कसोमि॰ = "कनकन
सोरा"
(मगही कहानी संग्रह), कहानीकार – श्री मिथिलेश; प्रकाशक - जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना: 800 006; प्रथम संस्करण - 2011 ई॰; 126
पृष्ठ । मूल्य –
225/- रुपये ।
देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और
बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 1963
ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
|
विषय-सूची
|
पृष्ठ
|
0.
|
कथाकार
मिथिलेश - प्रेमचंद आउ रेणु के विलक्षण उत्तराधिकारी
|
5-8
|
0.
|
अनुक्रम
|
9-9
|
|
|
|
1.
|
कनकन
सोरा
|
11-18
|
2.
|
टूरा
|
19-25
|
3.
|
हाल-हाल
|
26-31
|
|
|
|
4.
|
अदरा
|
32-43
|
5.
|
अदंक
|
44-56
|
6.
|
सपना
लेले शांत
|
57-60
|
|
|
|
7.
|
संकल्प
के बोल
|
61-67
|
8.
|
कान-कनइठी
|
68-75
|
9.
|
डोम
तऽ डोमे सही
|
76-87
|
|
|
|
10.
|
छोट-बड़
धान, बरोबर धान
|
88-97
|
11.
|
अन्हार
|
98-104
|
12.
|
बमेसरा
के करेजा
|
105-109
|
|
|
|
13.
|
निमुहा
धन
|
110-113
|
14.
|
पगड़बंधा
|
114-116
|
15.
|
दरकल
खपरी
|
117-126
|
ठेठ मगही शब्द ("अ" से "क" तक):
1 अँकवार (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।) (कसोमि॰17.3)
2 अँचरा (= आँचल) (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।") (कसोमि॰47.8; 117.10, 13)
3 अँचार-मिचाय (कत्ते बेरी चलित्तर बाबू अपन मेहरारू के समझइलका हे - बुतरू के पेट माय के खान-पान पर निर्भर करऽ हे । तों खट्टा-तीता छोड़ दऽ ... तऽ देखहो, एकर पेट ठीक होवऽ हइ कि नञ् । बकि असमाँवली के दूध-घी, तीअन-तिलौरी दे, चाहे मत दे, अँचार-मिचाय जरूर चाही । मास्टर साहब आजिज हो गेला हे मेहरारू के आदत से - जो, मर गन, हमरा की लेमें, बकि बाला-बचवा पर ध्यान दऽ । बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ ।) (कसोमि॰100.1)
4 अँटना (= समाना, बैठना, घुसना, भरना) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।; एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक ।) (कसोमि॰17.4; 104.1)
5 अंगइठी (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल ।; बासो उतरके अलकर-झलकर फेंकइ में लग गेल । मुनमा के समदइत कहलक - जा, नहा-धो लिहऽ । मुनमा अंगइठी लेके डाँड़ा सोझ कइलक आउ पैन दने चल गेल ।) (कसोमि॰47.7; 94.21)
6 अंगा-पैंट (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; झोला-झोली होते-होते मुनमा अंगा-पैंट पेन्ह के तइयार भे गेल । गुडुआ के घर पुरवारी दफा में हल । ओकर घर पहुँचल तऽ ऊ अभी नहइवो नञ् कइलक हल ।) (कसोमि॰93.15; 94.24)
7 अंगुरी (= उँगली) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !; ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; - बाबा पटना गया था तो मम्मी क्या बोलती थी ? जूली एगो रहस के बात बोलल । - चुप्प ! गौरव अपन होठ पर अंगुरी रख के आँख चीरले डाँटलक ।) (कसोमि॰13.19, 23; 70.18)
8 अंगू (छोटकी भी जा रहल हल। ओकर टेनलगुआ छउँड़ा साथ जा रहल हल। बेटी बड़की पर छोड़ दे रहल हल । छउँड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।) (कसोमि॰125.9)
9 अइँचा-पइँचा (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।) (कसोमि॰122.7)
10 अइँटा (= ईंट) (कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ? ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल ।; एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।) (कसोमि॰21.27; 27.15)
11 अइंटखोला (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰34.27)
12 अइना (= आइना) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।; छोटकी भी जा रहल हल। ओकर टेनलगुआ छउँड़ा साथ जा रहल हल। … छउँड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।) (कसोमि॰28.10, 11; 125.10, 11)
13 अइसइँ (= अइसीं, अइसहीं; ऐसे ही, इसी तरह) (अइसइँ बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल ।; ठीकेदरवा के पो बारह । ऊ तऽ बालुए घाट के कमाय से बड़का धनमान बन गेल । अइसइँ एकर ठीका ले मार होवऽ हइ !; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा ।) (कसोमि॰11.13; 33.27; 37.26)
14 अइसन (= ऐसा) (रेकनी के तऽ कुछ नञ् बिगाड़लूँ हल, भलुक केकरो नञ् बिगाड़लूँ हल । रेकनी अइसन काहे बोलल ?) (कसोमि॰24.9)
15 अइसहीं (= अइसइँ, अइसीं; ऐसे ही, इसी तरह) (अइसहीं छो-पाँच करइत पोखन के नीन आ गेल । सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल ।) (कसोमि॰63.2)
16 अइसीं (= अइसहीं; ऐसे ही) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।; अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल, जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।) (कसोमि॰50.23; 120.13)
17 अईटा (दे॰ अइँटा; ईंट) (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल ।) (कसोमि॰59.24)
18 अउ (= आउ; और) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।; मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰11.3; 78.8)
19 अउसो (~ के = ऐसे भी) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !; एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक । ऊ खाली इसारा के इंतजार में हल । कुरसी खिसकल नञ् कि बिर्रऽऽ धकिअइते, ठेलते, कूदते !डेवढ़ी में अउसो के सामा सब के डेरइतो - ओहाऽऽ !) (कसोमि॰47.27; 104.5)
20 अकचकाना (= आश्चर्यचकित होना) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.12)
21 अकानना (= ध्यान से सुनना) (मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक ।) (कसोमि॰95.7)
22 अकुलाना (= व्याकुल होना) (ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे । सब के अलग-अलग रंग । फेनो सब रंग घटमाँघेट हो गेल हे । एगो बड़गर भँवर भँउर रहल हे आउ तेकरा बीच लाजो ... लाजो नाच रहल हे ... अकुला रहल हे ।; बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के । अन्हार ... घुज्ज अन्हार । समली अकुला जा हल ।) (कसोमि॰46.13; 59.13)
23 अकौड़ी-पकौड़ी (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.19)
24 अक्खज (जब ने तब हमरे पर बरसत रहतउ। दीदी तऽ दुलारी हइ। सब फुल चढ़े महादेवे पर । ओकरे मानऽ हीं तऽ ओहे कमइतउ। हम तऽ अक्खज बलाय हिअउ। फेंक दे गनउरा पर। नञ् जाम कोकलत। कय तुरी नहा अइलूँ हे।) (कसोमि॰120.3)
25 अखइना (दे॰ अखैना) (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।") (कसोमि॰123.13)
26 अखनइँ (= अखनहीं; अभी) (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?") (कसोमि॰83.9)
27 अखनञ् (= अखनइँ, अखनहीं; अभी) (- पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ । - अखनञ् से चिंता सताबऽ लगलउ ? तितकी कनखी मारइत बोलल । लाजो ढकेल देलक ओकरा झुलुआ पर से । तितकी पलट के लाजो के हाथ पकड़लक आउ खींच लेलक । लाजो तितकी के बाँह में ।) (कसोमि॰49.3)
28 अखैना (= अखेता, अखेना, अखौना; एक प्रकार की टेढ़ी लकड़ी जिससे दौनी के समय फसल को उकटते हैं) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.21)
29 अगलगउनी (तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल । ऊ दिन घर आके माय से कहलक, "माय, हमहूँ पढ़े जइबउ ।" माय तऽ बाघिन भे गेल, "तोर सउखा में आग लगउ अगलगउनी !" माय के लहलह इंगोरा सन आँख तितकी के सपना के पाँख सदा-सदा लेल झौंस के धर देलक ।) (कसोमि॰118.27)
30 अगाड़ी (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.2)
31 अगिया बैताल (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰117.17)
32 अगुआनी (एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ?) (कसोमि॰29.22)
33 अगे (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।; - काडा पर कतना जमा भेलउ ? - कहाँ कते, इहे डेढ़ सो लगू । - पचीस पैसा छूट पर बेच ने दे । हाथ पर पैसो भे जइतउ । हम की करऽ हिअइ ! अगे, गाँव में कते तऽ ओहे पइसवा से सूद लगावऽ हइ । नगदी रहतउ तऽ इंछा के चीज बजार से कीन लेमें । सब चीज भंडरवे से तऽ नञ् ने भे जइतउ ।; के बिनलकउ सुटरवा, बहिनधीया ? अंजू के नावा सूटर देख के समली पुछलक आउ ओकर देह पर हाथ फिरावऽ लगल । - नञ्, अपनइँ ने बिनलिअउ । बरौनियाँ में सिखलिअउ हल । हमर इस्कूल में एगो सक्खि हलउ, ओहे बतैलकउ । एक दिन में तऽ सीखिये गेलिअइ । - अगे हमरो सिखा ने दे ।) (कसोमि॰48.14, 25; 58.12)
34 अग्गब (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰120.27)
35 अघाना (= संतृप्त होना, रज जाना) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ ।) (कसोमि॰79.20, 21)
36 अचक्के (दे॰ अनचक्के; अचानक) (अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।) (कसोमि॰60.9)
37 अचौनी-पचौनी (आज ऊ समय आ गेल हे । सितबिया हनहनाल बमेसरा दुआर चलल । बड़ तर बमेसरा मांस के पैसा गिन रहल हल । ओकरा बगल में कत्ता आउ खलड़ी धइल हल । कटोरा में अचौनी-पचौनी । सितबिया लहरले सुनइलक - हमर घर के हिसाब कर दे ।) (कसोमि॰108.15)
38 अजगुत (= आश्चर्यजनक) (खुशी में भूल गेल साँप-बिच्चा के भय । ओकर मन में हाँक के हुलस हल, मुँह में गूँड़-चाउर के मिठास आउ कान में फुटोऽऽ रे फुटोऽऽ के अजगुत संगीत । ओकर आँख तर खंधा नाच रहल हे - गुज-गुज ... टार्च ... लालटेन ।) (कसोमि॰93.12)
39 अजलत (मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?) (कसोमि॰123.10)
40 अजुरदा (खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन ! हम तऽ माउग हिअन । माउग कि तोर खाली टासे बनइते रहतो ! ओकरा आउ कुछ मन करऽ हइ कि नञ् ! छाम-छीन नञ्, बकि सिनुरा-टिकुली नञ् ? सोहागिन के बाना चूड़ी भी लावइ से अजुरदा ।) (कसोमि॰101.9)
41 अजोधा (= अयोध्या) (" ... पागल नञ् होथिन तऽ आउ की, अजोधा जी के बड़ी छौनी के महंथ बनथिन ।" गाँव के चालो पंडित बोल के कान पर जनेउआ चढ़ावइत चल देलन नद्दी किछार ।) (कसोमि॰29.9)
42 अझका (= आज का, आज वाला) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।) (कसोमि॰13.10)
43 अड़ोस-पड़ोस (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.20)
44 अदंक (तहिये से हरगौरी बाबू खटिया पर गिरला आउ बोखार उतरइ के नामे नञ् ले रहल हे । एक से एक डागदर अइलन पर कुछ नञ् ... छाती हौल-हौल करऽ हे । सुनऽ ही, बड़का डागदर कह देलन हे कि इनका अदंक के बीमारी हे ।) (कसोमि॰56.14)
45 अदमदाना (अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक । जगेसर सिकरैट पीअ हल । एक खतम होवे तऽ दोसर सुलगा ले । धुइयाँ से सुकरी के मन अदमदा गेल ।) (कसोमि॰41.25)
46 अदमियत (सिवाला में भजन-कीर्तन होवऽ हल । अब तो भोंभा खोल देलक, भगवान के आरती खतम । वरदान पइतन भोंभे ने । कुकुरमुत्ता नियन घर पर घर फैलल जाहे, अदमी बढ़ल जाहे, अदमियत हेराल जाहे ।) (कसोमि॰23.16)
47 अदमी (= आदमी) (सिवाला में भजन-कीर्तन होवऽ हल । अब तो भोंभा खोल देलक, भगवान के आरती खतम । वरदान पइतन भोंभे ने । कुकुरमुत्ता नियन घर पर घर फैलल जाहे, अदमी बढ़ल जाहे, अदमियत हेराल जाहे ।; भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।) (कसोमि॰23.16; 30.19)
48 अदरा (= आर्द्रा नक्षत्र; इस अवसर पर बनाया गया विशेष भोजन, अदरिया) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक । अदरा में खीर पका के अप्पन बाल-बुतरून के खीर खिलावे के साध एगो टीस बन के ओक्कर सीना में धँसले रह गेल ।; अदरा खीरे के ! खीर नञ् तऽ अदरा की ? अदरा में माय बेटा के खीर खिलावे हे । नञ् जुरे तऽ घोंघा में भी बना के खिलावऽ हे, सितुआ में परस के ! ऊ माय की, जे अदरो में अपन बेटा के खीर नञ् खिलइलका ! हाय रे अदिन ! हमर टोला-पड़ोस में अदरा बनइत देखऽ हे अउ दिनिया-दिनिया आवऽ हे । अँचरा खींच-खींच के कहऽ हे - हमरा घर कहिया अदरा होतइ ? - होतइ बेटा । - कहिया होतइ ? लखेसरा घर तऽ आझे हो रहलइ हे । - तोरा घर कल होतउ । - कल काहे ? अदरा आज हइ अउ ई कल बनइतइ ! आझे बनाव अदरा ।) (कसोमि॰6.27; 32.1, 2, 3, 4, 6, 11, 12)
49 अदरिया (दूध के याद अइते ही ओकर ध्यान अदरा पर चल गेल । बुतरून के कह के आल हे, अदरिया बनइबउ । तहिया सुकरी अदरा के आदर से मानऽ हल । घर में गाय, दूध के कमी नञ् । मोरहर के बालू ढोलाय, कोयला के मजूरी ।; सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल । लेकिन तखनइँ ओकरा सामने बुतरून के देल कउल याद आ गेल - 'आज अदरिया बनइबउ' आउ मोटरी के भार कम गेल । मलकल टीसन पहुँच गेल ।) (कसोमि॰34.25; 36.17)
50 अदहन (चारो अनाज तार-तूर के बरकइ ले छोड़ देलक आउ अदहन चढ़इलक। खिचड़ी बनते-बनते रनियां आ जात। आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल।) (कसोमि॰121.11)
51 अदारना (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.21)
52 अधबहियाँ (परेमन, छोटका भाय के लड़का । हाफ पैंट आउ मैल अधबहियाँ गंजी पेन्हले ओज्जइ गुमसुम खड़ा सब बात सुन रहल हल । ओकरा बात में कुछ रहस लगल, से से पुछलक - की कहऽ हलउ तोर मम्मी ? तोर मम्मी हम्मर बाबा के पटनमा में की कहऽ हलउ ?) (कसोमि॰70.20)
53 अनकना-परखना (ई फिल्म के सूटिंग घड़ी एकाध बरस तक सत्यजित राय के कार्य-पद्धति के अनके-परखे के क्रम में उनका एकदम नगीच से देखे के विलक्षण अवसर हमरो मिलल हल ।) (कसोमि॰5.19)
54 अनका (= अनकर; दूसरे का) (आवे घरी छोटकी गोतनी अपन बकरी से कह रहल हल, "गिआरी में घंटी टुनटुनइले चलऽ हल । बाप के हल ? खोल लेलकउ ने करुआमाय । अनका माल पर भेल झमकउआ, छीन-छोर लेलक तऽ मुँह भे गेल कउआ ।") (कसोमि॰119.9)
55 अनकुरा (= अनकुराह; असुविधाजनक, कष्टदायक) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।) (कसोमि॰50.24)
56 अनचके (= अनचक्के, अचानक) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.12)
57 अनचक्के (= अचानक) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।; आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।; अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।) (कसोमि॰16.4, 26; 18.3)
58 अनदिनमा (= किसी दूसरे समय; हर दिन, रोज) (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।) (कसोमि॰122.9)
59 अनरुखे (मुहल्ला के अजान सुन के नीन टूटल । उठके थोड़े देरी ओझराल सपना के सोझरावत रहल । खुमारी टुटला पर खैनी बनैलक आउ अनरुखे पोखर दने चल गेल ।) (कसोमि॰63.12)
60 अन्नस (ओकरा याद आल वारसलीगंज के चीनी मिल । तरेगना साथ देखइ ले गेल हल । बाप रे बाप ! सों ... सों ... सों ... घड़घड़ ... अन्नस ! मसीन तर जाड़ा में भी पसेना । तरेगना मौज में होत ।) (कसोमि॰15.14)
61 अन्हरिया (= अंधेरा) (~ रात = अंधेरी रात) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।; मुनियाँ सोचले जा रहल हल । ओकर ठोर पर मीठ मुस्कान के रेघारी देखाय पड़ल आउ कान लाल भे गेल । दिन रहत हल तऽ कोय भी बुझ जात हल । ओकरा रात आउ अन्हरिया काम देलक । ओकरा लगल - रात-दिन अन्हरिए रहत हल कि मन के बात कोय नञ् बूझत हल ।) (कसोमि॰28.15; 65.12, 13)
62 अन्हरी (= अंधी) (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.19)
63 अन्हरुक्खे (दे॰ अन्हरुखे) (अन्हरुक्खे बारह पौंट के सूट बीनइवला काँटा लेले अंजू समली घर दौड़ल । गाँव में समलीये अइसन लड़की हल जेकरा भिजुन ओकरा मन लगऽ हल । कल समली कहलक हल - अंजू, अब हम नञ् मरबइ गे । देखो हीं नञ्, अब हम बुलऽ लगलिअइ ।; खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !) (कसोमि॰57.1; 75.22)
64 अन्हरुखे (= सूर्योदय के पहले जब फरीछ न हुआ हो) (आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।) (कसोमि॰14.11)
65 अन्हार (= अंधकार) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक ।; कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰6.26; 27.26)
66 अन्हार-पन्हार (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।) (कसोमि॰66.4)
67 अपनइँ (= अपनहीं, खुद्दे; खुद ही) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.12)
68 अपीसर (= अफसर) (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।) (कसोमि॰71.2)
69 अबरिए (कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ । अबरिए देखहो ने, पहिले तऽ दहा देलको, अंत में एक पानी ले धान गब्भे में रह गेलो । लाठा-कूँड़ी से कते पटतइ । सब खंधा में टीवेल थोड़वे हो ।) (कसोमि॰73.1)
70 अबरी (= अगली बार) (छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम ! ऊ तऽ बोतले से सगाय कइलक हे, ढेना-ढेनी तऽ महुआ खोंढ़ड़ से अइलइ हे । अबरी आवे, ओकरा पूछऽ हीअइ नोन-तेल लगा के ।; ऊ टटरी लगा के टंगल दोकान गेल आउ बीड़ी-सलाय के साथे-साथ दलमोट खरीद के आल आउ फेन खाय-पीए में जुम गेल । अबरी पानी मिला के दारू बनइलक अउ दलमोट के साथ घूँट भरऽ लगल ।) (कसोमि॰35.13; 83.12)
71 अबाद (= आबाद) (जहिया से लाजो बीट कराबइ ले काशीचक जा रहल हे, बाउ के सउदा-सुलुफ से फुरसत । तितकी आउ लाजो के जोड़ी अबाद रहे ।) (कसोमि॰48.2)
72 अमउरी (= अमौरी) ("बरतन अर पर धेयान रखिहें। देख, एगो थरिया, एगो लोटा, एगो गिलास आउ पलास्टिक के मग रख दे हिअउ। निम्मक-मिचाय, अमउरी आउ चिन्नी भी दे देलिअउ हे।" थइला के चेन लगवइत माय बोलल।) (कसोमि॰125.5)
73 अर (= निरर्थक शब्द के रूप में प्रयुक्त) (ई मुखिबा कहतउ हल हमरा अर के ? एकर तऽ लगुआ-भगुआ अपन खरीदल हइ । देखहीं हल, कल ओकरे अर के नेउततउ । सड़कबा में की भेलइ ? कहइ के हरिजन के ठीका हउ मुदा सब छाली ओहे बिलड़बा चाट गेलउ । हमरा अर के रेटो से कम ।; इनखा पर देवता के कोप हन । दावा अर के दिन भी नञ् देखइलथिन । सात जगह के मट्टी, हथसार, बेसवा ... चाँदी के नाग-नागिन, बारह बिधा एक्को नञ् पुरैलथिन ।; एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ?; ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल । किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ?) (कसोमि॰12.17, 18, 20; 29.6, 22; 39.21)
74 अरउआ (= बैल-धुर हाँकने का डंडा) (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।; चलित्तर बाबू के आँख तर इसकूल नाच गेल - छमाहिओ में चोरी । पढ़े-लिखे तब तो ! रोज इसकूलो नञ् अइतो ! माय-बाप दे देलको अरउआ आउ जोर-हँसुआ, दोसर के चरइहें, काट-उखाड़ के घरो लइहें ।) (कसोमि॰88.17; 100.21)
75 अरजगर (= {कपड़ा आदि का} चौड़ाई, ओसार, या पनहा वाला) (हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे । गारो झपट के लेलक अउ रपरपाल घर दने सोझिया गेल हे । रह-रह के कम्मल पर हाथ फेरऽ हे ... देखऽ हे । उघारलक हे ... नापलक हे ... अरजगर हे ... ओह, हाय रे हाय !) (कसोमि॰18.2)
76 अरी-बरी (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.19)
77 अलंग (= मोटी, ऊँची और चौड़ी मेड़ या आरी) (बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे । - देखहीं ने बाऊ, कइसन लगऽ हइ अहरवा !; अलंग पर के रोसनी आहर में उतर गेल हे ।; - भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान ! / बासो तऽ निमियाँ आउ बेलदरिया से तेसरे साल विदा भे गेल । बचइ माधे ईहे दस कट्ठा भिखरिया हल बकि ... एहो ... । भिखरिया के अलंग पर दुन्नू बापुत के गोड़ बढ़ल जाहे ।; चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।) (कसोमि॰95.18, 23; 96.14; 101.13)
78 अलंग-पलंग (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? पिपरा तर के जरसमने की हउ ? कुल बिक जइतउ तइयो नञ् पुरतउ । अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले ।) (कसोमि॰51.24)
79 अलकर-जलकर (= अलकर-बलकर; झाड़न-बुहारन, कूड़ा-कतवार, लक्कड़-झक्कड़) (रस-रस दिन लुकलुका गेल । बचल खपड़ा निस्तार के बासो बकिए में गाढ़ से नेबरिए छार देलक । ... बासो उतरके अलकर-झलकर फेंकइ में लग गेल । मुनमा के समदइत कहलक - जा, नहा-धो लिहऽ ।) (कसोमि॰94.19)
80 अलगंठे (पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।) (कसोमि॰84.11)
81 अलमारी (= आलमारी) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.11)
82 अलमुनिया (= अलुमुनियम) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।) (कसोमि॰13.16)
83 अलमुनियाँ (= अलमुनिया; अलुमिनियम) (अलमुनियाँ के कटोरा आग पर रख देलक । फेन सोचलक - बिना खौलले दूध में सवाद नञ आत । ढेर दिना पर तऽ लिट्टी-दूध खाम । तनी देरिए से भेत । से से बचल डमारा जोड़ के छोड़ देलक ।; अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल ।; पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।; बाऊ चौका पर बैठ गेल हल । मुनमो ओकरे साथ बैठ गेल । अलमुनियाँ के थारी में मकइ के रोटी आउ परोर के चटनी ।) (कसोमि॰20.12, 23; 80.17; 92.24; 94.1)
84 अलूदम (= आलू-दम) (- अरे, अदरा पनरह दिन चलऽ हइ बेटा ! - पनरह दिन अदरा हमरो घर चलतइ ? - अदरा एक दिन बनाके खाल जा हइ । - की की बनइमहीं ? - खीर, पूरी, रसिया, अलूदम ! - लखेसरा घर तऽ कचौड़ी बनले हे । ओकर बाऊ ढेर सन आम लैलथिन हे । ई साल एक्को दिन आम चखैलहीं माय ?) (कसोमि॰32.17)
85 अलोधन (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।) (कसोमि॰37.22)
86 अलोपना (= गायब होना, अन्तर्धान होना, दृष्टि से ओझल होना) (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।) (कसोमि॰55.13)
87 अल्लो-मल्लो (बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात । ईहे सब सोच के घर-जमीन सब बेच देलक आउ चल आल नइहरवे ... भइवे के ओठर धर के जिनगी काटम । भतीजवो सब अल्लो-मल्लो कर लेलकइ । बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल ।) (कसोमि॰106.5)
88 अवाज (= आवाज) (भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।) (कसोमि॰30.21)
89 असमान (= आसमान) (~ खिंड़ना) (असमान में सुरूज-बादर के खेल चल रहल हल । सामने वला पीपर पेड़ से एगो बगुला उड़ल । क्यूल दने से डीजल आ रहल हल ... अजगर । तितकी बुदबुदाल - छौंड़ापुत्ता गड़िया लेट करतइ ... रुन्हन ।; लोटा उठा के एक घूँट पानी लेलक आउ चुभला के घोंट गेल ... घुट्ट । ऊ फेनो एगो बीड़ी सुलगइलक आउ कस पर कस सुट्टा मारऽ लगल । भित्तर धुइयाँ से भर गेल । नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन ।) (कसोमि॰51.4; 81.4)
90 असरा (= आसरा; आशा) (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।; एक दिन केस के तारीख हल । नवादा टीसन पर बरमेसरा आउ सितबिया संझउकी गाड़ी के असरा देख रहल हल । गाड़ी लेट हल ।) (कसोमि॰59.9; 106.18)
91 असाढ़ी (= आसाढ़ी; आषाढ़ मास का) (हँसइत बलनेकी सिंह पुछलथिन - की बुझलहो भगत जी ? तोहर पोथिया में ई सब लिखल हइ ने ? ढेर बुझले होवऽ तऽ असाढ़ी पूजा के मलपूआ ।) (कसोमि॰28.7)
92 असिआस (~ चढ़ना) (समली के मुँह पर हाथ रखइत कहलक हल - मरे के बात मत कह समली, हमरा डर लगऽ हउ । - पगली, अब बोखार-तोखार थोड़े लगऽ हइ । खाली कमजोरी रह गेले हे । बुलबउ तऽ असिआस चढ़ जइतउ । सहों-सहों सब ठीक हो जइतइ ।) (कसोमि॰57.8)
93 असिरवाद (= आशीर्वाद) (असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका । - के हऽ ? पछान के - पहुना ... खोस रहो, कहलका आउ माथा पर हाथ रखइत पुछलका - आउ सब ठीके हइ ने ? - सब असिरवाद हइ ।; पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।) (कसोमि॰73.11; 115.18)
94 असीरवादी (अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ । ढेर होतइ तऽ गौंढ़ा बिकतइ । जा बेटी, राज करो । बाउ एकसरुए बोलते जा रहला हे । ओकरा लगल जइसे लाजो विदा हो रहल हे आउ ऊ असीरवादी दे रहल हे ।) (कसोमि॰52.12)
95 अहरा (चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।) (कसोमि॰101.12, 13)
96 अहरी (= आरी) (रस्ता में मकइ के खेत देखलका तऽ ओहे हाल । सगरो दवा-उबेर । उनकर माथा घूम गेल । ऊ पागल नियन खेत के अहरी पर चीखऽ-चिल्लाय लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल । उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल ।) (कसोमि॰26.15)
97 अहल-बहल (= अल-बल; आलतू-फालतू) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।) (कसोमि॰13.27)
98 अही-बही (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.17)
99 अहुआ-पहुआ (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.21)
100 आ (= आध; आधा) (~ सेर दूध) (ऊ लौटे घरी चाह के दोकान से आ सेर लगू दूध कीन लेलक हल । वइसे तो दूध-चाह ले लेलक हल आउ सोचलक हल कि बचत से पी जाम बकि बर तर झोला रखते-रखते ओकर मन में लिट्टी-दूध खाय के विचार आल ।; आ सेर लगि गरई चुन के बिठला नीम तर चल गेल आउ सुक्खल घास लहरा के मछली झौंसऽ लगल - "गरई के चोखा ... रस्सुन ... मिचाय आउ घुन्नी भर करुआ तेल । ... उड़ चलतइ !"; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰20.3; 77.10; 92.23)
101 आँटा (= आटा) (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी । लिट्टी कि छोटका बेल ! बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी ।; ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे । बिठला तीन रात के कमाय लेके घर आवे घरी रस्ते में मछली मारलक हल आज ... खाय से जादे । आधा लउट के बजार में बेच देलक अउ मर-मसाला, कलाली से दारू लेके आल हल । आँटा घरे हल ।) (कसोमि॰21.2; 78.13, 16)
102 आँटी (बासो मैना बैल के दू आँटी नेबारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेबारी तोड़ रहल हल ।) (कसोमि॰95.2)
103 आँन्हीं (= आन्हीं; आँधी) (पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।) (कसोमि॰115.16)
104 आउ (= अउ; और) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।; ओकर जिनगी पानी पर के तेल भे गेल, छहरइत गेल । आउ छहरइत-छहरइत, हिलकोरा खाइत-खाइत फेनो पहुँच गेल अपन गाँव, अपन जलमभूम ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰13.16; 25.2; 46.21)
105 आक्-थू (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक ।; "कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !") (कसोमि॰24.16; 87.6-7)
106 आखवत (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । …खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल । जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके ।) (कसोमि॰78.23)
107 आगरो (गीत अभी खतमो नञ् होल हल कि पोखन अँगना में गोड़ धइलका । सबके नजर उनके दने । कमोदरी फुआ चहकली - सगुन आ गेल । पोखन के काटो तऽ खून नञ् । ऊ कुछ नञ् बोलल, पछाड़ खाके हम्हड़ गेल । पिंडा बबाजी के आगू में फलदान के थरिया उदास । तखनञ् मुनियाँ आंतीवल भौजी के घर से आल । ऊ छन भर में सब बात समझ गेल । जेकरा पर बीतऽ हे ओकरा जल्दी गेआन भे जाहे । आगरो एकरे ने कहल जाहे ।) (कसोमि॰67.10)
108 आगू (= आगे) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।; रस-रस उनकर घर के आगू भीड़ जमा हो गेल । सब देख रहलन हल । ऊ छत पर नाच-नाच के 'हाल-हाल' कर रहला हे । सब के मुँह से एक्के बात - पगला गेलथिन, इनका काँके पहुँचा देहुन ।; बूढ़-पुरनियाँ कहऽ हलन - गाँव के घर चौकीता होवे के चाही, आगू में गोसाला ।) (कसोमि॰19.15; 27.5, 19)
109 आगू-आगू (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।) (कसोमि॰36.15)
110 आगू-पीछू (= आगे-पीछे) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।) (कसोमि॰77.25)
111 आजिज (= तंग, परेशान) (कत्ते बेरी चलित्तर बाबू अपन मेहरारू के समझइलका हे - बुतरू के पेट माय के खान-पान पर निर्भर करऽ हे । तों खट्टा-तीता छोड़ दऽ ... तऽ देखहो, एकर पेट ठीक होवऽ हइ कि नञ् । बकि असमाँवली के दूध-घी, तीअन-तिलौरी दे, चाहे मत दे, अँचार-मिचाय जरूर चाही । मास्टर साहब आजिज हो गेला हे मेहरारू के आदत से - जो, मर गन, हमरा की लेमें, बकि बाला-बचवा पर ध्यान दऽ । बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ ।; उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !) (कसोमि॰100.1; 101.4)
112 आदर (= अदरा, आर्द्रा नक्षत्र) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।) (कसोमि॰80.2)
113 आन (~ दिन = बाकी दिन; दूसरा दिन) (आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।; आज चलित्तर बाबू आन दिन से जादे थकल हला । बात ई हल कि चंडीनोमा हाय इसकूल में दू गो मास्टर के विदाय हल । ई से चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल ।; - ... हम एक राय दिअउ ? - अरे, तों कि आन हें ? तों जे भी कहमें, हमरे फइदा ले ने । जे जरूरी लगउ से कह आउ कर, पूछे हें कि ?) (कसोमि॰16.25; 98.12; 106.24)
114 आन-जान (= अनइ-जनइ; आना-जाना) (दोकान में दू गाहक आउ आ गेल हल । मौली तनि घसक के बात आगू बढ़इलक - हमर आन-जान देखो हो, हे केकरो दुआरी पर ? हमरा ठोकर लगल हे ।) (कसोमि॰111.12)
115 आन्हर (= अन्धा) (मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । - कहाँ हइ ? - आन्हर ... मुनमा माय तावा में रोटी देके बहराल तऽ ओहा चेहा गेल । - एज्जइ तऽ रखलिए हल ... के उठा लेलकइ ?) (कसोमि॰92.1)
116 आन्ही (= आँधी) (लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल । बाउ घिघिआइत रहला, लोराइत रहला, चिल्लाइत रहला अउ अंत में शान्त हो गेला । आन्ही के पहिलकी शान्ति । भित्तर में आग, तूफान, बवंडर ।; भोट देके निकल रहल हल कि बूथ लुटेरवन छेंक लेलक। गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आउ ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल।; छोटकी आन्हीं सन आल आउ झपट के छंउड़ा के उठा के ले गेल। रनियाँ के काटऽ तऽ खून नञ्।) (कसोमि॰55.15; 121.24; 125.13)
117 आहर (= अहरा) (दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे । - देखहीं ने बाऊ, कइसन लगऽ हइ अहरवा !; अलंग पर के रोसनी आहर में उतर गेल हे ।) (कसोमि॰95.20, 23)
118 इंगोरा (तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल । ऊ दिन घर आके माय से कहलक, "माय, हमहूँ पढ़े जइबउ ।" माय तऽ बाघिन भे गेल, "तोर सउखा में आग लगउ अगलगउनी !" माय के लहलह इंगोरा सन आँख तितकी के सपना के पाँख सदा-सदा लेल झौंस के धर देलक ।) (कसोमि॰118.27)
119 इंछा (= हिंछा; इच्छा) (- काडा पर कतना जमा भेलउ ? - कहाँ कते, इहे डेढ़ सो लगू । - पचीस पैसा छूट पर बेच ने दे । हाथ पर पैसो भे जइतउ । हम की करऽ हिअइ ! अगे, गाँव में कते तऽ ओहे पइसवा से सूद लगावऽ हइ । नगदी रहतउ तऽ इंछा के चीज बजार से कीन लेमें । सब चीज भंडरवे से तऽ नञ् ने भे जइतउ ।) (कसोमि॰48.26)
120 इंजोर (= प्रकाश, रोशनी) (मिठाय पट्टी में एक जगह डिलैट के इंजोर हे । जनरेटर के हड़हड़ी बंद हो गेल हे ।) (कसोमि॰81.20)
121 इंजोरिया ('चिन्हऽ हीं नञ्', कहइत लाजो गाछ भिजुन चल गेल । टहपोर इंजोरिया में अमरूद के गाछ के छाहुर ... इंजोरिया आउ छाहुर के गलबात ।) (कसोमि॰46.17)
122 इनकोरी (= इन्क्वायरी; जाँच-पड़ताल) (बासो दरी खन के खंभा खड़ा कइलक आउ बोलल - फुटलका खपड़वा खँचीवा में लइहें तो ... अइँटा के टूट रहते हल । टीवेल के अइँटा तऽ सब ढो लेलकइ । बासो डाँटलक हल मुनमा के - मत लइहें, ... ठीकेदरवा केस कर देलकइ हे । गाँव में इनकोरी होतइ ।) (कसोमि॰90.9)
123 इनार (= इनारा; कुआँ) (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?") (कसोमि॰18.8)
124 इन्नर (= इन्द्र) (जहिया बिजुरी नञ् चमके, बादर नञ् कड़के, उठले पर पता चले - रात इन्नर दरसन देलका हल ।) (कसोमि॰28.4)
125 इमसाल (= इनसाल; ई साल; वर्तमान वर्ष में) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।) (कसोमि॰27.9)
126 इसकुलिया (बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे । ओकर इसकुलिया डरेस के तितकी छू-छू के देखऽ हल । एक दिन घाट पर सक्खी एकरा अपन डरेस पेन्हा देलक अउ कहलक हल, "कैसी इसकुलिया लड़की लगती है !" तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल ।) (कसोमि॰118.22, 24, 25)
127 इसपिरेस (= एक्सप्रेस) (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी । फेन तऽ मत कहऽ, किसुन इसपिरेस हो गेल ।) (कसोमि॰24.25, 26)
128 इस्स-इस्स (मन ~ कर उठना) (मिथिलेश दा के कहानी कहे के अंदाज एतना जीवंत हे कि मन इस्स-इस्स कर उठे हे ।) (कसोमि॰7.14)
129 ईखरी-पिपरी (= खखरी-पिपरी) (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰96.6)
130 ईमसाल (दे॰ इमसाल) (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !; - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत । - मूरे पलटे, साव नितराय ! ओइसने हे ईमसाल के खेती ।- ईमसाल कि सालो-साल ।; ऊ मने-मन सोचलक - खैर, ईमसाल तो फुटोऽऽ रे फुटोऽऽ करबे करम । बात कइल हे । देखल जात अगला साल ।; बासो रुक जाहे । किसुन सिंह हाँक देबइ ले नञ्, दखल करइ ले आल हे । बेईमनमा ... बासो धान रोपला पर रजिस्टरी करइलक हल । बात तय हल कि ईमसाल के धान बटइया रह जइतो, हाँक हमहीं देबो ।; बुलकनी के अउसो नइहरे से माय कूट-पीस के भाय पहमा भेजवा दे हल । बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो ।) (कसोमि॰61.10, 17; 62.1; 91.9; 96.27; 117.5-6)
131 ईहे (= एहे; यही) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰46.19)
132 उकटना (= उलट-पलट कर ऊपर-नीचे करना; किसी को भला-बुरा कहना) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।; तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।; ऊ उठल आउ बोरसी उकट के खटिया तर देलक, कम्बल तान के लोघड़ गेल । नीचे-ऊपर के गरमी मिलल कि गोड़ टाँठ करके करवट बदललक ।) (कसोमि॰23.21; 24.18; 62.14)
133 उकटा-पैंची (बस, बात बढ़ गेल। सात कुरसी के उकटा-पैंची भेल। हाथ उलार-उलार के दुन्नू अँगना में वाक्-जुद्ध करऽ लगल। महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में।) (कसोमि॰122.16)
134 उकबुकाना (= कुम्हलाना, to be suffocated) (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही । बीच-बीच में मुँह निकाले पड़तो । खुरखुरी से हाली-हाली नीन टूट जइतो ।) (कसोमि॰17.20)
135 उगाही (बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक । डमारा के ढेरी, हसनपुर के जनेगर पहाड़ । ओकरे से उसार के लिट्टी बनऽ हल । एक खंधा के सब खरिहान से उगाही होवऽ हल ।; एगो लमहर सोंवासा लेके किसुन मट्टा फोरलक आउ बुदबुदाल - दमाही नञ् तऽ उसार के उगाही कइसन । उगाही नञ् तऽ उसार के सहभोज कइसन ।) (कसोमि॰23.24; 24.1)
136 उग्गिल-पिग्गिल (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।) (कसोमि॰33.12)
137 उघड़ल (= उघरल; खुला हुआ) (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।) (कसोमि॰60.12)
138 उघार (= खुला; पर्दा, कपड़ा, ढक्कन आदि हटा हुआ) (ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल । ओकर देह लजउनी घास भे गेल । ऊ करवट बदललक । ओढ़ना खाट से कम चउड़ा । लाजो के देह बाहर भे गेल, पीठ उघार ।) (कसोमि॰47.1)
139 उघारना (= खोलना, परदा या ढँक्कन हटाना) (हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे । गारो झपट के लेलक अउ रपरपाल घर दने सोझिया गेल हे । रह-रह के कम्मल पर हाथ फेरऽ हे ... देखऽ हे । उघारलक हे ... नापलक हे ... अरजगर हे ... ओह, हाय रे हाय !; अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।) (कसोमि॰18.2; 60.9)
140 उचकाना (= उठाना) (बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।) (कसोमि॰74.6)
141 उछाड़ो (= उसार) (ओकरा फेन खरिहान के उछाड़ो वला महाभोज याद आ गेल । सरवन चा कहलका हल - टूरा, कल हमर खरिहान अइहें, फेन लिट्टी-दूध चलतइ ।) (कसोमि॰25.10)
142 उतरबारी (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल । - समली बेचारी तऽ ... । अंजू के गोड़ थम गेल । - की हलइ ? अंजू पलट के पुछलक । - बेचारी रातहीं चल बसलइ हो । एतना कहइत लाटो चा लफ के उतरबारी गली में बैल मोड़लका ।; फुफ्फा जइसे नस्ता करके उठला आउ अँगना में उतर के उतरवारी ओसरा होके डेवढ़ी पहुँचला कि उनकर कान में आवाज आल - फेंक दो, थडकिलासी समान बच्चो को देता है, बीमारी का घर ।) (कसोमि॰60.2; 75.14)
143 उधार (= उद्धार) (बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ । जीवट के औरत तइसे हिम्मत नञ् हारल । बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात ।) (कसोमि॰106.3)
144 उधार-पइँचा (उधार-पइँचा से बरतन अउ लटखुट के इंतजाम हो गेल हे । रह गेल कपड़ा आउ लड़का के पोसाक । छौंड़ा कहऽ हल थिरी पीस । पाँच सो सिलाय ।) (कसोमि॰54.17)
145 उधिआना (= उधियाना; उबाल आना) (एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?) (कसोमि॰22.6)
146 उपछना (मार लेलिअइ ... / बान्ह लेलिअइ नदिया / उपछ लेलिअइ पनिया / मइयो गेऽ ... ।) (कसोमि॰77.16)
147 उपड़ा (- एकरा से कि, खेसड़िया खा दहो, हट्टी चढ़ा देबइ । - से तऽ ठीक, मुदा बैल हो जाय के चाही ओतने में आउ एतने ऊँच । उपड़ा अर नञ् देबइ, अहो तोरा तऽ फैदे-फैदा हउ - एक बेचइ के, दोसर कीनइ के ।) (कसोमि॰68.16)
148 उपरइला (= उपरला; ऊपर वाला) (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।) (कसोमि॰80.23)
149 उपरउला (= ऊपर वाला; उपरला) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।) (कसोमि॰88.3)
150 उपलाना (= पानी पर तैरना) (बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।) (कसोमि॰82.13)
151 उपहना (= गायब होना, गुम होना; प्रचलन से बाहर होना) (असेसर दा घर दने चल गेला । बनिहार एक लोटा पानी आउ हवाई चप्पल रख गेल । खड़ाँव के चलन खतम हो गेल हे । पहिले काठ के चट्टी चलऽ हल, बकि ओहो उपह गेल ।; अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰70.2; 120.26)
152 उपास (= भूखा, बिना खाया-पिया) (ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।") (कसोमि॰78.5)
153 उमताह (= उमताहा, पागल, बौराहा) (उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल । ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग । - आज इनका की हो गेलन ? - ई तऽ उमताह नियन कर रहला हे ।) (कसोमि॰26.19)
154 उरिया-पुरिया (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.18)
155 उरीद-ढइँचा (भइया से पुछलका - सितवा में ऐब देखऽ हिओ ददा । - आउ दहीं सलफिटवा । खटिया पर बइठइत भइया बोलला । - हरी खाद देबइ ले कहऽ हिओ तऽ सुनबे नञ् करऽ हो । उरीद-ढइँचा गंजाबे के चाही, गोबर डाले के चाही मुदा ... ।) (कसोमि॰102.6)
156 उरेबी (~ बोलाना) (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰118.1)
157 उलारना (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।"; बस, बात बढ़ गेल। सात कुरसी के उकटा-पैंची भेल। हाथ उलार-उलार के दुन्नू अँगना में वाक्-जुद्ध करऽ लगल। महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में।) (कसोमि॰26.3; 117.14; 122.17)
158 उल्लू-दुत्थू (= उल्लू-धुत्तू) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।) (कसोमि॰22.18)
159 उसकाना (= उकसाना) (ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन । अइसने खिस्सा दुआरी-दुआरी हो रहल हल । गाँव कनकना गेल हल, उसकावल बिड़नी नियन । गाँव दलमल ।) (कसोमि॰55.23)
160 उसकुन (पहिले तो हरगौरी बाबू खेत के बात कइलन हल मुदा ऐन मौका पर खाली बिदकिए नञ् गेलन, अपन पहिलौको पैसा के तगादा कर देलका । उसकुन के अच्छा समय देखलका । गाँव में आउ केकरा पैसा हे । जेकरे आज के छौंड़ा माँड़र पहाड़ से ढाही लेबइ ले चलल हे ।) (कसोमि॰54.21)
161 उसरना (= इसोरना) (धान ~) (अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।) (कसोमि॰73.22)
162 उसार (= उछाड़ो) (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी ।; बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक । डमारा के ढेरी, हसनपुर के जनेगर पहाड़ । ओकरे से उसार के लिट्टी बनऽ हल । एक खंधा के सब खरिहान से उगाही होवऽ हल ।; एगो लमहर सोंवासा लेके किसुन मट्टा फोरलक आउ बुदबुदाल - दमाही नञ् तऽ उसार के उगाही कइसन । उगाही नञ् तऽ उसार के सहभोज कइसन ।) (कसोमि॰20.26; 23.23; 24.1)
163 ऊँहुँक (- मुनमा कने गेलइ ? बासो सवाल कइलक । - नद्दी दने गेलइ होत । - ऊँहुंक ।) (कसोमि॰92.8)
164 ऊआ-पूआ (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.20)
165 ऊहो (= ओहो; वह भी) (मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे । ऊहो ओज्जइ गेला आउ बैग से चद्दर निकाल के बिछा देलका ।) (कसोमि॰28.18)
166 एकछित्तर (जइते के साथ अपन दुखड़ा सुनइलक। तरेंगनी के भी एकर सिकायत सुन के अच्छा लग रहल हल। ऊ हुलस के कहलक, "मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।") (कसोमि॰123.22)
167 एक-टकिया (एगो डर के आँधी अंदरे-अंदर उठल अउ ओकर मगज में समा गेल । फेनो ओकर आँख तर सुरमी, ढेना-ढेनी नाच गेल । रील बदलल । आँख तर नोट उड़ऽ लगल । एक-टकिया, दु-टकिया ... हरियर-हरियर ... सो-टकिया लमरी ।) (कसोमि॰81.26)
168 एकल्ला (= अकेला, एकमात्र) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।) (कसोमि॰28.15)
169 एकल्ले (= अकेल्ले; अकेले) (बड़की बिछौना बिछा देलकी ओसरा पर । मेहमान जाके बैठ गेला । मेहमान एकल्ले बइठल हथ ओसरा पर । बड़की मंझली से नास्ता बनाबइ ले कहलकी ओकर भित्तर जाके ।; एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।) (कसोमि॰74.18; 85.9)
170 एकसर (= एकान्त) (भउजाय मुँह फुलइले रहल । एकसर में छोटका सब खिस्सा फारे-फार सुना देलक । कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक ।) (कसोमि॰118.6)
171 एकसरुए (= अकेल्ले; अकेले) (अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ । ढेर होतइ तऽ गौंढ़ा बिकतइ । जा बेटी, राज करो । बाउ एकसरुए बोलते जा रहला हे । ओकरा लगल जइसे लाजो विदा हो रहल हे आउ ऊ असीरवादी दे रहल हे ।) (कसोमि॰52.10)
172 एक्कक (= एक-एक) (एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।; गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आए ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल। ओहे साल बँटवारा भेल हल। तीनियों एक्के घर में रहऽ हल। एक्कक भित्तर हिस्सा पड़ल हल। अँगना एक्के हल।) (कसोमि॰27.14; 121.26)
173 एजा (= एज्जा; इस जगह) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । ..." बुढ़वा दने देख के - "एजा कि घुकरी मारले हें । सुलगो देहीं । जो ने बारा तर ... तापिहें तलुक ।"; सरवन चा के खरिहान पुरवारी दफा में हल । एजा इयारी में अइला हल । पारो चा उनकर लंगोटिया हलन ।; दोसरा भिर बोलहीं, हम नञ् जानो हिअइ कि एजा रातो भर तों सब की करो हलहीं ? खेत उखाड़े से लेके मुँह करिया करे के धंधा तो एज्जइ ने होवऽ हलइ हो ?) (कसोमि॰13.3; 25.13; 29.25)
174 एज्जइ (= इसी जगह; यहीं) (दोसरा भिर बोलहीं, हम नञ् जानो हिअइ कि एजा रातो भर तों सब की करो हलहीं ? खेत उखाड़े से लेके मुँह करिया करे के धंधा तो एज्जइ ने होवऽ हलइ हो ?; सुकरी फुदनी के समदइत बजार दने निकल गेल - हे फुदो, एज्जइ गाना-गोटी खेलिहऽ भाय-बहिन । लड़िहऽ मत । हम आवऽ हियो परैया से भेले ।; मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । - कहाँ हइ ? - आन्हर ... मुनमा माय तावा में रोटी देके बहराल तऽ ओहा चेहा गेल । - एज्जइ तऽ रखलिए हल ... के उठा लेलकइ ?) (कसोमि॰29.26; 33.15; 92.3)
175 एज्जा (= एजा; इस जगह, यहाँ) (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत ।; ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।") (कसोमि॰19.17; 78.5)
176 एतबड़ (= इतना बड़ा) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।) (कसोमि॰89.8)
177 एते (= एत्ते; इतना; यहीं) (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰59.21; 86.20)
178 एने (= एन्ने; इधर, इस ओर) (चिकनी खाय के जुगाड़ करऽ लगल । एने जहिया से कुहासा लगल हे, चिकनी चुल्हा नञ जरइलक हे । भीख वला सतंजा कौर-घोंट खा के रह जाहे ।) (कसोमि॰13.7)
179 एन्ने-ओन्ने (= इधर-उधर) (आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे । उ तहिये ने मोहना के सहियेसाँझ छीन लेलकइ । कुछ नञ् बेचारा के दिन भर के मजुरिए ने हलइ । छौंड़ापुत्ता जनो-मजूर के नञ् छोड़ऽ हइ । ऊ खोजी कुत्ता नियन एन्ने-ओन्ने ताकइत चार चक्कर लगैलक । हार-पार के नल भिजुन मोटरी-डिब्बा धइलक आउ कुल्ली-कलाला करके भर छाँक पानी पीलक ।; बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।) (कसोमि॰41.11; 80.7)
180 ओइसइँ (= ओइसहीं; वैसे ही) (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।; रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।) (कसोमि॰45.16; 80.21)
181 ओइसहीं (= वैसे ही) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !) (कसोमि॰13.19)
182 ओकर (= उसका) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक ।; ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।") (कसोमि॰6.27; 13.23)
183 ओकरा (= उसे, उसको; ओकरो = उसे भी) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।") (कसोमि॰13.24)
184 ओकील (= वकील) (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।) (कसोमि॰28.23)
185 ओजइ (= ओज्जइ; उसी जगह, वहीं) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।; मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । कहाँ हइ ?) (कसोमि॰52.14; 91.25)
186 ओजउ (= ओज्जो; उस जगह भी) (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।) (कसोमि॰26.1)
187 ओजउका (= उस जगह वाला) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... सोचलक - गोविन्द बाबा के गोड़ लग आवऽ ही बकि ओजउका नक्सा देख के तऽ दंग रह गेल । ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर !) (कसोमि॰19.11)
188 ओजा (= ओज्जा, वहाँ, उस जगह) (एक तुरी बीच में अइला तऽ देखऽ हथ, उनकर बँगला बंडन के अड्डा बनल हे । खेत घूमे निकलला तऽ देखऽ हथ, खेत कटल हे । खरिहान देखइ ले गेला तऽ ओजा तीन गो छोट-छोट काँड़ा लगल हल । घूम-घाम के ओजउ से चल अइला, कुछ नञ् बोलला ।) (कसोमि॰26.12)
189 ओज्जइ (= ओज्जे; वहीं, उसी जगह) (मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे । ऊहो ओज्जइ गेला आउ बैग से चद्दर निकाल के बिछा देलका । सौंसे छत पर लगे जइसे मुरदा पड़ल हे, रेल-दुर्घटना वला मुरदा । अइँटा के खरंजा नियन सरियावल ।; (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰28.18; 58.4)
190 ओझराना (= उलझना; उलझाना) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।; मुहल्ला के अजान सुन के नीन टूटल । उठके थोड़े देरी ओझराल सपना के सोझरावत रहल । खुमारी टुटला पर खैनी बनैलक आउ अनरुखे पोखर दने चल गेल ।; बिठला फेन मछली में ओझरा जाहे अउ भूलल गीत में 'मछली' जोड़ के गावऽ लगऽ हे, "नथिया जब ... जब ... हाँ मछली जब ... जब ... ।") (कसोमि॰13.27; 63.11; 76.12)
191 ओटका-टोटका (मास्टर साहब के गोस्सा सथा गेल । उनखर ध्यान बरखा दने चल गेल । जलमे से ओकर पेट खराब रहऽ हइ । दवाय-बीरो से लेके ओटका-टोटका कर-कराके थक गेला मुदा ... ।) (कसोमि॰99.23)
192 ओठर (= सहारा) (बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ । जीवट के औरत तइसे हिम्मत नञ् हारल । बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात । ईहे सब सोच के घर-जमीन सब बेच देलक आउ चल आल नइहरवे ... भइवे के ओठर धर के जिनगी काटम ।) (कसोमि॰106.5)
193 ओढ़रा (चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल ।) (कसोमि॰13.22)
194 ओत्तेक (= ओतना; उतना) (जेत्तेक ... ~) (ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग । - "आज इनका की हो गेलन ?" - "ई तऽ उमताह नियन कर रहला हे ।" - "माथा फिर गेलन कि ?" जेत्तेक मुँह ओत्तेक बात । मुदा उनकर अवाज नञ् रुकल । ऊ ढेर देरी तक हाल-हाल करते रहला ।) (कसोमि॰27.2)
195 ओर-बोर (बाते-बात बमेसरा कहलक - देख, अब अइसे नञ् चलतउ । देख रहलहीं हे कचहरी के ओर-बोर ! ई तरह से तऽ तोरा घर भेलउ से कुछ बाकी । तों जन्नी जात । एकरा ले करेजा के साथे-साथ धिरजा चाही । तोरा में ई दुन्नू नदारथ हउ । हम एक राय दिअउ ?) (कसोमि॰106.21)
196 ओरसियर (= ओरसियल; ओवरसियर) (एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।) (कसोमि॰27.16)
197 ओरियाना (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।") (कसोमि॰17.8)
198 ओलती (गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल ।; रस-रस दिन लुकलुका गेल । बचल खपड़ा निस्तार के बासो बकिए में गाढ़ से नेबरिए छार देलक । नया खपड़ा तऽ जेठ माधे मिलत । पुरान खपड़ा तऽ नारो पंडित के हे, मुदा देत थोड़े । खैर, तीन हाथ ओलती के कुछ नञ् भेत । रहऽ देहीं फूसे ... देखल जात ।) (कसोमि॰42.6; 94.17)
199 ओलहन (= ओरहन; उलाहना, उपालम्भ, ताना) (मुँह चमका-चमका के बोलना) (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।") (कसोमि॰48.16; 117.14)
200 ओसरा (= ओसारा) (नयका छारल ओसरा पर फेन खटिया बिछ गेल । माय साँझ-बत्ती देके मोखा पर दीया रख के अंदर चल गेल । बासो मैना बैल के दू आँटी नेबारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेबारी तोड़ रहल हल ।) (कसोमि॰95.1, 3)
201 ओसरा-भित्तर (हम दाहुवला जमीनियाँ ले लेही आउ झोपड़ी छार के दिन काटम । हरहर-खरहर से बचल रहम । आउ एक दिन वय-वेयाना भी हो गेल । ... सितबिया अपन दुन्नू भाय से भी राय-मसविरा कइलक आउ सह पाके लिखा लेलक । बचल पैसा से तीन डिसमिल आउरो जमीन भे गेल, फेन एगो ओसरा-भित्तर अलग से ।) (कसोमि॰107.18)
202 ओसारा (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
203 ओहारी (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।) (कसोमि॰66.5)
204 ओहे (= ओही; वही) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।) (कसोमि॰19.4)
205 ओहो (= ओहू; वह भी) (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।) (कसोमि॰59.9)
206 औंटना (दूध ~) (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।) (कसोमि॰22.1, 4)
207 औंटाना (दूध ~)ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।) (कसोमि॰22.1, 3)
208 औंसना (= हौंसना, तेल आदि लगाना) (तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो । - हम की करिअइ । बुतरू-बानर के घर हइ । छौंड़ा-छौंड़ी के भी ईहे औंसऽ हिअइ ।; टहल-टुहल के अइला आउ ओहे खटिया पर बैठ के ओहे घुन्नी भर तेल गोड़ में औंसो लगला ।) (कसोमि॰99.18; 101.18)
209 औसो (~ के = ऐसे भी) (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।) (कसोमि॰23.6)
210 कँकड़ी (= ककड़ी) (छोटका टिसन तक गाड़ी चढ़ावे साथ आल । गाड़ी में देरी हल । बहिन के एगो चाह पिलइलक आउ बुतरू लेल कँकड़ी खरीद के दे देलक । बुलकनी माय से मुलकातो नञ् कइलक ... लउट गेल ।) (कसोमि॰118.17)
211 कंडा (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।) (कसोमि॰76.4)
212 कइसन (= क्यों; कैसा) (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?") (कसोमि॰13.15)
213 कइसूँ (= कइसहूँ; किसी तरह) (बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो । खन्हा कटल हो, एकर खेत गाय-गोरू बरबाद करते रहलो । कोढ़ हइ कोढ़ ! कइसूँ सालो भर के के खरची चल गेलो तऽ बहुत ।; हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰58.24; 96.4)
214 कउची (= क्या; ~ तो = कुछ तो) (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।) (कसोमि॰46.23)
215 ककहरा (चलित्तर बाबू के आँख तर इसकूल नाच गेल - छमाहिओ में चोरी । पढ़े-लिखे तब तो ! रोज इसकूलो नञ् अइतो ! माय-बाप दे देलको अरउआ आउ जोर-हँसुआ, दोसर के चरइहें, काट-उखाड़ के घरो लइहें । अरे एतने, बप्पा सेंटरवा में चिट्ठा पहुँचावऽ हइ - लिख बेटा । बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।) (कसोमि॰100.24)
216 कका (= काका) (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰59.20)
217 ककोड़ा (= किकुड़ा; केंकड़ा) (भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! - बकरी के लोभ में दहलइ गुरूआ वली ! - ढेर लोभ बगुलवे किन्हाँ, छन में प्रान ककोड़वे लिन्हाँ । - कविते करइत रहमहीं कि छानवो करमहीं । भदवा बोलल । - के जान दे हइ !) (कसोमि॰34.11)
218 कखनउँ (= कभी) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।) (कसोमि॰13.27)
219 कखने (= कखनी; कब, किस समय, किस क्षण) (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।"; मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । ... बलनेकी सिंह के बात पर सब के हँसी आ गेल । सौखी सिंह कखने घसक गेल, कोय नञ् देखलक ।; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।) (कसोमि॰17.9; 30.8; 51.15)
220 कचकच (बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।) (कसोमि॰80.8)
221 कचका (= कच्चा वाला) (भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल ।) (कसोमि॰51.1)
222 कचबच (~ करना = चिड़ियों का चहचहाना) (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।) (कसोमि॰66.6)
223 कचूर (हरियर ~) (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।) (कसोमि॰38.1)
224 कजउ (= कज्जउ, कज्जो; कहीं) (एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।" - "चोरी कइले होमे ... डाका डालले होमे कजउ !") (कसोमि॰86.1)
225 कजा (= किस जगह, कहाँ) (मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । - कहाँ हइ ?) (कसोमि॰91.25)
226 कज्जउ (= कज्जो; कहीं भी) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।; मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰22.17; 35.2)
227 कट-छट (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही । / दुन्नू भाय में अइसइँ साँझ के साँझ कट-छट होतो । होवऽ हे ओहे, जे बड़का भइया खेती मधे चाहऽ हथ । चलित्तर बाबू खाली बोल-भूक के रह गेला ।) (कसोमि॰102.20)
228 कटहर-कोवा (ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे । सितबिया बजार से तेल-मसाला, कटहर-कोवा लेके लउटल । एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय ।) (कसोमि॰108.2)
229 कटुआ (= कट्टू+'आ' प्रत्यय) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.22)
230 कट्ठा (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.20)
231 कठुआना (= काठ जैसा हो जाना) (भउजाय मुँह फुलइले रहल । एकसर में छोटका सब खिस्सा फारे-फार सुना देलक । कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक ।) (कसोमि॰118.7)
232 कड़मड़ (~ करना) (बुलकनी के दुन्नू बेटा हरियाना कमा हे । बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे ।) (कसोमि॰118.20)
233 कड़र (= कड़ा) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.13)
234 कड़ी (= छप्पर या छत की, साधारणतः ताड़ की, शहतीर) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।) (कसोमि॰88.1)
235 कतना (= केतना; कितना) (सुकरी निरास । हिम्मत करके बोलल - थोड़ बहुत बचल होतो, दे दऽ, बड़ गुन गइबो । - एऽ हो ... बचल हउ एकाध किलो ? एक फेरबंकिया अपन संघाती से पुछलक । - देखऽ हियो ... कतना लेतइ ? - एक किलो ।) (कसोमि॰40.15)
236 कतिकसन (सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।) (कसोमि॰92.11)
237 कत्ता (आज ऊ समय आ गेल हे । सितबिया हनहनाल बमेसरा दुआर चलल । बड़ तर बमेसरा मांस के पैसा गिन रहल हल । ओकरा बगल में कत्ता आउ खलड़ी धइल हल । कटोरा में अचौनी-पचौनी । सितबिया लहरले सुनइलक - हमर घर के हिसाब कर दे ।) (कसोमि॰108.15)
238 कत्ती (तनी देरी एन्ने-ओन्ने गोड़ाटाही करइत रहल आउ फेन अपन काम में जुट गेल ... ओहे कत्ती ... ओहे खेल ।) (कसोमि॰83.25)
239 कत्ते (= केतना; कितना) ("केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । कत्ते घिघिअइला पर किसोरबा देलक हल । ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।"; एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल । साड़ी के अँचरा से लदफदाल सुकरी बकरी खींचले बाहर भेल । ऊ अपन अंचरे से सेसपंज हल, नञ् तऽ कत्ते तुरी मोरहर पार कइलक हे धाध में ।) (कसोमि॰11.17; 34.18)
240 कत्तेक (= कइएक; कई) ("अच्छा, सच्चे कंबल मिलतइ ?" चिकनी के विस्वास नञ भे रहल हल । अइसन तऽ कत्तेक बेरी सुनलक हे ... कत्ते बेरी डिल्ली, पटना भी गेल हे झंडा-पतक्खा लेके मुदा ... ।; गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰17.12; 35.9)
241 कथरी (= गुदड़ी; कंथा; गेंदरा; फटा-पुराना कपड़ा) (चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल ।; "गारो मर गेल चिक्को । ई तऽ बुढ़वा हे, माउग के भीख खाय वला । तों ठीक कहऽ हें चिक्को । कल से हमहूँ माँगवउ । .." ऊ कथरी पर घुकुर गेल ... मोटरी नियन । चिकनी बिदकल, "तों काहे भीख माँगमें, हम कि मर गेलिअउ ?") (कसोमि॰13.23; 15.5)
242 कथी (ईहे बीच एक बात आउ भेल । सितबिया के बगल में दाहु अपन जमीन बेचइ के चरचा छिरिअइलक । कागज पक्का हल, कोय लाग-लपेट नञ् । सितबिया के लगल - ई घर तऽ झगड़ालू हे, बमेसरे के रहे देहो । कथी ले फेन लिखाम । अपने भाय-भतीजा के बात हे ।; एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय । सितबिया के देह में आग लग गेल । हमरा पर एतनो भरोसा नञ् । अपन कथी ले कहलक हे ?) (कसोमि॰107.10; 108.7)
243 कदुआ-कोंहड़ा (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰102.19)
244 कनउँ (= कनहूँ; कहीं, किसी तरफ) (ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।; बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल । रस-रस सब जिनगी के गाड़ी पटरी पर आल तऽ एक दिन छोटका भतीजवा से बोलल - रे नुनु, तहूँ परिवारिक हें, घर सकेत । कनउँ देखहीं ने जमीन । झोपड़ियो देके गुजर कर लेम ।) (कसोमि॰25.7; 51.14; 106.8)
245 कनकन (= ठंढा, शीतल) (चिकनी गारो के मूड़ी पकड़ के हिलइलक तऽ ओकर मूड़ी काठ ! गारो कम्मल के सपना देखइत कनकन भे गेल हल ... सोरा ।) (कसोमि॰18.11)
246 कनकनाना (खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक ।; ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन । अइसने खिस्सा दुआरी-दुआरी हो रहल हल । गाँव कनकना गेल हल, उसकावल बिड़नी नियन । गाँव दलमल ।) (कसोमि॰49.21; 55.22)
247 कनखा (चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे । भुस्सा के झोंकन अउ लहरइठा के खोरनी । चुल्हा के मुँह पर घइला के गोलगंटा कनखा ... खुट् ... खुट् ।) (कसोमि॰16.15)
248 कनखी (~ मारना) (- पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ । - अखनञ् से चिंता सताबऽ लगलउ ? तितकी कनखी मारइत बोलल । लाजो ढकेल देलक ओकरा झुलुआ पर से । तितकी पलट के लाजो के हाथ पकड़लक आउ खींच लेलक । लाजो तितकी के बाँह में ।) (कसोमि॰49.3)
249 कनट्टी (= कनपट्टी) (पान-सात आदमी चारियो पट्टी से घेर लेलक । दू आदमी आगू बढ़ के दुन्नू के कनट्टी में पिस्तौल भिड़ा देलक । दू आदमी दुन्नू के हाथ से समान छीन लेलक ।) (कसोमि॰42.15)
250 कनमटकी (सुत रह ... देखहीं अउ हाँ, भोरगरे उठा दीहें, बेस !" गारो कनमटकी दे देलक । गारो कम्मल के सपना में डूब गेल - नञ जानूँ कइसन कम्मल मिलत ? धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।; बंगला पर जाके चद्दर तान लेलका । खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो ।) (कसोमि॰17.14; 75.20)
251 कनिआय (दे॰ कनियाय) (सोंचले हलूँ कि उनखे हियाँ रह जाम । उनखर कनिआय भी बड़ छोहगर । रहइ के मन सोलहो आना भे गेल हल बकि ...।; ई तऽ लड़किन-बुतरू के पढ़ा सकऽ हे । लोग-बाग तऽ कनिआय तक के पढ़ावइ ले कहे लगल । एकरा मन करे कि दुन्नू काम करूँ - पढ़ावूँ भी आउ सिलाय-फड़ाय सिखावूँ ।) (कसोमि॰25.19; 66.19)
252 कनियाय (भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ । बनला पर लगे कि छत पर कोय कनियाय रहे ।) (कसोमि॰27.23)
253 कने (= कन्ने; किधर, किस ओर, कहाँ) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ?; - मुनमा कने गेलइ ? बासो सवाल कइलक । - नद्दी दने गेलइ होत । - ऊँहुंक ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰89.5; 92.6, 21)
254 कन्हा (= कन्धा) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।) (कसोमि॰77.21)
255 कन्हुआना (= आँखों द्वारा डराना, आँखों से नाराजगी दिखाना) (परेमन भी अब बुझनगर भे गेल हे । लड़ाय दिन से ओकरा में एगो बदलाव आ गेल हे । पहिले तऽ चचवन से खूब घुलल-मिलल रहऽ हल । गेला पर पाँच दिना तक ओकरे याद करते रहतो हल, बकि ई बेरी ओकरा हरदम गौरव-जूली से लड़ाय करे के मन करते रहतो, कन्हुआइत रहतो, ... सगरखनी ... गांजिए देबन ... घुमा के अइसन पटका देबन कि ... ।; बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइंठ में बाँध ला। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हा, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस?" शान्त होबइ के तऽ हो गेल बकि दुन्नू तहिया से कनहुअइले रहऽ हल। आझ मँझली के काम आ पड़ल। अनाज भुंजइ के एगो छोटकिये के पास खपरी हल।) (कसोमि॰71.19; 122.26)
256 कपसना (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।) (कसोमि॰46.22)
257 कबाड़ना (= कबारना, उखाड़ना) (नेटुआ के ताल पर नाचइत बिठला सुरमी के डाँड़ा में अपन दहिना बाँह लपेट देलक कि सुरमी हाथ झटक के पीछू हट गेल । बिठला डगमगाल आउ आगू झुक गेल । - "हमरा छूलें तऽ मोछा कबाड़ लेबउ मउगमेहरा ।"; कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन । हमरो गोस्सा आ गेलो । ई सब खोंट के लड़ाय लेना हल । हम भी उकट के धर देलियन । चराबे के चरैबे करे, रात भर रतवाही । बोझा के कबाड़े वला भी धरमराजे बनइ ले चलला हे ।) (कसोमि॰85.16; 111.24)
258 कमाना-कजाना (अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल । ... "बचल ! एकरे डर ... लेके सले कलाली चल देतो । कमइतो न कजइतो ... चुकड़ी ढारतो ।"; सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो !) (कसोमि॰11.5-6; 106.11)
259 कमाना-धमाना (कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ?) (कसोमि॰21.26)
260 कमाय (= कमाई) (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल ।; मुनियाँ के चिंता छोड़ऽ । मुनियाँ अपन बिआह अपने करत ... तहिया करत जहिया मुनियाँ के मुट्ठी में ओकर अप्पन कमाय होत, मेहनत के कमाय । चल माय, खाय ले दे, भूख लगल हे ।) (कसोमि॰11.13; 67.21, 22)
261 कमासुत (= कमाने वाला) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।; आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।) (कसोमि॰14.25; 82.25)
262 कम्पोटर (= कम्पाउंडर) (लाजो के याद आल - गाँव वला कम्पोटर के चिट्ठा, माय के दम्मा, ... गोली आउ टौनिक । गौतम मेडिकल हॉल भिजुन पहुँचल तऽ देखऽ हे एगो अदमी कुरसी पर बैठल अखबार पढ़ रहल हे ।) (कसोमि॰50.9)
263 कम्मल (= कम्बल) (सुत रह ... देखहीं अउ हाँ, भोरगरे उठा दीहें, बेस !" गारो कनमटकी दे देलक । गारो कम्मल के सपना में डूब गेल - नञ जानूँ कइसन कम्मल मिलत ? धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।; कम्मल भी तो कपड़े न हे ? रोजी नञ, रोटी नञ, कपड़े सही । मरे घरी चार गज के कपड़े तऽ चाही । राजा हरिचनरो के बेटा कमले के कफन ओढ़लन हल । जाड़ा अउ कम्मल ! हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे ।) (कसोमि॰17.15, 16, 23, 25, 27)
264 करगी (= किनारे; बगल) (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰59.21)
265 करबटिया (= करवट+'आ' प्रत्यय) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।) (कसोमि॰42.27)
266 करिया (= कार+ 'आ' प्रत्यय) (पलट के मोटरी ताकइत मुँह पोछब करऽ हल कि नजर जगेसर राय पर पड़ल । एक हाथ में अटैची आउ कंधा में करिया बैग । सुकरी के जान में जान आल । एक से दू भला । दिन-दुनिया खराब ।) (कसोमि॰41.14)
267 करींग (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰96.4)
268 करूआ (= कड़वा) (~ तेल = सरसों का तेल) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.13)
269 कर्ता (एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।) (कसोमि॰114.7)
270 कलउआ (= कलेवा; खाना, भोजन) (- दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल । किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ?; तितकी आवे के तऽ आल, बकि टुघरइत । माय के गोस्सा कपार चढ़ गेल, "छिछिअइली, सोगपरउनी । लगऽ हइ देह में समांगे नञ् हइ । मन करऽ हइ इहे अइँटवा से कपार फोड़ दिअइ । चल, केराव पीट । कोकलत जाय ले इहे छान-पगहा तोड़ा रहल हे । मोहनभोग बना के कलउआ देबउ कि इहे बूँटा-केरइया, गहुमा के सतुआ ।"; अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक। राह कलउआ लेल ठेकुआ अलग से छान देलक। निचिंत भेल तऽ धेयान तितकी दने चल गेल। अभी तक नञ् आल हे। ई छौंड़ी के मथवा जरूर खराब भे गेले हे।) (कसोमि॰39.21; 119.25; 124.1)
271 कलटना-पलटना (एने आग तइयार भे गेल हल । ओकरा पर लिट्टी रख के कलटऽ-पलटऽ लगल । लिट्टी सीझइत-सीझइत डमारा के आग सथाल जा रहल हल ।) (कसोमि॰20.11)
272 कलाली (अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल । ... "बचल ! एकरे डर ... लेके सले कलाली चल देतो । कमइतो न कजइतो ... चुकड़ी ढारतो ।"; बिठला तीन रात के कमाय लेके घर आवे घरी रस्ते में मछली मारलक हल आज ... खाय से जादे । आधा लउट के बजार में बेच देलक अउ मर-मसाला, कलाली से दारू लेके आल हल । आँटा घरे हल ।) (कसोमि॰11.5; 78.16)
273 कल्ह (= कल) (अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।) (कसोमि॰59.14)
274 कल्हइ (= कल्हइँ; कल ही) (अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।) (कसोमि॰59.14)
275 कहइँ (= कहीं) (मुनमा दरी में खपड़ा उझल के फेनो चूनऽ लगल । ओकरा लगे, कहइँ साँपा के जोड़वा जो एज्जइ रहे । डरले-डरल खपड़ा उठावे । उकटे ले हाथ में छेकुनी ले लेलक हे । मिलता तऽ अइसन ... कि अइँठिये जइता । ओकर आँख तर मरलका साँप नाच गेल ।) (कसोमि॰90.11)
276 कहतो-महतो (हुक्कल आउ बानो दू भाय हल । हुक्कल बड़ आउ बानो छोट । बड़ भाय सब दिन के रोगिआह हल, से से बानो घर के कहतो-महतो हल ।) (कसोमि॰114.2)
277 कहनइ (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ ।) (कसोमि॰112.7)
278 कहब (~ करना) (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।) (कसोमि॰88.16)
279 कहिया (= कब, किस दिन) (- काहे बाऊ, फुटो रे फुटो धान नञ् कहमहीं ? / बासो कंधा पर हाथ रख देहे । - छोट-बड़ धान बरोबर नञ् होतइ बाऊ ? - चल बेटा, अभी छोट-बड़ बरोबर नञ् होतउ नूनू । - तब कहिया होतइ ?) (कसोमि॰97.7)
280 कहिये (= कब के) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।) (कसोमि॰19.2)
281 कहियो (= कभी भी) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।") (कसोमि॰12.23)
282 काँसा (~ के थारी) (फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।) (कसोमि॰63.15)
283 काकर (बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।) (कसोमि॰100.25)
284 काचुर (= केंचुली) बाउ भिजुन आके ठमकल आउ एक नजर भीड़ दने फिरइलक । ओकर मन के आँधी ठोर पर परतिंगा के बोल बन हहाल फूटइ ले ठाठ मारइ लगल । ऊ संकोच के काचुर नोंच के फेंक देलक आउ तन के बोलल - मुनियाँ के चिंता छोड़ऽ । मुनियाँ अपन बिआह अपने करत ... तहिया करत जहिया मुनियाँ के मुट्ठी में ओकर अप्पन कमाय होत, मेहनत के कमाय । चल माय, खाय ले दे, भूख लगल हे ।) (कसोमि॰67.19)
285 काज-परोज (लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल । बाउ घिघिआइत रहला, लोराइत रहला, चिल्लाइत रहला अउ अंत में शान्त हो गेला । ... मन मसोस के रह गेलन - उधार-करजा के बात हे तऽ कि ... चुका नञ् देम । काजे-परोज में ... बेटिये के काज घरी ... ।) (कसोमि॰55.17)
286 काटब (~ करना) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ?) (कसोमि॰89.5)
287 काठ (चिकनी गारो के मूड़ी पकड़ के हिलइलक तऽ ओकर मूड़ी काठ ! गारो कम्मल के सपना देखइत कनकन भे गेल हल ... सोरा ।) (कसोमि॰18.10)
288 काड (= कार्ड) (एने से लाजो अपन काड केकरो नञ् देखावे, माय-बाप के भी नञ् । माय तऽ खैर लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर हल, से से कभी-कभार माय के रखइ ले दे दे हल, मुदा थोड़के देरी में लेके अपन पौती में रख दे हल ।) (कसोमि॰44.1)
289 कान-कनैठी (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰35.1)
290 कानना (= कनना; काँदना, रोना) (भीड़ सड़क पर रुक गेल । लगले बस पहुँच गेल । लाजो सक्खि से लपट-लपट के कानइत रहल । सब के आँख भींगल ।) (कसोमि॰56.2)
291 कानी (= एक आँख वाली स्त्री; काना, उत्तरा नक्षत्र) (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰96.2)
292 काम-करिंदा (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।) (कसोमि॰58.19)
293 काम-धाम (करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे । गोतिया-नइया पूछथ - काम-धाम कइसे भे रहल हे ? फिरिस अर बन गेल ? चचवा कहाँ गेलउ ? तेरहे दिन में पाक होबइ के हउ ।) (कसोमि॰114.10)
294 कार (= काला) (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !; उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰54.3; 73.27)
295 काहे (= क्यों) ("चुप काहे हें चिक्को ?" - "बोलूँ कि देबाल से ?" गारो के चोट लगल । गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले ।) (कसोमि॰16.1)
296 कि (= क्या; दो वाक्यों को जोड़नेवाला एक संयोजक शब्द) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय । - नञ् भौजी, हम सोचऽ ही कि पहिले कुछ कमा लेउँ । घर के हाल कि तोरा से छिपल हे, मुदा लगऽ हइ जैसे कि मैया-बाउ ले हम भारी हिअइ । बस कर दे विदा ।) (कसोमि॰66.25)
297 किता (बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन । एक किता मकान भी पटना में बनइलन हे, जेकरा से पाँच हजार किराया भी आवऽ हम ।) (कसोमि॰71.3)
298 किदो (= कातो, कीतो, कितो) (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।; किदो पापा बाहर चल गेलन हे, एक महीना ले, से से देरी भे रहलन हे ।; एक दिन परेमन जूली-माय के बित्तर चल गेल आउ पलंग पर बइठल तऽ भेल बतकुच्चह । किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा ।; आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । …खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल । जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके ।; - ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । ... - ई किदो जाँच करइता ! कान-कनइठी सितवा के ... एक पेड़ नञ् ... । सदामदी साही लगाव । - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन ।) (कसोमि॰71.2, 5, 9; 78.24; 102.12)
299 किनताहर (= खरीदार) (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰102.17)
300 किनाना (= खरीदवाना) (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् ।) (कसोमि॰68.7)
301 किरतनियाँ (दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।) (कसोमि॰115.2)
302 किरपा (= कृपा) (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।) (कसोमि॰12.16)
303 किरिन (= किरण) (किसन कटोरा खंगहार के झोला में रखलक अउ एगो फट्टल चद्दर बिछा के सूत गेल । भोरे के लोग-बाग देखलक कि बड़ के पेड़ तर एगो मोटरी-सन अनजान लहास पड़ल हे । सुरूज उगल आउ किरिन ओकर मुँह पर पड़ रहल हे ।) (कसोमि॰25.24)
304 किरिया (= कसम) (- सिखा देमहीं ? - आझे, अभिए सीख, तोरा हमर किरिया हउ । साज-बाट के तऽ हो जइतउ । अभी तऽ नेआर अर नञ् ने अइलउ ? / लाजो लजा गेल ।; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰45.6; 86.21, 23, 27)
305 कीनना (= खरीदना) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; - काडा पर कतना जमा भेलउ ? - कहाँ कते, इहे डेढ़ सो लगू । - पचीस पैसा छूट पर बेच ने दे । हाथ पर पैसो भे जइतउ । हम की करऽ हिअइ ! अगे, गाँव में कते तऽ ओहे पइसवा से सूद लगावऽ हइ । नगदी रहतउ तऽ इंछा के चीज बजार से कीन लेमें । सब चीज भंडरवे से तऽ नञ् ने भे जइतउ ।) (कसोमि॰13.12; 48.26)
306 कुच-कुच (~ गड़ना) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।) (कसोमि॰37.14)
307 कुचकुचाना (डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ । पार भे गेल । जय डिहबाल, पार लगइहऽ । अइसइँ गोहरावइत बढ़ल गेल । दुन्नू कौलेज मोड़ के घनगर बगैचा में पहुँच गेल । कुचकुचिया कुचकुचाल । जगेसर आगू, सुकरी पीछू ।) (कसोमि॰42.11)
308 कुचकुचिया (डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ । पार भे गेल । जय डिहबाल, पार लगइहऽ । अइसइँ गोहरावइत बढ़ल गेल । दुन्नू कौलेज मोड़ के घनगर बगैचा में पहुँच गेल । कुचकुचिया कुचकुचाल । जगेसर आगू, सुकरी पीछू ।) (कसोमि॰42.11)
309 कुटनेति (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰61.3)
310 कुट्टी (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.3)
311 कुत्ता (~ काटना = मति मारा जाना) (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰34.27)
312 कुदार (= कुदाल) (बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं । बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे ।) (कसोमि॰82.6)
313 कुदार-खंती (ओकर नाक फटइत रहल, कुदार चलइत रहल ... चलइत रहल । चान डूब गेल तऽ छोड़ देलक - बस कल्ह । नाधा तऽ आधा । गबड़ा में कुदार-खंती धो के कापो सिंह के डेवढ़ी गेल आउ बचल दारू घट् ... घट् ... पार !) (कसोमि॰83.2)
314 कुमरठिलियन (अगे चुप ने रहीं निरासी, कुमरठिलियन । अतरी फुआ हँकड़ली ।) (कसोमि॰53.2)
315 कुरसी (सात ~ के उकटा-पैंची) (बस, बात बढ़ गेल। सात कुरसी के उकटा-पैंची भेल। हाथ उलार-उलार के दुन्नू अँगना में वाक्-जुद्ध करऽ लगल। महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में।) (कसोमि॰122.16)
316 कुल-खनदान (ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।) (कसोमि॰62.17)
317 कुलगिरी (= कुली का काम) (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी । फेन तऽ मत कहऽ, किसुन इसपिरेस हो गेल । भूख लगल तऽ भीखियो माँगलक । कुलगिरी से लेके पोलदारी तक कइलक ।) (कसोमि॰24.26)
318 कुल्ली-कलाला (चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल । गोड़-हाथ धोके कुल्ली-कलाला कइलका आउ आँख पर एक लोटा पानी के छिट्टा मारलका । आँख मिचाय नियन लहर रहल हल । जाँघ तड़-तड़ फटे ।) (कसोमि॰98.15)
319 कूचना (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल ।) (कसोमि॰16.19)
320 कूट (= हाँसी-मजाक, चुहल, हास्य-व्यंग्य) (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?") (कसोमि॰13.14)
321 केकरा (= किसको, किसका) (मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?) (कसोमि॰123.11)
322 केकरो (= किसी को; किसी का; किसी का भी) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी ।) (कसोमि॰19.4)
323 केजा (= केज्जा; कहाँ; किस जगह) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !) (कसोमि॰13.20)
324 केबाड़ (= केबाड़ी; किवाड़) (बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे । कापो सिंह के केबाड़ खुलल । डेउढ़ी में दारू के बोतल आधा खाली कर देहे आउ फुसफुसा के बोलऽ हे - "बाँसा अर दे दऽ आउ जा के सुत्तऽ । अब हम रही कि बजार के नल्ली । जे होतइ, देख लेबइ । सब तऽ गेनरा ओढ़ के घी पीअ हइ कापो बाबू ।") (कसोमि॰82.7)
325 केबाड़ी (= किवाड़) (सास छेकुनी के सहारे दरवाजा तक गेली आउ केबाड़ी के एक पल्ला साट के घोघा देले हुलकली । फुफ्फा समझ गेला । चौंकी से उतर के गेला आउ गोड़ लगके फेनो चौंकी पर बैठ गेला ।) (कसोमि॰71.23)
326 केराय (= केराव; मटर) (तितकी गुमसुम केराय पीटे में लग गेल । ऊ भीतरे-भीतर भुस्सा के आग सन धधक रहल हल - जाय दुन्नू माय-बेटी कोकलत, भला हम तऽ महुआ खोढ़र से अइलिए हे । जब ने तब हमरे पर बरसइत रहतउ । दीदी तऽ दुलारी हइ । सब फूल चढ़े महादेवे पर ।; बुलकनी धथपथ आल आउ पहिले गेहुम के कठौती में फूलइ ले देलक। चूल्हा जोर के बूँट, मसुरी आउ केराय के तारऽ लगल। तितकी अभी लउट के नञ् आल हल। रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?") (कसोमि॰119.26; 121.3)
327 केराव (= केराय; मटर) (तितकी आवे के तऽ आल, बकि टुघरइत । माय के गोस्सा कपार चढ़ गेल, "छिछिअइली, सोगपरउनी । लगऽ हइ देह में समांगे नञ् हइ । मन करऽ हइ इहे अइँटवा से कपार फोड़ दिअइ । चल, केराव पीट । कोकलत जाय ले इहे छान-पगहा तोड़ा रहल हे । मोहनभोग बना के कलउआ देबउ कि इहे बूँटा-केरइया, गहुमा के सतुआ ।") (कसोमि॰119.23)
328 कोचनगिलवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.24)
329 कोट-कचहरी (छोटका बड़का से बोलल आउ बड़का एगो झगड़ाहू जमीन लिखा के दखल भी करा देलक । लिखताहर के अपन चचवा से नञ् पटऽ हलइ, से से गजड़ा भाव में लिख देलकइ । लिखइ के तऽ लिख देलकइ मुदा कोट-कचहरी के चक्कर सितबिया के तोड़ के रख देलक ।; - तऽ सुन । एकरा हमर नाम से लिख दे । केस खतम भेला पर फेन हम तोरा नामे पलटा देबउ, तब पक्का भेतउ । / सितबिया के बात जँच गेल । कुछ तऽ राहत मिलत । घर-गिरहस्थी के साथे-साथ कोट-कचहरी के खरचा पार नञ् लग रहल हल । सोंच-समझ के हामी भर देलक ।) (कसोमि॰106.15; 107.6)
330 कोटर (= क्वार्टर) (बाउ बजार से टौनिक ला देलथुन हे । कहऽ हथिन - अंडा खो । हमरा अंडा से घीन लगऽ हउ । - अमलेटवा खाहीं ने । पूड़ी नियन लगतउ, बलुक कचौड़िया नियन नोनगर-तितगर । हम तऽ कते तुरी खइलिअइ हे । बरौनियाँ में तो सब कोटरवा में बनऽ हइ ।) (कसोमि॰57.13)
331 कोड़ना-कमाना (किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा । जूली माय के ई सब सोहइबे नञ् करऽ हे । एक दिन अपन बुतरुन के समद रहली हल - गंदे लड़के के साथ मत खेला करो, बिगड़ जाओगे । परेमन माय के स्वाभिमान साँप-सन फन काढ़ लेलक - वाह रे सुधरल । हमर बेटा बिगड़ल तऽ बिगड़ले सही, कोड़-कमा के तऽ खात । नञ् जइतइ तोरा भिजुन डगरिन छाने ले, बुझलें ने ।) (कसोमि॰71.14)
332 कोढ़िया (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.17)
333 कोना (= एक चौथाई, आधा का आधा) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।) (कसोमि॰17.4)
334 कोनाठा (ठक् ... ठक् ... ठक् ... । फुफ्फा के कान खड़कल । देखऽ हथ कि बाबूजी कोनाठा पार कर के रस-रस आगू बढ़ल आवऽ हथ । असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका ।; ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे । सितबिया बजार से तेल-मसाला, कटहर-कोवा लेके लउटल । एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय ।) (कसोमि॰73.5; 108.4)
335 कोनियाँ (~ भित्तर = वह कोठरी जो मकान के किसी कोने पर हो) (ऊ गुमसुम हाली-हाली खइलक आउ कोनियाँ भित्तर में जाके सुत गेल । आन दिन माय साथ सुतऽ हल, मुदा आज ओकरा माय के सामने होवे में सिहरी उठऽ हे ।) (कसोमि॰65.26)
336 कोपरेटी (= को-ऑपरेटिव) (मौली महतो चाह के दोकान पर रुकइत पुछलक - तोहरा कने जाय के हो ? - कने जइबो, एहइँ कोपरेटी के खाद निकलतो । माँगलियो पइसा, देलको खाद । एक्के तुरी बीस बोरा । एत्ते लेके की करबइ ? दू बिघा तो खेते हे। ढेर देम तऽ दू बोरा ... बकिये ?) (कसोमि॰110.11)
337 कोय (= कोई)आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।) (कसोमि॰14.11)
338 कोरसिस (= कोशिश) (उनकर मेहरारू छत पर चढ़के थोड़े देरी समझइ के कोरसिस कइलन आउ रस-रस नजीक जाके हाथ पकड़ के पुछलकी - तोहरा की हो गेलो ? पागल नियन काहे ले कर रहलहो हे ?; ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे । ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने ।; देखहो, हमर आदत हो, जेकरा से मन नञ् मिलतो ओकरा से सो कोस दूरे रहइ के कोरसिस कैलियो ।) (कसोमि॰29.11; 110.4; 111.10)
339 कोलसार (पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।) (कसोमि॰84.10)
340 कौची (दे॰ कउची) (- खाली पेट मत जादे पी । बासो बोलल । - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक । - निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल । - तनि मिठवा दे ने दे । मुनमा हाथ बारइत माँगलक । - बाबापूजी होतइ तब ने । मुनमा-माय टोकलक ।) (कसोमि॰94.7)
341 क्वाटर (= क्वार्टर) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।) (कसोमि॰37.13)
2 अँचरा (= आँचल) (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।") (कसोमि॰47.8; 117.10, 13)
3 अँचार-मिचाय (कत्ते बेरी चलित्तर बाबू अपन मेहरारू के समझइलका हे - बुतरू के पेट माय के खान-पान पर निर्भर करऽ हे । तों खट्टा-तीता छोड़ दऽ ... तऽ देखहो, एकर पेट ठीक होवऽ हइ कि नञ् । बकि असमाँवली के दूध-घी, तीअन-तिलौरी दे, चाहे मत दे, अँचार-मिचाय जरूर चाही । मास्टर साहब आजिज हो गेला हे मेहरारू के आदत से - जो, मर गन, हमरा की लेमें, बकि बाला-बचवा पर ध्यान दऽ । बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ ।) (कसोमि॰100.1)
4 अँटना (= समाना, बैठना, घुसना, भरना) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।; एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक ।) (कसोमि॰17.4; 104.1)
5 अंगइठी (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल ।; बासो उतरके अलकर-झलकर फेंकइ में लग गेल । मुनमा के समदइत कहलक - जा, नहा-धो लिहऽ । मुनमा अंगइठी लेके डाँड़ा सोझ कइलक आउ पैन दने चल गेल ।) (कसोमि॰47.7; 94.21)
6 अंगा-पैंट (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; झोला-झोली होते-होते मुनमा अंगा-पैंट पेन्ह के तइयार भे गेल । गुडुआ के घर पुरवारी दफा में हल । ओकर घर पहुँचल तऽ ऊ अभी नहइवो नञ् कइलक हल ।) (कसोमि॰93.15; 94.24)
7 अंगुरी (= उँगली) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !; ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; - बाबा पटना गया था तो मम्मी क्या बोलती थी ? जूली एगो रहस के बात बोलल । - चुप्प ! गौरव अपन होठ पर अंगुरी रख के आँख चीरले डाँटलक ।) (कसोमि॰13.19, 23; 70.18)
8 अंगू (छोटकी भी जा रहल हल। ओकर टेनलगुआ छउँड़ा साथ जा रहल हल। बेटी बड़की पर छोड़ दे रहल हल । छउँड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।) (कसोमि॰125.9)
9 अइँचा-पइँचा (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।) (कसोमि॰122.7)
10 अइँटा (= ईंट) (कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ? ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल ।; एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।) (कसोमि॰21.27; 27.15)
11 अइंटखोला (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰34.27)
12 अइना (= आइना) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।; छोटकी भी जा रहल हल। ओकर टेनलगुआ छउँड़ा साथ जा रहल हल। … छउँड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।) (कसोमि॰28.10, 11; 125.10, 11)
13 अइसइँ (= अइसीं, अइसहीं; ऐसे ही, इसी तरह) (अइसइँ बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल ।; ठीकेदरवा के पो बारह । ऊ तऽ बालुए घाट के कमाय से बड़का धनमान बन गेल । अइसइँ एकर ठीका ले मार होवऽ हइ !; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा ।) (कसोमि॰11.13; 33.27; 37.26)
14 अइसन (= ऐसा) (रेकनी के तऽ कुछ नञ् बिगाड़लूँ हल, भलुक केकरो नञ् बिगाड़लूँ हल । रेकनी अइसन काहे बोलल ?) (कसोमि॰24.9)
15 अइसहीं (= अइसइँ, अइसीं; ऐसे ही, इसी तरह) (अइसहीं छो-पाँच करइत पोखन के नीन आ गेल । सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल ।) (कसोमि॰63.2)
16 अइसीं (= अइसहीं; ऐसे ही) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।; अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल, जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।) (कसोमि॰50.23; 120.13)
17 अईटा (दे॰ अइँटा; ईंट) (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल ।) (कसोमि॰59.24)
18 अउ (= आउ; और) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।; मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰11.3; 78.8)
19 अउसो (~ के = ऐसे भी) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !; एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक । ऊ खाली इसारा के इंतजार में हल । कुरसी खिसकल नञ् कि बिर्रऽऽ धकिअइते, ठेलते, कूदते !डेवढ़ी में अउसो के सामा सब के डेरइतो - ओहाऽऽ !) (कसोमि॰47.27; 104.5)
20 अकचकाना (= आश्चर्यचकित होना) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.12)
21 अकानना (= ध्यान से सुनना) (मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक ।) (कसोमि॰95.7)
22 अकुलाना (= व्याकुल होना) (ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे । सब के अलग-अलग रंग । फेनो सब रंग घटमाँघेट हो गेल हे । एगो बड़गर भँवर भँउर रहल हे आउ तेकरा बीच लाजो ... लाजो नाच रहल हे ... अकुला रहल हे ।; बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के । अन्हार ... घुज्ज अन्हार । समली अकुला जा हल ।) (कसोमि॰46.13; 59.13)
23 अकौड़ी-पकौड़ी (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.19)
24 अक्खज (जब ने तब हमरे पर बरसत रहतउ। दीदी तऽ दुलारी हइ। सब फुल चढ़े महादेवे पर । ओकरे मानऽ हीं तऽ ओहे कमइतउ। हम तऽ अक्खज बलाय हिअउ। फेंक दे गनउरा पर। नञ् जाम कोकलत। कय तुरी नहा अइलूँ हे।) (कसोमि॰120.3)
25 अखइना (दे॰ अखैना) (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।") (कसोमि॰123.13)
26 अखनइँ (= अखनहीं; अभी) (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?") (कसोमि॰83.9)
27 अखनञ् (= अखनइँ, अखनहीं; अभी) (- पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ । - अखनञ् से चिंता सताबऽ लगलउ ? तितकी कनखी मारइत बोलल । लाजो ढकेल देलक ओकरा झुलुआ पर से । तितकी पलट के लाजो के हाथ पकड़लक आउ खींच लेलक । लाजो तितकी के बाँह में ।) (कसोमि॰49.3)
28 अखैना (= अखेता, अखेना, अखौना; एक प्रकार की टेढ़ी लकड़ी जिससे दौनी के समय फसल को उकटते हैं) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.21)
29 अगलगउनी (तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल । ऊ दिन घर आके माय से कहलक, "माय, हमहूँ पढ़े जइबउ ।" माय तऽ बाघिन भे गेल, "तोर सउखा में आग लगउ अगलगउनी !" माय के लहलह इंगोरा सन आँख तितकी के सपना के पाँख सदा-सदा लेल झौंस के धर देलक ।) (कसोमि॰118.27)
30 अगाड़ी (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.2)
31 अगिया बैताल (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰117.17)
32 अगुआनी (एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ?) (कसोमि॰29.22)
33 अगे (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।; - काडा पर कतना जमा भेलउ ? - कहाँ कते, इहे डेढ़ सो लगू । - पचीस पैसा छूट पर बेच ने दे । हाथ पर पैसो भे जइतउ । हम की करऽ हिअइ ! अगे, गाँव में कते तऽ ओहे पइसवा से सूद लगावऽ हइ । नगदी रहतउ तऽ इंछा के चीज बजार से कीन लेमें । सब चीज भंडरवे से तऽ नञ् ने भे जइतउ ।; के बिनलकउ सुटरवा, बहिनधीया ? अंजू के नावा सूटर देख के समली पुछलक आउ ओकर देह पर हाथ फिरावऽ लगल । - नञ्, अपनइँ ने बिनलिअउ । बरौनियाँ में सिखलिअउ हल । हमर इस्कूल में एगो सक्खि हलउ, ओहे बतैलकउ । एक दिन में तऽ सीखिये गेलिअइ । - अगे हमरो सिखा ने दे ।) (कसोमि॰48.14, 25; 58.12)
34 अग्गब (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰120.27)
35 अघाना (= संतृप्त होना, रज जाना) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ ।) (कसोमि॰79.20, 21)
36 अचक्के (दे॰ अनचक्के; अचानक) (अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।) (कसोमि॰60.9)
37 अचौनी-पचौनी (आज ऊ समय आ गेल हे । सितबिया हनहनाल बमेसरा दुआर चलल । बड़ तर बमेसरा मांस के पैसा गिन रहल हल । ओकरा बगल में कत्ता आउ खलड़ी धइल हल । कटोरा में अचौनी-पचौनी । सितबिया लहरले सुनइलक - हमर घर के हिसाब कर दे ।) (कसोमि॰108.15)
38 अजगुत (= आश्चर्यजनक) (खुशी में भूल गेल साँप-बिच्चा के भय । ओकर मन में हाँक के हुलस हल, मुँह में गूँड़-चाउर के मिठास आउ कान में फुटोऽऽ रे फुटोऽऽ के अजगुत संगीत । ओकर आँख तर खंधा नाच रहल हे - गुज-गुज ... टार्च ... लालटेन ।) (कसोमि॰93.12)
39 अजलत (मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?) (कसोमि॰123.10)
40 अजुरदा (खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन ! हम तऽ माउग हिअन । माउग कि तोर खाली टासे बनइते रहतो ! ओकरा आउ कुछ मन करऽ हइ कि नञ् ! छाम-छीन नञ्, बकि सिनुरा-टिकुली नञ् ? सोहागिन के बाना चूड़ी भी लावइ से अजुरदा ।) (कसोमि॰101.9)
41 अजोधा (= अयोध्या) (" ... पागल नञ् होथिन तऽ आउ की, अजोधा जी के बड़ी छौनी के महंथ बनथिन ।" गाँव के चालो पंडित बोल के कान पर जनेउआ चढ़ावइत चल देलन नद्दी किछार ।) (कसोमि॰29.9)
42 अझका (= आज का, आज वाला) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।) (कसोमि॰13.10)
43 अड़ोस-पड़ोस (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.20)
44 अदंक (तहिये से हरगौरी बाबू खटिया पर गिरला आउ बोखार उतरइ के नामे नञ् ले रहल हे । एक से एक डागदर अइलन पर कुछ नञ् ... छाती हौल-हौल करऽ हे । सुनऽ ही, बड़का डागदर कह देलन हे कि इनका अदंक के बीमारी हे ।) (कसोमि॰56.14)
45 अदमदाना (अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक । जगेसर सिकरैट पीअ हल । एक खतम होवे तऽ दोसर सुलगा ले । धुइयाँ से सुकरी के मन अदमदा गेल ।) (कसोमि॰41.25)
46 अदमियत (सिवाला में भजन-कीर्तन होवऽ हल । अब तो भोंभा खोल देलक, भगवान के आरती खतम । वरदान पइतन भोंभे ने । कुकुरमुत्ता नियन घर पर घर फैलल जाहे, अदमी बढ़ल जाहे, अदमियत हेराल जाहे ।) (कसोमि॰23.16)
47 अदमी (= आदमी) (सिवाला में भजन-कीर्तन होवऽ हल । अब तो भोंभा खोल देलक, भगवान के आरती खतम । वरदान पइतन भोंभे ने । कुकुरमुत्ता नियन घर पर घर फैलल जाहे, अदमी बढ़ल जाहे, अदमियत हेराल जाहे ।; भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।) (कसोमि॰23.16; 30.19)
48 अदरा (= आर्द्रा नक्षत्र; इस अवसर पर बनाया गया विशेष भोजन, अदरिया) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक । अदरा में खीर पका के अप्पन बाल-बुतरून के खीर खिलावे के साध एगो टीस बन के ओक्कर सीना में धँसले रह गेल ।; अदरा खीरे के ! खीर नञ् तऽ अदरा की ? अदरा में माय बेटा के खीर खिलावे हे । नञ् जुरे तऽ घोंघा में भी बना के खिलावऽ हे, सितुआ में परस के ! ऊ माय की, जे अदरो में अपन बेटा के खीर नञ् खिलइलका ! हाय रे अदिन ! हमर टोला-पड़ोस में अदरा बनइत देखऽ हे अउ दिनिया-दिनिया आवऽ हे । अँचरा खींच-खींच के कहऽ हे - हमरा घर कहिया अदरा होतइ ? - होतइ बेटा । - कहिया होतइ ? लखेसरा घर तऽ आझे हो रहलइ हे । - तोरा घर कल होतउ । - कल काहे ? अदरा आज हइ अउ ई कल बनइतइ ! आझे बनाव अदरा ।) (कसोमि॰6.27; 32.1, 2, 3, 4, 6, 11, 12)
49 अदरिया (दूध के याद अइते ही ओकर ध्यान अदरा पर चल गेल । बुतरून के कह के आल हे, अदरिया बनइबउ । तहिया सुकरी अदरा के आदर से मानऽ हल । घर में गाय, दूध के कमी नञ् । मोरहर के बालू ढोलाय, कोयला के मजूरी ।; सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल । लेकिन तखनइँ ओकरा सामने बुतरून के देल कउल याद आ गेल - 'आज अदरिया बनइबउ' आउ मोटरी के भार कम गेल । मलकल टीसन पहुँच गेल ।) (कसोमि॰34.25; 36.17)
50 अदहन (चारो अनाज तार-तूर के बरकइ ले छोड़ देलक आउ अदहन चढ़इलक। खिचड़ी बनते-बनते रनियां आ जात। आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल।) (कसोमि॰121.11)
51 अदारना (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.21)
52 अधबहियाँ (परेमन, छोटका भाय के लड़का । हाफ पैंट आउ मैल अधबहियाँ गंजी पेन्हले ओज्जइ गुमसुम खड़ा सब बात सुन रहल हल । ओकरा बात में कुछ रहस लगल, से से पुछलक - की कहऽ हलउ तोर मम्मी ? तोर मम्मी हम्मर बाबा के पटनमा में की कहऽ हलउ ?) (कसोमि॰70.20)
53 अनकना-परखना (ई फिल्म के सूटिंग घड़ी एकाध बरस तक सत्यजित राय के कार्य-पद्धति के अनके-परखे के क्रम में उनका एकदम नगीच से देखे के विलक्षण अवसर हमरो मिलल हल ।) (कसोमि॰5.19)
54 अनका (= अनकर; दूसरे का) (आवे घरी छोटकी गोतनी अपन बकरी से कह रहल हल, "गिआरी में घंटी टुनटुनइले चलऽ हल । बाप के हल ? खोल लेलकउ ने करुआमाय । अनका माल पर भेल झमकउआ, छीन-छोर लेलक तऽ मुँह भे गेल कउआ ।") (कसोमि॰119.9)
55 अनकुरा (= अनकुराह; असुविधाजनक, कष्टदायक) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।) (कसोमि॰50.24)
56 अनचके (= अनचक्के, अचानक) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.12)
57 अनचक्के (= अचानक) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।; आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।; अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।) (कसोमि॰16.4, 26; 18.3)
58 अनदिनमा (= किसी दूसरे समय; हर दिन, रोज) (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।) (कसोमि॰122.9)
59 अनरुखे (मुहल्ला के अजान सुन के नीन टूटल । उठके थोड़े देरी ओझराल सपना के सोझरावत रहल । खुमारी टुटला पर खैनी बनैलक आउ अनरुखे पोखर दने चल गेल ।) (कसोमि॰63.12)
60 अन्नस (ओकरा याद आल वारसलीगंज के चीनी मिल । तरेगना साथ देखइ ले गेल हल । बाप रे बाप ! सों ... सों ... सों ... घड़घड़ ... अन्नस ! मसीन तर जाड़ा में भी पसेना । तरेगना मौज में होत ।) (कसोमि॰15.14)
61 अन्हरिया (= अंधेरा) (~ रात = अंधेरी रात) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।; मुनियाँ सोचले जा रहल हल । ओकर ठोर पर मीठ मुस्कान के रेघारी देखाय पड़ल आउ कान लाल भे गेल । दिन रहत हल तऽ कोय भी बुझ जात हल । ओकरा रात आउ अन्हरिया काम देलक । ओकरा लगल - रात-दिन अन्हरिए रहत हल कि मन के बात कोय नञ् बूझत हल ।) (कसोमि॰28.15; 65.12, 13)
62 अन्हरी (= अंधी) (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.19)
63 अन्हरुक्खे (दे॰ अन्हरुखे) (अन्हरुक्खे बारह पौंट के सूट बीनइवला काँटा लेले अंजू समली घर दौड़ल । गाँव में समलीये अइसन लड़की हल जेकरा भिजुन ओकरा मन लगऽ हल । कल समली कहलक हल - अंजू, अब हम नञ् मरबइ गे । देखो हीं नञ्, अब हम बुलऽ लगलिअइ ।; खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !) (कसोमि॰57.1; 75.22)
64 अन्हरुखे (= सूर्योदय के पहले जब फरीछ न हुआ हो) (आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।) (कसोमि॰14.11)
65 अन्हार (= अंधकार) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक ।; कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰6.26; 27.26)
66 अन्हार-पन्हार (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।) (कसोमि॰66.4)
67 अपनइँ (= अपनहीं, खुद्दे; खुद ही) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.12)
68 अपीसर (= अफसर) (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।) (कसोमि॰71.2)
69 अबरिए (कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ । अबरिए देखहो ने, पहिले तऽ दहा देलको, अंत में एक पानी ले धान गब्भे में रह गेलो । लाठा-कूँड़ी से कते पटतइ । सब खंधा में टीवेल थोड़वे हो ।) (कसोमि॰73.1)
70 अबरी (= अगली बार) (छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम ! ऊ तऽ बोतले से सगाय कइलक हे, ढेना-ढेनी तऽ महुआ खोंढ़ड़ से अइलइ हे । अबरी आवे, ओकरा पूछऽ हीअइ नोन-तेल लगा के ।; ऊ टटरी लगा के टंगल दोकान गेल आउ बीड़ी-सलाय के साथे-साथ दलमोट खरीद के आल आउ फेन खाय-पीए में जुम गेल । अबरी पानी मिला के दारू बनइलक अउ दलमोट के साथ घूँट भरऽ लगल ।) (कसोमि॰35.13; 83.12)
71 अबाद (= आबाद) (जहिया से लाजो बीट कराबइ ले काशीचक जा रहल हे, बाउ के सउदा-सुलुफ से फुरसत । तितकी आउ लाजो के जोड़ी अबाद रहे ।) (कसोमि॰48.2)
72 अमउरी (= अमौरी) ("बरतन अर पर धेयान रखिहें। देख, एगो थरिया, एगो लोटा, एगो गिलास आउ पलास्टिक के मग रख दे हिअउ। निम्मक-मिचाय, अमउरी आउ चिन्नी भी दे देलिअउ हे।" थइला के चेन लगवइत माय बोलल।) (कसोमि॰125.5)
73 अर (= निरर्थक शब्द के रूप में प्रयुक्त) (ई मुखिबा कहतउ हल हमरा अर के ? एकर तऽ लगुआ-भगुआ अपन खरीदल हइ । देखहीं हल, कल ओकरे अर के नेउततउ । सड़कबा में की भेलइ ? कहइ के हरिजन के ठीका हउ मुदा सब छाली ओहे बिलड़बा चाट गेलउ । हमरा अर के रेटो से कम ।; इनखा पर देवता के कोप हन । दावा अर के दिन भी नञ् देखइलथिन । सात जगह के मट्टी, हथसार, बेसवा ... चाँदी के नाग-नागिन, बारह बिधा एक्को नञ् पुरैलथिन ।; एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ?; ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल । किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ?) (कसोमि॰12.17, 18, 20; 29.6, 22; 39.21)
74 अरउआ (= बैल-धुर हाँकने का डंडा) (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।; चलित्तर बाबू के आँख तर इसकूल नाच गेल - छमाहिओ में चोरी । पढ़े-लिखे तब तो ! रोज इसकूलो नञ् अइतो ! माय-बाप दे देलको अरउआ आउ जोर-हँसुआ, दोसर के चरइहें, काट-उखाड़ के घरो लइहें ।) (कसोमि॰88.17; 100.21)
75 अरजगर (= {कपड़ा आदि का} चौड़ाई, ओसार, या पनहा वाला) (हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे । गारो झपट के लेलक अउ रपरपाल घर दने सोझिया गेल हे । रह-रह के कम्मल पर हाथ फेरऽ हे ... देखऽ हे । उघारलक हे ... नापलक हे ... अरजगर हे ... ओह, हाय रे हाय !) (कसोमि॰18.2)
76 अरी-बरी (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.19)
77 अलंग (= मोटी, ऊँची और चौड़ी मेड़ या आरी) (बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे । - देखहीं ने बाऊ, कइसन लगऽ हइ अहरवा !; अलंग पर के रोसनी आहर में उतर गेल हे ।; - भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान ! / बासो तऽ निमियाँ आउ बेलदरिया से तेसरे साल विदा भे गेल । बचइ माधे ईहे दस कट्ठा भिखरिया हल बकि ... एहो ... । भिखरिया के अलंग पर दुन्नू बापुत के गोड़ बढ़ल जाहे ।; चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।) (कसोमि॰95.18, 23; 96.14; 101.13)
78 अलंग-पलंग (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? पिपरा तर के जरसमने की हउ ? कुल बिक जइतउ तइयो नञ् पुरतउ । अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले ।) (कसोमि॰51.24)
79 अलकर-जलकर (= अलकर-बलकर; झाड़न-बुहारन, कूड़ा-कतवार, लक्कड़-झक्कड़) (रस-रस दिन लुकलुका गेल । बचल खपड़ा निस्तार के बासो बकिए में गाढ़ से नेबरिए छार देलक । ... बासो उतरके अलकर-झलकर फेंकइ में लग गेल । मुनमा के समदइत कहलक - जा, नहा-धो लिहऽ ।) (कसोमि॰94.19)
80 अलगंठे (पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।) (कसोमि॰84.11)
81 अलमारी (= आलमारी) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.11)
82 अलमुनिया (= अलुमुनियम) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।) (कसोमि॰13.16)
83 अलमुनियाँ (= अलमुनिया; अलुमिनियम) (अलमुनियाँ के कटोरा आग पर रख देलक । फेन सोचलक - बिना खौलले दूध में सवाद नञ आत । ढेर दिना पर तऽ लिट्टी-दूध खाम । तनी देरिए से भेत । से से बचल डमारा जोड़ के छोड़ देलक ।; अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल ।; पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।; बाऊ चौका पर बैठ गेल हल । मुनमो ओकरे साथ बैठ गेल । अलमुनियाँ के थारी में मकइ के रोटी आउ परोर के चटनी ।) (कसोमि॰20.12, 23; 80.17; 92.24; 94.1)
84 अलूदम (= आलू-दम) (- अरे, अदरा पनरह दिन चलऽ हइ बेटा ! - पनरह दिन अदरा हमरो घर चलतइ ? - अदरा एक दिन बनाके खाल जा हइ । - की की बनइमहीं ? - खीर, पूरी, रसिया, अलूदम ! - लखेसरा घर तऽ कचौड़ी बनले हे । ओकर बाऊ ढेर सन आम लैलथिन हे । ई साल एक्को दिन आम चखैलहीं माय ?) (कसोमि॰32.17)
85 अलोधन (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।) (कसोमि॰37.22)
86 अलोपना (= गायब होना, अन्तर्धान होना, दृष्टि से ओझल होना) (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।) (कसोमि॰55.13)
87 अल्लो-मल्लो (बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात । ईहे सब सोच के घर-जमीन सब बेच देलक आउ चल आल नइहरवे ... भइवे के ओठर धर के जिनगी काटम । भतीजवो सब अल्लो-मल्लो कर लेलकइ । बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल ।) (कसोमि॰106.5)
88 अवाज (= आवाज) (भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।) (कसोमि॰30.21)
89 असमान (= आसमान) (~ खिंड़ना) (असमान में सुरूज-बादर के खेल चल रहल हल । सामने वला पीपर पेड़ से एगो बगुला उड़ल । क्यूल दने से डीजल आ रहल हल ... अजगर । तितकी बुदबुदाल - छौंड़ापुत्ता गड़िया लेट करतइ ... रुन्हन ।; लोटा उठा के एक घूँट पानी लेलक आउ चुभला के घोंट गेल ... घुट्ट । ऊ फेनो एगो बीड़ी सुलगइलक आउ कस पर कस सुट्टा मारऽ लगल । भित्तर धुइयाँ से भर गेल । नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन ।) (कसोमि॰51.4; 81.4)
90 असरा (= आसरा; आशा) (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।; एक दिन केस के तारीख हल । नवादा टीसन पर बरमेसरा आउ सितबिया संझउकी गाड़ी के असरा देख रहल हल । गाड़ी लेट हल ।) (कसोमि॰59.9; 106.18)
91 असाढ़ी (= आसाढ़ी; आषाढ़ मास का) (हँसइत बलनेकी सिंह पुछलथिन - की बुझलहो भगत जी ? तोहर पोथिया में ई सब लिखल हइ ने ? ढेर बुझले होवऽ तऽ असाढ़ी पूजा के मलपूआ ।) (कसोमि॰28.7)
92 असिआस (~ चढ़ना) (समली के मुँह पर हाथ रखइत कहलक हल - मरे के बात मत कह समली, हमरा डर लगऽ हउ । - पगली, अब बोखार-तोखार थोड़े लगऽ हइ । खाली कमजोरी रह गेले हे । बुलबउ तऽ असिआस चढ़ जइतउ । सहों-सहों सब ठीक हो जइतइ ।) (कसोमि॰57.8)
93 असिरवाद (= आशीर्वाद) (असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका । - के हऽ ? पछान के - पहुना ... खोस रहो, कहलका आउ माथा पर हाथ रखइत पुछलका - आउ सब ठीके हइ ने ? - सब असिरवाद हइ ।; पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।) (कसोमि॰73.11; 115.18)
94 असीरवादी (अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ । ढेर होतइ तऽ गौंढ़ा बिकतइ । जा बेटी, राज करो । बाउ एकसरुए बोलते जा रहला हे । ओकरा लगल जइसे लाजो विदा हो रहल हे आउ ऊ असीरवादी दे रहल हे ।) (कसोमि॰52.12)
95 अहरा (चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।) (कसोमि॰101.12, 13)
96 अहरी (= आरी) (रस्ता में मकइ के खेत देखलका तऽ ओहे हाल । सगरो दवा-उबेर । उनकर माथा घूम गेल । ऊ पागल नियन खेत के अहरी पर चीखऽ-चिल्लाय लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल । उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल ।) (कसोमि॰26.15)
97 अहल-बहल (= अल-बल; आलतू-फालतू) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।) (कसोमि॰13.27)
98 अही-बही (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.17)
99 अहुआ-पहुआ (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.21)
100 आ (= आध; आधा) (~ सेर दूध) (ऊ लौटे घरी चाह के दोकान से आ सेर लगू दूध कीन लेलक हल । वइसे तो दूध-चाह ले लेलक हल आउ सोचलक हल कि बचत से पी जाम बकि बर तर झोला रखते-रखते ओकर मन में लिट्टी-दूध खाय के विचार आल ।; आ सेर लगि गरई चुन के बिठला नीम तर चल गेल आउ सुक्खल घास लहरा के मछली झौंसऽ लगल - "गरई के चोखा ... रस्सुन ... मिचाय आउ घुन्नी भर करुआ तेल । ... उड़ चलतइ !"; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰20.3; 77.10; 92.23)
101 आँटा (= आटा) (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी । लिट्टी कि छोटका बेल ! बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी ।; ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे । बिठला तीन रात के कमाय लेके घर आवे घरी रस्ते में मछली मारलक हल आज ... खाय से जादे । आधा लउट के बजार में बेच देलक अउ मर-मसाला, कलाली से दारू लेके आल हल । आँटा घरे हल ।) (कसोमि॰21.2; 78.13, 16)
102 आँटी (बासो मैना बैल के दू आँटी नेबारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेबारी तोड़ रहल हल ।) (कसोमि॰95.2)
103 आँन्हीं (= आन्हीं; आँधी) (पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।) (कसोमि॰115.16)
104 आउ (= अउ; और) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।; ओकर जिनगी पानी पर के तेल भे गेल, छहरइत गेल । आउ छहरइत-छहरइत, हिलकोरा खाइत-खाइत फेनो पहुँच गेल अपन गाँव, अपन जलमभूम ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰13.16; 25.2; 46.21)
105 आक्-थू (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक ।; "कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !") (कसोमि॰24.16; 87.6-7)
106 आखवत (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । …खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल । जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके ।) (कसोमि॰78.23)
107 आगरो (गीत अभी खतमो नञ् होल हल कि पोखन अँगना में गोड़ धइलका । सबके नजर उनके दने । कमोदरी फुआ चहकली - सगुन आ गेल । पोखन के काटो तऽ खून नञ् । ऊ कुछ नञ् बोलल, पछाड़ खाके हम्हड़ गेल । पिंडा बबाजी के आगू में फलदान के थरिया उदास । तखनञ् मुनियाँ आंतीवल भौजी के घर से आल । ऊ छन भर में सब बात समझ गेल । जेकरा पर बीतऽ हे ओकरा जल्दी गेआन भे जाहे । आगरो एकरे ने कहल जाहे ।) (कसोमि॰67.10)
108 आगू (= आगे) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।; रस-रस उनकर घर के आगू भीड़ जमा हो गेल । सब देख रहलन हल । ऊ छत पर नाच-नाच के 'हाल-हाल' कर रहला हे । सब के मुँह से एक्के बात - पगला गेलथिन, इनका काँके पहुँचा देहुन ।; बूढ़-पुरनियाँ कहऽ हलन - गाँव के घर चौकीता होवे के चाही, आगू में गोसाला ।) (कसोमि॰19.15; 27.5, 19)
109 आगू-आगू (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।) (कसोमि॰36.15)
110 आगू-पीछू (= आगे-पीछे) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।) (कसोमि॰77.25)
111 आजिज (= तंग, परेशान) (कत्ते बेरी चलित्तर बाबू अपन मेहरारू के समझइलका हे - बुतरू के पेट माय के खान-पान पर निर्भर करऽ हे । तों खट्टा-तीता छोड़ दऽ ... तऽ देखहो, एकर पेट ठीक होवऽ हइ कि नञ् । बकि असमाँवली के दूध-घी, तीअन-तिलौरी दे, चाहे मत दे, अँचार-मिचाय जरूर चाही । मास्टर साहब आजिज हो गेला हे मेहरारू के आदत से - जो, मर गन, हमरा की लेमें, बकि बाला-बचवा पर ध्यान दऽ । बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ ।; उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !) (कसोमि॰100.1; 101.4)
112 आदर (= अदरा, आर्द्रा नक्षत्र) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।) (कसोमि॰80.2)
113 आन (~ दिन = बाकी दिन; दूसरा दिन) (आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।; आज चलित्तर बाबू आन दिन से जादे थकल हला । बात ई हल कि चंडीनोमा हाय इसकूल में दू गो मास्टर के विदाय हल । ई से चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल ।; - ... हम एक राय दिअउ ? - अरे, तों कि आन हें ? तों जे भी कहमें, हमरे फइदा ले ने । जे जरूरी लगउ से कह आउ कर, पूछे हें कि ?) (कसोमि॰16.25; 98.12; 106.24)
114 आन-जान (= अनइ-जनइ; आना-जाना) (दोकान में दू गाहक आउ आ गेल हल । मौली तनि घसक के बात आगू बढ़इलक - हमर आन-जान देखो हो, हे केकरो दुआरी पर ? हमरा ठोकर लगल हे ।) (कसोमि॰111.12)
115 आन्हर (= अन्धा) (मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । - कहाँ हइ ? - आन्हर ... मुनमा माय तावा में रोटी देके बहराल तऽ ओहा चेहा गेल । - एज्जइ तऽ रखलिए हल ... के उठा लेलकइ ?) (कसोमि॰92.1)
116 आन्ही (= आँधी) (लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल । बाउ घिघिआइत रहला, लोराइत रहला, चिल्लाइत रहला अउ अंत में शान्त हो गेला । आन्ही के पहिलकी शान्ति । भित्तर में आग, तूफान, बवंडर ।; भोट देके निकल रहल हल कि बूथ लुटेरवन छेंक लेलक। गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आउ ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल।; छोटकी आन्हीं सन आल आउ झपट के छंउड़ा के उठा के ले गेल। रनियाँ के काटऽ तऽ खून नञ्।) (कसोमि॰55.15; 121.24; 125.13)
117 आहर (= अहरा) (दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे । - देखहीं ने बाऊ, कइसन लगऽ हइ अहरवा !; अलंग पर के रोसनी आहर में उतर गेल हे ।) (कसोमि॰95.20, 23)
118 इंगोरा (तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल । ऊ दिन घर आके माय से कहलक, "माय, हमहूँ पढ़े जइबउ ।" माय तऽ बाघिन भे गेल, "तोर सउखा में आग लगउ अगलगउनी !" माय के लहलह इंगोरा सन आँख तितकी के सपना के पाँख सदा-सदा लेल झौंस के धर देलक ।) (कसोमि॰118.27)
119 इंछा (= हिंछा; इच्छा) (- काडा पर कतना जमा भेलउ ? - कहाँ कते, इहे डेढ़ सो लगू । - पचीस पैसा छूट पर बेच ने दे । हाथ पर पैसो भे जइतउ । हम की करऽ हिअइ ! अगे, गाँव में कते तऽ ओहे पइसवा से सूद लगावऽ हइ । नगदी रहतउ तऽ इंछा के चीज बजार से कीन लेमें । सब चीज भंडरवे से तऽ नञ् ने भे जइतउ ।) (कसोमि॰48.26)
120 इंजोर (= प्रकाश, रोशनी) (मिठाय पट्टी में एक जगह डिलैट के इंजोर हे । जनरेटर के हड़हड़ी बंद हो गेल हे ।) (कसोमि॰81.20)
121 इंजोरिया ('चिन्हऽ हीं नञ्', कहइत लाजो गाछ भिजुन चल गेल । टहपोर इंजोरिया में अमरूद के गाछ के छाहुर ... इंजोरिया आउ छाहुर के गलबात ।) (कसोमि॰46.17)
122 इनकोरी (= इन्क्वायरी; जाँच-पड़ताल) (बासो दरी खन के खंभा खड़ा कइलक आउ बोलल - फुटलका खपड़वा खँचीवा में लइहें तो ... अइँटा के टूट रहते हल । टीवेल के अइँटा तऽ सब ढो लेलकइ । बासो डाँटलक हल मुनमा के - मत लइहें, ... ठीकेदरवा केस कर देलकइ हे । गाँव में इनकोरी होतइ ।) (कसोमि॰90.9)
123 इनार (= इनारा; कुआँ) (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?") (कसोमि॰18.8)
124 इन्नर (= इन्द्र) (जहिया बिजुरी नञ् चमके, बादर नञ् कड़के, उठले पर पता चले - रात इन्नर दरसन देलका हल ।) (कसोमि॰28.4)
125 इमसाल (= इनसाल; ई साल; वर्तमान वर्ष में) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।) (कसोमि॰27.9)
126 इसकुलिया (बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे । ओकर इसकुलिया डरेस के तितकी छू-छू के देखऽ हल । एक दिन घाट पर सक्खी एकरा अपन डरेस पेन्हा देलक अउ कहलक हल, "कैसी इसकुलिया लड़की लगती है !" तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल ।) (कसोमि॰118.22, 24, 25)
127 इसपिरेस (= एक्सप्रेस) (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी । फेन तऽ मत कहऽ, किसुन इसपिरेस हो गेल ।) (कसोमि॰24.25, 26)
128 इस्स-इस्स (मन ~ कर उठना) (मिथिलेश दा के कहानी कहे के अंदाज एतना जीवंत हे कि मन इस्स-इस्स कर उठे हे ।) (कसोमि॰7.14)
129 ईखरी-पिपरी (= खखरी-पिपरी) (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰96.6)
130 ईमसाल (दे॰ इमसाल) (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !; - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत । - मूरे पलटे, साव नितराय ! ओइसने हे ईमसाल के खेती ।- ईमसाल कि सालो-साल ।; ऊ मने-मन सोचलक - खैर, ईमसाल तो फुटोऽऽ रे फुटोऽऽ करबे करम । बात कइल हे । देखल जात अगला साल ।; बासो रुक जाहे । किसुन सिंह हाँक देबइ ले नञ्, दखल करइ ले आल हे । बेईमनमा ... बासो धान रोपला पर रजिस्टरी करइलक हल । बात तय हल कि ईमसाल के धान बटइया रह जइतो, हाँक हमहीं देबो ।; बुलकनी के अउसो नइहरे से माय कूट-पीस के भाय पहमा भेजवा दे हल । बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो ।) (कसोमि॰61.10, 17; 62.1; 91.9; 96.27; 117.5-6)
131 ईहे (= एहे; यही) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰46.19)
132 उकटना (= उलट-पलट कर ऊपर-नीचे करना; किसी को भला-बुरा कहना) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।; तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।; ऊ उठल आउ बोरसी उकट के खटिया तर देलक, कम्बल तान के लोघड़ गेल । नीचे-ऊपर के गरमी मिलल कि गोड़ टाँठ करके करवट बदललक ।) (कसोमि॰23.21; 24.18; 62.14)
133 उकटा-पैंची (बस, बात बढ़ गेल। सात कुरसी के उकटा-पैंची भेल। हाथ उलार-उलार के दुन्नू अँगना में वाक्-जुद्ध करऽ लगल। महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में।) (कसोमि॰122.16)
134 उकबुकाना (= कुम्हलाना, to be suffocated) (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही । बीच-बीच में मुँह निकाले पड़तो । खुरखुरी से हाली-हाली नीन टूट जइतो ।) (कसोमि॰17.20)
135 उगाही (बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक । डमारा के ढेरी, हसनपुर के जनेगर पहाड़ । ओकरे से उसार के लिट्टी बनऽ हल । एक खंधा के सब खरिहान से उगाही होवऽ हल ।; एगो लमहर सोंवासा लेके किसुन मट्टा फोरलक आउ बुदबुदाल - दमाही नञ् तऽ उसार के उगाही कइसन । उगाही नञ् तऽ उसार के सहभोज कइसन ।) (कसोमि॰23.24; 24.1)
136 उग्गिल-पिग्गिल (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।) (कसोमि॰33.12)
137 उघड़ल (= उघरल; खुला हुआ) (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।) (कसोमि॰60.12)
138 उघार (= खुला; पर्दा, कपड़ा, ढक्कन आदि हटा हुआ) (ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल । ओकर देह लजउनी घास भे गेल । ऊ करवट बदललक । ओढ़ना खाट से कम चउड़ा । लाजो के देह बाहर भे गेल, पीठ उघार ।) (कसोमि॰47.1)
139 उघारना (= खोलना, परदा या ढँक्कन हटाना) (हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे । गारो झपट के लेलक अउ रपरपाल घर दने सोझिया गेल हे । रह-रह के कम्मल पर हाथ फेरऽ हे ... देखऽ हे । उघारलक हे ... नापलक हे ... अरजगर हे ... ओह, हाय रे हाय !; अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।) (कसोमि॰18.2; 60.9)
140 उचकाना (= उठाना) (बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।) (कसोमि॰74.6)
141 उछाड़ो (= उसार) (ओकरा फेन खरिहान के उछाड़ो वला महाभोज याद आ गेल । सरवन चा कहलका हल - टूरा, कल हमर खरिहान अइहें, फेन लिट्टी-दूध चलतइ ।) (कसोमि॰25.10)
142 उतरबारी (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल । - समली बेचारी तऽ ... । अंजू के गोड़ थम गेल । - की हलइ ? अंजू पलट के पुछलक । - बेचारी रातहीं चल बसलइ हो । एतना कहइत लाटो चा लफ के उतरबारी गली में बैल मोड़लका ।; फुफ्फा जइसे नस्ता करके उठला आउ अँगना में उतर के उतरवारी ओसरा होके डेवढ़ी पहुँचला कि उनकर कान में आवाज आल - फेंक दो, थडकिलासी समान बच्चो को देता है, बीमारी का घर ।) (कसोमि॰60.2; 75.14)
143 उधार (= उद्धार) (बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ । जीवट के औरत तइसे हिम्मत नञ् हारल । बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात ।) (कसोमि॰106.3)
144 उधार-पइँचा (उधार-पइँचा से बरतन अउ लटखुट के इंतजाम हो गेल हे । रह गेल कपड़ा आउ लड़का के पोसाक । छौंड़ा कहऽ हल थिरी पीस । पाँच सो सिलाय ।) (कसोमि॰54.17)
145 उधिआना (= उधियाना; उबाल आना) (एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?) (कसोमि॰22.6)
146 उपछना (मार लेलिअइ ... / बान्ह लेलिअइ नदिया / उपछ लेलिअइ पनिया / मइयो गेऽ ... ।) (कसोमि॰77.16)
147 उपड़ा (- एकरा से कि, खेसड़िया खा दहो, हट्टी चढ़ा देबइ । - से तऽ ठीक, मुदा बैल हो जाय के चाही ओतने में आउ एतने ऊँच । उपड़ा अर नञ् देबइ, अहो तोरा तऽ फैदे-फैदा हउ - एक बेचइ के, दोसर कीनइ के ।) (कसोमि॰68.16)
148 उपरइला (= उपरला; ऊपर वाला) (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।) (कसोमि॰80.23)
149 उपरउला (= ऊपर वाला; उपरला) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।) (कसोमि॰88.3)
150 उपलाना (= पानी पर तैरना) (बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।) (कसोमि॰82.13)
151 उपहना (= गायब होना, गुम होना; प्रचलन से बाहर होना) (असेसर दा घर दने चल गेला । बनिहार एक लोटा पानी आउ हवाई चप्पल रख गेल । खड़ाँव के चलन खतम हो गेल हे । पहिले काठ के चट्टी चलऽ हल, बकि ओहो उपह गेल ।; अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰70.2; 120.26)
152 उपास (= भूखा, बिना खाया-पिया) (ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।") (कसोमि॰78.5)
153 उमताह (= उमताहा, पागल, बौराहा) (उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल । ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग । - आज इनका की हो गेलन ? - ई तऽ उमताह नियन कर रहला हे ।) (कसोमि॰26.19)
154 उरिया-पुरिया (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.18)
155 उरीद-ढइँचा (भइया से पुछलका - सितवा में ऐब देखऽ हिओ ददा । - आउ दहीं सलफिटवा । खटिया पर बइठइत भइया बोलला । - हरी खाद देबइ ले कहऽ हिओ तऽ सुनबे नञ् करऽ हो । उरीद-ढइँचा गंजाबे के चाही, गोबर डाले के चाही मुदा ... ।) (कसोमि॰102.6)
156 उरेबी (~ बोलाना) (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰118.1)
157 उलारना (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।"; बस, बात बढ़ गेल। सात कुरसी के उकटा-पैंची भेल। हाथ उलार-उलार के दुन्नू अँगना में वाक्-जुद्ध करऽ लगल। महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में।) (कसोमि॰26.3; 117.14; 122.17)
158 उल्लू-दुत्थू (= उल्लू-धुत्तू) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।) (कसोमि॰22.18)
159 उसकाना (= उकसाना) (ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन । अइसने खिस्सा दुआरी-दुआरी हो रहल हल । गाँव कनकना गेल हल, उसकावल बिड़नी नियन । गाँव दलमल ।) (कसोमि॰55.23)
160 उसकुन (पहिले तो हरगौरी बाबू खेत के बात कइलन हल मुदा ऐन मौका पर खाली बिदकिए नञ् गेलन, अपन पहिलौको पैसा के तगादा कर देलका । उसकुन के अच्छा समय देखलका । गाँव में आउ केकरा पैसा हे । जेकरे आज के छौंड़ा माँड़र पहाड़ से ढाही लेबइ ले चलल हे ।) (कसोमि॰54.21)
161 उसरना (= इसोरना) (धान ~) (अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।) (कसोमि॰73.22)
162 उसार (= उछाड़ो) (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी ।; बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक । डमारा के ढेरी, हसनपुर के जनेगर पहाड़ । ओकरे से उसार के लिट्टी बनऽ हल । एक खंधा के सब खरिहान से उगाही होवऽ हल ।; एगो लमहर सोंवासा लेके किसुन मट्टा फोरलक आउ बुदबुदाल - दमाही नञ् तऽ उसार के उगाही कइसन । उगाही नञ् तऽ उसार के सहभोज कइसन ।) (कसोमि॰20.26; 23.23; 24.1)
163 ऊँहुँक (- मुनमा कने गेलइ ? बासो सवाल कइलक । - नद्दी दने गेलइ होत । - ऊँहुंक ।) (कसोमि॰92.8)
164 ऊआ-पूआ (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.20)
165 ऊहो (= ओहो; वह भी) (मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे । ऊहो ओज्जइ गेला आउ बैग से चद्दर निकाल के बिछा देलका ।) (कसोमि॰28.18)
166 एकछित्तर (जइते के साथ अपन दुखड़ा सुनइलक। तरेंगनी के भी एकर सिकायत सुन के अच्छा लग रहल हल। ऊ हुलस के कहलक, "मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।") (कसोमि॰123.22)
167 एक-टकिया (एगो डर के आँधी अंदरे-अंदर उठल अउ ओकर मगज में समा गेल । फेनो ओकर आँख तर सुरमी, ढेना-ढेनी नाच गेल । रील बदलल । आँख तर नोट उड़ऽ लगल । एक-टकिया, दु-टकिया ... हरियर-हरियर ... सो-टकिया लमरी ।) (कसोमि॰81.26)
168 एकल्ला (= अकेला, एकमात्र) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।) (कसोमि॰28.15)
169 एकल्ले (= अकेल्ले; अकेले) (बड़की बिछौना बिछा देलकी ओसरा पर । मेहमान जाके बैठ गेला । मेहमान एकल्ले बइठल हथ ओसरा पर । बड़की मंझली से नास्ता बनाबइ ले कहलकी ओकर भित्तर जाके ।; एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।) (कसोमि॰74.18; 85.9)
170 एकसर (= एकान्त) (भउजाय मुँह फुलइले रहल । एकसर में छोटका सब खिस्सा फारे-फार सुना देलक । कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक ।) (कसोमि॰118.6)
171 एकसरुए (= अकेल्ले; अकेले) (अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ । ढेर होतइ तऽ गौंढ़ा बिकतइ । जा बेटी, राज करो । बाउ एकसरुए बोलते जा रहला हे । ओकरा लगल जइसे लाजो विदा हो रहल हे आउ ऊ असीरवादी दे रहल हे ।) (कसोमि॰52.10)
172 एक्कक (= एक-एक) (एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।; गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आए ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल। ओहे साल बँटवारा भेल हल। तीनियों एक्के घर में रहऽ हल। एक्कक भित्तर हिस्सा पड़ल हल। अँगना एक्के हल।) (कसोमि॰27.14; 121.26)
173 एजा (= एज्जा; इस जगह) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । ..." बुढ़वा दने देख के - "एजा कि घुकरी मारले हें । सुलगो देहीं । जो ने बारा तर ... तापिहें तलुक ।"; सरवन चा के खरिहान पुरवारी दफा में हल । एजा इयारी में अइला हल । पारो चा उनकर लंगोटिया हलन ।; दोसरा भिर बोलहीं, हम नञ् जानो हिअइ कि एजा रातो भर तों सब की करो हलहीं ? खेत उखाड़े से लेके मुँह करिया करे के धंधा तो एज्जइ ने होवऽ हलइ हो ?) (कसोमि॰13.3; 25.13; 29.25)
174 एज्जइ (= इसी जगह; यहीं) (दोसरा भिर बोलहीं, हम नञ् जानो हिअइ कि एजा रातो भर तों सब की करो हलहीं ? खेत उखाड़े से लेके मुँह करिया करे के धंधा तो एज्जइ ने होवऽ हलइ हो ?; सुकरी फुदनी के समदइत बजार दने निकल गेल - हे फुदो, एज्जइ गाना-गोटी खेलिहऽ भाय-बहिन । लड़िहऽ मत । हम आवऽ हियो परैया से भेले ।; मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । - कहाँ हइ ? - आन्हर ... मुनमा माय तावा में रोटी देके बहराल तऽ ओहा चेहा गेल । - एज्जइ तऽ रखलिए हल ... के उठा लेलकइ ?) (कसोमि॰29.26; 33.15; 92.3)
175 एज्जा (= एजा; इस जगह, यहाँ) (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत ।; ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।") (कसोमि॰19.17; 78.5)
176 एतबड़ (= इतना बड़ा) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।) (कसोमि॰89.8)
177 एते (= एत्ते; इतना; यहीं) (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰59.21; 86.20)
178 एने (= एन्ने; इधर, इस ओर) (चिकनी खाय के जुगाड़ करऽ लगल । एने जहिया से कुहासा लगल हे, चिकनी चुल्हा नञ जरइलक हे । भीख वला सतंजा कौर-घोंट खा के रह जाहे ।) (कसोमि॰13.7)
179 एन्ने-ओन्ने (= इधर-उधर) (आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे । उ तहिये ने मोहना के सहियेसाँझ छीन लेलकइ । कुछ नञ् बेचारा के दिन भर के मजुरिए ने हलइ । छौंड़ापुत्ता जनो-मजूर के नञ् छोड़ऽ हइ । ऊ खोजी कुत्ता नियन एन्ने-ओन्ने ताकइत चार चक्कर लगैलक । हार-पार के नल भिजुन मोटरी-डिब्बा धइलक आउ कुल्ली-कलाला करके भर छाँक पानी पीलक ।; बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।) (कसोमि॰41.11; 80.7)
180 ओइसइँ (= ओइसहीं; वैसे ही) (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।; रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।) (कसोमि॰45.16; 80.21)
181 ओइसहीं (= वैसे ही) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !) (कसोमि॰13.19)
182 ओकर (= उसका) (दर-दर के ठोकर खाके ऊ दिन भर जे कमयलक ओक्कर दूध, गुड़ आदि खरीद के लौट रहल हल कि छिछोर चोरवन सब अन्हार से निकल के ओकर सब समान छीन लेलक ।; ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।") (कसोमि॰6.27; 13.23)
183 ओकरा (= उसे, उसको; ओकरो = उसे भी) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।") (कसोमि॰13.24)
184 ओकील (= वकील) (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।) (कसोमि॰28.23)
185 ओजइ (= ओज्जइ; उसी जगह, वहीं) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।; मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । कहाँ हइ ?) (कसोमि॰52.14; 91.25)
186 ओजउ (= ओज्जो; उस जगह भी) (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।) (कसोमि॰26.1)
187 ओजउका (= उस जगह वाला) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... सोचलक - गोविन्द बाबा के गोड़ लग आवऽ ही बकि ओजउका नक्सा देख के तऽ दंग रह गेल । ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर !) (कसोमि॰19.11)
188 ओजा (= ओज्जा, वहाँ, उस जगह) (एक तुरी बीच में अइला तऽ देखऽ हथ, उनकर बँगला बंडन के अड्डा बनल हे । खेत घूमे निकलला तऽ देखऽ हथ, खेत कटल हे । खरिहान देखइ ले गेला तऽ ओजा तीन गो छोट-छोट काँड़ा लगल हल । घूम-घाम के ओजउ से चल अइला, कुछ नञ् बोलला ।) (कसोमि॰26.12)
189 ओज्जइ (= ओज्जे; वहीं, उसी जगह) (मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे । ऊहो ओज्जइ गेला आउ बैग से चद्दर निकाल के बिछा देलका । सौंसे छत पर लगे जइसे मुरदा पड़ल हे, रेल-दुर्घटना वला मुरदा । अइँटा के खरंजा नियन सरियावल ।; (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰28.18; 58.4)
190 ओझराना (= उलझना; उलझाना) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।; मुहल्ला के अजान सुन के नीन टूटल । उठके थोड़े देरी ओझराल सपना के सोझरावत रहल । खुमारी टुटला पर खैनी बनैलक आउ अनरुखे पोखर दने चल गेल ।; बिठला फेन मछली में ओझरा जाहे अउ भूलल गीत में 'मछली' जोड़ के गावऽ लगऽ हे, "नथिया जब ... जब ... हाँ मछली जब ... जब ... ।") (कसोमि॰13.27; 63.11; 76.12)
191 ओटका-टोटका (मास्टर साहब के गोस्सा सथा गेल । उनखर ध्यान बरखा दने चल गेल । जलमे से ओकर पेट खराब रहऽ हइ । दवाय-बीरो से लेके ओटका-टोटका कर-कराके थक गेला मुदा ... ।) (कसोमि॰99.23)
192 ओठर (= सहारा) (बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ । जीवट के औरत तइसे हिम्मत नञ् हारल । बाल-बच्चा के मुँह देख के धीरज धइलक - पोसा जात तऽ मट्टी उधार हो जात । ईहे सब सोच के घर-जमीन सब बेच देलक आउ चल आल नइहरवे ... भइवे के ओठर धर के जिनगी काटम ।) (कसोमि॰106.5)
193 ओढ़रा (चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल ।) (कसोमि॰13.22)
194 ओत्तेक (= ओतना; उतना) (जेत्तेक ... ~) (ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग । - "आज इनका की हो गेलन ?" - "ई तऽ उमताह नियन कर रहला हे ।" - "माथा फिर गेलन कि ?" जेत्तेक मुँह ओत्तेक बात । मुदा उनकर अवाज नञ् रुकल । ऊ ढेर देरी तक हाल-हाल करते रहला ।) (कसोमि॰27.2)
195 ओर-बोर (बाते-बात बमेसरा कहलक - देख, अब अइसे नञ् चलतउ । देख रहलहीं हे कचहरी के ओर-बोर ! ई तरह से तऽ तोरा घर भेलउ से कुछ बाकी । तों जन्नी जात । एकरा ले करेजा के साथे-साथ धिरजा चाही । तोरा में ई दुन्नू नदारथ हउ । हम एक राय दिअउ ?) (कसोमि॰106.21)
196 ओरसियर (= ओरसियल; ओवरसियर) (एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।) (कसोमि॰27.16)
197 ओरियाना (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।") (कसोमि॰17.8)
198 ओलती (गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल ।; रस-रस दिन लुकलुका गेल । बचल खपड़ा निस्तार के बासो बकिए में गाढ़ से नेबरिए छार देलक । नया खपड़ा तऽ जेठ माधे मिलत । पुरान खपड़ा तऽ नारो पंडित के हे, मुदा देत थोड़े । खैर, तीन हाथ ओलती के कुछ नञ् भेत । रहऽ देहीं फूसे ... देखल जात ।) (कसोमि॰42.6; 94.17)
199 ओलहन (= ओरहन; उलाहना, उपालम्भ, ताना) (मुँह चमका-चमका के बोलना) (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।; माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।") (कसोमि॰48.16; 117.14)
200 ओसरा (= ओसारा) (नयका छारल ओसरा पर फेन खटिया बिछ गेल । माय साँझ-बत्ती देके मोखा पर दीया रख के अंदर चल गेल । बासो मैना बैल के दू आँटी नेबारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेबारी तोड़ रहल हल ।) (कसोमि॰95.1, 3)
201 ओसरा-भित्तर (हम दाहुवला जमीनियाँ ले लेही आउ झोपड़ी छार के दिन काटम । हरहर-खरहर से बचल रहम । आउ एक दिन वय-वेयाना भी हो गेल । ... सितबिया अपन दुन्नू भाय से भी राय-मसविरा कइलक आउ सह पाके लिखा लेलक । बचल पैसा से तीन डिसमिल आउरो जमीन भे गेल, फेन एगो ओसरा-भित्तर अलग से ।) (कसोमि॰107.18)
202 ओसारा (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
203 ओहारी (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।) (कसोमि॰66.5)
204 ओहे (= ओही; वही) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।) (कसोमि॰19.4)
205 ओहो (= ओहू; वह भी) (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।) (कसोमि॰59.9)
206 औंटना (दूध ~) (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।) (कसोमि॰22.1, 4)
207 औंटाना (दूध ~)ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।) (कसोमि॰22.1, 3)
208 औंसना (= हौंसना, तेल आदि लगाना) (तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो । - हम की करिअइ । बुतरू-बानर के घर हइ । छौंड़ा-छौंड़ी के भी ईहे औंसऽ हिअइ ।; टहल-टुहल के अइला आउ ओहे खटिया पर बैठ के ओहे घुन्नी भर तेल गोड़ में औंसो लगला ।) (कसोमि॰99.18; 101.18)
209 औसो (~ के = ऐसे भी) (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।) (कसोमि॰23.6)
210 कँकड़ी (= ककड़ी) (छोटका टिसन तक गाड़ी चढ़ावे साथ आल । गाड़ी में देरी हल । बहिन के एगो चाह पिलइलक आउ बुतरू लेल कँकड़ी खरीद के दे देलक । बुलकनी माय से मुलकातो नञ् कइलक ... लउट गेल ।) (कसोमि॰118.17)
211 कंडा (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।) (कसोमि॰76.4)
212 कइसन (= क्यों; कैसा) (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?") (कसोमि॰13.15)
213 कइसूँ (= कइसहूँ; किसी तरह) (बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो । खन्हा कटल हो, एकर खेत गाय-गोरू बरबाद करते रहलो । कोढ़ हइ कोढ़ ! कइसूँ सालो भर के के खरची चल गेलो तऽ बहुत ।; हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰58.24; 96.4)
214 कउची (= क्या; ~ तो = कुछ तो) (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।) (कसोमि॰46.23)
215 ककहरा (चलित्तर बाबू के आँख तर इसकूल नाच गेल - छमाहिओ में चोरी । पढ़े-लिखे तब तो ! रोज इसकूलो नञ् अइतो ! माय-बाप दे देलको अरउआ आउ जोर-हँसुआ, दोसर के चरइहें, काट-उखाड़ के घरो लइहें । अरे एतने, बप्पा सेंटरवा में चिट्ठा पहुँचावऽ हइ - लिख बेटा । बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।) (कसोमि॰100.24)
216 कका (= काका) (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰59.20)
217 ककोड़ा (= किकुड़ा; केंकड़ा) (भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! - बकरी के लोभ में दहलइ गुरूआ वली ! - ढेर लोभ बगुलवे किन्हाँ, छन में प्रान ककोड़वे लिन्हाँ । - कविते करइत रहमहीं कि छानवो करमहीं । भदवा बोलल । - के जान दे हइ !) (कसोमि॰34.11)
218 कखनउँ (= कभी) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।) (कसोमि॰13.27)
219 कखने (= कखनी; कब, किस समय, किस क्षण) (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।"; मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । ... बलनेकी सिंह के बात पर सब के हँसी आ गेल । सौखी सिंह कखने घसक गेल, कोय नञ् देखलक ।; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।) (कसोमि॰17.9; 30.8; 51.15)
220 कचकच (बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।) (कसोमि॰80.8)
221 कचका (= कच्चा वाला) (भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल ।) (कसोमि॰51.1)
222 कचबच (~ करना = चिड़ियों का चहचहाना) (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।) (कसोमि॰66.6)
223 कचूर (हरियर ~) (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।) (कसोमि॰38.1)
224 कजउ (= कज्जउ, कज्जो; कहीं) (एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।" - "चोरी कइले होमे ... डाका डालले होमे कजउ !") (कसोमि॰86.1)
225 कजा (= किस जगह, कहाँ) (मुनमा पैरे पर लौट गेल आउ गमछी में परोर बटोर के कटोरा लेल मारलक दरबर । - कजा रखलहीं परोरिया ? बासो पुछलक । - ओजइ, ओसरवा पर । - कहाँ हइ ?) (कसोमि॰91.25)
226 कज्जउ (= कज्जो; कहीं भी) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।; मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰22.17; 35.2)
227 कट-छट (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही । / दुन्नू भाय में अइसइँ साँझ के साँझ कट-छट होतो । होवऽ हे ओहे, जे बड़का भइया खेती मधे चाहऽ हथ । चलित्तर बाबू खाली बोल-भूक के रह गेला ।) (कसोमि॰102.20)
228 कटहर-कोवा (ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे । सितबिया बजार से तेल-मसाला, कटहर-कोवा लेके लउटल । एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय ।) (कसोमि॰108.2)
229 कटुआ (= कट्टू+'आ' प्रत्यय) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.22)
230 कट्ठा (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.20)
231 कठुआना (= काठ जैसा हो जाना) (भउजाय मुँह फुलइले रहल । एकसर में छोटका सब खिस्सा फारे-फार सुना देलक । कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक ।) (कसोमि॰118.7)
232 कड़मड़ (~ करना) (बुलकनी के दुन्नू बेटा हरियाना कमा हे । बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे ।) (कसोमि॰118.20)
233 कड़र (= कड़ा) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.13)
234 कड़ी (= छप्पर या छत की, साधारणतः ताड़ की, शहतीर) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।) (कसोमि॰88.1)
235 कतना (= केतना; कितना) (सुकरी निरास । हिम्मत करके बोलल - थोड़ बहुत बचल होतो, दे दऽ, बड़ गुन गइबो । - एऽ हो ... बचल हउ एकाध किलो ? एक फेरबंकिया अपन संघाती से पुछलक । - देखऽ हियो ... कतना लेतइ ? - एक किलो ।) (कसोमि॰40.15)
236 कतिकसन (सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।) (कसोमि॰92.11)
237 कत्ता (आज ऊ समय आ गेल हे । सितबिया हनहनाल बमेसरा दुआर चलल । बड़ तर बमेसरा मांस के पैसा गिन रहल हल । ओकरा बगल में कत्ता आउ खलड़ी धइल हल । कटोरा में अचौनी-पचौनी । सितबिया लहरले सुनइलक - हमर घर के हिसाब कर दे ।) (कसोमि॰108.15)
238 कत्ती (तनी देरी एन्ने-ओन्ने गोड़ाटाही करइत रहल आउ फेन अपन काम में जुट गेल ... ओहे कत्ती ... ओहे खेल ।) (कसोमि॰83.25)
239 कत्ते (= केतना; कितना) ("केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । कत्ते घिघिअइला पर किसोरबा देलक हल । ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।"; एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल । साड़ी के अँचरा से लदफदाल सुकरी बकरी खींचले बाहर भेल । ऊ अपन अंचरे से सेसपंज हल, नञ् तऽ कत्ते तुरी मोरहर पार कइलक हे धाध में ।) (कसोमि॰11.17; 34.18)
240 कत्तेक (= कइएक; कई) ("अच्छा, सच्चे कंबल मिलतइ ?" चिकनी के विस्वास नञ भे रहल हल । अइसन तऽ कत्तेक बेरी सुनलक हे ... कत्ते बेरी डिल्ली, पटना भी गेल हे झंडा-पतक्खा लेके मुदा ... ।; गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰17.12; 35.9)
241 कथरी (= गुदड़ी; कंथा; गेंदरा; फटा-पुराना कपड़ा) (चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल ।; "गारो मर गेल चिक्को । ई तऽ बुढ़वा हे, माउग के भीख खाय वला । तों ठीक कहऽ हें चिक्को । कल से हमहूँ माँगवउ । .." ऊ कथरी पर घुकुर गेल ... मोटरी नियन । चिकनी बिदकल, "तों काहे भीख माँगमें, हम कि मर गेलिअउ ?") (कसोमि॰13.23; 15.5)
242 कथी (ईहे बीच एक बात आउ भेल । सितबिया के बगल में दाहु अपन जमीन बेचइ के चरचा छिरिअइलक । कागज पक्का हल, कोय लाग-लपेट नञ् । सितबिया के लगल - ई घर तऽ झगड़ालू हे, बमेसरे के रहे देहो । कथी ले फेन लिखाम । अपने भाय-भतीजा के बात हे ।; एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय । सितबिया के देह में आग लग गेल । हमरा पर एतनो भरोसा नञ् । अपन कथी ले कहलक हे ?) (कसोमि॰107.10; 108.7)
243 कदुआ-कोंहड़ा (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰102.19)
244 कनउँ (= कनहूँ; कहीं, किसी तरफ) (ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।; बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल । रस-रस सब जिनगी के गाड़ी पटरी पर आल तऽ एक दिन छोटका भतीजवा से बोलल - रे नुनु, तहूँ परिवारिक हें, घर सकेत । कनउँ देखहीं ने जमीन । झोपड़ियो देके गुजर कर लेम ।) (कसोमि॰25.7; 51.14; 106.8)
245 कनकन (= ठंढा, शीतल) (चिकनी गारो के मूड़ी पकड़ के हिलइलक तऽ ओकर मूड़ी काठ ! गारो कम्मल के सपना देखइत कनकन भे गेल हल ... सोरा ।) (कसोमि॰18.11)
246 कनकनाना (खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक ।; ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन । अइसने खिस्सा दुआरी-दुआरी हो रहल हल । गाँव कनकना गेल हल, उसकावल बिड़नी नियन । गाँव दलमल ।) (कसोमि॰49.21; 55.22)
247 कनखा (चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे । भुस्सा के झोंकन अउ लहरइठा के खोरनी । चुल्हा के मुँह पर घइला के गोलगंटा कनखा ... खुट् ... खुट् ।) (कसोमि॰16.15)
248 कनखी (~ मारना) (- पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ । - अखनञ् से चिंता सताबऽ लगलउ ? तितकी कनखी मारइत बोलल । लाजो ढकेल देलक ओकरा झुलुआ पर से । तितकी पलट के लाजो के हाथ पकड़लक आउ खींच लेलक । लाजो तितकी के बाँह में ।) (कसोमि॰49.3)
249 कनट्टी (= कनपट्टी) (पान-सात आदमी चारियो पट्टी से घेर लेलक । दू आदमी आगू बढ़ के दुन्नू के कनट्टी में पिस्तौल भिड़ा देलक । दू आदमी दुन्नू के हाथ से समान छीन लेलक ।) (कसोमि॰42.15)
250 कनमटकी (सुत रह ... देखहीं अउ हाँ, भोरगरे उठा दीहें, बेस !" गारो कनमटकी दे देलक । गारो कम्मल के सपना में डूब गेल - नञ जानूँ कइसन कम्मल मिलत ? धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।; बंगला पर जाके चद्दर तान लेलका । खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो ।) (कसोमि॰17.14; 75.20)
251 कनिआय (दे॰ कनियाय) (सोंचले हलूँ कि उनखे हियाँ रह जाम । उनखर कनिआय भी बड़ छोहगर । रहइ के मन सोलहो आना भे गेल हल बकि ...।; ई तऽ लड़किन-बुतरू के पढ़ा सकऽ हे । लोग-बाग तऽ कनिआय तक के पढ़ावइ ले कहे लगल । एकरा मन करे कि दुन्नू काम करूँ - पढ़ावूँ भी आउ सिलाय-फड़ाय सिखावूँ ।) (कसोमि॰25.19; 66.19)
252 कनियाय (भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ । बनला पर लगे कि छत पर कोय कनियाय रहे ।) (कसोमि॰27.23)
253 कने (= कन्ने; किधर, किस ओर, कहाँ) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ?; - मुनमा कने गेलइ ? बासो सवाल कइलक । - नद्दी दने गेलइ होत । - ऊँहुंक ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰89.5; 92.6, 21)
254 कन्हा (= कन्धा) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।) (कसोमि॰77.21)
255 कन्हुआना (= आँखों द्वारा डराना, आँखों से नाराजगी दिखाना) (परेमन भी अब बुझनगर भे गेल हे । लड़ाय दिन से ओकरा में एगो बदलाव आ गेल हे । पहिले तऽ चचवन से खूब घुलल-मिलल रहऽ हल । गेला पर पाँच दिना तक ओकरे याद करते रहतो हल, बकि ई बेरी ओकरा हरदम गौरव-जूली से लड़ाय करे के मन करते रहतो, कन्हुआइत रहतो, ... सगरखनी ... गांजिए देबन ... घुमा के अइसन पटका देबन कि ... ।; बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइंठ में बाँध ला। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हा, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस?" शान्त होबइ के तऽ हो गेल बकि दुन्नू तहिया से कनहुअइले रहऽ हल। आझ मँझली के काम आ पड़ल। अनाज भुंजइ के एगो छोटकिये के पास खपरी हल।) (कसोमि॰71.19; 122.26)
256 कपसना (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।) (कसोमि॰46.22)
257 कबाड़ना (= कबारना, उखाड़ना) (नेटुआ के ताल पर नाचइत बिठला सुरमी के डाँड़ा में अपन दहिना बाँह लपेट देलक कि सुरमी हाथ झटक के पीछू हट गेल । बिठला डगमगाल आउ आगू झुक गेल । - "हमरा छूलें तऽ मोछा कबाड़ लेबउ मउगमेहरा ।"; कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन । हमरो गोस्सा आ गेलो । ई सब खोंट के लड़ाय लेना हल । हम भी उकट के धर देलियन । चराबे के चरैबे करे, रात भर रतवाही । बोझा के कबाड़े वला भी धरमराजे बनइ ले चलला हे ।) (कसोमि॰85.16; 111.24)
258 कमाना-कजाना (अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल । ... "बचल ! एकरे डर ... लेके सले कलाली चल देतो । कमइतो न कजइतो ... चुकड़ी ढारतो ।"; सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो !) (कसोमि॰11.5-6; 106.11)
259 कमाना-धमाना (कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ?) (कसोमि॰21.26)
260 कमाय (= कमाई) (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल ।; मुनियाँ के चिंता छोड़ऽ । मुनियाँ अपन बिआह अपने करत ... तहिया करत जहिया मुनियाँ के मुट्ठी में ओकर अप्पन कमाय होत, मेहनत के कमाय । चल माय, खाय ले दे, भूख लगल हे ।) (कसोमि॰11.13; 67.21, 22)
261 कमासुत (= कमाने वाला) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।; आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।) (कसोमि॰14.25; 82.25)
262 कम्पोटर (= कम्पाउंडर) (लाजो के याद आल - गाँव वला कम्पोटर के चिट्ठा, माय के दम्मा, ... गोली आउ टौनिक । गौतम मेडिकल हॉल भिजुन पहुँचल तऽ देखऽ हे एगो अदमी कुरसी पर बैठल अखबार पढ़ रहल हे ।) (कसोमि॰50.9)
263 कम्मल (= कम्बल) (सुत रह ... देखहीं अउ हाँ, भोरगरे उठा दीहें, बेस !" गारो कनमटकी दे देलक । गारो कम्मल के सपना में डूब गेल - नञ जानूँ कइसन कम्मल मिलत ? धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।; कम्मल भी तो कपड़े न हे ? रोजी नञ, रोटी नञ, कपड़े सही । मरे घरी चार गज के कपड़े तऽ चाही । राजा हरिचनरो के बेटा कमले के कफन ओढ़लन हल । जाड़ा अउ कम्मल ! हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे ।) (कसोमि॰17.15, 16, 23, 25, 27)
264 करगी (= किनारे; बगल) (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰59.21)
265 करबटिया (= करवट+'आ' प्रत्यय) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।) (कसोमि॰42.27)
266 करिया (= कार+ 'आ' प्रत्यय) (पलट के मोटरी ताकइत मुँह पोछब करऽ हल कि नजर जगेसर राय पर पड़ल । एक हाथ में अटैची आउ कंधा में करिया बैग । सुकरी के जान में जान आल । एक से दू भला । दिन-दुनिया खराब ।) (कसोमि॰41.14)
267 करींग (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰96.4)
268 करूआ (= कड़वा) (~ तेल = सरसों का तेल) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.13)
269 कर्ता (एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।) (कसोमि॰114.7)
270 कलउआ (= कलेवा; खाना, भोजन) (- दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल । किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ?; तितकी आवे के तऽ आल, बकि टुघरइत । माय के गोस्सा कपार चढ़ गेल, "छिछिअइली, सोगपरउनी । लगऽ हइ देह में समांगे नञ् हइ । मन करऽ हइ इहे अइँटवा से कपार फोड़ दिअइ । चल, केराव पीट । कोकलत जाय ले इहे छान-पगहा तोड़ा रहल हे । मोहनभोग बना के कलउआ देबउ कि इहे बूँटा-केरइया, गहुमा के सतुआ ।"; अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक। राह कलउआ लेल ठेकुआ अलग से छान देलक। निचिंत भेल तऽ धेयान तितकी दने चल गेल। अभी तक नञ् आल हे। ई छौंड़ी के मथवा जरूर खराब भे गेले हे।) (कसोमि॰39.21; 119.25; 124.1)
271 कलटना-पलटना (एने आग तइयार भे गेल हल । ओकरा पर लिट्टी रख के कलटऽ-पलटऽ लगल । लिट्टी सीझइत-सीझइत डमारा के आग सथाल जा रहल हल ।) (कसोमि॰20.11)
272 कलाली (अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल । ... "बचल ! एकरे डर ... लेके सले कलाली चल देतो । कमइतो न कजइतो ... चुकड़ी ढारतो ।"; बिठला तीन रात के कमाय लेके घर आवे घरी रस्ते में मछली मारलक हल आज ... खाय से जादे । आधा लउट के बजार में बेच देलक अउ मर-मसाला, कलाली से दारू लेके आल हल । आँटा घरे हल ।) (कसोमि॰11.5; 78.16)
273 कल्ह (= कल) (अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।) (कसोमि॰59.14)
274 कल्हइ (= कल्हइँ; कल ही) (अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।) (कसोमि॰59.14)
275 कहइँ (= कहीं) (मुनमा दरी में खपड़ा उझल के फेनो चूनऽ लगल । ओकरा लगे, कहइँ साँपा के जोड़वा जो एज्जइ रहे । डरले-डरल खपड़ा उठावे । उकटे ले हाथ में छेकुनी ले लेलक हे । मिलता तऽ अइसन ... कि अइँठिये जइता । ओकर आँख तर मरलका साँप नाच गेल ।) (कसोमि॰90.11)
276 कहतो-महतो (हुक्कल आउ बानो दू भाय हल । हुक्कल बड़ आउ बानो छोट । बड़ भाय सब दिन के रोगिआह हल, से से बानो घर के कहतो-महतो हल ।) (कसोमि॰114.2)
277 कहनइ (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ ।) (कसोमि॰112.7)
278 कहब (~ करना) (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।) (कसोमि॰88.16)
279 कहिया (= कब, किस दिन) (- काहे बाऊ, फुटो रे फुटो धान नञ् कहमहीं ? / बासो कंधा पर हाथ रख देहे । - छोट-बड़ धान बरोबर नञ् होतइ बाऊ ? - चल बेटा, अभी छोट-बड़ बरोबर नञ् होतउ नूनू । - तब कहिया होतइ ?) (कसोमि॰97.7)
280 कहिये (= कब के) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।) (कसोमि॰19.2)
281 कहियो (= कभी भी) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।") (कसोमि॰12.23)
282 काँसा (~ के थारी) (फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।) (कसोमि॰63.15)
283 काकर (बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।) (कसोमि॰100.25)
284 काचुर (= केंचुली) बाउ भिजुन आके ठमकल आउ एक नजर भीड़ दने फिरइलक । ओकर मन के आँधी ठोर पर परतिंगा के बोल बन हहाल फूटइ ले ठाठ मारइ लगल । ऊ संकोच के काचुर नोंच के फेंक देलक आउ तन के बोलल - मुनियाँ के चिंता छोड़ऽ । मुनियाँ अपन बिआह अपने करत ... तहिया करत जहिया मुनियाँ के मुट्ठी में ओकर अप्पन कमाय होत, मेहनत के कमाय । चल माय, खाय ले दे, भूख लगल हे ।) (कसोमि॰67.19)
285 काज-परोज (लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल । बाउ घिघिआइत रहला, लोराइत रहला, चिल्लाइत रहला अउ अंत में शान्त हो गेला । ... मन मसोस के रह गेलन - उधार-करजा के बात हे तऽ कि ... चुका नञ् देम । काजे-परोज में ... बेटिये के काज घरी ... ।) (कसोमि॰55.17)
286 काटब (~ करना) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ?) (कसोमि॰89.5)
287 काठ (चिकनी गारो के मूड़ी पकड़ के हिलइलक तऽ ओकर मूड़ी काठ ! गारो कम्मल के सपना देखइत कनकन भे गेल हल ... सोरा ।) (कसोमि॰18.10)
288 काड (= कार्ड) (एने से लाजो अपन काड केकरो नञ् देखावे, माय-बाप के भी नञ् । माय तऽ खैर लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर हल, से से कभी-कभार माय के रखइ ले दे दे हल, मुदा थोड़के देरी में लेके अपन पौती में रख दे हल ।) (कसोमि॰44.1)
289 कान-कनैठी (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰35.1)
290 कानना (= कनना; काँदना, रोना) (भीड़ सड़क पर रुक गेल । लगले बस पहुँच गेल । लाजो सक्खि से लपट-लपट के कानइत रहल । सब के आँख भींगल ।) (कसोमि॰56.2)
291 कानी (= एक आँख वाली स्त्री; काना, उत्तरा नक्षत्र) (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !) (कसोमि॰96.2)
292 काम-करिंदा (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।) (कसोमि॰58.19)
293 काम-धाम (करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे । गोतिया-नइया पूछथ - काम-धाम कइसे भे रहल हे ? फिरिस अर बन गेल ? चचवा कहाँ गेलउ ? तेरहे दिन में पाक होबइ के हउ ।) (कसोमि॰114.10)
294 कार (= काला) (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !; उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰54.3; 73.27)
295 काहे (= क्यों) ("चुप काहे हें चिक्को ?" - "बोलूँ कि देबाल से ?" गारो के चोट लगल । गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले ।) (कसोमि॰16.1)
296 कि (= क्या; दो वाक्यों को जोड़नेवाला एक संयोजक शब्द) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय । - नञ् भौजी, हम सोचऽ ही कि पहिले कुछ कमा लेउँ । घर के हाल कि तोरा से छिपल हे, मुदा लगऽ हइ जैसे कि मैया-बाउ ले हम भारी हिअइ । बस कर दे विदा ।) (कसोमि॰66.25)
297 किता (बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन । एक किता मकान भी पटना में बनइलन हे, जेकरा से पाँच हजार किराया भी आवऽ हम ।) (कसोमि॰71.3)
298 किदो (= कातो, कीतो, कितो) (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।; किदो पापा बाहर चल गेलन हे, एक महीना ले, से से देरी भे रहलन हे ।; एक दिन परेमन जूली-माय के बित्तर चल गेल आउ पलंग पर बइठल तऽ भेल बतकुच्चह । किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा ।; आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । …खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल । जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके ।; - ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । ... - ई किदो जाँच करइता ! कान-कनइठी सितवा के ... एक पेड़ नञ् ... । सदामदी साही लगाव । - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन ।) (कसोमि॰71.2, 5, 9; 78.24; 102.12)
299 किनताहर (= खरीदार) (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰102.17)
300 किनाना (= खरीदवाना) (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् ।) (कसोमि॰68.7)
301 किरतनियाँ (दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।) (कसोमि॰115.2)
302 किरपा (= कृपा) (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।) (कसोमि॰12.16)
303 किरिन (= किरण) (किसन कटोरा खंगहार के झोला में रखलक अउ एगो फट्टल चद्दर बिछा के सूत गेल । भोरे के लोग-बाग देखलक कि बड़ के पेड़ तर एगो मोटरी-सन अनजान लहास पड़ल हे । सुरूज उगल आउ किरिन ओकर मुँह पर पड़ रहल हे ।) (कसोमि॰25.24)
304 किरिया (= कसम) (- सिखा देमहीं ? - आझे, अभिए सीख, तोरा हमर किरिया हउ । साज-बाट के तऽ हो जइतउ । अभी तऽ नेआर अर नञ् ने अइलउ ? / लाजो लजा गेल ।; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰45.6; 86.21, 23, 27)
305 कीनना (= खरीदना) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; - काडा पर कतना जमा भेलउ ? - कहाँ कते, इहे डेढ़ सो लगू । - पचीस पैसा छूट पर बेच ने दे । हाथ पर पैसो भे जइतउ । हम की करऽ हिअइ ! अगे, गाँव में कते तऽ ओहे पइसवा से सूद लगावऽ हइ । नगदी रहतउ तऽ इंछा के चीज बजार से कीन लेमें । सब चीज भंडरवे से तऽ नञ् ने भे जइतउ ।) (कसोमि॰13.12; 48.26)
306 कुच-कुच (~ गड़ना) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।) (कसोमि॰37.14)
307 कुचकुचाना (डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ । पार भे गेल । जय डिहबाल, पार लगइहऽ । अइसइँ गोहरावइत बढ़ल गेल । दुन्नू कौलेज मोड़ के घनगर बगैचा में पहुँच गेल । कुचकुचिया कुचकुचाल । जगेसर आगू, सुकरी पीछू ।) (कसोमि॰42.11)
308 कुचकुचिया (डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ । पार भे गेल । जय डिहबाल, पार लगइहऽ । अइसइँ गोहरावइत बढ़ल गेल । दुन्नू कौलेज मोड़ के घनगर बगैचा में पहुँच गेल । कुचकुचिया कुचकुचाल । जगेसर आगू, सुकरी पीछू ।) (कसोमि॰42.11)
309 कुटनेति (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰61.3)
310 कुट्टी (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.3)
311 कुत्ता (~ काटना = मति मारा जाना) (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰34.27)
312 कुदार (= कुदाल) (बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं । बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे ।) (कसोमि॰82.6)
313 कुदार-खंती (ओकर नाक फटइत रहल, कुदार चलइत रहल ... चलइत रहल । चान डूब गेल तऽ छोड़ देलक - बस कल्ह । नाधा तऽ आधा । गबड़ा में कुदार-खंती धो के कापो सिंह के डेवढ़ी गेल आउ बचल दारू घट् ... घट् ... पार !) (कसोमि॰83.2)
314 कुमरठिलियन (अगे चुप ने रहीं निरासी, कुमरठिलियन । अतरी फुआ हँकड़ली ।) (कसोमि॰53.2)
315 कुरसी (सात ~ के उकटा-पैंची) (बस, बात बढ़ गेल। सात कुरसी के उकटा-पैंची भेल। हाथ उलार-उलार के दुन्नू अँगना में वाक्-जुद्ध करऽ लगल। महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में।) (कसोमि॰122.16)
316 कुल-खनदान (ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।) (कसोमि॰62.17)
317 कुलगिरी (= कुली का काम) (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी । फेन तऽ मत कहऽ, किसुन इसपिरेस हो गेल । भूख लगल तऽ भीखियो माँगलक । कुलगिरी से लेके पोलदारी तक कइलक ।) (कसोमि॰24.26)
318 कुल्ली-कलाला (चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल । गोड़-हाथ धोके कुल्ली-कलाला कइलका आउ आँख पर एक लोटा पानी के छिट्टा मारलका । आँख मिचाय नियन लहर रहल हल । जाँघ तड़-तड़ फटे ।) (कसोमि॰98.15)
319 कूचना (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल ।) (कसोमि॰16.19)
320 कूट (= हाँसी-मजाक, चुहल, हास्य-व्यंग्य) (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?") (कसोमि॰13.14)
321 केकरा (= किसको, किसका) (मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?) (कसोमि॰123.11)
322 केकरो (= किसी को; किसी का; किसी का भी) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी ।) (कसोमि॰19.4)
323 केजा (= केज्जा; कहाँ; किस जगह) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !) (कसोमि॰13.20)
324 केबाड़ (= केबाड़ी; किवाड़) (बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे । कापो सिंह के केबाड़ खुलल । डेउढ़ी में दारू के बोतल आधा खाली कर देहे आउ फुसफुसा के बोलऽ हे - "बाँसा अर दे दऽ आउ जा के सुत्तऽ । अब हम रही कि बजार के नल्ली । जे होतइ, देख लेबइ । सब तऽ गेनरा ओढ़ के घी पीअ हइ कापो बाबू ।") (कसोमि॰82.7)
325 केबाड़ी (= किवाड़) (सास छेकुनी के सहारे दरवाजा तक गेली आउ केबाड़ी के एक पल्ला साट के घोघा देले हुलकली । फुफ्फा समझ गेला । चौंकी से उतर के गेला आउ गोड़ लगके फेनो चौंकी पर बैठ गेला ।) (कसोमि॰71.23)
326 केराय (= केराव; मटर) (तितकी गुमसुम केराय पीटे में लग गेल । ऊ भीतरे-भीतर भुस्सा के आग सन धधक रहल हल - जाय दुन्नू माय-बेटी कोकलत, भला हम तऽ महुआ खोढ़र से अइलिए हे । जब ने तब हमरे पर बरसइत रहतउ । दीदी तऽ दुलारी हइ । सब फूल चढ़े महादेवे पर ।; बुलकनी धथपथ आल आउ पहिले गेहुम के कठौती में फूलइ ले देलक। चूल्हा जोर के बूँट, मसुरी आउ केराय के तारऽ लगल। तितकी अभी लउट के नञ् आल हल। रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?") (कसोमि॰119.26; 121.3)
327 केराव (= केराय; मटर) (तितकी आवे के तऽ आल, बकि टुघरइत । माय के गोस्सा कपार चढ़ गेल, "छिछिअइली, सोगपरउनी । लगऽ हइ देह में समांगे नञ् हइ । मन करऽ हइ इहे अइँटवा से कपार फोड़ दिअइ । चल, केराव पीट । कोकलत जाय ले इहे छान-पगहा तोड़ा रहल हे । मोहनभोग बना के कलउआ देबउ कि इहे बूँटा-केरइया, गहुमा के सतुआ ।") (कसोमि॰119.23)
328 कोचनगिलवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.24)
329 कोट-कचहरी (छोटका बड़का से बोलल आउ बड़का एगो झगड़ाहू जमीन लिखा के दखल भी करा देलक । लिखताहर के अपन चचवा से नञ् पटऽ हलइ, से से गजड़ा भाव में लिख देलकइ । लिखइ के तऽ लिख देलकइ मुदा कोट-कचहरी के चक्कर सितबिया के तोड़ के रख देलक ।; - तऽ सुन । एकरा हमर नाम से लिख दे । केस खतम भेला पर फेन हम तोरा नामे पलटा देबउ, तब पक्का भेतउ । / सितबिया के बात जँच गेल । कुछ तऽ राहत मिलत । घर-गिरहस्थी के साथे-साथ कोट-कचहरी के खरचा पार नञ् लग रहल हल । सोंच-समझ के हामी भर देलक ।) (कसोमि॰106.15; 107.6)
330 कोटर (= क्वार्टर) (बाउ बजार से टौनिक ला देलथुन हे । कहऽ हथिन - अंडा खो । हमरा अंडा से घीन लगऽ हउ । - अमलेटवा खाहीं ने । पूड़ी नियन लगतउ, बलुक कचौड़िया नियन नोनगर-तितगर । हम तऽ कते तुरी खइलिअइ हे । बरौनियाँ में तो सब कोटरवा में बनऽ हइ ।) (कसोमि॰57.13)
331 कोड़ना-कमाना (किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा । जूली माय के ई सब सोहइबे नञ् करऽ हे । एक दिन अपन बुतरुन के समद रहली हल - गंदे लड़के के साथ मत खेला करो, बिगड़ जाओगे । परेमन माय के स्वाभिमान साँप-सन फन काढ़ लेलक - वाह रे सुधरल । हमर बेटा बिगड़ल तऽ बिगड़ले सही, कोड़-कमा के तऽ खात । नञ् जइतइ तोरा भिजुन डगरिन छाने ले, बुझलें ने ।) (कसोमि॰71.14)
332 कोढ़िया (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.17)
333 कोना (= एक चौथाई, आधा का आधा) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।) (कसोमि॰17.4)
334 कोनाठा (ठक् ... ठक् ... ठक् ... । फुफ्फा के कान खड़कल । देखऽ हथ कि बाबूजी कोनाठा पार कर के रस-रस आगू बढ़ल आवऽ हथ । असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका ।; ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे । सितबिया बजार से तेल-मसाला, कटहर-कोवा लेके लउटल । एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय ।) (कसोमि॰73.5; 108.4)
335 कोनियाँ (~ भित्तर = वह कोठरी जो मकान के किसी कोने पर हो) (ऊ गुमसुम हाली-हाली खइलक आउ कोनियाँ भित्तर में जाके सुत गेल । आन दिन माय साथ सुतऽ हल, मुदा आज ओकरा माय के सामने होवे में सिहरी उठऽ हे ।) (कसोमि॰65.26)
336 कोपरेटी (= को-ऑपरेटिव) (मौली महतो चाह के दोकान पर रुकइत पुछलक - तोहरा कने जाय के हो ? - कने जइबो, एहइँ कोपरेटी के खाद निकलतो । माँगलियो पइसा, देलको खाद । एक्के तुरी बीस बोरा । एत्ते लेके की करबइ ? दू बिघा तो खेते हे। ढेर देम तऽ दू बोरा ... बकिये ?) (कसोमि॰110.11)
337 कोय (= कोई)आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।) (कसोमि॰14.11)
338 कोरसिस (= कोशिश) (उनकर मेहरारू छत पर चढ़के थोड़े देरी समझइ के कोरसिस कइलन आउ रस-रस नजीक जाके हाथ पकड़ के पुछलकी - तोहरा की हो गेलो ? पागल नियन काहे ले कर रहलहो हे ?; ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे । ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने ।; देखहो, हमर आदत हो, जेकरा से मन नञ् मिलतो ओकरा से सो कोस दूरे रहइ के कोरसिस कैलियो ।) (कसोमि॰29.11; 110.4; 111.10)
339 कोलसार (पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।) (कसोमि॰84.10)
340 कौची (दे॰ कउची) (- खाली पेट मत जादे पी । बासो बोलल । - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक । - निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल । - तनि मिठवा दे ने दे । मुनमा हाथ बारइत माँगलक । - बाबापूजी होतइ तब ने । मुनमा-माय टोकलक ।) (कसोमि॰94.7)
341 क्वाटर (= क्वार्टर) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।) (कसोमि॰37.13)
No comments:
Post a Comment