कसोमि॰ = "कनकन
सोरा"
(मगही कहानी संग्रह), कहानीकार – श्री मिथिलेश; प्रकाशक - जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना: 800 006; प्रथम संस्करण - 2011 ई॰; 126
पृष्ठ । मूल्य –
225/- रुपये ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या
- 1963
ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।
क्रम
सं॰
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विषय-सूची
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पृष्ठ
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0.
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कथाकार
मिथिलेश - प्रेमचंद आउ रेणु के विलक्षण उत्तराधिकारी
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5-8
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0.
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अनुक्रम
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9-9
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1.
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कनकन
सोरा
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11-18
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2.
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टूरा
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19-25
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3.
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हाल-हाल
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26-31
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4.
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अदरा
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32-43
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5.
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अदंक
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44-56
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6.
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सपना
लेले शांत
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57-60
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7.
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संकल्प
के बोल
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61-67
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8.
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कान-कनइठी
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68-75
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9.
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डोम
तऽ डोमे सही
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76-87
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10.
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छोट-बड़
धान, बरोबर धान
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88-97
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11.
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अन्हार
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98-104
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12.
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बमेसरा
के करेजा
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105-109
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13.
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निमुहा
धन
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110-113
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14.
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पगड़बंधा
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114-116
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15.
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दरकल
खपरी
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117-126
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ठेठ मगही शब्द ("न" से "ब" तक):
1061 नइका (= नयका; नया) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰93.17)
1062 नइहरा (= नैहर) (बुलकनी के नइहरा - हुसेना में चार बीघा के खेती हल । माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे ।) (कसोमि॰117.9)
1063 नकपाँचे (= नागपंचमी) (नकपाँचे के दिन सितबिया सोचलक - एक किलो मांस बमेसरे से ले लेम । साल भर के परब, के जानलक हे । से ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे ।) (कसोमि॰107.25)
1064 नगीच (= नजदीक) (ई फिल्म के सूटिंग घड़ी एकाध बरस तक सत्यजित राय के कार्य-पद्धति के अनके-परखे के क्रम में उनका एकदम नगीच से देखे के विलक्षण अवसर हमरो मिलल हल ।; बाहर से पुरवइया के झोंका पीठ के हड्डी तड़का देलक । चिकनी बोरसी के नगीच घसक के अलुआ निकालऽ लगल ।) (कसोमि॰5.20; 16.18)
1065 नघेत (पगली, देखऽ हीं नञ्, हमरा चारियो पट्टी से खोंटा-पीपरी आउ मधुमक्खी काट रहलइ हे । तों खड़ी-खड़ी देखऽ हें, झाड़ आउ देख ओन्ने - नघेतवा में कौआ मकइया खा रहलउ हे । उड़ाव ... हाल-हाल, हाल ... ।) (कसोमि॰29.16)
1066 नजकिआना (= नजदीक आना) (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।) (कसोमि॰54.13)
1067 नजरचढ़ू (एकर मरद दिल्लीवला चुनाव में मारल गेल हल। नया-नया लाल झंडा उठइलक हल। बड़कन के नजरचढू भे गेल हल। भोट देके निकल रहल हल कि बूथ लुटेरवन छेंक लेलक। गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आउ ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल।) (कसोमि॰121.21)
1068 नजीक (= नगीच; नजदीक) (उनकर मेहरारू छत पर चढ़के थोड़े देरी समझइ के कोरसिस कइलन आउ रस-रस नजीक जाके हाथ पकड़ के पुछलकी - तोहरा की हो गेलो ? पागल नियन काहे ले कर रहलहो हे ?; याड में एगो मालगाड़ी खड़ा हल जेकरा पर ढेर सनी भैस लदल हल । एक जगह दूध नपा रहल हल । ओकर कान खड़कल - सस्ता भेत । सुकरी नजीक पहुँच गेल । कहलक - एक किलो हमरो दे दऽ ।) (कसोमि॰29.12; 40.9)
1069 नदारथ (= नदारत) (बाते-बात बमेसरा कहलक - देख, अब अइसे नञ् चलतउ । देख रहलहीं हे कचहरी के ओर-बोर ! ई तरह से तऽ तोरा घर भेलउ से कुछ बाकी । तों जन्नी जात । एकरा ले करेजा के साथे-साथ धिरजा चाही । तोरा में ई दुन्नू नदारथ हउ । हम एक राय दिअउ ?) (कसोमि॰106.23)
1070 नद्दी (= नदी) (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; " ... पागल नञ् होथिन तऽ आउ की, अजोधा जी के बड़ी छौनी के महंथ बनथिन ।" गाँव के चालो पंडित बोल के कान पर जनेउआ चढ़ावइत चल देलन नद्दी किछार ।; मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।) (कसोमि॰20.24; 29.10; 33.23, 24)
1071 ननदोसी (= ननदोई; ननद का पति) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय ।) (कसोमि॰66.23)
1072 ननमा (= नाना+'आ' प्रत्यय+ मकार आगम) (समली साल भर से बीमार हल । परसाल जखने धरवे कइलक हल, ननमा पटना में देखा देलकइ । बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् ।) (कसोमि॰58.15)
1073 नयका (= नइका, नाया; नया) ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !"; नयका छारल ओसरा पर फेन खटिया बिछ गेल । माय साँझ-बत्ती देके मोखा पर दीया रख के अंदर चल गेल ।) (कसोमि॰87.12; 95.1)
1074 नयकी (= नइकी; नई) ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !") (कसोमि॰87.12)
1075 नल्ली (= नाली) (फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल । लाजो नल्ली पर से रपटल आके ओढ़ना में घुकुर गेल । ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल ।; बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे । कापो सिंह के केबाड़ खुलल । डेउढ़ी में दारू के बोतल आधा खाली कर देहे आउ फुसफुसा के बोलऽ हे - "बाँसा अर दे दऽ आउ जा के सुत्तऽ । अब हम रही कि बजार के नल्ली । जे होतइ, देख लेबइ । सब तऽ गेनरा ओढ़ के घी पीअ हइ कापो बाबू ।"; "कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !") (कसोमि॰46.26; 82.9; 87.3)
1076 नसपिट्टा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.23)
1077 नहाना-सोनाना (पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल ।; माय नहा-सोना के सीरा-पिंडा कइलकी आउ मुनियाँ के गोड़ लगा देलकी ।) (कसोमि॰63.18; 64.4)
1078 नाता-कुटुम (- तेलो तो झरल हइ ... देखऽ हिओ । - एक्को महीना तो नञ् ने पूरऽ हो ? - एन्ने नाता-कुटुम में जास्ती उठ गेलइ । - नाता-कुटुम कि तोरा नञ् जानऽ हथ, जे झाँपइ ले छनउआ खिलावऽ हो ।) (कसोमि॰99.3, 4)
1079 नाद (= नाँद) (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.3)
1080 नाना (= घुसाना, डालना) (एगो बीड़ी सुलगा के तनी देह सोझ करऽ लगल । बुताल बीड़ी कान पर खोंसइत उठल आउ गमछी में लिट्टी रख के झोलऽ लगल । धूरी झड़ गेल तऽ दू लिट्टी फोड़ के दूध में ना देलक आउ दू गो झोला में रख लेलक ।; चाह पीके गिलास बेंच तरे रखइत पइसा निकालऽ लगल तऽ तानो ओकर जेभी में नाल हाथ दाबइत बोलल - पइसा हम देबइ । रहऽ दऽ ।) (कसोमि॰20.19; 112.3)
1081 नान्ह (= नन्हा, बहुत छोटा) (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।"; पुटुआ रानी के मुँह में अपन नान्ह हाथ से अपना दने घुमावइत बोलल, "हमला एदो दहाज किना दिहें दीदी....सुईंऽऽऽ।" बुलकनी के लगल जइसे ऊ सौंसे परिवार के साथ ओहे जहाज पर उड़ल मेला देखे जा रहल हे।) (कसोमि॰123.17; 126.4)
1082 नारंदी (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।) (कसोमि॰23.5)
1083 नारा-फुदना (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ?; माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰35.5, 10)
1084 निकसना (= निकलना) ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !") (कसोमि॰87.10)
1085 निक-सुख (दे॰ नीक-सुख) (बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।) (कसोमि॰115.8)
1086 निकौनी (बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।; ओकरा याद आल - सुरमी के हिस्सा तऽ बेकारे बनइलूँ । दिन भर निकौनी । बेचारी कोल्हू के बैल नियन जुतल हे । बाप-घर से जे भी दू खंडा लइलक हल, खा-पी गेल ।) (कसोमि॰80.1, 10)
1087 निखालिस (मिथिलेश जी जे कथ्य चुनऽ हथ, उनखर जे पात्र हइ - ऊ सब एकदम निखालिस मगहिया समाज के हाशिया पर खड़ा, अप्पन जीवन जीये के जद्दोजेहद में आकंठ डूबल लोग-बाग हे ।) (कसोमि॰5.6)
1088 निचिंत (= निश्चिन्त; दे॰ निचित) (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक। राह कलउआ लेल ठेकुआ अलग से छान देलक। निचिंत भेल तऽ धेयान तितकी दने चल गेल। अभी तक नञ् आल हे। ई छौंड़ी के मथवा जरूर खराब भे गेले हे।) (कसोमि॰124.1)
1089 निचित (= निश्चिन्त) (रात भर सुतम निचित ।) (कसोमि॰81.9)
1090 नितराना (= इतराना) (- दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत । - मूरे पलटे, साव नितराय ! ओइसने हे ईमसाल के खेती ।) (कसोमि॰61.17)
1091 नितराना-छितराना (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.26)
1092 निमर (= निम्मर, निर्बल) (अब सुनहो टकैतवा के खिस्सा । एकर बगल में पोखना के घर हल । पोखना बेचारा के जानबे करऽ हो । गाँव भर बसइलक पौनियाँ बूझ के । एक घर कुम्हार, गाँव के पतरखन । निमर बूझ के दू डेग ओकरो दने दाबइ ले चाहइ ।) (कसोमि॰112.21)
1093 निमुँहा (पान के खिल्ली के खिल्ली मुँह में दाबइत मौली उठ गेल हल अउ खिस्सा खतम कइलक - बाकि सुन लऽ, छकड़जीहा एकर अहसान मानतो ? माने चाहे मत माने, हम ओकरा थोड़े, निमुँहा के बचबइ ले चल गेलिअइ !) (कसोमि॰113.8)
1094 निम्मक (= नमक) (भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल ।) (कसोमि॰51.1)
1095 निम्मक-पियाज (- अमलेटवा खाहीं ने । ... - तोरा बनबइ ले आवऽ हउ ? - अंडवा मँगाहीं ने, बना देबउ । एकरा बनाबइ में कि मेहनत हइ । फोड़ के निम्मक-पियाज मिलइलें आउ भुटनी सन तेल दे के ताय पर ढार देलें, छन कइलकउ आउ तैयार ।) (कसोमि॰57.16)
1096 निम्मक-मिचाय ("बरतन अर पर धेयान रखिहें। देख, एगो थरिया, एगो लोटा, एगो गिलास आउ पलास्टिक के मग रख दे हिअउ। निम्मक-मिचाय, अमउरी आउ चिन्नी भी दे देलिअउ हे।" थइला के चेन लगवइत माय बोलल।) (कसोमि॰125.5)
1097 निम्मक-मिरचाय (अलमुनियाँ के थारी में मकइ के रोटी आउ परोर के चटनी । - तनि निम्मक-मिरचाय दीहें । कौर तोड़इत बासो बोलल । मुनमा चटनी में बोर के पहिल कौर मुँह में देलक - हरहर तीत ! कान रगड़इत कौर निंगललक आउ घटघटा के पानी पीअ लगल ।) (कसोमि॰94.3)
1098 नियन (= नियर; समान, जैसा) ("गारो मर गेल चिक्को । ई तऽ बुढ़वा हे, माउग के भीख खाय वला । तों ठीक कहऽ हें चिक्को । कल से हमहूँ माँगवउ । .." ऊ कथरी पर घुकुर गेल ... मोटरी नियन । चिकनी बिदकल, "तों काहे भीख माँगमें, हम कि मर गेलिअउ ?"; चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे ।) (कसोमि॰15.17; 16.13)
1099 निरघिन (~ करना = गरियाना, बुरा-भला कहना) (छँउड़न सब के तऽ टेलिफोन लगल रहऽ हइ । जइसहीं बजार हेललियो कि सहेर भर "आछीः आछीः" कइले लंगो-तंगो कर देतो । मन जर जइतो तऽ निरघिन करऽ लगवो । ढेलो फेकवो ... तइयो कि भागतो ? बिना गरिअइले हमरो करेजा नञ ठंढइतो ।) (कसोमि॰13.2)
1100 निरासी (मायो ~) (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।; अगे चुप ने रहीं निरासी, कुमरठिलियन । अतरी फुआ हँकड़ली ।) (कसोमि॰37.21; 53.2)
1101 निरेठ (= निरैठा; जो उच्छिष्ट न हो) (दुन्नू के मेहरारू गाँव में हवेली कमा हल । होवे ई कि अपन-अपन हवेली से लावल खायक अपने-अपने बाल-बच्चा के खिलावे । बुतरू तऽ बुतरुए होवऽ हे, भे गेल आगू में खड़ा । निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय ।) (कसोमि॰105.9)
1102 निसइनी (= बाँस की बनी सीढ़ी) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।) (कसोमि॰88.3)
1103 निसबद (गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल । दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल ।; काशीचक टीसन के लटफरेम ... सिरमिट के बेंच । बिठला दुचित करवट बदल रहल हे - बजार निसबद भेल कि नञ् ।) (कसोमि॰42.7; 81.13)
1104 निसैनी (= निसइनी, बाँस की बनी सीढ़ी) (मुनमा-माय खाय बना के पथिया उठवऽ लगल । मुनमा के हाथ पर पहिल पथिया । - सँभल के बेटा, निसैनी कमजोर हउ । - कुछ नञ्, तों देखते तऽ रहीं । / बासो माथा पर से पथिया लेके चाँच पर खपड़ा उझललक आउ लउटा के नेवारी सरिआवऽ लगल । अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ ।) (कसोमि॰93.20)
1105 निस्तरना (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल । अभी एक्को टप्पा गलबात नञ् निस्तरल कि परैया के रस्ता निस्तर गेल । पुरबी मोरहर के पुल पर गाड़ी चढ़ल नञ् कि दुन्नू समान लेके दरवाजा पर आ गेल ।; बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने । बिठला के मन तीत भे गेल । ऊ मुँह में चोखा लेलक अउ कस के एक घूँट पी के ऊपर ताकऽ लगल । रस-रस डेढ़ रोटी निस्तर गेल हल ।) (कसोमि॰42.1, 2; 84.24)
1106 निस्तारना (लाजो के पहिल झिक्का जाँता में ... घर्र ... घर्र । तितकी भी चरखा-लटेरन समेट के लाजो साथ जाँता में लग गेल । दू संघाती । जाँता घिरनी नियन नाचऽ लगल । जाँता के मूठ पर दू पंजा - सामर-गोर, फूल नियन । लाल-हरियर चूड़ी, चूड़ी के खन् ... खन् ... । लाजो निसतार के आँटा उठइलक आउ चले घरी तितकी के कान में कहलक - अब कल अइबउ ।) (कसोमि॰46.4)
1107 निहचिंत (= निश्चिंत, बिना कोई चिन्ता के, बेखबर) (सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो !) (कसोमि॰106.12)
1108 निहचिंतता (ओकरा पर निहचिंतता के थकान चढ़ आल हे । ऊ उठल आउ बोरसी उकट के खटिया तर देलक, कम्बल तान के लोघड़ गेल । नीचे-ऊपर के गरमी मिलल कि गोड़ टाँठ करके करवट बदललक ।) (कसोमि॰62.13)
1109 निहचे (= निश्चय) (एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ । हितेसरा के कुछ नञ् सूझ रहल हल कि केक्कर माथा पर पगड़ी रखे के चाही । ओकरा अपन चाचा के देख के माथा सन्न-सन्न करे लगल । ऊ सोंचलक कि गाय के खूँड़ी पर रखम तऽ रखम बकि चाचा के माथा पर नञ् । एतने में ओकर नजर फुफ्फा पर चल गेल । ऊ निहचे कइलक । ईहे ठीक ।) (कसोमि॰115.22)
1110 निहुरना (= आगे की ओर झुकना) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।"; रोज तऽ दिसा-फरागत लेल पींड दने जा हलूँ, मुदा आज कने से तो टीवेल दने निकल गेलूँ । भगवान के माया, संजोग देखहीं ... कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल ।) (कसोमि॰11.1; 12.13)
1111 नीक-सुख (= नीके-सुखे) (टोला-पड़ोस के दाय-माय दिन भर आवइत-जाइत रहली - नीक-सुख सुगनी के निभ जाय । घर-वर संजोग हइ दइया !) (कसोमि॰64.1)
1112 नीन (= नींद) (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही । बीच-बीच में मुँह निकाले पड़तो । खुरखुरी से हाली-हाली नीन टूट जइतो ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।) (कसोमि॰17.21; 47.6)
1113 नीसा (= नशा) (लोटा उठा के एक घूँट पानी लेलक आउ चुभला के घोंट गेल ... घुट्ट । ऊ फेनो एगो बीड़ी सुलगइलक आउ कस पर कस सुट्टा मारऽ लगल । भित्तर धुइयाँ से भर गेल । नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन ।) (कसोमि॰81.3)
1114 नुकना (पहाड़ पर मंदिर के बगल में सक्खिन आउ सक्खि के बीच में लाजो के पहुना लजाल, मुसकइत, लाजो के कनखी से देखइत । लाजो उठ के भाग गेल हल, नुक गेल हल मनिहारी भिजुन भीड़ में ।) (कसोमि॰49.13)
1115 नुकाना (= छिपाना) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।) (कसोमि॰11.4)
1116 नुनु (- गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।; बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल । रस-रस सब जिनगी के गाड़ी पटरी पर आल तऽ एक दिन छोटका भतीजवा से बोलल - रे नुनु, तहूँ परिवारिक हें, घर सकेत । कनउँ देखहीं ने जमीन । झोपड़ियो देके गुजर कर लेम ।; कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक । ठिसुआल बुलकनी भाय दने मुँह करके बोलल, "अरे नुनु, तों तो समझदार हें । तोरा ई सब नञ् करइ के चाही । बेचारी माय-बाप छोड़ के तोर दुआरी अइलउ तऽ तोरे पर ने । अब एकरा जइसे निबाहीं । तोर गोस्से बड़ी भारी हउ ।"; छउँड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।) (कसोमि॰45.25; 106.8; 118.9; 125.11)
1117 नून (= नमक) (जइसन जिनगी उनखा सबके नसीब भेल, ओही जिनगी के साथ ऊ सब पात्र जोंक जइसन चिपकल रहऽ हथन । परिस्थिति नून जइसन ई सब जोंकवन पर पड़ऽ हइ त ऊ सब खूने-खून होके बिलबिलाय लगऽ हथ ।) (कसोमि॰6.12)
1118 नून-रोटी (सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो !) (कसोमि॰106.12)
1119 नूनू (दे॰ नुनु) ( (- काहे बाऊ, फुटो रे फुटो धान नञ् कहमहीं ? / बासो कंधा पर हाथ रख देहे । - छोट-बड़ धान बरोबर नञ् होतइ बाऊ ? - चल बेटा, अभी छोट-बड़ बरोबर नञ् होतउ नूनू । - तब कहिया होतइ ?) (कसोमि॰97.6)
1120 ने (= न) (ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; - माय । - कीऽ ? - एगो बात कहिअउ ? गोसैमहीं नञ् ने ? - कहीं ने । - पहिले गछहीं, नञ् गोसैबो । - अच्छा, नञ् गोसैबो ।/ लाजो बोरसी छोड़ के माय के हाथ से डब्बू लेबइत बोलल - हमहूँ चरखा काटिअउ ? - की करऽ पड़तउ ? कहीं ने भइवा के, केतना पैसा लगतउ ? - पैसवा छोड़हीं ने, रखिया वला धइले ने हिअइ, ओतने से हो जइतइ । तों पहिले हाँ कहीं ने ।) (कसोमि॰25.5; 47.12, 13, 19, 20)
1121 नेआर (= बिदाई के दिन निश्चित करने की पूर्व सूचना, बोलावन) (- सिखा देमहीं ? - आझे, अभिए सीख, तोरा हमर किरिया हउ । साज-बाट के तऽ हो जइतउ । अभी तऽ नेआर अर नञ् ने अइलउ ? / लाजो लजा गेल ।; अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?) (कसोमि॰45.7; 51.21)
1122 नेउतना (= न्योता देना) (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो ।) (कसोमि॰25.16)
1123 नेउतहारी (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.24)
1124 नेटुआ (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।) (कसोमि॰68.10)
1125 नेवारी (= धान का पुआल) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; बासो मैना बैल के दू आँटी नेवारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेवारी तोड़ रहल हल ।; - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰93.17; 95.3, 4; 102.16, 19)
1126 नेसना (= दीपक आदि जलाना) (तहिया से लाजो भूख-पियास भूल गेल । रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल ।) (कसोमि॰54.2)
1127 नेहाली (= रजाई) (धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों । लोग कहतो, जाड़ा के नेहालिए हे ।) (कसोमि॰17.18)
1128 नोंचना (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.13)
1129 नोचनी (= खुजली) (~ बरना) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.12)
1130 नोनगर-तितगर (बाउ बजार से टौनिक ला देलथुन हे । कहऽ हथिन - अंडा खो । हमरा अंडा से घीन लगऽ हउ । - अमलेटवा खाहीं ने । पूड़ी नियन लगतउ, बलुक कचौड़िया नियन नोनगर-तितगर । हम तऽ कते तुरी खइलिअइ हे । बरौनियाँ में तो सब कोटरवा में बनऽ हइ ।) (कसोमि॰57.12)
1131 नोनी (~ खाल देवाल) (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.7)
1132 नोह (अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।) (कसोमि॰84.25)
1133 नौगत (= नौबत) (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत ।) (कसोमि॰36.24)
1134 पंचैती (= पंचइती; पंचायत) (ऊ साल बैसखा में गाँव भर के आदमी जमा भेल । पंचैती में हमरा नञ् रहल गेलो । कह देलिअइ - तऽ गाँव में गरीब-गुरबा नञ् ने बसतइ ? भेलो बवाल । मजमा फट गेलो । तहिया से कुम्हरे के कब्जा हइ ।) (कसोमि॰112.23)
1135 पंडी जी (= पंडित जी) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता । धड़फड़ नञ् होवे के चाही । पंडी जी आ गेला । उनखर हाथ में टीकस के पइसा देवइत पोखन बोलल - तों आगू बढ़ऽ । गरसंडा के टीकस लीहऽ ... पाँच गो ।) (कसोमि॰46.21; 63.22)
1136 पइसगर (= पैसा वाला, धनवान) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । लमहर जोत हे ... काम के कमी नञ् होत । सच्चोक मउज हल । तीसम दिन दुइयो के काम ।) (कसोमि॰79.14)
1137 पइसना (= पइठना; घुसना, प्रवेश करना) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.15)
1138 पउआ (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।) (कसोमि॰54.15)
1139 पखारना (= धोना, पानी से रगड़कर साफ करना) (अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ । बासो हाथ के ळपड़ा सरिआ के उतरल आउ पमल्ला पर जाके हाथ-गोड़ धोलक । मुनमा पमल्ला पर बैठल आउ उठ के बचल पानी से गोड़ पखारऽ लगल ।) (कसोमि॰93.27)
1140 पगड़बंधा (बरहमजौनार बित गेल निक-सुख । तेरहा दिन पगड़बंधा के बारी आल । पिंड पड़ गेल । अँगना में गाँव के भींड़ । हितेसरा के देख के सब के आँख डबडबा गेल । अउरत सब तऽ फफक गेलन ।) (कसोमि॰115.9)
1141 पगलाना (रस-रस उनकर घर के आगू भीड़ जमा हो गेल । सब देख रहलन हल । ऊ छत पर नाच-नाच के 'हाल-हाल' कर रहला हे । सब के मुँह से एक्के बात - पगला गेलथिन, इनका काँके पहुँचा देहुन ।) (कसोमि॰27.7)
1142 पछानना (= पहचानना) (असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका । - के हऽ ? पछान के - पहुना ... खोस रहो, कहलका आउ माथा पर हाथ रखइत पुछलका - आउ सब ठीके हइ ने ? - सब असिरवाद हइ ।) (कसोमि॰73.9)
1143 पछिआरी (= पच्छिम वाला) (खोंइछा भर गेल तऽ ढेरी पर उझल देलक । अइसइँ लाल-लाल मिचाय से मुट्ठी भराइत रहल, मुट्ठी के मिचाय खोंइछा में धराइत रहल, खोंइछा के मिचाय ढेरी पर उझलाइत रहल । ... बारह बजे तक टोपरा साफ । - दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल ।) (कसोमि॰39.18)
1144 पछिया (~ हवा) (घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात । ई लेल सबेरे उठल आउ बोझड़ी के खरिहान में पसार देलक । पछिया खुलल हल, खरंगते कि देरी लगत !) (कसोमि॰119.6)
1145 पछुआना (पिछुआना; पीछे पड़ या रह जाना) (बुलकनी गहूम के बाल हँसुआ से छोपे लगल । रनियाँ पुंठी से बूँट के ढांगा पीटे लगल । तितकी पछुआ गेल ।) (कसोमि॰119.14)
1146 पटल (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !) (कसोमि॰61.8)
1147 पटाल (सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।) (कसोमि॰92.11)
1148 पटौनी (- उनकर सिलसिला अब अलगे हन । घर तऽ खाली हिस्सा लेबइ ले आवऽ हथिन । - छोटका कहाँ गेलथुन ? - ऊ बेचारा खंधा पर पटौनी में हो । रात के दस-बारह बजे अइथुन आउ खा-पी के चल जइतो ।) (कसोमि॰72.19)
1149 पट्टी (= तरफ, ओर) (पगली, देखऽ हीं नञ्, हमरा चारियो पट्टी से खोंटा-पीपरी आउ मधुमक्खी काट रहलइ हे । तों खड़ी-खड़ी देखऽ हें, झाड़ आउ देख ओन्ने - नघेतवा में कौआ मकइया खा रहलउ हे । उड़ाव ... हाल-हाल, हाल ... ।; गरमी में राज के रजधानी परैये हल । रानी महल अलग । नीचे तहखाना ... ऊपर कोठा । कोठा पर फुर-फुर हावा लगो होत । गरमी में तहखाना बरफ । बरफ माने सिमला । चारो पट्टी बरामदा ... छोट-छोट दतवाजा । जनु सिपाही चारो पट्टी पहरा दे हलइ ।; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा ।) (कसोमि॰29.14; 36.11, 12; 37.27)
1150 पठरू (= पाठा; बकरी का बच्चा) (सितबिया के सपना पूरा भे गेल । पुरनका घर में बमेसरा कुछ दिन रहल आउ अन्त में सो रुपया महीना पर किराया लगा देलक । ओकरो लेल ऊ घर लगहर बकरी भे गेल - दूध के दूध आउ पठरू बेच-काट के अच्छा पैसा कमाय लगल ।) (कसोमि॰107.23)
1151 पड़ियायन (= पड़िआइन) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । ... तितकी-लाजो थोड़े देरी खड़ी-खड़ी भीड़ देखइत रहल अउ अपना लेल सुबुक जगह टेवते रहल । पड़ियायन टोला के सब्बो हँकइलक - एन्ने आव एन्ने, जग्गह हउ । सब्बो साँझे से बोरा बिछा के दखल कइले रहऽ हे ।) (कसोमि॰52.25)
1152 पढ़ताहर (बड़का भाय पढ़ताहर बुतरू के गोल से ललटेन उठइलका आउ गोरू बान्हइ ले चल गेला । चलित्तर बाबू सोचऽ लगला - जब माहटरे के दुहारी के ई हाल हे कि पढ़ताहर लेल एगो अलग से ललटेन के इन्तजाम नञ् हे, त दोसर के की हाल होत । अच्छा, कल काशीचक के बीरू गुमटी से एगो सीसा उधार लेले अइबइ । पुरनका ललटेन के खजाना बदला जइतइ तऽ फेन कोय दिन देख लेतइ ।) (कसोमि॰101.18, 20)
1153 पढ़नइ (= पढ़ाई, अध्ययन) (एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक ।) (कसोमि॰104.3)
1154 पढ़ल-लिखल (बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् । हाथ पर हाथ धइले बैठल रहऽ हइ । मौगिओ के जेवर खेत कीनइ में बिक गेलइ ।) (कसोमि॰58.15)
1155 पढ़ाय (= पढ़ाई) (भौजी से एकरा पटइ के एगो आउ कारन हल । मुनियाँ तऽ सिलाय-फड़ाय सीखऽ हल, बकि भौजी एकरा से पढ़ाय सीखऽ हली । बात-विचार मिलवे करऽ हल ।; भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय ।) (कसोमि॰66.16, 23)
1156 पतरखन (अब सुनहो टकैतवा के खिस्सा । एकर बगल में पोखना के घर हल । पोखना बेचारा के जानबे करऽ हो । गाँव भर बसइलक पौनियाँ बूझ के । एक घर कुम्हार, गाँव के पतरखन । निमर बूझ के दू डेग ओकरो दने दाबइ ले चाहइ ।) (कसोमि॰112.21)
1157 पतहुल (चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।") (कसोमि॰15.9)
1158 पथिया (मुनमा-माय खाय बना के पथिया उठवऽ लगल । मुनमा के हाथ पर पहिल पथिया । - सँभल के बेटा, निसैनी कमजोर हउ । - कुछ नञ्, तों देखते तऽ रहीं । / बासो माथा पर से पथिया लेके चाँच पर खपड़ा उझललक आउ लउटा के नेवारी सरिआवऽ लगल । अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ ।) (कसोमि॰93.17)
1159 पदनी (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?") (कसोमि॰83.10)
1160 पनपिआय (= पनपिआड़) (खोंइछा भर गेल तऽ ढेरी पर उझल देलक । अइसइँ लाल-लाल मिचाय से मुट्ठी भराइत रहल, मुट्ठी के मिचाय खोंइछा में धराइत रहल, खोंइछा के मिचाय ढेरी पर उझलाइत रहल । ... बारह बजे तक टोपरा साफ । - दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल ।; पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल ।; बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल - एक, दू, ... छौंड़ा-छौंड़ी, तीन, चार ... सुरमी, पाँच, छो, सात, एगो फाजिल । बुतरुअन के पनपियाय ।) (कसोमि॰39.19; 63.18; 79.3)
1161 पनरह (= पन्द्रह) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।") (कसोमि॰12.24)
1162 पन-सात (= पाँच-सात) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।) (कसोमि॰19.15)
1163 पनहगवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.23)
1164 पनियाना (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी ।) (कसोमि॰20.26)
1165 पमल्ला (अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ । बासो हाथ के ळपड़ा सरिआ के उतरल आउ पमल्ला पर जाके हाथ-गोड़ धोलक । मुनमा पमल्ला पर बैठल आउ उठ के बचल पानी से गोड़ पखारऽ लगल ।) (कसोमि॰93.25, 26)
1166 पम्हा (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।) (कसोमि॰111.16)
1167 परकना (= चसका लगना; आदत पड़ना) (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?; कहइ के तऽ सत्तू-फत्तू कोय खाय के चीज हे। ई तऽ बनिहार के भोजन हे। बड़-बड़ुआ एन्ने परकलन हे। अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल।) (कसोमि॰34.27; 120.22)
1168 परतार (= बार, तुरी, दफा) (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।) (कसोमि॰110.5)
1169 परतिंगा (बाउ भिजुन आके ठमकल आउ एक नजर भीड़ दने फिरइलक । ओकर मन के आँधी ठोर पर परतिंगा के बोल बन हहाल फूटइ ले ठाठ मारइ लगल । ऊ संकोच के काचुर नोंच के फेंक देलक आउ तन के बोलल - मुनियाँ के चिंता छोड़ऽ । मुनियाँ अपन बिआह अपने करत ... तहिया करत जहिया मुनियाँ के मुट्ठी में ओकर अप्पन कमाय होत, मेहनत के कमाय । चल माय, खाय ले दे, भूख लगल हे ।) (कसोमि॰67.18)
1170 पर-पैखाना (दे॰ पर-पखाना) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा ।) (कसोमि॰28.9)
1171 परब (= पर्व, त्योहार) ("आझे भर चिक्को ... । कल से तऽ बिलउक वला कंबल होइए जात ।" गारो सिसिआइत बोलल । - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ । साल भर के परब । सरकार के बाँटहो के हलइ तऽ तिलसकरतिए के दिन ?") (कसोमि॰17.10)
1172 परब-तेहवार (= पर्व-त्योहार) (रसलपुरवली के शेखपुरा अस्पताल में आठ टाँका पड़ल हल । जादेतर छोटके परब-तेहवार में कुछ ने कुछ लेके बहीन हियाँ आवऽ हल । बुलकनी के पता चलल तऽ भउजाय के देखइ ले शेखपुरा चलि गेल ।) (कसोमि॰118.4)
1173 परबाबा-छरबाबा (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत । सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल ।) (कसोमि॰19.19)
1174 परव (दे॰ परब; पर्व) (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।) (कसोमि॰33.9)
1175 परसाद (= प्रसाद) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।; कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ?; मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक । मुनमा कटोरा में परसाद लेले आ गेल ।) (कसोमि॰19.14; 21.25; 95.8, 11)
1176 परसाल (- तों की लेलहीं ? लाजो से तितकी पुछलक । - हमरा की पैसा हलउ । तों जानवे करऽ हीं, परसाल धानधुर्रा मरिए गेलउ । रहऽ हलउ तऽ मइयो चोरा-नुका के दे दे हलउ । लाजो बुझनगर सन गाल पर हाथ धइले बोलल ।; बनिहार चाह रख गेल । दुन्नू सार-बहनोय चाह पीअइत रहला आउ गलबात चलइत रहल । - मंझला के समाचार ? - ठीक हइ । - लड़का अर तय भेलन ? - तय तऽ परेसाल से हइ, वसंत पंचमी के भेतइ, पटने में ।; मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰48.18; 72.13; 88.6)
1177 परसूँ (= परसों) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल । ओकरा ई सब करइ में खूब मन लग रहल हल - पिंडा से तऽ बचलूँ ! परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल ।) (कसोमि॰88.11)
1178 पराते (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला ।) (कसोमि॰26.6)
1179 परोफेसर (= परफेसर; प्रोफेसर) (- टुनुआ तो जुआन भे गेलइ होत ? - ऊहो परोफेसर हो गेलइ हे हिसुआ में ।) (कसोमि॰74.16)
1180 परोर (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।; - ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ ।) (कसोमि॰88.1, 4; 91.18, 20)
1181 पलंगरी (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? पिपरा तर के जरसमने की हउ ? कुल बिक जइतउ तइयो नञ् पुरतउ । अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले ।) (कसोमि॰51.24)
1182 पलटौनी (दिन-रात के मेहनत से हजार रुपइया से जास्ती काड पर जमा हो गेल । कतिन के कमीशन लगा के पनरह सो के माल उठा सकऽ हे । लाजो रस-रस फिरिस बनावऽ लगल । दोंगहरी अउ पलटौनी भी भंडारे से भे जात ।) (कसोमि॰54.11)
1183 पलौटगर (एगो चौखुट मिचाय के खेत में दू गो तोड़नी लगल हल । खेत पलौटगर । लाल मिचाय ... हरियर साड़ी पर ललका बुट्टी ।) (कसोमि॰38.12)
1184 पवित्तर (= पवित्र) (एक्का पर एक ... पाँच गीत । सब के रेघ मिलल ... झंझेकार । घर पवित्तर हो गेल ! घर गुलजार हो गेल ! टोला-पड़ोस जान गेल - पोखन के घर काज पसर गेलइ ।) (कसोमि॰64.14)
1185 पसेना (= पसीना) (भीड़ हरगौरी बाबू के दलान पर । हरगौरी बाबू के जाड़ा में भी पसेना छूट गेल । सहम गेलन ... धकधक्की । समझते देर नञ् लगल । सब माल भीड़ के लौटा देलन ।) (कसोमि॰56.5)
1186 पहमा (अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल । बुलकनी के अउसो नइहरे से माय कूट-पीस के भाय पहमा भेजवा दे हल ।) (कसोमि॰117.5)
1187 पहिल (= पहिला) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।) (कसोमि॰77.20)
1188 पहिलइँ (= पहिलहीं; पहले ही) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।; गोस्सा में ओकर हाथ मसीन सन चल रहल हल । ऊ दुन्नू से पहिलइँ काम निबटा के बिन चुनले-फटकले उठल आउ गाँव दने सोझिया गेल ।) (कसोमि॰27.10; 120.6)
1189 पहिला (= पहला, प्रथम) (पहिला मनिज्जर मुँहदेखल करथुन हल । कते बेरी तऽ हल्ला भेल हे । अइसे सुनइ में ढेर खिस्सा आवऽ हे, मुदा जादे तर मनगढ़ंत ।) (कसोमि॰44.14)
1190 पहिलौका (= पहले वाला) (पहिले तो हरगौरी बाबू खेत के बात कइलन हल मुदा ऐन मौका पर खाली बिदकिए नञ् गेलन, अपन पहिलौको पैसा के तगादा कर देलका । उसकुन के अच्छा समय देखलका । गाँव में आउ केकरा पैसा हे । जेकरे आज के छौंड़ा माँड़र पहाड़ से ढाही लेबइ ले चलल हे ।) (कसोमि॰54.20)
1191 पहुना (= पति; मेहमान, अतिथि) (पहाड़ पर मंदिर के बगल में सक्खिन आउ सक्खि के बीच में लाजो के पहुना लजाल, मुसकइत, लाजो के कनखी से देखइत । लाजो उठ के भाग गेल हल, नुक गेल हल मनिहारी भिजुन भीड़ में ।; आउ अंत में ऊ दिन भी आ गेल, जहिया पहुना अइता, लाजो के पहुना, गाँव के पहुना । ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन ।) (कसोमि॰49.12; 55.18)
1192 पाँजा (बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे । - कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन ।) (कसोमि॰111.19)
1193 पाछिल (= पिछला, अन्तिम) (बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल ।; बिठला रोटी गमछी में लपेट के बटुरी में रखलक अउ सिक्का पर टांग के नीम तर सुस्ताय ले चलल जा हल कि नजर चुल्हा तर धइल ताय दने चल गेल । पाछिल टिकरी धुआँ रहल हल । सुरमी कहियो ने पाछिल टिकरी केकरो खाय ले दे । ओकरा पाछिल खिस्सा याद पड़ल - जनु माय हमरा पाछिल टिकरी खिलइलक होत कि ... ।) (कसोमि॰78.27; 79.11, 12, 13)
1194 पाट (= पार्ट) (~ लेना = नाटक में किसी पात्र का किरदार निभाना) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । आज 'सवा सेर गेहूँ' होबत । लाजो के भाय भी पाट लेलक हे । तिरकिन भीड़ ।) (कसोमि॰52.19)
1195 पाटी (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।) (कसोमि॰54.14)
1196 पाड़ी (= काड़ी; भैंस का मादा बच्चा) (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.4)
1197 पात (= पत्ता; पात्र; श्राद्ध में दान करने के बरतन) (दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।) (कसोमि॰115.2)
1198 पाती (हमर बरतुहारी तक बिगाड़ले चलतो । अउ एगो हम ! जे हाथ कहियो तलवार भाँजऽ हलो उहे हाथ अपन घर से हँसुआ लाके ओकर पतिया काटलियो । बचतै हल बैला ! केबाड़ी लगल में दुन्नू लड़ गेलइ । बन्हलका ठढ़सिंघा अइसन गिरलइ कि केबड़िए नञ् खुलइ । खिड़की तोड़ के भीतर हेललियो आउ पगहा काट के माथा ठोक देलियो - उठ जा महादेव !) (कसोमि॰113.2)
1199 पान-सात (दे॰ पन-सात) (पान-सात आदमी चारियो पट्टी से घेर लेलक । दू आदमी आगू बढ़ के दुन्नू के कनट्टी में पिस्तौल भिड़ा देलक । दू आदमी दुन्नू के हाथ से समान छीन लेलक ।) (कसोमि॰42.14)
1200 पारी (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।) (कसोमि॰111.15, 16)
1201 पाला (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।) (कसोमि॰61.13)
1202 पासी ("केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । कत्ते घिघिअइला पर किसोरबा देलक हल । ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।") (कसोमि॰11.17)
1203 पिंडा (= गुरुपिंडा; विद्यालय; श्राद्ध, पितृपक्ष या अन्य अवसर पर मृतक या पितरों को अर्पित किया जाने वाला काला तिल, मधु आदि मिलाया चावल की खीर का पाद्य; पितरों को पिंडदान देने की क्रिया) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल । ओकरा ई सब करइ में खूब मन लग रहल हल - पिंडा से तऽ बचलूँ ! परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल ।; मुनमा-माय पिंडा नीपय में लग गेल ।; एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।) (कसोमि॰88.11; 94.23; 114.8)
1204 पिंडा बबाजी (बानो पिंडा बबाजी के आगू बैठल । पंडित जी बिध-बिधान कैलका अउ पगड़ी बाँधइ ले गोतिया के हँकैलका ।) (कसोमि॰115.11)
1205 पिंडी (खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - कान-कनइठी (दे॰ कान-कनैठी) (खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !) (कसोमि॰75.26)
1206 पिंपहीं-फुकना (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।) (कसोमि॰82.23)
1207 पिच्छुल (अहरा पर तिरकिन आदमी । बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल ।) (कसोमि॰95.15)
1208 पिछलउका (= पिछला) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰16.11; 46.18)
1209 पिछलउकी (ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला ।) (कसोमि॰28.27)
1210 पिछुत्ती (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
1211 पिरदाँय (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰78.8)
1212 पिलसुल (= पेंशन) (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला । अब पिलसुल मिलऽ हन । घर बनइलका, गोतिया-नइया देखइत रहलन ।) (कसोमि॰26.6)
1213 पिलाव (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.25)
1214 पिलुअहवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.22)
1215 पिलुआ, पिल्लू (= छोटा बच्चा) (बुलकनी के काहे तो आझ अप्पन मरद के रह-रह के याद आ रहल हल। ढेना-ढेनी देख के सबूर कर लेलक हल - चलऽ, ई पिलुअन ओकर निसानी हे। एकर मरद दिल्लीवला चुनाव में मारल गेल हल।) (कसोमि॰121.19)
1216 पिलुआही (बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं । बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे ।) (कसोमि॰82.5)
1217 पिल्थी (= पारथी; पालथी) (~ मारना) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.12)
1218 पिसमाँपीस (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी ।) (कसोमि॰24.24)
1219 पींड (पींड पर हरगौरी बाबू मिल गेलन । - कहाँ से सरपंच साहेब ? मोछ टोबइत हरगौरी बोलला । उनका साथ तीन-चार गो लगुआ-भगुआ हल ।) (कसोमि॰55.2)
1220 पीछू (= पीछे) (कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न । आँख-नाक से पानी ... धौंकनी सन करेजा कुत्ता सन हफइत बेतिहास भागल जा हे अउ पीछू-पीछू नब्बे लाख आदमी ... बूढ़-बुतरू जुआन ओकरा खदेड़ले जा हे आछिः आछिः ।; ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।; सावन के पहिल सोमारी हल । गुलमोहर हरियर कचूर । डाढ़ पीछू दू-चार गो लाल-लाल फूल । दूर-दूर से लगे जइसे जूड़ा के बान्हल रीबन रहे ।) (कसोमि॰14.3; 29.2; 48.4)
1221 पीछू-पीछू (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।) (कसोमि॰36.15)
1222 पीठउपारे (= पीठ पीछे) (ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला ।) (कसोमि॰29.1)
1223 पीपर (= पीपल) (भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल । असमान में सुरूज-बादर के खेल चल रहल हल । सामने वला पीपर पेड़ से एगो बगुला उड़ल ।) (कसोमि॰51.3, 5)
1224 पुंज ("देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।" - "तोर दिनोरवा वला पुंजिया से लहरइउ ?" ) (कसोमि॰14.20)
1225 पुंठी (अस्पताल से लउट के बुलकनी जोजना बनइलक - घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात ।; बुलकनी गहूम के बाल हँसुआ से छोपे लगल । रनियाँ पुंठी से बूँट के ढांगा पीटे लगल । तितकी पछुआ गेल ।) (कसोमि॰119.4, 13)
1226 पुच्छी (= पूँछ) (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे ।; मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हाथ के ... सियार के पुच्छी ।; - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको ।) (कसोमि॰14.6; 96.19’ 102.17)
1227 पुछाल (= पुछार; पूछताछ, जाँच) (एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।" - "चोरी कइले होमे ... डाका डालले होमे कजउ !" - "साली, तुम हमको चोर-डकैत कहता है ? कउन सार का लूटा हम ? अपना सरीर से कमाया है ... समांग से कमाया है । चल, पुछाल करता हैं ।" सुरमी लरमा गेल ।) (कसोमि॰86.3)
1228 पुजेड़िन (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰58.1)
1229 पुतहू (= पुत्रवधू) (माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।" माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल ।) (कसोमि॰117.12, 13, 16)
1230 पुनियाँ (= पूर्णिमा) (कल होके बीट के दिन हल । दुन्नू साथे सिरारी टिसन आल अउ केजिआ धइलक । गाड़ी शेखपुरा पहुँचइ-पहुँचइ पर हल । खिड़की से गिरहिंडा पहाड़ साफ झलक रहल हे । लाजो के पिछला भदवी पुनियाँ के खिस्सा याद आवऽ लगल ।) (कसोमि॰49.10)
1231 पुरनका (= पुराना) (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।; फुफ्फा के आख तर ससुर के पुरनका चेहरा याद आ गेल - पाँच हाथ लंबा, टकुआ नियन सोझ, सिलोर । रोब-दाब अइसन कि उनका सामने कोय खटिया पर नञ् बैठऽ हल ।; बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰60.11; 72.2; 93.16)
1232 पुरबइया (बाहर से पुरबइया के झोंका पीठ के हड्डी तड़का देलक । चिकनी बोरसी के नगीच घसक के अलुआ निकालऽ लगल ।; सुकरी चौपट्टी नजर घुमइलक । ताड़ के पेड़ पुरबइया से खड़खड़ा रहल हल । थोड़के-थोड़के दूर पर टिवेल के केबिन, बिजली तार के जाल । तिरकिन आदमी अपन-अपन काम में विसित ।) (कसोमि॰16.17; 38.3)
1233 पुरवारी (= पूरब तरफ वाला) (सरवन चा के खरिहान पुरवारी दफा में हल । एजा इयारी में अइला हल । पारो चा उनकर लंगोटिया हलन ।; झोला-झोली होते-होते मुनमा अंगा-पैंट पेन्ह के तइयार भे गेल । गुडुआ के घर पुरवारी दफा में हल । ओकर घर पहुँचल तऽ ऊ अभी नहइवो नञ् कइलक हल ।) (कसोमि॰25.13; 94.25)
1234 पुरान (= पुराना) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज ।; किसुन लखीसराय टीसन से दिन भर में टुघरल, उठइत-बइठइत गाँव आल । गाँव पसर गेल हल । गल्ली के ढेर नक्सा बदल गेल हल । पुरान बंगला तऽ एक्को गो नञ मिलल ।) (कसोमि॰14.20; 19.8)
1235 पुराना (= पूरा करना) (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।) (कसोमि॰99.13)
1236 पुल्ला (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।) (कसोमि॰60.12)
1237 पुस्टा (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
1238 पूंज (= पुंज) (- ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । ... - ई किदो जाँच करइता ! कान-कनइठी सितवा के ... एक पेड़ नञ् ... । सदामदी साही लगाव । - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन ।) (कसोमि॰102.14)
1239 पूनी (= चरखा या तकली पर सूत कातने के लिए बनी धुनी रूई की बत्ती) (तितकी चरखा निकाल के लाजो के हाथ में देलक आउ ओकर पीछू में जाके बैठ गेल । तितकी लाजो के दहिना हाथ से कील आउ बामा से पूनी पकड़ के रस-रस घुमवऽ लगल । लाजो के बामा हाथ उठइत-उठइत अपन ऊँचाई भर तन गेल ।) (कसोमि॰45.13)
1240 पेंघा (= पेंग; झूलते हुए एक ओर से दूसरी ओर जाना, झूले का झटका) (ओहे गाछ तर तितकी अउ लाजो झूला झूल रहल हल । फेरा-फेरी झूलइत ऊब गेल तऽ एक्के साथ झूला पर बैठ के हौले-हौले पेंघा लेबइत बतिआय लगल ।) (कसोमि॰48.7)
1241 पेड़ाना (= पेराना) (बुलकनी तीसी के तेल पेड़ा के लइलक हल। एक किलो के तेल के डिब्बा ओसरा पर रख के गाय के पानी देखावइ ले गोंड़ी पर चल गेल हल। रउदा में गाय-बछिया हँफ रहल हल। पानी पिला के आल तऽ देखऽ हे कि छोटकी के तीन साल के छउँड़ी तेल के डिब्बा से खेल रहल हे।) (कसोमि॰122.10)
1242 पेन्हना (= पहनना) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।; बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; रनियाँ के मन पेटी से दसहरा वला फरउक निकालइ के हल। ऊ मने-मन डर रहल हल कि कहइँ माय डाँट ने दे। मेला देख के जइसहीं आल कि खोलवइत कहलक हल, "रख रानी, लगन में पेन्हिहें।" से ऊ माय के आगू आके खड़ी भे गेल। - "देरी काहे कर रहलहीं हें। तलाय पर से मुँह-कान घोवइत अइहें।" - "पेटीवला फरउक निकालिअउ माय।" - "ओहे पेन्ह के जइमहीं?") (कसोमि॰52.14; 93.14; 124.22, 27)
1243 पेन्हाना (= पहनाना) (ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे । ओकर इसकुलिया डरेस के तितकी छू-छू के देखऽ हल । एक दिन घाट पर सक्खी एकरा अपन डरेस पेन्हा देलक अउ कहलक हल, "कैसी इसकुलिया लड़की लगती है !" तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल ।) (कसोमि॰118.23)
1244 पैन (= पइन) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰93.14)
1245 पैना (= छोटा डंडा) (मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक । मुनमा कटोरा में परसाद लेले आ गेल ।; ऊ तऽ धैल हँथछुट, देलको एक पैना धर । मन लोहछिया गेलो । खाली हाथ, खिसियाल गेलियो लटक । तर ऊ, ऊपर हम । गोरखियन सब दौड़ गेलो । ऊहे सब गहुआ छोड़इलको । तहिया से धरम बना लेलियो - कोय मतलब नञ् ।) (कसोमि॰95.8; 111.25)
1246 पोछब (~ करना) (पलट के मोटरी ताकइत मुँह पोछब करऽ हल कि नजर जगेसर राय पर पड़ल । एक हाथ में अटैची आउ कंधा में करिया बैग । सुकरी के जान में जान आल । एक से दू भला । दिन-दुनिया खराब ।) (कसोमि॰41.13)
1247 पोथानी (= चारपाई का वह भाग जिधर सोने वाले का पैर पड़ता है) (पनियाँ बदल दहीं ... महकऽ हइ, बोलइत बाबूजी खटिया पर बैठ गेला आउ सले-सले चित्ते लोघड़ गेला । फुफ्फा सिरहाना में लोटा रख के पोथानी में बैठ गेला । - जलखइ भेलइ ? बाबूजी पूछऽ हथ । असेसर, पहुना के घर दने ले जाहुन ।; तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो । - हम की करिअइ । बुतरू-बानर के घर हइ । छौंड़ा-छौंड़ी के भी ईहे औंसऽ हिअइ । गरमियें में पाव भर तील के तेल अइले हे, बस । चचा के भी बरसाता में गँठीवा जोर करऽ हन । केकरा मना करिअइ । मेहरारू बोलइत पोथानी भिजुन जमीन पर बइठ गेली ।) (कसोमि॰73.17; 99.20)
1248 पोन (हाय रे सड़क ! सड़क पर नाव चले । दोकनदार अपन सामने के नल्ली छाय से भर के ऊँच कर देलक हे । पोन दाबला से सूल बंद होतउ । एकरा तो बिठला के कुदारे बंद करतउ ।) (कसोमि॰82.16)
1249 पोलदारी (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी । फेन तऽ मत कहऽ, किसुन इसपिरेस हो गेल । भूख लगल तऽ भीखियो माँगलक । कुलगिरी से लेके पोलदारी तक कइलक ।) (कसोमि॰24.27)
1250 पोवार, पोबार (= पुआल) (गारो सोचलक, जुआनी में कहियो बोरसी तापऽ हलूँ ? एक्के गमछी में जाड़ा पार ! एकरा कीऽ ... पोवार अउ ... ।; आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।; मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।) (कसोमि॰15.25; 16.27; 89.23)
1251 पोहपिता (= पपीता) (बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।) (कसोमि॰82.12)
1252 पौती (एने से लाजो अपन काड केकरो नञ् देखावे, माय-बाप के भी नञ् । माय तऽ खैर लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर हल, से से कभी-कभार माय के रखइ ले दे दे हल, मुदा थोड़के देरी में लेके अपन पौती में रख दे हल ।) (कसोमि॰44.3)
1253 पौनियाँ (अब सुनहो टकैतवा के खिस्सा । एकर बगल में पोखना के घर हल । पोखना बेचारा के जानबे करऽ हो । गाँव भर बसइलक पौनियाँ बूझ के । एक घर कुम्हार, गाँव के पतरखन । निमर बूझ के दू डेग ओकरो दने दाबइ ले चाहइ ।) (कसोमि॰112.20)
1254 फइदा (= फयदा, फैदा; फायदा) (ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । मट्टी के जाँच बिना खाद देला से कोय फइदा नञ् । मट्टी-मट्टी के माँग होवऽ हइ । कौन मट्टी के कौन खाद चाही, जानवे नञ् करबऽ तऽ देते रहो खाद, कोय फयदा नञ् भेतो ।; - ... हम एक राय दिअउ ? - अरे, तों कि आन हें ? तों जे भी कहमें, हमरे फइदा ले ने । जे जरूरी लगउ से कह आउ कर, पूछे हें कि ?) (कसोमि॰102.10; 106.24)
1255 फजीहत (= फजहत) (दू सीन के बीच में कौमिक । भीड़ हँसते-हँसते लहालोट । बदन चा भारी मखौलिआह ! महाजन के अत्याचार ! सुदखोर के फजीहत ! भीड़ गरमा जाहे । रह-रह के इन्कलाब के नारा लगऽ हे ।) (कसोमि॰53.12)
1256 फट्टल (= फटा हुआ) (किसन कटोरा खंगहार के झोला में रखलक अउ एगो फट्टल चद्दर बिछा के सूत गेल ।) (कसोमि॰25.21)
1257 फट्टल-पुरान (= फटा-पुराना) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी ।) (कसोमि॰19.4)
1258 फट्ठी (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल ।; मुनमा दढ़ खपड़ा चूनइ में लग गेल । टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल ।; बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰88.9; 89.2; 93.17)
1259 फफकना (बरहमजौनार बित गेल निक-सुख । तेरहा दिन पगड़बंधा के बारी आल । पिंड पड़ गेल । अँगना में गाँव के भींड़ । हितेसरा के देख के सब के आँख डबडबा गेल । अउरत सब तऽ फफक गेलन ।) (कसोमि॰115.9)
1260 फयदा (= फइदा, फैदा; फायदा) (ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । मट्टी के जाँच बिना खाद देला से कोय फइदा नञ् । मट्टी-मट्टी के माँग होवऽ हइ । कौन मट्टी के कौन खाद चाही, जानवे नञ् करबऽ तऽ देते रहो खाद, कोय फयदा नञ् भेतो ।) (कसोमि॰102.11)
1261 फरउक (= फराक; फ्रॉक) (रनियाँ के मन पेटी से दसहरा वला फरउक निकालइ के हल। ऊ मने-मन डर रहल हल कि कहइँ माय डाँट ने दे। मेला देख के जइसहीं आल कि खोलवइत कहलक हल, "रख रानी, लगन में पेन्हिहें।" से ऊ माय के आगू आके खड़ी भे गेल। - "देरी काहे कर रहलहीं हें। तलाय पर से मुँह-कान घोवइत अइहें।" - "पेटीवला फरउक निकालिअउ माय।" - "ओहे पेन्ह के जइमहीं?") (कसोमि॰124.20, 26)
1262 फरका (बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल । उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰73.27)
1263 फरजन (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।) (कसोमि॰71.1)
1264 फरही (= फड़ही) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।; रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?" - "घोघी में फरही ले लेलिए हे.....फाँकते चल जइबइ।" बोलत घर से बहराय लगल।) (कसोमि॰50.24; 121.7)
1265 फरागित (= फैलाक) (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल ।) (कसोमि॰41.26)
1266 फरिंगा (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् । फरिंगवा तइयारो भेलो तऽ बीचे में टपा लेलको । हाही समा गेले हे ओकरा ।) (कसोमि॰110.6)
1267 फलदान (रौदा उग गेल हल । फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।) (कसोमि॰63.13)
1268 फसिल (= फसल) (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।) (कसोमि॰38.2)
1269 फाँड़ी (ऊ आगू बढ़ गेल इमली दने ... लोहरपट्टी ... मधेपुर के महादेव स्थान । पुल पर से लौट गेल - के जाहे फाँड़ी दने । भले ने रात भर बइठा ले ... कान-कनइठी । ऊ रस-रस लौट गेल । बजार निसबद ।) (कसोमि॰82.2)
1270 फाँय (मुनमा दढ़ खपड़ा चूनइ में लग गेल । टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल ।) (कसोमि॰89.3)
1271 फाँय-फाँय (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।) (कसोमि॰68.10)
1272 फाजिल (= अतिरिक्त) (जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ... आरती के बाद बस, रहे न संकट, रहे न भय, पाँच रोट की जय । किसना सात बोल दे । भजनकी ठठा के हँस दे । एगो ओकरा फाजिल ।; बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल - एक, दू, ... छौंड़ा-छौंड़ी, तीन, चार ... सुरमी, पाँच, छो, सात, एगो फाजिल । बुतरुअन के पनपियाय ।) (कसोमि॰23.8; 79.2)
1273 फानना (= फाँदना) (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे । रह-रह के घुरौर भिजुन आवऽ हे, नाचऽ हे, फानऽ हे । टहल-पाती भी बुतरुए कर रहल हे ।) (कसोमि॰21.6)
1274 फारे-फार (= खुलासा; विस्तार से) (भउजाय मुँह फुलइले रहल । एकसर में छोटका सब खिस्सा फारे-फार सुना देलक । कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक ।) (कसोमि॰118.7)
1275 फित्ता (= फीता) (हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल । ओकर हाथ हरदम फित्ता रहे । नाप-जोख के एक-एक तार में सुतार । गाँव के लोग झुंड बान्ह के देखे ले आवे ।) (कसोमि॰27.17)
1276 फिन (= फेन, फेनो; फिर) (कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ? ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल ।) (कसोमि॰21.27)
1277 फिफियाना (एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।) (कसोमि॰114.6)
1278 फिरंट (नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन - सुरमी धान निकावे गेल हे । अखने ... संजोग से घर खाली हे । अखने रहइ के तऽ फिरंट । ससुरी कमइते-कमइते डाँड़ा टेढ़ भे जइतउ । चल आउ सुरमीऽऽऽ ! ससुरी सुनवे नञ् करऽ हे । अगे जल्दी ने आवें !) (कसोमि॰81.6)
1279 फिरिस (करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे । गोतिया-नइया पूछथ - काम-धाम कइसे भे रहल हे ? फिरिस अर बन गेल ? चचवा कहाँ गेलउ ? तेरहे दिन में पाक होबइ के हउ ।) (कसोमि॰114.10)
1280 फिरिस (दिन-रात के मेहनत से हजार रुपइया से जास्ती काड पर जमा हो गेल । कतिन के कमीशन लगा के पनरह सो के माल उठा सकऽ हे । लाजो रस-रस फिरिस बनावऽ लगल । दोंगहरी अउ पलटौनी भी भंडारे से भे जात ।; लाजो माय के रस्ता सुझइलक - चुस्त पैजामा, कुर्ता, बंडी आउ भंडार के कटिया चद्दर दे दे । सब भंडारे से हो जइतउ । बाउ के भी बात जँचल अउ फिरिस लेके चलल भंडार ।) (कसोमि॰54.10, 26)
1281 फुकना (= बैलून) (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।) (कसोमि॰82.24)
1282 फुटना (धान ~) (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !; - भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान !) (कसोमि॰96.1, 11)
1283 फुटलका (= फूटा हुआ) (बासो दरी खन के खंभा खड़ा कइलक आउ बोलल - फुटलका खपड़वा खँचीवा में लइहें तो ... अइँटा के टूट रहते हल । टीवेल के अइँटा तऽ सब ढो लेलकइ । बासो डाँटलक हल मुनमा के - मत लइहें, ... ठीकेदरवा केस कर देलकइ हे । गाँव में इनकोरी होतइ ।) (कसोमि॰90.6)
1284 फुट्टल (= फूटा हुआ, टूटा हुआ) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।; ऊ अपन फुट्टल घर के देखऽ हे - घरो के रोग धर लेलक हे, जनलेवा !) (कसोमि॰16.5; 92.12)
1285 फुदफुदाना (मुरझाल घास फुदफुदा गेल । सुक्खल मुँह हरिया गेल । ठहरल काम दौड़ऽ लगल । सो के लाठी एक के बोझ ।) (कसोमि॰114.16)
1286 फुफुइया (> फुफ्फु + 'आ' प्रत्यय) (बुतरू के बात बड़का तक पहुँच गेल आउ भेल महाभारत । फेन एक खेर दू टूक । संपत माधे पाँच भित्तर के घर हल । पंचैती भेल आउ घर में डिंढ़ारी पड़ गेल ... डरदेवारी । दुन्नू के अपन-अपन निकास । दोकान में परमेसरा के हिस्सा गोलमाल हो गेलो । ईहे हिस्सा दुन्नू के दुस्मनी के मूल हे बाकि फुफुइया तऽ दुन्नू के हइ । बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ ।) (कसोमि॰105.18)
1287 फुफ्फा (= फूफा) (माथा पर हाथ धइले पोखन मने मन हिसाब लगा रहलन हल - दू खंडा घरवली के, फुफ्फा से हथ पइँचा पाँच हजार । बचल-खुचल पाँच कट्ठा गिरवी रख देम, चलो फुर्सत । कमाम आउ खाम । धरती माय के दया भेत तऽ दू साल में फुफ्फा से फारिग ।; फुफ्फा सोचऽ हथ - पहिले नौकर खड़ाँव रख के चल नञ् जा हल, गोड़ो धोवऽ हल बकि अब तो सब-कुछ बदल गेल हे ।) (कसोमि॰62.9, 11; 70.2)
1288 फुर-फुर (~ हावा लगना) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल । रानी महल अलग । नीचे तहखाना ... ऊपर कोठा । कोठा पर फुर-फुर हावा लगो होत ।) (कसोमि॰36.10)
1289 फुलकोबी (= फूलगोभी) (याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली । तरकारी ले टमाटर आउ फुलकोबी भी ले अइली । छिपली में मेहमान के देके भुइयाँ में बइठ गेली ।) (कसोमि॰75.2)
1290 फुलिया (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !) (कसोमि॰54.6)
1291 फुसलाना (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।) (कसोमि॰37.24)
1292 फूही (आउ तहिया गाड़ी ठीक साढ़े चार बजे आल । सिरारी पहुँचते-पहुँचते साँझ । फूही टिपकऽ लगल हल । दुन्नू रुपइया के मोटरी चालो दा के दोकान में रख के तीतल-भींजल घर पहुँचल ।) (कसोमि॰51.9)
1293 फेकार (= गुप्तचर, गोइन्दा) (ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।) (कसोमि॰29.2)
1294 फेन (= फेनो, फिनूँ, फेर; फिर) (देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।; धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।; ओकरा फेन खरिहान के उछाड़ो वला महाभोज याद आ गेल । सरवन चा कहलका हल - टूरा, कल हमर खरिहान अइहें, फेन लिट्टी-दूध चलतइ ।) (कसोमि॰14.18; 17.17; 25.10)
1295 फेनो (= फिन, फेनुँ, फेर; फिर) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।"; भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।; ओकर जिनगी पानी पर के तेल भे गेल, छहरइत गेल । आउ छहरइत-छहरइत, हिलकोरा खाइत-खाइत फेनो पहुँच गेल अपन गाँव, अपन जलमभूम ।; ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।) (कसोमि॰11.2; 13.16; 25.2, 7)
1296 फेरा-फेरी (= बारी-बारी से) (ओहे गाछ तर तितकी अउ लाजो झूला झूल रहल हल । फेरा-फेरी झूलइत ऊब गेल तऽ एक्के साथ झूला पर बैठ के हौले-हौले पेंघा लेबइत बतिआय लगल ।; पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ ।) (कसोमि॰48.6; 115.14)
1297 फोंकना (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।) (कसोमि॰58.23)
1298 फों-फों (~ सुतना) (धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।) (कसोमि॰17.18)
1299 फोंय-फोंय (~ सुतना) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । ... अउ अब ! अब सौंसे घर के देवाल में खिड़की । आर-पार झक-झक सूझे । पानी पड़इत रहे, फोंय-फोंय सुतऽ ।) (कसोमि॰28.3)
1300 फोटू (= फोटो) (बासो कत्ते साँप मारलक हल । पहिल डंटा फन पर पड़ल । मुनमा दौड़ के ताबड़तोड़ फट्ठी चलवऽ लगल । बासो लाठी के हूरा से साँप के फन चूरइत बोलल - साँप के आँख फोड़ देवे के चाही । आँख में मारेवला के फोटू बन जाहे । एकर जोड़ा फोटू देख के बदला लेहे ।) (कसोमि॰89.17)
1301 बंगइठी (= वक्र यष्टि; बंगइठा; ठोस छोटा डंडा; दोनों सिरों पर गोल लट्टू लगी लाठी; पासी का लबनी लटकाने तथा औजार पजाने का डंडा) (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰117.18)
1302 बंगला (~ पान) (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ । - मगही लगइहऽ, बंगला नञ् । बंगला पान तो भैंसा चिबावऽ हइ । आउ हाँ, इनखा मीठा चलो हन । तनि बयार फेंकइ वला दहुन । - बयार फेंकइवला कइसन होबऽ हइ ? कल्लू नए बोल सुनइलक । - अरे पिपरामेंट देहो, खइलिअइ कि मुँह में बिजुरी पंखा चलो लगलो । गोल दायरा में हाथ नचावइत मौली बोलल ।) (कसोमि॰112.8)
1303 बंड (एक तुरी बीच में अइला तऽ देखऽ हथ, उनकर बँगला बंडन के अड्डा बनल हे । खेत घूमे निकलला तऽ देखऽ हथ, खेत कटल हे । खरिहान देखइ ले गेला तऽ ओजा तीन गो छोट-छोट काँड़ा लगल हल । घूम-घाम के ओजउ से चल अइला, कुछ नञ् बोलला ।; ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।) (कसोमि॰26.10; 62.18)
1304 बंडी (लाजो माय के रस्ता सुझइलक - चुस्त पैजामा, कुर्ता, बंडी आउ भंडार के कटिया चद्दर दे दे । सब भंडारे से हो जइतउ । बाउ के भी बात जँचल अउ फिरिस लेके चलल भंडार ।) (कसोमि॰54.24)
1305 बंस (= वंश) (माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल ।) (कसोमि॰117.11)
1306 बइना-पेहानी (दे॰ बैना-पेहानी) (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।") (कसोमि॰123.15)
1307 बउआ (= बबुआ) (पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।; एतना बोलके बुलकनी भउजाय दने मुड़ल आउ माथा पर हाथ रखइत बोलल, "हमर सुगनी के गति-मति दीहऽ गोरइया बाबा ।" एतनो पर जब भउजाय सुग से बुग नञ् कइलक तऽ बुलकनी भाय से बोलल, "जा हिअउ बउआ ... घर में ढेना-ढेनी हउ ।") (कसोमि॰115.17; 118.15)
1308 बकछियाना (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.7)
1309 बकार (सोचऽ लगल, "मजाल हल कि गारो बिन खइले सुत जाय ।" चिकनी के जिरह हायकोट के वकील नियर मुदा आज चिकनी के बकार नञ खुलल ।; अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।) (कसोमि॰16.23; 18.4)
1310 बकि (= बाकि; लेकिन) (अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।; कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ?) (कसोमि॰18.4; 21.26)
1311 बगअधार (गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े । ओकर गोड़ में पाँख लग गेल हल - जानथ गोरैया बाबा ! दोहाय सलेस के ... लाज रखो ! बाल-बच्चा बगअधार होत । कह के अइलूँ हें ... काम दिहऽ डाक बबा !) (कसोमि॰37.16)
1312 बगुली (~ छेंड़ी) (पलट के असेसर दा देखऽ हथ तऽ रजौलीवला बंगला पर चढ़ रहला हे । साफ धोती आउ घोड़वा रंग के ऊनी के कुरता, कंधा पर उनिए के तहाल चद्दर, एक हाथ में जूट के झोला आउ दोसर में बगुली छेंड़ी । बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।) (कसोमि॰69.11)
1313 बगेरी (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।; मुनियाँ एक मुट्ठी भात-दाल के ऊपर घुन्नी भर तरकारी लेके खाय ले बैठल कि देख के माय टोकलक - बगेरी भे गेलें मुनियाँ ! जुआन-जहान एतने खाहे ?) (कसोमि॰16.12; 65.24)
1314 बचल-खुचल (= बच्चल-खुच्चल; बचा-खुचा, शेष, बाकी) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।; फेन भागल-भागल एहे गाम । चाच-चाची के तऽ फूटलो नजर नञ् सोहाय । ओकर नजर बचल-खुचल घर-घेरवारी पर हल । किसना के देख के दुन्नू के करेजा पर साँप लोटऽ लगल ।) (कसोमि॰19.3; 22.20)
1315 बजबज (~ गली) (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल ।; "कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !") (कसोमि॰59.23; 87.5)
1316 बजरुआ (बिठला के बजरुआ से भय नञ् हे । खाली गाँव के भाय-गोतिया नञ् देखे - बस्स । जात के बैर जात । देख लेत तऽ जात से बार देत ।) (कसोमि॰81.22)
1317 बजार (= बाजार) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।"; कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।) (कसोमि॰12.24; 13.9; 23.25)
1318 बज्जी (= केवल समास में प्रयुक्त, 'बजे वाला' अर्थ में, जैसे - बरहबज्जी गाड़ी) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।) (कसोमि॰28.14)
1319 बटइया (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।; बासो रुक जाहे । किसुन सिंह हाँक देबइ ले नञ्, दखल करइ ले आल हे । बेईमनमा ... बासो धान रोपला पर रजिस्टरी करइलक हल । बात तय हल कि ईमसाल के धान बटइया रह जइतो, हाँक हमहीं देबो ।) (कसोमि॰88.16; 96.27)
1320 बटरी (ऊ घर-गिरथामा करके सिलाय-फड़ाय वली बटरी लेलक आउ भौजीघर चल गेल । ... भौजी राते कहलकी हल - कल अइहऽ, नए डिजैन के बिलौज काटइ ले सिखा देबो । उनखा दोंगा में सिलाय मसीन मिलल हल ।) (कसोमि॰66.7)
1321 बटाय (= बटइया) (घर बनइ;ला, गोतिया-नइया देखइत रहलन । हाता देवऽ लगला, अगल-बगल वला दावा कैलकन । काम बंद । बटाय वला से बँटावइ लेल गेला तऽ हिसाबे नञ् समझ सकला, मुदा कुछ नञ् बोलला । जे देलकन, उठवा लेलका ।) (कसोमि॰26.8)
1322 बटुरी (बिठला रोटी गमछी में लपेट के बटुरी में रखलक अउ सिक्का पर टांग के नीम तर सुस्ताय ले चलल जा हल कि नजर चुल्हा तर धइल ताय दने चल गेल । पाछिल टिकरी धुआँ रहल हल । सुरमी कहियो ने पाछिल टिकरी केकरो खाय ले दे ।) (कसोमि॰79.9)
1323 बड़ (= बर, बरगद; वटवृक्ष; बहुत; बड़ा) (किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।; ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।; - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक । - निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल ।) (कसोमि॰22.10; 25.6; 88.18; 94.8)
1324 बड़का (= 1. वि॰ बड़गो, बड़गर; बड़ा; 2. बड़ा भाई, बेटा, चाचा आदि) (गाड़ी शेखपुरा टिसन से खुल गेल । कुसुम्हा हॉल्ट पार । बड़का टिसन डेढ़गाँव । एजा सब गाड़ी रुकतो । रुकतो की, रोक देतो, भैकम करके ।; पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी । हाय रे डिजैन ! दू गो कुरसी आउ टेबुल भी रंगा के आ गेल हे । आम के बड़का बक्सा ।; समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।) (कसोमि॰49.18; 54.17; 58.25)
1325 बड़की (= 1. वि॰ बड़ी; 2. सं॰ बड़ी बेटी, बहन, बहू आदि) (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।; ओकरा याद पड़ल - एक तुरी सुरमी बड़-छोट रोटी बनइलक । खाय घरी बड़की ओकरे हिस्सा पड़ल ।) (कसोमि॰58.26; 73.22, 23; 75.8, 10; 79.4)
1326 बड़गर (= बड़ा) (ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे । सब के अलग-अलग रंग । फेनो सब रंग घटमाँघेट हो गेल हे । एगो बड़गर भँवर भँउर रहल हे आउ तेकरा बीच लाजो ... लाजो नाच रहल हे ... अकुला रहल हे ।) (कसोमि॰46.12)
1327 बड़गो (= बड़गर; बड़ा) (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला ।; पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ ।; बुलकनी के दुन्नू बेटा हरियाना कमा हे । बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे ।) (कसोमि॰26.5; 49.1; 118.21)
1328 बड़-छोट (ओकरा याद पड़ल - एक तुरी सुरमी बड़-छोट रोटी बनइलक । खाय घरी बड़की ओकरे हिस्सा पड़ल ।; मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।; मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हाथ के ... सियार के पुच्छी ।) (कसोमि॰79.4; 89.23; 96.17)
1329 बड़-बड़ुआ (कहइ के तऽ सत्तू-फत्तू कोय खाय के चीज हे। ई तऽ बनिहार के भोजन हे। बड़-बड़ुआ एन्ने परकलन हे। अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल।) (कसोमि॰120.22)
1330 बड़हर (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.21)
1331 बड़ाय (= बड़ाई) (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।) (कसोमि॰55.10)
1332 बढ़ियाँ (= बढ़िया) (नकपाँचे के दिन सितबिया सोचलक - एक किलो मांस बमेसरे से ले लेम । साल भर के परब, के जानलक हे । से ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे ।) (कसोमि॰107.27)
1333 बतकुच्चन (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।) (कसोमि॰122.6)
1334 बतकुच्चह (= बतकुच्चन) (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?; एक दिन परेमन जूली-माय के बित्तर चल गेल आउ पलंग पर बइठल तऽ भेल बतकुच्चह । किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा ।; बागवला खेत लिखबइवला गाछो लिखबइ ले चाहऽ हल बकि बासो अड़ गेल । ढेर बतकुच्चह भेल हल नवादा कचहरी में । बासो बोलल हल - जीअइ ले तऽ अब कुछ नहियें बचल, जरइ ले तऽ लकड़ी रहऽ दऽ ।) (कसोमि॰51.21; 70.9; 89.26)
1335 बतासा (= सिर्फ चीनी की चासनी की मिठाई) (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.7)
1336 बतिआना (दे॰ बतियाना) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय ।) (कसोमि॰66.22)
1337 बतियाना (= बात करना) (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।; ओहे गाछ तर तितकी अउ लाजो झूला झूल रहल हल । फेरा-फेरी झूलइत ऊब गेल तऽ एक्के साथ झूला पर बैठ के हौले-हौले पेंघा लेबइत बतिआय लगल ।; असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् ।) (कसोमि॰28.22; 48.7; 68.7)
1338 बदे (= बारे में) (बिठला सुरमी के बदे सोचऽ लगल - ई देह से तऽ नञ्, बकि मुँह के जब्बड़ हे । एकरा हमर माय से कहियो नञ् पटल । छोवे महिना में हड़िया अलग करवा देलक हल ।) (कसोमि॰84.15)
1339 बद्दी (= कुश्ती, मल्लयुद्ध; प्रतियोगिता) (ललती तितकी में बद्दी - के आगू ? ललती आगू तितकी पीछू, तितकी आगू ललती पीछू बकि बरामदा चढ़इत दुन्नू साथ, एक्के तुरी ।) (कसोमि॰49.25)
1340 बधार (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।) (कसोमि॰76.3)
1341 बनाना-सोनाना (घर जाके मुनियाँ गोड़ धोलक आउ भंसा हेल गेल । घर में खाय-पानी ईहे करऽ हे । एकरा साँझे नीन अइतो । बना-सोना के खा-पी के सुत गेलो ।) (कसोमि॰65.22)
1342 बनिआल (= बनियाल; बानी बन्नल; बानी या राख बना हुआ) (दूध खौलऽ लगल । कपड़ा से पकड़ के कटोरा उतारलक अउ डमारा के आग चूर के लिट्टी बनिआल आग से तोप देलक ।) (कसोमि॰20.16)
1343 बनिहार (= बन या बनि लेकर काम करनेवाला, मजदूर) (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।; असेसर दा घर दने चल गेला । बनिहार एक लोटा पानी आउ हवाई चप्पल रख गेल । खड़ाँव के चलन खतम हो गेल हे । पहिले काठ के चट्टी चलऽ हल, बकि ओहो उपह गेल ।; बनिहार चाह रख गेल । दुन्नू सार-बहनोय चाह पीअइत रहला आउ गलबात चलइत रहल । - मंझला के समाचार ? - ठीक हइ । - लड़का अर तय भेलन ? - तय तऽ परेसाल से हइ, वसंत पंचमी के भेतइ, पटने में ।; - बनिहरवा की करऽ हो ? - एकर काम खाली जानवर खिलाना भर हो । खिला-पिला के सोझ । रात-बेरात के जानवर अपने देखऽ पड़ऽ हो । - कहऽ हो नञ् ? - कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान !) (कसोमि॰68.3; 69.27; 72.9, 21)
1344 बन्नुक (= बन्हुक; बन्दूक) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।; पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे । तहिये संकल्प कइलका - जोरू-जमीन जोर के आउ लिखा-पढ़ी करके बन्नुक के लैसेंस बनवा लेलन ।) (कसोमि॰28.13; 29.4)
1345 बन्नूक (दे॰ बन्नुक) (भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।; उनका लगल, ई कुल कौआ अब हमरे नोच के खा जात, एकरा लेल ऊ अपन बन्नूक तान के उछलऽ लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल ।; ऊ बन्नूक लेके अपन घर के चौपटी दौड़ऽ लगला आउ हाल-हाल चिल्लाइत रहला, चिल्लाइत रहला । थक गेला तऽ भित्तर जाके लोघड़ा गेला ।) (कसोमि॰30.21, 26; 31.2)
1346 बन्हना (= बँधना) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।) (कसोमि॰50.24)
1347 बन्हाना (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।) (कसोमि॰55.10)
1348 बप्पा (= बाप+'आ' प्रत्यय) (समली साल भर से बीमार हल । परसाल जखने धरवे कइलक हल, ननमा पटना में देखा देलकइ । बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् ।) (कसोमि॰58.15)
1349 बयार (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ । - मगही लगइहऽ, बंगला नञ् । बंगला पान तो भैंसा चिबावऽ हइ । आउ हाँ, इनखा मीठा चलो हन । तनि बयार फेंकइ वला दहुन । - बयार फेंकइवला कइसन होबऽ हइ ? कल्लू नए बोल सुनइलक । - अरे पिपरामेंट देहो, खइलिअइ कि मुँह में बिजुरी पंखा चलो लगलो । गोल दायरा में हाथ नचावइत मौली बोलल ।) (कसोमि॰112.9, 10)
1350 बर (= बरगद, वटवृक्ष) (सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल । नदी किनारे बर के पेड़ तर जा के डेरा डाललक ।) (कसोमि॰20.1)
1351 बरकना (चारो अनाज तार-तूर के बरकइ ले छोड़ देलक आउ अदहन चढ़इलक। खिचड़ी बनते-बनते रनियां आ जात। आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल।) (कसोमि॰121.11)
1352 बरकाँ (= बारह का पहाड़ा) (तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।) (कसोमि॰103.1)
1353 बरतुहार (एक दिन परमेसरावली के बाल-बच्चा खा रहल हल । थरिया में बरतुहार के जुट्ठा हलुआ-पुरी हल । बमेसरा के मँझला देखते-देखते हलुआ लुझ के भाग गेलइ । बुतरू के बात बड़का तक पहुँच गेल आउ भेल महाभारत ।) (कसोमि॰105.13)
1354 बरतुहारी (सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल । ... कभी तऽ बरतुहारी में गाड़ी पकड़इ ले धौगल जाहे, हाँहे-फाँफे ... सिंगल पड़ गेल हे । गाड़ी लुकलुका गेल हे ... तेज ... आउ तेज धौगल हे । लेऽ ... गाड़ी तनि सुन ले छूट गेल हे । लटफरेम पर खड़ा-खड़ा दूर जाइत गाड़ी के मनझान मन से देख रहल हे ।; टिकैतबा बूझतो कि हमहीं बनल काम बिगाड़ देलिअइ । बोग्ज अइसन दुस्मनी सधावै के दाव खोजते रहतो । सोंचहो भला, बेटी तऽ समाज के होबऽ हइ । हमर बरतुहारी तक बिगाड़ते चलतो ।) (कसोमि॰63.5; 112.27)
1355 बरना (= जलना; लगना; अनुभव होना) (बौल ~; सुरसुरी ~; गोस्सा ~; जरनी ~; झुकनी ~; नोचनी ~) (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।; परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल ।) (कसोमि॰46.25)
1356 बरहबज्जी (= बारह बजे का) (~ गाड़ी) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।) (कसोमि॰28.14)
1357 बरहमजौनार (बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।) (कसोमि॰115.8)
1358 बरहमसिया (उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰74.1)
1359 बराहिल (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो ।) (कसोमि॰25.16)
1360 बरिआत (= बरात; बारात) (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.22)
1361 बरिआती (= बराती; बारात; झुंड) (सब घर के कठौती-कड़ाही, बाल्टी लावे के काम बुतरुए के । रस्ता में माथा पर औंधले लकड़ी से बजैले बरिआती के बैंड पाटी नियन नाचइत-गावइत आवऽ हल । पानी जुटावे बुतरू, सखरी माँजे बुतरू ।) (कसोमि॰21.8)
1362 बरी (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।) (कसोमि॰105.10)
1363 बरेड़ी (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।) (कसोमि॰11.4)
1364 बलइया (ले ~) (बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे । - कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन ।) (कसोमि॰111.20)
1365 बलाय (जब ने तब हमरे पर बरसत रहतउ। दीदी तऽ दुलारी हइ। सब फुल चढ़े महादेवे पर । ओकरे मानऽ हीं तऽ ओहे कमइतउ। हम तऽ अक्खज बलाय हिअउ। फेंक दे गनउरा पर। नञ् जाम कोकलत। कय तुरी नहा अइलूँ हे।) (कसोमि॰120.3)
1366 बस्तर (= वस्त्र) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.24)
1367 बहराना (= बाहर जाना) (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत । सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल ।; हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक ।; सुकरी पुछलक - हइ कोय मोटरी ? / सरना - ई बजार में तऽ हम दुन्नू हइए हिअउ । देख रामडीह । / सुकरी लपकल सोझिआल । कोयरिया इसकुल भिजुन पहुँचल कि गेट से भीम सिंह चपरासी बहराल ।; बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।) (कसोमि॰19.19; 33.19; 36.1; 80.1)
1368 बहिन (= बहन) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।) (कसोमि॰43.2)
1369 बहिनधी (= बहन की बेटी) (के बिनलकउ सुटरवा, बहिनधीया ? अंजू के नावा सूटर देख के समली पुछलक आउ ओकर देह पर हाथ फिरावऽ लगल ।) (कसोमि॰58.7)
1370 बहीन (= बहन; दे॰ बहिन) (रसलपुरवली के शेखपुरा अस्पताल में आठ टाँका पड़ल हल । जादेतर छोटके परब-तेहवार में कुछ ने कुछ लेके बहीन हियाँ आवऽ हल । बुलकनी के पता चलल तऽ भउजाय के देखइ ले शेखपुरा चलि गेल ।) (कसोमि॰118.4)
1371 बहीर (= बधिर; बहिरा; बहरा) ("लेऽऽ ... सुनलें ने मातलें ... अइसईं नया घोड़ी सन बिदको लगलें । बोल चिक्को, कि बुझलें ?" - "बोलइ ने, से कि हम बहीर ही ?") (कसोमि॰12.9)
1372 बाउ (= बापू; बाबू) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।) (कसोमि॰22.14; 46.21; 47.26; 84.9, 10)
1373 बाऊ (दे॰ बाउ) (- अरे, अदरा पनरह दिन चलऽ हइ बेटा ! - पनरह दिन अदरा हमरो घर चलतइ ? - अदरा एक दिन बनाके खाल जा हइ । - की की बनइमहीं ? - खीर, पूरी, रसिया, अलूदम ! - लखेसरा घर तऽ कचौड़ी बनले हे । ओकर बाऊ ढेर सन आम लैलथिन हे । ई साल एक्को दिन आम चखैलहीं माय ?) (कसोमि॰32.18)
1374 बात-विचार (भौजी से एकरा पटइ के एगो आउ कारन हल । मुनियाँ तऽ सिलाय-फड़ाय सीखऽ हल, बकि भौजी एकरा से पढ़ाय सीखऽ हली । बात-विचार मिलवे करऽ हल ।) (कसोमि॰66.17)
1375 बादर (= बादल) (हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक । बादर चुचुआ गेल हल । मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल ।) (कसोमि॰33.21)
1376 बाना (खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन ! हम तऽ माउग हिअन । माउग कि तोर खाली टासे बनइते रहतो ! ओकरा आउ कुछ मन करऽ हइ कि नञ् ! छाम-छीन नञ्, बकि सिनुरा-टिकुली नञ् ? सोहागिन के बाना चूड़ी भी लावइ से अजुरदा ।) (कसोमि॰101.9)
1377 बानी (= राख) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।") (कसोमि॰12.22)
1378 बान्हना (= बाँधना) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।; गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।"; हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल । ओकर हाथ हरदम फित्ता रहे । नाप-जोख के एक-एक तार में सुतार । गाँव के लोग झुंड बान्ह के देखे ले आवे ।; मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू । खा बान्ह-बान्ह लड़ुआ ।) (कसोमि॰14.21; 17.9; 27.18; 33.25)
1379 बापुत (- भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान ! / बासो तऽ निमियाँ आउ बेलदरिया से तेसरे साल विदा भे गेल । बचइ माधे ईहे दस कट्ठा भिखरिया हल बकि ... एहो ... । भिखरिया के अलंग पर दुन्नू बापुत के गोड़ बढ़ल जाहे ।) (कसोमि॰96.14)
1380 बाबापूजी (- खाली पेट मत जादे पी । बासो बोलल । - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक । - निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल । - तनि मिठवा दे ने दे । मुनमा हाथ बारइत माँगलक । - बाबापूजी होतइ तब ने । मुनमा-माय टोकलक ।) (कसोमि॰94.10)
1381 बाबा-बाउ (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।) (कसोमि॰59.12)
1382 बामा (= बायाँ) (तितकी चरखा निकाल के लाजो के हाथ में देलक आउ ओकर पीछू में जाके बैठ गेल । तितकी लाजो के दहिना हाथ से कील आउ बामा से पूनी पकड़ के रस-रस घुमवऽ लगल । लाजो के बामा हाथ उठइत-उठइत अपन ऊँचाई भर तन गेल ।) (कसोमि॰45.13)
1383 बामे-दहिने (= बाएँ-दाएँ) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।) (कसोमि॰89.8)
1384 बारना (= जलाना; जाति से बहिष्कृत करना) (बिठला के बजरुआ से भय नञ् हे । खाली गाँव के भाय-गोतिया नञ् देखे - बस्स । जात के बैर जात । देख लेत तऽ जात से बार देत ।) (कसोमि॰81.24)
1385 बास (= वास) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।) (कसोमि॰22.17)
1386 बासी (~ मुँह) (बुलकनी धथपथ आल आउ पहिले गेहुम के कठौती में फूलइ ले देलक। चूल्हा जोर के बूँट, मसुरी आउ केराय के तारऽ लगल। तितकी अभी लउट के नञ् आल हल। रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें, कुछ खा नञ् लेलें?") (कसोमि॰121.5)
1387 बासी-कुसी (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.19)
1388 बासोबास (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।) (कसोमि॰110.5)
1389 बिंडोबा (अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल, जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।) (कसोमि॰120.14)
1390 बिआहना (= विवाह करना) (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।) (कसोमि॰58.27)
1391 बिख-बुझल (~ बोली = कड़वा वचन) (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो । रेकनी के बिख-बुझल बोली के काँटा नञ् गड़त हल तऽ दोसर दिन सरवन चा के खरिहान में भोज उड़त हल ।) (कसोमि॰25.17)
1392 बिजकाना (मुँह ~) (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰102.18)
1393 बिज्जे (= खाने के लिए बुलाहट) (बंगला पर जाके चद्दर तान लेलका । खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो ।) (कसोमि॰75.20)
1394 बिझलाह (इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ? चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं ।) (कसोमि॰29.24)
1395 बिटनी (तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल । कल बीट के दिन हल । तितकी जल्दी-जल्दी हाथ चला रहल हल । ओकर आँख तर बीट के भीड़ नाच रहल हल । चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी नियन बिटनी सब के भीड़ । जादेतर लड़किए रहऽ हल, तीन हिस्सा ।) (कसोमि॰44.13)
1396 बिड़नी (= बिढ़नी, बर्रे, ततैया) (खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक ।; ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन । अइसने खिस्सा दुआरी-दुआरी हो रहल हल । गाँव कनकना गेल हल, उसकावल बिड़नी नियन । गाँव दलमल ।) (कसोमि॰49.21; 55.23)
1397 बिदकना ("लेऽऽ ... सुनलें ने मातलें ... अइसईं नया घोड़ी सन बिदको लगलें । बोल चिक्को, कि बुझलें ?" - "बोलइ ने, से कि हम बहीर ही ?"; "गारो मर गेल चिक्को । ई तऽ बुढ़वा हे, माउग के भीख खाय वला । तों ठीक कहऽ हें चिक्को । कल से हमहूँ माँगवउ । .." ऊ कथरी पर घुकुर गेल ... मोटरी नियन । चिकनी बिदकल, "तों काहे भीख माँगमें, हम कि मर गेलिअउ ?") (कसोमि॰12.8; 15.5)
1398 बिदोरना (मुँह ~) (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।) (कसोमि॰78.26)
1399 बिधंछ (= बिधंस; विध्वंश, नाश, बरबादी) (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।) (कसोमि॰26.2)
1400 बिध-बिधान (= विधि-विधान) (बानो पिंडा बबाजी के आगू बैठल । पंडित जी बिध-बिधान कैलका अउ पगड़ी बाँधइ ले गोतिया के हँकैलका ।) (कसोमि॰115.11)
1401 बिन (= बिना) (उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰73.27)
1402 बिरहा (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।) (कसोमि॰23.6)
1403 बिर्र (भगदड़ मच गेल । सब कोय डर से यह ले, वह ले, बिर्रऽऽऽऽऽ ।; एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक । ऊ खाली इसारा के इंतजार में हल । कुरसी खिसकल नञ् कि बिर्रऽऽ धकिअइते, ठेलते, कूदते !) (कसोमि॰31.1; 104.4)
1404 बिलउक (= बलउक; ब्लॉक, प्रखंड) (चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ । "आझे भर चिक्को ... । कल से तऽ बिलउक वला कंबल होइए जात ।" गारो सिसिआइत बोलल ।; गारो के आँख तर बिलउक नाच गेल । गारो कत्ते बेरी बुढ़िया के साथ बिलउक गेल हे ... इन्कलाब जिंदाबाद ! रोजी, रोटी, कपड़ा ... कपड़ा ? कम्मल भी तो कपड़े न हे ?) (कसोमि॰17.5, 21, 22)
1405 बिलबिलाना (जइसन जिनगी उनखा सबके नसीब भेल, ओही जिनगी के साथ ऊ सब पात्र जोंक जइसन चिपकल रहऽ हथन । परिस्थिति नून जइसन ई सब जोंकवन पर पड़ऽ हइ त ऊ सब खूने-खून होके बिलबिलाय लगऽ हथ ।; मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰6.13; 88.7)
1406 बिलाड़ (= बिलार) (ई मुखिबा कहतउ हल हमरा अर के ? एकर तऽ लगुआ-भगुआ अपन खरीदल हइ । देखहीं हल, कल ओकरे अर के नेउततउ । सड़कबा में की भेलइ ? कहइ के हरिजन के ठीका हउ मुदा सब छाली ओहे बिलड़बा चाट गेलउ । हमरा अर के रेटो से कम ।) (कसोमि॰12.19)
1407 बिलाय (= बिल्ली) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.25)
1408 बिलौज (= ब्लाउज) (ऊ घर-गिरथामा करके सिलाय-फड़ाय वली बटरी लेलक आउ भौजीघर चल गेल । ... भौजी राते कहलकी हल - कल अइहऽ, नए डिजैन के बिलौज काटइ ले सिखा देबो । उनखा दोंगा में सिलाय मसीन मिलल हल ।) (कसोमि॰66.11)
1409 बिसतौरी (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।) (कसोमि॰38.1)
1410 बिसुआ (अस्पताल से लउट के बुलकनी जोजना बनइलक - घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात ।) (कसोमि॰119.3)
1411 बिहान (= सुबह; कल) (घरहेली भेल, खूब धूमधाम से । गाँव भर नेउतलन हल । भला, ले, कहीं तो, घरहेली में के नञ् खइलक ? राँड़ी-मुरली सब के घर मिठाय भेजलन हल बिहान होके । पुजवा नञ् भेलइ तऽ की ? पुजवो में तऽ नञ् अदमियें खा हइ । से की देवतवा आवऽ हइ खाय ले ।; तरसल के खीर-पुड़ी, लिलकल के सैयाँ । जल्दी बिहान मतऽ होइहा गोसइयाँ ॥) (कसोमि॰30.11; 64.27)
1412 बीच-बिचाव (बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइँठ में बान्ह लऽ। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हऽ, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस ?") (कसोमि॰122.23)
1413 बीट (तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल । कल बीट के दिन हल । तितकी जल्दी-जल्दी हाथ चला रहल हल । ओकर आँख तर बीट के भीड़ नाच रहल हल । चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी नियन बिटनी सब के भीड़ । जादेतर लड़किए रहऽ हल, तीन हिस्सा ।; जहिया से लाजो बीट कराबइ ले काशीचक जा रहल हे, बाउ के सउदा-सुलुफ से फुरसत । तितकी आउ लाजो के जोड़ी अबाद रहे ।) (कसोमि॰44.11, 12; 48.1)
1414 बीड़ी (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । .."; घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।) (कसोमि॰11.14; 14.8)
1415 बीड़ी-सलाय (ऊ टटरी लगा के टंगल दोकान गेल आउ बीड़ी-सलाय के साथे-साथ दलमोट खरीद के आल आउ फेन खाय-पीए में जुम गेल । अबरी पानी मिला के दारू बनइलक अउ दलमोट के साथ घूँट भरऽ लगल ।) (कसोमि॰83.11)
1416 बुक्का (~ फाड़ के कानना) (अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।) (कसोमि॰60.9)
1417 बुझनगर (- तों की लेलहीं ? लाजो से तितकी पुछलक । - हमरा की पैसा हलउ । तों जानवे करऽ हीं, परसाल धानधुर्रा मरिए गेलउ । रहऽ हलउ तऽ मइयो चोरा-नुका के दे दे हलउ । लाजो बुझनगर सन गाल पर हाथ धइले बोलल ।; समली बुझनगर हे । एक दिन माय भिजुन बैठल लुग्गा सी रहल हल । माय से कहलक - धौली के देखऽ हीं ने, धौताल होल जा हउ । हमरा से छोट बकि कोय कहतइ ? बाबा कुछ धेआन नञ् दे हउ । बाउ से कहहीं, ओकरा बिआह देतउ । हमरा की, हम कि बचबउ से ।; परेमन भी अब बुझनगर भे गेल हे । लड़ाय दिन से ओकरा में एगो बदलाव आ गेल हे । पहिले तऽ चचवन से खूब घुलल-मिलल रहऽ हल । गेला पर पाँच दिना तक ओकरे याद करते रहतो हल, बकि ई बेरी ओकरा हरदम गौरव-जूली से लड़ाय करे के मन करते रहतो, कन्हुआइत रहतो, ... सगरखनी ... गांजिए देबन ... घुमा के अइसन पटका देबन कि ... ।) (कसोमि॰48.20; 59.1; 71.16)
1418 बुझाना (= लगना, प्रतीत होना) (बिठला के भूख बुझाल । दिन माथा पर आ गेल हल । सोचलक काहे ने खा ली । से उठल अउ भीतर जाके दारू लइलक अउ भुइयें में बइठ गेल । पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक ।) (कसोमि॰80.12)
1419 बुट्टी (= नाटी और मोटी) (~ मिचाय) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.15)
1420 बुढ़भेस (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।") (कसोमि॰12.6)
1421 बुढ़ारी (= बुढ़ापा) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।") (कसोमि॰12.6)
1422 बुतरू (= बालक, बच्चा) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।; किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰19.2; 22.13)
1423 बुतरू-बानर (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे ।; बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।; बुतरू-बानर के जमात में जानकारी के उत्सुकता हल । जूली अपन बड़ भाय से पूछऽ हे - ई कौन है ?; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।) (कसोमि॰21.4; 69.12; 70.6; 75.11)
1424 बुताना (= अ॰क्रि॰ बुझना; स॰क्रि॰ बुझाना) (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । .."; चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।"; चिकनी उठल अउ ठठरी लगा के दीया बुता देलक । आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... ।) (कसोमि॰11.14; 15.7; 16.25)
1425 बुनिया (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.25)
1426 बुलनइ (= चलना-फिरना) (ससुर के नञ् देखके पुछलका - बाबूजी नञ् बुझा हथिन ! - पोखर पर गेलथिन हे । बुलनइ अभियो नञ् बंद भेलन हे ।) (कसोमि॰71.27)
1427 बुलना (= चलना) (अन्हरुक्खे बारह पौंट के सूट बीनइवला काँटा लेले अंजू समली घर दौड़ल । गाँव में समलीये अइसन लड़की हल जेकरा भिजुन ओकरा मन लगऽ हल । कल समली कहलक हल - अंजू, अब हम नञ् मरबइ गे । देखो हीं नञ्, अब हम बुलऽ लगलिअइ ।; खाली कमजोरी रह गेले हे । बुलबउ तऽ असिआस चढ़ जइतउ । सहों-सहों सब ठीक हो जइतइ ।; - हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰57.4, 8; 58.5)
1428 बूँट (जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।; खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰23.25; 117.2)
1429 बूँट-खेसाड़ी (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰120.25)
1430 बूँट-राहड़ (= चना-अरहर) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।) (कसोमि॰61.12)
1431 बूढ़-बुतरू (= बूढ़े-बच्चे) (कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न । आँख-नाक से पानी ... धौंकनी सन करेजा कुत्ता सन हफइत बेतिहास भागल जा हे अउ पीछू-पीछू नब्बे लाख आदमी ... बूढ़-बुतरू जुआन ओकरा खदेड़ले जा हे आछिः आछिः ।) (कसोमि॰14.4)
1432 बेंग (= मेढ़क) (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।) (कसोमि॰80.22)
1433 बेंचुआ (ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।) (कसोमि॰62.17)
1434 बेकछियाना (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।; मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल ।) (कसोमि॰76.5; 88.10)
1435 बेचना-काटना (सितबिया के सपना पूरा भे गेल । पुरनका घर में बमेसरा कुछ दिन रहल आउ अन्त में सो रुपया महीना पर किराया लगा देलक । ओकरो लेल ऊ घर लगहर बकरी भे गेल - दूध के दूध आउ पठरू बेच-काट के अच्छा पैसा कमाय लगल ।) (कसोमि॰107.24)
1436 बेजाय (डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?) (कसोमि॰87.9)
1437 बेटखउकी ("अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।" - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।" - "नञ् ने देवो ... फेन मुड़ली बेल तर। ने गुड़ खाम ने कान छेदाम। सो बेरी के बेटखउकी से एक खेर दू टूक। साफ कहना सुखी रहना।") (कसोमि॰123.6)
1438 बेटा-पुतहू (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.20)
1439 बेतिहास (= बेतहासा) (कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न । आँख-नाक से पानी ... धौंकनी सन करेजा कुत्ता सन हफइत बेतिहास भागल जा हे अउ पीछू-पीछू नब्बे लाख आदमी ... बूढ़-बुतरू जुआन ओकरा खदेड़ले जा हे आछिः आछिः ।; भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।) (कसोमि॰14.3; 30.21)
1440 बेपनाह (एगो सरकारी कम्बल पावे के सपना देखइत-देखइत ऊ बेपनाह पाला में ठिठुर के अप्पन प्राण गँवा देलक ।) (कसोमि॰6.17)
1441 बेमान (= बेइमान) (महाजन के अत्याचार ! सुदखोर के फजीहत ! भीड़ गरमा जाहे । रह-रह के इन्कलाब के नारा लगऽ हे । सितालम लगा के कुरसी पर बैठल हरगौरी बाबू भी नाटक देख रहला हे । उनखर त्योरी चढ़ गेल । सुदखोर ... बेमान ... । इसारा पाके उनकर अदमी हंगामा खड़ा करा देलक ।; सितबिया बीचे में टोकलक - अरे बेमनमा । एतना दिना से रहिओ रहले हें आउ उलटे चोरा मारा-मारी । हम किराया के हिसाब करिअउ तब ?) (कसोमि॰53.15; 108.24)
1442 बेमारी (= बीमारी) (लाजो के ढेर रात तक नीन नञ् आल । ऊ मने-मन छगुनइत रहल - काड ... चरखा ... रुइया ... नेयार ... सजावट ... माय के बेमारी ... भइया के बेरोजगारी ... बाउ के खस्ता हाल ... बड़की दी आउ जीजा जी के बिगड़इत रिस्ता ... करजा के भार से चँपइत बाउ ... करजदार के गुड़की । ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे ।; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।- तों बेकार ने चिंता करऽ हें । ई कौन बेमारी हइ । एकरो से कड़ा-कड़ा तऽ आजकल ठीक भे जाहे । अउ हम्मर चिंता छोड़ । हम गजरा-मुराय हिअइ कि कोय मचोर लेतइ ।) (कसोमि॰46.8; 51.16)
1443 बेयाय (= बिवाई) (किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।) (कसोमि॰22.8, 11)
1444 बेर (= बेरी, तुरी, दफे, बार) (गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰35.9)
1445 बेरी (=तुरी; बेर, बार, दफा) (कत्तेक ~) ("अच्छा, सच्चे कंबल मिलतइ ?" चिकनी के विस्वास नञ भे रहल हल । अइसन तऽ कत्तेक बेरी सुनलक हे ... कत्ते बेरी डिल्ली, पटना भी गेल हे झंडा-पतक्खा लेके मुदा ... ।; गैंठ देल भुदानी थैला के कंधा से उतार के खुट्टी में टाँगइत चलित्तर बाबू अपन मेहरारू से पुछलका - कइसन हइ बरखा ? हले ले, दे देहीं दवइया, आधा-आधा गोली तीन बेरी । सीसियावला जइसे चलऽ हइ, चले दहीं ।) (कसोमि॰17.12)
1446 बैल-पगहा (~ बेच के सुतना) (सुत रह ... देखहीं अउ हाँ, भोरगरे उठा दीहें, बेस !" गारो कनमटकी दे देलक । गारो कम्मल के सपना में डूब गेल - नञ जानूँ कइसन कम्मल मिलत ? धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।) (कसोमि॰17.17)
1447 बो (~ फोरना) (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !) (कसोमि॰54.5)
1448 बोखार (= बुखार) (तहिये से हरगौरी बाबू खटिया पर गिरला आउ बोखार उतरइ के नामे नञ् ले रहल हे । एक से एक डागदर अइलन पर कुछ नञ् ... छाती हौल-हौल करऽ हे । सुनऽ ही, बड़का डागदर कह देलन हे कि इनका अदंक के बीमारी हे ।) (कसोमि॰56.11)
1449 बोखार-तोखार (समली के मुँह पर हाथ रखइत कहलक हल - मरे के बात मत कह समली, हमरा डर लगऽ हउ । - पगली, अब बोखार-तोखार थोड़े लगऽ हइ । खाली कमजोरी रह गेले हे । बुलबउ तऽ असिआस चढ़ जइतउ । सहों-सहों सब ठीक हो जइतइ ।) (कसोमि॰57.7)
1450 बोग्ज (टिकैतबा बूझतो कि हमहीं बनल काम बिगाड़ देलिअइ । बोग्ज अइसन दुस्मनी सधावै के दाव खोजते रहतो । सोंचहो भला, बेटी तऽ समाज के होबऽ हइ । हमर बरतुहारी तक बिगाड़ते चलतो ।) (कसोमि॰112.27)
1451 बोझड़ी (= बोझली, छोटा बोझा) (घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात । ई लेल सबेरे उठल आउ बोझड़ी के खरिहान में पसार देलक । पछिया खुलल हल, खरंगते कि देरी लगत !) (कसोमि॰119.5)
1452 बोझा (= बोझ) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।) (कसोमि॰14.21)
1453 बोथ (= बोत; पानी आदि से तर) (चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।") (कसोमि॰15.10)
1454 बोथना (= बोतना; अ॰क्रि॰ किसी द्रव से तर होना; स॰क्रि॰ किसी द्रव से तर करना) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.13)
1455 बोरना (मुनमा चटनी में बोर के पहिल कौर मुँह में देलक - हरहर तीत ! कान रगड़इत कौर निंगललक आउ घटघटा के पानी पीअ लगल । - खाली पेट मत जादे पी । बासो बोलल । - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक ।- निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल । - तनि मिठवा दे ने दे । मुनमा हाथ बारइत माँगलक । - बाबापूजी होतइ तब ने । मुनमा-माय टोकलक । मुनमा सपूत नियन निम्मक बोर-बोर के हिंछा भर खइलक आउ पानी पीके खपड़ा दने चल गेल ।) (कसोमि॰94.4, 11)
1456 बोरसी (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।"; चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।) (कसोमि॰12.4, 22; 13.22; 47.9)
1457 बोरा (= बोड़ा) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । ... तितकी-लाजो थोड़े देरी खड़ी-खड़ी भीड़ देखइत रहल अउ अपना लेल सुबुक जगह टेवते रहल । पड़ियायन टोला के सब्बो हँकइलक - एन्ने आव एन्ने, जग्गह हउ । सब्बो साँझे से बोरा बिछा के दखल कइले रहऽ हे ।) (कसोमि॰52.27)
1458 बोरिया (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।) (कसोमि॰11.4)
1459 बोलना-भूकना (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही । / दुन्नू भाय में अइसइँ साँझ के साँझ कट-छट होतो । होवऽ हे ओहे, जे बड़का भइया खेती मधे चाहऽ हथ । चलित्तर बाबू खाली बोल-भूक के रह गेला ।) (कसोमि॰102.22)
1460 बोलाहट (= बुलाहट, बुलावा) (आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।) (कसोमि॰14.12)
1062 नइहरा (= नैहर) (बुलकनी के नइहरा - हुसेना में चार बीघा के खेती हल । माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे ।) (कसोमि॰117.9)
1063 नकपाँचे (= नागपंचमी) (नकपाँचे के दिन सितबिया सोचलक - एक किलो मांस बमेसरे से ले लेम । साल भर के परब, के जानलक हे । से ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे ।) (कसोमि॰107.25)
1064 नगीच (= नजदीक) (ई फिल्म के सूटिंग घड़ी एकाध बरस तक सत्यजित राय के कार्य-पद्धति के अनके-परखे के क्रम में उनका एकदम नगीच से देखे के विलक्षण अवसर हमरो मिलल हल ।; बाहर से पुरवइया के झोंका पीठ के हड्डी तड़का देलक । चिकनी बोरसी के नगीच घसक के अलुआ निकालऽ लगल ।) (कसोमि॰5.20; 16.18)
1065 नघेत (पगली, देखऽ हीं नञ्, हमरा चारियो पट्टी से खोंटा-पीपरी आउ मधुमक्खी काट रहलइ हे । तों खड़ी-खड़ी देखऽ हें, झाड़ आउ देख ओन्ने - नघेतवा में कौआ मकइया खा रहलउ हे । उड़ाव ... हाल-हाल, हाल ... ।) (कसोमि॰29.16)
1066 नजकिआना (= नजदीक आना) (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।) (कसोमि॰54.13)
1067 नजरचढ़ू (एकर मरद दिल्लीवला चुनाव में मारल गेल हल। नया-नया लाल झंडा उठइलक हल। बड़कन के नजरचढू भे गेल हल। भोट देके निकल रहल हल कि बूथ लुटेरवन छेंक लेलक। गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आउ ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल।) (कसोमि॰121.21)
1068 नजीक (= नगीच; नजदीक) (उनकर मेहरारू छत पर चढ़के थोड़े देरी समझइ के कोरसिस कइलन आउ रस-रस नजीक जाके हाथ पकड़ के पुछलकी - तोहरा की हो गेलो ? पागल नियन काहे ले कर रहलहो हे ?; याड में एगो मालगाड़ी खड़ा हल जेकरा पर ढेर सनी भैस लदल हल । एक जगह दूध नपा रहल हल । ओकर कान खड़कल - सस्ता भेत । सुकरी नजीक पहुँच गेल । कहलक - एक किलो हमरो दे दऽ ।) (कसोमि॰29.12; 40.9)
1069 नदारथ (= नदारत) (बाते-बात बमेसरा कहलक - देख, अब अइसे नञ् चलतउ । देख रहलहीं हे कचहरी के ओर-बोर ! ई तरह से तऽ तोरा घर भेलउ से कुछ बाकी । तों जन्नी जात । एकरा ले करेजा के साथे-साथ धिरजा चाही । तोरा में ई दुन्नू नदारथ हउ । हम एक राय दिअउ ?) (कसोमि॰106.23)
1070 नद्दी (= नदी) (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; " ... पागल नञ् होथिन तऽ आउ की, अजोधा जी के बड़ी छौनी के महंथ बनथिन ।" गाँव के चालो पंडित बोल के कान पर जनेउआ चढ़ावइत चल देलन नद्दी किछार ।; मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।) (कसोमि॰20.24; 29.10; 33.23, 24)
1071 ननदोसी (= ननदोई; ननद का पति) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय ।) (कसोमि॰66.23)
1072 ननमा (= नाना+'आ' प्रत्यय+ मकार आगम) (समली साल भर से बीमार हल । परसाल जखने धरवे कइलक हल, ननमा पटना में देखा देलकइ । बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् ।) (कसोमि॰58.15)
1073 नयका (= नइका, नाया; नया) ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !"; नयका छारल ओसरा पर फेन खटिया बिछ गेल । माय साँझ-बत्ती देके मोखा पर दीया रख के अंदर चल गेल ।) (कसोमि॰87.12; 95.1)
1074 नयकी (= नइकी; नई) ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !") (कसोमि॰87.12)
1075 नल्ली (= नाली) (फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल । लाजो नल्ली पर से रपटल आके ओढ़ना में घुकुर गेल । ढेर रात तक ऊ बाँह लाजो के देह टोबइत रहल, टोबइत रहल ।; बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे । कापो सिंह के केबाड़ खुलल । डेउढ़ी में दारू के बोतल आधा खाली कर देहे आउ फुसफुसा के बोलऽ हे - "बाँसा अर दे दऽ आउ जा के सुत्तऽ । अब हम रही कि बजार के नल्ली । जे होतइ, देख लेबइ । सब तऽ गेनरा ओढ़ के घी पीअ हइ कापो बाबू ।"; "कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !") (कसोमि॰46.26; 82.9; 87.3)
1076 नसपिट्टा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.23)
1077 नहाना-सोनाना (पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल ।; माय नहा-सोना के सीरा-पिंडा कइलकी आउ मुनियाँ के गोड़ लगा देलकी ।) (कसोमि॰63.18; 64.4)
1078 नाता-कुटुम (- तेलो तो झरल हइ ... देखऽ हिओ । - एक्को महीना तो नञ् ने पूरऽ हो ? - एन्ने नाता-कुटुम में जास्ती उठ गेलइ । - नाता-कुटुम कि तोरा नञ् जानऽ हथ, जे झाँपइ ले छनउआ खिलावऽ हो ।) (कसोमि॰99.3, 4)
1079 नाद (= नाँद) (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.3)
1080 नाना (= घुसाना, डालना) (एगो बीड़ी सुलगा के तनी देह सोझ करऽ लगल । बुताल बीड़ी कान पर खोंसइत उठल आउ गमछी में लिट्टी रख के झोलऽ लगल । धूरी झड़ गेल तऽ दू लिट्टी फोड़ के दूध में ना देलक आउ दू गो झोला में रख लेलक ।; चाह पीके गिलास बेंच तरे रखइत पइसा निकालऽ लगल तऽ तानो ओकर जेभी में नाल हाथ दाबइत बोलल - पइसा हम देबइ । रहऽ दऽ ।) (कसोमि॰20.19; 112.3)
1081 नान्ह (= नन्हा, बहुत छोटा) (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।"; पुटुआ रानी के मुँह में अपन नान्ह हाथ से अपना दने घुमावइत बोलल, "हमला एदो दहाज किना दिहें दीदी....सुईंऽऽऽ।" बुलकनी के लगल जइसे ऊ सौंसे परिवार के साथ ओहे जहाज पर उड़ल मेला देखे जा रहल हे।) (कसोमि॰123.17; 126.4)
1082 नारंदी (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।) (कसोमि॰23.5)
1083 नारा-फुदना (बकि बलेसरा के तऽ भट्ठा के चस्का ! साल में एका तुरी अइतो । सुकरी नारा-फुदना पर लोभाय वली नञ् हे । हम कि सहरे नञ् देखलूँ हे ! कानपुर कानपुर ! गया कि कानपुर से कम हे ?; माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰35.5, 10)
1084 निकसना (= निकलना) ("डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?" बोल के बिठला लड़खड़ाल सुरमी के हाथ पकड़ले कोठरी से निकस के नीम तर आल आउ मुसहरी भर के हँका-हँका के कहे लगल - "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !") (कसोमि॰87.10)
1085 निक-सुख (दे॰ नीक-सुख) (बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।) (कसोमि॰115.8)
1086 निकौनी (बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।; ओकरा याद आल - सुरमी के हिस्सा तऽ बेकारे बनइलूँ । दिन भर निकौनी । बेचारी कोल्हू के बैल नियन जुतल हे । बाप-घर से जे भी दू खंडा लइलक हल, खा-पी गेल ।) (कसोमि॰80.1, 10)
1087 निखालिस (मिथिलेश जी जे कथ्य चुनऽ हथ, उनखर जे पात्र हइ - ऊ सब एकदम निखालिस मगहिया समाज के हाशिया पर खड़ा, अप्पन जीवन जीये के जद्दोजेहद में आकंठ डूबल लोग-बाग हे ।) (कसोमि॰5.6)
1088 निचिंत (= निश्चिन्त; दे॰ निचित) (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक। राह कलउआ लेल ठेकुआ अलग से छान देलक। निचिंत भेल तऽ धेयान तितकी दने चल गेल। अभी तक नञ् आल हे। ई छौंड़ी के मथवा जरूर खराब भे गेले हे।) (कसोमि॰124.1)
1089 निचित (= निश्चिन्त) (रात भर सुतम निचित ।) (कसोमि॰81.9)
1090 नितराना (= इतराना) (- दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी । - बाजी कपार के गुद्दा । खाद-पानी, रावा-रत्ती जोड़ला पर मूर पलटत । - मूरे पलटे, साव नितराय ! ओइसने हे ईमसाल के खेती ।) (कसोमि॰61.17)
1091 नितराना-छितराना (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.26)
1092 निमर (= निम्मर, निर्बल) (अब सुनहो टकैतवा के खिस्सा । एकर बगल में पोखना के घर हल । पोखना बेचारा के जानबे करऽ हो । गाँव भर बसइलक पौनियाँ बूझ के । एक घर कुम्हार, गाँव के पतरखन । निमर बूझ के दू डेग ओकरो दने दाबइ ले चाहइ ।) (कसोमि॰112.21)
1093 निमुँहा (पान के खिल्ली के खिल्ली मुँह में दाबइत मौली उठ गेल हल अउ खिस्सा खतम कइलक - बाकि सुन लऽ, छकड़जीहा एकर अहसान मानतो ? माने चाहे मत माने, हम ओकरा थोड़े, निमुँहा के बचबइ ले चल गेलिअइ !) (कसोमि॰113.8)
1094 निम्मक (= नमक) (भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल ।) (कसोमि॰51.1)
1095 निम्मक-पियाज (- अमलेटवा खाहीं ने । ... - तोरा बनबइ ले आवऽ हउ ? - अंडवा मँगाहीं ने, बना देबउ । एकरा बनाबइ में कि मेहनत हइ । फोड़ के निम्मक-पियाज मिलइलें आउ भुटनी सन तेल दे के ताय पर ढार देलें, छन कइलकउ आउ तैयार ।) (कसोमि॰57.16)
1096 निम्मक-मिचाय ("बरतन अर पर धेयान रखिहें। देख, एगो थरिया, एगो लोटा, एगो गिलास आउ पलास्टिक के मग रख दे हिअउ। निम्मक-मिचाय, अमउरी आउ चिन्नी भी दे देलिअउ हे।" थइला के चेन लगवइत माय बोलल।) (कसोमि॰125.5)
1097 निम्मक-मिरचाय (अलमुनियाँ के थारी में मकइ के रोटी आउ परोर के चटनी । - तनि निम्मक-मिरचाय दीहें । कौर तोड़इत बासो बोलल । मुनमा चटनी में बोर के पहिल कौर मुँह में देलक - हरहर तीत ! कान रगड़इत कौर निंगललक आउ घटघटा के पानी पीअ लगल ।) (कसोमि॰94.3)
1098 नियन (= नियर; समान, जैसा) ("गारो मर गेल चिक्को । ई तऽ बुढ़वा हे, माउग के भीख खाय वला । तों ठीक कहऽ हें चिक्को । कल से हमहूँ माँगवउ । .." ऊ कथरी पर घुकुर गेल ... मोटरी नियन । चिकनी बिदकल, "तों काहे भीख माँगमें, हम कि मर गेलिअउ ?"; चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे ।) (कसोमि॰15.17; 16.13)
1099 निरघिन (~ करना = गरियाना, बुरा-भला कहना) (छँउड़न सब के तऽ टेलिफोन लगल रहऽ हइ । जइसहीं बजार हेललियो कि सहेर भर "आछीः आछीः" कइले लंगो-तंगो कर देतो । मन जर जइतो तऽ निरघिन करऽ लगवो । ढेलो फेकवो ... तइयो कि भागतो ? बिना गरिअइले हमरो करेजा नञ ठंढइतो ।) (कसोमि॰13.2)
1100 निरासी (मायो ~) (बेटी तऽ मान जात बकि फेतनमा तऽ मुँह फुला देत । ओकरा तऽ बस खीर चाही । छौंड़ापुता गाँव भर के खबर लेते रहतो । मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन ।; अगे चुप ने रहीं निरासी, कुमरठिलियन । अतरी फुआ हँकड़ली ।) (कसोमि॰37.21; 53.2)
1101 निरेठ (= निरैठा; जो उच्छिष्ट न हो) (दुन्नू के मेहरारू गाँव में हवेली कमा हल । होवे ई कि अपन-अपन हवेली से लावल खायक अपने-अपने बाल-बच्चा के खिलावे । बुतरू तऽ बुतरुए होवऽ हे, भे गेल आगू में खड़ा । निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय ।) (कसोमि॰105.9)
1102 निसइनी (= बाँस की बनी सीढ़ी) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।) (कसोमि॰88.3)
1103 निसबद (गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल । दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल ।; काशीचक टीसन के लटफरेम ... सिरमिट के बेंच । बिठला दुचित करवट बदल रहल हे - बजार निसबद भेल कि नञ् ।) (कसोमि॰42.7; 81.13)
1104 निसैनी (= निसइनी, बाँस की बनी सीढ़ी) (मुनमा-माय खाय बना के पथिया उठवऽ लगल । मुनमा के हाथ पर पहिल पथिया । - सँभल के बेटा, निसैनी कमजोर हउ । - कुछ नञ्, तों देखते तऽ रहीं । / बासो माथा पर से पथिया लेके चाँच पर खपड़ा उझललक आउ लउटा के नेवारी सरिआवऽ लगल । अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ ।) (कसोमि॰93.20)
1105 निस्तरना (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल । अभी एक्को टप्पा गलबात नञ् निस्तरल कि परैया के रस्ता निस्तर गेल । पुरबी मोरहर के पुल पर गाड़ी चढ़ल नञ् कि दुन्नू समान लेके दरवाजा पर आ गेल ।; बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने । बिठला के मन तीत भे गेल । ऊ मुँह में चोखा लेलक अउ कस के एक घूँट पी के ऊपर ताकऽ लगल । रस-रस डेढ़ रोटी निस्तर गेल हल ।) (कसोमि॰42.1, 2; 84.24)
1106 निस्तारना (लाजो के पहिल झिक्का जाँता में ... घर्र ... घर्र । तितकी भी चरखा-लटेरन समेट के लाजो साथ जाँता में लग गेल । दू संघाती । जाँता घिरनी नियन नाचऽ लगल । जाँता के मूठ पर दू पंजा - सामर-गोर, फूल नियन । लाल-हरियर चूड़ी, चूड़ी के खन् ... खन् ... । लाजो निसतार के आँटा उठइलक आउ चले घरी तितकी के कान में कहलक - अब कल अइबउ ।) (कसोमि॰46.4)
1107 निहचिंत (= निश्चिंत, बिना कोई चिन्ता के, बेखबर) (सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो !) (कसोमि॰106.12)
1108 निहचिंतता (ओकरा पर निहचिंतता के थकान चढ़ आल हे । ऊ उठल आउ बोरसी उकट के खटिया तर देलक, कम्बल तान के लोघड़ गेल । नीचे-ऊपर के गरमी मिलल कि गोड़ टाँठ करके करवट बदललक ।) (कसोमि॰62.13)
1109 निहचे (= निश्चय) (एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ । हितेसरा के कुछ नञ् सूझ रहल हल कि केक्कर माथा पर पगड़ी रखे के चाही । ओकरा अपन चाचा के देख के माथा सन्न-सन्न करे लगल । ऊ सोंचलक कि गाय के खूँड़ी पर रखम तऽ रखम बकि चाचा के माथा पर नञ् । एतने में ओकर नजर फुफ्फा पर चल गेल । ऊ निहचे कइलक । ईहे ठीक ।) (कसोमि॰115.22)
1110 निहुरना (= आगे की ओर झुकना) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।"; रोज तऽ दिसा-फरागत लेल पींड दने जा हलूँ, मुदा आज कने से तो टीवेल दने निकल गेलूँ । भगवान के माया, संजोग देखहीं ... कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल ।) (कसोमि॰11.1; 12.13)
1111 नीक-सुख (= नीके-सुखे) (टोला-पड़ोस के दाय-माय दिन भर आवइत-जाइत रहली - नीक-सुख सुगनी के निभ जाय । घर-वर संजोग हइ दइया !) (कसोमि॰64.1)
1112 नीन (= नींद) (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही । बीच-बीच में मुँह निकाले पड़तो । खुरखुरी से हाली-हाली नीन टूट जइतो ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।) (कसोमि॰17.21; 47.6)
1113 नीसा (= नशा) (लोटा उठा के एक घूँट पानी लेलक आउ चुभला के घोंट गेल ... घुट्ट । ऊ फेनो एगो बीड़ी सुलगइलक आउ कस पर कस सुट्टा मारऽ लगल । भित्तर धुइयाँ से भर गेल । नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन ।) (कसोमि॰81.3)
1114 नुकना (पहाड़ पर मंदिर के बगल में सक्खिन आउ सक्खि के बीच में लाजो के पहुना लजाल, मुसकइत, लाजो के कनखी से देखइत । लाजो उठ के भाग गेल हल, नुक गेल हल मनिहारी भिजुन भीड़ में ।) (कसोमि॰49.13)
1115 नुकाना (= छिपाना) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।) (कसोमि॰11.4)
1116 नुनु (- गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।; बेचारी बजार में चाह-घुघनी बेच के पेट पाले लगल । रस-रस सब जिनगी के गाड़ी पटरी पर आल तऽ एक दिन छोटका भतीजवा से बोलल - रे नुनु, तहूँ परिवारिक हें, घर सकेत । कनउँ देखहीं ने जमीन । झोपड़ियो देके गुजर कर लेम ।; कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक । ठिसुआल बुलकनी भाय दने मुँह करके बोलल, "अरे नुनु, तों तो समझदार हें । तोरा ई सब नञ् करइ के चाही । बेचारी माय-बाप छोड़ के तोर दुआरी अइलउ तऽ तोरे पर ने । अब एकरा जइसे निबाहीं । तोर गोस्से बड़ी भारी हउ ।"; छउँड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।) (कसोमि॰45.25; 106.8; 118.9; 125.11)
1117 नून (= नमक) (जइसन जिनगी उनखा सबके नसीब भेल, ओही जिनगी के साथ ऊ सब पात्र जोंक जइसन चिपकल रहऽ हथन । परिस्थिति नून जइसन ई सब जोंकवन पर पड़ऽ हइ त ऊ सब खूने-खून होके बिलबिलाय लगऽ हथ ।) (कसोमि॰6.12)
1118 नून-रोटी (सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो !) (कसोमि॰106.12)
1119 नूनू (दे॰ नुनु) ( (- काहे बाऊ, फुटो रे फुटो धान नञ् कहमहीं ? / बासो कंधा पर हाथ रख देहे । - छोट-बड़ धान बरोबर नञ् होतइ बाऊ ? - चल बेटा, अभी छोट-बड़ बरोबर नञ् होतउ नूनू । - तब कहिया होतइ ?) (कसोमि॰97.6)
1120 ने (= न) (ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; - माय । - कीऽ ? - एगो बात कहिअउ ? गोसैमहीं नञ् ने ? - कहीं ने । - पहिले गछहीं, नञ् गोसैबो । - अच्छा, नञ् गोसैबो ।/ लाजो बोरसी छोड़ के माय के हाथ से डब्बू लेबइत बोलल - हमहूँ चरखा काटिअउ ? - की करऽ पड़तउ ? कहीं ने भइवा के, केतना पैसा लगतउ ? - पैसवा छोड़हीं ने, रखिया वला धइले ने हिअइ, ओतने से हो जइतइ । तों पहिले हाँ कहीं ने ।) (कसोमि॰25.5; 47.12, 13, 19, 20)
1121 नेआर (= बिदाई के दिन निश्चित करने की पूर्व सूचना, बोलावन) (- सिखा देमहीं ? - आझे, अभिए सीख, तोरा हमर किरिया हउ । साज-बाट के तऽ हो जइतउ । अभी तऽ नेआर अर नञ् ने अइलउ ? / लाजो लजा गेल ।; अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?) (कसोमि॰45.7; 51.21)
1122 नेउतना (= न्योता देना) (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो ।) (कसोमि॰25.16)
1123 नेउतहारी (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.24)
1124 नेटुआ (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।) (कसोमि॰68.10)
1125 नेवारी (= धान का पुआल) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; बासो मैना बैल के दू आँटी नेवारी देके धरमू साथे ओसरा में बैठल गलबात कर रहल हल । बैल मस्स-मस्स नेवारी तोड़ रहल हल ।; - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰93.17; 95.3, 4; 102.16, 19)
1126 नेसना (= दीपक आदि जलाना) (तहिया से लाजो भूख-पियास भूल गेल । रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल ।) (कसोमि॰54.2)
1127 नेहाली (= रजाई) (धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों । लोग कहतो, जाड़ा के नेहालिए हे ।) (कसोमि॰17.18)
1128 नोंचना (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.13)
1129 नोचनी (= खुजली) (~ बरना) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.12)
1130 नोनगर-तितगर (बाउ बजार से टौनिक ला देलथुन हे । कहऽ हथिन - अंडा खो । हमरा अंडा से घीन लगऽ हउ । - अमलेटवा खाहीं ने । पूड़ी नियन लगतउ, बलुक कचौड़िया नियन नोनगर-तितगर । हम तऽ कते तुरी खइलिअइ हे । बरौनियाँ में तो सब कोटरवा में बनऽ हइ ।) (कसोमि॰57.12)
1131 नोनी (~ खाल देवाल) (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.7)
1132 नोह (अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।) (कसोमि॰84.25)
1133 नौगत (= नौबत) (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत ।) (कसोमि॰36.24)
1134 पंचैती (= पंचइती; पंचायत) (ऊ साल बैसखा में गाँव भर के आदमी जमा भेल । पंचैती में हमरा नञ् रहल गेलो । कह देलिअइ - तऽ गाँव में गरीब-गुरबा नञ् ने बसतइ ? भेलो बवाल । मजमा फट गेलो । तहिया से कुम्हरे के कब्जा हइ ।) (कसोमि॰112.23)
1135 पंडी जी (= पंडित जी) (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता । धड़फड़ नञ् होवे के चाही । पंडी जी आ गेला । उनखर हाथ में टीकस के पइसा देवइत पोखन बोलल - तों आगू बढ़ऽ । गरसंडा के टीकस लीहऽ ... पाँच गो ।) (कसोमि॰46.21; 63.22)
1136 पइसगर (= पैसा वाला, धनवान) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । लमहर जोत हे ... काम के कमी नञ् होत । सच्चोक मउज हल । तीसम दिन दुइयो के काम ।) (कसोमि॰79.14)
1137 पइसना (= पइठना; घुसना, प्रवेश करना) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.15)
1138 पउआ (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।) (कसोमि॰54.15)
1139 पखारना (= धोना, पानी से रगड़कर साफ करना) (अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ । बासो हाथ के ळपड़ा सरिआ के उतरल आउ पमल्ला पर जाके हाथ-गोड़ धोलक । मुनमा पमल्ला पर बैठल आउ उठ के बचल पानी से गोड़ पखारऽ लगल ।) (कसोमि॰93.27)
1140 पगड़बंधा (बरहमजौनार बित गेल निक-सुख । तेरहा दिन पगड़बंधा के बारी आल । पिंड पड़ गेल । अँगना में गाँव के भींड़ । हितेसरा के देख के सब के आँख डबडबा गेल । अउरत सब तऽ फफक गेलन ।) (कसोमि॰115.9)
1141 पगलाना (रस-रस उनकर घर के आगू भीड़ जमा हो गेल । सब देख रहलन हल । ऊ छत पर नाच-नाच के 'हाल-हाल' कर रहला हे । सब के मुँह से एक्के बात - पगला गेलथिन, इनका काँके पहुँचा देहुन ।) (कसोमि॰27.7)
1142 पछानना (= पहचानना) (असेसर दा उठ के भित्तर चल गेला आउ बाबूजी के बिछौना बिछवऽ लगला । फुफ्फा उतर करके गोड़ छुलका । - के हऽ ? पछान के - पहुना ... खोस रहो, कहलका आउ माथा पर हाथ रखइत पुछलका - आउ सब ठीके हइ ने ? - सब असिरवाद हइ ।) (कसोमि॰73.9)
1143 पछिआरी (= पच्छिम वाला) (खोंइछा भर गेल तऽ ढेरी पर उझल देलक । अइसइँ लाल-लाल मिचाय से मुट्ठी भराइत रहल, मुट्ठी के मिचाय खोंइछा में धराइत रहल, खोंइछा के मिचाय ढेरी पर उझलाइत रहल । ... बारह बजे तक टोपरा साफ । - दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल ।) (कसोमि॰39.18)
1144 पछिया (~ हवा) (घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात । ई लेल सबेरे उठल आउ बोझड़ी के खरिहान में पसार देलक । पछिया खुलल हल, खरंगते कि देरी लगत !) (कसोमि॰119.6)
1145 पछुआना (पिछुआना; पीछे पड़ या रह जाना) (बुलकनी गहूम के बाल हँसुआ से छोपे लगल । रनियाँ पुंठी से बूँट के ढांगा पीटे लगल । तितकी पछुआ गेल ।) (कसोमि॰119.14)
1146 पटल (आउ चौपाल जगल हल । गलबात चल रहल हल - की पटल, की गरपटल, सब बरोबर, एक बरन, एक सन लुहलुह । तनी सन हावा चले कि पत्ता लप्-लप् । ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात !) (कसोमि॰61.8)
1147 पटाल (सोमेसर बाबू के डेवढ़ी के छाहुर अँगना में उतर गेल हल । कातिक के अइसन रौदा ! जेठो मात ! धैल बीमारी के घर । घरे के घरे पटाल । रंगन-रंगन के रोग ... कतिकसन ।) (कसोमि॰92.11)
1148 पटौनी (- उनकर सिलसिला अब अलगे हन । घर तऽ खाली हिस्सा लेबइ ले आवऽ हथिन । - छोटका कहाँ गेलथुन ? - ऊ बेचारा खंधा पर पटौनी में हो । रात के दस-बारह बजे अइथुन आउ खा-पी के चल जइतो ।) (कसोमि॰72.19)
1149 पट्टी (= तरफ, ओर) (पगली, देखऽ हीं नञ्, हमरा चारियो पट्टी से खोंटा-पीपरी आउ मधुमक्खी काट रहलइ हे । तों खड़ी-खड़ी देखऽ हें, झाड़ आउ देख ओन्ने - नघेतवा में कौआ मकइया खा रहलउ हे । उड़ाव ... हाल-हाल, हाल ... ।; गरमी में राज के रजधानी परैये हल । रानी महल अलग । नीचे तहखाना ... ऊपर कोठा । कोठा पर फुर-फुर हावा लगो होत । गरमी में तहखाना बरफ । बरफ माने सिमला । चारो पट्टी बरामदा ... छोट-छोट दतवाजा । जनु सिपाही चारो पट्टी पहरा दे हलइ ।; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा ।) (कसोमि॰29.14; 36.11, 12; 37.27)
1150 पठरू (= पाठा; बकरी का बच्चा) (सितबिया के सपना पूरा भे गेल । पुरनका घर में बमेसरा कुछ दिन रहल आउ अन्त में सो रुपया महीना पर किराया लगा देलक । ओकरो लेल ऊ घर लगहर बकरी भे गेल - दूध के दूध आउ पठरू बेच-काट के अच्छा पैसा कमाय लगल ।) (कसोमि॰107.23)
1151 पड़ियायन (= पड़िआइन) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । ... तितकी-लाजो थोड़े देरी खड़ी-खड़ी भीड़ देखइत रहल अउ अपना लेल सुबुक जगह टेवते रहल । पड़ियायन टोला के सब्बो हँकइलक - एन्ने आव एन्ने, जग्गह हउ । सब्बो साँझे से बोरा बिछा के दखल कइले रहऽ हे ।) (कसोमि॰52.25)
1152 पढ़ताहर (बड़का भाय पढ़ताहर बुतरू के गोल से ललटेन उठइलका आउ गोरू बान्हइ ले चल गेला । चलित्तर बाबू सोचऽ लगला - जब माहटरे के दुहारी के ई हाल हे कि पढ़ताहर लेल एगो अलग से ललटेन के इन्तजाम नञ् हे, त दोसर के की हाल होत । अच्छा, कल काशीचक के बीरू गुमटी से एगो सीसा उधार लेले अइबइ । पुरनका ललटेन के खजाना बदला जइतइ तऽ फेन कोय दिन देख लेतइ ।) (कसोमि॰101.18, 20)
1153 पढ़नइ (= पढ़ाई, अध्ययन) (एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक ।) (कसोमि॰104.3)
1154 पढ़ल-लिखल (बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् । हाथ पर हाथ धइले बैठल रहऽ हइ । मौगिओ के जेवर खेत कीनइ में बिक गेलइ ।) (कसोमि॰58.15)
1155 पढ़ाय (= पढ़ाई) (भौजी से एकरा पटइ के एगो आउ कारन हल । मुनियाँ तऽ सिलाय-फड़ाय सीखऽ हल, बकि भौजी एकरा से पढ़ाय सीखऽ हली । बात-विचार मिलवे करऽ हल ।; भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय ।) (कसोमि॰66.16, 23)
1156 पतरखन (अब सुनहो टकैतवा के खिस्सा । एकर बगल में पोखना के घर हल । पोखना बेचारा के जानबे करऽ हो । गाँव भर बसइलक पौनियाँ बूझ के । एक घर कुम्हार, गाँव के पतरखन । निमर बूझ के दू डेग ओकरो दने दाबइ ले चाहइ ।) (कसोमि॰112.21)
1157 पतहुल (चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।") (कसोमि॰15.9)
1158 पथिया (मुनमा-माय खाय बना के पथिया उठवऽ लगल । मुनमा के हाथ पर पहिल पथिया । - सँभल के बेटा, निसैनी कमजोर हउ । - कुछ नञ्, तों देखते तऽ रहीं । / बासो माथा पर से पथिया लेके चाँच पर खपड़ा उझललक आउ लउटा के नेवारी सरिआवऽ लगल । अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ ।) (कसोमि॰93.17)
1159 पदनी (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?") (कसोमि॰83.10)
1160 पनपिआय (= पनपिआड़) (खोंइछा भर गेल तऽ ढेरी पर उझल देलक । अइसइँ लाल-लाल मिचाय से मुट्ठी भराइत रहल, मुट्ठी के मिचाय खोंइछा में धराइत रहल, खोंइछा के मिचाय ढेरी पर उझलाइत रहल । ... बारह बजे तक टोपरा साफ । - दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल ।; पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल ।; बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल - एक, दू, ... छौंड़ा-छौंड़ी, तीन, चार ... सुरमी, पाँच, छो, सात, एगो फाजिल । बुतरुअन के पनपियाय ।) (कसोमि॰39.19; 63.18; 79.3)
1161 पनरह (= पन्द्रह) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।") (कसोमि॰12.24)
1162 पन-सात (= पाँच-सात) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।) (कसोमि॰19.15)
1163 पनहगवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.23)
1164 पनियाना (ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी ।) (कसोमि॰20.26)
1165 पमल्ला (अइसीं जब तीन पहर बीत गेल तऽ मुनमा-माय टोकलक - खाके छारिहऽ ... मुनमा भुक्खल हइ । बासो हाथ के ळपड़ा सरिआ के उतरल आउ पमल्ला पर जाके हाथ-गोड़ धोलक । मुनमा पमल्ला पर बैठल आउ उठ के बचल पानी से गोड़ पखारऽ लगल ।) (कसोमि॰93.25, 26)
1166 पम्हा (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।) (कसोमि॰111.16)
1167 परकना (= चसका लगना; आदत पड़ना) (मरद के कुत्ता काटलक, से अइंटखोला परकल । एक-दू तुरी तऽ ईहो गेल, बकि रंग-ढंग देख के कान-कनैठी देलक - ने गुड़ खाम ने नाक छेदाम, भुक्-भुक् । समांग छइत कज्जउ कमा-खा लेम । इजते नञ् तऽ पेट की ?; कहइ के तऽ सत्तू-फत्तू कोय खाय के चीज हे। ई तऽ बनिहार के भोजन हे। बड़-बड़ुआ एन्ने परकलन हे। अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल।) (कसोमि॰34.27; 120.22)
1168 परतार (= बार, तुरी, दफा) (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।) (कसोमि॰110.5)
1169 परतिंगा (बाउ भिजुन आके ठमकल आउ एक नजर भीड़ दने फिरइलक । ओकर मन के आँधी ठोर पर परतिंगा के बोल बन हहाल फूटइ ले ठाठ मारइ लगल । ऊ संकोच के काचुर नोंच के फेंक देलक आउ तन के बोलल - मुनियाँ के चिंता छोड़ऽ । मुनियाँ अपन बिआह अपने करत ... तहिया करत जहिया मुनियाँ के मुट्ठी में ओकर अप्पन कमाय होत, मेहनत के कमाय । चल माय, खाय ले दे, भूख लगल हे ।) (कसोमि॰67.18)
1170 पर-पैखाना (दे॰ पर-पखाना) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा ।) (कसोमि॰28.9)
1171 परब (= पर्व, त्योहार) ("आझे भर चिक्को ... । कल से तऽ बिलउक वला कंबल होइए जात ।" गारो सिसिआइत बोलल । - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ । साल भर के परब । सरकार के बाँटहो के हलइ तऽ तिलसकरतिए के दिन ?") (कसोमि॰17.10)
1172 परब-तेहवार (= पर्व-त्योहार) (रसलपुरवली के शेखपुरा अस्पताल में आठ टाँका पड़ल हल । जादेतर छोटके परब-तेहवार में कुछ ने कुछ लेके बहीन हियाँ आवऽ हल । बुलकनी के पता चलल तऽ भउजाय के देखइ ले शेखपुरा चलि गेल ।) (कसोमि॰118.4)
1173 परबाबा-छरबाबा (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत । सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल ।) (कसोमि॰19.19)
1174 परव (दे॰ परब; पर्व) (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।) (कसोमि॰33.9)
1175 परसाद (= प्रसाद) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर ! किसुन नीचे से गोड़ लग के लौटल जा हल । साँझ के ढेर मेहरारू संझौती दे के लौट रहली हल । एकरा भिखमंगा समझ के ऊ सब परसाद आउ पन-सात गो चरन्नी देबइत आगू बढ़ गेली ।; कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ?; मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक । मुनमा कटोरा में परसाद लेले आ गेल ।) (कसोमि॰19.14; 21.25; 95.8, 11)
1176 परसाल (- तों की लेलहीं ? लाजो से तितकी पुछलक । - हमरा की पैसा हलउ । तों जानवे करऽ हीं, परसाल धानधुर्रा मरिए गेलउ । रहऽ हलउ तऽ मइयो चोरा-नुका के दे दे हलउ । लाजो बुझनगर सन गाल पर हाथ धइले बोलल ।; बनिहार चाह रख गेल । दुन्नू सार-बहनोय चाह पीअइत रहला आउ गलबात चलइत रहल । - मंझला के समाचार ? - ठीक हइ । - लड़का अर तय भेलन ? - तय तऽ परेसाल से हइ, वसंत पंचमी के भेतइ, पटने में ।; मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰48.18; 72.13; 88.6)
1177 परसूँ (= परसों) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल । ओकरा ई सब करइ में खूब मन लग रहल हल - पिंडा से तऽ बचलूँ ! परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल ।) (कसोमि॰88.11)
1178 पराते (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला ।) (कसोमि॰26.6)
1179 परोफेसर (= परफेसर; प्रोफेसर) (- टुनुआ तो जुआन भे गेलइ होत ? - ऊहो परोफेसर हो गेलइ हे हिसुआ में ।) (कसोमि॰74.16)
1180 परोर (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।; - ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ ।) (कसोमि॰88.1, 4; 91.18, 20)
1181 पलंगरी (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? पिपरा तर के जरसमने की हउ ? कुल बिक जइतउ तइयो नञ् पुरतउ । अलंग-पलंग छोड़ । सुतरी के पलंगरी साचो से घोरा ले ।) (कसोमि॰51.24)
1182 पलटौनी (दिन-रात के मेहनत से हजार रुपइया से जास्ती काड पर जमा हो गेल । कतिन के कमीशन लगा के पनरह सो के माल उठा सकऽ हे । लाजो रस-रस फिरिस बनावऽ लगल । दोंगहरी अउ पलटौनी भी भंडारे से भे जात ।) (कसोमि॰54.11)
1183 पलौटगर (एगो चौखुट मिचाय के खेत में दू गो तोड़नी लगल हल । खेत पलौटगर । लाल मिचाय ... हरियर साड़ी पर ललका बुट्टी ।) (कसोमि॰38.12)
1184 पवित्तर (= पवित्र) (एक्का पर एक ... पाँच गीत । सब के रेघ मिलल ... झंझेकार । घर पवित्तर हो गेल ! घर गुलजार हो गेल ! टोला-पड़ोस जान गेल - पोखन के घर काज पसर गेलइ ।) (कसोमि॰64.14)
1185 पसेना (= पसीना) (भीड़ हरगौरी बाबू के दलान पर । हरगौरी बाबू के जाड़ा में भी पसेना छूट गेल । सहम गेलन ... धकधक्की । समझते देर नञ् लगल । सब माल भीड़ के लौटा देलन ।) (कसोमि॰56.5)
1186 पहमा (अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल । बुलकनी के अउसो नइहरे से माय कूट-पीस के भाय पहमा भेजवा दे हल ।) (कसोमि॰117.5)
1187 पहिल (= पहिला) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।) (कसोमि॰77.20)
1188 पहिलइँ (= पहिलहीं; पहले ही) (ऊ इमे साल भादो में रिटायर होलन हल । रिटायर होवे के एक साल पहिलइँ छुट्टी लेके घर अइलन हल । एगो कउन तो विभाग के मनिजर हलन मुदा ऊ तो परांते भर के हौलपिट हलन । कमाय पर रहतन हल तऽ रुपइया के गोठौर लगा देतन हल मुदा कंठी नञ् तोड़लन ।; गोस्सा में ओकर हाथ मसीन सन चल रहल हल । ऊ दुन्नू से पहिलइँ काम निबटा के बिन चुनले-फटकले उठल आउ गाँव दने सोझिया गेल ।) (कसोमि॰27.10; 120.6)
1189 पहिला (= पहला, प्रथम) (पहिला मनिज्जर मुँहदेखल करथुन हल । कते बेरी तऽ हल्ला भेल हे । अइसे सुनइ में ढेर खिस्सा आवऽ हे, मुदा जादे तर मनगढ़ंत ।) (कसोमि॰44.14)
1190 पहिलौका (= पहले वाला) (पहिले तो हरगौरी बाबू खेत के बात कइलन हल मुदा ऐन मौका पर खाली बिदकिए नञ् गेलन, अपन पहिलौको पैसा के तगादा कर देलका । उसकुन के अच्छा समय देखलका । गाँव में आउ केकरा पैसा हे । जेकरे आज के छौंड़ा माँड़र पहाड़ से ढाही लेबइ ले चलल हे ।) (कसोमि॰54.20)
1191 पहुना (= पति; मेहमान, अतिथि) (पहाड़ पर मंदिर के बगल में सक्खिन आउ सक्खि के बीच में लाजो के पहुना लजाल, मुसकइत, लाजो के कनखी से देखइत । लाजो उठ के भाग गेल हल, नुक गेल हल मनिहारी भिजुन भीड़ में ।; आउ अंत में ऊ दिन भी आ गेल, जहिया पहुना अइता, लाजो के पहुना, गाँव के पहुना । ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन ।) (कसोमि॰49.12; 55.18)
1192 पाँजा (बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे । - कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन ।) (कसोमि॰111.19)
1193 पाछिल (= पिछला, अन्तिम) (बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल ।; बिठला रोटी गमछी में लपेट के बटुरी में रखलक अउ सिक्का पर टांग के नीम तर सुस्ताय ले चलल जा हल कि नजर चुल्हा तर धइल ताय दने चल गेल । पाछिल टिकरी धुआँ रहल हल । सुरमी कहियो ने पाछिल टिकरी केकरो खाय ले दे । ओकरा पाछिल खिस्सा याद पड़ल - जनु माय हमरा पाछिल टिकरी खिलइलक होत कि ... ।) (कसोमि॰78.27; 79.11, 12, 13)
1194 पाट (= पार्ट) (~ लेना = नाटक में किसी पात्र का किरदार निभाना) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । आज 'सवा सेर गेहूँ' होबत । लाजो के भाय भी पाट लेलक हे । तिरकिन भीड़ ।) (कसोमि॰52.19)
1195 पाटी (अगहन आ गेल । जइसे-जइसे दिन नजकिआल जाहे, बाउ के छटपट्टी बढ़ल जाहे । पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी ।) (कसोमि॰54.14)
1196 पाड़ी (= काड़ी; भैंस का मादा बच्चा) (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।) (कसोमि॰68.4)
1197 पात (= पत्ता; पात्र; श्राद्ध में दान करने के बरतन) (दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।) (कसोमि॰115.2)
1198 पाती (हमर बरतुहारी तक बिगाड़ले चलतो । अउ एगो हम ! जे हाथ कहियो तलवार भाँजऽ हलो उहे हाथ अपन घर से हँसुआ लाके ओकर पतिया काटलियो । बचतै हल बैला ! केबाड़ी लगल में दुन्नू लड़ गेलइ । बन्हलका ठढ़सिंघा अइसन गिरलइ कि केबड़िए नञ् खुलइ । खिड़की तोड़ के भीतर हेललियो आउ पगहा काट के माथा ठोक देलियो - उठ जा महादेव !) (कसोमि॰113.2)
1199 पान-सात (दे॰ पन-सात) (पान-सात आदमी चारियो पट्टी से घेर लेलक । दू आदमी आगू बढ़ के दुन्नू के कनट्टी में पिस्तौल भिड़ा देलक । दू आदमी दुन्नू के हाथ से समान छीन लेलक ।) (कसोमि॰42.14)
1200 पारी (एक दिन नदखन्हा में खेसाड़ी काढ़ रहलियो हल । तलेवर सिंह रोज भोरे मेलान खोलथुन । तहिया गाय के सहेर ओहे खन्धा हाँकलथुन । सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन ।) (कसोमि॰111.15, 16)
1201 पाला (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।) (कसोमि॰61.13)
1202 पासी ("केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । कत्ते घिघिअइला पर किसोरबा देलक हल । ऊ चकइठबा पसिया छँउड़ापुत्ता अइसन ने बोरिया पकड़ के खींचलक कि लोघड़ाइयो गेलूँ अउ सउँसे गिलास चाह सुपती पर उझला गेल ।") (कसोमि॰11.17)
1203 पिंडा (= गुरुपिंडा; विद्यालय; श्राद्ध, पितृपक्ष या अन्य अवसर पर मृतक या पितरों को अर्पित किया जाने वाला काला तिल, मधु आदि मिलाया चावल की खीर का पाद्य; पितरों को पिंडदान देने की क्रिया) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल । ओकरा ई सब करइ में खूब मन लग रहल हल - पिंडा से तऽ बचलूँ ! परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल ।; मुनमा-माय पिंडा नीपय में लग गेल ।; एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।) (कसोमि॰88.11; 94.23; 114.8)
1204 पिंडा बबाजी (बानो पिंडा बबाजी के आगू बैठल । पंडित जी बिध-बिधान कैलका अउ पगड़ी बाँधइ ले गोतिया के हँकैलका ।) (कसोमि॰115.11)
1205 पिंडी (खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - कान-कनइठी (दे॰ कान-कनैठी) (खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !) (कसोमि॰75.26)
1206 पिंपहीं-फुकना (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।) (कसोमि॰82.23)
1207 पिच्छुल (अहरा पर तिरकिन आदमी । बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल ।) (कसोमि॰95.15)
1208 पिछलउका (= पिछला) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।) (कसोमि॰16.11; 46.18)
1209 पिछलउकी (ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला ।) (कसोमि॰28.27)
1210 पिछुत्ती (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
1211 पिरदाँय (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।) (कसोमि॰78.8)
1212 पिलसुल (= पेंशन) (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला । अब पिलसुल मिलऽ हन । घर बनइलका, गोतिया-नइया देखइत रहलन ।) (कसोमि॰26.6)
1213 पिलाव (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.25)
1214 पिलुअहवा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे । बिठला उपरे अघाल हल, भीतर के हाल सहदेवे जानथ । सुरमी एक दिन अबेर के लउटल डाकिनी बनल ... लहलह लहकल - "मोंछकबरा, पिलुअहवा ... हमरा नास कर देलें रे नसपिट्टा । नया किसान कइलक ई पनहगवा । हमरा ऊ रवना भिरिया भेज देलें रे कोचनगिलवा, छिछोहरा, मउगलिलका, छिनरहवा । सब गत कर देलकउ रे चैकठवा ... मोंछमुत्ता ।") (कसोमि॰79.22)
1215 पिलुआ, पिल्लू (= छोटा बच्चा) (बुलकनी के काहे तो आझ अप्पन मरद के रह-रह के याद आ रहल हल। ढेना-ढेनी देख के सबूर कर लेलक हल - चलऽ, ई पिलुअन ओकर निसानी हे। एकर मरद दिल्लीवला चुनाव में मारल गेल हल।) (कसोमि॰121.19)
1216 पिलुआही (बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं । बिठला ऊपर चढ़ऽ हे आउ अन्हार में रखल चपरा कुदार अउ खंती लेके उतर जाहे ।) (कसोमि॰82.5)
1217 पिल्थी (= पारथी; पालथी) (~ मारना) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.12)
1218 पिसमाँपीस (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी ।) (कसोमि॰24.24)
1219 पींड (पींड पर हरगौरी बाबू मिल गेलन । - कहाँ से सरपंच साहेब ? मोछ टोबइत हरगौरी बोलला । उनका साथ तीन-चार गो लगुआ-भगुआ हल ।) (कसोमि॰55.2)
1220 पीछू (= पीछे) (कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न । आँख-नाक से पानी ... धौंकनी सन करेजा कुत्ता सन हफइत बेतिहास भागल जा हे अउ पीछू-पीछू नब्बे लाख आदमी ... बूढ़-बुतरू जुआन ओकरा खदेड़ले जा हे आछिः आछिः ।; ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।; सावन के पहिल सोमारी हल । गुलमोहर हरियर कचूर । डाढ़ पीछू दू-चार गो लाल-लाल फूल । दूर-दूर से लगे जइसे जूड़ा के बान्हल रीबन रहे ।) (कसोमि॰14.3; 29.2; 48.4)
1221 पीछू-पीछू (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।) (कसोमि॰36.15)
1222 पीठउपारे (= पीठ पीछे) (ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला ।) (कसोमि॰29.1)
1223 पीपर (= पीपल) (भगवानदास के दोकान से तितकी एक रुपइया के सेव लेलक । सीढ़ी चढ़इत लाजो के याद आल - निम्मक, कचका मिचाय चाही । - जो, लेले आव । पिपरा तर रहबउ । ठेलइत तितकी बोलल । असमान में सुरूज-बादर के खेल चल रहल हल । सामने वला पीपर पेड़ से एगो बगुला उड़ल ।) (कसोमि॰51.3, 5)
1224 पुंज ("देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।" - "तोर दिनोरवा वला पुंजिया से लहरइउ ?" ) (कसोमि॰14.20)
1225 पुंठी (अस्पताल से लउट के बुलकनी जोजना बनइलक - घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात ।; बुलकनी गहूम के बाल हँसुआ से छोपे लगल । रनियाँ पुंठी से बूँट के ढांगा पीटे लगल । तितकी पछुआ गेल ।) (कसोमि॰119.4, 13)
1226 पुच्छी (= पूँछ) (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे ।; मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हाथ के ... सियार के पुच्छी ।; - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको ।) (कसोमि॰14.6; 96.19’ 102.17)
1227 पुछाल (= पुछार; पूछताछ, जाँच) (एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।" - "चोरी कइले होमे ... डाका डालले होमे कजउ !" - "साली, तुम हमको चोर-डकैत कहता है ? कउन सार का लूटा हम ? अपना सरीर से कमाया है ... समांग से कमाया है । चल, पुछाल करता हैं ।" सुरमी लरमा गेल ।) (कसोमि॰86.3)
1228 पुजेड़िन (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰58.1)
1229 पुतहू (= पुत्रवधू) (माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल । ओकर सनेह के अँचरा तार-तार भे गेल । अब तऽ पुतहू अँचरा कस के मुँह चमका-चमका आउ हाथ उलार-उलार के ओलहन देवऽ लगल, " बुढ़िया के बस चलइ तऽ हुसेनमा के मटिया तलक कोड़ के बेटिया हियाँ पहुँचा देय ।" माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल ।) (कसोमि॰117.12, 13, 16)
1230 पुनियाँ (= पूर्णिमा) (कल होके बीट के दिन हल । दुन्नू साथे सिरारी टिसन आल अउ केजिआ धइलक । गाड़ी शेखपुरा पहुँचइ-पहुँचइ पर हल । खिड़की से गिरहिंडा पहाड़ साफ झलक रहल हे । लाजो के पिछला भदवी पुनियाँ के खिस्सा याद आवऽ लगल ।) (कसोमि॰49.10)
1231 पुरनका (= पुराना) (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।; फुफ्फा के आख तर ससुर के पुरनका चेहरा याद आ गेल - पाँच हाथ लंबा, टकुआ नियन सोझ, सिलोर । रोब-दाब अइसन कि उनका सामने कोय खटिया पर नञ् बैठऽ हल ।; बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰60.11; 72.2; 93.16)
1232 पुरबइया (बाहर से पुरबइया के झोंका पीठ के हड्डी तड़का देलक । चिकनी बोरसी के नगीच घसक के अलुआ निकालऽ लगल ।; सुकरी चौपट्टी नजर घुमइलक । ताड़ के पेड़ पुरबइया से खड़खड़ा रहल हल । थोड़के-थोड़के दूर पर टिवेल के केबिन, बिजली तार के जाल । तिरकिन आदमी अपन-अपन काम में विसित ।) (कसोमि॰16.17; 38.3)
1233 पुरवारी (= पूरब तरफ वाला) (सरवन चा के खरिहान पुरवारी दफा में हल । एजा इयारी में अइला हल । पारो चा उनकर लंगोटिया हलन ।; झोला-झोली होते-होते मुनमा अंगा-पैंट पेन्ह के तइयार भे गेल । गुडुआ के घर पुरवारी दफा में हल । ओकर घर पहुँचल तऽ ऊ अभी नहइवो नञ् कइलक हल ।) (कसोमि॰25.13; 94.25)
1234 पुरान (= पुराना) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज ।; किसुन लखीसराय टीसन से दिन भर में टुघरल, उठइत-बइठइत गाँव आल । गाँव पसर गेल हल । गल्ली के ढेर नक्सा बदल गेल हल । पुरान बंगला तऽ एक्को गो नञ मिलल ।) (कसोमि॰14.20; 19.8)
1235 पुराना (= पूरा करना) (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।) (कसोमि॰99.13)
1236 पुल्ला (समली शांत ... आँख मूनले ... । हाथ में पुरनका सूटर के उघड़ल ऊन के पुल्ला लेल लगे जइसे सपना देखइत सूतल हे । अंजू काँटा लेले आबत, घर के फंदा सिखावत अउ ... ।) (कसोमि॰60.12)
1237 पुस्टा (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.6)
1238 पूंज (= पुंज) (- ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । ... - ई किदो जाँच करइता ! कान-कनइठी सितवा के ... एक पेड़ नञ् ... । सदामदी साही लगाव । - साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन ।) (कसोमि॰102.14)
1239 पूनी (= चरखा या तकली पर सूत कातने के लिए बनी धुनी रूई की बत्ती) (तितकी चरखा निकाल के लाजो के हाथ में देलक आउ ओकर पीछू में जाके बैठ गेल । तितकी लाजो के दहिना हाथ से कील आउ बामा से पूनी पकड़ के रस-रस घुमवऽ लगल । लाजो के बामा हाथ उठइत-उठइत अपन ऊँचाई भर तन गेल ।) (कसोमि॰45.13)
1240 पेंघा (= पेंग; झूलते हुए एक ओर से दूसरी ओर जाना, झूले का झटका) (ओहे गाछ तर तितकी अउ लाजो झूला झूल रहल हल । फेरा-फेरी झूलइत ऊब गेल तऽ एक्के साथ झूला पर बैठ के हौले-हौले पेंघा लेबइत बतिआय लगल ।) (कसोमि॰48.7)
1241 पेड़ाना (= पेराना) (बुलकनी तीसी के तेल पेड़ा के लइलक हल। एक किलो के तेल के डिब्बा ओसरा पर रख के गाय के पानी देखावइ ले गोंड़ी पर चल गेल हल। रउदा में गाय-बछिया हँफ रहल हल। पानी पिला के आल तऽ देखऽ हे कि छोटकी के तीन साल के छउँड़ी तेल के डिब्बा से खेल रहल हे।) (कसोमि॰122.10)
1242 पेन्हना (= पहनना) (- लाजो नटकवा देखइ ले नञ् जइतो ? तितकी लाल रुतरुत राता पेन्हले अंगना में ठाढ़ पुछलक । - ओजइ भितरा में हो । खइवो तो नञ् कैलको हे । माय लोर पोछइत बोलल ।; बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।; रनियाँ के मन पेटी से दसहरा वला फरउक निकालइ के हल। ऊ मने-मन डर रहल हल कि कहइँ माय डाँट ने दे। मेला देख के जइसहीं आल कि खोलवइत कहलक हल, "रख रानी, लगन में पेन्हिहें।" से ऊ माय के आगू आके खड़ी भे गेल। - "देरी काहे कर रहलहीं हें। तलाय पर से मुँह-कान घोवइत अइहें।" - "पेटीवला फरउक निकालिअउ माय।" - "ओहे पेन्ह के जइमहीं?") (कसोमि॰52.14; 93.14; 124.22, 27)
1243 पेन्हाना (= पहनाना) (ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे । ओकर इसकुलिया डरेस के तितकी छू-छू के देखऽ हल । एक दिन घाट पर सक्खी एकरा अपन डरेस पेन्हा देलक अउ कहलक हल, "कैसी इसकुलिया लड़की लगती है !" तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल ।) (कसोमि॰118.23)
1244 पैन (= पइन) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰93.14)
1245 पैना (= छोटा डंडा) (मुनमा अकाने हे - हाँक ! हाँका पड़ो लगलो बाऊ । - जो कहीं परसादा बना देतउ । बासो बोलल आउ उठ के पैना खोजऽ लगल । धरमू उठ के चल गेल । बासो गोवा देल लाठी निकाल लेलक । मुनमा कटोरा में परसाद लेले आ गेल ।; ऊ तऽ धैल हँथछुट, देलको एक पैना धर । मन लोहछिया गेलो । खाली हाथ, खिसियाल गेलियो लटक । तर ऊ, ऊपर हम । गोरखियन सब दौड़ गेलो । ऊहे सब गहुआ छोड़इलको । तहिया से धरम बना लेलियो - कोय मतलब नञ् ।) (कसोमि॰95.8; 111.25)
1246 पोछब (~ करना) (पलट के मोटरी ताकइत मुँह पोछब करऽ हल कि नजर जगेसर राय पर पड़ल । एक हाथ में अटैची आउ कंधा में करिया बैग । सुकरी के जान में जान आल । एक से दू भला । दिन-दुनिया खराब ।) (कसोमि॰41.13)
1247 पोथानी (= चारपाई का वह भाग जिधर सोने वाले का पैर पड़ता है) (पनियाँ बदल दहीं ... महकऽ हइ, बोलइत बाबूजी खटिया पर बैठ गेला आउ सले-सले चित्ते लोघड़ गेला । फुफ्फा सिरहाना में लोटा रख के पोथानी में बैठ गेला । - जलखइ भेलइ ? बाबूजी पूछऽ हथ । असेसर, पहुना के घर दने ले जाहुन ।; तीस-बत्तीस तऽ करूआ तेल भे गेलइ गन । अजी अइसन जमाना आ रहलो ह कि हमाँ-सुमाँ के ड्रौपर से गिन के पाँच बूँद कड़ाही में देवऽ पड़तो । - हम की करिअइ । बुतरू-बानर के घर हइ । छौंड़ा-छौंड़ी के भी ईहे औंसऽ हिअइ । गरमियें में पाव भर तील के तेल अइले हे, बस । चचा के भी बरसाता में गँठीवा जोर करऽ हन । केकरा मना करिअइ । मेहरारू बोलइत पोथानी भिजुन जमीन पर बइठ गेली ।) (कसोमि॰73.17; 99.20)
1248 पोन (हाय रे सड़क ! सड़क पर नाव चले । दोकनदार अपन सामने के नल्ली छाय से भर के ऊँच कर देलक हे । पोन दाबला से सूल बंद होतउ । एकरा तो बिठला के कुदारे बंद करतउ ।) (कसोमि॰82.16)
1249 पोलदारी (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी । फेन तऽ मत कहऽ, किसुन इसपिरेस हो गेल । भूख लगल तऽ भीखियो माँगलक । कुलगिरी से लेके पोलदारी तक कइलक ।) (कसोमि॰24.27)
1250 पोवार, पोबार (= पुआल) (गारो सोचलक, जुआनी में कहियो बोरसी तापऽ हलूँ ? एक्के गमछी में जाड़ा पार ! एकरा कीऽ ... पोवार अउ ... ।; आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... । पोबार खुरखुराल अउ चिकनी गारो के पीठ में सट गेल ।; मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।) (कसोमि॰15.25; 16.27; 89.23)
1251 पोहपिता (= पपीता) (बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।) (कसोमि॰82.12)
1252 पौती (एने से लाजो अपन काड केकरो नञ् देखावे, माय-बाप के भी नञ् । माय तऽ खैर लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर हल, से से कभी-कभार माय के रखइ ले दे दे हल, मुदा थोड़के देरी में लेके अपन पौती में रख दे हल ।) (कसोमि॰44.3)
1253 पौनियाँ (अब सुनहो टकैतवा के खिस्सा । एकर बगल में पोखना के घर हल । पोखना बेचारा के जानबे करऽ हो । गाँव भर बसइलक पौनियाँ बूझ के । एक घर कुम्हार, गाँव के पतरखन । निमर बूझ के दू डेग ओकरो दने दाबइ ले चाहइ ।) (कसोमि॰112.20)
1254 फइदा (= फयदा, फैदा; फायदा) (ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । मट्टी के जाँच बिना खाद देला से कोय फइदा नञ् । मट्टी-मट्टी के माँग होवऽ हइ । कौन मट्टी के कौन खाद चाही, जानवे नञ् करबऽ तऽ देते रहो खाद, कोय फयदा नञ् भेतो ।; - ... हम एक राय दिअउ ? - अरे, तों कि आन हें ? तों जे भी कहमें, हमरे फइदा ले ने । जे जरूरी लगउ से कह आउ कर, पूछे हें कि ?) (कसोमि॰102.10; 106.24)
1255 फजीहत (= फजहत) (दू सीन के बीच में कौमिक । भीड़ हँसते-हँसते लहालोट । बदन चा भारी मखौलिआह ! महाजन के अत्याचार ! सुदखोर के फजीहत ! भीड़ गरमा जाहे । रह-रह के इन्कलाब के नारा लगऽ हे ।) (कसोमि॰53.12)
1256 फट्टल (= फटा हुआ) (किसन कटोरा खंगहार के झोला में रखलक अउ एगो फट्टल चद्दर बिछा के सूत गेल ।) (कसोमि॰25.21)
1257 फट्टल-पुरान (= फटा-पुराना) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी ।) (कसोमि॰19.4)
1258 फट्ठी (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल ।; मुनमा दढ़ खपड़ा चूनइ में लग गेल । टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल ।; बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।) (कसोमि॰88.9; 89.2; 93.17)
1259 फफकना (बरहमजौनार बित गेल निक-सुख । तेरहा दिन पगड़बंधा के बारी आल । पिंड पड़ गेल । अँगना में गाँव के भींड़ । हितेसरा के देख के सब के आँख डबडबा गेल । अउरत सब तऽ फफक गेलन ।) (कसोमि॰115.9)
1260 फयदा (= फइदा, फैदा; फायदा) (ठहरऽ, अबरी मट्टी के जाँच करावऽ हियो । मट्टी के जाँच बिना खाद देला से कोय फइदा नञ् । मट्टी-मट्टी के माँग होवऽ हइ । कौन मट्टी के कौन खाद चाही, जानवे नञ् करबऽ तऽ देते रहो खाद, कोय फयदा नञ् भेतो ।) (कसोमि॰102.11)
1261 फरउक (= फराक; फ्रॉक) (रनियाँ के मन पेटी से दसहरा वला फरउक निकालइ के हल। ऊ मने-मन डर रहल हल कि कहइँ माय डाँट ने दे। मेला देख के जइसहीं आल कि खोलवइत कहलक हल, "रख रानी, लगन में पेन्हिहें।" से ऊ माय के आगू आके खड़ी भे गेल। - "देरी काहे कर रहलहीं हें। तलाय पर से मुँह-कान घोवइत अइहें।" - "पेटीवला फरउक निकालिअउ माय।" - "ओहे पेन्ह के जइमहीं?") (कसोमि॰124.20, 26)
1262 फरका (बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल । उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰73.27)
1263 फरजन (परेमन के बाबूजी मैटरिक करके घरे खेती करऽ हलन । जूली, सोनी, विकास आउ गौरव मंझला के फरजन होलन । ई सब पटना में रह के अंगरेजी इसकुल में पढ़ऽ हलन । बाउ बड़का अपीसर हथ । किदो अपन गाड़ी अर सब कुछ हन ।) (कसोमि॰71.1)
1264 फरही (= फड़ही) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।; रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?" - "घोघी में फरही ले लेलिए हे.....फाँकते चल जइबइ।" बोलत घर से बहराय लगल।) (कसोमि॰50.24; 121.7)
1265 फरागित (= फैलाक) (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल ।) (कसोमि॰41.26)
1266 फरिंगा (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् । फरिंगवा तइयारो भेलो तऽ बीचे में टपा लेलको । हाही समा गेले हे ओकरा ।) (कसोमि॰110.6)
1267 फलदान (रौदा उग गेल हल । फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।) (कसोमि॰63.13)
1268 फसिल (= फसल) (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।) (कसोमि॰38.2)
1269 फाँड़ी (ऊ आगू बढ़ गेल इमली दने ... लोहरपट्टी ... मधेपुर के महादेव स्थान । पुल पर से लौट गेल - के जाहे फाँड़ी दने । भले ने रात भर बइठा ले ... कान-कनइठी । ऊ रस-रस लौट गेल । बजार निसबद ।) (कसोमि॰82.2)
1270 फाँय (मुनमा दढ़ खपड़ा चूनइ में लग गेल । टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल ।) (कसोमि॰89.3)
1271 फाँय-फाँय (असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् । - खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल ।) (कसोमि॰68.10)
1272 फाजिल (= अतिरिक्त) (जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ... आरती के बाद बस, रहे न संकट, रहे न भय, पाँच रोट की जय । किसना सात बोल दे । भजनकी ठठा के हँस दे । एगो ओकरा फाजिल ।; बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल - एक, दू, ... छौंड़ा-छौंड़ी, तीन, चार ... सुरमी, पाँच, छो, सात, एगो फाजिल । बुतरुअन के पनपियाय ।) (कसोमि॰23.8; 79.2)
1273 फानना (= फाँदना) (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे । रह-रह के घुरौर भिजुन आवऽ हे, नाचऽ हे, फानऽ हे । टहल-पाती भी बुतरुए कर रहल हे ।) (कसोमि॰21.6)
1274 फारे-फार (= खुलासा; विस्तार से) (भउजाय मुँह फुलइले रहल । एकसर में छोटका सब खिस्सा फारे-फार सुना देलक । कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक ।) (कसोमि॰118.7)
1275 फित्ता (= फीता) (हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल । ओकर हाथ हरदम फित्ता रहे । नाप-जोख के एक-एक तार में सुतार । गाँव के लोग झुंड बान्ह के देखे ले आवे ।) (कसोमि॰27.17)
1276 फिन (= फेन, फेनो; फिर) (कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ? ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल ।) (कसोमि॰21.27)
1277 फिफियाना (एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।) (कसोमि॰114.6)
1278 फिरंट (नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन - सुरमी धान निकावे गेल हे । अखने ... संजोग से घर खाली हे । अखने रहइ के तऽ फिरंट । ससुरी कमइते-कमइते डाँड़ा टेढ़ भे जइतउ । चल आउ सुरमीऽऽऽ ! ससुरी सुनवे नञ् करऽ हे । अगे जल्दी ने आवें !) (कसोमि॰81.6)
1279 फिरिस (करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे । गोतिया-नइया पूछथ - काम-धाम कइसे भे रहल हे ? फिरिस अर बन गेल ? चचवा कहाँ गेलउ ? तेरहे दिन में पाक होबइ के हउ ।) (कसोमि॰114.10)
1280 फिरिस (दिन-रात के मेहनत से हजार रुपइया से जास्ती काड पर जमा हो गेल । कतिन के कमीशन लगा के पनरह सो के माल उठा सकऽ हे । लाजो रस-रस फिरिस बनावऽ लगल । दोंगहरी अउ पलटौनी भी भंडारे से भे जात ।; लाजो माय के रस्ता सुझइलक - चुस्त पैजामा, कुर्ता, बंडी आउ भंडार के कटिया चद्दर दे दे । सब भंडारे से हो जइतउ । बाउ के भी बात जँचल अउ फिरिस लेके चलल भंडार ।) (कसोमि॰54.10, 26)
1281 फुकना (= बैलून) (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।) (कसोमि॰82.24)
1282 फुटना (धान ~) (हाँक पड़ रहल हे । - सोने के लौर फुटो रे धान ! - कानी ले लेलक । - हथिया धोखा देलक । लाठा-कुड़ी-चाँड़-करींग-डीजल । जेकरा से जे बनल, कइसूँ बचइलक धान । - ईखरी-पिपरी जो बड़गाम !; - भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान !) (कसोमि॰96.1, 11)
1283 फुटलका (= फूटा हुआ) (बासो दरी खन के खंभा खड़ा कइलक आउ बोलल - फुटलका खपड़वा खँचीवा में लइहें तो ... अइँटा के टूट रहते हल । टीवेल के अइँटा तऽ सब ढो लेलकइ । बासो डाँटलक हल मुनमा के - मत लइहें, ... ठीकेदरवा केस कर देलकइ हे । गाँव में इनकोरी होतइ ।) (कसोमि॰90.6)
1284 फुट्टल (= फूटा हुआ, टूटा हुआ) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।; ऊ अपन फुट्टल घर के देखऽ हे - घरो के रोग धर लेलक हे, जनलेवा !) (कसोमि॰16.5; 92.12)
1285 फुदफुदाना (मुरझाल घास फुदफुदा गेल । सुक्खल मुँह हरिया गेल । ठहरल काम दौड़ऽ लगल । सो के लाठी एक के बोझ ।) (कसोमि॰114.16)
1286 फुफुइया (> फुफ्फु + 'आ' प्रत्यय) (बुतरू के बात बड़का तक पहुँच गेल आउ भेल महाभारत । फेन एक खेर दू टूक । संपत माधे पाँच भित्तर के घर हल । पंचैती भेल आउ घर में डिंढ़ारी पड़ गेल ... डरदेवारी । दुन्नू के अपन-अपन निकास । दोकान में परमेसरा के हिस्सा गोलमाल हो गेलो । ईहे हिस्सा दुन्नू के दुस्मनी के मूल हे बाकि फुफुइया तऽ दुन्नू के हइ । बेचारी के की नञ् हलइ - घर, एक बिगहा चास, बेटा-बेटी बाकि मनिएँ हेरा गेलइ ।) (कसोमि॰105.18)
1287 फुफ्फा (= फूफा) (माथा पर हाथ धइले पोखन मने मन हिसाब लगा रहलन हल - दू खंडा घरवली के, फुफ्फा से हथ पइँचा पाँच हजार । बचल-खुचल पाँच कट्ठा गिरवी रख देम, चलो फुर्सत । कमाम आउ खाम । धरती माय के दया भेत तऽ दू साल में फुफ्फा से फारिग ।; फुफ्फा सोचऽ हथ - पहिले नौकर खड़ाँव रख के चल नञ् जा हल, गोड़ो धोवऽ हल बकि अब तो सब-कुछ बदल गेल हे ।) (कसोमि॰62.9, 11; 70.2)
1288 फुर-फुर (~ हावा लगना) (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल । रानी महल अलग । नीचे तहखाना ... ऊपर कोठा । कोठा पर फुर-फुर हावा लगो होत ।) (कसोमि॰36.10)
1289 फुलकोबी (= फूलगोभी) (याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली । तरकारी ले टमाटर आउ फुलकोबी भी ले अइली । छिपली में मेहमान के देके भुइयाँ में बइठ गेली ।) (कसोमि॰75.2)
1290 फुलिया (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !) (कसोमि॰54.6)
1291 फुसलाना (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।) (कसोमि॰37.24)
1292 फूही (आउ तहिया गाड़ी ठीक साढ़े चार बजे आल । सिरारी पहुँचते-पहुँचते साँझ । फूही टिपकऽ लगल हल । दुन्नू रुपइया के मोटरी चालो दा के दोकान में रख के तीतल-भींजल घर पहुँचल ।) (कसोमि॰51.9)
1293 फेकार (= गुप्तचर, गोइन्दा) (ऊ भी कम नञ् । पिछलउकी गाड़ी छोड़ देलका । जो तोंहीं एकरा से । आ रहलियो हे पीठउपारे । ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।) (कसोमि॰29.2)
1294 फेन (= फेनो, फिनूँ, फेर; फिर) (देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।; धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।; ओकरा फेन खरिहान के उछाड़ो वला महाभोज याद आ गेल । सरवन चा कहलका हल - टूरा, कल हमर खरिहान अइहें, फेन लिट्टी-दूध चलतइ ।) (कसोमि॰14.18; 17.17; 25.10)
1295 फेनो (= फिन, फेनुँ, फेर; फिर) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।"; भुइयाँ में डंटा बिस्कुट पटक के बुढ़िया उठ गेल आउ अलमुनिया के थारी ला के फेनो मोटरी खोलऽ लगल ।; ओकर जिनगी पानी पर के तेल भे गेल, छहरइत गेल । आउ छहरइत-छहरइत, हिलकोरा खाइत-खाइत फेनो पहुँच गेल अपन गाँव, अपन जलमभूम ।; ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।) (कसोमि॰11.2; 13.16; 25.2, 7)
1296 फेरा-फेरी (= बारी-बारी से) (ओहे गाछ तर तितकी अउ लाजो झूला झूल रहल हल । फेरा-फेरी झूलइत ऊब गेल तऽ एक्के साथ झूला पर बैठ के हौले-हौले पेंघा लेबइत बतिआय लगल ।; पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ ।) (कसोमि॰48.6; 115.14)
1297 फोंकना (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ । बीस बीघा चिक्कन चास । करइ तब तो । जब सब के धान मौलतो तब एकर लिबिर-लिबिर । सब के धान कट के कोठी में चल जइतो तब एकर धान खेत में चूहा-बगेरी फोंकतो ।) (कसोमि॰58.23)
1298 फों-फों (~ सुतना) (धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।) (कसोमि॰17.18)
1299 फोंय-फोंय (~ सुतना) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । ... अउ अब ! अब सौंसे घर के देवाल में खिड़की । आर-पार झक-झक सूझे । पानी पड़इत रहे, फोंय-फोंय सुतऽ ।) (कसोमि॰28.3)
1300 फोटू (= फोटो) (बासो कत्ते साँप मारलक हल । पहिल डंटा फन पर पड़ल । मुनमा दौड़ के ताबड़तोड़ फट्ठी चलवऽ लगल । बासो लाठी के हूरा से साँप के फन चूरइत बोलल - साँप के आँख फोड़ देवे के चाही । आँख में मारेवला के फोटू बन जाहे । एकर जोड़ा फोटू देख के बदला लेहे ।) (कसोमि॰89.17)
1301 बंगइठी (= वक्र यष्टि; बंगइठा; ठोस छोटा डंडा; दोनों सिरों पर गोल लट्टू लगी लाठी; पासी का लबनी लटकाने तथा औजार पजाने का डंडा) (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।") (कसोमि॰117.18)
1302 बंगला (~ पान) (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ । - मगही लगइहऽ, बंगला नञ् । बंगला पान तो भैंसा चिबावऽ हइ । आउ हाँ, इनखा मीठा चलो हन । तनि बयार फेंकइ वला दहुन । - बयार फेंकइवला कइसन होबऽ हइ ? कल्लू नए बोल सुनइलक । - अरे पिपरामेंट देहो, खइलिअइ कि मुँह में बिजुरी पंखा चलो लगलो । गोल दायरा में हाथ नचावइत मौली बोलल ।) (कसोमि॰112.8)
1303 बंड (एक तुरी बीच में अइला तऽ देखऽ हथ, उनकर बँगला बंडन के अड्डा बनल हे । खेत घूमे निकलला तऽ देखऽ हथ, खेत कटल हे । खरिहान देखइ ले गेला तऽ ओजा तीन गो छोट-छोट काँड़ा लगल हल । घूम-घाम के ओजउ से चल अइला, कुछ नञ् बोलला ।; ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।) (कसोमि॰26.10; 62.18)
1304 बंडी (लाजो माय के रस्ता सुझइलक - चुस्त पैजामा, कुर्ता, बंडी आउ भंडार के कटिया चद्दर दे दे । सब भंडारे से हो जइतउ । बाउ के भी बात जँचल अउ फिरिस लेके चलल भंडार ।) (कसोमि॰54.24)
1305 बंस (= वंश) (माय पूरा परिवार अपन अँचरा में समेटले रहऽ हल । सब काम ओकरे से पूछ के होवे । माय लेल सब बरोबर बकि बंस बढ़े पिरीत घटे । अब सबके अप्पन-अप्पन जनाय लगल । माय पुतहू सब के आगे बेबस भे गेल ।) (कसोमि॰117.11)
1306 बइना-पेहानी (दे॰ बैना-पेहानी) (बड़की अखइना लेवे आल हल तऽ कचहरी गरम देखलक। बात सवाद के बोलल, "खपरी दरके के पहिले तोर दुन्नू के मन दरक गेलउ। की करमहीं, अब तोरा दुन्नू के बइना-पेहानी से चल के गोतियारी भी खतम भे जइतउ। की करमहीं, दुनिया के चलन हइ। गोतिया-सुतुआ नान्हें ठीक।") (कसोमि॰123.15)
1307 बउआ (= बबुआ) (पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ । बानो भी उठल आउ फेरा देलक । हितेसरा के मन में आँन्हीं चल रहल हल । एतने में पंडित जी बोलला - बउआ, खूट के माथा पर के पगड़ी उतार के रखऽ अउ असिरवाद लऽ ।; एतना बोलके बुलकनी भउजाय दने मुड़ल आउ माथा पर हाथ रखइत बोलल, "हमर सुगनी के गति-मति दीहऽ गोरइया बाबा ।" एतनो पर जब भउजाय सुग से बुग नञ् कइलक तऽ बुलकनी भाय से बोलल, "जा हिअउ बउआ ... घर में ढेना-ढेनी हउ ।") (कसोमि॰115.17; 118.15)
1308 बकछियाना (बुढ़िया बोरिया उझल के एक-एक चीज बकछियावऽ लगल । तीन गो गोइठा एक दने करइत, "छँउड़ापुत्ता मुलुर-मुलुर ताकइत रहतो । मुत्तइ ले गेला हल । लम्हबन सब जो बनइ ले देय ! देखलको नञ कि आछिः ... केतनो माय-बहिन एक करबो, ठीं ... ठीं ... ठीं ... हँसतो ।") (कसोमि॰11.7)
1309 बकार (सोचऽ लगल, "मजाल हल कि गारो बिन खइले सुत जाय ।" चिकनी के जिरह हायकोट के वकील नियर मुदा आज चिकनी के बकार नञ खुलल ।; अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।) (कसोमि॰16.23; 18.4)
1310 बकि (= बाकि; लेकिन) (अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।; कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ?) (कसोमि॰18.4; 21.26)
1311 बगअधार (गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े । ओकर गोड़ में पाँख लग गेल हल - जानथ गोरैया बाबा ! दोहाय सलेस के ... लाज रखो ! बाल-बच्चा बगअधार होत । कह के अइलूँ हें ... काम दिहऽ डाक बबा !) (कसोमि॰37.16)
1312 बगुली (~ छेंड़ी) (पलट के असेसर दा देखऽ हथ तऽ रजौलीवला बंगला पर चढ़ रहला हे । साफ धोती आउ घोड़वा रंग के ऊनी के कुरता, कंधा पर उनिए के तहाल चद्दर, एक हाथ में जूट के झोला आउ दोसर में बगुली छेंड़ी । बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।) (कसोमि॰69.11)
1313 बगेरी (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।; मुनियाँ एक मुट्ठी भात-दाल के ऊपर घुन्नी भर तरकारी लेके खाय ले बैठल कि देख के माय टोकलक - बगेरी भे गेलें मुनियाँ ! जुआन-जहान एतने खाहे ?) (कसोमि॰16.12; 65.24)
1314 बचल-खुचल (= बच्चल-खुच्चल; बचा-खुचा, शेष, बाकी) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।; फेन भागल-भागल एहे गाम । चाच-चाची के तऽ फूटलो नजर नञ् सोहाय । ओकर नजर बचल-खुचल घर-घेरवारी पर हल । किसना के देख के दुन्नू के करेजा पर साँप लोटऽ लगल ।) (कसोमि॰19.3; 22.20)
1315 बजबज (~ गली) (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल ।; "कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !") (कसोमि॰59.23; 87.5)
1316 बजरुआ (बिठला के बजरुआ से भय नञ् हे । खाली गाँव के भाय-गोतिया नञ् देखे - बस्स । जात के बैर जात । देख लेत तऽ जात से बार देत ।) (कसोमि॰81.22)
1317 बजार (= बाजार) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।"; कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।) (कसोमि॰12.24; 13.9; 23.25)
1318 बज्जी (= केवल समास में प्रयुक्त, 'बजे वाला' अर्थ में, जैसे - बरहबज्जी गाड़ी) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।) (कसोमि॰28.14)
1319 बटइया (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।; बासो रुक जाहे । किसुन सिंह हाँक देबइ ले नञ्, दखल करइ ले आल हे । बेईमनमा ... बासो धान रोपला पर रजिस्टरी करइलक हल । बात तय हल कि ईमसाल के धान बटइया रह जइतो, हाँक हमहीं देबो ।) (कसोमि॰88.16; 96.27)
1320 बटरी (ऊ घर-गिरथामा करके सिलाय-फड़ाय वली बटरी लेलक आउ भौजीघर चल गेल । ... भौजी राते कहलकी हल - कल अइहऽ, नए डिजैन के बिलौज काटइ ले सिखा देबो । उनखा दोंगा में सिलाय मसीन मिलल हल ।) (कसोमि॰66.7)
1321 बटाय (= बटइया) (घर बनइ;ला, गोतिया-नइया देखइत रहलन । हाता देवऽ लगला, अगल-बगल वला दावा कैलकन । काम बंद । बटाय वला से बँटावइ लेल गेला तऽ हिसाबे नञ् समझ सकला, मुदा कुछ नञ् बोलला । जे देलकन, उठवा लेलका ।) (कसोमि॰26.8)
1322 बटुरी (बिठला रोटी गमछी में लपेट के बटुरी में रखलक अउ सिक्का पर टांग के नीम तर सुस्ताय ले चलल जा हल कि नजर चुल्हा तर धइल ताय दने चल गेल । पाछिल टिकरी धुआँ रहल हल । सुरमी कहियो ने पाछिल टिकरी केकरो खाय ले दे ।) (कसोमि॰79.9)
1323 बड़ (= बर, बरगद; वटवृक्ष; बहुत; बड़ा) (किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।; ने गाँव ओकरा चिन्हलक, ने ऊ गाँव के । एहे से ऊ ई भुतहा बड़ तर डेरा डाललक हल - भोरगरे उठ के चल देम फेनो कनउँ ।; ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।; - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक । - निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल ।) (कसोमि॰22.10; 25.6; 88.18; 94.8)
1324 बड़का (= 1. वि॰ बड़गो, बड़गर; बड़ा; 2. बड़ा भाई, बेटा, चाचा आदि) (गाड़ी शेखपुरा टिसन से खुल गेल । कुसुम्हा हॉल्ट पार । बड़का टिसन डेढ़गाँव । एजा सब गाड़ी रुकतो । रुकतो की, रोक देतो, भैकम करके ।; पलंगरी घोरा गेल हे । सखुआ के पाटी आउ सीसम के पउआ । घोरनी पच्चीस डिजैन के । लाल-हरियर सुतरी । हाय रे डिजैन ! दू गो कुरसी आउ टेबुल भी रंगा के आ गेल हे । आम के बड़का बक्सा ।; समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।) (कसोमि॰49.18; 54.17; 58.25)
1325 बड़की (= 1. वि॰ बड़ी; 2. सं॰ बड़ी बेटी, बहन, बहू आदि) (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।; ओकरा याद पड़ल - एक तुरी सुरमी बड़-छोट रोटी बनइलक । खाय घरी बड़की ओकरे हिस्सा पड़ल ।) (कसोमि॰58.26; 73.22, 23; 75.8, 10; 79.4)
1326 बड़गर (= बड़ा) (ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे । सब के अलग-अलग रंग । फेनो सब रंग घटमाँघेट हो गेल हे । एगो बड़गर भँवर भँउर रहल हे आउ तेकरा बीच लाजो ... लाजो नाच रहल हे ... अकुला रहल हे ।) (कसोमि॰46.12)
1327 बड़गो (= बड़गर; बड़ा) (उनकर अइसन रूप गाँववला कहियो नञ् देखलकन हल । नौकरी करो हला, बड़गो ओहदा पर । गाँव आवऽ हला गाड़ी से । राते अइला - पराते गेला ।; पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ ।; बुलकनी के दुन्नू बेटा हरियाना कमा हे । बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे ।) (कसोमि॰26.5; 49.1; 118.21)
1328 बड़-छोट (ओकरा याद पड़ल - एक तुरी सुरमी बड़-छोट रोटी बनइलक । खाय घरी बड़की ओकरे हिस्सा पड़ल ।; मुनमा माय गीरल लत्ती से परोर खोजऽ लगल - नोंच देलकइ । हलऽ, देखहो तो, कतना भतिया हइ ... फूल से भरल । ... ऊ बोल रहल हे आउ उलट-पुलट के परोर खोज रहल हे । पोवार में सुइया । बड़-छोट सब मचोड़ले जाहे ।; मुँह में गूँड़-चाउर । दुन्नू हाथ उठइले हँका रहल हे - बड़-छोट धान बरोबर, एक नियन ... सितवा, पंकज, सकेतवा, ललजड़िया, मंसूरी, मुर्गीबालम । / मंसूरी के बाल फुटतो एक हाथ के ... सियार के पुच्छी ।) (कसोमि॰79.4; 89.23; 96.17)
1329 बड़-बड़ुआ (कहइ के तऽ सत्तू-फत्तू कोय खाय के चीज हे। ई तऽ बनिहार के भोजन हे। बड़-बड़ुआ एन्ने परकलन हे। अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल।) (कसोमि॰120.22)
1330 बड़हर (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।) (कसोमि॰23.21)
1331 बड़ाय (= बड़ाई) (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।) (कसोमि॰55.10)
1332 बढ़ियाँ (= बढ़िया) (नकपाँचे के दिन सितबिया सोचलक - एक किलो मांस बमेसरे से ले लेम । साल भर के परब, के जानलक हे । से ऊ भोरगरे चुल्हना के समद के बजार चल गेल - बामो घर चल जइहऽ अउ एक किलो बढ़ियाँ मांस माँग लइहऽ । कहिहो - मइया भेजलको हे ।) (कसोमि॰107.27)
1333 बतकुच्चन (बँटवारा के बाद से छोट-छोट बात पर बतकुच्चन होवइत रहऽ हल। घटल-बढ़ल जहाँ टोला-पड़ोस में अइँचा-पइँचा चलऽ हे, वहाँ अँगना तऽ अँगने हे। कुछ दिन तऽ ठीक-ठाक चलल बकि अब अनदिनमा अउरत में महाभारत मचऽ हे।) (कसोमि॰122.6)
1334 बतकुच्चह (= बतकुच्चन) (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ?; एक दिन परेमन जूली-माय के बित्तर चल गेल आउ पलंग पर बइठल तऽ भेल बतकुच्चह । किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा ।; बागवला खेत लिखबइवला गाछो लिखबइ ले चाहऽ हल बकि बासो अड़ गेल । ढेर बतकुच्चह भेल हल नवादा कचहरी में । बासो बोलल हल - जीअइ ले तऽ अब कुछ नहियें बचल, जरइ ले तऽ लकड़ी रहऽ दऽ ।) (कसोमि॰51.21; 70.9; 89.26)
1335 बतासा (= सिर्फ चीनी की चासनी की मिठाई) (मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰88.7)
1336 बतिआना (दे॰ बतियाना) (भौजी साथे मिलके काम करूँ तऽ एगो इस्कूले खुल जाय । फेर तऽ पैसा के भी कमी नञ् । एकाध रोज उनका से बतिआल हल कि भौजी मजाक कइलका - पहिले हमर ननदोसी के तऽ पढ़ावऽ, अप्पन पढ़ाय ।) (कसोमि॰66.22)
1337 बतियाना (= बात करना) (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।; ओहे गाछ तर तितकी अउ लाजो झूला झूल रहल हल । फेरा-फेरी झूलइत ऊब गेल तऽ एक्के साथ झूला पर बैठ के हौले-हौले पेंघा लेबइत बतिआय लगल ।; असेसर दा लुंगी-गंजी पेन्हले गोंड़ी पर खड़ा-खड़ा सौखी गोप से बतिया रहला हल - अइसन खुनियाँ बैल किना देलें कि ... सच कहऽ हइ - हट्टी के दलाल केकरो नञ् ।) (कसोमि॰28.22; 48.7; 68.7)
1338 बदे (= बारे में) (बिठला सुरमी के बदे सोचऽ लगल - ई देह से तऽ नञ्, बकि मुँह के जब्बड़ हे । एकरा हमर माय से कहियो नञ् पटल । छोवे महिना में हड़िया अलग करवा देलक हल ।) (कसोमि॰84.15)
1339 बद्दी (= कुश्ती, मल्लयुद्ध; प्रतियोगिता) (ललती तितकी में बद्दी - के आगू ? ललती आगू तितकी पीछू, तितकी आगू ललती पीछू बकि बरामदा चढ़इत दुन्नू साथ, एक्के तुरी ।) (कसोमि॰49.25)
1340 बधार (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।) (कसोमि॰76.3)
1341 बनाना-सोनाना (घर जाके मुनियाँ गोड़ धोलक आउ भंसा हेल गेल । घर में खाय-पानी ईहे करऽ हे । एकरा साँझे नीन अइतो । बना-सोना के खा-पी के सुत गेलो ।) (कसोमि॰65.22)
1342 बनिआल (= बनियाल; बानी बन्नल; बानी या राख बना हुआ) (दूध खौलऽ लगल । कपड़ा से पकड़ के कटोरा उतारलक अउ डमारा के आग चूर के लिट्टी बनिआल आग से तोप देलक ।) (कसोमि॰20.16)
1343 बनिहार (= बन या बनि लेकर काम करनेवाला, मजदूर) (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।; असेसर दा घर दने चल गेला । बनिहार एक लोटा पानी आउ हवाई चप्पल रख गेल । खड़ाँव के चलन खतम हो गेल हे । पहिले काठ के चट्टी चलऽ हल, बकि ओहो उपह गेल ।; बनिहार चाह रख गेल । दुन्नू सार-बहनोय चाह पीअइत रहला आउ गलबात चलइत रहल । - मंझला के समाचार ? - ठीक हइ । - लड़का अर तय भेलन ? - तय तऽ परेसाल से हइ, वसंत पंचमी के भेतइ, पटने में ।; - बनिहरवा की करऽ हो ? - एकर काम खाली जानवर खिलाना भर हो । खिला-पिला के सोझ । रात-बेरात के जानवर अपने देखऽ पड़ऽ हो । - कहऽ हो नञ् ? - कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान !) (कसोमि॰68.3; 69.27; 72.9, 21)
1344 बन्नुक (= बन्हुक; बन्दूक) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।; पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे । तहिये संकल्प कइलका - जोरू-जमीन जोर के आउ लिखा-पढ़ी करके बन्नुक के लैसेंस बनवा लेलन ।) (कसोमि॰28.13; 29.4)
1345 बन्नूक (दे॰ बन्नुक) (भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।; उनका लगल, ई कुल कौआ अब हमरे नोच के खा जात, एकरा लेल ऊ अपन बन्नूक तान के उछलऽ लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल ।; ऊ बन्नूक लेके अपन घर के चौपटी दौड़ऽ लगला आउ हाल-हाल चिल्लाइत रहला, चिल्लाइत रहला । थक गेला तऽ भित्तर जाके लोघड़ा गेला ।) (कसोमि॰30.21, 26; 31.2)
1346 बन्हना (= बँधना) (कपड़वो में रुपा-आठ आना कम्मे लगतउ, तितकी बात मिललइलक । अइसीं गलबात करइत एन्ने-ओन्ने देखइत घुमइत रहल । तितकी के पीठ पर अँचरा के बन्हल फरही के मोटरी अनकुरा लगल ।) (कसोमि॰50.24)
1347 बन्हाना (मोटरी खुल गेल । एकएक चीज के सब छू-छू के देखलन अउ बड़ाय कइलन । मोटरी फेनो बन्हा गेल मुदा ई की ? मोटरी बुच्चा के हाथ । बुच्चा लपकल गाँव दने सोझिया गेल । लाजो के बाउ लपक के धरइ ले चाहलका कि दोसर अदमी उनकर गट्टा पकड़लक आउ तब तक नञ् छोड़लक जब तक बुच्चा अलोप नञ् गेल ।) (कसोमि॰55.10)
1348 बप्पा (= बाप+'आ' प्रत्यय) (समली साल भर से बीमार हल । परसाल जखने धरवे कइलक हल, ननमा पटना में देखा देलकइ । बप्पा तऽ बेचारा हइ । पढ़ल-लिखल तऽ हइये हइ बकि माथा के कमजोर । नौकरी-पेसा कुछ नञ् ।) (कसोमि॰58.15)
1349 बयार (कल्लू गाहक के चाह देके पान लगावे लगल । ऊ चाह-पान दुन्नू रखे । ओकर कहनइ हल - चाह के बिआह पाने साथ । - मगही लगइहऽ, बंगला नञ् । बंगला पान तो भैंसा चिबावऽ हइ । आउ हाँ, इनखा मीठा चलो हन । तनि बयार फेंकइ वला दहुन । - बयार फेंकइवला कइसन होबऽ हइ ? कल्लू नए बोल सुनइलक । - अरे पिपरामेंट देहो, खइलिअइ कि मुँह में बिजुरी पंखा चलो लगलो । गोल दायरा में हाथ नचावइत मौली बोलल ।) (कसोमि॰112.9, 10)
1350 बर (= बरगद, वटवृक्ष) (सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल । नदी किनारे बर के पेड़ तर जा के डेरा डाललक ।) (कसोमि॰20.1)
1351 बरकना (चारो अनाज तार-तूर के बरकइ ले छोड़ देलक आउ अदहन चढ़इलक। खिचड़ी बनते-बनते रनियां आ जात। आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल।) (कसोमि॰121.11)
1352 बरकाँ (= बारह का पहाड़ा) (तेल के मलवा घर में पहुँचा के चलित्तर बाबू अइला आउ लचपच कुरसी खीच के बुतरू-बानर भिजुन चश्मा लगा के बैठ गेला । - देखहो, मुनमा बइठल हो । - दादा हमरा मारो हो । - बरकाँऽऽ बारह ... । - पढ़ऽ हें सब कि ... । चलित्तर बाबू डाँटलका । सब मूड़ी गोत लेलक ।) (कसोमि॰103.1)
1353 बरतुहार (एक दिन परमेसरावली के बाल-बच्चा खा रहल हल । थरिया में बरतुहार के जुट्ठा हलुआ-पुरी हल । बमेसरा के मँझला देखते-देखते हलुआ लुझ के भाग गेलइ । बुतरू के बात बड़का तक पहुँच गेल आउ भेल महाभारत ।) (कसोमि॰105.13)
1354 बरतुहारी (सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल । ... कभी तऽ बरतुहारी में गाड़ी पकड़इ ले धौगल जाहे, हाँहे-फाँफे ... सिंगल पड़ गेल हे । गाड़ी लुकलुका गेल हे ... तेज ... आउ तेज धौगल हे । लेऽ ... गाड़ी तनि सुन ले छूट गेल हे । लटफरेम पर खड़ा-खड़ा दूर जाइत गाड़ी के मनझान मन से देख रहल हे ।; टिकैतबा बूझतो कि हमहीं बनल काम बिगाड़ देलिअइ । बोग्ज अइसन दुस्मनी सधावै के दाव खोजते रहतो । सोंचहो भला, बेटी तऽ समाज के होबऽ हइ । हमर बरतुहारी तक बिगाड़ते चलतो ।) (कसोमि॰63.5; 112.27)
1355 बरना (= जलना; लगना; अनुभव होना) (बौल ~; सुरसुरी ~; गोस्सा ~; जरनी ~; झुकनी ~; नोचनी ~) (बाउ पंडी जी कहल मंतर दोहरइते जा हलन कपसि-कपसि के ... कातर ... भरभराल । फेनो पंडी जी कउची तो बोलला आउ ओकर कंधा पर एगो अनजान बाँह बगल से घेर लेलक । लाजो के एके तुरी कंधा आउ हाथ में सुरसुरी बरऽ लगल ।; परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल ।) (कसोमि॰46.25)
1356 बरहबज्जी (= बारह बजे का) (~ गाड़ी) (ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।) (कसोमि॰28.14)
1357 बरहमजौनार (बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।) (कसोमि॰115.8)
1358 बरहमसिया (उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰74.1)
1359 बराहिल (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो ।) (कसोमि॰25.16)
1360 बरिआत (= बरात; बारात) (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.22)
1361 बरिआती (= बराती; बारात; झुंड) (सब घर के कठौती-कड़ाही, बाल्टी लावे के काम बुतरुए के । रस्ता में माथा पर औंधले लकड़ी से बजैले बरिआती के बैंड पाटी नियन नाचइत-गावइत आवऽ हल । पानी जुटावे बुतरू, सखरी माँजे बुतरू ।) (कसोमि॰21.8)
1362 बरी (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।) (कसोमि॰105.10)
1363 बरेड़ी (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।) (कसोमि॰11.4)
1364 बलइया (ले ~) (बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे । - कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन ।) (कसोमि॰111.20)
1365 बलाय (जब ने तब हमरे पर बरसत रहतउ। दीदी तऽ दुलारी हइ। सब फुल चढ़े महादेवे पर । ओकरे मानऽ हीं तऽ ओहे कमइतउ। हम तऽ अक्खज बलाय हिअउ। फेंक दे गनउरा पर। नञ् जाम कोकलत। कय तुरी नहा अइलूँ हे।) (कसोमि॰120.3)
1366 बस्तर (= वस्त्र) (साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !) (कसोमि॰47.24)
1367 बहराना (= बाहर जाना) (दुनिया में जे करइ के हलो से कइलऽ बकि गाम तो गामे हको । एज्जा तो तों केकरो भाय हऽ, केकरो ले भतीजा, केकरो ले बाबा, केकरो ले काका । एतने नञ, अब तऽ केकरो ले परबाबा-छरबाबा भे गेला होत । सोंचइत किसुन गाम से बहरा गेल ।; हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक ।; सुकरी पुछलक - हइ कोय मोटरी ? / सरना - ई बजार में तऽ हम दुन्नू हइए हिअउ । देख रामडीह । / सुकरी लपकल सोझिआल । कोयरिया इसकुल भिजुन पहुँचल कि गेट से भीम सिंह चपरासी बहराल ।; बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।) (कसोमि॰19.19; 33.19; 36.1; 80.1)
1368 बहिन (= बहन) (घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।) (कसोमि॰43.2)
1369 बहिनधी (= बहन की बेटी) (के बिनलकउ सुटरवा, बहिनधीया ? अंजू के नावा सूटर देख के समली पुछलक आउ ओकर देह पर हाथ फिरावऽ लगल ।) (कसोमि॰58.7)
1370 बहीन (= बहन; दे॰ बहिन) (रसलपुरवली के शेखपुरा अस्पताल में आठ टाँका पड़ल हल । जादेतर छोटके परब-तेहवार में कुछ ने कुछ लेके बहीन हियाँ आवऽ हल । बुलकनी के पता चलल तऽ भउजाय के देखइ ले शेखपुरा चलि गेल ।) (कसोमि॰118.4)
1371 बहीर (= बधिर; बहिरा; बहरा) ("लेऽऽ ... सुनलें ने मातलें ... अइसईं नया घोड़ी सन बिदको लगलें । बोल चिक्को, कि बुझलें ?" - "बोलइ ने, से कि हम बहीर ही ?") (कसोमि॰12.9)
1372 बाउ (= बापू; बाबू) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।; लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; साल लगते-लगते बस्तर के ममला में आत्मनिरभर हो गेल । गेनरा के जगह दरी आउ पलंगपोश, जाड़ा के शाल, लिट्ठ कंबल । माय-बाप मगन, नितरो-छितरो । बाउ नाता-कुटुंब जाय तऽ लाजो के सुघड़य के चरचा अउसो के करे । जो लाजो बेटा रहे !; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।) (कसोमि॰22.14; 46.21; 47.26; 84.9, 10)
1373 बाऊ (दे॰ बाउ) (- अरे, अदरा पनरह दिन चलऽ हइ बेटा ! - पनरह दिन अदरा हमरो घर चलतइ ? - अदरा एक दिन बनाके खाल जा हइ । - की की बनइमहीं ? - खीर, पूरी, रसिया, अलूदम ! - लखेसरा घर तऽ कचौड़ी बनले हे । ओकर बाऊ ढेर सन आम लैलथिन हे । ई साल एक्को दिन आम चखैलहीं माय ?) (कसोमि॰32.18)
1374 बात-विचार (भौजी से एकरा पटइ के एगो आउ कारन हल । मुनियाँ तऽ सिलाय-फड़ाय सीखऽ हल, बकि भौजी एकरा से पढ़ाय सीखऽ हली । बात-विचार मिलवे करऽ हल ।) (कसोमि॰66.17)
1375 बादर (= बादल) (हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक । बादर चुचुआ गेल हल । मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल ।) (कसोमि॰33.21)
1376 बाना (खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन ! हम तऽ माउग हिअन । माउग कि तोर खाली टासे बनइते रहतो ! ओकरा आउ कुछ मन करऽ हइ कि नञ् ! छाम-छीन नञ्, बकि सिनुरा-टिकुली नञ् ? सोहागिन के बाना चूड़ी भी लावइ से अजुरदा ।) (कसोमि॰101.9)
1377 बानी (= राख) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।") (कसोमि॰12.22)
1378 बान्हना (= बाँधना) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।; गारो के ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे, चिकनी अलुआ कूचब करऽ हे - "खाय के मन नञ हउ ।" बोलइत गारो गोड़ घिसिअइते पोवार में जाके घुस गेल । ... - "काहे नञ खइलहो ?" गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ ।"; हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल । ओकर हाथ हरदम फित्ता रहे । नाप-जोख के एक-एक तार में सुतार । गाँव के लोग झुंड बान्ह के देखे ले आवे ।; मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू । खा बान्ह-बान्ह लड़ुआ ।) (कसोमि॰14.21; 17.9; 27.18; 33.25)
1379 बापुत (- भिखरिया, नद्दी, खपड़हिया, रामनगर, निमियाँ, बेलदरिया के धान ... फुटो रे धान ! / बासो तऽ निमियाँ आउ बेलदरिया से तेसरे साल विदा भे गेल । बचइ माधे ईहे दस कट्ठा भिखरिया हल बकि ... एहो ... । भिखरिया के अलंग पर दुन्नू बापुत के गोड़ बढ़ल जाहे ।) (कसोमि॰96.14)
1380 बाबापूजी (- खाली पेट मत जादे पी । बासो बोलल । - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक । - निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल । - तनि मिठवा दे ने दे । मुनमा हाथ बारइत माँगलक । - बाबापूजी होतइ तब ने । मुनमा-माय टोकलक ।) (कसोमि॰94.10)
1381 बाबा-बाउ (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।) (कसोमि॰59.12)
1382 बामा (= बायाँ) (तितकी चरखा निकाल के लाजो के हाथ में देलक आउ ओकर पीछू में जाके बैठ गेल । तितकी लाजो के दहिना हाथ से कील आउ बामा से पूनी पकड़ के रस-रस घुमवऽ लगल । लाजो के बामा हाथ उठइत-उठइत अपन ऊँचाई भर तन गेल ।) (कसोमि॰45.13)
1383 बामे-दहिने (= बाएँ-दाएँ) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।) (कसोमि॰89.8)
1384 बारना (= जलाना; जाति से बहिष्कृत करना) (बिठला के बजरुआ से भय नञ् हे । खाली गाँव के भाय-गोतिया नञ् देखे - बस्स । जात के बैर जात । देख लेत तऽ जात से बार देत ।) (कसोमि॰81.24)
1385 बास (= वास) (माय मरला पर किसन साल भर ममहर आउ फूआ हियाँ गुजारलक मुदा कज्जउ बास नञ् । नाना-नानी तऽ जाने दे, बकि मामी दिन-रात उल्लू-दुत्थू करइत रहे ।) (कसोमि॰22.17)
1386 बासी (~ मुँह) (बुलकनी धथपथ आल आउ पहिले गेहुम के कठौती में फूलइ ले देलक। चूल्हा जोर के बूँट, मसुरी आउ केराय के तारऽ लगल। तितकी अभी लउट के नञ् आल हल। रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें, कुछ खा नञ् लेलें?") (कसोमि॰121.5)
1387 बासी-कुसी (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।) (कसोमि॰79.19)
1388 बासोबास (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।) (कसोमि॰110.5)
1389 बिंडोबा (अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल, जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।) (कसोमि॰120.14)
1390 बिआहना (= विवाह करना) (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।) (कसोमि॰58.27)
1391 बिख-बुझल (~ बोली = कड़वा वचन) (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो । रेकनी के बिख-बुझल बोली के काँटा नञ् गड़त हल तऽ दोसर दिन सरवन चा के खरिहान में भोज उड़त हल ।) (कसोमि॰25.17)
1392 बिजकाना (मुँह ~) (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही ।) (कसोमि॰102.18)
1393 बिज्जे (= खाने के लिए बुलाहट) (बंगला पर जाके चद्दर तान लेलका । खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो ।) (कसोमि॰75.20)
1394 बिझलाह (इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ? चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं ।) (कसोमि॰29.24)
1395 बिटनी (तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल । कल बीट के दिन हल । तितकी जल्दी-जल्दी हाथ चला रहल हल । ओकर आँख तर बीट के भीड़ नाच रहल हल । चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी नियन बिटनी सब के भीड़ । जादेतर लड़किए रहऽ हल, तीन हिस्सा ।) (कसोमि॰44.13)
1396 बिड़नी (= बिढ़नी, बर्रे, ततैया) (खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक ।; ई बात गाँव में तितकी नियन फैल गेल हल कि रोकसदी के समान हरगौरी बाबू लूट लेलन । मानलिअन कि उनखर पैसा बाकी हलन, तऽ कि रोकसदिए वला लूट के वसूलइ के हलन । अइसने खिस्सा दुआरी-दुआरी हो रहल हल । गाँव कनकना गेल हल, उसकावल बिड़नी नियन । गाँव दलमल ।) (कसोमि॰49.21; 55.23)
1397 बिदकना ("लेऽऽ ... सुनलें ने मातलें ... अइसईं नया घोड़ी सन बिदको लगलें । बोल चिक्को, कि बुझलें ?" - "बोलइ ने, से कि हम बहीर ही ?"; "गारो मर गेल चिक्को । ई तऽ बुढ़वा हे, माउग के भीख खाय वला । तों ठीक कहऽ हें चिक्को । कल से हमहूँ माँगवउ । .." ऊ कथरी पर घुकुर गेल ... मोटरी नियन । चिकनी बिदकल, "तों काहे भीख माँगमें, हम कि मर गेलिअउ ?") (कसोमि॰12.8; 15.5)
1398 बिदोरना (मुँह ~) (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।) (कसोमि॰78.26)
1399 बिधंछ (= बिधंस; विध्वंश, नाश, बरबादी) (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।) (कसोमि॰26.2)
1400 बिध-बिधान (= विधि-विधान) (बानो पिंडा बबाजी के आगू बैठल । पंडित जी बिध-बिधान कैलका अउ पगड़ी बाँधइ ले गोतिया के हँकैलका ।) (कसोमि॰115.11)
1401 बिन (= बिना) (उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।) (कसोमि॰73.27)
1402 बिरहा (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।) (कसोमि॰23.6)
1403 बिर्र (भगदड़ मच गेल । सब कोय डर से यह ले, वह ले, बिर्रऽऽऽऽऽ ।; एक्के तुरी ठूँस-ठूँस के पढ़इतइ तऽ अँटतइ मथवा में ! छोड़ रे मुनमा, कल पढ़िहें । बुतरू-बानर पढ़नइ छोड़ देलक । ऊ खाली इसारा के इंतजार में हल । कुरसी खिसकल नञ् कि बिर्रऽऽ धकिअइते, ठेलते, कूदते !) (कसोमि॰31.1; 104.4)
1404 बिलउक (= बलउक; ब्लॉक, प्रखंड) (चिकनी मनझान हो गेल । पहाड़ नियन गारो के ई दसा ! ठठरी ... गारो के सउँसे देह चिकनी के अँकवार में । चिकनी के याद आल, पहिले अँटऽ हल ? आधा ... भलुक आधो नञ ... कोनो नञ । "आझे भर चिक्को ... । कल से तऽ बिलउक वला कंबल होइए जात ।" गारो सिसिआइत बोलल ।; गारो के आँख तर बिलउक नाच गेल । गारो कत्ते बेरी बुढ़िया के साथ बिलउक गेल हे ... इन्कलाब जिंदाबाद ! रोजी, रोटी, कपड़ा ... कपड़ा ? कम्मल भी तो कपड़े न हे ?) (कसोमि॰17.5, 21, 22)
1405 बिलबिलाना (जइसन जिनगी उनखा सबके नसीब भेल, ओही जिनगी के साथ ऊ सब पात्र जोंक जइसन चिपकल रहऽ हथन । परिस्थिति नून जइसन ई सब जोंकवन पर पड़ऽ हइ त ऊ सब खूने-खून होके बिलबिलाय लगऽ हथ ।; मट्टी के देवाल बासो के बापे के बनावल हल । खपड़ा एकर कमाय से चढ़ल हल । अबरी बरसात में ओसारा भसक गेल । पिछुत्ती में परसाल पुस्टा देलक हल, से से बचल, नञ् तऽ समुल्ले घर बिलबिला जात हल । नोनी खाल देवाल ... बतासा पर पानी ।) (कसोमि॰6.13; 88.7)
1406 बिलाड़ (= बिलार) (ई मुखिबा कहतउ हल हमरा अर के ? एकर तऽ लगुआ-भगुआ अपन खरीदल हइ । देखहीं हल, कल ओकरे अर के नेउततउ । सड़कबा में की भेलइ ? कहइ के हरिजन के ठीका हउ मुदा सब छाली ओहे बिलड़बा चाट गेलउ । हमरा अर के रेटो से कम ।) (कसोमि॰12.19)
1407 बिलाय (= बिल्ली) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।) (कसोमि॰27.25)
1408 बिलौज (= ब्लाउज) (ऊ घर-गिरथामा करके सिलाय-फड़ाय वली बटरी लेलक आउ भौजीघर चल गेल । ... भौजी राते कहलकी हल - कल अइहऽ, नए डिजैन के बिलौज काटइ ले सिखा देबो । उनखा दोंगा में सिलाय मसीन मिलल हल ।) (कसोमि॰66.11)
1409 बिसतौरी (अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।) (कसोमि॰38.1)
1410 बिसुआ (अस्पताल से लउट के बुलकनी जोजना बनइलक - घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात ।) (कसोमि॰119.3)
1411 बिहान (= सुबह; कल) (घरहेली भेल, खूब धूमधाम से । गाँव भर नेउतलन हल । भला, ले, कहीं तो, घरहेली में के नञ् खइलक ? राँड़ी-मुरली सब के घर मिठाय भेजलन हल बिहान होके । पुजवा नञ् भेलइ तऽ की ? पुजवो में तऽ नञ् अदमियें खा हइ । से की देवतवा आवऽ हइ खाय ले ।; तरसल के खीर-पुड़ी, लिलकल के सैयाँ । जल्दी बिहान मतऽ होइहा गोसइयाँ ॥) (कसोमि॰30.11; 64.27)
1412 बीच-बिचाव (बड़का बीच-बिचाव कइलक, "बुतरू के बात पर बड़का चलत तऽ एक दिन भी नञ् बनत। ई बात दुन्नू गइँठ में बान्ह लऽ। तनि-तनि गो बात पर दुन्नू भिड़ जा हऽ, सोभऽ हो? की कहतो टोला-पड़ोस ?") (कसोमि॰122.23)
1413 बीट (तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल । कल बीट के दिन हल । तितकी जल्दी-जल्दी हाथ चला रहल हल । ओकर आँख तर बीट के भीड़ नाच रहल हल । चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी नियन बिटनी सब के भीड़ । जादेतर लड़किए रहऽ हल, तीन हिस्सा ।; जहिया से लाजो बीट कराबइ ले काशीचक जा रहल हे, बाउ के सउदा-सुलुफ से फुरसत । तितकी आउ लाजो के जोड़ी अबाद रहे ।) (कसोमि॰44.11, 12; 48.1)
1414 बीड़ी (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । .."; घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।) (कसोमि॰11.14; 14.8)
1415 बीड़ी-सलाय (ऊ टटरी लगा के टंगल दोकान गेल आउ बीड़ी-सलाय के साथे-साथ दलमोट खरीद के आल आउ फेन खाय-पीए में जुम गेल । अबरी पानी मिला के दारू बनइलक अउ दलमोट के साथ घूँट भरऽ लगल ।) (कसोमि॰83.11)
1416 बुक्का (~ फाड़ के कानना) (अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।) (कसोमि॰60.9)
1417 बुझनगर (- तों की लेलहीं ? लाजो से तितकी पुछलक । - हमरा की पैसा हलउ । तों जानवे करऽ हीं, परसाल धानधुर्रा मरिए गेलउ । रहऽ हलउ तऽ मइयो चोरा-नुका के दे दे हलउ । लाजो बुझनगर सन गाल पर हाथ धइले बोलल ।; समली बुझनगर हे । एक दिन माय भिजुन बैठल लुग्गा सी रहल हल । माय से कहलक - धौली के देखऽ हीं ने, धौताल होल जा हउ । हमरा से छोट बकि कोय कहतइ ? बाबा कुछ धेआन नञ् दे हउ । बाउ से कहहीं, ओकरा बिआह देतउ । हमरा की, हम कि बचबउ से ।; परेमन भी अब बुझनगर भे गेल हे । लड़ाय दिन से ओकरा में एगो बदलाव आ गेल हे । पहिले तऽ चचवन से खूब घुलल-मिलल रहऽ हल । गेला पर पाँच दिना तक ओकरे याद करते रहतो हल, बकि ई बेरी ओकरा हरदम गौरव-जूली से लड़ाय करे के मन करते रहतो, कन्हुआइत रहतो, ... सगरखनी ... गांजिए देबन ... घुमा के अइसन पटका देबन कि ... ।) (कसोमि॰48.20; 59.1; 71.16)
1418 बुझाना (= लगना, प्रतीत होना) (बिठला के भूख बुझाल । दिन माथा पर आ गेल हल । सोचलक काहे ने खा ली । से उठल अउ भीतर जाके दारू लइलक अउ भुइयें में बइठ गेल । पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक ।) (कसोमि॰80.12)
1419 बुट्टी (= नाटी और मोटी) (~ मिचाय) (परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।) (कसोमि॰88.15)
1420 बुढ़भेस (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।") (कसोमि॰12.6)
1421 बुढ़ारी (= बुढ़ापा) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।") (कसोमि॰12.6)
1422 बुतरू (= बालक, बच्चा) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।; किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰19.2; 22.13)
1423 बुतरू-बानर (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे ।; बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।; बुतरू-बानर के जमात में जानकारी के उत्सुकता हल । जूली अपन बड़ भाय से पूछऽ हे - ई कौन है ?; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।) (कसोमि॰21.4; 69.12; 70.6; 75.11)
1424 बुताना (= अ॰क्रि॰ बुझना; स॰क्रि॰ बुझाना) (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । .."; चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।"; चिकनी उठल अउ ठठरी लगा के दीया बुता देलक । आन दिन चिकनी अलग कथरी पर सुतऽ हल मुदा आज ओकर गोड़ अनचक्के पोबार दने मुड़ गेल ... सले-सले ... ।) (कसोमि॰11.14; 15.7; 16.25)
1425 बुनिया (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।) (कसोमि॰62.25)
1426 बुलनइ (= चलना-फिरना) (ससुर के नञ् देखके पुछलका - बाबूजी नञ् बुझा हथिन ! - पोखर पर गेलथिन हे । बुलनइ अभियो नञ् बंद भेलन हे ।) (कसोमि॰71.27)
1427 बुलना (= चलना) (अन्हरुक्खे बारह पौंट के सूट बीनइवला काँटा लेले अंजू समली घर दौड़ल । गाँव में समलीये अइसन लड़की हल जेकरा भिजुन ओकरा मन लगऽ हल । कल समली कहलक हल - अंजू, अब हम नञ् मरबइ गे । देखो हीं नञ्, अब हम बुलऽ लगलिअइ ।; खाली कमजोरी रह गेले हे । बुलबउ तऽ असिआस चढ़ जइतउ । सहों-सहों सब ठीक हो जइतइ ।; - हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।) (कसोमि॰57.4, 8; 58.5)
1428 बूँट (जइसन खरिहान तइसन सूप । सब अनाज बूँट, खेसाड़ी, गहुम, सरसो, राय, तीसी ...। सब बजार में तौला देलक अउ ओन्ने से जरूरत के समान आ गेल ।; खपरी के लड़ाय विस्तार लेवे लगल हल । भेल ई कि हुसैनमावली के बूँट भूँजइ के हल । रोटियानी-सतुआनी लेल घठिहन अनाज के भुँझाय-पिसाय घरे-घर पसरल हल । अइसे भुँझाय-पिसाय के झमेला से बचइ ले कत्ते अदमी बजारे से सत्तू ले आल हल ।) (कसोमि॰23.25; 117.2)
1429 बूँट-खेसाड़ी (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।) (कसोमि॰120.25)
1430 बूँट-राहड़ (= चना-अरहर) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।) (कसोमि॰61.12)
1431 बूढ़-बुतरू (= बूढ़े-बच्चे) (कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न । आँख-नाक से पानी ... धौंकनी सन करेजा कुत्ता सन हफइत बेतिहास भागल जा हे अउ पीछू-पीछू नब्बे लाख आदमी ... बूढ़-बुतरू जुआन ओकरा खदेड़ले जा हे आछिः आछिः ।) (कसोमि॰14.4)
1432 बेंग (= मेढ़क) (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।) (कसोमि॰80.22)
1433 बेंचुआ (ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।) (कसोमि॰62.17)
1434 बेकछियाना (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।; मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल ।) (कसोमि॰76.5; 88.10)
1435 बेचना-काटना (सितबिया के सपना पूरा भे गेल । पुरनका घर में बमेसरा कुछ दिन रहल आउ अन्त में सो रुपया महीना पर किराया लगा देलक । ओकरो लेल ऊ घर लगहर बकरी भे गेल - दूध के दूध आउ पठरू बेच-काट के अच्छा पैसा कमाय लगल ।) (कसोमि॰107.24)
1436 बेजाय (डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?) (कसोमि॰87.9)
1437 बेटखउकी ("अहे छोटकी ... जरी खपरिया निकालहो तो।" - "हम्मर खपरी दरकल हे।" - "देहो ने, हिफाजत से भुंजवो ।" - "नञ् ने देवो ... फेन मुड़ली बेल तर। ने गुड़ खाम ने कान छेदाम। सो बेरी के बेटखउकी से एक खेर दू टूक। साफ कहना सुखी रहना।") (कसोमि॰123.6)
1438 बेटा-पुतहू (बिठला के आँख डबडबा गेल । ओकर आँख तर माय-बाप दुन्नू छाहाछीत भे गेल - अन्हरी माय आउ लंगड़ा बाप । भीख मांगइत माय-बाप । कोय दाता ... कोय दानी ... कोय धरमी । बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने ।) (कसोमि॰84.20)
1439 बेतिहास (= बेतहासा) (कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न । आँख-नाक से पानी ... धौंकनी सन करेजा कुत्ता सन हफइत बेतिहास भागल जा हे अउ पीछू-पीछू नब्बे लाख आदमी ... बूढ़-बुतरू जुआन ओकरा खदेड़ले जा हे आछिः आछिः ।; भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।) (कसोमि॰14.3; 30.21)
1440 बेपनाह (एगो सरकारी कम्बल पावे के सपना देखइत-देखइत ऊ बेपनाह पाला में ठिठुर के अप्पन प्राण गँवा देलक ।) (कसोमि॰6.17)
1441 बेमान (= बेइमान) (महाजन के अत्याचार ! सुदखोर के फजीहत ! भीड़ गरमा जाहे । रह-रह के इन्कलाब के नारा लगऽ हे । सितालम लगा के कुरसी पर बैठल हरगौरी बाबू भी नाटक देख रहला हे । उनखर त्योरी चढ़ गेल । सुदखोर ... बेमान ... । इसारा पाके उनकर अदमी हंगामा खड़ा करा देलक ।; सितबिया बीचे में टोकलक - अरे बेमनमा । एतना दिना से रहिओ रहले हें आउ उलटे चोरा मारा-मारी । हम किराया के हिसाब करिअउ तब ?) (कसोमि॰53.15; 108.24)
1442 बेमारी (= बीमारी) (लाजो के ढेर रात तक नीन नञ् आल । ऊ मने-मन छगुनइत रहल - काड ... चरखा ... रुइया ... नेयार ... सजावट ... माय के बेमारी ... भइया के बेरोजगारी ... बाउ के खस्ता हाल ... बड़की दी आउ जीजा जी के बिगड़इत रिस्ता ... करजा के भार से चँपइत बाउ ... करजदार के गुड़की । ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे ।; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।- तों बेकार ने चिंता करऽ हें । ई कौन बेमारी हइ । एकरो से कड़ा-कड़ा तऽ आजकल ठीक भे जाहे । अउ हम्मर चिंता छोड़ । हम गजरा-मुराय हिअइ कि कोय मचोर लेतइ ।) (कसोमि॰46.8; 51.16)
1443 बेयाय (= बिवाई) (किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।) (कसोमि॰22.8, 11)
1444 बेर (= बेरी, तुरी, दफे, बार) (गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !) (कसोमि॰35.9)
1445 बेरी (=तुरी; बेर, बार, दफा) (कत्तेक ~) ("अच्छा, सच्चे कंबल मिलतइ ?" चिकनी के विस्वास नञ भे रहल हल । अइसन तऽ कत्तेक बेरी सुनलक हे ... कत्ते बेरी डिल्ली, पटना भी गेल हे झंडा-पतक्खा लेके मुदा ... ।; गैंठ देल भुदानी थैला के कंधा से उतार के खुट्टी में टाँगइत चलित्तर बाबू अपन मेहरारू से पुछलका - कइसन हइ बरखा ? हले ले, दे देहीं दवइया, आधा-आधा गोली तीन बेरी । सीसियावला जइसे चलऽ हइ, चले दहीं ।) (कसोमि॰17.12)
1446 बैल-पगहा (~ बेच के सुतना) (सुत रह ... देखहीं अउ हाँ, भोरगरे उठा दीहें, बेस !" गारो कनमटकी दे देलक । गारो कम्मल के सपना में डूब गेल - नञ जानूँ कइसन कम्मल मिलत ? धानपुर वला गरेरिया बनवो हइ कम्मल, हाय रे हाय ! तरहत्थी भर मोंट ... लिट्ट । दोबरा के देह पर धर ले, फेन ... बैल-पगहा बेच के सुत ... फों-फों ।) (कसोमि॰17.17)
1447 बो (~ फोरना) (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !) (कसोमि॰54.5)
1448 बोखार (= बुखार) (तहिये से हरगौरी बाबू खटिया पर गिरला आउ बोखार उतरइ के नामे नञ् ले रहल हे । एक से एक डागदर अइलन पर कुछ नञ् ... छाती हौल-हौल करऽ हे । सुनऽ ही, बड़का डागदर कह देलन हे कि इनका अदंक के बीमारी हे ।) (कसोमि॰56.11)
1449 बोखार-तोखार (समली के मुँह पर हाथ रखइत कहलक हल - मरे के बात मत कह समली, हमरा डर लगऽ हउ । - पगली, अब बोखार-तोखार थोड़े लगऽ हइ । खाली कमजोरी रह गेले हे । बुलबउ तऽ असिआस चढ़ जइतउ । सहों-सहों सब ठीक हो जइतइ ।) (कसोमि॰57.7)
1450 बोग्ज (टिकैतबा बूझतो कि हमहीं बनल काम बिगाड़ देलिअइ । बोग्ज अइसन दुस्मनी सधावै के दाव खोजते रहतो । सोंचहो भला, बेटी तऽ समाज के होबऽ हइ । हमर बरतुहारी तक बिगाड़ते चलतो ।) (कसोमि॰112.27)
1451 बोझड़ी (= बोझली, छोटा बोझा) (घठिअन अनाज खरिहान में हे । थरेसर भरोसे रहम तऽ भेल बिसुआ ! ताक पर नहियें होवत । माय-बेटी पुंठी से पीट के काम भर निकाल लेम ... आगू देखल जात । ई लेल सबेरे उठल आउ बोझड़ी के खरिहान में पसार देलक । पछिया खुलल हल, खरंगते कि देरी लगत !) (कसोमि॰119.5)
1452 बोझा (= बोझ) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।) (कसोमि॰14.21)
1453 बोथ (= बोत; पानी आदि से तर) (चिकनी अंतिम सुट्टा मार के बीड़ी बुतइलक अउ कान पर खोंसइत बोरसी बकटऽ लगल, "जरलाहा, अल्हे काँच" । उठल आउ कोना में सरियावल पतहुल लाके लहरावऽ लगल - 'फूऽऽसी ... फूऽऽ ।' आँख मइँजइत - "बोथ तऽ हइ, की लहरतइ जरलाहा के ... आबइ ने ।") (कसोमि॰15.10)
1454 बोथना (= बोतना; अ॰क्रि॰ किसी द्रव से तर होना; स॰क्रि॰ किसी द्रव से तर करना) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।) (कसोमि॰22.13)
1455 बोरना (मुनमा चटनी में बोर के पहिल कौर मुँह में देलक - हरहर तीत ! कान रगड़इत कौर निंगललक आउ घटघटा के पानी पीअ लगल । - खाली पेट मत जादे पी । बासो बोलल । - कौची साथे खइअइ ? मुनमा सिसिआइत पुछलक ।- निमका साथे खाहीं ने, बड़ निम्मन लगतउ । बासो बोलल । - तनि मिठवा दे ने दे । मुनमा हाथ बारइत माँगलक । - बाबापूजी होतइ तब ने । मुनमा-माय टोकलक । मुनमा सपूत नियन निम्मक बोर-बोर के हिंछा भर खइलक आउ पानी पीके खपड़ा दने चल गेल ।) (कसोमि॰94.4, 11)
1456 बोरसी (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।"; चिकनी एगो ओढ़रा से पाँच गो अलुआ निकाल के बोरसी में देलक अउ कथरी पर गेनरा ओढ़ के बइठ गेल ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।) (कसोमि॰12.4, 22; 13.22; 47.9)
1457 बोरा (= बोड़ा) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । ... तितकी-लाजो थोड़े देरी खड़ी-खड़ी भीड़ देखइत रहल अउ अपना लेल सुबुक जगह टेवते रहल । पड़ियायन टोला के सब्बो हँकइलक - एन्ने आव एन्ने, जग्गह हउ । सब्बो साँझे से बोरा बिछा के दखल कइले रहऽ हे ।) (कसोमि॰52.27)
1458 बोरिया (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।) (कसोमि॰11.4)
1459 बोलना-भूकना (- साही, साही । कोठी भरे चाहे नञ्, पूंज रहे दमगर, ऊँच, शिवाला निअन । - नेवारियो तीन सो रूपा हजार बिकऽ हइ । कहाँ साही, कहाँ सितवा । तनि गो-गो, सियार के पुच्छी निअन । किनताहर अइलो, मुँह बिजका के चल देलको । अरे, सब चीज तऽ तौल के बिकऽ हइ रे ... कदुआ-कोंहड़ा तक । धान से नञ् तऽ नेवारिए से सही, पैसा चाही । / दुन्नू भाय में अइसइँ साँझ के साँझ कट-छट होतो । होवऽ हे ओहे, जे बड़का भइया खेती मधे चाहऽ हथ । चलित्तर बाबू खाली बोल-भूक के रह गेला ।) (कसोमि॰102.22)
1460 बोलाहट (= बुलाहट, बुलावा) (आज तऽ लगऽ हउ चिक्को, हमर जान निकल जइतउ । सबेरे खा-पी के सुत रह । भोरगरे जाय पड़त । अन्हरुखे निकल जाम, कोय देखबो नञ करत ।) (कसोमि॰14.12)
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