योहार, सड़क-गली, चौराहा, चरवाही, कीरतन मंडली, शादी-बिआह, कारज-परोज के बारे में इहँई निरनय होयत आउ जे निरनय होयत ऊ ब्रह्मा के लकीर - सब केउ भगवान के चरनामरित लेखा सिर चढ़ावत - आँख मून के सिरोधार्य करत ।; लइकन चरवाही करे जा हथ इया जवान लोग काम से फुर्सत में रहऽ हथ, तखनी दोल्हा-पाती खेले के अवसर मिल जाहे ।) (खोंकेचा॰45.33; 62.25)
192 चलनसार (दोल्हा-पाती आझ से न आदम बाबा के जुग से खेले के चलनसार चलल आवइत हे ।) (खोंकेचा॰61.12)
193 चाँड़ (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... दमाही में मेह, पटवन में चाँड़ आउ करिंग, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
194 चाउर (खोंइछा के ~; अरवा ~; उसीना ~) (खोंइछा के चाउर बेटी के सनमान, कोख के ममता, गोदी के दुलार, हीया के उद्गार आउ लछमी के पेयार हे ।; अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे । अरवा चाउर निरउठ आ पवित्तर मानल जाहे । धान के सीधे सुखा के कूटला पर अरवा चाउर कहल जाहे । धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰17.1; 18.1, 2, 3, 4, 5)
195 चान (पुनिया के ~; दूज के ~) (दीपावली के दिन तो दीये के पूजा होवऽ हे । ऊ दिन दीया ओतने शोभऽ हे जेतना पुनिया के चान शोभऽ हे ।; आपसी प्रेमभाव गूलर के फूल बनल जा रहल हे । दुनिया-जहान के चिन्ता दूज के चान बन गेल ।) (खोंकेचा॰27.9; 59.19)
196 चिनगी (= चिनगारी, तितकी) (धरती गगन हे पिरितिया में, गोर-सांवर बदरा हे लिपटल धरतिया में, सगरे हे एके गुंथल चिनगी ।) (खोंकेचा॰33.3)
197 चिनिया (~ रोग) (मोतियाबिन्द, गंठिया, दम्मा, चिनिया आउ पिल्ही रोग से परेशान - ठार होयल मुश्किल - हाथ में लाठी धरे पड़ल ।) (खोंकेचा॰49.3)
198 चिन्हानी (अरवा चाउर बेटी के संस्कार हे । पवित्तर, मीठगर, सोभवगर, गुनगर आउ लछनमान के प्रतीक हे, चिन्हानी हे ।; केल्हुआड़ी हम्मर बाप-दादा के थाती हे, पुरखन के धरोहर हे, भारतीय संस्कृति के चिन्हानी हे ।) (खोंकेचा॰18.2; 47.24)
199 चिमड़ (दोल्हा-पाती घर के बाहर मैदान में कोनो पेड़ के पास खेलल जाहे । खासकर पीपर आउ बरगद के पेड़ के नीचे ई खेल खेले के सहचार हे । पीपर आउ बरगद के डउँघी चिमड़ होवऽ हे - फुस्स से टूटे के डर न रहे - उहे लेल एकरा पर चढ़ के ई खेल खेलल जाहे ।) (खोंकेचा॰61.7)
200 चिरईं-चिरगुनी (कछार के बगान, बगइचा, जंगल-झार के चिरईं-चिरगुनी, हाथी-हरिन कतना जीव-जन्तु मउत के मुँह में समाइत जा रहल हथ ।; मँड़वा में कुम्हार के घर से बनल हाथी, चिरईं-चिरगुनी आउ माटी के खिलौना रखल जाहे ।) (खोंकेचा॰42.13; 69.4)
201 चिरईं-चिरगुन्नी (संस्कार के सूरज निकलऽ हे, धूप मुस्कुरा हे आउ अदमी चिरईं-चिरगुन्नी लेखा चहचहाये लगऽ हे ।) (खोंकेचा॰60.15)
202 चुक्कड़ (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.12)
203 चुनल-बिछल (एक से एक चुनल-बिछल खेल खेलल जाहे गाँव के डघ्घर पर आउ चउमास के खेत में - आम के बगइचा में - अमरूध के बगान में ।) (खोंकेचा॰62.12)
204 चुप्पा-चोरी (इहाँ के फैसला सुप्रीम कोर्ट के फैसला । कोई गर-गवाही न । पूरा केल्हुआड़ी - पूरा गाँव । कोई चुगली न, कोई चुप्पा-चोरी न, सब कुछ खुल्ला - आसमान लेखा साफ, रूआ के फाहा लेखा मोलायम ।) (खोंकेचा॰46.7)
205 चुप्पे-चोरी (बस, लड़का-लड़की के गेरा में बिआह के एगो फन्दा लगा देवल जा रहल हे तइयो बिआह के बचल-खुचल रूप अबहियों झलकऽ हे, हुलकऽ हे आउ चुप्पे-चोरी अप्पन पहिलका ठाट जमौले हे ।) (खोंकेचा॰68.12)
206 चुलबुली (दोल्हा-पाती देखे में खेल हे बाकि ओकर एगो अप्पन जिनगी हे - जिनगी हे हरख आउ हुलस के, जोश आउ जवानी के, हँसी आउ मजाक के, चुस्ती आउ चुलबुली के ।) (खोंकेचा॰65.16)
207 चुहदानी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... चूहा पकड़े ला चुहदानी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.8)
208 चूना-सिरमिट (ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰58.29)
209 चूरना-चारना (बिआह के बन्हन बिपत्ति से चुरलो-चारला पर न टूटे, आउ मजगूत बनल जाहे ।) (खोंकेचा॰68.31)
210 छँउकी (आगे चल के भंवारी से कीड़ा-मकोड़ा, कीट-फतिंगा, उड़ंत साँप के खतरा बढ़ गेल । दिमाग में आयल भंवारी में पेड़ के छँउकी इया बाँस के छकुनी, फराठी लगा के रछेया करे के चाही आउ ओइसहीं अदमी कयलक भी ।) (खोंकेचा॰56.1)
211 छकुनी (आगे चल के भंवारी से कीड़ा-मकोड़ा, कीट-फतिंगा, उड़ंत साँप के खतरा बढ़ गेल । दिमाग में आयल भंवारी में पेड़ के छँउकी इया बाँस के छकुनी, फराठी लगा के रछेया करे के चाही आउ ओइसहीं अदमी कयलक भी ।) (खोंकेचा॰56.1)
212 छछनना (हहरइत रहल, छछनइत रहल, खखनइत रहल अदमी प्रकाश ला ।) (खोंकेचा॰23.1)
213 छठ (सुरूज भगवान के छठ बरत में ठेकुआ, शादी-बिआह में लड़ुआ, होली-तीज में पुआ-पकवान, हित-नाता के शरबत, परसउती के गुड़ हरदी, परबइतिन के खरना के खीर में गुड़े के जरूरत पड़ऽ हे ।) (खोंकेचा॰47.18)
214 छठ (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.7)
215 छठ-एतवार (केकरा छठ-एतवार में ऊख चढ़ावे ला हे, कहके एक डाँढ़ तूड़ लावत ।) (खोंकेचा॰44.29)
216 छनौटा (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... धान कूटे ला ओखरी, पकवान बनावे ला छनौटा, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.28)
217 छहलाना (भारत माता के फटेहाल रूप के पहिला दरसन महात्मा गाँधी के इहे पनघट पर भेल हल जब पनघट पर नेहाइत-धोवइत औरत फट्टल-चिट्टल चिथड़ा के पानी पर गरीबी के तेजाब लेखा छहलाइत देखलन आउ भारत माता के अइसन दुर्दशा पर रो देलन ।) (खोंकेचा॰41.24)
218 छान-पगहा (सिद्धार्थ के एगो महल में कैद कर देल गेल - पैर में छान-पगहा बान्ह देवल गेल ।) (खोंकेचा॰54.12)
219 छिछिआना (गुड़ के कीमत कम थोड़े हे । बेपारी छिछिआयल चलाऽ हे - छितरायल फिरऽ हे । शादी-बिआह, मरनी-हरनी, परब-तेयोहार में मधुमखी लेखा भिनभिनाइत चलऽ हे ।) (खोंकेचा॰47.16)
220 छुँहुरी (साफ-सुथरा जगह, पीपर के छाँह, लचकइत डउँघी, डोलइत पत्ता, बरगद के बरोह - मनगर छुँहुरी, कचनार डार, पात, मीठगर मीठगर पीपर आउ बरगद के फर - गुबुर-गुबुर खाय में, फुदुर-फुदुर डाल पर फुदके में - जे आनन्द जे उल्लास दोल्हा-पाती के खेलवइया के मिलऽ हे ऊ बड़का-बड़का शान-शउकत से भरल लाखों-करोड़ों सोना-चानी के ईंटा से मढ़ल स्टेडियम में न मिले ।) (खोंकेचा॰65.28)
221 छेंउकना (= छौंकना) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... तरकारी छेंउके ला छोलनी, आटा चाले ला चलनी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.28)
222 छेंका-पेसगी (दू चार गो बूढ़-पुरनियाँ उहाँ बइठ जयतन आउ अप्पन सुख-दुख के बात, टोला-परोस के चरचा आउ जर-जेवार के कथा-कहानी शुरू कर देतन । इहँई मंगरी के बिआह ठीक हो जायत । माधो के छेंका-पेसगी पड़ जायत ।) (खोंकेचा॰45.20)
223 छोटगर (= छोटा-सा) (दस से पनरह लइकन मिल-जुल के ई खेल खेलऽ हथ । पेड़ के डउँघी इया बाँस के छकुनी के एक से दू हाथ के छोटगर डंडा बना लेवल जाहे ।) (खोंकेचा॰62.30)
224 छोलनी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... तरकारी छेंउके ला छोलनी, आटा चाले ला चलनी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.29)
225 छोहगर (मोहगर आउ छोहगर माय सोहागिन पुतोह के परिछे ला बरिस-बरिस से ललसा लगयले हल ।) (खोंकेचा॰30.25)
226 जखनी (~ ... तखनी) (कुम्हार जखनी चाक चलावऽ हे तखनी सउँसे ब्रह्मांड के चित्र उहाँ दरपन में झलके लगऽ हे ।; जखनी जरूरत पड़ल तखनी तुरंत तइयार ।) (खोंकेचा॰48.7; 50.27)
227 जर-जेवार (दू चार गो बूढ़-पुरनियाँ उहाँ बइठ जयतन आउ अप्पन सुख-दुख के बात, टोला-परोस के चरचा आउ जर-जेवार के कथा-कहानी शुरू कर देतन ।) (खोंकेचा॰45.19)
228 जरना (= जारन; जलावन) (ओन्ने बँसवारी में चिरईं चहकल आउ एन्ने चुल्हा पर कराह चढ़ गेल । पेराये लगल ऊख, निकले लगल चपुआ, डलाये लगल टब के टब कराह में रस आ झोंकाये लगल जरना, खउले लगल, झलके लगल गुड़ के रूप ।; ओन्ने खेत में केतारी छिला रहल हे - एंगारी एक तरफ आउ ऊख के बोझा एक तरफ । एक बोझा छिलऽ - ऊख केल्हुआड़ी में आउ एंगारी घरे । ओकरा से गोरू-डांगर के हरिअर बुतात इया सुखा के पतई बना दऽ । फिर जरना इया मड़ई छावे के काम में लावऽ । कभी-कभी सुक्खल पतई केल्हुआड़ी में जरना के भी काम आवऽ हे बाकि जादे लोग एकरा अप्पन-अप्पन घरहीं ले जयतन, मड़ई छयतन इया सुखा के जरना के काम में ले अयतन ।; सुक्खल चपुआ चुल्हा में झोंकायत इया फिर परब-त्योहार में पकवान बनावे, खाना बनावे, धान उसने में जरना के काम आयत ।) (खोंकेचा॰43.14; 44.5, 6, 7, 19)
229 जराना (= जलाना) (जरवलक त जगमग जगमग, चकमक चकमक - सगरे इंजोर, कोना-सान्ही सब जगह उजाला - सगरे खुशियाली ।; बिआह-शादी, देवी-देवता के पूजा, गृहवास, जन्म-दिन, मंगल कारज, विजय-दिवस के अवसर पर आज भी माटी के दीया जरावल जाहे ।) (खोंकेचा॰24.30; 27.1)
230 जरिक्को (= जरा सा भी) (बिजुली के चकाचौंध में भी आज दीया के महातम जरिक्को कम न भेल हे ।) (खोंकेचा॰27.7)
231 जहिया (~ ... तहिया) (केल्हुआड़ी जहिया से शुरू होयत तहिया से गाँव के कुछ घर के भोजन-छाजन उहँई चलत ।) (खोंकेचा॰45.1)
232 जांगर (= जांगड़, जंगरा; शरीर का बल, बूता) (केकर मजाल हे जे सोहाग पर कुदृष्टि डाल देत । ओकर आँख फूट जायत, निरबंस हो जायत, धन-सम्पत्ति बिला जायत, काया कोढ़ी हो जायत, कोख निपुत्तर हो जायत, जांगर थक जायत, कुकुर-सियार के मउअत मिलत ओकरा ।; दोल्हा-पाती हरवाहा इया चरवाहा, लइकन इया जवान खेलऽ हथ । ... जेकर जांगर में फुरती ऊ ई खेल में सेसर, जेकर दिमाग चुलबुल ऊ ई खेल में बिसेसर ।) (खोंकेचा॰32.13; 65.23)
233 जात-कुजात (छोट-बड़, जात-कुजात, धरम-कुधरम के कोई भेद-भाव न ।) (खोंकेचा॰46.17)
234 जितिया (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.7)
235 जिनोरा (= मकई) (जिनोरा आउ मखाना के भी लावा होवऽ हे बाकि बिआह में धाने के लावा भाइए मेरावत ।) (खोंकेचा॰71.1)
236 जुग (= सौभाग्य मनाते हुए दिया जाने वाला उपहार, चूड़ी के जुग; खरीदारी में बिक्रेता द्वारा दी गई अतिरिक्त वस्तु, मंगनी-चंगनी) (सेनुर के साथे 'जुग' देवे के सनचार हे । सेनुरिया रुपइये भरी सेनुर तउल के दे देत बाकि अलग से एगो पुड़िया में 'जुग' जरूर देत । इहे जुग हे - बर आ कन्या, दुल्हा आ दुल्हिन ।) (खोंकेचा॰31.25, 26, 27)
237 जूठगर (धान के आग पर उसीन के आ फिर सुखा के कूटला पर उसीना चाउर कहा हे । अरवा चाउर के शुभ मानल गेल हे, उसीना चाउर जूठगर आ अछूत ।) (खोंकेचा॰18.5)
238 जोसगर (= जोशीला) (दोल्हा-पाती किशोर लड़िकन के खेल हे - जोसगर जवान के खेल ।) (खोंकेचा॰61.9)
239 झपास (फिर ओही दुर्दशा - फिर अन्हार । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास - बरइत दीया बुत गेल, घुच-घुच अन्हरिया फिर भूत बन के दउड़े लगल ।) (खोंकेचा॰25.12)
240 झमाठ (= झमठगर) (नया जमाना के नया रीत, विज्ञान के चकाचौंध, विज्ञापन के बरसात, नया पीढ़ी के नया रस्म-रेवाज सब जगह ठाट जमौले हे बाकि गाँव के कनघीच्चो, बाघ-बकरी, ओका-वोका, आन्ही-पानी, अत्ती-पत्ती, गुल्ली-डंटा, चिक्का-कबड्डी, आँख-मिचौनी, गोटी, ताश के खेल झमाठ बर-पीपर लेखा आज भी ज्यों के त्यों अप्पन रूप निखारले हे ।) (खोंकेचा॰64.15)
241 झलासी (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... मँड़वा छावे ला बाँस आउ झलासी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।; मँड़वा झलासी से छावल जाहे आउ मूंज के रस्सी से बान्हल जाहे । झलासी के सोभाव बाँसे लेखा । केतनो कोई उजाहे के कोरसिस करे, झलासी उजह न सके । इहाँ तक कि झलासी में आगो लगा देला पर फिन उपज जायत ।; मूंज झलासिए से निकालल जाहे । पानी में भिंगा के खूब चूरल जाहे तब ओकरा से बाँटल रस्सी मँड़वा छावे में काम आवऽ हे ।) (खोंकेचा॰65.7; 68.23, 24, 25, 29)
242 झाँपन (टाट इया कपड़ा के परदा लगाना गरीबी आउ पिछड़ापन के चिन्हानी बन गेल । जदपि कि आज भी गाँव-देहात में खिड़की के झाँपन टाट इया कपड़ा के परदा देखाई देवऽ हे ।) (खोंकेचा॰58.33)
243 झिटका (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰31.1)
244 झिटका-झिटकी (मटखान से मट्टी लायत । पानी डाल के ओकरा फुलायत, फिर लात से धँकच-धँकच के, कचड़-कचड़ के मक्खन लेखा मोलायम बना देत । एकरा बाद लकड़ी के एगो पटरा पर लोंदा के गुंधे लगत । एक्को कंकड़-पत्थल, झिटका-झिटकी न रहे के चाही ।) (खोंकेचा॰50.3)
245 टटरी (पहिले पेड़ के टहनी आउ खर-पात के कुटिया बनयलक । बाँस के टटरी आउ फिर मट्टी के मकान के कहानी बनइत गेल । ठंढ से बचे ला आउ लूक से रछेया ला टटरी के टाइट करतइत गेल बाकि साँस लेवे ला हवा आवे के धेयान हमेशा रहल ।) (खोंकेचा॰55.17, 19)
246 टहकना (टह-टह ~) (जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰31.31)
247 टह-टह (~ टहकना) (जस जस ऊपर उठे, उमिर बढ़े, सुरूज के किरिन लेखा टह-टह टहकइत रहे, तेज आउ बल से भरल-पूरल रहे, दुश्मन के कुहा पर सूरज लेखा हुमचइत रहे, अवगुन से भरल तमस पर लाल किरन लेखा दंगल जीतइत रहे ।) (खोंकेचा॰31.30)
248 टिकरी (= आग पर सेंकी छोटी रोटी या लिट्टी, छोटा टिक्कड़ या टिक्कर; आटे का चिपटा गोल मीठा पकवान; आटे की एक गोलाकार चिपटी मिठाई) (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.9)
249 टिटकारी (~ मारना) (मजदूर दिन-दिन भर रात-रात भर चुल्हा में पतई झोंकऽ हे, बैल के पोंछ पकड़ के टिटकारी मारऽ हे ।) (खोंकेचा॰46.30)
250 टिपनिका (बिआह के पहिले लड़का-लड़की के टिपनिका से गनना-मनना बइठावल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.26)
251 टुकी (खोंइछा में चाउर के अलावे देल जाहे पाँच टुकी हरदी, दुब्भी आउ पइसा ।) (खोंकेचा॰19.16)
252 टुनकना (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰31.1)
253 टुनकी (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰30.32)
254 टुह-टुह (लाल ~) (कुम्हार के आँवा ओकर सूरज-पिण्ड हे जेकरा में ऊ मट्टी के बनावल सब चीज के पाकवत - लाल भीम - टुह-टुह सिमर के फूल लेखा ।) (खोंकेचा॰50.29)
255 टोंटी (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.11)
256 टोला-परोस (दू चार गो बूढ़-पुरनियाँ उहाँ बइठ जयतन आउ अप्पन सुख-दुख के बात, टोला-परोस के चरचा आउ जर-जेवार के कथा-कहानी शुरू कर देतन ।) (खोंकेचा॰45.18)
257 ठेकुआ (मंगल कलश, भगवान के भोग, साधू-संत के भोजन, परवैती के खरना, बिआह के अच्छत, देवी-देवता के पूजा-पाठ, पकवान, कसार, कचवनियाँ, रोट, ठेकुआ, टिकरी, खीर, चउरेठ आदि में अरवे चाउर के बेयोहार अनिवार्य मानल गेल हे ।) (खोंकेचा॰18.8)
258 ठोकना-ठेठाना (ब्रह्म बिआह इया वैदिक रीति से होवेवाला बिआह ... नर-नारी, बर-कन्या, मातृपक्ष-पितृपक्ष, दू खनदान, दू खून, दू जगह, दू देह, दू सोभाव, दू आतमा के पवित्र मिलन मानल गेल हे । एही लेल बिआह बड़ा नेम-धरम से, ठोक-ठेठा के, खोज-बीन के, कुल-खनदान, लूर-लच्छन, गुन-सोभाव, आचार-विचार के पूछ-ताछ के आउ अता-पता लगा के कयल जाहे ।) (खोंकेचा॰67.16)
259 डउँघी (जउन आग जंगल में पसरल हल, पेड़ के डउँघी में छिपल हल, लकड़ी के अंगीठी में सिमटल हल, दीया आउ ढिबरी में बन्हायल हल, दियासलाई में कैद हल - ऊ अब जेबी में, कुरता के धोकरी में, काठ के सन्दूक में, हाथ के बेग में रखाय लगल ।; दोल्हा-पाती घर के बाहर मैदान में कोनो पेड़ के पास खेलल जाहे । खासकर पीपर आउ बरगद के पेड़ के नीचे ई खेल खेले के सहचार हे । पीपर आउ बरगद के डउँघी चिमड़ होवऽ हे - फुस्स से टूटे के डर न रहे - उहे लेल एकरा पर चढ़ के ई खेल खेलल जाहे ।) (खोंकेचा॰25.31; 61.7)
260 डघ्घर (एक से एक चुनल-बिछल खेल खेलल जाहे गाँव के डघ्घर पर आउ चउमास के खेत में - आम के बगइचा में - अमरूध के बगान में ।) (खोंकेचा॰62.13)
261 डाँढ़ (केतारी के ~) (केकरा छठ-एतवार में ऊख चढ़ावे ला हे, कहके एक डाँढ़ तूड़ लावत ।) (खोंकेचा॰44.30)
262 ढकना (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.11)
263 ढकनी (दीया, खपड़ा, टोंटी, हँड़िया, नाद, बसना, लबनी, ढकना, ढकनी, चुक्कड़, कपटी घर में आवेवाला, साँप, घोंघा, सितुहा, मगरमच्छ, कछुआ, हंस, बत्तक, मूंग, मोती जल में रहे ओला सब जन्तु के मूरत बना देत ।) (खोंकेचा॰50.11)
264 ढिबरी (गेयान के कपाट अबकी फिर खुलल आउ बन गेल दीया से ढिबरी ।; ढिबरी के मिरगी धर लेल । आन्ही-बतास, हवा-पानी, बरखा के झपास में थरथरी समा जाय, भुकभुकी के बेमारी आउ फिर फक से जय सियाराम ।) (खोंकेचा॰25.16, 18)
265 ढूल-पत्ता (डोल-पत्ता, ढूल-पत्ता इया दोल्हा-पाती नाम के ई खेल कोनो गाछ-बिरिछ के पास खेलल जाहे - बिल्कुल सपाट मैदान में - खुलल आकाश में आउ साफ हवा में ।) (खोंकेचा॰62.23)
266 तकदेहान (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे । एही से सिन्होरा बड़ी होशियारी से तकदेहान देके बक्शा में बन्द करके बरिआत में ले जायल जाहे ।) (खोंकेचा॰31.2)
267 तखनी (जखनी ... ~) (कुम्हार जखनी चाक चलावऽ हे तखनी सउँसे ब्रह्मांड के चित्र उहाँ दरपन में झलके लगऽ हे ।; जखनी जरूरत पड़ल तखनी तुरंत तइयार ।) (खोंकेचा॰48.7; 50.27)
268 तरहत्थी (सबेर भेल आउ केल्हुआड़ी के मजमा देखे लायक । कोई बाल्टी कोई टीन, कोई लोटा लेके आ रहल हे आउ भर-भर के रस घरे ले जा रहल हे । कोई उहँई गड़गड़ा रहल हे, त कोई घरे जाके खीर घाँट रहल हे आउ कोई तरहत्थी पर चाट रहल हे ।) (खोंकेचा॰43.25)
269 तलाब (= तालाब) (नदी के घाट, तलाब के घाट इया इनार के घाट - जहाँ पानी भरल जाहे, स्नान करल जाहे, पानी पीयल जाहे, कपड़ा-लत्ता फींचल जाहे, गोरू-डांगर धोवल जाहे - ओकरे पुकारल जाहे पनघट के नाम से ।) (खोंकेचा॰34.2)
270 तहिया (जहिया ... ~) (केल्हुआड़ी जहिया से शुरू होयत तहिया से गाँव के कुछ घर के भोजन-छाजन उहँई चलत ।) (खोंकेचा॰45.1)
271 तिलक-दहेज (तिलक-दहेज के जुग में बिआह संस्कार के बहुते रस्म-रेवाज खतम होयल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰68.8)
272 तिलवा (= तिल) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... गाल पर तिलवा, छाती में गोदना, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.1)
273 तीज (होली में हुड़दुंग, दीवाली में आतिशबाजी, दशहरा, तीज, जितिया, छठ, एतवार, ईद-मुहर्रम, शादी-बिआह में कैसेट के गीत अप्पन धाक जमयले जा रहल हे - नेपोलियन आउ हिटलर लेखा सब जगह प्रदूषण बलशाली बनल जा रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.7)
274 दँतचिहार (सोनार सोना अछइत लंगटा, लोहार लोहा रहइत फकीर, बड़ही लकड़ी अछइत बहिर, पनहेरी पान रखइत दँतचिहार, हजाम छुड़ा-कैंची अछइत उधार, ठठेरा ताम्बा-पीतर अछइत पातर ।) (खोंकेचा॰53.22)
275 दबोरना (कब ले भकोसइत रहत ई आग - कब ले खँखोरइत रहत ई शोला - कब ले दबोरइत रहत ई लफार ?) (खोंकेचा॰24.15)
276 दमखम (चरवाहा के चुलबुल, हरवाहा के हरख, मरदाना के दमखम, हरिन के कुलांच, ...) (खोंकेचा॰35.17)
277 दमाही (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... दमाही में मेह, पटवन में चाँड़ आउ करिंग, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰64.31)
278 दम्मा (= दमा) (मोतियाबिन्द, गंठिया, दम्मा, चिनिया आउ पिल्ही रोग से परेशान - ठार होयल मुश्किल - हाथ में लाठी धरे पड़ल ।) (खोंकेचा॰49.3)
279 दरिद्दर (एही लेल माटी के दीया जरावल जाहे - अशुभ के प्रतीक, दरिद्दर के प्रतिमान उल्लू के भगावल जाहे ।) (खोंकेचा॰27.24)
280 दिकदारी (निकलइत खानी देखऽ - कइसे ऊ तड़पऽ हे । इन्दरी थक जाहे - हवा के आना-जाना बन्द हो जाहे - साँस लेवे में दिकदारी होवे लगऽ हे, तब उखिल-बिखिल परान खुलल हवा में उड़ल चाहऽ हे ।) (खोंकेचा॰54.6)
281 दिकुर (= दिका, दबर) (झट ~) (लोग कहऽ हथ कि ओकर जीवन सरापित हे । मूरत गढ़ के सूता से झट दिकुर मूड़ी काट देवऽ हे, ओहे से एकर दिन न फिरे ।) (खोंकेचा॰52.17)
282 दीया (~ बारना) (कुम्हार एगो अइसन वर्ग हे जे दीया बार के ढूँढ़लो पर देखाई न देत ।) (खोंकेचा॰52.28)
283 दुअरपूजा (दुआरी पर दुअरपूजा फिर जयमाला-स्वयंवर ।) (खोंकेचा॰72.1)
284 दुब्भी (बेटी पर घर के नारी हे । ऊ केरा के गाछ हे । एक जगह से उखाड़ के दोसर जगह रोपा हे जहाँ पुरइन के पात आउ दुब्भी लेखा फैलइत जाहे, पसरइत जाहे ।; बेटी होवे इया पुतोह, बिदाई के समय ओकरा खोईछा देल जाहे । खोईछा में देल जाहे अरवा चाउर, दुब्भी, हरदी आउ पइसा ।; दुब्भी काट के न लगावल जाय । धरती के साथे जड़ समेत धरतीए में उगावल जाहे । सभाखिन धरती के कोख हे, दुब्भी ओकर संतान ।; भंवारी के हाथ लमहर हे । पैर पसरल हे दुब्भी के जड़ लेखा, पुरइन के पात लेखा ।) (खोंकेचा॰17.18, 26; 21.10, 11; 58.11)
285 दूधार (~ रोना) (भाई बहिन के आम के पत्ता के खोंटी देवऽ हे, फिन पानी । बहिन खोंटी काट के एगो चुक्का में गिरावइत जाहे । बहिन दूधार रोयबो करऽ हे ।) (खोंकेचा॰71.16)
286 देखनगु (पार्वती आउ गणेश के पोशाक, कृष्ण भगवान के 'पीताम्बर' हम्मर संस्कृति में बड़ा देखनगु, पवित्तर आउ महान मानल गेल हे ।; सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।; ईंटा-पत्थल, चूना-सिरमिट, गिट्टी-छड़ से बनावल मकान टिकाऊ, देखनगु, आरामदेह आउ विकसित मानल जाहे ।) (खोंकेचा॰20.2; 30.32; 58.29)
287 देखनगु-शोभनगु (सोहाग के सेनुर बड़ा टुनकी । जतने देखनगु-शोभनगु ओतने चनकी । सीसा तो झिटका लगला पर चनक जाहे बाकि सोहाग के सेनुर नजर लगला पर टुनक जाहे ।) (खोंकेचा॰30.32)
288 देखनिहार (... देवी-देवता, राछस-अदमी के मूरती देख के सबके आँख चौंधिया जायत । देखनिहार के धरनिहार लग जायत ।) (खोंकेचा॰51.7)
289 दोंगा (= दुरागमन, द्विरागमन, गौना) (नदी में नाव, सड़क पर बैलगाड़ी, .... गउना-दोंगा में पउता-पेहानी, ... शुद्ध करे ला गंगाजल, भोग लगावे ला तुलसी जइसे अप्पन पहिचान गाँव के चप्पे-चप्पे में, गली-गली में, झिटका-झिटकी में बनवले हे ओइसहीं दोल्हा-पाती अप्पन पुरान महातम संगोरले चलल आ रहल हे ।) (खोंकेचा॰65.2)
290 दोल्हा-पाती (= डोल-पत्ता) (दोल्हा-पाती गाँव के - देहात के एगो प्रिय-मसहूर खेल हे । बाघ-बकरी, अत्ती-पत्ती, ओक्का-वोका, गुल्ली-डंटा, अँखमुनौवल, कनघीच्चो, चिक्का, कबड्डी, सेलचू, फुटबॉल, गोटी, घरौंदा जइसन खेल प्रचलित हे ।; दोल्हा-पाती घर के बाहर मैदान में कोनो पेड़ के पास खेलल जाहे ।; डोल-पत्ता, ढूल-पत्ता इया दोल्हा-पाती नाम के ई खेल कोनो गाछ-बिरिछ के पास खेलल जाहे - बिल्कुल सपाट मैदान में - खुलल आकाश में आउ साफ हवा में ।; पारा पारी डंडा फेंक के लइका के छूना आउ डंडा के सूँघना - इहे खेल हे दोल्हा-पाती ।; दोल्हा-पाती हरवाहा इया चरवाहा, लइकन इया जवान खेलऽ हथ ।) (खोंकेचा॰61.1; 62.23; 63.17; 65.20)
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