कसोमि॰ = "कनकन
सोरा"
(मगही कहानी संग्रह), कहानीकार – श्री मिथिलेश; प्रकाशक - जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना: 800 006; प्रथम संस्करण - 2011 ई॰; 126
पृष्ठ । मूल्य –
225/- रुपये ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 1963
ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
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विषय-सूची
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पृष्ठ
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0.
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कथाकार
मिथिलेश - प्रेमचंद आउ रेणु के विलक्षण उत्तराधिकारी
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5-8
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0.
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अनुक्रम
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9-9
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1.
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कनकन
सोरा
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11-18
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2.
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टूरा
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19-25
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3.
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हाल-हाल
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26-31
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4.
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अदरा
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32-43
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5.
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अदंक
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44-56
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6.
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सपना
लेले शांत
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57-60
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7.
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संकल्प
के बोल
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61-67
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8.
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कान-कनइठी
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68-75
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9.
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डोम
तऽ डोमे सही
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76-87
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10.
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छोट-बड़
धान, बरोबर धान
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88-97
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11.
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अन्हार
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98-104
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12.
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बमेसरा
के करेजा
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105-109
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13.
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निमुहा
धन
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110-113
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14.
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पगड़बंधा
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114-116
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15.
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दरकल
खपरी
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117-126
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ठेठ मगही शब्द ("भ" से "र" तक):
1461 भँउरना (ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे । सब के अलग-अलग रंग । फेनो सब रंग घटमाँघेट हो गेल हे । एगो बड़गर भँवर भँउर रहल हे आउ तेकरा बीच लाजो ... लाजो नाच रहल हे ... अकुला रहल हे ।) (कसोमि॰46.12)
1462 भंगलाहा (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.17)
1463 भंभीरा (धंधउरा में अलुआ पकऽ हइ ? एकरा ले तो भुस्सा के आग चाही ... भंभीरा ... खह-खह ।) (कसोमि॰16.10)
1464 भंसा (= रसोई घर) (भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ । बनला पर लगे कि छत पर कोय कनियाय रहे ।; - केऽ, मुनियाँ ? माय आगू में ठाढ़ हल । - हाँ, मुनियाँ लजाल बोलल । ओकरा लगल जैसे मन के चोर पकड़ा गेल हे । माय कुछ नञ् बोलल, ठउरे पलट गेल । माय आगू आउ मुनियाँ पीछू । दुन्नू गुमसुम ! घर जाके मुनियाँ गोड़ धोलक आउ भंसा हेल गेल ।) (कसोमि॰27.20; 65.20)
1465 भंसिया (= रसोइया) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.26)
1466 भगोटी (ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल । बिठला के पीठ चुनचुनाय लगल - कत्ते तुरी माय धउल जमइलक हल । बाउ मारऽ हल माय के तऽ बिठला डर से भगोटी गील कर दे हल ।) (कसोमि॰84.14)
1467 भजनकी (जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ... आरती के बाद बस, रहे न संकट, रहे न भय, पाँच रोट की जय । किसना सात बोल दे । भजनकी ठठा के हँस दे । एगो ओकरा फाजिल ।) (कसोमि॰23.8)
1468 भट्ठा (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ?) (कसोमि॰35.4)
1469 भतार (एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰85.7; 86.25)
1470 भतिया (मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।) (कसोमि॰89.20)
1471 भदवी (= भादो का) (~ पुनियाँ) (कल होके बीट के दिन हल । दुन्नू साथे सिरारी टिसन आल अउ केजिआ धइलक । गाड़ी शेखपुरा पहुँचइ-पहुँचइ पर हल । खिड़की से गिरहिंडा पहाड़ साफ झलक रहल हे । लाजो के पिछला भदवी पुनियाँ के खिस्सा याद आवऽ लगल ।; बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे ।) (कसोमि॰49.10; 95.17)
1472 भनसा (= भंसा; रसोईघर) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.11)
1473 भफाना (= वाष्पीभूत होना) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।) (कसोमि॰16.14)
1474 भभू (= छोटे भाई की पत्नी) (भभू के मसोमात रूप देख के बड़का समझइलक, "मंझली के केकरा भरोसे एकल्ले छोड़महीं। हम्मर जिनगी भर अँगना एक्के रहऽ दे। चूल्हा अलग करलें, अलग कर, बकि रह मिल जुल के, एक्के परिवार नियन। बँटवारा धन के होवऽ हे, संबंध आउ मन के नञ्। भइपना छूरी से काट के बाँटइ के चीज नञ् हइ छोटकी ।" आउ ऊ फूट-फूट के कानऽ लगल हल।) (कसोमि॰121.27)
1475 भर (= पूरा, बराबर, तुल्य) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.11)
1476 भरगर (= भारी) (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।) (कसोमि॰36.15)
1477 भरभराना (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।; खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !) (कसोमि॰46.23; 75.23)
1478 भरल (~ भादो, सुक्खल जेठ) (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो ।) (कसोमि॰36.20)
1479 भरल-पुरल (~ चेहरा) (बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल । उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰73.26)
1480 भलुक (= बलुक; बल्कि) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।; रेकनी के तऽ कुछ नञ् बिगाड़लूँ हल, भलुक केकरो नञ् बिगाड़लूँ हल । रेकनी अइसन काहे बोलल ?; ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे ।) (कसोमि॰17.4; 24.8; 110.2)
1481 भविस (= भविष्य) (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.18)
1482 भसकना (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
1483 भसना (= पानी के ऊपर तैरना; पानी की धारा के वेग से आगे बढ़ना; पानी में डूबना) (ओकरा इयाद पड़ल - मोरहर में कभी-कभार दहल-भसल लकड़ी भी आ जाहे । सुकरी एक तुरी एकरे से एगो बकरी छानलक हल । तहिया सुकरी छटछट हल । दूरे से देखलक आउ दउड़ पड़ल । ... सुकरी उड़नपरी सन यह ले, ओह ले, ... छपाक् । बकरी पकड़ा गेल, मुदा तेज धार सुकरी के बहा ले चलल । भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! - बकरी के लोभ में दहलइ गुरूआ वली !) (कसोमि॰34.8)
1484 भाग (= भाग्य) (रोजी नञ, रोटी नञ, कपड़े सही । मरे घरी चार गज के कपड़े तऽ चाही । राजा हरिचनरो के बेटा कमले के कफन ओढ़लन हल । जाड़ा अउ कम्मल ! हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे ।; आजकल दहेज के आग में ढेर बहू जर रहल हे । जानइ हमर सुगनी के भाग ! माय के गियारी भर गेल, आँख में लोर ।; समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।) (कसोमि॰17.26; 52.1; 58.26)
1485 भादो (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो ।; पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰36.20; 61.1)
1486 भाफ (= फुफकार) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।) (कसोमि॰89.7)
1487 भाय (= भाई) (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत ।; पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । आज 'सवा सेर गेहूँ' होबत । लाजो के भाय भी पाट लेलक हे । तिरकिन भीड़ ।) (कसोमि॰19.17; 52.19)
1488 भाय-गोतिया (रौदा उग गेल हल । फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।; बिठला के बजरुआ से भय नञ् हे । खाली गाँव के भाय-गोतिया नञ् देखे - बस्स । जात के बैर जात । देख लेत तऽ जात से बार देत ।; दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।) (कसोमि॰63.13; 81.23; 115.4)
1489 भाय-बहिन (= भाई-बहन) (सुकरी फुदनी के समदइत बजार दने निकल गेल - हे फुदो, एज्जइ गाना-गोटी खेलिहऽ भाय-बहिन । लड़िहऽ मत । हम आवऽ हियो परैया से भेले ।) (कसोमि॰33.15)
1490 भाय-भतीजा (ईहे बीच एक बात आउ भेल । सितबिया के बगल में दाहु अपन जमीन बेचइ के चरचा छिरिअइलक । कागज पक्का हल, कोय लाग-लपेट नञ् । सितबिया के लगल - ई घर तऽ झगड़ालू हे, बमेसरे के रहे देहो । कथी ले फेन लिखाम । अपने भाय-भतीजा के बात हे ।) (कसोमि॰107.10)
1491 भिजुन (= बिजुन; पास) (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे । रह-रह के घुरौर भिजुन आवऽ हे, नाचऽ हे, फानऽ हे । टहल-पाती भी बुतरुए कर रहल हे ।; ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।; मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?) (कसोमि॰21.6; 29.1, 2; 123.11)
1492 भिट्ठा (= भीठ; गाँव के पास की उपजाऊ जमीन, डीह; ऊँची पर उर्वर भूमि) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।) (कसोमि॰80.3)
1493 भित्तर (= भीतर; कमरा; घर के अन्दर का कमरा) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ ।; आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰12.4; 27.20; 28.10, 11)
1494 भिर (= पास, नजदीक) (" ... चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं । दोसरा भिर बोलहीं, हम नञ् जानो हिअइ कि एजा रातो भर तों सब की करो हलहीं ? खेत उखाड़े से लेके मुँह करिया करे के धंधा तो एज्जइ ने होवऽ हलइ हो ?" मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन ।; दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल । डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ ।) (कसोमि॰29.24; 42.8)
1495 भिरिया (= भिर, पास) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.24)
1496 भींड़ (= भीड़) (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । अउ कोय बोलत हल तऽ सौखी ओकरा पटक के भुरकुस कर देत हल बाकि बलनेकी सिंह पर हाथ उठाना साधारन बात नञ् हे । ई नञ् हल कि बलनेकी सिंह गामागोंगा हलन । ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन ।; भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।; बरहमजौनार बित गेल निक-सुख । तेरहा दिन पगड़बंधा के बारी आल । पिंड पड़ गेल । अँगना में गाँव के भींड़ । हितेसरा के देख के सब के आँख डबडबा गेल । अउरत सब तऽ फफक गेलन ।) (कसोमि॰29.27; 30.19; 115.9)
1497 भुँझाय-पिसाय (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰117.3)
1498 भुँड़रना (तितकी पछुआ गेल । महुआ गाछ तर देखलक, चार गो छउँड़ी टप-टप टपकल महुआ चुन रहल हे । उहो चूनइ में लग गेल । सोंचलक सुखा के भुँड़रि के खाम, बूँट के भुंजा साथ ।) (कसोमि॰119.16)
1499 भुंजना (टेहुना टोबइत, "झोंटहा अइसन टिका के मारलको कि ... उनकर करेजा भुंजिअन ! हूहि में लगा देवन ।"; बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइंठ में बाँध ला। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हा, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस?" शान्त होबइ के तऽ हो गेल बकि दुन्नू तहिया से कनहुअइले रहऽ हल। आझ मँझली के काम आ पड़ल। अनाज भुंजइ के एगो छोटकिये के पास खपरी हल। खा-पी के छोटकी के अवाज देलक, "अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।" - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।"; मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के।; मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।) (कसोमि॰11.12; 122.27; 123.4, 9, 22)
1500 भुंजना-पीसना (आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल। "तितकी नञ् मिललउ?" माय डब्बू लारइत पूछलक। - "कहलिअउ तऽ आउ हमरे पर झुंझला लगलउ।" - "आवऽ दे। भुखले रखमन। चल....पहिले खा पी ले, फेन भुंजइत-पीसइत रहम।") (कसोमि॰121.17)
1501 भुंजा (जर के ~ होना) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।; तितकी पछुआ गेल । महुआ गाछ तर देखलक, चार गो छउँड़ी टप-टप टपकल महुआ चुन रहल हे । उहो चूनइ में लग गेल । सोंचलक सुखा के भुँड़रि के खाम, बूँट के भुंजा साथ ।) (कसोमि॰61.13; 119.16)
1502 भुंजान-पिसान (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक।) (कसोमि॰123.26)
1503 भुंजिया (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।) (कसोमि॰105.10)
1504 भुइयाँ (= भूमि, जमीन) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।; भुइयाँ में गिरल दतमन देख के साहो-चा पुछलका - के दतमन तोड़ऽ हऽ ?; याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली । तरकारी ले टमाटर आउ फुलकोबी भी ले अइली । छिपली में मेहमान के देके भुइयाँ में बइठ गेली ।) (कसोमि॰13.15; 21.14; 75.3)
1505 भुक् (~ दनी, ~ दबर, ~ सपर = भुक् से) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।") (कसोमि॰13.24)
1506 भुक्खल (= भूखा) (ओकर ध्यान बाल-बच्चा दने चल गेल - भुक्खल कइसे दिन काटलक होत ! छौड़ा तो बहिनियो के नाकोदम कर देलकइ होत ।) (कसोमि॰40.27)
1507 भुक्-भुक् (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰35.2)
1508 भुचुक्की (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.25)
1509 भुटनी (= घुन्नी, बहुत कम या छोटा) (~ सन) (- अमलेटवा खाहीं ने । ... - तोरा बनबइ ले आवऽ हउ ? - अंडवा मँगाहीं ने, बना देबउ । एकरा बनाबइ में कि मेहनत हइ । फोड़ के निम्मक-पियाज मिलइलें आउ भुटनी सन तेल दे के ताय पर ढार देलें, छन कइलकउ आउ तैयार ।; आम के पाँच गाछ । सेनुरिया तऽ कलम के मात करऽ हे । छुच्छे गुद्दा, भुटनी गो आँठी । गाछ से गिरल तऽ गुठली छिटक के बाहर । एने से सब आम काशीचक में तौला दे हल ।) (कसोमि॰57.16; 90.3)
1510 भुड़की (= भूड़, भूर, छेद) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.25)
1511 भुतहा (ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।) (कसोमि॰25.6)
1512 भुनभुनाना (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।") (कसोमि॰11.2)
1513 भुनभुनी (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।) (कसोमि॰28.21)
1514 भुनुर-भुनुर (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰61.4)
1515 भुरकुस (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । अउ कोय बोलत हल तऽ सौखी ओकरा पटक के भुरकुस कर देत हल बाकि बलनेकी सिंह पर हाथ उठाना साधारन बात नञ् हे । ई नञ् हल कि बलनेकी सिंह गामागोंगा हलन । ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन ।) (कसोमि॰30.1)
1516 भुस्सा (= भूसा) (धंधउरा में अलुआ पकऽ हइ ? एकरा ले तो भुस्सा के आग चाही ... भंभीरा ... खह-खह ।; थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।; तितकी गुमसुम केराय पीटे में लग गेल । ऊ भीतरे-भीतर भुस्सा के आग सन धधक रहल हल - जाय दुन्नू माय-बेटी कोकलत, भला हम तऽ महुआ खोढ़र से अइलिए हे । जब ने तब हमरे पर बरसइत रहतउ । दीदी तऽ दुलारी हइ । सब फूल चढ़े महादेवे पर ।) (कसोमि॰16.10; 23.19; 73.22; 119.26)
1517 भूँजना (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰117.2)
1518 भेंभा (लटफरेम के भेंभा बजल - डिजिया खुलइ में आधा घंटा देरी । रात भे जात ! डेढ़ कोस जमीन । ऊ लटफरेम पर गोड़ाटाही करे लगल - कोय साथी-संघाती जो मिल जाय । नञ् भेत तऽ भौठे-भौठे निकल जाम । आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे ।) (कसोमि॰41.5)
1519 भैकम (गाड़ी शेखपुरा टिसन से खुल गेल । कुसुम्हा हॉल्ट पार । बड़का टिसन डेढ़गाँव । एजा सब गाड़ी रुकतो । रुकतो की, रोक देतो, भैकम करके ।) (कसोमि॰49.19)
1520 भोंभा (सिवाला में भजन-कीर्तन होवऽ हल । अब तो भोंभा खोल देलक, भगवान के आरती खतम । वरदान पइतन भोंभे ने । कुकुरमुत्ता नियन घर पर घर फैलल जाहे, अदमी बढ़ल जाहे, अदमियत हेराल जाहे ।) (कसोमि॰23.15)
1521 भोरगरे (= भोर में, सुबह-सुबह) (आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।; ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।; ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला ।) (कसोमि॰14.11; 25.6; 28.22; 29.1)
1522 भोरे (= भोर में, सुबह) (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।"; पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰17.9; 59.21)
1523 भौठे-भौठे (= भौठाहे) (लटफरेम के भेंभा बजल - डिजिया खुलइ में आधा घंटा देरी । रात भे जात ! डेढ़ कोस जमीन । ऊ लटफरेम पर गोड़ाटाही करे लगल - कोय साथी-संघाती जो मिल जाय । नञ् भेत तऽ भौठे-भौठे निकल जाम । आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे ।) (कसोमि॰41.7)
1524 मँड़वा (= मण्डप) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰46.19)
1525 मंझला (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।; बनिहार चाह रख गेल । दुन्नू सार-बहनोय चाह पीअइत रहला आउ गलबात चलइत रहल । - मंझला के समाचार ? - ठीक हइ । - लड़का अर तय भेलन ? - तय तऽ परेसाल से हइ, वसंत पंचमी के भेतइ, पटने में ।) (कसोमि॰71.1; 72.10)
1526 मंझली (बड़की बिछौना बिछा देलकी ओसरा पर । मेहमान जाके बैठ गेला । मेहमान एकल्ले बइठल हथ ओसरा पर । बड़की मंझली से नास्ता बनाबइ ले कहलकी ओकर भित्तर जाके ।; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।; भभू के मसोमात रूप देख के बड़का समझइलक, "मंझली के केकरा भरोसे एकल्ले छोड़महीं। हम्मर जिनगी भर अँगना एक्के रहऽ दे। चूल्हा अलग करलें, अलग कर, बकि रह मिल जुल के, एक्के परिवार नियन। बँटवारा धन के होवऽ हे, संबंध आउ मन के नञ्। भइपना छूरी से काट के बाँटइ के चीज नञ् हइ छोटकी ।") (कसोमि॰74.19; 75.10; 122.1)
1527 मंसूरी (मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हाथ के ... सियार के पुच्छी ।) (कसोमि॰96.18, 19)
1528 मइँजना (= मैंजना; बरतन, आँख आदि रगड़ना) (चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।") (कसोमि॰15.9)
1529 मउगमेहरा (नेटुआ के ताल पर नाचइत बिठला सुरमी के डाँड़ा में अपन दहिना बाँह लपेट देलक कि सुरमी हाथ झटक के पीछू हट गेल । बिठला डगमगाल आउ आगू झुक गेल । - "हमरा छूलें तऽ मोछा कबाड़ लेबउ मउगमेहरा ।") (कसोमि॰85.16)
1530 मउगलिलका (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.24)
1531 मउगी (= मौगी; पत्नी, स्त्री) (ऊ फेर दारू के घूँट भरलक अउ धुइयाँ उड़ावऽ लगल । ऊ धुइयाँ के धुँधलका में हेरा गेल आउ तेसर रात झकझका गेल । / तेसर रात - / "कहऽ हइ कि हरिजनमन खाली अपन मउगी के मारऽ हइ बकि, ... भागल जा हलन कुलमंती । रात-बेरात के घर से निकलल जन्नी के कउन ठेकान ! लटफरेम पर महाभारत भेलन ! अपन मरदाना के हाथ से पिटइली आउ तमाशा बनली ।"; नेटुआ के मउगी/ धुमधुसड़ी हो भइया,/ नेटुआ के मउगी धुमधुसड़ी । / एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।") (कसोमि॰84.4; 85.23, 25)
1532 मकइ (= मकय; मकई, मक्का) (- गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।) (कसोमि॰45.24)
1533 मखौलिआह (दू सीन के बीच में कौमिक । भीड़ हँसते-हँसते लहालोट । बदन चा भारी मखौलिआह !) (कसोमि॰53.12)
1534 मगन (= खुश; डूबा हुआ, निमग्न) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.26)
1535 मगहिया (मिथिलेश जी जे कथ्य चुनऽ हथ, उनखर जे पात्र हइ - ऊ सब एकदम निखालिस मगहिया समाज के हाशिया पर खड़ा, अप्पन जीवन जीये के जद्दोजेहद में आकंठ डूबल लोग-बाग हे ।) (कसोमि॰5.6)
1536 मगही (~ पान) (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ । - मगही लगइहऽ, बंगला नञ् । बंगला पान तो भैंसा चिबावऽ हइ । आउ हाँ, इनखा मीठा चलो हन । तनि बयार फेंकइ वला दहुन । - बयार फेंकइवला कइसन होबऽ हइ ? कल्लू नए बोल सुनइलक । - अरे पिपरामेंट देहो, खइलिअइ कि मुँह में बिजुरी पंखा चलो लगलो । गोल दायरा में हाथ नचावइत मौली बोलल ।) (कसोमि॰112.8)
1537 मचोड़ना (= मचोरना) (मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।) (कसोमि॰89.23)
1538 मचोरना (= उखाड़ना) (रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।- तों बेकार ने चिंता करऽ हें । ई कौन बेमारी हइ । एकरो से कड़ा-कड़ा तऽ आजकल ठीक भे जाहे । अउ हम्मर चिंता छोड़ । हम गजरा-मुराय हिअइ कि कोय मचोर लेतइ ।) (कसोमि॰51.18)
1539 मच्छड़ (= मच्छर) (ठेहुना पर थप्पड़ मारइत धरमू बोलल - मछड़ा तऽ लगऽ हइ उठा के ले भागतइ । गाँव में मच्छड़ कहिओ देखलूँ हल !) (कसोमि॰95.5)
1540 मजगूत (= मजबूत) (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।) (कसोमि॰45.15)
1541 मजमा (ऊ साल बैसखा में गाँव भर के आदमी जमा भेल । पंचैती में हमरा नञ् रहल गेलो । कह देलिअइ - तऽ गाँव में गरीब-गुरबा नञ् ने बसतइ ? भेलो बवाल । मजमा फट गेलो । तहिया से कुम्हरे के कब्जा हइ ।) (कसोमि॰112.24)
1542 मजूर (= मजदूर) (सुकरी के गैंठ खाली, पेट खाली, घर खाली, सब खाली मुदा सुकरी के मन में आँधी । ओकर माथा चकरघिन्नी हो गेल । सोचलक, जौन खेत में कम मजूर होत, ओकरे में चिरौरी करम ।) (कसोमि॰38.11)
1543 मजूरनी (= मजदूरनी) (सुकरी मिचाय के भरल मुट्ठी खोंइछा में धइलक आउ डाड़ा कस के अँचरा खोंसलक । पाँच बजे काम से छुट्टी भेल । किसान छँटुआ बैगन-मिचाय अइसइँ मजूरनी के दे देलक ।) (कसोमि॰39.27)
1544 मजूर-मजूरनी (फेन ओहे लटफरेम के बेंच । थोरके दूर पर अइँटखोला जायवलन मजूर-मजूरनी के लमहर भीड़ ... मेला । ठीकेदार आउ मजूर के नाता घास आउ हसुआ सन ।) (कसोमि॰83.18)
1545 मजूरी (= मजदूरी) (दूध के याद अइते ही ओकर ध्यान अदरा पर चल गेल । बुतरून के कह के आल हे, अदरिया बनइबउ । तहिया सुकरी अदरा के आदर से मानऽ हल । घर में गाय, दूध के कमी नञ् । मोरहर के बालू ढोलाय, कोयला के मजूरी ।; आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे । उ तहिये ने मोहना के सहियेसाँझ छीन लेलकइ । कुछ नञ् बेचारा के दिन भर के मजुरिए ने हलइ । छौंड़ापुत्ता जनो-मजूर के नञ् छोड़ऽ हइ ।; अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले । कुरसी-टेबुल भर हमरा लकड़ी हे । मजुरिए ने लगतइ ।) (कसोमि॰34.27; 41.9; 51.25)
1546 मट्टी (= मिट्टी) (इनखा पर देवता के कोप हन । दावा अर के दिन भी नञ् देखइलथिन । सात जगह के मट्टी, हथसार, बेसवा ... चाँदी के नाग-नागिन, बारह बिधा एक्को नञ् पुरैलथिन ।) (कसोमि॰29.7)
1547 मड़की (= मड़को, मड़कोय) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।") (कसोमि॰11.1)
1548 मड़ुकी (दे॰ मड़की) (बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे । मछली के देखते मातर ओकर जीह से पानी टपकतो ... सीऽऽऽ ... घुट्ट । ऊ चुक्को-मुक्को मड़ुकी में बइठल चुनइत जाहे आउ गुनगुनाइत जाहे ।) (कसोमि॰76.7)
1549 मतसुन्न (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।) (कसोमि॰58.19)
1550 मतसुन्नी (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।) (कसोमि॰58.20)
1551 मधे (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही । / दुन्नू भाय में अइसइँ साँझ के साँझ कट-छट होतो । होवऽ हे ओहे, जे बड़का भइया खेती मधे चाहऽ हथ । चलित्तर बाबू खाली बोल-भूक के रह गेला ।) (कसोमि॰102.21)
1552 मनझान (= उदास) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।; सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल । ... कभी तऽ बरतुहारी में गाड़ी पकड़इ ले धौगल जाहे, हाँहे-फाँफे ... सिंगल पड़ गेल हे । गाड़ी लुकलुका गेल हे ... तेज ... आउ तेज धौगल हे । लेऽ ... गाड़ी तनि सुन ले छूट गेल हे । लटफरेम पर खड़ा-खड़ा दूर जाइत गाड़ी के मनझान मन से देख रहल हे ।; ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे । सितबिया बजार से तेल-मसाला, कटहर-कोवा लेके लउटल । एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय ।) (कसोमि॰17.2; 63.9; 108.3)
1553 मनसूआ (= मनसूबा) (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।) (कसोमि॰76.3)
1554 मनसूगर (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।) (कसोमि॰68.9)
1555 मनिजर (= मैनेजर, प्रबंधक) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।) (कसोमि॰27.11)
1556 मनिज्जर (= दे॰ मनिजर; मैनेजर) (मनिज्जर साहब रजिस्टर लेले बैठल हथ । भीड़ जमा होवऽ लगल हे । काँटा पर वला आदमी सूत तौल रहल हे ।) (कसोमि॰49.27)
1557 मनिहारी (पहाड़ पर मंदिर के बगल में सक्खिन आउ सक्खि के बीच में लाजो के पहुना लजाल, मुसकइत, लाजो के कनखी से देखइत । लाजो उठ के भाग गेल हल, नुक गेल हल मनिहारी भिजुन भीड़ में ।) (कसोमि॰49.14)
1558 ममला (= मामला) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.24)
1559 ममहर (= ननिहाल, मामा का घर) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।) (कसोमि॰22.16)
1560 मर दुर (उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !) (कसोमि॰101.5)
1561 मरखंड (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰59.21)
1562 मरना-जरना (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.21)
1563 मर-मसाला (बिठला तीन रात के कमाय लेके घर आवे घरी रस्ते में मछली मारलक हल आज ... खाय से जादे । आधा लउट के बजार में बेच देलक अउ मर-मसाला, कलाली से दारू लेके आल हल । आँटा घरे हल ।) (कसोमि॰78.16)
1564 मरलका (= मरा हुआ) (मुनमा दरी में खपड़ा उझल के फेनो चूनऽ लगल । ओकरा लगे, कहइँ साँपा के जोड़वा जो एज्जइ रहे । डरले-डरल खपड़ा उठावे । उकटे ले हाथ में छेकुनी ले लेलक हे । मिलता तऽ अइसन ... कि अइँठिये जइता । ओकर आँख तर मरलका साँप नाच गेल ।) (कसोमि॰90.13)
1565 मरूआ (= मड़ुआ) (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । नूरीचक भी हाथ बार देलक । कहनी हल - "मरूआ रे तूँ सकरा के लड़ुआ, तूहीं पालनहार रे । तोरा छोड़लिअउ नूरीचक में, आगुए अइलें बिहार रे ॥") (कसोमि॰78.17, 19)
1566 मलकल (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल । लेकिन तखनइँ ओकरा सामने बुतरून के देल कउल याद आ गेल - 'आज अदरिया बनइबउ' आउ मोटरी के भार कम गेल । मलकल टीसन पहुँच गेल ।) (कसोमि॰36.18)
1567 मलवा (तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।) (कसोमि॰102.24)
1568 मलसी (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।) (कसोमि॰99.11)
1569 मसका (= भूना अन्न जो ठीक से खिला न हो; अनखिला भूना मकई या चना; गुड़ और तिल की बनी मिठाई) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।) (कसोमि॰13.9)
1570 मस-मस (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.21)
1571 मसमसाल (चलित्तर बाबू के सचकोलवा गोस्सा आ रहल हल, मसमसाल, रैंगनी के काँटा पर गरमोगरी देके पाड़इवला, खजूरवला सट्टा से देह नापइवला । उनखा अपन जमाना याद आ रहल हल - चहलवला मास्टर साहब अइसइँ पीटऽ हला ।) (कसोमि॰100.27)
1572 मसुरी (= मसूर) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।; अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰61.13; 120.26)
1573 मस्स-मस्स (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।; बासो मैना बैल के दू आँटी नेवारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेवारी तोड़ रहल हल ।; मिंझराल भुस्सा गाय मस्स-मस्स खइतो। उपर से खाली पानी देखावे के काम।) (कसोमि॰78.10; 95.4; 120.17)
1574 महँगी (= महँगाई) (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो । देखऽ हो नञ्, महँगी असमान छूले जा हइ । तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो ।) (कसोमि॰99.13)
1575 महराज (= महाराज) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।) (कसोमि॰36.9)
1576 मांगुर (= गलफड़े में काँटेवाली एक लाल रंग की मछली) (ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।") (कसोमि॰78.3)
1577 मांदर (= मानर) (सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰86.21)
1578 माउग (= पत्नी, स्त्री, घरवाली) (छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम ! ऊ तऽ बोतले से सगाय कइलक हे, ढेना-ढेनी तऽ महुआ खोंढ़ड़ से अइलइ हे । अबरी आवे, ओकरा पूछऽ हीअइ नोन-तेल लगा के ।; एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।; छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰35.12; 85.7; 118.1)
1579 माउग-मरद (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।) (कसोमि॰45.17)
1580 माकर (बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।) (कसोमि॰100.25)
1581 माधे (जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी । देह माधे ठठरी !; उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।; रस-रस दिन लुकलुका गेल । बचल खपड़ा निस्तार के बासो बकिए में गाढ़ से नेबरिए छार देलक । नया खपड़ा तऽ जेठ माधे मिलत ।; - भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान ! / बासो तऽ निमियाँ आउ बेलदरिया से तेसरे साल विदा भे गेल । बचइ माधे ईहे दस कट्ठा भिखरिया हल बकि ... एहो ... । भिखरिया के अलंग पर दुन्नू बापुत के गोड़ बढ़ल जाहे ।) (कसोमि॰19.5; 74.1; 94.16; 96.13)
1582 मानर (= एक प्रकार का मृदंग) (बचल दारू पीके सुरमी खलिया कटोरा भुइयाँ में धइलक कि बिठला खुट्टी में टंगल मानर उतार के गियारी में पेन्हलक आउ थाप देलक ।) (कसोमि॰86.11)
1583 मानुख (= मनुष्य) (बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम । बिके धरती तऽ बिके ! ई वसुधा काहू के नाहीं । आज हम्मर तऽ कल आन के । मानुख गेल धन पलटावल ।) (कसोमि॰62.20)
1584 माने-मतलब (~ से पुछना) (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।) (कसोमि॰12.15)
1585 माय (= माँ) (टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान । हँसी के हिलोरा ... दुन्नू लहालोट । - करे हे कइसे मायो ... । तितकी के माय भितर से टोकलक ।; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।; बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰45.21; 84.11, 19)
1586 माय-बहिन (~ करना = गरियाना; गाली-गलौज करना) (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.10)
1587 माय-बाउ (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?; बिठला के आँख तर सुरमी नाच गेल रत-रत राता में घोघा देले ई दुआरी लगल । तखने माय-बाउ जित्ते हल ।) (कसोमि॰51.21; 84.9)
1588 माय-बाप (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।) (कसोमि॰12.15)
1589 मायो (~ निरासी) (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।; टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान । हँसी के हिलोरा ... दुन्नू लहालोट । - करे हे कइसे मायो ... । तितकी के माय भितर से टोकलक ।; - ललितवा गेन्हा देलकइ । गाँव भर हहारो भे गेलइ । तितकी बोलल । - से तो ठीके कहऽ हीं । कइसन भे गेलइ मायो । लाजो बात मिललइल ।; जइते के साथ अपन दुखड़ा सुनइलक। तरेंगनी के भी एकर सिकायत सुन के अच्छा लग रहल हल। ऊ हुलस के कहलक, "मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।") (कसोमि॰37.21; 45.20; 48.10; 123.21)
1590 मार (~ होना = मारपीट/ लड़ाई-झगड़ा/ तीव्र प्रतियोगिता होना) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू । खा बान्ह-बान्ह लड़ुआ । मुदा एक बात हइ कि ठीकेदरवा के पो बारह । ऊ तऽ बालुए घाट के कमाय से बड़का धनमान बन गेल । अइसइँ एकर ठीका ले मार होवऽ हइ !) (कसोमि॰33.27)
1591 मारा (= अकाल, दुर्भिक्ष) (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !; - बनिहरवा की करऽ हो ? - एकर काम खाली जानवर खिलाना भर हो । खिला-पिला के सोझ । रात-बेरात के जानवर अपने देखऽ पड़ऽ हो । - कहऽ हो नञ् ? - कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ ।) (कसोमि॰61.11; 72.27)
1592 मारामारी (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत । मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।; सितबिया बीचे में टोकलक - अरे बेमनमा । एतना दिना से रहिओ रहले हें आउ उलटे चोरा मारा-मारी । हम किराया के हिसाब करिअउ तब ?) (कसोमि॰36.24; 37.2; 108.25)
1593 माल (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।; एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?) (कसोमि॰22.2,3, 6)
1594 माहटर (= मास्टर) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल । ओकरा ई सब करइ में खूब मन लग रहल हल - पिंडा से तऽ बचलूँ ! परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल ।) (कसोमि॰88.11)
1595 मिंझराना (मिंझराल भुस्सा गाय मस्स-मस्स खइतो। उपर से खाली पानी देखावे के काम।) (कसोमि॰120.17)
1596 मिंझाना (= अ॰क्रि॰ बुतना, बुझना; स॰क्रि॰ बुताना; बुझाना) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰43.4; 92.21)
1597 मिचाय (= मिरचाय; मिरची) (एगो चौखुट मिचाय के खेत में दू गो तोड़नी लगल हल । खेत पलौटगर । लाल मिचाय ... हरियर साड़ी पर ललका बुट्टी ।; भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल ।) (कसोमि॰38.12, 13; 51.1)
1598 मिचाय-रस्सुन (~ के रबरब्बी) (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।) (कसोमि॰80.16)
1599 मिट्ठा (= राबा) (मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।; - ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰36.27; 84.10; 91.17; 92.24)
1600 मिठकी (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?") (कसोमि॰18.7)
1601 मिठाय (= मिठाई) (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.25)
1602 मिनहा (= सं॰ छूट, बाद; लगान, कर, बकाया आदि में दी जानेवाली छूट या माफी; वि॰ काटकर घटाया हुआ) (- हमरा की जरूरत हे घर के ? तोर घर दखल करइ में हम अपन तरफ से जेतना खरचा कइलूँ हे ओतना ... - हमर खरचा जे लगल हे से तो देमें कि ... - सब ओकरे में मिनहा हो गेलउ । - हमर तोर हिसाब साफ ? - साफ ने तौ ।) (कसोमि॰109.6)
1603 मीरा (कि बात हे ? हे सुरूसबिता मीरा, बचाबो जान ! हूहू हावा ... बरफ के हाही ... देवी के कोप ... चंडी के रंका । चिकनी उठल अउ ठठरी लगा के दीया बुता देलक । आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... ।) (कसोमि॰16.24)
1604 मुँह (~ चमका-चमका के बोलना) (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।) (कसोमि॰48.14)
1605 मुँहदेखल (~ करना) (पहिला मनिज्जर मुँहदेखल करथुन हल । कते बेरी तऽ हल्ला भेल हे । अइसे सुनइ में ढेर खिस्सा आवऽ हे, मुदा जादे तर मनगढ़ंत ।) (कसोमि॰44.14)
1606 मुँहपोछनी (= रूमाल) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । ... आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल । टपे घरी सुरमी के हाथ से मुँहपोछनी लेबइ ले मुड़ल कि सुरमी ठोर तर मुसक गेल आउ ताकइत रहल बिठला के मुल्लुर-मुल्लुर ।) (कसोमि॰77.27)
1607 मुठली (= मुठरी) (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰120.24)
1608 मुड़ली, मुरली ("अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।" - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।" - "नञ् ने देवो ... फेन मुड़ली बेल तर। ने गुड़ खाम ने कान छेदाम। सो बेरी के बेटखउकी से एक खेर दू टूक। साफ कहना सुखी रहना।") (कसोमि॰123.5)
1609 मुड़ी (= मूड़ी; सिर) (~ गोतना) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।) (कसोमि॰16.6)
1610 मुतना (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.8)
1611 मुदा (= लेकिन) (सोचऽ लगल, "मजाल हल कि गारो बिन खइले सुत जाय ।" चिकनी के जिरह हायकोट के वकील नियर मुदा आज चिकनी के बकार नञ खुलल ।) (कसोमि॰16.23)
1612 मुनना (= मूनना; मूँदना, बंद करना; ढक्कन) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.14)
1613 मुलकात (= मुलाकात) (छोटका टिसन तक गाड़ी चढ़ावे साथ आल । गाड़ी में देरी हल । बहिन के एगो चाह पिलइलक आउ बुतरू लेल कँकड़ी खरीद के दे देलक । बुलकनी माय से मुलकातो नञ् कइलक ... लउट गेल ।) (कसोमि॰118.18)
1614 मुलुर-मुलुर (~ ताकना) (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.8)
1615 मुल्लुर-मुल्लुर (दे॰ मुलुर-मुलुर) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । ... आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल । टपे घरी सुरमी के हाथ से मुँहपोछनी लेबइ ले मुड़ल कि सुरमी ठोर तर मुसक गेल आउ ताकइत रहल बिठला के मुल्लुर-मुल्लुर ।) (कसोमि॰78.1)
1616 मुसहरी (बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।; "डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !") (कसोमि॰79.27; 87.11)
1617 मुहियाना (= की ओर अपना मुँह करना) ('अदंक' के तितकी आउ लाजो तमाम विपरीत परिस्थिति से जूझइत-जूझइत जीयइ के आकांक्षा से ओइसईँ लबरेज हे जइसे पत्थल के तले दबल दूब रौशनी के तरफ मुहियाय के प्रयास करइत रहऽ हे आउ आखिरकार सफल होवऽ हे ।) (कसोमि॰7.2)
1618 मूड़ी (= सिर) (चिकनी गारो के मूड़ी पकड़ के हिलइलक तऽ ओकर मूड़ी काठ ! गारो कम्मल के सपना देखइत कनकन भे गेल हल ... सोरा ।; किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ? - अइसइँ चल अइलिअइ किसान ... जइबइ तऽ खइबइ । - हले ले, कुछ खा ले । सुकरी मूड़ी गोतले बोलल - नञ् भइया, रहऽ दऽ !; तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।) (कसोमि॰18.9, 10; 39.24; 103.3)
1619 मूढ़ी (= फरही, फड़ही) (बुलकनी कहलक, "हे छोटकी, चउरा बेचवा दीहोक....छो किलो हो।" छोटकी गियारी घुमा के बुलकनी के देखलक आउ मुसक गेल। - "थाली मोड़ पर झिल्ली किना दिहोक.....मूढ़ी साथे हइ।" मुसकइत बुलकनी छोटकी के समदलक।) (कसोमि॰126.2)
1620 मूतना (= मुतना; पेशाब करना) (एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ?) (कसोमि॰29.22)
1621 मूनना (= मूँदना, बन्द करना) (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।) (कसोमि॰60.11)
1622 मूर (= मूलधन) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत । - मूरे पलटे, साव नितराय ! ओइसने हे ईमसाल के खेती ।) (कसोमि॰61.16, 17)
1623 मेंहीं-मेंहीं (= महीन-महीन, छोटा-छोटा) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰78.8)
1624 मेर (= मेल, मिलाप, मिलन; संयोग; तरह, प्रकार; कई वस्तुओं को मिलाकर बनी एक इकाई) (पैसा देखते मेर मिला के दऽब जीन सब समान भे गेल । पोसाक काशीचक के संगम टेलर में सीअइ ले दे देलक ।) (कसोमि॰55.1)
1625 मेलान (~ खोलना) (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।) (कसोमि॰111.14)
1626 मेहरारू (= पत्नी; स्त्री, औरत) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।) (कसोमि॰14.23)
1627 मैटरिक (= मैटिक; मैट्रिक) (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।) (कसोमि॰70.27)
1628 मैया-बाउ (= मइया-बाउ; माता-पिता) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय । - नञ् भौजी, हम सोचऽ ही कि पहिले कुछ कमा लेउँ । घर के हाल कि तोरा से छिपल हे, मुदा लगऽ हइ जैसे कि मैया-बाउ ले हम भारी हिअइ । बस कर दे विदा ।) (कसोमि॰66.25)
1629 मैल-कुचैल (बिछौना बिछ गेल । मैल-कुचैल तोसक पर रंग उड़ल चद्दर । ओइसने तकिया आउ तहाल , तेल पीअल रजाय जेकर रुइया जगह-जगह से टूट के गुलठिया गेल हे ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।) (कसोमि॰69.24; 73.23)
1630 मोंछकबरा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.22)
1631 मोंछमुत्ता (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.25)
1632 मोछ (= मूँछ) (पींड पर हरगौरी बाबू मिल गेलन । - कहाँ से सरपंच साहेब ? मोछ टोबइत हरगौरी बोलला । उनका साथ तीन-चार गो लगुआ-भगुआ हल ।) (कसोमि॰55.4)
1633 मोछकबरा (= मोंछकबरा) (एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।) (कसोमि॰85.8)
1634 मोटकी (= मोटी) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰78.9)
1635 मोट-घाँट (= मोट-घोंट) (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।) (कसोमि॰89.1)
1636 मोटरी (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?"; मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।; अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।) (कसोमि॰13.13; 55.9, 10; 84.27)
1637 मोरहर (= एक नदी का नाम) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।; ओकरा इयाद पड़ल - मोरहर में कभी-कभार दहल-भसल लकड़ी भी आ जाहे । सुकरी एक तुरी एकरे से एगो बकरी छानलक हल ।; एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल । साड़ी के अँचरा से लदफदाल सुकरी बकरी खींचले बाहर भेल । ऊ अपन अंचरे से सेसपंज हल, नञ् तऽ कत्ते तुरी मोरहर पार कइलक हे धाध में ।) (कसोमि॰33.22; 33.1, 19)
1638 मोसाफिरखाना (= मुसाफिरखाना) (काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला । मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे ।) (कसोमि॰28.15)
1639 मोहाल (= दुर्लभ, कठिन, कम मात्रा में मिलनेवाला; असंभव, अप्राप्य) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।; कहइ के तऽ सत्तू-फत्तू कोय खाय के चीज हे। ई तऽ बनिहार के भोजन हे। बड़-बड़ुआ एन्ने परकलन हे। अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल।) (कसोमि॰80.3; 120.23)
1640 मौगी (= पत्नी, स्त्री) (बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् । हाथ पर हाथ धइले बैठल रहऽ हइ । मौगिओ के जेवर खेत कीनइ में बिक गेलइ ।) (कसोमि॰58.17)
1641 मौलना (= कुम्हलाना; मुरझाना; सूखकर पका-सा होना; आँख झपकना; उदास होना) (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।) (कसोमि॰58.21)
1642 रंका (चंडी के ~) (कि बात हे ? हे सुरूसबिता मीरा, बचाबो जान ! हूहू हावा ... बरफ के हाही ... देवी के कोप ... चंडी के रंका । चिकनी उठल अउ ठठरी लगा के दीया बुता देलक । आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... ।) (कसोमि॰16.25)
1643 रंगन-रंगन (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ? पितरपछ में तऽ दुनिया भर के आदमी ... रंगन-रंगन के ... देस-विदेस के ... गिटिर-पिटिर गलबात ... पंडा के चलती ।; सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।; अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल, जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।) (कसोमि॰35.7; 92.11; 120.15)
1644 रउदा (= धूप) (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?"; बुलकनी तीसी के तेल पेड़ा के लइलक हल। एक किलो के तेल के डिब्बा ओसरा पर रख के गाय के पानी देखावइ ले गोंड़ी पर चल गेल हल। रउदा में गाय-बछिया हँफ रहल हल। पानी पिला के आल तऽ देखऽ हे कि छोटकी के तीन साल के छउँड़ी तेल के डिब्बा से खेल रहल हे।) (कसोमि॰18.9; 122.12)
1645 रग-रग (= अंग-अंग) (मास्टर साहब वारसलीगंज के धनबिगहा प्राथमिक विद्यालय में पढ़ावऽ हथ । रोज रेलगाड़ी से आवऽ जा हथ । खाना घरे से ले ले हथ । दिन भर के थकल रग-रग टूटऽ हे । अइते के साथ धोती-कुरता खोल के लुंगी बदल ले हथ आउ दुआरी पर खटिया-बिछौना बिछा के आधा घंटा सुस्ता हथ ।) (कसोमि॰98.7)
1646 रज-गज (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।; पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰33.11; 61.2)
1647 रजधानी (= राजधानी) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।) (कसोमि॰36.9)
1648 रजनेति (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰61.3)
1649 रजाय (= रजाई) (बिछौना बिछ गेल । मैल-कुचैल तोसक पर रंग उड़ल चद्दर । ओइसने तकिया आउ तहाल , तेल पीअल रजाय जेकर रुइया जगह-जगह से टूट के गुलठिया गेल हे ।) (कसोमि॰69.25)
1650 रतका (= रात वाला) (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।) (कसोमि॰47.6)
1651 रत-रत (लाल ~) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल ।; बिठला के आँख तर सुरमी नाच गेल रत-रत राता में घोघा देले ई दुआरी लगल । तखने माय-बाउ जित्ते हल ।) (कसोमि॰77.26; 84.8)
1652 रतवाही (कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन । हमरो गोस्सा आ गेलो । ई सब खोंट के लड़ाय लेना हल । हम भी उकट के धर देलियन । चराबे के चरैबे करे, रात भर रतवाही । बोझा के कबाड़े वला भी धरमराजे बनइ ले चलला हे ।) (कसोमि॰111.23)
1653 रपटना (फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल । लाजो नल्ली पर से रपटल आके ओढ़ना में घुकुर गेल । ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल ।; "पेटीवला फरउक निकालिअउ माय।" - "ओहे पेन्ह के जइमहीं?" / रनियाँ गुम भे गेल। ऊ माय के आँख पढ़ऽ लगल। - "मन हउ तऽ निकाल ले।" रनियाँ भित्तर दने रपटल।) (कसोमि॰46.26; 125.3)
1654 रपरपाना (हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे । गारो झपट के लेलक अउ रपरपाल घर दने सोझिया गेल हे । रह-रह के कम्मल पर हाथ फेरऽ हे ... देखऽ हे । उघारलक हे ... नापलक हे ... अरजगर हे ... ओह, हाय रे हाय !; तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।; गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल ।; बुलकनी रपरपाल घर आके रनियाँ के माथा पर अनाज के टोकरी धइलक आउ कहलक, "तारो घर चल, हम जरामन लेके आवऽ हिअउ।") (कसोमि॰17.27; 37.13; 42.5; 123.24)
1655 रबरब्बी (मिचाय-रस्सुन के ~) (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।) (कसोमि॰80.16)
1656 रसगर (उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !) (कसोमि॰101.5)
1657 रस-रस (= रसे-रसे; धीरे-धीरे) (रस-रस उनकर घर के आगू भीड़ जमा हो गेल । सब देख रहलन हल । ऊ छत पर नाच-नाच के 'हाल-हाल' कर रहला हे । सब के मुँह से एक्के बात - पगला गेलथिन, इनका काँके पहुँचा देहुन ।; उनकर मेहरारू छत पर चढ़के थोड़े देरी समझइ के कोरसिस कइलन आउ रस-रस नजीक जाके हाथ पकड़ के पुछलकी - तोहरा की हो गेलो ? पागल नियन काहे ले कर रहलहो हे ?) (कसोमि॰27.5; 29.12)
1658 रसलिल्ला (= रसलीला; रासलीला) (गाँव में दुर्गा जी बनऽ हथ । यहाँ कल होके मेला लगत । विजयदसमी रोज हर साल नाटक होवऽ हे । पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे ।) (कसोमि॰52.17)
1659 रसिया (= ईख के रस या गुड़ में बनाई हुई खीर) (- अरे, अदरा पनरह दिन चलऽ हइ बेटा ! - पनरह दिन अदरा हमरो घर चलतइ ? - अदरा एक दिन बनाके खाल जा हइ । - की की बनइमहीं ? - खीर, पूरी, रसिया, अलूदम ! - लखेसरा घर तऽ कचौड़ी बनले हे । ओकर बाऊ ढेर सन आम लैलथिन हे । ई साल एक्को दिन आम चखैलहीं माय ?; याद पड़ल - बेटिया गूँड़ दिया कहलक हल । गूँड़ तऽ गामो में मिल जात ... चाउर ले लेम । दू मुट्ठी दे देम, रसिया तैयार, ऊपर से दू गो मड़वा । बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही ।) (कसोमि॰32.17; 37.18)
1660 रसोय (= रसोई) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा ।) (कसोमि॰28.10)
1661 रस्ता (= रास्ता) (किसुन के याद पड़ल - तहिया बथान के रस्ता पर खड़ा सोच रहल हल - कोय तऽ टोके । नञ् कुछ सूझल तऽ नीम पर चढ़ के दतमन तोड़ऽ लगल ।; पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल । गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता ।) (कसोमि॰21.11; 63.19, 20)
1662 रस्सुन (= लहसुन) (आ सेर लगि गरई चुन के बिठला नीम तर चल गेल आउ सुक्खल घास लहरा के मछली झौंसऽ लगल - "गरई के चोखा ... रस्सुन ... मिचाय आउ घुन्नी भर करुआ तेल । ... उड़ चलतइ !"; मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰77.11; 78.8)
1663 रस्सुन-पियाज (= लहसुन-प्याज) (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰58.2)
1664 रहल-सहल (= बचा-खुचा) (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।) (कसोमि॰78.26)
1665 रहस (= रहस्य) (- बाबा पटना गया था तो मम्मी क्या बोलती थी ? जूली एगो रहस के बात बोलल । - चुप्प ! गौरव अपन होठ पर अंगुरी रख के आँख चीरले डाँटलक ।; ओकरा बात में कुछ रहस लगल, से से पुछलक - की कहऽ हलउ तोर मम्मी ? तोर मम्मी हम्मर बाबा के पटनमा में की कहऽ हलउ ?) (कसोमि॰70.17, 22)
1666 राँड़ी-मुरली (घरहेली भेल, खूब धूमधाम से । गाँव भर नेउतलन हल । भला, ले, कहीं तो, घरहेली में के नञ् खइलक ? राँड़ी-मुरली सब के घर मिठाय भेजलन हल बिहान होके । पुजवा नञ् भेलइ तऽ की ? पुजवो में तऽ नञ् अदमियें खा हइ । से की देवतवा आवऽ हइ खाय ले ।) (कसोमि॰30.10)
1667 राज (= राज्य) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।) (कसोमि॰36.9)
1668 रात-बेरात (- बनिहरवा की करऽ हो ? - एकर काम खाली जानवर खिलाना भर हो । खिला-पिला के सोझ । रात-बेरात के जानवर अपने देखऽ पड़ऽ हो । - कहऽ हो नञ् ? - कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान !; ऊ फेर दारू के घूँट भरलक अउ धुइयाँ उड़ावऽ लगल । ऊ धुइयाँ के धुँधलका में हेरा गेल आउ तेसर रात झकझका गेल । / तेसर रात - / "कहऽ हइ कि हरिजनमन खाली अपन मउगी के मारऽ हइ बकि, ... भागल जा हलन कुलमंती । रात-बेरात के घर से निकलल जन्नी के कउन ठेकान ! लटफरेम पर महाभारत भेलन ! अपन मरदाना के हाथ से पिटइली आउ तमाशा बनली ।") (कसोमि॰72.23; 84.5)
1669 राता (= विवाह के अवसर पर वर पक्ष की ओर से दी जाने वाली गाढ़े लाल रंग की साड़ी, बिअहुती साड़ी) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।; समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।; पोखन के लगल जइसे मुनियाँ के निभा लेलक हे । मुनियाँ लाल राता में डोली चढ़ के चल गेल हे ।) (कसोमि॰52.14; 59.10; 62.13)
1670 रान्हना (= पकाना) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।) (कसोमि॰14.26)
1671 राय (जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।) (कसोमि॰23.25)
1672 रावा (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; तहिया तीन दिना पर हिंछा भर खइलक हल किसना । दूध-लिट्टी रावा । छक के सोवो आदमी के भोज । कठौती पर कठौती । छप्-छप् दूध । लुल्हुआ डूब जाय - सड़ाक् ... सपाक् ... सपाक् ... सपाक् ।) (कसोमि॰20.25; 22.24)
1673 रावा-रत्ती (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत ।) (कसोमि॰61.15)
1674 रुइया (गारो सोचलक, जुआनी में कहियो बोरसी तापऽ हलूँ ? एक्के गमछी में जाड़ा पार ! एकरा कीऽ ... पोवार अउ ... । ओकर धेयान चिकनी दने चल गेल। ओकरा चिकनी छिकनी नञ, जुआनी के चिकनी लगल । हुँह ... रुइए ने दुइए ।) (कसोमि॰15.27)
1675 रुतरुत (= रतरत) (लाल ~) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।) (कसोमि॰52.13)
1676 रुन्हन (= बाधा) (असमान में सुरूज-बादर के खेल चल रहल हल । सामने वला पीपर पेड़ से एगो बगुला उड़ल । क्यूल दने से डीजल आ रहल हल ... अजगर । तितकी बुदबुदाल - छौंड़ापुत्ता गड़िया लेट करतइ ... रुन्हन ।) (कसोमि॰51.7)
1677 रेकना (किसुन उसार के लिट्टी-दूध खाके चलल हल कि महुआ तर रेकनी भेंट गेल । ओकरा तऽ रेके के आदते हल । से रोक के पुछलक - कि चललउ टूरा ?; रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.13, 17)
1678 रेघारी (मुनियाँ सोचले जा रहल हल । ओकर ठोर पर मीठ मुस्कान के रेघारी देखाय पड़ल आउ कान लाल भे गेल । दिन रहत हल तऽ कोय भी बुझ जात हल । ओकरा रात आउ अन्हरिया काम देलक ।) (कसोमि॰65.10)
1679 रेजा (= राजमिस्त्री के साथ कमानेवाला, मजदूर; छोटा खंड या टुकड़ा) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.11)
1680 रेलवी (= रेलवे) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।) (कसोमि॰37.13)
1681 रैली-रैला (गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰35.9)
1682 रोकसदी (= रोसकद्दी; रुखसत) (आउ अंत में ऊ दिन भी आ गेल, जहिया पहुना अइता, लाजो के पहुना, गाँव के पहुना । ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन ।) (कसोमि॰55.20, 21)
1683 रोगिआह (हुक्कल आउ बानो दू भाय हल । हुक्कल बड़ आउ बानो छोट । बड़ भाय सब दिन के रोगिआह हल, से से बानो घर के कहतो-महतो हल ।) (कसोमि॰114.2)
1684 रोट (आरती में तो औसो के साथ दे । आरती के बाद बस, रहे न संकट, रहे न भय, पाँच रोट की जय । किसना सात बोल दे । भजनकी ठठा के हँस दे । एगो ओकरा फाजिल ।) (कसोमि॰23.7)
1685 रोटियानी (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक।) (कसोमि॰123.27)
1686 रोटियानी-सतुआनी (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰117.2)
1687 रोवाय (= रुदन) (हितेसरा उठल आउ फुफ्फा के माथा पर पगड़ी रख के फूट-फूट के कानऽ लगल । फुफ्फा के अइसन रोवाय छूटल कि हपट के हितेसरा के देह से लगा लेलका ।) (कसोमि॰115.24)
1688 रौदा (= रउदा; धूप) (एक दिन लाजो तितकी घर गहूम पीसइ ले गेल हल । एने ढेर दिन से जुतकुट्टा नञ् आल हल । दोसरे घर से काम चल रहल हल । माघ के महीना हल । तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।; रौदा उग गेल हल । फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल ।; सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।) (कसोमि॰44.10; 46.19; 47.8; 63.13; 92.10)
1462 भंगलाहा (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.17)
1463 भंभीरा (धंधउरा में अलुआ पकऽ हइ ? एकरा ले तो भुस्सा के आग चाही ... भंभीरा ... खह-खह ।) (कसोमि॰16.10)
1464 भंसा (= रसोई घर) (भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ । बनला पर लगे कि छत पर कोय कनियाय रहे ।; - केऽ, मुनियाँ ? माय आगू में ठाढ़ हल । - हाँ, मुनियाँ लजाल बोलल । ओकरा लगल जैसे मन के चोर पकड़ा गेल हे । माय कुछ नञ् बोलल, ठउरे पलट गेल । माय आगू आउ मुनियाँ पीछू । दुन्नू गुमसुम ! घर जाके मुनियाँ गोड़ धोलक आउ भंसा हेल गेल ।) (कसोमि॰27.20; 65.20)
1465 भंसिया (= रसोइया) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.26)
1466 भगोटी (ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल । बिठला के पीठ चुनचुनाय लगल - कत्ते तुरी माय धउल जमइलक हल । बाउ मारऽ हल माय के तऽ बिठला डर से भगोटी गील कर दे हल ।) (कसोमि॰84.14)
1467 भजनकी (जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ... आरती के बाद बस, रहे न संकट, रहे न भय, पाँच रोट की जय । किसना सात बोल दे । भजनकी ठठा के हँस दे । एगो ओकरा फाजिल ।) (कसोमि॰23.8)
1468 भट्ठा (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ?) (कसोमि॰35.4)
1469 भतार (एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰85.7; 86.25)
1470 भतिया (मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।) (कसोमि॰89.20)
1471 भदवी (= भादो का) (~ पुनियाँ) (कल होके बीट के दिन हल । दुन्नू साथे सिरारी टिसन आल अउ केजिआ धइलक । गाड़ी शेखपुरा पहुँचइ-पहुँचइ पर हल । खिड़की से गिरहिंडा पहाड़ साफ झलक रहल हे । लाजो के पिछला भदवी पुनियाँ के खिस्सा याद आवऽ लगल ।; बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे ।) (कसोमि॰49.10; 95.17)
1472 भनसा (= भंसा; रसोईघर) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.11)
1473 भफाना (= वाष्पीभूत होना) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।) (कसोमि॰16.14)
1474 भभू (= छोटे भाई की पत्नी) (भभू के मसोमात रूप देख के बड़का समझइलक, "मंझली के केकरा भरोसे एकल्ले छोड़महीं। हम्मर जिनगी भर अँगना एक्के रहऽ दे। चूल्हा अलग करलें, अलग कर, बकि रह मिल जुल के, एक्के परिवार नियन। बँटवारा धन के होवऽ हे, संबंध आउ मन के नञ्। भइपना छूरी से काट के बाँटइ के चीज नञ् हइ छोटकी ।" आउ ऊ फूट-फूट के कानऽ लगल हल।) (कसोमि॰121.27)
1475 भर (= पूरा, बराबर, तुल्य) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰28.11)
1476 भरगर (= भारी) (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।) (कसोमि॰36.15)
1477 भरभराना (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।; खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !) (कसोमि॰46.23; 75.23)
1478 भरल (~ भादो, सुक्खल जेठ) (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो ।) (कसोमि॰36.20)
1479 भरल-पुरल (~ चेहरा) (बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल । उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰73.26)
1480 भलुक (= बलुक; बल्कि) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।; रेकनी के तऽ कुछ नञ् बिगाड़लूँ हल, भलुक केकरो नञ् बिगाड़लूँ हल । रेकनी अइसन काहे बोलल ?; ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे ।) (कसोमि॰17.4; 24.8; 110.2)
1481 भविस (= भविष्य) (तहिया से ओकरा रेकनी तनियो नञ् सोहा हल । ओकरा दने देखहूँ में लाज लगे ... आक् थू । किसुन रेकनी के आगू में थूक देलक । रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.18)
1482 भसकना (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
1483 भसना (= पानी के ऊपर तैरना; पानी की धारा के वेग से आगे बढ़ना; पानी में डूबना) (ओकरा इयाद पड़ल - मोरहर में कभी-कभार दहल-भसल लकड़ी भी आ जाहे । सुकरी एक तुरी एकरे से एगो बकरी छानलक हल । तहिया सुकरी छटछट हल । दूरे से देखलक आउ दउड़ पड़ल । ... सुकरी उड़नपरी सन यह ले, ओह ले, ... छपाक् । बकरी पकड़ा गेल, मुदा तेज धार सुकरी के बहा ले चलल । भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! - बकरी के लोभ में दहलइ गुरूआ वली !) (कसोमि॰34.8)
1484 भाग (= भाग्य) (रोजी नञ, रोटी नञ, कपड़े सही । मरे घरी चार गज के कपड़े तऽ चाही । राजा हरिचनरो के बेटा कमले के कफन ओढ़लन हल । जाड़ा अउ कम्मल ! हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे ।; आजकल दहेज के आग में ढेर बहू जर रहल हे । जानइ हमर सुगनी के भाग ! माय के गियारी भर गेल, आँख में लोर ।; समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।) (कसोमि॰17.26; 52.1; 58.26)
1485 भादो (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो ।; पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰36.20; 61.1)
1486 भाफ (= फुफकार) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।) (कसोमि॰89.7)
1487 भाय (= भाई) (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत ।; पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । आज 'सवा सेर गेहूँ' होबत । लाजो के भाय भी पाट लेलक हे । तिरकिन भीड़ ।) (कसोमि॰19.17; 52.19)
1488 भाय-गोतिया (रौदा उग गेल हल । फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।; बिठला के बजरुआ से भय नञ् हे । खाली गाँव के भाय-गोतिया नञ् देखे - बस्स । जात के बैर जात । देख लेत तऽ जात से बार देत ।; दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।) (कसोमि॰63.13; 81.23; 115.4)
1489 भाय-बहिन (= भाई-बहन) (सुकरी फुदनी के समदइत बजार दने निकल गेल - हे फुदो, एज्जइ गाना-गोटी खेलिहऽ भाय-बहिन । लड़िहऽ मत । हम आवऽ हियो परैया से भेले ।) (कसोमि॰33.15)
1490 भाय-भतीजा (ईहे बीच एक बात आउ भेल । सितबिया के बगल में दाहु अपन जमीन बेचइ के चरचा छिरिअइलक । कागज पक्का हल, कोय लाग-लपेट नञ् । सितबिया के लगल - ई घर तऽ झगड़ालू हे, बमेसरे के रहे देहो । कथी ले फेन लिखाम । अपने भाय-भतीजा के बात हे ।) (कसोमि॰107.10)
1491 भिजुन (= बिजुन; पास) (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे । रह-रह के घुरौर भिजुन आवऽ हे, नाचऽ हे, फानऽ हे । टहल-पाती भी बुतरुए कर रहल हे ।; ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।; मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के। ओकरो पर ई अजलत के कोकलत वला मेला। हमरे नाम से नइहरो में आग लग गेलइ। अब गाँव में केकरा-केकरा भिजुन घिघियाल चलूँ ?) (कसोमि॰21.6; 29.1, 2; 123.11)
1492 भिट्ठा (= भीठ; गाँव के पास की उपजाऊ जमीन, डीह; ऊँची पर उर्वर भूमि) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।) (कसोमि॰80.3)
1493 भित्तर (= भीतर; कमरा; घर के अन्दर का कमरा) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ ।; आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा । अइना तऽ सब भित्तर में । यहाँ तक कि अलमारी से लेके पैखाना भित्तर तक में अइना, भर-भर आदमी के । फूलो चाची तऽ अपना के अनचके देख के अकचका गेलथिन ।) (कसोमि॰12.4; 27.20; 28.10, 11)
1494 भिर (= पास, नजदीक) (" ... चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं । दोसरा भिर बोलहीं, हम नञ् जानो हिअइ कि एजा रातो भर तों सब की करो हलहीं ? खेत उखाड़े से लेके मुँह करिया करे के धंधा तो एज्जइ ने होवऽ हलइ हो ?" मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन ।; दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल । डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ ।) (कसोमि॰29.24; 42.8)
1495 भिरिया (= भिर, पास) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.24)
1496 भींड़ (= भीड़) (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । अउ कोय बोलत हल तऽ सौखी ओकरा पटक के भुरकुस कर देत हल बाकि बलनेकी सिंह पर हाथ उठाना साधारन बात नञ् हे । ई नञ् हल कि बलनेकी सिंह गामागोंगा हलन । ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन ।; भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।; बरहमजौनार बित गेल निक-सुख । तेरहा दिन पगड़बंधा के बारी आल । पिंड पड़ गेल । अँगना में गाँव के भींड़ । हितेसरा के देख के सब के आँख डबडबा गेल । अउरत सब तऽ फफक गेलन ।) (कसोमि॰29.27; 30.19; 115.9)
1497 भुँझाय-पिसाय (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰117.3)
1498 भुँड़रना (तितकी पछुआ गेल । महुआ गाछ तर देखलक, चार गो छउँड़ी टप-टप टपकल महुआ चुन रहल हे । उहो चूनइ में लग गेल । सोंचलक सुखा के भुँड़रि के खाम, बूँट के भुंजा साथ ।) (कसोमि॰119.16)
1499 भुंजना (टेहुना टोबइत, "झोंटहा अइसन टिका के मारलको कि ... उनकर करेजा भुंजिअन ! हूहि में लगा देवन ।"; बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइंठ में बाँध ला। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हा, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस?" शान्त होबइ के तऽ हो गेल बकि दुन्नू तहिया से कनहुअइले रहऽ हल। आझ मँझली के काम आ पड़ल। अनाज भुंजइ के एगो छोटकिये के पास खपरी हल। खा-पी के छोटकी के अवाज देलक, "अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।" - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।"; मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के।; मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।) (कसोमि॰11.12; 122.27; 123.4, 9, 22)
1500 भुंजना-पीसना (आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल। "तितकी नञ् मिललउ?" माय डब्बू लारइत पूछलक। - "कहलिअउ तऽ आउ हमरे पर झुंझला लगलउ।" - "आवऽ दे। भुखले रखमन। चल....पहिले खा पी ले, फेन भुंजइत-पीसइत रहम।") (कसोमि॰121.17)
1501 भुंजा (जर के ~ होना) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।; तितकी पछुआ गेल । महुआ गाछ तर देखलक, चार गो छउँड़ी टप-टप टपकल महुआ चुन रहल हे । उहो चूनइ में लग गेल । सोंचलक सुखा के भुँड़रि के खाम, बूँट के भुंजा साथ ।) (कसोमि॰61.13; 119.16)
1502 भुंजान-पिसान (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक।) (कसोमि॰123.26)
1503 भुंजिया (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।) (कसोमि॰105.10)
1504 भुइयाँ (= भूमि, जमीन) (भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।; भुइयाँ में गिरल दतमन देख के साहो-चा पुछलका - के दतमन तोड़ऽ हऽ ?; याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली । तरकारी ले टमाटर आउ फुलकोबी भी ले अइली । छिपली में मेहमान के देके भुइयाँ में बइठ गेली ।) (कसोमि॰13.15; 21.14; 75.3)
1505 भुक् (~ दनी, ~ दबर, ~ सपर = भुक् से) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।") (कसोमि॰13.24)
1506 भुक्खल (= भूखा) (ओकर ध्यान बाल-बच्चा दने चल गेल - भुक्खल कइसे दिन काटलक होत ! छौड़ा तो बहिनियो के नाकोदम कर देलकइ होत ।) (कसोमि॰40.27)
1507 भुक्-भुक् (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?) (कसोमि॰35.2)
1508 भुचुक्की (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.25)
1509 भुटनी (= घुन्नी, बहुत कम या छोटा) (~ सन) (- अमलेटवा खाहीं ने । ... - तोरा बनबइ ले आवऽ हउ ? - अंडवा मँगाहीं ने, बना देबउ । एकरा बनाबइ में कि मेहनत हइ । फोड़ के निम्मक-पियाज मिलइलें आउ भुटनी सन तेल दे के ताय पर ढार देलें, छन कइलकउ आउ तैयार ।; आम के पाँच गाछ । सेनुरिया तऽ कलम के मात करऽ हे । छुच्छे गुद्दा, भुटनी गो आँठी । गाछ से गिरल तऽ गुठली छिटक के बाहर । एने से सब आम काशीचक में तौला दे हल ।) (कसोमि॰57.16; 90.3)
1510 भुड़की (= भूड़, भूर, छेद) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.25)
1511 भुतहा (ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।) (कसोमि॰25.6)
1512 भुनभुनाना (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।") (कसोमि॰11.2)
1513 भुनभुनी (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।) (कसोमि॰28.21)
1514 भुनुर-भुनुर (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰61.4)
1515 भुरकुस (मुँहफट बलनेकी सिंह भींड़ में सौखी के पानी उतार देलन । अउ कोय बोलत हल तऽ सौखी ओकरा पटक के भुरकुस कर देत हल बाकि बलनेकी सिंह पर हाथ उठाना साधारन बात नञ् हे । ई नञ् हल कि बलनेकी सिंह गामागोंगा हलन । ऊ तऽ गाँव भर के खेलौनियाँ हलन ।) (कसोमि॰30.1)
1516 भुस्सा (= भूसा) (धंधउरा में अलुआ पकऽ हइ ? एकरा ले तो भुस्सा के आग चाही ... भंभीरा ... खह-खह ।; थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।; तितकी गुमसुम केराय पीटे में लग गेल । ऊ भीतरे-भीतर भुस्सा के आग सन धधक रहल हल - जाय दुन्नू माय-बेटी कोकलत, भला हम तऽ महुआ खोढ़र से अइलिए हे । जब ने तब हमरे पर बरसइत रहतउ । दीदी तऽ दुलारी हइ । सब फूल चढ़े महादेवे पर ।) (कसोमि॰16.10; 23.19; 73.22; 119.26)
1517 भूँजना (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰117.2)
1518 भेंभा (लटफरेम के भेंभा बजल - डिजिया खुलइ में आधा घंटा देरी । रात भे जात ! डेढ़ कोस जमीन । ऊ लटफरेम पर गोड़ाटाही करे लगल - कोय साथी-संघाती जो मिल जाय । नञ् भेत तऽ भौठे-भौठे निकल जाम । आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे ।) (कसोमि॰41.5)
1519 भैकम (गाड़ी शेखपुरा टिसन से खुल गेल । कुसुम्हा हॉल्ट पार । बड़का टिसन डेढ़गाँव । एजा सब गाड़ी रुकतो । रुकतो की, रोक देतो, भैकम करके ।) (कसोमि॰49.19)
1520 भोंभा (सिवाला में भजन-कीर्तन होवऽ हल । अब तो भोंभा खोल देलक, भगवान के आरती खतम । वरदान पइतन भोंभे ने । कुकुरमुत्ता नियन घर पर घर फैलल जाहे, अदमी बढ़ल जाहे, अदमियत हेराल जाहे ।) (कसोमि॰23.15)
1521 भोरगरे (= भोर में, सुबह-सुबह) (आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।; ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।; ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला ।) (कसोमि॰14.11; 25.6; 28.22; 29.1)
1522 भोरे (= भोर में, सुबह) (गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।"; पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰17.9; 59.21)
1523 भौठे-भौठे (= भौठाहे) (लटफरेम के भेंभा बजल - डिजिया खुलइ में आधा घंटा देरी । रात भे जात ! डेढ़ कोस जमीन । ऊ लटफरेम पर गोड़ाटाही करे लगल - कोय साथी-संघाती जो मिल जाय । नञ् भेत तऽ भौठे-भौठे निकल जाम । आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे ।) (कसोमि॰41.7)
1524 मँड़वा (= मण्डप) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰46.19)
1525 मंझला (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।; बनिहार चाह रख गेल । दुन्नू सार-बहनोय चाह पीअइत रहला आउ गलबात चलइत रहल । - मंझला के समाचार ? - ठीक हइ । - लड़का अर तय भेलन ? - तय तऽ परेसाल से हइ, वसंत पंचमी के भेतइ, पटने में ।) (कसोमि॰71.1; 72.10)
1526 मंझली (बड़की बिछौना बिछा देलकी ओसरा पर । मेहमान जाके बैठ गेला । मेहमान एकल्ले बइठल हथ ओसरा पर । बड़की मंझली से नास्ता बनाबइ ले कहलकी ओकर भित्तर जाके ।; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।; भभू के मसोमात रूप देख के बड़का समझइलक, "मंझली के केकरा भरोसे एकल्ले छोड़महीं। हम्मर जिनगी भर अँगना एक्के रहऽ दे। चूल्हा अलग करलें, अलग कर, बकि रह मिल जुल के, एक्के परिवार नियन। बँटवारा धन के होवऽ हे, संबंध आउ मन के नञ्। भइपना छूरी से काट के बाँटइ के चीज नञ् हइ छोटकी ।") (कसोमि॰74.19; 75.10; 122.1)
1527 मंसूरी (मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हाथ के ... सियार के पुच्छी ।) (कसोमि॰96.18, 19)
1528 मइँजना (= मैंजना; बरतन, आँख आदि रगड़ना) (चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।") (कसोमि॰15.9)
1529 मउगमेहरा (नेटुआ के ताल पर नाचइत बिठला सुरमी के डाँड़ा में अपन दहिना बाँह लपेट देलक कि सुरमी हाथ झटक के पीछू हट गेल । बिठला डगमगाल आउ आगू झुक गेल । - "हमरा छूलें तऽ मोछा कबाड़ लेबउ मउगमेहरा ।") (कसोमि॰85.16)
1530 मउगलिलका (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.24)
1531 मउगी (= मौगी; पत्नी, स्त्री) (ऊ फेर दारू के घूँट भरलक अउ धुइयाँ उड़ावऽ लगल । ऊ धुइयाँ के धुँधलका में हेरा गेल आउ तेसर रात झकझका गेल । / तेसर रात - / "कहऽ हइ कि हरिजनमन खाली अपन मउगी के मारऽ हइ बकि, ... भागल जा हलन कुलमंती । रात-बेरात के घर से निकलल जन्नी के कउन ठेकान ! लटफरेम पर महाभारत भेलन ! अपन मरदाना के हाथ से पिटइली आउ तमाशा बनली ।"; नेटुआ के मउगी/ धुमधुसड़ी हो भइया,/ नेटुआ के मउगी धुमधुसड़ी । / एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।") (कसोमि॰84.4; 85.23, 25)
1532 मकइ (= मकय; मकई, मक्का) (- गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।) (कसोमि॰45.24)
1533 मखौलिआह (दू सीन के बीच में कौमिक । भीड़ हँसते-हँसते लहालोट । बदन चा भारी मखौलिआह !) (कसोमि॰53.12)
1534 मगन (= खुश; डूबा हुआ, निमग्न) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.26)
1535 मगहिया (मिथिलेश जी जे कथ्य चुनऽ हथ, उनखर जे पात्र हइ - ऊ सब एकदम निखालिस मगहिया समाज के हाशिया पर खड़ा, अप्पन जीवन जीये के जद्दोजेहद में आकंठ डूबल लोग-बाग हे ।) (कसोमि॰5.6)
1536 मगही (~ पान) (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ । - मगही लगइहऽ, बंगला नञ् । बंगला पान तो भैंसा चिबावऽ हइ । आउ हाँ, इनखा मीठा चलो हन । तनि बयार फेंकइ वला दहुन । - बयार फेंकइवला कइसन होबऽ हइ ? कल्लू नए बोल सुनइलक । - अरे पिपरामेंट देहो, खइलिअइ कि मुँह में बिजुरी पंखा चलो लगलो । गोल दायरा में हाथ नचावइत मौली बोलल ।) (कसोमि॰112.8)
1537 मचोड़ना (= मचोरना) (मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।) (कसोमि॰89.23)
1538 मचोरना (= उखाड़ना) (रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।- तों बेकार ने चिंता करऽ हें । ई कौन बेमारी हइ । एकरो से कड़ा-कड़ा तऽ आजकल ठीक भे जाहे । अउ हम्मर चिंता छोड़ । हम गजरा-मुराय हिअइ कि कोय मचोर लेतइ ।) (कसोमि॰51.18)
1539 मच्छड़ (= मच्छर) (ठेहुना पर थप्पड़ मारइत धरमू बोलल - मछड़ा तऽ लगऽ हइ उठा के ले भागतइ । गाँव में मच्छड़ कहिओ देखलूँ हल !) (कसोमि॰95.5)
1540 मजगूत (= मजबूत) (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।) (कसोमि॰45.15)
1541 मजमा (ऊ साल बैसखा में गाँव भर के आदमी जमा भेल । पंचैती में हमरा नञ् रहल गेलो । कह देलिअइ - तऽ गाँव में गरीब-गुरबा नञ् ने बसतइ ? भेलो बवाल । मजमा फट गेलो । तहिया से कुम्हरे के कब्जा हइ ।) (कसोमि॰112.24)
1542 मजूर (= मजदूर) (सुकरी के गैंठ खाली, पेट खाली, घर खाली, सब खाली मुदा सुकरी के मन में आँधी । ओकर माथा चकरघिन्नी हो गेल । सोचलक, जौन खेत में कम मजूर होत, ओकरे में चिरौरी करम ।) (कसोमि॰38.11)
1543 मजूरनी (= मजदूरनी) (सुकरी मिचाय के भरल मुट्ठी खोंइछा में धइलक आउ डाड़ा कस के अँचरा खोंसलक । पाँच बजे काम से छुट्टी भेल । किसान छँटुआ बैगन-मिचाय अइसइँ मजूरनी के दे देलक ।) (कसोमि॰39.27)
1544 मजूर-मजूरनी (फेन ओहे लटफरेम के बेंच । थोरके दूर पर अइँटखोला जायवलन मजूर-मजूरनी के लमहर भीड़ ... मेला । ठीकेदार आउ मजूर के नाता घास आउ हसुआ सन ।) (कसोमि॰83.18)
1545 मजूरी (= मजदूरी) (दूध के याद अइते ही ओकर ध्यान अदरा पर चल गेल । बुतरून के कह के आल हे, अदरिया बनइबउ । तहिया सुकरी अदरा के आदर से मानऽ हल । घर में गाय, दूध के कमी नञ् । मोरहर के बालू ढोलाय, कोयला के मजूरी ।; आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे । उ तहिये ने मोहना के सहियेसाँझ छीन लेलकइ । कुछ नञ् बेचारा के दिन भर के मजुरिए ने हलइ । छौंड़ापुत्ता जनो-मजूर के नञ् छोड़ऽ हइ ।; अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले । कुरसी-टेबुल भर हमरा लकड़ी हे । मजुरिए ने लगतइ ।) (कसोमि॰34.27; 41.9; 51.25)
1546 मट्टी (= मिट्टी) (इनखा पर देवता के कोप हन । दावा अर के दिन भी नञ् देखइलथिन । सात जगह के मट्टी, हथसार, बेसवा ... चाँदी के नाग-नागिन, बारह बिधा एक्को नञ् पुरैलथिन ।) (कसोमि॰29.7)
1547 मड़की (= मड़को, मड़कोय) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।") (कसोमि॰11.1)
1548 मड़ुकी (दे॰ मड़की) (बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे । मछली के देखते मातर ओकर जीह से पानी टपकतो ... सीऽऽऽ ... घुट्ट । ऊ चुक्को-मुक्को मड़ुकी में बइठल चुनइत जाहे आउ गुनगुनाइत जाहे ।) (कसोमि॰76.7)
1549 मतसुन्न (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।) (कसोमि॰58.19)
1550 मतसुन्नी (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।) (कसोमि॰58.20)
1551 मधे (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही । / दुन्नू भाय में अइसइँ साँझ के साँझ कट-छट होतो । होवऽ हे ओहे, जे बड़का भइया खेती मधे चाहऽ हथ । चलित्तर बाबू खाली बोल-भूक के रह गेला ।) (कसोमि॰102.21)
1552 मनझान (= उदास) (पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल । गारो के देह चिकनी के बाँह में । पीपर के साढ़ेसतिया ... पवित्तर । चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ ।; सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल । ... कभी तऽ बरतुहारी में गाड़ी पकड़इ ले धौगल जाहे, हाँहे-फाँफे ... सिंगल पड़ गेल हे । गाड़ी लुकलुका गेल हे ... तेज ... आउ तेज धौगल हे । लेऽ ... गाड़ी तनि सुन ले छूट गेल हे । लटफरेम पर खड़ा-खड़ा दूर जाइत गाड़ी के मनझान मन से देख रहल हे ।; ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे । सितबिया बजार से तेल-मसाला, कटहर-कोवा लेके लउटल । एने चुल्हना मनझान नीम तर बैठल माय के रस्ता देख रहल हल । कोनाठे भिर लउकल कि दउड़ के गेल आउ कहलक - नञ् देलथुन माय ।) (कसोमि॰17.2; 63.9; 108.3)
1553 मनसूआ (= मनसूबा) (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।) (कसोमि॰76.3)
1554 मनसूगर (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।) (कसोमि॰68.9)
1555 मनिजर (= मैनेजर, प्रबंधक) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।) (कसोमि॰27.11)
1556 मनिज्जर (= दे॰ मनिजर; मैनेजर) (मनिज्जर साहब रजिस्टर लेले बैठल हथ । भीड़ जमा होवऽ लगल हे । काँटा पर वला आदमी सूत तौल रहल हे ।) (कसोमि॰49.27)
1557 मनिहारी (पहाड़ पर मंदिर के बगल में सक्खिन आउ सक्खि के बीच में लाजो के पहुना लजाल, मुसकइत, लाजो के कनखी से देखइत । लाजो उठ के भाग गेल हल, नुक गेल हल मनिहारी भिजुन भीड़ में ।) (कसोमि॰49.14)
1558 ममला (= मामला) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.24)
1559 ममहर (= ननिहाल, मामा का घर) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।) (कसोमि॰22.16)
1560 मर दुर (उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !) (कसोमि॰101.5)
1561 मरखंड (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।) (कसोमि॰59.21)
1562 मरना-जरना (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.21)
1563 मर-मसाला (बिठला तीन रात के कमाय लेके घर आवे घरी रस्ते में मछली मारलक हल आज ... खाय से जादे । आधा लउट के बजार में बेच देलक अउ मर-मसाला, कलाली से दारू लेके आल हल । आँटा घरे हल ।) (कसोमि॰78.16)
1564 मरलका (= मरा हुआ) (मुनमा दरी में खपड़ा उझल के फेनो चूनऽ लगल । ओकरा लगे, कहइँ साँपा के जोड़वा जो एज्जइ रहे । डरले-डरल खपड़ा उठावे । उकटे ले हाथ में छेकुनी ले लेलक हे । मिलता तऽ अइसन ... कि अइँठिये जइता । ओकर आँख तर मरलका साँप नाच गेल ।) (कसोमि॰90.13)
1565 मरूआ (= मड़ुआ) (आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । नूरीचक भी हाथ बार देलक । कहनी हल - "मरूआ रे तूँ सकरा के लड़ुआ, तूहीं पालनहार रे । तोरा छोड़लिअउ नूरीचक में, आगुए अइलें बिहार रे ॥") (कसोमि॰78.17, 19)
1566 मलकल (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल । लेकिन तखनइँ ओकरा सामने बुतरून के देल कउल याद आ गेल - 'आज अदरिया बनइबउ' आउ मोटरी के भार कम गेल । मलकल टीसन पहुँच गेल ।) (कसोमि॰36.18)
1567 मलवा (तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।) (कसोमि॰102.24)
1568 मलसी (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।) (कसोमि॰99.11)
1569 मसका (= भूना अन्न जो ठीक से खिला न हो; अनखिला भूना मकई या चना; गुड़ और तिल की बनी मिठाई) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।) (कसोमि॰13.9)
1570 मस-मस (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.21)
1571 मसमसाल (चलित्तर बाबू के सचकोलवा गोस्सा आ रहल हल, मसमसाल, रैंगनी के काँटा पर गरमोगरी देके पाड़इवला, खजूरवला सट्टा से देह नापइवला । उनखा अपन जमाना याद आ रहल हल - चहलवला मास्टर साहब अइसइँ पीटऽ हला ।) (कसोमि॰100.27)
1572 मसुरी (= मसूर) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।; अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰61.13; 120.26)
1573 मस्स-मस्स (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।; बासो मैना बैल के दू आँटी नेवारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेवारी तोड़ रहल हल ।; मिंझराल भुस्सा गाय मस्स-मस्स खइतो। उपर से खाली पानी देखावे के काम।) (कसोमि॰78.10; 95.4; 120.17)
1574 महँगी (= महँगाई) (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो । देखऽ हो नञ्, महँगी असमान छूले जा हइ । तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो ।) (कसोमि॰99.13)
1575 महराज (= महाराज) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।) (कसोमि॰36.9)
1576 मांगुर (= गलफड़े में काँटेवाली एक लाल रंग की मछली) (ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।") (कसोमि॰78.3)
1577 मांदर (= मानर) (सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।") (कसोमि॰86.21)
1578 माउग (= पत्नी, स्त्री, घरवाली) (छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम ! ऊ तऽ बोतले से सगाय कइलक हे, ढेना-ढेनी तऽ महुआ खोंढ़ड़ से अइलइ हे । अबरी आवे, ओकरा पूछऽ हीअइ नोन-तेल लगा के ।; एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।; छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰35.12; 85.7; 118.1)
1579 माउग-मरद (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।) (कसोमि॰45.17)
1580 माकर (बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।) (कसोमि॰100.25)
1581 माधे (जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी । देह माधे ठठरी !; उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।; रस-रस दिन लुकलुका गेल । बचल खपड़ा निस्तार के बासो बकिए में गाढ़ से नेबरिए छार देलक । नया खपड़ा तऽ जेठ माधे मिलत ।; - भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान ! / बासो तऽ निमियाँ आउ बेलदरिया से तेसरे साल विदा भे गेल । बचइ माधे ईहे दस कट्ठा भिखरिया हल बकि ... एहो ... । भिखरिया के अलंग पर दुन्नू बापुत के गोड़ बढ़ल जाहे ।) (कसोमि॰19.5; 74.1; 94.16; 96.13)
1582 मानर (= एक प्रकार का मृदंग) (बचल दारू पीके सुरमी खलिया कटोरा भुइयाँ में धइलक कि बिठला खुट्टी में टंगल मानर उतार के गियारी में पेन्हलक आउ थाप देलक ।) (कसोमि॰86.11)
1583 मानुख (= मनुष्य) (बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम । बिके धरती तऽ बिके ! ई वसुधा काहू के नाहीं । आज हम्मर तऽ कल आन के । मानुख गेल धन पलटावल ।) (कसोमि॰62.20)
1584 माने-मतलब (~ से पुछना) (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।) (कसोमि॰12.15)
1585 माय (= माँ) (टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान । हँसी के हिलोरा ... दुन्नू लहालोट । - करे हे कइसे मायो ... । तितकी के माय भितर से टोकलक ।; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।; बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰45.21; 84.11, 19)
1586 माय-बहिन (~ करना = गरियाना; गाली-गलौज करना) (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.10)
1587 माय-बाउ (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?; बिठला के आँख तर सुरमी नाच गेल रत-रत राता में घोघा देले ई दुआरी लगल । तखने माय-बाउ जित्ते हल ।) (कसोमि॰51.21; 84.9)
1588 माय-बाप (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।) (कसोमि॰12.15)
1589 मायो (~ निरासी) (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।; टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान । हँसी के हिलोरा ... दुन्नू लहालोट । - करे हे कइसे मायो ... । तितकी के माय भितर से टोकलक ।; - ललितवा गेन्हा देलकइ । गाँव भर हहारो भे गेलइ । तितकी बोलल । - से तो ठीके कहऽ हीं । कइसन भे गेलइ मायो । लाजो बात मिललइल ।; जइते के साथ अपन दुखड़ा सुनइलक। तरेंगनी के भी एकर सिकायत सुन के अच्छा लग रहल हल। ऊ हुलस के कहलक, "मायो, हइये हइ एकछित्तर दू भित्तर। ले आवऽ अनाज आउ भुंज लऽ। घटल-बढ़ल गाँव में चलवे करऽ हे।") (कसोमि॰37.21; 45.20; 48.10; 123.21)
1590 मार (~ होना = मारपीट/ लड़ाई-झगड़ा/ तीव्र प्रतियोगिता होना) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू । खा बान्ह-बान्ह लड़ुआ । मुदा एक बात हइ कि ठीकेदरवा के पो बारह । ऊ तऽ बालुए घाट के कमाय से बड़का धनमान बन गेल । अइसइँ एकर ठीका ले मार होवऽ हइ !) (कसोमि॰33.27)
1591 मारा (= अकाल, दुर्भिक्ष) (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !; - बनिहरवा की करऽ हो ? - एकर काम खाली जानवर खिलाना भर हो । खिला-पिला के सोझ । रात-बेरात के जानवर अपने देखऽ पड़ऽ हो । - कहऽ हो नञ् ? - कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ ।) (कसोमि॰61.11; 72.27)
1592 मारामारी (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत । मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।; सितबिया बीचे में टोकलक - अरे बेमनमा । एतना दिना से रहिओ रहले हें आउ उलटे चोरा मारा-मारी । हम किराया के हिसाब करिअउ तब ?) (कसोमि॰36.24; 37.2; 108.25)
1593 माल (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल ।; एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?) (कसोमि॰22.2,3, 6)
1594 माहटर (= मास्टर) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल । ओकरा ई सब करइ में खूब मन लग रहल हल - पिंडा से तऽ बचलूँ ! परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल ।) (कसोमि॰88.11)
1595 मिंझराना (मिंझराल भुस्सा गाय मस्स-मस्स खइतो। उपर से खाली पानी देखावे के काम।) (कसोमि॰120.17)
1596 मिंझाना (= अ॰क्रि॰ बुतना, बुझना; स॰क्रि॰ बुताना; बुझाना) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰43.4; 92.21)
1597 मिचाय (= मिरचाय; मिरची) (एगो चौखुट मिचाय के खेत में दू गो तोड़नी लगल हल । खेत पलौटगर । लाल मिचाय ... हरियर साड़ी पर ललका बुट्टी ।; भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल ।) (कसोमि॰38.12, 13; 51.1)
1598 मिचाय-रस्सुन (~ के रबरब्बी) (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।) (कसोमि॰80.16)
1599 मिट्ठा (= राबा) (मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ । किसिम-किसिम के अदमी अउ तरह-तरह के समान, परैया के मिट्ठा, कस्ठा के गोइठा, दूधवला के अलगे ताव, गठरी-मोटरी, खँचिया से लेके आम-अमरूद सब ... । समय आवे पर मारामारी, लऽ खा लत्तम-मुक्का, लट्ठम-लाठी ।; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।; - ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ ।; - माय ! दुआरी पर खड़ा मुनमा बोलल । - कने गेलहीं हल ? परोरिया देखलहीं हे ? मिंझाल आँच फूँकइत माय पुछलक । - देखहीं ने ! गिआरी के गमछी में आ-सेर लगू के मोटरी आउ अलमुनियाँ के कटोरा में मिट्ठा ।) (कसोमि॰36.27; 84.10; 91.17; 92.24)
1600 मिठकी (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?") (कसोमि॰18.7)
1601 मिठाय (= मिठाई) (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.25)
1602 मिनहा (= सं॰ छूट, बाद; लगान, कर, बकाया आदि में दी जानेवाली छूट या माफी; वि॰ काटकर घटाया हुआ) (- हमरा की जरूरत हे घर के ? तोर घर दखल करइ में हम अपन तरफ से जेतना खरचा कइलूँ हे ओतना ... - हमर खरचा जे लगल हे से तो देमें कि ... - सब ओकरे में मिनहा हो गेलउ । - हमर तोर हिसाब साफ ? - साफ ने तौ ।) (कसोमि॰109.6)
1603 मीरा (कि बात हे ? हे सुरूसबिता मीरा, बचाबो जान ! हूहू हावा ... बरफ के हाही ... देवी के कोप ... चंडी के रंका । चिकनी उठल अउ ठठरी लगा के दीया बुता देलक । आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... ।) (कसोमि॰16.24)
1604 मुँह (~ चमका-चमका के बोलना) (भला ले, कहीं तो रिब्बन के सौख चरचरैलो हल । एते तो यार-दोस्त हलउ, माँग लेतऽ हँल केकरो से, तोरा की ? डिल्ली से ला देतउ हल । अगे, बाढ़ो लाल वला पेन्हला से के ललचइतउ ! तितकी मुँह चमका-चमका के बोल रहल हल जइसे लालती ओकरा सामने हे अउ तितकी ओकरा ओलहन दे रहल हे ।) (कसोमि॰48.14)
1605 मुँहदेखल (~ करना) (पहिला मनिज्जर मुँहदेखल करथुन हल । कते बेरी तऽ हल्ला भेल हे । अइसे सुनइ में ढेर खिस्सा आवऽ हे, मुदा जादे तर मनगढ़ंत ।) (कसोमि॰44.14)
1606 मुँहपोछनी (= रूमाल) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । ... आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल । टपे घरी सुरमी के हाथ से मुँहपोछनी लेबइ ले मुड़ल कि सुरमी ठोर तर मुसक गेल आउ ताकइत रहल बिठला के मुल्लुर-मुल्लुर ।) (कसोमि॰77.27)
1607 मुठली (= मुठरी) (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰120.24)
1608 मुड़ली, मुरली ("अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।" - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।" - "नञ् ने देवो ... फेन मुड़ली बेल तर। ने गुड़ खाम ने कान छेदाम। सो बेरी के बेटखउकी से एक खेर दू टूक। साफ कहना सुखी रहना।") (कसोमि॰123.5)
1609 मुड़ी (= मूड़ी; सिर) (~ गोतना) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।) (कसोमि॰16.6)
1610 मुतना (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.8)
1611 मुदा (= लेकिन) (सोचऽ लगल, "मजाल हल कि गारो बिन खइले सुत जाय ।" चिकनी के जिरह हायकोट के वकील नियर मुदा आज चिकनी के बकार नञ खुलल ।) (कसोमि॰16.23)
1612 मुनना (= मूनना; मूँदना, बंद करना; ढक्कन) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.14)
1613 मुलकात (= मुलाकात) (छोटका टिसन तक गाड़ी चढ़ावे साथ आल । गाड़ी में देरी हल । बहिन के एगो चाह पिलइलक आउ बुतरू लेल कँकड़ी खरीद के दे देलक । बुलकनी माय से मुलकातो नञ् कइलक ... लउट गेल ।) (कसोमि॰118.18)
1614 मुलुर-मुलुर (~ ताकना) (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.8)
1615 मुल्लुर-मुल्लुर (दे॰ मुलुर-मुलुर) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । ... आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल । टपे घरी सुरमी के हाथ से मुँहपोछनी लेबइ ले मुड़ल कि सुरमी ठोर तर मुसक गेल आउ ताकइत रहल बिठला के मुल्लुर-मुल्लुर ।) (कसोमि॰78.1)
1616 मुसहरी (बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।; "डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !") (कसोमि॰79.27; 87.11)
1617 मुहियाना (= की ओर अपना मुँह करना) ('अदंक' के तितकी आउ लाजो तमाम विपरीत परिस्थिति से जूझइत-जूझइत जीयइ के आकांक्षा से ओइसईँ लबरेज हे जइसे पत्थल के तले दबल दूब रौशनी के तरफ मुहियाय के प्रयास करइत रहऽ हे आउ आखिरकार सफल होवऽ हे ।) (कसोमि॰7.2)
1618 मूड़ी (= सिर) (चिकनी गारो के मूड़ी पकड़ के हिलइलक तऽ ओकर मूड़ी काठ ! गारो कम्मल के सपना देखइत कनकन भे गेल हल ... सोरा ।; किसान टोकलक - कलउआ अर नञ् हउ ? - अइसइँ चल अइलिअइ किसान ... जइबइ तऽ खइबइ । - हले ले, कुछ खा ले । सुकरी मूड़ी गोतले बोलल - नञ् भइया, रहऽ दऽ !; तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।) (कसोमि॰18.9, 10; 39.24; 103.3)
1619 मूढ़ी (= फरही, फड़ही) (बुलकनी कहलक, "हे छोटकी, चउरा बेचवा दीहोक....छो किलो हो।" छोटकी गियारी घुमा के बुलकनी के देखलक आउ मुसक गेल। - "थाली मोड़ पर झिल्ली किना दिहोक.....मूढ़ी साथे हइ।" मुसकइत बुलकनी छोटकी के समदलक।) (कसोमि॰126.2)
1620 मूतना (= मुतना; पेशाब करना) (एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ?) (कसोमि॰29.22)
1621 मूनना (= मूँदना, बन्द करना) (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।) (कसोमि॰60.11)
1622 मूर (= मूलधन) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत । - मूरे पलटे, साव नितराय ! ओइसने हे ईमसाल के खेती ।) (कसोमि॰61.16, 17)
1623 मेंहीं-मेंहीं (= महीन-महीन, छोटा-छोटा) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰78.8)
1624 मेर (= मेल, मिलाप, मिलन; संयोग; तरह, प्रकार; कई वस्तुओं को मिलाकर बनी एक इकाई) (पैसा देखते मेर मिला के दऽब जीन सब समान भे गेल । पोसाक काशीचक के संगम टेलर में सीअइ ले दे देलक ।) (कसोमि॰55.1)
1625 मेलान (~ खोलना) (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।) (कसोमि॰111.14)
1626 मेहरारू (= पत्नी; स्त्री, औरत) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।) (कसोमि॰14.23)
1627 मैटरिक (= मैटिक; मैट्रिक) (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।) (कसोमि॰70.27)
1628 मैया-बाउ (= मइया-बाउ; माता-पिता) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय । - नञ् भौजी, हम सोचऽ ही कि पहिले कुछ कमा लेउँ । घर के हाल कि तोरा से छिपल हे, मुदा लगऽ हइ जैसे कि मैया-बाउ ले हम भारी हिअइ । बस कर दे विदा ।) (कसोमि॰66.25)
1629 मैल-कुचैल (बिछौना बिछ गेल । मैल-कुचैल तोसक पर रंग उड़ल चद्दर । ओइसने तकिया आउ तहाल , तेल पीअल रजाय जेकर रुइया जगह-जगह से टूट के गुलठिया गेल हे ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।) (कसोमि॰69.24; 73.23)
1630 मोंछकबरा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.22)
1631 मोंछमुत्ता (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.25)
1632 मोछ (= मूँछ) (पींड पर हरगौरी बाबू मिल गेलन । - कहाँ से सरपंच साहेब ? मोछ टोबइत हरगौरी बोलला । उनका साथ तीन-चार गो लगुआ-भगुआ हल ।) (कसोमि॰55.4)
1633 मोछकबरा (= मोंछकबरा) (एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।) (कसोमि॰85.8)
1634 मोटकी (= मोटी) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰78.9)
1635 मोट-घाँट (= मोट-घोंट) (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।) (कसोमि॰89.1)
1636 मोटरी (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?"; मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।; अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।) (कसोमि॰13.13; 55.9, 10; 84.27)
1637 मोरहर (= एक नदी का नाम) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।; ओकरा इयाद पड़ल - मोरहर में कभी-कभार दहल-भसल लकड़ी भी आ जाहे । सुकरी एक तुरी एकरे से एगो बकरी छानलक हल ।; एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल । साड़ी के अँचरा से लदफदाल सुकरी बकरी खींचले बाहर भेल । ऊ अपन अंचरे से सेसपंज हल, नञ् तऽ कत्ते तुरी मोरहर पार कइलक हे धाध में ।) (कसोमि॰33.22; 33.1, 19)
1638 मोसाफिरखाना (= मुसाफिरखाना) (काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला । मोसाफिरखाना से बाहर भेला तऽ बजार सुत्तल । लछमी जी के मंदिर बजार भर के अंगना । छूटल-बढ़ल राही-मोसाफिर ओकरे में रात गमावे ।) (कसोमि॰28.15)
1639 मोहाल (= दुर्लभ, कठिन, कम मात्रा में मिलनेवाला; असंभव, अप्राप्य) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।; कहइ के तऽ सत्तू-फत्तू कोय खाय के चीज हे। ई तऽ बनिहार के भोजन हे। बड़-बड़ुआ एन्ने परकलन हे। अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल।) (कसोमि॰80.3; 120.23)
1640 मौगी (= पत्नी, स्त्री) (बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् । हाथ पर हाथ धइले बैठल रहऽ हइ । मौगिओ के जेवर खेत कीनइ में बिक गेलइ ।) (कसोमि॰58.17)
1641 मौलना (= कुम्हलाना; मुरझाना; सूखकर पका-सा होना; आँख झपकना; उदास होना) (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।) (कसोमि॰58.21)
1642 रंका (चंडी के ~) (कि बात हे ? हे सुरूसबिता मीरा, बचाबो जान ! हूहू हावा ... बरफ के हाही ... देवी के कोप ... चंडी के रंका । चिकनी उठल अउ ठठरी लगा के दीया बुता देलक । आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... ।) (कसोमि॰16.25)
1643 रंगन-रंगन (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ? पितरपछ में तऽ दुनिया भर के आदमी ... रंगन-रंगन के ... देस-विदेस के ... गिटिर-पिटिर गलबात ... पंडा के चलती ।; सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।; अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल, जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।) (कसोमि॰35.7; 92.11; 120.15)
1644 रउदा (= धूप) (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?"; बुलकनी तीसी के तेल पेड़ा के लइलक हल। एक किलो के तेल के डिब्बा ओसरा पर रख के गाय के पानी देखावइ ले गोंड़ी पर चल गेल हल। रउदा में गाय-बछिया हँफ रहल हल। पानी पिला के आल तऽ देखऽ हे कि छोटकी के तीन साल के छउँड़ी तेल के डिब्बा से खेल रहल हे।) (कसोमि॰18.9; 122.12)
1645 रग-रग (= अंग-अंग) (मास्टर साहब वारसलीगंज के धनबिगहा प्राथमिक विद्यालय में पढ़ावऽ हथ । रोज रेलगाड़ी से आवऽ जा हथ । खाना घरे से ले ले हथ । दिन भर के थकल रग-रग टूटऽ हे । अइते के साथ धोती-कुरता खोल के लुंगी बदल ले हथ आउ दुआरी पर खटिया-बिछौना बिछा के आधा घंटा सुस्ता हथ ।) (कसोमि॰98.7)
1646 रज-गज (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।; पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰33.11; 61.2)
1647 रजधानी (= राजधानी) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।) (कसोमि॰36.9)
1648 रजनेति (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !) (कसोमि॰61.3)
1649 रजाय (= रजाई) (बिछौना बिछ गेल । मैल-कुचैल तोसक पर रंग उड़ल चद्दर । ओइसने तकिया आउ तहाल , तेल पीअल रजाय जेकर रुइया जगह-जगह से टूट के गुलठिया गेल हे ।) (कसोमि॰69.25)
1650 रतका (= रात वाला) (लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।) (कसोमि॰47.6)
1651 रत-रत (लाल ~) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल ।; बिठला के आँख तर सुरमी नाच गेल रत-रत राता में घोघा देले ई दुआरी लगल । तखने माय-बाउ जित्ते हल ।) (कसोमि॰77.26; 84.8)
1652 रतवाही (कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन । हमरो गोस्सा आ गेलो । ई सब खोंट के लड़ाय लेना हल । हम भी उकट के धर देलियन । चराबे के चरैबे करे, रात भर रतवाही । बोझा के कबाड़े वला भी धरमराजे बनइ ले चलला हे ।) (कसोमि॰111.23)
1653 रपटना (फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल । लाजो नल्ली पर से रपटल आके ओढ़ना में घुकुर गेल । ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल ।; "पेटीवला फरउक निकालिअउ माय।" - "ओहे पेन्ह के जइमहीं?" / रनियाँ गुम भे गेल। ऊ माय के आँख पढ़ऽ लगल। - "मन हउ तऽ निकाल ले।" रनियाँ भित्तर दने रपटल।) (कसोमि॰46.26; 125.3)
1654 रपरपाना (हाय रे गारो के भाग ! ओकरा लगल जइसे बड़ा साहेब अपन हाथ से कम्मल दे रहला हे । गारो झपट के लेलक अउ रपरपाल घर दने सोझिया गेल हे । रह-रह के कम्मल पर हाथ फेरऽ हे ... देखऽ हे । उघारलक हे ... नापलक हे ... अरजगर हे ... ओह, हाय रे हाय !; तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।; गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल ।; बुलकनी रपरपाल घर आके रनियाँ के माथा पर अनाज के टोकरी धइलक आउ कहलक, "तारो घर चल, हम जरामन लेके आवऽ हिअउ।") (कसोमि॰17.27; 37.13; 42.5; 123.24)
1655 रबरब्बी (मिचाय-रस्सुन के ~) (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।) (कसोमि॰80.16)
1656 रसगर (उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन !) (कसोमि॰101.5)
1657 रस-रस (= रसे-रसे; धीरे-धीरे) (रस-रस उनकर घर के आगू भीड़ जमा हो गेल । सब देख रहलन हल । ऊ छत पर नाच-नाच के 'हाल-हाल' कर रहला हे । सब के मुँह से एक्के बात - पगला गेलथिन, इनका काँके पहुँचा देहुन ।; उनकर मेहरारू छत पर चढ़के थोड़े देरी समझइ के कोरसिस कइलन आउ रस-रस नजीक जाके हाथ पकड़ के पुछलकी - तोहरा की हो गेलो ? पागल नियन काहे ले कर रहलहो हे ?) (कसोमि॰27.5; 29.12)
1658 रसलिल्ला (= रसलीला; रासलीला) (गाँव में दुर्गा जी बनऽ हथ । यहाँ कल होके मेला लगत । विजयदसमी रोज हर साल नाटक होवऽ हे । पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे ।) (कसोमि॰52.17)
1659 रसिया (= ईख के रस या गुड़ में बनाई हुई खीर) (- अरे, अदरा पनरह दिन चलऽ हइ बेटा ! - पनरह दिन अदरा हमरो घर चलतइ ? - अदरा एक दिन बनाके खाल जा हइ । - की की बनइमहीं ? - खीर, पूरी, रसिया, अलूदम ! - लखेसरा घर तऽ कचौड़ी बनले हे । ओकर बाऊ ढेर सन आम लैलथिन हे । ई साल एक्को दिन आम चखैलहीं माय ?; याद पड़ल - बेटिया गूँड़ दिया कहलक हल । गूँड़ तऽ गामो में मिल जात ... चाउर ले लेम । दू मुट्ठी दे देम, रसिया तैयार, ऊपर से दू गो मड़वा । बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही ।) (कसोमि॰32.17; 37.18)
1660 रसोय (= रसोई) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा ।) (कसोमि॰28.10)
1661 रस्ता (= रास्ता) (किसुन के याद पड़ल - तहिया बथान के रस्ता पर खड़ा सोच रहल हल - कोय तऽ टोके । नञ् कुछ सूझल तऽ नीम पर चढ़ के दतमन तोड़ऽ लगल ।; पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल । गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता ।) (कसोमि॰21.11; 63.19, 20)
1662 रस्सुन (= लहसुन) (आ सेर लगि गरई चुन के बिठला नीम तर चल गेल आउ सुक्खल घास लहरा के मछली झौंसऽ लगल - "गरई के चोखा ... रस्सुन ... मिचाय आउ घुन्नी भर करुआ तेल । ... उड़ चलतइ !"; मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰77.11; 78.8)
1663 रस्सुन-पियाज (= लहसुन-प्याज) (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰58.2)
1664 रहल-सहल (= बचा-खुचा) (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।) (कसोमि॰78.26)
1665 रहस (= रहस्य) (- बाबा पटना गया था तो मम्मी क्या बोलती थी ? जूली एगो रहस के बात बोलल । - चुप्प ! गौरव अपन होठ पर अंगुरी रख के आँख चीरले डाँटलक ।; ओकरा बात में कुछ रहस लगल, से से पुछलक - की कहऽ हलउ तोर मम्मी ? तोर मम्मी हम्मर बाबा के पटनमा में की कहऽ हलउ ?) (कसोमि॰70.17, 22)
1666 राँड़ी-मुरली (घरहेली भेल, खूब धूमधाम से । गाँव भर नेउतलन हल । भला, ले, कहीं तो, घरहेली में के नञ् खइलक ? राँड़ी-मुरली सब के घर मिठाय भेजलन हल बिहान होके । पुजवा नञ् भेलइ तऽ की ? पुजवो में तऽ नञ् अदमियें खा हइ । से की देवतवा आवऽ हइ खाय ले ।) (कसोमि॰30.10)
1667 राज (= राज्य) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।) (कसोमि॰36.9)
1668 रात-बेरात (- बनिहरवा की करऽ हो ? - एकर काम खाली जानवर खिलाना भर हो । खिला-पिला के सोझ । रात-बेरात के जानवर अपने देखऽ पड़ऽ हो । - कहऽ हो नञ् ? - कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान !; ऊ फेर दारू के घूँट भरलक अउ धुइयाँ उड़ावऽ लगल । ऊ धुइयाँ के धुँधलका में हेरा गेल आउ तेसर रात झकझका गेल । / तेसर रात - / "कहऽ हइ कि हरिजनमन खाली अपन मउगी के मारऽ हइ बकि, ... भागल जा हलन कुलमंती । रात-बेरात के घर से निकलल जन्नी के कउन ठेकान ! लटफरेम पर महाभारत भेलन ! अपन मरदाना के हाथ से पिटइली आउ तमाशा बनली ।") (कसोमि॰72.23; 84.5)
1669 राता (= विवाह के अवसर पर वर पक्ष की ओर से दी जाने वाली गाढ़े लाल रंग की साड़ी, बिअहुती साड़ी) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।; समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।; पोखन के लगल जइसे मुनियाँ के निभा लेलक हे । मुनियाँ लाल राता में डोली चढ़ के चल गेल हे ।) (कसोमि॰52.14; 59.10; 62.13)
1670 रान्हना (= पकाना) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।) (कसोमि॰14.26)
1671 राय (जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।) (कसोमि॰23.25)
1672 रावा (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; तहिया तीन दिना पर हिंछा भर खइलक हल किसना । दूध-लिट्टी रावा । छक के सोवो आदमी के भोज । कठौती पर कठौती । छप्-छप् दूध । लुल्हुआ डूब जाय - सड़ाक् ... सपाक् ... सपाक् ... सपाक् ।) (कसोमि॰20.25; 22.24)
1673 रावा-रत्ती (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत ।) (कसोमि॰61.15)
1674 रुइया (गारो सोचलक, जुआनी में कहियो बोरसी तापऽ हलूँ ? एक्के गमछी में जाड़ा पार ! एकरा कीऽ ... पोवार अउ ... । ओकर धेयान चिकनी दने चल गेल। ओकरा चिकनी छिकनी नञ, जुआनी के चिकनी लगल । हुँह ... रुइए ने दुइए ।) (कसोमि॰15.27)
1675 रुतरुत (= रतरत) (लाल ~) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।) (कसोमि॰52.13)
1676 रुन्हन (= बाधा) (असमान में सुरूज-बादर के खेल चल रहल हल । सामने वला पीपर पेड़ से एगो बगुला उड़ल । क्यूल दने से डीजल आ रहल हल ... अजगर । तितकी बुदबुदाल - छौंड़ापुत्ता गड़िया लेट करतइ ... रुन्हन ।) (कसोमि॰51.7)
1677 रेकना (किसुन उसार के लिट्टी-दूध खाके चलल हल कि महुआ तर रेकनी भेंट गेल । ओकरा तऽ रेके के आदते हल । से रोक के पुछलक - कि चललउ टूरा ?; रेकनी रेकऽ लगल - कोढ़िया, भंगलहवा आउ माय-बाप के उकटइल किसना के मौत के भविस तक बाँच देलक - पिल्लू पड़तउ । किसुन ठक् ।) (कसोमि॰24.13, 17)
1678 रेघारी (मुनियाँ सोचले जा रहल हल । ओकर ठोर पर मीठ मुस्कान के रेघारी देखाय पड़ल आउ कान लाल भे गेल । दिन रहत हल तऽ कोय भी बुझ जात हल । ओकरा रात आउ अन्हरिया काम देलक ।) (कसोमि॰65.10)
1679 रेजा (= राजमिस्त्री के साथ कमानेवाला, मजदूर; छोटा खंड या टुकड़ा) (ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल । कते तुरी ऊ भनसा में सुरमी के साथ देलक हे । रेजा के काम लेल ऊ काशीचक बजार चल जा हल तऽ ई अपनइँ रोटी सेंक ले हल । मोटकी रोटी के कड़र आँटा लिट्टी के तऽ अंगुरी नञ् धँसे ।) (कसोमि॰78.11)
1680 रेलवी (= रेलवे) (तीन रुपइया तऽ भेल बकि एतने में अदरा भेत ? काहे नञ् गया चली । खरखुरा में जो काम मिले । आजकल हुआँ सब्जी आउ मिरचाय तोड़इ के काम मिल जा हइ । दिन भर तोड़ऽ, साँझ के हाथ पर पइसा । गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।) (कसोमि॰37.13)
1681 रैली-रैला (गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰35.9)
1682 रोकसदी (= रोसकद्दी; रुखसत) (आउ अंत में ऊ दिन भी आ गेल, जहिया पहुना अइता, लाजो के पहुना, गाँव के पहुना । ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन ।) (कसोमि॰55.20, 21)
1683 रोगिआह (हुक्कल आउ बानो दू भाय हल । हुक्कल बड़ आउ बानो छोट । बड़ भाय सब दिन के रोगिआह हल, से से बानो घर के कहतो-महतो हल ।) (कसोमि॰114.2)
1684 रोट (आरती में तो औसो के साथ दे । आरती के बाद बस, रहे न संकट, रहे न भय, पाँच रोट की जय । किसना सात बोल दे । भजनकी ठठा के हँस दे । एगो ओकरा फाजिल ।) (कसोमि॰23.7)
1685 रोटियानी (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक।) (कसोमि॰123.27)
1686 रोटियानी-सतुआनी (खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰117.2)
1687 रोवाय (= रुदन) (हितेसरा उठल आउ फुफ्फा के माथा पर पगड़ी रख के फूट-फूट के कानऽ लगल । फुफ्फा के अइसन रोवाय छूटल कि हपट के हितेसरा के देह से लगा लेलका ।) (कसोमि॰115.24)
1688 रौदा (= रउदा; धूप) (एक दिन लाजो तितकी घर गहूम पीसइ ले गेल हल । एने ढेर दिन से जुतकुट्टा नञ् आल हल । दोसरे घर से काम चल रहल हल । माघ के महीना हल । तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।; रौदा उग गेल हल । फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल ।; सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।) (कसोमि॰44.10; 46.19; 47.8; 63.13; 92.10)
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