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Monday, October 01, 2012

69. कहानी संग्रह "कनकन सोरा" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द



कसोमि॰ = "कनकन सोरा" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार श्री मिथिलेश; प्रकाशक - जागृति साहित्य प्रकाशन, पटना: 800 006; प्रथम संस्करण - 2011  ई॰; 126 पृष्ठ । मूल्य 225/- रुपये ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 1963

ई कहानी संग्रह में कुल 15 कहानी हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
पृष्ठ
0.
कथाकार मिथिलेश - प्रेमचंद आउ रेणु के विलक्षण उत्तराधिकारी
5-8
0.
अनुक्रम
9-9



1.
कनकन सोरा
11-18
2.
टूरा
19-25
3.
हाल-हाल
26-31



4.
अदरा
32-43
5.
अदंक
44-56
6.
सपना लेले शांत
57-60



7.
संकल्प के बोल
61-67
8.
कान-कनइठी
68-75
9.
डोम तऽ डोमे सही
76-87



10.
छोट-बड़ धान, बरोबर धान
88-97
11.
अन्हार
98-104
12.
बमेसरा के करेजा
105-109



13.
निमुहा धन
110-113
14.
पगड़बंधा
114-116
15.
दरकल खपरी
117-126

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):

692    जइसइँ (= जइसहीं; जैसे ही) (खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक ।; अंगुरी के नोह पर चोखा उठा के जीह पर कलट देलक । भर घोंट पानी ... कंठ के पार । बचल दारू कटोरा में जइसइँ ढारइ ले बोतल उठइलक कि सुरमी माथा पर डेढ़ किलो के मोटरी धइले गुड़कल कोठरी के भित्तर हेलल ।)    (कसोमि॰49.20; 84.26)
693    जइसहीं (= जैसे ही) (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।")    (कसोमि॰12.5)
694    जइसीं (= जइसइँ, जइसहीं; जैसे ही) (मुनमा दढ़ खपड़ा चूनइ में लग गेल । टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल ।)    (कसोमि॰89.3)
695    जकसन (= रेलवे जंक्शन) (पइसा लेके सुकरी जकसन दने बढ़ल । ... याड में एगो मालगाड़ी खड़ा हल जेकरा पर ढेर सनी भैस लदल हल । एक जगह दूध नपा रहल हल । ओकर कान खड़कल - सस्ता भेत । सुकरी नजीक पहुँच गेल । कहलक - एक किलो हमरो दे दऽ ।)    (कसोमि॰40.1)
696    जगसाला (= यज्ञशाला) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... सोचलक - गोविन्द बाबा के गोड़ लग आवऽ ही बकि ओजउका नक्सा देख के तऽ दंग रह गेल । ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर !)    (कसोमि॰19.11)
697    जग-हँसाय (- तेलो तो झरल हइ ... देखऽ हिओ । - एक्को महीना तो नञ् ने पूरऽ हो ? - एन्ने नाता-कुटुम में जास्ती उठ गेलइ । - नाता-कुटुम कि तोरा नञ् जानऽ हथ, जे झाँपइ ले छनउआ खिलावऽ हो । - अपन घर के भेद नञ् खोलइ के चाही, जग-हँसाय होवऽ हइ ।)    (कसोमि॰99.6)
698    जग्गह (= जगह) (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल ।; पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । ... तितकी-लाजो थोड़े देरी खड़ी-खड़ी भीड़ देखइत रहल अउ अपना लेल सुबुक जगह टेवते रहल । पड़ियायन टोला के सब्बो हँकइलक - एन्ने आव एन्ने, जग्गह हउ । सब्बो साँझे से बोरा बिछा के दखल कइले रहऽ हे ।)    (कसोमि॰41.27; 52.26)
699    जजात (= फसल) (सौंसे पारी कल्हइ कढ़ा गेलइ हल । पम्हा चटइते हमर पारी भिजुन अइलथुन अउ खैनी खाय ले बैठ गेलथुन । बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे ।)    (कसोमि॰111.18)
700    जजा-तजा (= जहाँ-तहाँ) (चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।)    (कसोमि॰101.14)
701    जतना (= जेतना; जितना) (जतना आदमी ओतने बात ! जने जा, एतने खिस्सा ।)    (कसोमि॰62.4)
702    जनइ (= जाना) (मौली महतो पिछला बात के छोर पकड़लक - अजुबा, अजुब्बे ने भे गेलइ भइया । जेकरा से बोल ने चाल, ओकरा गोहाल में जनइ अजुब्बे ने हइ भइया ! हमरो नञ् बुझा रहल हे कि कइसे हमर गोड़ ओन्ने मुड़ गेल ।)    (कसोमि॰111.6)
703    जन-मजूर (आजकल छीन-छोर बढ़ गेल हे । उ तहिये ने मोहना के सहियेसाँझ छीन लेलकइ । कुछ नञ् बेचारा के दिन भर के मजुरिए ने हलइ । छौंड़ापुत्ता जनो-मजूर के नञ् छोड़ऽ हइ ।)    (कसोमि॰41.10)
704    जनलेवा (= जानलेवा) (अइसईं सोचइत-सोचइत अनचक्के ओकर सीना में एगो जनलेवा दरद उठल । गारो चाहे कि चिकनी के उठाबूँ बकि बकारे नञ खुलल । सले-सले बेहोस भे गेल ।)    (कसोमि॰18.3)
705    जनलेवा (= जानलेवा) (ऊ अपन फुट्टल घर के देखऽ हे - घरो के रोग धर लेलक हे, जनलेवा ! ऊ अपन देह झाड़लक । कस के सोवांसा लेलक । छाती से लेके पेट तक फुलावऽ हे आउ कस के सोवांसा फेकलक । छाती-पेट दुन्नू पिचक गेल । पेट पीठ में समा गेल ।)    (कसोमि॰92.13)
706    जनाना (= दिखाई देना) (लाजो सुन रहल हल । ई ससुरी के समय-कुसमय कुछ नञ् जनइतउ, टुभक देतउ । भोगो पड़त तऽ हमरे ने, एकरा की, फरमा देलको । गाछ हइ कि झाड़ लिअइ । लाजो के की कमी हइ । अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ ।; समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल ।; अबरी पानी मिला के दारू बनइलक अउ दलमोट के साथ घूँट भरऽ लगल । आँख तर झोपड़ी लाल-पीअर जनाय लगल ।)    (कसोमि॰52.6; 59.9; 83.14)
707    जनु (= मानूँ; मानो) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; किसुन लखीसराय टीसन से दिन भर में टुघरल, उठइत-बइठइत गाँव आल । गाँव पसर गेल हल । गल्ली के ढेर नक्सा बदल गेल हल । पुरान बंगला तऽ एक्को गो नञ मिलल । जनु सब घर बन गेल । सहर नियन घर, सहर नियन बइठका ।; गरमी में राज के रजधानी परैये हल । रानी महल अलग । नीचे तहखाना ... ऊपर कोठा । कोठा पर फुर-फुर हावा लगो होत । गरमी में तहखाना बरफ । बरफ माने सिमला । चारो पट्टी बरामदा ... छोट-छोट दतवाजा । जनु सिपाही चारो पट्टी पहरा दे हलइ ।; आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल ।)    (कसोमि॰13.24; 19.8; 36.12; 77.26)
708    जने (= जन्ने; जिधर) (बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।)    (कसोमि॰80.5)
709    जनेउआ (= जनउआ; जनेऊ) (" ... पागल नञ् होथिन तऽ आउ की, अजोधा जी के बड़ी छौनी के महंथ बनथिन ।" गाँव के चालो पंडित बोल के कान पर जनेउआ चढ़ावइत चल देलन नद्दी किछार ।)    (कसोमि॰29.10)
710    जन्नी (= औरत, स्त्री) (ओकर आँख तर बीट के भीड़ नाच रहल हल । चारियो पट्टी से खोंटा-पिपरी नियन बिटनी सब के भीड़ । जादेतर लड़किए रहऽ हल, तीन हिस्सा । जुआन-बूढ़ी सब नियन के जन्नी ।; "कहऽ हइ कि हरिजनमन खाली अपन मउगी के मारऽ हइ बकि, ... भागल जा हलन कुलमंती । रात-बेरात के घर से निकलल जन्नी के कउन ठेकान ! लटफरेम पर महाभारत भेलन ! अपन मरदाना के हाथ से पिटइली आउ तमाशा बनली ।"; पाँचो हाथ लम्बा बाउ । पाँच सेर मिट्ठा तऽ बाउ लोइए-लोइए कोलसारे में चढ़ा जा हलन । ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल ।; बाते-बात बमेसरा कहलक - देख, अब अइसे नञ् चलतउ । देख रहलहीं हे कचहरी के ओर-बोर ! ई तरह से तऽ तोरा घर भेलउ से कुछ बाकी । तों जन्नी जात । एकरा ले करेजा के साथे-साथ धिरजा चाही । तोरा में ई दुन्नू नदारथ हउ । हम एक राय दिअउ ?)    (कसोमि॰44.14; 84.5, 11; 106.22)
711    जन्नी-मरद (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।)    (कसोमि॰46.21)
712    जन्नी-मरदाना (बिठला के ध्यान बुतरू-बानर दने चल गेल । सब सूअर बुलावे गेल हल । सौंसे मुसहरी शांत ... सुन-सुनहट्टा । जन्नी-मरदाना निकौनी में बहराल ।)    (कसोमि॰80.1)
713    जब्बड़ (मुँह के ~ आउ देह के सब्बड़) (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत । मुँह के जब्बड़ आउ देह के सब्बड़ रहे तब गाड़ी पर जा सकऽ हे, नञ् तो भर रस्ता ढकलइते रहऽ ।; बिठला सुरमी के बदे सोचऽ लगल - ई देह से तऽ नञ्, बकि मुँह के जब्बड़ हे । एकरा हमर माय से कहियो नञ् पटल । छोवे महिना में हड़िया अलग करवा देलक हल ।)    (कसोमि॰36.25; 84.15)
714    जम्हार-ढेंड़की (ओकरा याद आल - बाऊ कहब करऽ हल, हीतो सिंह से गाय बटइया लेम । गाय के गोरखी ... खुरपी ... अरउआ ... खँचिया । बुलकनी जम्हार-ढेंड़की सब काटतउ । सबसे बड़ खँचिया बुलकनी के अउ सबसे मोट-घाँट गोरू भी ओकरे ... चिक्कन ... छट-छट ।)    (कसोमि॰88.18)
715    जरंडा (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।)    (कसोमि॰93.16)
716    जरना (= जलना) (छँउड़न सब के तऽ टेलिफोन लगल रहऽ हइ । जइसहीं बजार हेललियो कि सहेर भर "आछीः आछीः" कइले लंगो-तंगो कर देतो । मन जर जइतो तऽ निरघिन करऽ लगवो । ढेलो फेकवो ... तइयो कि भागतो ? बिना गरिअइले हमरो करेजा नञ ठंढइतो ।; गाड़ी लूप लैन में लगल । उतर के दुन्नू रपरपाल बढ़ल गेल । गुमटी पर के चाह दोकान सुन्न-सुनहटा । ओलती से टंगल लालटेन जर रहल हल ।; गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही ।; फुफ्फा बाबूजी के हाथ से लोटा ले लेलका आउ उनखे साथे भित्तर तक गेला । दुहारी पर ललटेन जल रहल हल, मद्धिम ।)    (कसोमि॰13.1; 42.6; 61.13; 72.13)
717    जरलाहा (= एक गाली; जला हुआ) (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?"; जरलाहा सब बिना घी के कौरे नञ् उठइतो ।)    (कसोमि॰13.14; 74.22)
718    जरलाही (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।)    (कसोमि॰88.2)
719    जरसमना (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? पिपरा तर के जरसमने की हउ ? कुल बिक जइतउ तइयो नञ् पुरतउ ।)    (कसोमि॰51.23)
720    जराना (= जलाना) (चिकनी खाय के जुगाड़ करऽ लगल । एने जहिया से कुहासा लगल हे, चिकनी चुल्हा नञ जरइलक हे । भीख वला सतंजा कौर-घोंट खा के रह जाहे ।; घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।)    (कसोमि॰13.8; 14.7)
721    जरामन (= जलावन) (बुलकनी रपरपाल घर आके रनियाँ के माथा पर अनाज के टोकरी धइलक आउ कहलक, "तारो घर चल, हम जरामन लेके आवऽ हिअउ।")    (कसोमि॰123.25)
722    जरिको (= जरिक्को, जिरिक्को; जरा भी) (हमरा ई बात कहे में जरिको संकोच नञ हे कि उनखा जइसन खाँटी मगही मिजाज, भाव-बोध आउ संस्कार में तह तक रचल-बसल उम्दा कहानी मगही कथा जगत में कोय नय लिख रहलन हे ।)    (कसोमि॰5.3)
723    जलखइ (= जलपान, नाश्ता) (पनियाँ बदल दहीं ... महकऽ हइ, बोलइत बाबूजी खटिया पर बैठ गेला आउ सले-सले चित्ते लोघड़ गेला । फुफ्फा सिरहाना में लोटा रख के पोथानी में बैठ गेला । - जलखइ भेलइ ? बाबूजी पूछऽ हथ । असेसर, पहुना के घर दने ले जाहुन ।)    (कसोमि॰73.18)
724    जलम (= जन्म) (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।)    (कसोमि॰58.27)
725    जलमभूम (= जन्मभूमि) (ओकर जिनगी पानी पर के तेल भे गेल, छहरइत गेल । आउ छहरइत-छहरइत, हिलकोरा खाइत-खाइत फेनो पहुँच गेल अपन गाँव, अपन जलमभूम । किसुन के जलमभूम तऽ मिलल मुदा गाँव नञ् । ओकर मन में खाली गाँव के याद अँटकल रह गेल ।)    (कसोमि॰25.2, 3)
726    जलमाना (बाप अभी बचवे करो हइ, मुदा ओहो मतसुन्न हइ । जलमा के ढेरी कर देलकइ हे, मुदा एक्को गो काम-करिंदे नञ् । लगऽ हइ, मतसुन्नी ओकर खनदानी रोग हइ ।)    (कसोमि॰58.19)
727    जलुन्नी (हाय रे सड़क ! सड़क पर नाव चले । दोकनदार अपन सामने के नल्ली छाय से भर के ऊँच कर देलक हे । पोन दाबला से सूल बंद होतउ । एकरा तो बिठला के कुदारे बंद करतउ । ई सड़क लेल तऽ बिठले बुढ़वा वैद हउ बउआ ... जलुन्नी ! खाली नोट निकाल ।)    (कसोमि॰82.18)
728    जवार (= पास का इलाका) (आउ सच्चो, मेट्रो डिजैन के नये मकान तितली नियन सज के तैयार भेल तऽ लोग-बाग जवार से देखइ ले अइलन । घर के अंदरे सब सुख, पर-पैखाना, असनान, रसोय सब चीज के सुविधा ।)    (कसोमि॰28.9)
729    जहिया (= जब, जिस दिन) (चिकनी खाय के जुगाड़ करऽ लगल । एने जहिया से कुहासा लगल हे, चिकनी चुल्हा नञ जरइलक हे । भीख वला सतंजा कौर-घोंट खा के रह जाहे ।; जहिया से काशीचक खादी भंडार में अपन नाम दरज करइलक हे, गल्ली घुमनइ बंद कर देलक हे ।)    (कसोमि॰13.7; 44.4)
730    जाँता (= चक्की) (जहिया से काशीचक खादी भंडार में अपन नाम दरज करइलक हे, गल्ली घुमनइ बंद कर देलक हे । सक्खिन-मित्तिन लाख कहे, लाजो कोय न कोय बहाना बना के लाथ कर दे - हमरा जाँता पीसइ के हो, मइया के टटइनी उठलो हे, तरेगनी के ढिल्ला हेरइ के हो ... ।; - गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।)    (कसोमि॰44.6; 45.22, 23)
731    जागा (दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।)    (कसोमि॰115.4)
732    जागीर (बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।)    (कसोमि॰80.7)
733    जात (= जाति, वर्ग) (बाते-बात बमेसरा कहलक - देख, अब अइसे नञ् चलतउ । देख रहलहीं हे कचहरी के ओर-बोर ! ई तरह से तऽ तोरा घर भेलउ से कुछ बाकी । तों जन्नी जात । एकरा ले करेजा के साथे-साथ धिरजा चाही । तोरा में ई दुन्नू नदारथ हउ । हम एक राय दिअउ ?)    (कसोमि॰106.22)
734    जात-पात (= जाति-पाति) ("बेचारा के मन के बात मने रह गेलन । के भोगतइ ? जुआन बेटा जात-पात के लड़ाय में पढ़हे घरी मंगनी के मारल गेलन । ले दे के बेटिये ने हन !" सारो फूआ बोललथिन ।)    (कसोमि॰30.16)
735    जास्ती (= अधिक, ज्यादा) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; दिन-रात के मेहनत से हजार रुपइया से जास्ती काड पर जमा हो गेल । कतिन के कमीशन लगा के पनरह सो के माल उठा सकऽ हे । लाजो रस-रस फिरिस बनावऽ लगल । दोंगहरी अउ पलटौनी भी भंडारे से भे जात ।; (- तेलो तो झरल हइ ... देखऽ हिओ । - एक्को महीना तो नञ् ने पूरऽ हो ? - एन्ने नाता-कुटुम में जास्ती उठ गेलइ । - नाता-कुटुम कि तोरा नञ् जानऽ हथ, जे झाँपइ ले छनउआ खिलावऽ हो ।; मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।)    (कसोमि॰13.24; 54.9; 99.3, 13)
736    जित्ता (= जिन्दा) (ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।"; बिठला के आँख तर सुरमी नाच गेल  रत-रत राता में घोघा देले ई दुआरी लगल । तखने माय-बाउ जित्ते हल ।)    (कसोमि॰78.4; 84.9)
737    जिरह (सोचऽ लगल, "मजाल हल कि गारो बिन खइले सुत जाय ।" चिकनी के जिरह हायकोट के वकील नियर मुदा आज चिकनी के बकार नञ खुलल ।)    (कसोमि॰16.22)
738    जीराखार (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।)    (कसोमि॰78.26)
739    जीह (= जीभ) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !; बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे । मछली के देखते मातर ओकर जीह से पानी टपकतो ... सीऽऽऽ ... घुट्ट । ऊ चुक्को-मुक्को मड़ुकी में बइठल चुनइत जाहे आउ गुनगुनाइत जाहे ।)    (कसोमि॰13.19; 76.6)
740    जुआन (= जवान) ("बेचारा के मन के बात मने रह गेलन । के भोगतइ ? जुआन बेटा जात-पात के लड़ाय में पढ़हे घरी मंगनी के मारल गेलन । ले दे के बेटिये ने हन !" सारो फूआ बोललथिन ।)    (कसोमि॰30.15)
741    जुआन-जहान (मुनियाँ एक मुट्ठी भात-दाल के ऊपर घुन्नी भर तरकारी लेके खाय ले बैठल कि देख के माय टोकलक - बगेरी भे गेलें मुनियाँ ! जुआन-जहान एतने खाहे ?)    (कसोमि॰65.25)
742    जुआनी (= जवानी) (गारो सोचलक, जुआनी में कहियो बोरसी तापऽ हलूँ ? एक्के गमछी में जाड़ा पार ! एकरा कीऽ ... पोवार अउ ... । ओकर धेयान चिकनी दने चल गेल। ओकरा चिकनी छिकनी नञ, जुआनी के चिकनी लगल । हुँह ... रुइए ने दुइए ।; एकरे माउग कहऽ हइ आउ तोरे नियन भतार होवऽ हइ ? चुप्पे कमाय ले जइतो गुमनठेहुना  ... तोर जुआनी में आग लगउ मोछकबरा । कमइलें तऽ एकल्ले भित्तर में ढारऽ लगलें ।)    (कसोमि॰15.24; 85.8)
743    जुकुर (= लायक) (समली बड़का के बड़की बेटी हइ सुग्घड़-सुत्थर । मुदा नञ् जानूँ ओकर भाग में की लिखल हइ ! जलमे से खिखनी । अब तो बिआहे जुकुर भे गेलइ, बकि ... ।)    (कसोमि॰58.27)
744    जुगार (= जुगाड़, जोगाड़) (चिरइँ-चिरगुन गाछ-बिरिछ पर बइठल हरियर बधार देख मने-मन मनसूआ बान्ह रहल हे - आवऽ दे अगहन । चूहा-पेंचा कंडा तइयार करइ के जुगार में आउ बिठला ? बिठला गबड़ा के मछली मारल बेकछिया रहल हे ।)    (कसोमि॰76.4)
745    जुट्ठा (दुन्नू के मेहरारू गाँव में हवेली कमा हल । होवे ई कि अपन-अपन हवेली से लावल खायक अपने-अपने बाल-बच्चा के खिलावे । बुतरू तऽ बुतरुए होवऽ हे, भे गेल आगू में खड़ा । निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।; दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका ।)    (कसोमि॰105.9; 115.5)
746    जुट्ठा-कुट्ठा (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।)    (कसोमि॰79.17)
747    जुतकुट्टा (एक दिन लाजो तितकी घर गहूम पीसइ ले गेल हल । एने ढेर दिन से जुतकुट्टा नञ् आल हल । दोसरे घर से काम चल रहल हल । माघ के महीना हल । तितकी रौदा में बैठ के लटेरन से सूत समेट रहल हल ।)    (कसोमि॰44.9)
748    जुत्ता-चप्पल (आउ गमछी से नाक-मुँह बंद करके बिठला बहादुर उतर गेल जंग में - खप् ... खप् ... खट् । अइँटा हइ । ई नल्ली की नञ् ... एक से एक गड़ल धन-रोड़ा, सीसी, बोतल, सड़ल आलू-पिआज, गूह-मूत, लुग्गा-फट्टा हइ । की नञ् । रंगन-रंगन के गुड़िया-खेलौना, पिंपहीं-फुकना, बुतरू खेलवइवला फुकना, जुत्ता-चप्पल ... बिठला कुदार के चंगुरा से उठा-उठा के ऊपर कइले जाहे । गुमसुम ... कमासुत कर्मयोगी । दिन रहत हल तऽ कुछ चुनवो करतूँ हल ।)    (कसोमि॰82.24)
749    जेकरा (= जिसे, जिसको; ~ में = जिसमें) (ओकर अंगुरी ओइसहीं चल रहल हल जइसे ओकर बिन दाँत के मुँह । जीह तऽ छुरी-कतरनी । जेकरा पइलक छप् ... बिन देखले ... केजा कटत के जाने !; अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।)    (कसोमि॰13.20; 14.1)
750    जेठ (भरल भादो, सुक्खल ~) (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो ।; पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !)    (कसोमि॰36.21; 61.1)
751    जेत्तेक (= जेतना; जितना) (~ ... ओत्तेक) (ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग । - "आज इनका की हो गेलन ?" - "ई तऽ उमताह नियन कर रहला हे ।" - "माथा फिर गेलन कि ?" जेत्तेक मुँह ओत्तेक बात । मुदा उनकर अवाज नञ् रुकल । ऊ ढेर देरी तक हाल-हाल करते रहला ।)    (कसोमि॰27.2)
752    जेभी (= जेब) (ऊ चुन-चान के डमारा लइलक आउ जेभी से सलाय निकाल के पत्ता सुलगइलक । ओकरा पर डमारा सरिया के गमछी पर आँटा सानलक अउ चार लोइया तइयार कर लेलक ।; ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - बुतरूअन के दे देथिन ।; चाह पीके गिलास बेंच तरे रखइत पइसा निकालऽ लगल तऽ तानो ओकर जेभी में नाल हाथ दाबइत बोलल - पइसा हम देबइ । रहऽ दऽ ।)    (कसोमि॰20.7; 75.8; 112.3)
753    जो (= जौ, {लहसुन की पूरी पोटी से निकाला हुआ} एक टुकड़ा) (मछली पक गेल हल । चोखा गूँड़इ के तइयारी चल रहल हे । दस जो रस्सुन छिललक अउ पिरदाँय से मेंहीं-मेंहीं काट के कटोरा में धइलक । ऊ सोंचलक - चोखा-भात के नञ्, गहुम के मोटकी रोटी चाही ... खऽर ... मस्स-मस्स । ऊ चोखा गूँड़ के रोटी सेंकइ ले बइठ गेल ।)    (कसोमि॰78.8)
754    जोगाना (= बचा या संग्रह करके रखना) (बासो पाया के जगह पर आम के खंभा गड़इ ले दरी खनऽ लगल । पाँच गो आम के पेड़ जोगइले हल ।)    (कसोमि॰89.25)
755    जोट (= जोड़ी, युग्म; सर्प तथा अन्य तिर्यक् जाति के नर और मादा का लिपट कर मैथुन करने की क्रिया) (अखनञ् से चिंता सताबऽ लगलउ ? तितकी कनखी मारइत बोलल । लाजो ढकेल देलक ओकरा झुलुआ पर से । तितकी पलट के लाजो के हाथ पकड़लक आउ खींच लेलक । लाजो तितकी के बाँह में । तितकी के डाँड़ा लाजो के बाँह में ... जोट खेलइत साँप । दुन्नू खिलखिलाइत पोखर दने चल गेल ।)    (कसोमि॰49.6)
756    जोड़ारना (पकवा गली पार कर रहल हल कि आगू से पालो के जोड़ारल बैल के जोड़ी हाँकले लाटो कका मिल गेला । - बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ ।)    (कसोमि॰59.19)
757    जोड़ियामा (= जोड़दम्मा; हमउम्र) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।)    (कसोमि॰19.2)
758    जोत (= किसी किसान की खेती योग्य जमीन) (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । लमहर जोत हे ... काम के कमी नञ् होत । सच्चोक मउज हल । तीसम दिन दुइयो के काम ।)    (कसोमि॰79.15)
759    जोम (= धन, बल, पद आदि का अभिमान; आवेश, जोश, उत्साह; तैश, उबाल, उफान) (बासो अकुला जाहे । ऊ भर जोम लाठी भुइयाँ में दे मारऽ हे । एक बित्ता में गोवा धरती में धँस गेल हे । बासो खींच के आगू बढ़ जाहे ।)    (कसोमि॰97.11)
760    जौनार (= ज्योनार) (दही तरकारी गाम से जउर भेल । हलुआइ आल आउ कोइला के धुइयाँ अकास खिंड़ल । करमठ पर किरतनियाँ खूब गइलन । सब पात पूरा । अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका । बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक ।)    (कसोमि॰115.4, 6)
761    झंडा-पतक्खा (= झंडा-पताका) ("अच्छा, सच्चे कंबल मिलतइ ?" चिकनी के विस्वास नञ भे रहल हल । अइसन तऽ कत्तेक बेरी सुनलक हे ... कत्ते बेरी डिल्ली, पटना भी गेल हे झंडा-पतक्खा लेके मुदा ... ।)    (कसोमि॰17.13)
762    झक-झक (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । ... अउ अब ! अब सौंसे घर के देवाल में खिड़की । आर-पार झक-झक सूझे । पानी पड़इत रहे, फोंय-फोंय सुतऽ ।)    (कसोमि॰28.2)
763    झकझकाना (ऊ फेर दारू के घूँट भरलक अउ धुइयाँ उड़ावऽ लगल । ऊ धुइयाँ के धुँधलका में हेरा गेल आउ तेसर रात झकझका गेल । / तेसर रात - / "कहऽ हइ कि हरिजनमन खाली अपन मउगी के मारऽ हइ बकि, ... भागल जा हलन कुलमंती । रात-बेरात के घर से निकलल जन्नी के कउन ठेकान ! लटफरेम पर महाभारत भेलन ! अपन मरदाना के हाथ से पिटइली आउ तमाशा बनली ।")    (कसोमि॰84.2)
764    झगड़ाहू (= झगड़ालू; झगड़ा वाला) (सितबिया एगो अप्पन घर के सपना ढेर दिना से मन में पालले हल । इन्सान के रहइ ले एगो घर जरूर चाही । कमा-कजा के आत तऽ नून-रोटी खाके निहचिंत सुतत तो ! छोटका बड़का से बोलल आउ बड़का एगो झगड़ाहू जमीन लिखा के दखल भी करा देलक । लिखताहर के अपन चचवा से नञ् पटऽ हलइ, से से गजड़ा भाव में लिख देलकइ ।)    (कसोमि॰106.13)
765    झनकना (बुलकनी झनकऽ लगल तऽ सुलोचनी के माय कहलक, "दिनो भर बेचारी हमरे घर में रहल हल कि हम मेला देखे नञ् जाम। सुलोचनी किरिया देलकइ हे कि हमर मरल मुँह देख जो मेला देखे नञ् जो। जाय देहो बेचारी के ... साल भर के मेला.....के देखलक हे। तूँ नञ् चल रहलीं हें।")    (कसोमि॰124.6)
766    झनका (= धान की फसल का एक शस्य रोग; एक पशु रोग, झनकबाई) (- आउ सब ठीक हइ ने ? - सब ठीक । - धान-धुर्रा कइसन हो ? - झनकवा बरबाद कर देलकइ ।)    (कसोमि॰69.21)
767    झनझनाना (सुपती उलट के गोड़ घिसिअइले गारो भित्तर हेलल अउ चिक्को के बोरसी में हाथ घुसिआवइत कान में जइसहीं मुँह सटइलक कि बुढ़िया झनझना उठल, "एकरा बुढ़ारियो में बुढ़भेस लगऽ हइ ... हट के बइठ ।"; दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?")    (कसोमि॰12.5; 13.13)
768    झमकउआ (आवे घरी छोटकी गोतनी अपन बकरी से कह रहल हल, "गिआरी में घंटी टुनटुनइले चलऽ हल । बाप के हल ? खोल लेलकउ ने करुआमाय । अनका माल पर भेल झमकउआ, छीन-छोर लेलक तऽ मुँह भे गेल कउआ ।")    (कसोमि॰119.9)
769    झमारना (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।)    (कसोमि॰22.14)
770    झरक (अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल,  जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।)    (कसोमि॰120.16)
771    झरकना (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; मुनमा माय के धेआन भंसा दने चल गेल - रोटिया ! ... माय रोटी कलट देलक हे ... झरकल रोटी ।)    (कसोमि॰13.24; 92.19)
772    झरनी (= झाड़ू) (- गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।)    (कसोमि॰45.23)
773    झरूआ (= झारू+'आ' प्रत्यय; झाड़ू) (ऊ करवट बदललक । ओढ़ना खाट से कम चउड़ा । लाजो के देह बाहर भे गेल, पीठ उघार । बामा हाथ से पीठ के ओढ़ना चाँत के कर जोड़ल तरहत्थी दुन्नू जाँघ तर लेके सूत गेल । कउआ डक गेल । माय सउँसे घर झरूआ देके बरतन-वासन करऽ लगल ।)    (कसोमि॰47.4)
774    झाँक (= झाँका) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।)    (कसोमि॰16.12)
775    झाँपना (= ढँकना) (कम्मल कहतो, पहिले हमरा झाँप तब तोरा झाँपबउ । कम्मल पर गेनरा रख के दुन्नू गोटी घुकुर जाम । पोबार ओढ़इ में उकबुका जाही ।; लाजो के नीन टूट गेल । थोड़के देरी तक ऊ रतका सपना जीअइत रहल । फेनो ओढ़ना फेंकलक आउ खड़ी होके एगो अंगइठी लेबइत अँचरा से देह झाँपले बहरा गेल । रौदा ऊपर चढ़ गेल हल । ऊ बोरसी लेके बैठ गेल ।; अंजू समली के लहास भिजुन जाहे । ओकर मुँह झाँपल हे । अंजू अचक्के मुँह उघार देहे । ऊ बुक्का फाड़ के कान जाहे - समलीऽऽऽ ... स..खि..या ... ।)    (कसोमि॰17.19; 47.8; 60.8)
776    झाँस (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।)    (कसोमि॰80.17)
777    झाखुर-माखुर (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे । झाखुर-माखुर केस-दाढ़ी । केकरो छाड़न फट्टल-पुरान अंगा-लुंगी ।)    (कसोमि॰19.4)
778    झार (= झाड़) (गोरो के लगल जइसे ओकरा छरबिन्हा हो गेल हे । छरबिन्हा अउ साँप के झार एक्के ... नीम के डउँघी अउ ओही बहिआर ।)    (कसोमि॰15.20)
779    झारना (= झाड़ना) ("सितलहरी के डंक छरबिन्हा नियन होवऽ हइ । देखऽ हीं नञ, छरबिन्हा झारइ में धुइयाँ पिलावल जा हइ ।"; - गोड़ लगियो चाची, बोलइत लाजो जाँता भिजुन चल गेल आउ खजूर के झरनी से जाँता झारऽ लगल । - मकइ पिसलहो हल कि चाची ? - हाँ, नुनु ।)    (कसोमि॰15.18; 45.23)
780    झाल (= तीतापन; तीता) (पहिल कौर छुच्छे मछली के चोखा मुँह में लेलक । ... एक टुकरी रोटी मुँह में लेके चिबावऽ लगल । चोखा घुलल मुँह के पानी लेवाब ... मिचाय-रस्सुन के रबरब्बी ... करूआ तेल के झाँस ... पूरा झाल ... घुट्ट । अलमुनियाँ के कटोरी में दारू ढार के बिन पानी मिलइले लमहर घूँट मारलक ।)    (कसोमि॰80.17)
781    झिंगा-बैंगन (- ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ ।)    (कसोमि॰91.19)
782    झिक्का (= जाँता में पीसने हेतु एक बार में डाले गए अनाज की मात्रा) (लाजो के पहिल झिक्का जाँता में ... घर्र ... घर्र । तितकी भी चरखा-लटेरन समेट के लाजो साथ जाँता में लग गेल । दू संघाती । जाँता घिरनी नियन नाचऽ लगल । जाँता के मूठ पर दू पंजा - सामर-गोर, फूल नियन । लाल-हरियर चूड़ी, चूड़ी के खन् ... खन् ... ।)    (कसोमि॰45.26)
783    झिल्ली (= एक प्रकार की मिठाई) (बुलकनी कहलक, "हे छोटकी, चउरा बेचवा दीहोक....छो किलो हो।"  छोटकी गियारी घुमा के बुलकनी के देखलक आउ मुसक गेल। - "थाली मोड़ पर झिल्ली किना दिहोक.....मूढ़ी साथे हइ।" मुसकइत बुलकनी छोटकी के समदलक।)    (कसोमि॰126.2)
784    झुम्मर (= झूमर) (गाँव में केकरो घर पूजा होवऽ हल, किसुन हाजिर । जब तक भजन-कीर्तन होवे, गावे के साथ दे । ओकरा ढेर भजन याद हल - नारंदी, चौतल्ला, चैती, बिरहा, झुम्मर ... कत्ते-कत्ते । आरती में तो औसो के साथ दे ।)    (कसोमि॰23.6)
785    झुलुआ (= झूला) (- पैसवा के बड़गो हाथ-गोड़ होवऽ हइ । केकरा से लाथ करबइ ? रहऽ दे हिअइ, एक दिन काम देतइ । - अखनञ् से चिंता सताबऽ लगलउ ? तितकी कनखी मारइत बोलल । लाजो ढकेल देलक ओकरा झुलुआ पर से । तितकी पलट के लाजो के हाथ पकड़लक आउ खींच लेलक । लाजो तितकी के बाँह में ।)    (कसोमि॰49.4)
786    झोंकन (चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे । भुस्सा के झोंकन अउ लहरइठा के खोरनी । चुल्हा के मुँह पर घइला के गोलगंटा कनखा ... खुट् ... खुट् ।; अँगना में बड़की धान उसर रहली हल । भुस्सा के झोंकन, लहरैठा के खोरनी, खुट् ... खुट् ... । बड़की मेहमान भिजुन मैल-कुचैल सड़िया में सकुचाइत मुसकली, मेहमान के मुरझाल चेहरा पर मुस्कान उठ के क्षण में हेरा गेल ।)    (कसोमि॰16.14; 73.22)
787    झोंटहा (टेहुना टोबइत, "झोंटहा अइसन टिका के मारलको कि ... उनकर करेजा भुंजिअन !  हूहि में लगा देवन ।")    (कसोमि॰11.11)
788    झोर (= झोल) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।)    (कसोमि॰14.26)
789    झोलटंगा (पलट के असेसर दा देखऽ हथ तऽ रजौलीवला बंगला पर चढ़ रहला हे । साफ धोती आउ घोड़वा रंग के ऊनी के कुरता, कंधा पर उनिए के तहाल चद्दर, एक हाथ में जूट के झोला आउ दोसर में बगुली छेंड़ी । ... - गेस्ट नहीं, रिलेटिव है । सोनी बोलल । - हमरा रिलेटिव ऐसा ही होता है, झोलटंगा । गौरव बोलल आउ हाथ के गेंद असमान में उछाल देलक ।)    (कसोमि॰70.12)
790    झोलना (= झकझोड़ना, इधर-उधर हिलाना) (एगो बीड़ी सुलगा के तनी देह सोझ करऽ लगल । बुताल बीड़ी कान पर खोंसइत उठल आउ गमछी में लिट्टी रख के झोलऽ लगल । धूरी झड़ गेल तऽ दू लिट्टी फोड़ के दूध में ना देलक आउ दू गो झोला में रख लेलक ।)    (कसोमि॰20.18)
791    झोला-झोली (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।; बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।; झोला-झोली होते-होते मुनमा अंगा-पैंट पेन्ह के तइयार भे गेल । गुडुआ के घर पुरवारी दफा में हल । ओकर घर पहुँचल तऽ ऊ अभी नहइवो नञ् कइलक हल ।)    (कसोमि॰68.1; 77.21; 94.24)
792    झौंसना (तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल । ऊ दिन घर आके माय से कहलक, "माय, हमहूँ पढ़े जइबउ ।" माय तऽ बाघिन भे गेल, "तोर सउखा में आग लगउ अगलगउनी !" माय के लहलह इंगोरा सन आँख तितकी के सपना के पाँख सदा-सदा लेल झौंस के धर देलक ।)    (कसोमि॰119.1)
793    टकुआ (फुफ्फा के आख तर ससुर के पुरनका चेहरा याद आ गेल - पाँच हाथ लंबा, टकुआ नियन सोझ, सिलोर । रोब-दाब अइसन कि उनका सामने कोय खटिया पर नञ् बैठऽ हल ।)    (कसोमि॰72.3)
794    टटइनी (~ उठना) (जहिया से काशीचक खादी भंडार में अपन नाम दरज करइलक हे, गल्ली घुमनइ बंद कर देलक हे । सक्खिन-मित्तिन लाख कहे, लाजो कोय न कोय बहाना बना के लाथ कर दे - हमरा जाँता पीसइ के हो, मइया के टटइनी उठलो हे, तरेगनी के ढिल्ला हेरइ के हो ... ।)    (कसोमि॰44.7)
795    टटरी (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।"; ऊ टटरी लगा के टंगल दोकान गेल आउ बीड़ी-सलाय के साथे-साथ दलमोट खरीद के आल आउ फेन खाय-पीए में जुम गेल । अबरी पानी मिला के दारू बनइलक अउ दलमोट के साथ घूँट भरऽ लगल ।)    (कसोमि॰11.2; 83.10)
796    टट्टी (बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ । / मास्टर साहब मेहरारू से पुछलका - आज टट्टी गिनलहो ? - गिनिअइ कउची ! / चलित्तर बाबू के गोस्सा आ गेल - मूरख अउरत ! तोरा अर निअन के तऽ बाँझ रहइ के चाही, बिन बाल-बच्चा के टाँठ । तों एकरा बचऽ नञ् देमहीं । दवइया टैम पर देहीं कि ओहो नञ् ?)    (कसोमि॰100.5)
797    टपना (= पार करना) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।; जलखइ भेलइ ? बाबूजी पूछऽ हथ । असेसर, पहुना के घर दने ले जाहुन । असेसर तब तक डेवढ़ी टप गेला हल । ऊ घर से चिलिम चढ़ा के बाबूजी के दे गेला आउ मेहमान के साथ लेके घर दने चल देलका ।; बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । … आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल । पानी लाल रत-रत ... जनु सुरमी के रंगल गोड़ के रंग से लाल हो गेल हल । टपे घरी सुरमी के हाथ से मुँहपोछनी लेबइ ले मुड़ल कि सुरमी ठोर तर मुसक गेल आउ ताकइत रहल बिठला के मुल्लुर-मुल्लुर ।)    (कसोमि॰27.25; 73.20; 77.27)
798    टप्पा (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल । अभी एक्को टप्पा गलबात नञ् निस्तरल कि परैया के रस्ता निस्तर गेल । पुरबी मोरहर के पुल पर गाड़ी चढ़ल नञ् कि दुन्नू समान लेके दरवाजा पर आ गेल ।)    (कसोमि॰42.1)
799    टरेक्टर (= ट्रैक्टर) (बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो । आजकल ने गाँव में बैल रहल ने दमाही । खेती टरेक्टर पर दारोमदार ।)    (कसोमि॰117.7)
800    टहपोर (~ इंजोरिया = टहटह इंजोरिया) ('चिन्हऽ हीं नञ्', कहइत लाजो गाछ भिजुन चल गेल । टहपोर इंजोरिया में अमरूद के गाछ के छाहुर ... इंजोरिया आउ छाहुर के गलबात ।)    (कसोमि॰46.16)
801    टहलना-टुहलना (टहल-टुहल के अइला आउ ओहे खटिया पर बैठ के ओहे घुन्नी भर तेल गोड़ में औंसो लगला ।)    (कसोमि॰101.17)
802    टहल-पाती (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे । रह-रह के घुरौर भिजुन आवऽ हे, नाचऽ हे, फानऽ हे । टहल-पाती भी बुतरुए कर रहल हे ।)    (कसोमि॰21.6)
803    टहल-पानी (= सेवा, खिदमत) (तहिया सरवन चा के खूब टहल-पानी कइलक हल किसन । खुस होके किसना के नेउतलका हल । कहलका हल - बराहिल रह जो ।)    (कसोमि॰25.15)
804    टाँठ (= टाठ, बिलकुल सीधा) (ऊ उठल आउ बोरसी उकट के खटिया तर देलक, कम्बल तान के लोघड़ गेल । नीचे-ऊपर के गरमी मिलल कि गोड़ टाँठ करके करवट बदललक ।; बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ । / मास्टर साहब मेहरारू से पुछलका - आज टट्टी गिनलहो ? - गिनिअइ कउची ! / चलित्तर बाबू के गोस्सा आ गेल - मूरख अउरत ! तोरा अर निअन के तऽ बाँझ रहइ के चाही, बिन बाल-बच्चा के टाँठ । तों एकरा बचऽ नञ् देमहीं । दवइया टैम पर देहीं कि ओहो नञ् ?)    (कसोमि॰62.15; 100.8)
805    टाटी (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।; ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।"; आजकल मजूरी में चाउर-आँटा छोड़ के कोय घठिहन अनाज नञ् देतो । मरूआ तऽ पताले पइसल । …खेसाड़ी लेल तऽ जी खखन गेल । दाल खइला तऽ आखवत बीतल । जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके ।)    (कसोमि॰77.25; 78.4, 24)
806    टार-बहटार (~ करना = टार-बटार करना, टाल-मटोल करना) (ऊ सोंच रहल हल- ई लुरकी जहाँ जइती, आग लगइती। रनियां भी तो ईहे कोख के हे। की मजाल कि कउनो काम में टार-बहटार करे। उकरा ऊँच-नीच के समझ हइ। जे कुल में जइतइ, तार देतइ।)    (कसोमि॰120.11)
807    टास (= टास्क) (उनकर मेहरारू इनखा से आजिज रहऽ हली इनकर स्वभाव से । मर दुर हो, अइसने मरदाना रहऽ हे । कहिओ माउग-मरद के रसगर गलबात करथुन ? खाली गुरुअइ । हम कि इनकर चेली हिअन ! हम तऽ माउग हिअन । माउग कि तोर खाली टासे बनइते रहतो !)    (कसोमि॰101.7)
808    टिकरी (बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल ।; बिठला रोटी गमछी में लपेट के बटुरी में रखलक अउ सिक्का पर टांग के नीम तर सुस्ताय ले चलल जा हल कि नजर चुल्हा तर धइल ताय दने चल गेल । पाछिल टिकरी धुआँ रहल हल । सुरमी कहियो ने पाछिल टिकरी केकरो खाय ले दे । ओकरा पाछिल खिस्सा याद पड़ल - जनु माय हमरा पाछिल टिकरी खिलइलक होत कि ... ।)    (कसोमि॰78.27; 79.11, 12, 13)
809    टिक्कस (= टिकस; टिकट) (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे ।; गाड़ी आके लग गेल । कुशवाहा जी टिक्कस लेके धड़फड़ाल औफिस से निकलला आउ सुकरी के पैसा देवइत एगो हैंडिल पकड़ चढ़ गेला ।)    (कसोमि॰36.22; 37.5)
810    टिक्का (एकर तऽ लगुआ-भगुआ अपन खरीदल हइ । देखहीं हल, कल ओकरे अर के नेउततउ । सड़कबा में की भेलइ ? कहइ के हरिजन के ठीका हउ मुदा सब छाली ओहे बिलड़बा चाट गेलउ । हमरा अर के रेटो से कम । दस गो टिकवा वलन ने टिक्का वला हइ ! हियाँ तऽ सगरो तीन काट एक चलऽ हइ ।; बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।; पगड़ी बन्हा गेल एक ... दू ... तीन ... । फेरा पर फेरा ! फेरा-फेरी लोग आवथ आउ एक फेरा देके अच्छत छींटथ आउ टिक्का देके चल देथ ।)    (कसोमि॰12.20; 77.24; 115.15)
811    टिटकोरिया (~ मारना) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । भंसिया के तऽ आधे उमर में आँख चौपट । अन्हार तऽ घुज्ज । मारऽ दिनो में टिटकोरिया ।)    (कसोमि॰27.27)
812    टिल्हा (= टीला) (पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । आज 'सवा सेर गेहूँ' होबत । लाजो के भाय भी पाट लेलक हे । तिरकिन भीड़ । सेवा दल बैठा रहल हे । औरत के जमात अलग, बीच में रस्ता । टिल्हा पर चाह-पान के दोकान ।)    (कसोमि॰52.20)
813    टिवेल (= ट्यूब-वेल) (सुकरी चौपट्टी नजर घुमइलक । ताड़ के पेड़ पुरबइया से खड़खड़ा रहल हल । थोड़के-थोड़के दूर पर टिवेल के केबिन, बिजली तार के जाल । तिरकिन आदमी अपन-अपन काम में विसित ।)    (कसोमि॰38.4)
814    टिसन (दे॰ टीसन; स्टेशन) (कल होके बीट के दिन हल । दुन्नू साथे सिरारी टिसन आल अउ केजिआ धइलक । गाड़ी शेखपुरा पहुँचइ-पहुँचइ पर हल । खिड़की से गिरहिंडा पहाड़ साफ झलक रहल हे ।)    (कसोमि॰49.8)
815    टीकस (= टिकस; टिकट) (गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता । धड़फड़ नञ् होवे के चाही । पंडी जी आ गेला । उनखर हाथ में टीकस के पइसा देवइत पोखन बोलल - तों आगू बढ़ऽ । गरसंडा के टीकस लीहऽ ... पाँच गो ।)    (कसोमि॰63.22, 23)
816    टीसन (= स्टेशन) (किसुन लखीसराय टीसन से दिन भर में टुघरल, उठइत-बइठइत गाँव आल । गाँव पसर गेल हल । गल्ली के ढेर नक्सा बदल गेल हल । पुरान बंगला तऽ एक्को गो नञ मिलल ।; ऊ एगो बन्नुक के लैसेंस भी ले लेलका हल । बन्नुक अइसइँ नञ् खरीदलका । एक तुरी ऊ बरहबज्जी गाड़ी से उतरला । काशीचक टीसन पर अन्हरिया रात में उतरइ वला ऊ एकल्ला पसिंजर हला ।; सुकरी लपकल सोझिआल । कोयरिया इसकुल भिजुन पहुँचल कि गेट से भीम सिंह चपरासी बहराल । सुकरी के रंग-ढंग देख के पुछलक - टीसन चलमहीं ? / सुकरी - की हइ ? / चल ने, हउले-फउले मोटरी हइ । कुशवाहा जी डिजिया पकड़थिन ।; सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल । लेकिन तखनइँ ओकरा सामने बुतरून के देल कउल याद आ गेल - 'आज अदरिया बनइबउ' आउ मोटरी के भार कम गेल । मलकल टीसन पहुँच गेल ।)    (कसोमि॰19.6; 28.14; 36.2, 18)
817    टुकरी (= टुकड़ी, छोटा टुकड़ा) (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।)    (कसोमि॰105.10)
818    टुघरना (किसुन लखीसराय टीसन से दिन भर में टुघरल, उठइत-बइठइत गाँव आल । गाँव पसर गेल हल । गल्ली के ढेर नक्सा बदल गेल हल । पुरान बंगला तऽ एक्को गो नञ मिलल ।)    (कसोमि॰19.6)
819    टुभकना (लाजो सुन रहल हल । ई ससुरी के समय-कुसमय कुछ नञ् जनइतउ, टुभक देतउ । भोगो पड़त तऽ हमरे ने, एकरा की, फरमा देलको । गाछ हइ कि झाड़ लिअइ । लाजो के की कमी हइ । अरे हम एतना दे देबइ कि लाजो के ढेर दिन सास-ससुर भिर हाथ नञ् पसारऽ पड़तइ ।)    (कसोमि॰52.7)
820    टूट (= टूटा हुआ टुकड़ा) (बासो दरी खन के खंभा खड़ा कइलक आउ बोलल - फुटलका खपड़वा खँचीवा में लइहें तो ... अइँटा के टूट रहते हल । टीवेल के अइँटा तऽ सब ढो लेलकइ । बासो डाँटलक हल मुनमा के - मत लइहें, ... ठीकेदरवा केस कर देलकइ हे । गाँव में इनकोरी होतइ ।)    (कसोमि॰90.7)
821    टूरा (= टूअर) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।)    (कसोमि॰19.4)
822    टेंगरा (= गलफड़े के पास काँटे वाली एक मछली) (गौंसे गरई ... जुगुत से टेंगरा । एगो गोटहन गरई भर मुट्ठी धर के अपन मुँह भिजुन ले गेल अउ चुचकारऽ लगल ।)    (कसोमि॰77.3)
823    टेंडुआ (बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे ।)    (कसोमि॰95.15)
824    टेंभी (= दीपक की लौ; पेड़ के पत्तों का अंकुर रूप, टूसा) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।; लाजो एक टक ढिबरी के टेंभी देख रहल हे । ओकरा लगल टेंभी ओकर गोझनौटा धर लेलक हे ... धायँ-धायँ । अगिन परीक्षा । लाजो सीता भे गेल । लाजो के माँग के सेनुर दीया के टेंभी भे गेल - दपदप ! लाजो उठके भित्तर चल गेल ।)    (कसोमि॰22.14; 52.2, 3, 4)
825    टेनलग्गू (बुलकनी के दुन्नू बेटा हरियाना कमा हे । बेटी दुन्नू टेनलग्गू भे गेल हे । खेत-पथार में भी हाथ बँटावे लगल हल । छोटकी तनि कड़मड़ करऽ हल । ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे ।; छोटकी भी जा रहल हल। ओकर टेनलगुआ छउँड़ा साथ जा रहल हल। बेटी बड़की पर छोड़ दे रहल हल । छउड़ा रनियाँ के अंगू हल। केस चीरे घरी आगू में आके बइठ गेल आउ अइना उठा लेलक। - "अइना रख दऽ नुनु । तोरो तेल लगा के झाड़ देवो।" रनियाँ ओकर मुँह चूमइत बोलल।)    (कसोमि॰118.19; 125.7)
826    टेबना (डिजिया आके लग गेल । लौटती बेर ऊ भीड़ नञ् । फरागित जग्गह । फैल से दुन्नू आमने-सामने खिड़की टेब के बैठ गेल ।)    (कसोमि॰41.27)
827    टैम (= टाइम; समय) (गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता । धड़फड़ नञ् होवे के चाही । पंडी जी आ गेला । उनखर हाथ में टीकस के पइसा देवइत पोखन बोलल - तों आगू बढ़ऽ । गरसंडा के टीकस लीहऽ ... पाँच गो ।; बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही ।; तों एकरा बचऽ नञ् देमहीं । दवइया टैम पर देहीं कि ओहो नञ् ?)    (कसोमि॰63.20; 100.3, 9)
828    टोना (= क्रि॰ टटोलना; उँगलियों से टटोलकर अनुमान या अन्दाज लगाना; सं॰ किसी वस्तु, विशेष रूप से लकड़ी, का छोटा टुकड़ा) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।" अउ ऊ कंधा पर के बोरिया पटक के बरेड़ी में नुकबल पइसा के मोटरी टोवऽ लगल ।; टेहुना टोबइत, "झोंटहा अइसन टिका के मारलको कि ... उनकर करेजा भुंजिअन !  हूहि में लगा देवन ।"; बाँस के टोना खंभा पर रख के छोरी उठइलक । मुनमा माय के धेआन भंसा दने चल गेल - रोटिया !)    (कसोमि॰11.4, 11; 92.16)
829    टोपरा (खोंइछा भर गेल तऽ ढेरी पर उझल देलक । अइसइँ लाल-लाल मिचाय से मुट्ठी भराइत रहल, मुट्ठी के मिचाय खोंइछा में धराइत रहल, खोंइछा के मिचाय ढेरी पर उझलाइत रहल । ... बारह बजे तक टोपरा साफ । - दोसर टोपरा में टप जो ... पछिआरी । किसान कहलक । ऊ दुन्नू तोड़नी पनपिआय करऽ लगल । बकि सुकरी टोपरा में हेल गेल ।)    (कसोमि॰39.17, 18, 19)
830    टोला-पड़ोस (मुनिया-माय दुहारी पर आके चले घरी दही-मछली बोल गेली । टोला-पड़ोस के दाय-माय दिन भर आवइत-जाइत रहली - नीक-सुख सुगनी के निभ जाय । घर-वर संजोग हइ दइया !; उनकर चलती के जमाना में फुफ्फा आवऽ हला तऽ देवता नियन पूजल जा हला आउ आज ... !तहिया बंगला पर एते देरी रहऽ हला ! तुरते हंकार पड़ जा हल । कड़ाही चढ़ जा हल । शुद्ध घी के हलुआ के सोंधइ से टोला-पड़ोस धमधमा जा हल ।)    (कसोमि॰63.27; 72.8)
831    ठउरी-ठउरी (= पासे-पासे में) (जय होय टाटी माय के, सालो भर मछली । सुनऽ ही किदो पहिले गंगा के मछली चढ़ऽ हल हरूहर नदी होके । अब कि चढ़त कपार । ठउरी-ठउरी छिलका । रहल-सहल जीराखार ले लेलक । रह चनैलवा मुँह बिदोरले । मछली तऽ चढ़तो उलटी धार में ।)    (कसोमि॰78.25)
832    ठउरे (= पास ही में) (- केऽ, मुनियाँ ? माय आगू में ठाढ़ हल । - हाँ, मुनियाँ लजाल बोलल । ओकरा लगल जैसे मन के चोर पकड़ा गेल हे । माय कुछ नञ् बोलल, ठउरे पलट गेल । माय आगू आउ मुनियाँ पीछू । दुन्नू गुमसुम ! घर जाके मुनियाँ गोड़ धोलक आउ भंसा हेल गेल ।; ऊ कहलक हल सुरमी से, "काल्ह ईहे टाटी के मांगुर खिलइबउ ... जित्ता । जानऽ हें टाटिए बदौलत 'कतनो दुनिया करवट उपास, तइयो ठेरा मछली-भात । ठेरा एज्जा से ठउरे एक कोस पर हइ ।")    (कसोमि॰65.18; 78.5)
833    ठकुरबाड़ी (- हमरा घर में पुजेड़िन चाची हथुन । चौका तो मान कि ठकुरबाड़ी बनइले हथुन । रस्सुन-पियाज तक चढ़बे नञ् करऽ हउ । - अप्पन घर से बना के ला देबउ । कहिहें, बेस । - ओज्जइ जाके खाइयो लेम, नञ् ? - अभी ढेर मत बुल, कहके अंजू लूडो निकाल लेलक समली के मन बहलाबइ ले ।)    (कसोमि॰58.2)
834    ठढ़सिंघा (हमर बरतुहारी तक बिगाड़ले चलतो । अउ एगो हम ! जे हाथ कहियो तलवार भाँजऽ हलो उहे हाथ अपन घर से हँसुआ लाके ओकर पतिया काटलियो । बचतै हल बैला ! केबाड़ी लगल में दुन्नू लड़ गेलइ । बन्हलका ठढ़सिंघा अइसन गिरलइ कि केबड़िए नञ् खुलइ । खिड़की तोड़ के भीतर हेललियो आउ पगहा काट के माथा ठोक देलियो - उठ जा महादेव !)    (कसोमि॰113.3)
835    ठमकना (सुकरी खेत भिजुन ठमक गेल । किसान पुछलक - काम खोजऽ हीं ? सुकरी तनि देर तक ठमकल ताकइत रहल फेनो रस-रस केबिन दने बढ़ल । सुकरी कि नौसिखुआ हे ! धड़फड़ात तऽ बूझत गरजू हे । - कत्ते लेमहीं ... दस तो बज गेलउ ।)    (कसोमि॰38.16, 18)
836    ठहक (~ से याद होना) (बेटा लिख के लोढ़ा भेता । कतना सुग्गा निअन सिखैलिओ, कल होके ओतने । चउथा-पचमा में पहुँच गेला - ककहरा ठहक से याद नञ् । हिज्जे करइ ले कहलिओ तऽ 'काकर का आउ माकर मा' कैलको । बेहूदा, सूअर - 'क आकार का आउ म आकार मा' होगा कि ... ।)    (कसोमि॰100.24)
837    ठिसुआना (अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका । बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।; कठुआल बुलकनी भउजाय भिजुन अपराधी सन आधा घंटा तक रहल बकि ऊ अँखियो उठा के एकरा दने नञ् देकलक । ठिसुआल बुलकनी भाय दने मुँह करके बोलल, "अरे नुनु, तों तो समझदार हें । तोरा ई सब नञ् करइ के चाही । बेचारी माय-बाप छोड़ के तोर दुआरी अइलउ तऽ तोरे पर ने । अब एकरा जइसे निबाहीं । तोर गोस्से बड़ी भारी हउ ।")    (कसोमि॰115.7; 118.9)
838    ठुस्सल (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।)    (कसोमि॰88.2)
839    ठेकुआ (= खमौनी) (अइसइँ पहर रात जइते-जइते भुंजान-पिसान से छुट्टी मिलल। लस्टम-फस्टम बुलकनी सतुआनी आउ रोटियानी के सरंजाम जुटइलक। राह कलउआ लेल ठेकुआ अलग से छान देलक। निचिंत भेल तऽ धेयान तितकी दने चल गेल। अभी तक नञ् आल हे। ई छौंड़ी के मथवा जरूर खराब भे गेले हे।; माय सिक्का से ठेकुआ के कटोरा उतारे लगल। एगो पोलिथिन में सतुआ आउ ठेकुआ के गइँठी देलक कि तितकी अपन कपड़ा आगू में रख के लपकल घर से बहरा गेल।)    (कसोमि॰124.1, 17, 18)
840    ठेलाठली (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत ।)    (कसोमि॰36.23)
841    ठेसवा (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।)    (कसोमि॰77.25)
842    ठोर (= ओंठ, होंठ) (मुनियाँ सोचले जा रहल हल । ओकर ठोर पर मीठ मुस्कान के रेघारी देखाय पड़ल आउ कान लाल भे गेल । दिन रहत हल तऽ कोय भी बुझ जात हल । ओकरा रात आउ अन्हरिया काम देलक ।; उनकर आँख तर गंगापुर वली पुरनकी सरहज नाच गेली - ललकी गोराय लेल भरल-पुरल गोल चेहरा पर आम के फरका नियन बोलइत आँख ... बिन काजर के कार आउ ठोर पर बरहमसिया मुस्कान बकि आज सूख के काँटा । बचल माधे ले-दे के ओहे मुस्कान ... मोहक ... अपनापन भरल ।)    (कसोमि॰65.10; 73.27)
843    डंटा (= डंडा) (तहिये कहलिअइ, खपड़वा पर परोरिया मत चढ़ाहीं, कड़िया ठुस्सल हइ ... जरलाही मानलकइ ! चँता के मरियो जइते हल तइयो । अरे मुनमा ... बाँसा दीहें तो ! निसइनियाँ के उपरउला डंटा पर पेट रख के झुकल बासो परोर के लत्ती खींचइत बोलल ।)    (कसोमि॰88.3)
844    डंटी (= डंठल) (बचल पैसा से तीन डिसमिल आउरो जमीन भे गेल, फेन एगो ओसरा-भित्तर अलग से । फूस के छप्पर देके ओसरा में देव-पित्तर करके घरहेली भी कर लेलक । पान नञ् तऽ पान के डंटिए सही ।)    (कसोमि॰107.20)
845    डंड-बैठकी (= दंड-बैठकी) (बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी । घुरौर के चौपट्टी घंघेटले लोग-बाग । तीस-चालीस हाथ मसीन नियन लिट्टी कलट रहल हे, बुतरू-बानर देख रहल हे, कूद रहल हे, लड़ रहल हे, हँस रहल हे, डंड-बैठकी कर रहल हे ।)    (कसोमि॰21.5)
846    डंफ (= उबाल; लबालब भरने की स्थिति) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।)    (कसोमि॰14.27)
847    डउँघी (= छोटी डाली) (गोरो के लगल जइसे ओकरा छरबिन्हा हो गेल हे । छरबिन्हा अउ साँप के झार एक्के ... नीम के डउँघी अउ ओही बहिआर ।)    (कसोमि॰15.20)
848    डकना (= कौए का बोलना) (ऊ करवट बदललक । ओढ़ना खाट से कम चउड़ा । लाजो के देह बाहर भे गेल, पीठ उघार । बामा हाथ से पीठ के ओढ़ना चाँत के कर जोड़ल तरहत्थी दुन्नू जाँघ तर लेके सूत गेल । कउआ डक गेल । माय सउँसे घर झरूआ देके बरतन-वासन करऽ लगल ।; रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।)    (कसोमि॰47.4; 66.5)
849    डगरिन (~ छानना) (किदो परेमन के बैठे से बिछौना गंदा हो गेल आउ घर में हंगामा । जूली माय के ई सब सोहइबे नञ् करऽ हे । एक दिन अपन बुतरुन के समद रहली हल - गंदे लड़के के साथ मत खेला करो, बिगड़ जाओगे । परेमन माय के स्वाभिमान साँप-सन फन काढ़ लेलक - वाह रे सुधरल । हमर बेटा बिगड़ल तऽ बिगड़ले सही, कोड़-कमा के तऽ खात । नञ् जइतइ तोरा भिजुन डगरिन छाने ले, बुझलें ने ।)    (कसोमि॰71.15)
850    डब-डब (चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।)    (कसोमि॰101.13)
851    डब्ब (बजार के नल्ली सड़क से ऊँच हल । नल्ली के पानी सड़क पर आ गेल हल । एक तुरी सड़क के गबड़ा में सुक्खल पोहपिता के थंब पानी पर उपलाल हल । एगो मेहरारू गोड़ रंगले, चप्पल पेन्हले आल आउ सड़िया के गोझनउठा के उठावइत लकड़ी बूझ के चढ़ गेल । गोड़ डब्ब ।)    (कसोमि॰82.14)
852    डब्बू (मेहरारू टूटल डब्बू के बनावल मलसी में घुन्नी भर तेल रख के जाय लगली कि मास्टर साहब टोकलका - सुनऽ, महीना में एक कीलो तेल से जास्ती नञ् अइतो, ओतने में पुरावऽ पड़तो ।)    (कसोमि॰99.11)
853    डभकना (चारो अनाज तार-तूर के बरकइ ले छोड़ देलक आउ अदहन चढ़इलक। खिचड़ी बनते-बनते रनियां आ जात। आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल।)    (कसोमि॰121.13)
854    डमारा (= खेतों में गिरा-पड़ा गोबर, कंडा; मैदान में खाद या जलावन के लिए इकट्ठा किया हुआ गोबर) (ऊ चुन-चान के डमारा लइलक आउ जेभी से सलाय निकाल के पत्ता सुलगइलक । ओकरा पर डमारा सरिया के गमछी पर आँटा सानलक अउ चार लोइया तइयार कर लेलक ।; ओकर जीह में पचास बरिस पहिले के अँटकल सवाद पनियाय लगल ... घुट् ! ओकर आँख तर खरिहान-उसार के अंतिम लिट्टी नाच गेल - गोल-गोल डमारा के आँच पर सीझइत लिट्टी । लिट्टी कि छोटका बेल ! बीसो खँचिया डमारा के आग पर सीझइत मनो भर आँटा के लिट्टी ।)    (कसोमि॰20.7, 8; 21.1, 2)
855    डरदेवारी (बुतरू के बात बड़का तक पहुँच गेल आउ भेल महाभारत । फेन एक खेर दू टूक । संपत माधे पाँच भित्तर के घर हल । पंचैती भेल आउ घर में डिंढ़ारी पड़ गेल ... डरदेवारी ।)    (कसोमि॰105.16)
856    डरेस (= ड्रेस, पोशाक) (ओकर एगो सक्खी पढ़ऽ हल । ऊ बड़गो-बड़गो बात करऽ हल, जे तितकी बुझवो नञ् करे । ओकर इसकुलिया डरेस के तितकी छू-छू के देखऽ हल । एक दिन घाट पर सक्खी एकरा अपन डरेस पेन्हा देलक अउ कहलक हल, "कैसी इसकुलिया लड़की लगती है !" तहिया से तितकी इसकुलिया सपना में उड़ऽ लगल ।)    (कसोमि॰118.23)
857    डाँग (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी ।)    (कसोमि॰61.14)
858    डाँड़ (भदवी ~) (बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल । - हम हर साल भदवी डाँड़ खा हिअइ बाऊ । जे खाय भदवी डाँड़ ऊ टपे खड़हु-खाँड़ । दुन्नू ठकुरवाड़ी वला अलंग धइले जा रहल हे ।)    (कसोमि॰95.17)
859    डाँड़ा (= डाड़ा;  कमर; कमर में पहनने का सूत आदि का लच्छा, डंडाडोर; नाव खेने का चप्पू) (लाजो तितकी के बाँह में । तितकी के डाँड़ा लाजो के बाँह में ... जोट खेलइत साँप ।; लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ ।; नीसा धुइयाँ नियन असमान खिंड़ल आउ ओकरे संग बिठला के मन - सुरमी धान निकावे गेल हे । अखने ... संजोग से घर खाली हे । अखने रहइ के तऽ फिरंट । ससुरी कमइते-कमइते डाँड़ा टेढ़ भे जइतउ । चल आउ सुरमीऽऽऽ ! ससुरी सुनवे नञ् करऽ हे । अगे जल्दी ने आवें !; नेटुआ के ताल पर नाचइत बिठला सुरमी के डाँड़ा में अपन दहिना बाँह लपेट देलक कि सुरमी हाथ झटक के पीछू हट गेल । बिठला डगमगाल आउ आगू झुक गेल । - "हमरा छूलें तऽ मोछा कबाड़ लेबउ मउगमेहरा ।"; बासो उतरके अलकर-झलकर फेंकइ में लग गेल । मुनमा के समदइत कहलक - जा, नहा-धो लिहऽ । मुनमा अंगइठी लेके डाँड़ा सोझ कइलक आउ पैन दने चल गेल ।)    (कसोमि॰49.6; 72.27; 81.6; 85.13; 94.21)
860    डाक (~ बबा, ~ बाबा) (गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े । ओकर गोड़ में पाँख लग गेल हल - जानथ गोरैया बाबा ! दोहाय सलेस के ... लाज रखो ! बाल-बच्चा बगअधार होत । कह के अइलूँ हें ... काम दिहऽ डाक बबा !)    (कसोमि॰37.16)
861    डाक बबा (= डाक बाबा) (कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल । जल्दी-जल्दी कुल्ली-कलाला करके गेलूँ आउ माने-मतलब से पुछलूँ तऽ समझइलका । दोहाय माय-बाप के ! डाक बबा के किरपा से हो जाय तऽ .. ।; दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल । डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ ।)    (कसोमि॰12.16; 42.8)
862    डाकथान (हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ? - बेस, कहके सुकरी मने-मन छगुनइत बहराल अउ डाकथान वला रस्ता पकड़लक ।)    (कसोमि॰33.20)
863    डागदर (= डॉक्टर) (तहिये से हरगौरी बाबू खटिया पर गिरला आउ बोखार उतरइ के नामे नञ् ले रहल हे । एक से एक डागदर अइलन पर कुछ नञ् ... छाती हौल-हौल करऽ हे । सुनऽ ही, बड़का डागदर कह देलन हे कि इनका अदंक के बीमारी हे ।)    (कसोमि॰56.12, 13)
864    डाड़ा (दे॰ डाँड़ा) (सुकरी मिचाय के भरल मुट्ठी खोंइछा में धइलक आउ डाड़ा कस के अँचरा खोंसलक । पाँच बजे काम से छुट्टी भेल । किसान छँटुआ बैगन-मिचाय अइसइँ मजूरनी के दे देलक ।)    (कसोमि॰39.25)
865    डाढ़ (= डाल, पेड़ की शाखा) (सावन के पहिल सोमारी हल । गुलमोहर हरियर कचूर । डाढ़ पीछू दू-चार गो लाल-लाल फूल । दूर-दूर से लगे जइसे जूड़ा के बान्हल रीबन रहे ।)    (कसोमि॰48.3)
866    डिंढ़ारी (बुतरू के बात बड़का तक पहुँच गेल आउ भेल महाभारत । फेन एक खेर दू टूक । संपत माधे पाँच भित्तर के घर हल । पंचैती भेल आउ घर में डिंढ़ारी पड़ गेल ... डरदेवारी ।)    (कसोमि॰105.16)
867    डिजैन (= डिज़ाइन) (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । ... सोचलक - गोविन्द बाबा के गोड़ लग आवऽ ही बकि ओजउका नक्सा देख के तऽ दंग रह गेल । ऊ फूस वला जगसाला कहाँ । ई तऽ नए डिजैन के मंदिर भे गेल । के चढ़ऽ देत ऊपर !)    (कसोमि॰19.12)
868    डिजैन (= डिजाइन) (भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ । बनला पर लगे कि छत पर कोय कनियाय रहे । हाय रे डिजैन ! एक से एक माय के लाल हइ देसवा में ।)    (कसोमि॰27.24)
869    डिढ़ार (समली सोचऽ हल - बचवे नञ् करम तऽ हमरा में खरच काहे ले करत । मुदा एन्ने से समली के असरा के सुरूज जनाय लगल हल । ओहो सपना देखऽ लगल हल - हरदी-बेसन के उबटन, लाल राता, माँग में सेनुर के डिढ़ार आउ अंगे-अंगे जेवर से लदल बकि घर के हाल आउ बाबा-बाउ के चाल से निराशा के बादर झाँप ले हइ उगइत सुरूज के ।)    (कसोमि॰59.11)
870    डिरिया (= डीरी या डींड़ी + 'आ' प्रत्यय) (अब तऽ गरीब-गुरबा लेल सत्तू मोहाल भे गेल। देखहो ले नञ् मिलऽ हे। पहिले गरीब अदमी मुठली सान के खा हल.....इमली के पन्ना....आम के चटनी......पकल सोंह डिरिया मिरचाय अउ पियाज....उड़ि चलऽ हल। बूँट-खेसाड़ी तऽ उपह गेल। सवाद मेंटावइ लेल मसुरी, गहूम आउ मकइ मिला के बनइतो जादेतर लोग। अग्गब चना के सत्तू तऽ पोलीथीन के पाकिट में बिकऽ हे - पचास रूपइया किलो।)    (कसोमि॰120.25)
871    डिरील (= ड्रिल, परेड) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।)    (कसोमि॰89.8)
872    डिल्ली (= दिल्ली) ("अच्छा, सच्चे कंबल मिलतइ ?" चिकनी के विस्वास नञ भे रहल हल । अइसन तऽ कत्तेक बेरी सुनलक हे ... कत्ते बेरी डिल्ली, पटना भी गेल हे झंडा-पतक्खा लेके मुदा ... ।)    (कसोमि॰17.12)
873    डिल्ली (= दिल्ली) (गया से पटना-डिल्ली तक गेल हे सुकरी कत्तेक बेर रैली-रैला में । घूमे बजार कीने विचार । मुदा काम से काम । माय-बाप के देल नारा-फुदना झर गेल, सौख नञ् पाललक । छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम !)    (कसोमि॰35.9)
874    डिसमिल (= डेसिमल, एक एकड़ का सौवाँ हिस्सा) (हम दाहुवला जमीनियाँ ले लेही आउ झोपड़ी छार के दिन काटम । हरहर-खरहर से बचल रहम । आउ एक दिन वय-वेयाना भी हो गेल । ... सितबिया अपन दुन्नू भाय से भी राय-मसविरा कइलक आउ सह पाके लिखा लेलक । बचल पैसा से तीन डिसमिल आउरो जमीन भे गेल, फेन एगो ओसरा-भित्तर अलग से ।)    (कसोमि॰107.18)
875    डिहबाल (दुन्नू बढ़इत गेल ... बढ़इत गेल । गाँव के पार निसबद ... रोयाँ गनगना गेल । डाकबबा भिर कत्ते तुरी छिन-छोर होल हे । जय डाकबबा, पार लगइहऽ । पार भे गेल । जय डिहबाल, पार लगइहऽ । अइसइँ गोहरावइत बढ़ल गेल ।; खाय के बिज्जे भेल तऽ कनमटकी पार देलका । सारा-सरहज लाख उठइलका, लाथ करइत रह गेला - खाय के मन नञ् हो । आउ फुफ्फा अन्हरुक्खे उठ के टीसन दने सोझिया गेला । डिहवाल के पिंडी भिजुन पहुँचला तऽ भरभरा गेला । बिआह में एजा डोली रखाल हल । जोड़ी पिंडी भिजुन माथा टेकलन हल । आउ आज फुफ्फा ओहे डिहवाल बाबा भिजुन अन्तिम माथा टेक रहला हल - अब कहिओ नञ् ... कान-कनइठी !)    (कसोमि॰42.9; 75.22, 25)
876    डीह (ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने । एक परतार तो डीह पर बासोबास के जमीनो खोजलिओ । एक कट्ठा के पाँच गुना गौंढ़ा देबइ ले गछलियो, तइयो मुँह सोझ नञ् ।)    (कसोमि॰110.5)
877    डेउढ़िया (= डेढ़ गुना) (- अच्छा, वनतारा तर गहूम लगइमहीं, खाद के आधा रहलउ । - समंगा ने इ, बिहनियाँ कहाँ से लइबइ ? - देबउ, बकि उपजला पर डेउढ़िया लेबउ ।; ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । लमहर जोत हे ... काम के कमी नञ् होत । सच्चोक मउज हल । तीसम दिन दुइयो के काम । खाना-पीना डेउढ़िए से चल जाय ।)    (कसोमि॰69.4; 79.16)
878    डेरा (सन काटे के ~) (महाभारत तऽ बाते से सुरू होवे हे, बान तऽ चलऽ हे अंत में। आउ अंत में दुन्नू भिड़इ-भिड़इ के भेल कि हल्ला सुन के बड़का हाथ में सन काटइ के डेरा लेले आ धमकल। छोटकी सब दोस ओकरे पर मढ़ देलक, "अपन अँगना रहत हल तऽ आज ई दिन नञ् देखे पड़त हल।" धरमराज बनला हे तऽ सम्हारऽ मँझली के। नञ् तऽ छरदेवाली पड़ के रहतो।")    (कसोमि॰122.20)
879    डेवढ़ी (जलखइ भेलइ ? बाबूजी पूछऽ हथ । असेसर, पहुना के घर दने ले जाहुन । असेसर तब तक डेवढ़ी टप गेला हल । ऊ घर से चिलिम चढ़ा के बाबूजी के दे गेला आउ मेहमान के साथ लेके घर दने चल देलका ।)    (कसोमि॰73.20)
880    डोंरवा (~ साँप) (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।)    (कसोमि॰80.21)
881    डोभाना (= मिट्टी को दबाकर बीज बोया जाना) (भंसा भित्तर के छत में जब एगो मड़की छोड़लन तऽ सौखी पुछलक - ई की कइलहो ओरसियर साहेब ? घरे में धान डोभइतइ ? उनका समझैलथिन कि एकरा से कीचन के धुइयाँ निकलतइ । बनला पर लगे कि छत पर कोय कनियाय रहे ।)    (कसोमि॰27.22)
882    डोम ("अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !" - "डोम तऽ डोमे सही । किसी के बाप का कुछ लिया तऽ नञ् । कमाना कउनो बेजाय काम हइ ? काम कउनो छोट-बड़ होता ?"; "गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !" मानर के थाप पर दुन्नू गा-गा के नाचऽ लगल - "नथिया जब-जब लइलूँ डोमिनियाँ ...।" )    (कसोमि॰87.6, 8, 12)
883    डोमिन ("गाँव के सब गोतिया-भाय, आवो ! आझ बिठला झूमर सुनावेंगा ... नयका डोम बिठला आउ नयकी डोमिन सुरमीऽऽऽ !" मानर के थाप पर दुन्नू गा-गा के नाचऽ लगल - "नथिया जब-जब लइलूँ डोमिनियाँ ...।" )    (कसोमि॰87.13, 15)
884    डोल-डाल (= शौच) (राह के थकल, कलट-पलट करऽ लगला । थोड़के देरी के बाद उनकर कान में भुनभुनी आल । सुत्तल दू आदमी बतिया रहल हल - रात लटफरेम पर रह जइबइ अउ भोरगरे डोल-डाल से निपट के ओकिलवा से मिल लेबइ ।; चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।)    (कसोमि॰28.23; 101.11)
885    ढकेला-ढकेली (= ढकला-ढकली) (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत ।)    (कसोमि॰36.24)
886    ढलइया (एक्कक पाय जोड़ के गया कइलन आउ बचल सेकरा से घर बनैलन । एक दफा में अइँटा अउ दोसर दफा में ढलइया । हाँ, गाँव में अइसन मकान केकरो नञ् हल । ओरसियर तक पटने से लेके अइला हल ।)    (कसोमि॰27.15)
887    ढांगा (= कटी हुई फसल की ढेरी; ढेर) (कहाँ गेल बैल के दमाही । चर-चर कट्ठा में पसरल बड़हर । अखैना से उकटले गेल, ढांगा कटइत गेल - मस-मस । बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक ।; बुलकनी के अउसो नइहरे से माय कूट-पीस के भाय पहमा भेजवा दे हल । बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो ।; बुलकनी गहूम के बाल हँसुआ से छोपे लगल । रनियाँ पुंठी से बूँट के ढांगा पीटे लगल । तितकी पछुआ गेल ।)    (कसोमि॰23.21; 117.6; 119.14)
888    ढाही (पशुओं द्वारा सींग अथवा सिर से आघात करना; पहाड़ में ~ मारना = बलिष्ठ के साथ टक्कर लेने की मूर्खता करना) (पहिले तो हरगौरी बाबू खेत के बात कइलन हल मुदा ऐन मौका पर खाली बिदकिए नञ् गेलन, अपन पहिलौको पैसा के तगादा कर देलका । उसकुन के अच्छा समय देखलका । गाँव में आउ केकरा पैसा हे । जेकरे आज के छौंड़ा माँड़र पहाड़ से ढाही लेबइ ले चलल हे ।)    (कसोमि॰54.22)
889    ढिबरी (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।; घर आके सुकरी देखऽ हे - बेटी ताड़ के चटाय पर करबटिया देले धनुख सन पड़ल हे । गमछी माथा से गोड़ तक चटाय पर धनुख के डोरी नियन तनल हे । बेटा बहिन के देह पर गोड़ धइले चितान बान सन पड़ल हे । सुकरी सले-सले ढिबरी मिंझा बगल में पड़ गेल ।)    (कसोमि॰14.7; 43.4)
890    ढिल्ला (= सिर के केश का जूँ) (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।; जहिया से काशीचक खादी भंडार में अपन नाम दरज करइलक हे, गल्ली घुमनइ बंद कर देलक हे । सक्खिन-मित्तिन लाख कहे, लाजो कोय न कोय बहाना बना के लाथ कर दे - हमरा जाँता पीसइ के हो, मइया के टटइनी उठलो हे, तरेगनी के ढिल्ला हेरइ के हो ... ।)    (कसोमि॰16.13; 44.7)
891    ढुनमुन्नी (लोग-बाग सिहरइत सूरूज के देखइ ले गली-कुच्ची में निकल गेल हल । मिठकी इनार पर डोल-बाल्टी के ढुनमुन्नी सुन के चिकनी के नीन टूटल - "जाऽ ! ई तऽ रउदा उग गेलइ । एऽऽह, नञ सुनऽ हो ?")    (कसोमि॰18.8)
892    ढुरना (= ढुलकना) (बिठला किसान छोड़ देलक हे । मन होल, गेल, नञ् तऽ नञ् ! जने दू गो पइसा मिलल, ढुर गेल । बन्हल में तऽ अरे चार कट्ठा खेतुरी आउ छो कट्ठा जागीर । एकरा से जादे तो बिठला एन्ने-ओन्ने कमा ले हे । ने हरहर, ने कचकच ।)    (कसोमि॰80.6)
893    ढेना-ढेनी (= बाल-बच्चे) (छौंड़ापुत्ता के बोतल से उबरइ तब तो ! ओकरा माउग से की काम ! ऊ तऽ बोतले से सगाय कइलक हे, ढेना-ढेनी तऽ महुआ खोंढ़ड़ से अइलइ हे । अबरी आवे, ओकरा पूछऽ हीअइ नोन-तेल लगा के ।; एगो डर के आँधी अंदरे-अंदर उठल अउ ओकर मगज में समा गेल । फेनो ओकर आँख तर सुरमी, ढेना-ढेनी नाच गेल । रील बदलल । आँख तर नोट उड़ऽ लगल । एक-टकिया, दु-टकिया  ... हरियर-हरियर ... सो-टकिया लमरी ।; एतना बोलके बुलकनी भउजाय दने मुड़ल आउ माथा पर हाथ रखइत बोलल, "हमर सुगनी के गति-मति दीहऽ गोरइया बाबा ।" एतनो पर जब भउजाय सुग से बुग नञ् कइलक तऽ बुलकनी भाय से बोलल, "जा हिअउ बउआ ... घर में ढेना-ढेनी हउ ।"; बुलकनी के काहे तो आझ अप्पन मरद के रह-रह के याद आ रहल हल। ढेना-ढेनी देख के सबूर कर लेलक हल - चलऽ, ई पिलुअन ओकर निसानी हे। एकर मरद दिल्लीवला चुनाव में मारल गेल हल।)    (कसोमि॰35.13; 81.25; 118.15; 121.19)
894    ढेर (= बहुत; कई; अनेक) (अपन खेत पर पहुँचला तऽ देखऽ हथ कि ओजउ ढेर कौआ उनकर मकइ के खेत में भोज कइले हे । सौंसे खेत बिधंछ । दुन्नू हाथ उलार-उलार के कौआ उड़ावऽ लगला - हाल-हाल ।; रस्ता में मकइ के खेत देखलका तऽ ओहे हाल । सगरो दवा-उबेर । उनकर माथा घूम गेल । ऊ पागल नियन खेत के अहरी पर चीखऽ-चिल्लाय लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल । उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल । ढेर देरी तक हँकारते रहला । खेत-खंधा के लोग-बाग दंग ।; मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।; बागवला खेत लिखबइवला गाछो लिखबइ ले चाहऽ हल बकि बासो अड़ गेल । ढेर बतकुच्चह भेल हल नवादा कचहरी में । बासो बोलल हल - जीअइ ले तऽ अब कुछ नहियें बचल, जरइ ले तऽ लकड़ी रहऽ दऽ ।)    (कसोमि॰26.1, 16; 33.25; 89.26)
895    ढेरी (= ढेर) (बैल सहरल कि हाथ में कटुआ लेके गोबर छानलक, फेंक देलक । डमारा के ढेरी, हसनपुर के जनेगर पहाड़ । ओकरे से उसार के लिट्टी बनऽ हल । एक खंधा के सब खरिहान से उगाही होवऽ हल ।; भोट देके निकल रहल हल कि बूथ लुटेरवन छेंक लेलक। गनौर गाँव दने भागल जा हल कि एक गोली ओकर कनपट्टी में आ लगल आउ ओजइ ढेरी भे गेल ऊ। आम चुनाव के आन्ही में बुलकनी के संसार उजड़ गेल।)    (कसोमि॰23.23; 121.24)
896    ढोलाय (= ढुलाई) (दूध के याद अइते ही ओकर ध्यान अदरा पर चल गेल । बुतरून के कह के आल हे, अदरिया बनइबउ । तहिया सुकरी अदरा के आदर से मानऽ हल । घर में गाय, दूध के कमी नञ् । मोरहर के बालू ढोलाय, कोयला के मजूरी ।)    (कसोमि॰34.26)
897    तइयो (= तो भी) (छँउड़न सब के तऽ टेलिफोन लगल रहऽ हइ । जइसहीं बजार हेललियो कि सहेर भर "आछीः आछीः" कइले लंगो-तंगो कर देतो । मन जर जइतो तऽ निरघिन करऽ लगवो । ढेलो फेकवो ... तइयो कि भागतो ? बिना गरिअइले हमरो करेजा नञ ठंढइतो ।; सुकरी गुमटी पार करके बजार दने सोझिया गेल । एक्को मोटरी हाथ लग जाय तइयो । ओकर डेग लमहर भे गेल ।)    (कसोमि॰13.2; 35.22)
898    तइसईं (= तइसहीं, तइसीं; वैसे ही) (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे ।)    (कसोमि॰14.5)
899    तखनइँ (= तखनहीं; उसी समय) (किसन पिल्थी मार के खाय लगल ... सुप् सुप्, कि तखनइँ ओकर माय के याद आ गेल । बुतरू में फट्टल बेयाय के करूआ तेल बोथल बत्ती के दीया के टेंभी से गरमा के झमारऽ हल । बेचारी ... बाउ के सदमा में गंगा पइसल ।; सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल । लेकिन तखनइँ ओकरा सामने बुतरून के देल कउल याद आ गेल - 'आज अदरिया बनइबउ' आउ मोटरी के भार कम गेल । मलकल टीसन पहुँच गेल ।)    (कसोमि॰22.12; 36.16)
900    तखनञ् (दे॰ तखनइँ; उसी क्षण) (पिंडा बबाजी के आगू में फलदान के थरिया उदास । तखनञ् मुनियाँ आंतीवल भौजी के घर से आल । ऊ छन भर में सब बात समझ गेल । जेकरा पर बीतऽ हे ओकरा जल्दी गेआन भे जाहे । आगरो एकरे ने कहल जाहे ।)    (कसोमि॰67.14)
901    तगादा (= तकाजा) (पहिले तो हरगौरी बाबू खेत के बात कइलन हल मुदा ऐन मौका पर खाली बिदकिए नञ् गेलन, अपन पहिलौको पैसा के तगादा कर देलका । उसकुन के अच्छा समय देखलका । गाँव में आउ केकरा पैसा हे । जेकरे आज के छौंड़ा माँड़र पहाड़ से ढाही लेबइ ले चलल हे ।)    (कसोमि॰54.21)
902    तड़काना (बाहर से पुरबइया के झोंका पीठ के हड्डी तड़का देलक । चिकनी बोरसी के नगीच घसक के अलुआ निकालऽ लगल ।)    (कसोमि॰16.17)
903    तड़-तड़ (चलित्तर बाबू हाजरी बना के इसकूल से पैदले चल देलका हल । गोड़-हाथ धोके कुल्ली-कलाला कइलका आउ आँख पर एक लोटा पानी के छिट्टा मारलका । आँख मिचाय नियन लहर रहल हल । जाँघ तड़-तड़ फटे ।)    (कसोमि॰98.16)
904    तनतनाना (किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।; भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! ... नगेसरा के नस तनतनाल । किछार धइले मारलक दरबर । ढेर आगू जा के मारलक छलांग । एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल ।)    (कसोमि॰22.9; 34.14)
905    तनि (= तनी; जरा, थोड़ा) (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; तितकी धीरज बंधइलक आउ तनि देरी बइठ के घर चल गेल । रस्ता में सोंचले जा हल - तनि गाँव के हवा-पानी बूझे के चाही ।)    (कसोमि॰20.22; 53.24, 25)
906    तनि-मनि (= तनी-मनी) (तितकी धीरज बंधइलक आउ तनि देरी बइठ के घर चल गेल । रस्ता में सोंचले जा हल - तनि गाँव के हवा-पानी बूझे के चाही । लौनियाँ तिनमोहानी पर मिल गेल । तनि-मनि छोर ओकरा से मिलल । सब बबाल नाटके के चलते ।)    (कसोमि॰53.26)
907    तमतमाल (मुनमा कनखी से सामा दने देखलक । - देखहो, हमरा मुँह दुसऽ हको । / चलित्तर बाबू सामा के चटकइलका । सामा मुनमा दने मुँह बनइले, तमतमाल देखलक । एकर माने - अच्छा, पूछबो !)    (कसोमि॰103.7)
908    तर (= के सामने, पास) (एन्ने ढेर दिना से देख रहल हे कि ओकर मन-मिजाज में बदलाव आ रहल हे । घर के बात पर हाँ-हूँ में जवाब दे हल । एकाध आदमी तर कहलक हल कि घर पर तो हमरे चढ़ रहल हे ।)    (कसोमि॰108.10)
909    तरंगना (= तड़ंगना; गुस्सा करना, क्रोधित होना, नाराज होना) (बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे । - कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन ।)    (कसोमि॰111.20)
910    तरंगाह (= तड़ंगाहा) (माय जब बेटा से पुतहू के सिकायत कइलक तऽ तीनों बेटा अगिया बैताल भे गेल । तीनियों गोतनी के हड़कुट्टन भेल । छोटका धइल तरंगाह हल । बमक के बंगइठी उठइलक आउ अपन माउग के धुन देलक, "ससुरी काटि के धर देबउ जो हमर माय से उरेबी बोलले हें । ई चाल अपन नइहरा रसलपुरे में रहे दे ।")    (कसोमि॰117.18)
911    तरकी (= कान में पहनने का एक गहना, कनफूल) (बिठला के याद पड़ल - पहिल तुरी, ससुरार से अइते-अइते टाटी नद्दी तर झोला-झोली भे गेल हल । आगू-आगू कन्हा पर टंगल लुग्गा-फट्टा मोटरी आउ पीछू-पीछू ललकी बुट्टीवली साड़ी पेन्हले सुरमी ... सामर मुँह पर करूआ तेल के चिकनइ, लिलार पर गोलगंटा उगइत सूरूज सन लाल टिक्का, गियारी में चार लर के सिकरी ... चानी के ... चमचम, नाक में ठेसवा, कान में तरकी । आगू-पीछू दुइयो टाटी के ठेहुना भर पानी में हेलल ।)    (कसोमि॰77.25)
912    तरसना (तरसल के खीर-पुड़ी, लिलकल के सैयाँ । जल्दी बिहान मतऽ होइहा गोसइयाँ ॥)    (कसोमि॰64.26)
913    तरहत्थी (ऊ करवट बदललक । ओढ़ना खाट से कम चउड़ा । लाजो के देह बाहर भे गेल, पीठ उघार । बामा हाथ से पीठ के ओढ़ना चाँत के कर जोड़ल तरहत्थी दुन्नू जाँघ तर लेके सूत गेल । कउआ डक गेल । माय सउँसे घर झरूआ देके बरतन-वासन करऽ लगल ।; अंजू भिजुन कल्हइ अपन मुट्ठी कसके बान्हलक अउ खोल के देखइलक हल - देखहीं अंजू, हमर देहा में खून आ रहले हे कि नञ् ! अंजू ओकर तरहत्थी अपन हाथ में लेके गौर से देखइत बोलल - खाहीं-पीहीं ने, थोड़के दिन में चितरा जइम्हीं ... चकुना । समली के हँसी आ गेल ।)    (कसोमि॰47.3; 59.16)
914    तरिआनी (पोखन अपन मन के कड़ा कर लेलक । सोचइत-सोचइत बरिआत आवे दिन के सपना में खो गेल - पचास ने सो ! चार साँझ के पक्की-कच्ची । दस घर के गोतिया आउ पनरह-बीस नेउतहारी । पूड़ी पर एगो मिठाय जरूरे । पिलाव बुनिया किफायत पड़त । अगुआनी ले ओकरे लड्डू बान्ह देत । दही-तरकारी तऽ तरिआनी से आ जात ।)    (कसोमि॰62.26)
915    तरेरा (= सतह) (बुदबुदाल - साँझ के नहा लेम पैन में । पेन्ह लेम दसहरवेवला अंगा-पैंट । गुडुओ के साथ ले लेम । ओने बासो टुट्टल कड़ी के जगह बाँस के जरंडा देके चाँच बिछा रहल हल । पुरनका चाँच के बीच-बीच में नइका फट्ठी देके नेवारी के तरेरा देलक आउ मुनमा के खपड़ा चढ़वइ ले कहलक ।)    (कसोमि॰93.17)
916    तलमलाना (सुकरी के माथा पर भीम सिंह मोटरी सह देलन । आगू-आगू सुकरी, पीछू-पीछू एगो लड़का । मोटरी कुछ भरगर हल, माथा तलमलाल ।)    (कसोमि॰36.16)
917    तलाय (= तालाब) (लाजो के ढेर रात तक नीन नञ् आल । ऊ मने-मन छगुनइत रहल - काड ... चरखा ... रुइया ... नेयार ... सजावट ... माय के बेमारी ... भइया के बेरोजगारी ... बाउ के खस्ता हाल ... बड़की दी आउ जीजा जी के बिगड़इत रिस्ता ... करजा के भार से चँपइत बाउ ... करजदार के गुड़की । ओकरा लगल कि ई सब मिल के एगो तलाय बन गेल हे ।; पोखन तलाय पर से नहइले-सोनइले आल आउ पनपिआय करके गोतिया सब के रस्ता देखऽ लगल ।; चारो अनाज अलग-अलग लुग्गा में बान्हलक आउ खँचिया में सरिया के माथा पर उठावइत बोलल, "चल....हम तलाय पर से आवऽ हिअउ।")    (कसोमि॰46.11; 63.18; 120.20)
918    तलुक (= तब तक) (धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । ..." बुढ़वा दने देख के - "एजा कि घुकरी मारले हें । सुलगो देहीं । जो ने बारा तर ... तापिहें तलुक ।")    (कसोमि॰13.4)
919    तहाल (~ चद्दर) (पलट के असेसर दा देखऽ हथ तऽ रजौलीवला बंगला पर चढ़ रहला हे । साफ धोती आउ घोड़वा रंग के ऊनी के कुरता, कंधा पर उनिए के तहाल चद्दर, एक हाथ में जूट के झोला आउ दोसर में बगुली छेंड़ी । बुतरू-बानर अनजान आदमी के देख अकचका गेल । ओकर खेलनइ बंद हो गेल ।; बिछौना बिछ गेल । मैल-कुचैल तोसक पर रंग उड़ल चद्दर । ओइसने तकिया आउ तहाल , तेल पीअल रजाय जेकर रुइया जगह-जगह से टूट के गुलठिया गेल हे ।)    (कसोमि॰69.11, 25)
920    तहिअउका (= तहिया वाला; उस दिन का) (ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल । दूध औंटे में छोलनी चलइत रहे के चाही, नञ् तऽ सब माल छाली में जमा हो जाहे । छोलनी चलला से माल मिलइत गेलो, दूध औंटाइत गेलो । ओकर नाक में खर औंटल दूध के गंध भर गेल । ऊ कस के सोंवासा लेलक आउ खाय लगल । ओकर तहिअउका भोज सकार भे गेल ।)    (कसोमि॰22.5)
921    तहिना (= तहिया; उस समय) (तहिना छिकनी चिकनी हल । चिक्को ... कमासुत । खेत छोड़ऽ हल तऽ खोंइछा भर साग तोड़ के रान्हो हल । माँड़ के झोर, ललका भात, लोइया भर साग खा के डंफ ।)    (कसोमि॰14.25)
922    तहिया (= तहिना; उस समय) (गारो के पुरान दिन याद आवे लगल । माथा पर दस-दस गाही भरल धान के बोझा बान्ह के दिनोरा लावऽ हल । भर जाड़ा मौज । तहिया छिकनी चिकनी हल । केकर मजाल कि आँख उठा दे मेहरारू पर ! आज तऽ गाम भर के खेलउनियाँ बन गेल ।; किसुन के याद पड़ल - तहिया बथान के रस्ता पर खड़ा सोच रहल हल - कोय तऽ टोके । नञ् कुछ सूझल तऽ नीम पर चढ़ के दतमन तोड़ऽ लगल ।; कटोरा के दूध-लिट्टी मिलके सच में परसाद बन गेल । अँगुरी चाटइत किसना सोचलक - गाम, गामे हे । एतना घुमलूँ, एतना कमैलूँ-धमैलूँ, बकि ई सवाद के खाना कहईं मिलल ? ओकरा फिन याद पड़ल - तहिया अइँटा के चूल्हा पर दस-दस गो कड़ाह में दूध औंटाल हल ।)    (कसोमि॰14.22; 21.11, 27)
923    तहियाना (सुकरी सब के देख रहल हे बकि ओकरा कोय नञ् । ऊ बढ़ल जाहे - सब्जी तौला रहल हे, ढोवा रहल हे, पैसा गिना रहल हे, नोट तहिया रहल हे ।)    (कसोमि॰38.7)
924    तहिये (= उसी दिन) (पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे । तहिये संकल्प कइलका - जोरू-जमीन जोर के आउ लिखा-पढ़ी करके बन्नुक के लैसेंस बनवा लेलन ।)    (कसोमि॰29.3)
925    तहूँ (= तोहूँ, तूहूँ; तुम भी) (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?")    (कसोमि॰83.9)
926    ताय (- अमलेटवा खाहीं ने । ... - तोरा बनबइ ले आवऽ हउ ? - अंडवा मँगाहीं ने, बना देबउ । एकरा बनाबइ में कि मेहनत हइ । फोड़ के निम्मक-पियाज मिलइलें आउ भुटनी सन तेल दे के ताय पर ढार देलें, छन कइलकउ आउ तैयार ।; बिठला घुन्नी भर लोइया के पाछिल टिकरी ताय पर रख के रोटी गिनऽ लगल ।; बिठला रोटी गमछी में लपेट के बटुरी में रखलक अउ सिक्का पर टांग के नीम तर सुस्ताय ले चलल जा हल कि नजर चुल्हा तर धइल ताय दने चल गेल । पाछिल टिकरी धुआँ रहल हल । सुरमी कहियो ने पाछिल टिकरी केकरो खाय ले दे ।)    (कसोमि॰57.16; 79.1, 11)
927    तारना (बुलकनी धथपथ आल आउ पहिले गेहुम के कठौती में फूलइ ले देलक। चूल्हा जोर के बूँट, मसुरी आउ केराय के तारऽ लगल। तितकी अभी लउट के नञ् आल हल। रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?"; मँझली समझ गेल। बिदकल घोड़ी सम्हरेवली नञ् हे। मुदा अब होवे तऽ की। तारल अनाज भुंजइ बिना खराब भे जात। आग लगे अइसन परव-तेवहार के।)    (कसोमि॰121.3; 123.9)
928    तारना-तूरना (चारो अनाज तार-तूर के बरकइ ले छोड़ देलक आउ अदहन चढ़इलक। खिचड़ी बनते-बनते रनियां आ जात। आउ ठीक खिचड़ी डभकते रनियां तलाय पर से आ गेल।)    (कसोमि॰121.11)
929    तितकी (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । ..")    (कसोमि॰11.15)
930    तिरकिन (~ भीड़) (मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे ।; सुकरी चौपट्टी नजर घुमइलक । ताड़ के पेड़ पुरबइया से खड़खड़ा रहल हल । थोड़के-थोड़के दूर पर टिवेल के केबिन, बिजली तार के जाल । तिरकिन आदमी अपन-अपन काम में विसित ।; पहिले रसलिल्ला होवऽ हल, मुदा आजकल नाटक होवऽ हे । आज 'सवा सेर गेहूँ' होबत । लाजो के भाय भी पाट लेलक हे । तिरकिन भीड़ ।; अहरा पर तिरकिन आदमी । बासो टेंडुआ टप गेल । - पार होलें बेटा, पिच्छुल हउ । - हइयाँऽऽ ... । मुनमा टप गेल ।)    (कसोमि॰36.22; 38.5; 52.19; 95.14)
931    तिलकाही (ऊ फेनो सोचऽ लगल - हमर बेटी तिलकाही नञ् सही, बेंचुआ भी तऽ नञ् कहावत ! कुल-खनदान पर गोलटाही-तेपटाही के भी तऽ कलंक नञ् ने लगत । बेटा बंड तऽ बंडे सही । से अभी के देखलक हे । पढ़ाय कोय कीमत पर नञ् छोड़ाम ।)    (कसोमि॰62.16)
932    तिलबा (याद पड़ल - करूआ दोकान । अगहन में तिलबा, तिलकुट, पेड़ा अर रखतो, गजरा-मुराय भाव में धान लेतो, लूट ... । बड़की सूप में धान उठइलकी आउ लपकल दोकान से दू गो तिलकुट आउ दालमोठ ले अइली ।)    (कसोमि॰74.26)
933    तिलसकरात (= मकर संक्रांति) (कल तिलसकरात हे । चिकनी बजार से पाव भर मसका ले आल हल । अझका मोटरी खोलइत सोचलक - चूड़ा तऽ गामे से माँग लेम । रह गेल दही । के पूछे घोरही ! गल्ली-गल्ली तऽ बेचले चलऽ हे । नञ होत तऽ कीन लेम ।; "आझे भर चिक्को ... । कल से तऽ बिलउक वला कंबल होइए जात ।" गारो सिसिआइत बोलल । - "काहे नञ खइलहो ?"  गारो चुप । ओकरा नञ ओरिआल कि काहे ? - "भोरे बान्ह के दे देवो । कखने ने कखने लउटवऽ । साल भर के परब । सरकार के बाँटहो के हलइ तऽ तिलसकरतिए के दिन ?"; हमरा ले की लइमहीं, माय ? गूँड़ खइला कते दिन भे गेलइ ! तिलसकरतिए में ने लैलहीं हल ?)    (कसोमि॰13.9; 17.10; 33.18)
934    तिलौरी (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।)    (कसोमि॰105.10)
935    तिसौरी (= तिसिऔरी) (निरेठ तऽ बड़का ले छोड़ दे बकि जुठवन में बुतरुअन लरक जाय । जुट्ठा में कभी-कभी बढ़ियाँ चीज रहे - भुंजिया, बरी, तरकारी, तिलौरी, तिसौरी, चीप, अँचार के आँठी, सलाद के टुकरी ।)    (कसोमि॰105.10)
936    तीअन-तिलौरी (कत्ते बेरी चलित्तर बाबू अपन मेहरारू के समझइलका हे - बुतरू के पेट माय के खान-पान पर निर्भर करऽ हे । तों खट्टा-तीता छोड़ दऽ ... तऽ देखहो, एकर पेट ठीक होवऽ हइ कि नञ् । बकि असमाँवली के दूध-घी, तीअन-तिलौरी दे, चाहे मत दे, अँचार-मिचाय जरूर चाही । मास्टर साहब आजिज हो गेला हे मेहरारू के आदत से - जो, मर गन, हमरा की लेमें, बकि बाला-बचवा पर ध्यान दऽ । बुतरू के टैम पर दूध पिलावे के चाही । हियाँ पचल-उचल कुछ नञ् आउ मुँह में जा ठुँसले, हुँ ।)    (कसोमि॰99.27)
937    तीत (= तिक्त, तीता, कड़वा) (बेटा-पुतहू गुदानवे नञ् कइलक तऽ तेसर के अदारत हल ... अहुआ-पहुआ ! दुन्नू कहाँ मरल-जरल, के जाने । बिठला के मन तीत भे गेल । ऊ मुँह में चोखा लेलक अउ कस के एक घूँट पी के ऊपर ताकऽ लगल । रस-रस डेढ़ रोटी निस्तर गेल हल ।; परसुओं माहटर साहब किताब खातिर सटिअइलका हल । ओकर पीठ में नोचनी बरल । हाथ उलट के नोंचऽ लगल तऽ ओकर छाती तन गेल । ऊ तनि चउआ पर आगू झुक गेल । माहटर साहब के सट्टी खाके अइसइँ अइँठ गेल हल - आँख मुनले, मुँह तीत कइले, जइसे बुटिया मिचाय के कोर मारलक ... लोरे-झोरे ।)    (कसोमि॰84.23; 88.15)
938    तीतल-भींजल (आउ तहिया गाड़ी ठीक साढ़े चार बजे आल । सिरारी पहुँचते-पहुँचते साँझ । फूही टिपकऽ लगल हल । दुन्नू रुपइया के मोटरी चालो दा के दोकान में रख के तीतल-भींजल घर पहुँचल ।)    (कसोमि॰51.10)
939    तीसम (~ दिन = तीसो दिन) (ऊ बकरी तऽ सुकरी के तार देलक । हर घुरी तीन बच्चा ... चार बच्चा । पाठा सब के खस्सी बना दे आउ बकरीद में गया जाके भंजा ले । ओहे पैसा से सुकरी भुसुंडा जाके गाय खरीदलक हल । तीसम दिन भोर वली डिजिया से गया जाके नपावे ।; ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । लमहर जोत हे ... काम के कमी नञ् होत । सच्चोक मउज हल । तीसम दिन दुइयो के काम ।)    (कसोमि॰34.22; 79.15)
940    तुरी (= मर्तबा, दफा, बार) (एक्के तुरी नो हाथ, नो मुँह । कल के घानी, देले जो सुप् ... सुप् । पाँचो अँगुरी जोर के किसुन मुँह में लेलक अउ सुप् निगल गेल ।; एक तुरी बीच में अइला तऽ देखऽ हथ, उनकर बँगला बंडन के अड्डा बनल हे । खेत घूमे निकलला तऽ देखऽ हथ, खेत कटल हे ।; एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल । साड़ी के अँचरा से लदफदाल सुकरी बकरी खींचले बाहर भेल । ऊ अपन अंचरे से सेसपंज हल, नञ् तऽ कत्ते तुरी मोरहर पार कइलक हे धाध में ।)    (कसोमि॰22.27; 26.10; 34.18)
941    तूरी (दे॰ तुरी; मर्तबा, बार) (एक तूरी जरी सा दूध उधिआल कि पन्नू चा डाँटलका  - उधिआल दूध पानी । माल नीचे, छिछियायन गंध नाक में । मिलतो कि सोपाड़ा ?)    (कसोमि॰22.5)
942    तोड़नी (एगो चौखुट मिचाय के खेत में दू गो तोड़नी लगल हल । खेत पलौटगर । लाल मिचाय ... हरियर साड़ी पर ललका बुट्टी ।)    (कसोमि॰38.12)
943    तोपना (= ढँकना, छिपाना) (दूध खौलऽ लगल । कपड़ा से पकड़ के कटोरा उतारलक अउ डमारा के आग चूर के लिट्टी बनिआल आग से तोप देलक ।; थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।)    (कसोमि॰20.16; 23.20)
944    थउआ (लाजो घर पहुँच के देखऽ हे कि माय थउआ हे । दम उप्पर चढ़ गेल हे । लाजो अँचरा के खूँट से एगो बेटनिसोल निकाल के पहिले माय के खिलइलक आउ दू टिप्पी फैन्सीडील पिला के पीठ ससारऽ लगल ।)    (कसोमि॰51.11)
945    थक्कल (= थका हुआ) (बासो खाली हाथ बाहर निकाले हे आउ सब्बल रख के हाथ झारलक । ऊ उठ जाहे थक्कल । मन-मन भर के गोड़ रस-रस उठावऽ हे आउ भंसा दने चल जाहे ।)    (कसोमि॰91.12)
946    थडकिलासी (फुफ्फा जइसे नस्ता करके उठला आउ अँगना में उतर के उतरवारी ओसरा होके डेवढ़ी पहुँचला कि उनकर कान में आवाज आल - फेंक दो, थडकिलासी समान बच्चो को देता है, बीमारी का घर ।)    (कसोमि॰75.15)
947    थम्हाना (= पकड़ाना; धराना; सौंपना) (ईहे बीच उनखा याद आल, बुतरून के लेमनचूस धइलूँ हल । जेभी से निकाल के बड़की के हाथ में पुड़िया थम्हाबइत बोलला - "बुतरूअन के दे देथिन ।" बड़की के कोय नञ् हल । दुन्नू बेटी ससुरार बसऽ हल । मंझली आउ छोटकी दने जा-जा बुतरू-बानर के हाथ में दे अइली - फुफ्फा लइलथुन हे ।)    (कसोमि॰75.8)
948    थरपारकर (- खुनियाँ नञ्, मनसूगर कहो । बैल अइसने चाही, जे गोंड़ी पर फाँय-फाँय करइत रहे । नेटुआ नियन नाचल नञ् तऽ बैल की । सौखी लाठी के हाथ बदलइत बोलल । - नसलबो हरियाना नञ् हइ । दोगलवा थरपारकर बुझा हइ । देखऽ हीं नञ्, लभिया तनि लटकल हइ । - एकरा से कि, खेसड़िया खा दहो, हट्टी चढ़ा देबइ ।)    (कसोमि॰68.12)
949    थरिया (= थारी + 'आ' प्रत्यय) (बुलकनी के ध्यान गेल - तितकी ? ऊ एने-ओने ताकऽ लगल तऽ देखऽ हे, घुनलगउनी महुआ चून रहल हे । कस के हँकइलक - "तितकीऽऽऽ ! कहाँ मर गेलहीं गे ! चुटकी भर महुआ से पेट भरतउ ? गिल्ले घरी आगुए थरिया लेके दमदाखिल होमें ... चल !")    (कसोमि॰119.20)
950    थरेसर (= थ्रैशर) (बुलकनी के अउसो नइहरे से माय कूट-पीस के भाय पहमा भेजवा दे हल । बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो ।)    (कसोमि॰117.6)
951    थारी (= थाली) (फलदान में जाय ले पाँच गो भाय-गोतिया के कल्हइ समद देलक हे । सरेजाम भी भे गेल हल । मुनिया-माय काँसा के थारी में फल-फूल, गड़ी-छोहाड़ा के साथ कसेली-अच्छत सान के लाल कपड़ा में बान्ह देलक हल । कपड़ा के सेट अलग एगो कपड़ा में सरिआवल धैल हल ।)    (कसोमि॰63.15)
952    थिरी (= थ्री; तीन) (उधार-पइँचा से बरतन अउ लटखुट के इंतजाम हो गेल हे । रह गेल कपड़ा आउ लड़का के पोसाक । छौंड़ा कहऽ हल थिरी पीस । पाँच सो सिलाय ।)    (कसोमि॰54.18)
953    थुक्कम-फजीहत (ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो । हियाँ खाली पसिंजरे गाड़ी रुकऽ हइ । तिरकिन भीड़ । बिना टिक्कस के जात्री । गाड़ी चढ़नइ एगो जुद्ध हे । पहिले चढ़े-उतरे वलन के बीच में ठेलाठेली । चढ़ गेला तऽ गोड़ पर गोड़ । ढकेला-ढकेली, थुक्कम-फजीहत, कभी तऽ मारामारी के नौगत ।)    (कसोमि॰36.24)
954    थेग (= थेघ, थेघा; सहारे के लिए खड़ा किया गया खंभा या चाँड़) (एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।)    (कसोमि॰114.8)
955    थेथर (= सुन्न; उद्दंड; जिस पर समझाने-बुझाने या ताड़ने का कोई असर न हो) (अहल-बहल में चिकनी मन के ओझरावइत रहल । कखनउँ ओकर आँख तर सउँसे बजार नाँच जाय, जेकरा में लगे कि ऊ भागल जा रहल हे । गोड़ थेथर, कान सुन्न ।)    (कसोमि॰14.2)
956    थोका (= थोक्का) ("कहैंगा तब खिसिआयँगा तो नञ् ?" - "चोरी-डकैती कइलें होमे तऽ हमर मरल मुँह देखिहें ।" - "अरे, कमाया हैं रे .. बजार का नल्ली साफ किया ... दू सो रुपइया में ... तीन रात खट के ।" सुरमी के लगल जइसे नाली के थोका भर कादो कोय मुँह पर मार देलक हे - "डोम ... छी ... तूँ तऽ डोम हो गेलें । आक् थू ... !")    (कसोमि॰87.5)
957    थोड़के (~ दूर पर = थोड़ी ही दूरी पर) (थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।)    (कसोमि॰23.18)
958    दइया (" ... जाय देहो बेचारी के ... साल भर के मेला.....के देखलक हे। तूँ नञ् चल रहलीं हें।" - "रंग में भंग भे गेलो दइयो। मन तऽ छोट भे गेलो....की जइयो। तूँ जाइये रहली हे तऽ दुन्नू के साथ कर लीहऽ।")    (कसोमि॰124.11)
959    दढ़ (= दृढ़, स्थिर; दग्ध, आग में डाहा हुआ; दोषरहित; जिसकी आँखें ठीक हों) (मुनमा खपड़ा छोड़ के बाँस के फट्ठी उठइलक आउ बाऊ के देके फेनो मलवा से दढ़ खपड़ा बेकछिआवऽ लगल ।; मुनमा दढ़ खपड़ा चूनइ में लग गेल । टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल ।)    (कसोमि॰88.10; 89.2)
960    दतमन (= दतवन) (किसुन के याद पड़ल - तहिया बथान के रस्ता पर खड़ा सोच रहल हल - कोय तऽ टोके । नञ् कुछ सूझल तऽ नीम पर चढ़ के दतमन तोड़ऽ लगल । एतने में तीन-चार आदमी दूध के टीना लेले गाछ तर पहुँचल । भुइयाँ में गिरल दतमन देख के साहो-चा पुछलका - के दतमन तोड़ऽ हऽ ?; चल-चल ! दस-बीस गो दतमन लेले अइहें बथान पर । आज खरिहान उठाय हइ रे ! चक्खी-पक्खी चलतइ ।)    (कसोमि॰21.12, 14, 21)
961    दनदनाना (बुलकनी बूझलक । ओकरा ई बात बान निअन करेजा में लगल । ऊ अपन दुन्नू बेटी के लेले दनदनाल खरिहान दने सोझिया गेल ।)    (कसोमि॰119.12)
962    दनी (= दबर; से) (ओकर जीह के मसीन चलऽ लगल, "सब दिन से जास्ती । भुक् दनी झरकल सूरूज उगतो । जनु ओकरो गतसिहरी लगल रहऽ हइ कि कुहरा के गेनरा ओढ़ के घुकुर जइतो । पाला पड़ो हइ । लगो हइ कि कोय रात-दिन पानी छींटऽ हइ ।"; नीम पर से एगो मैना फुर्र दनी उड़ल । बिठला के मन मैना पर गेल ।)    (कसोमि॰13.24; 77.7)
963    दने (= दन्ने; तरफ, ओर) (ऊ गुड़क-गुड़क के बालू सरिअइलक आउ माथा दने तनि ऊँच कर देलक । बालू के बिछौना, बालू के तकिया । अलमुनियाँ के लोटा से नद्दी के चुभदी से फेर पानी लइलक आउ दूध में लिट्टी गूड़ऽ लगल । दूध, रावा आउ लिट्टी मिल के सीतल परसाद हो गेल ।; किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।)    (कसोमि॰20.22; 22.8, 10)
964    दपदप (लाजो एक टक ढिबरी के टेंभी देख रहल हे । ओकरा लगल टेंभी ओकर गोझनौटा धर लेलक हे ... धायँ-धायँ । अगिन परीक्षा । लाजो सीता भे गेल । लाजो के माँग के सेनुर दीया के टेंभी भे गेल - दपदप ! लाजो उठके भित्तर चल गेल ।)    (कसोमि॰52.5)
965    दफा (सरवन चा के खरिहान पुरवारी दफा में हल । एजा इयारी में अइला हल । पारो चा उनकर लंगोटिया हलन ।; झोला-झोली होते-होते मुनमा अंगा-पैंट पेन्ह के तइयार भे गेल । गुडुआ के घर पुरवारी दफा में हल । ओकर घर पहुँचल तऽ ऊ अभी नहइवो नञ् कइलक हल ।)    (कसोमि॰25.13; 94.25)
966    दमदाखिल (बुलकनी के ध्यान गेल - तितकी ? ऊ एने-ओने ताकऽ लगल तऽ देखऽ हे, घुनलगउनी महुआ चून रहल हे । कस के हँकइलक - "तितकीऽऽऽ ! कहाँ मर गेलहीं गे ! चुटकी भर महुआ से पेट भरतउ ? गिल्ले घरी आगुए थरिया लेके दमदाखिल होमें ... चल !")    (कसोमि॰119.20)
967    दमाद (= दामाद) (सबसे पहिले चौवालीस करइ के चाही । सार सब दिन बाहर रहलन अउ मरे घरी कब्जा करे चललन हे । - दमदा भरोसे ! बेटिया के रखतउ ।; बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।)    (कसोमि॰28.26; 74.5)
968    दमाही (= दौनी) (थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।; बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो । आजकल ने गाँव में बैल रहल ने दमाही । खेती टरेक्टर पर दारोमदार ।)    (कसोमि॰23.20; 117.7)
969    दरबज्जा (= दरवाजा) (दोसर दिन से सब देखलक कि मुनियाँ के दरबज्जा पर साँझ-सुबह पढ़ाय के आउ दुपहर में सिलाय-फड़ाय के गुरपिंडा खुल गेल ।)    (कसोमि॰67.23)
970    दरबर (~ मारना) ("चल-चल ! दस-बीस गो दतमन लेले अइहें बथान पर । आज खरिहान उठाय हइ रे ! चक्खी-पक्खी चलतइ ।" - "बेस, बढ़ऽ ने, आवऽ हियो" कहके किसना हाली-हाली छड़क्का तोड़ऽ लगल अउ उतर के दरबर मारले बथान पर पहुँच गेल ।; ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी ।; भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! ... नगेसरा के नस तनतनाल । किछार धइले मारलक दरबर । ढेर आगू जा के मारलक छलांग । एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल ।; खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक । गाड़ी काशीचक टिसन रुक गेल । हदहदा के सब उतरल आउ आगुए से भंडार रोड धर के मारलक दरबर । भंडार में सब काम लैन से होवऽ हे ।)    (कसोमि॰21.24; 24.24; 34.14; 49.24)
971    दरमानी (= दरवान का कार्य) (बमेसरा घरे पर खिचड़ीफरोस के दोकान दे रहल हल आउ परमेसरा मोदीफैड में दरमानी करऽ हल । दुन्नू के मेहरारू गाँव में हवेली कमा हल ।)    (कसोमि॰105.6)
972    दरी (= गड्ढा) (बासो पाया के जगह पर आम के खंभा गड़इ ले दरी खनऽ लगल । पाँच गो आम के पेड़ जोगइले हल ।; बासो दरी खन के खंभा खड़ा कइलक आउ बोलल - फुटलका खपड़वा खँचीवा में लइहें तो ... अइँटा के टूट रहते हल । टीवेल के अइँटा तऽ सब ढो लेलकइ । बासो डाँटलक हल मुनमा के - मत लइहें, ... ठीकेदरवा केस कर देलकइ हे । गाँव में इनकोरी होतइ ।)    (कसोमि॰89.24; 90.6)
973    दरोजा (= दरवाजा) (भींड़ उनखर बरामदा पर चढ़ गेल । तीन-चार गो अदमी केवाड़ पीटऽ लगल । अवाज सुन के ऊ बेतिहास नीचे उतरला आउ भित्तर से बन्नूक निकाल के दरोजा दने दौड़ला ।; मुनमा कुछ नञ् समझऽ हे । ऊ भी पीछू-पीछू भंसा के दरोजा पर आड़ लेके छिप गेल । बाऊ चुल्हा भिर । माय हाथ पर लेके मकइ के रोटी ठोक रहल हे ।)    (कसोमि॰30.22; 91.14)
974    दलकी (= ठंढ के चलते दलदली या कँपकँपाहट) (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल । दलकी मेटल तऽ कान पर के बुताल बीड़ी निकाल के तितकी से सुलगइलक अउ चुटकी से पकड़ के एक कस खींचइत फेनो रवऽ लगल - "केकर मुँह देख के उठलूँ हल कि पहिल चाह उझला गेल । ..")    (कसोमि॰11.14)
975    दलदल (~ काँपना) (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।")    (कसोमि॰11.1)
976    दलान (= दालान) (भीड़ हरगौरी बाबू के दलान पर । हरगौरी बाबू के जाड़ा में भी पसेना छूट गेल । सहम गेलन ... धकधक्की । समझते देर नञ् लगल । सब माल भीड़ के लौटा देलन ।)    (कसोमि॰56.4)
977    दलिद्दर (= दरिद्र) (बड़की उठके भित्तर चलली बिछौना निकालइ लेल । मेहमान अँगना में बिछल खटिया पर खरहाने में बैठ गेला । - खरहाना में दमाद बइठऽ हइ तऽ ससुरार दलिद्दर होवऽ हइ, गोड़ लगिअन । छोटकी सरहज गोदैल के ऊपर उचकइते बोलल आउ ढिबरी मेहमान के आगू वला मोखा पर धर देलकी । मेहमान संकोच में उठ गेला ।)    (कसोमि॰74.5)
978    दलिहन (= दलहन) (गलबात चल रहल हल - ... ईमसाल धरती फट के उपजत । दू साल के मारा धोवा जात ! - धोवा जात कि एगो गोहमे से ! बूँट-राहड़ के तऽ छेड़ी मार देलक । मसुरी पाला में जर के भुंजा ! खेसाड़ी-केराय लतिहन में लाही । - दलिहन पर दैवी डाँग, गहूम के बाजी ।)    (कसोमि॰61.14)
979    दवा-उबेर (रस्ता में मकइ के खेत देखलका तऽ ओहे हाल । सगरो दवा-उबेर । उनकर माथा घूम गेल । ऊ पागल नियन खेत के अहरी पर चीखऽ-चिल्लाय लगला - हाल-हाल ... हाल-हाल । उनकर अवाजे नञ् रुक रहल हल ।; ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा-उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।)    (कसोमि॰26.14; 80.4)
980    दवाय (= दवाई, दवा) (- दवाय दहो तो, चिट्ठा बढ़ावइत लाजो बोलल, कत्ते लगतइ पैसवा ? कागज पर जोड़ के दोकनदार बोलल - दस पच्चास ।; दवाय लेके दुन्नू नीमतल्ला तक गेल । बाले दोकान से तितकी लोहा के डब्बू कीनलक - काशीचक में सौदा ठीक भाव मिलतउ । दोसर बजार में तऽ पैसवा छीनऽ हइ । लाजो बोलल ।)    (कसोमि॰50.12)
981    दवाय-बीरो (मास्टर साहब के गोस्सा सथा गेल । उनखर ध्यान बरखा दने चल गेल । जलमे से ओकर पेट खराब रहऽ हइ । दवाय-बीरो से लेके ओटका-टोटका कर-कराके थक गेला मुदा ... ।)    (कसोमि॰99.22)
982    दहना (= पानी की सतह पर तैरना; धारा के साथ बहना या आगे की ओर जाना; उतराना) (सुकरी उड़नपरी सन यह ले, ओह ले, ... छपाक् । बकरी पकड़ा गेल, मुदा तेज धार सुकरी के बहा ले चलल । भीड़ हल्ला कइलक - डुबलइ ... जा ! दौड़हीं होऽऽऽ ... सुकरी भसलइ ! - बकरी के लोभ में दहलइ गुरूआ वली !)    (कसोमि॰34.9)
983    दहल-भसल (ओकरा इयाद पड़ल - मोरहर में कभी-कभार दहल-भसल लकड़ी भी आ जाहे । सुकरी एक तुरी एकरे से एगो बकरी छानलक हल । तहिया सुकरी छटछट हल । दूरे से देखलक आउ दउड़ पड़ल । ... सुकरी उड़नपरी सन यह ले, ओह ले, ... छपाक् । बकरी पकड़ा गेल ।)    (कसोमि॰34.1)
984    दहाना (कहला पर कहलको 'दोसर खोज लऽ ।' लाल झंडा के हावा एकरो अर लग गेलइ मेहमान ! दू सेर कच्ची से कीलो पर पहुँचलइ । किसान के मारा तऽ डाँड़ा तोड़ले रहऽ हइ । एक साल उपजलो तऽ चार साल सुखाड़ । अबरिए देखहो ने, पहिले तऽ दहा देलको, अंत में एक पानी ले धान गब्भे में रह गेलो । लाठा-कूँड़ी से कते पटतइ । सब खंधा में टीवेल थोड़वे हो ।)    (कसोमि॰73.1)
985    दहिना (= दाहिना) (तितकी चरखा निकाल के लाजो के हाथ में देलक आउ ओकर पीछू में जाके बैठ गेल । तितकी लाजो के दहिना हाथ से कील आउ बामा से पूनी पकड़ के रस-रस घुमवऽ लगल । लाजो के बामा हाथ उठइत-उठइत अपन ऊँचाई भर तन गेल ।)    (कसोमि॰45.12)
986    दहिना-बामा (चलित्तर बाबू सब्द लिखावऽ हथ । लड़कन सब हरस्व-दीर्घ में ढेर गलती करतो । इसकूल में सब किलास के लड़कन से सुरती-लिपि लिखइथुन, बकि कुत्ता के पुच्छी नियन फेन टेढ़ के टेढ़े । दहिना-बामा तऽ बैलो बूझऽ हे, बकि आजकल के छातर तऽ एकरा पर ध्याने नञ् देतो ।)    (कसोमि॰103.11)
987    दहिने-बामे (- बैला मरखंड हउ, करगी हो जइहें, ... हाँ ... । एते भोरे कहाँ दौड़ल जाहीं ? जा हिअउ बप्पा के समदबउ । - समली घर जा हिअइ । दहिने-बामे बज-बज गली में रखल अईटा पर गोड़ रखके टपइत अंजू बोलल ।)    (कसोमि॰59.23)
988    दही-घोर (ऊ साल नया किसान कइलक हल, सोंच के कि पइसगर हे । ... बुतरू-बानर ले तऽ जुट्ठे-कुट्ठे से अही-बही हो जाय । कजाइये घर के चुल्हा जरे । रोज चिकन-चुरबुर ऊपर से लाय-मिठाय, दही-घोर, उरिया-पुरिया के आल से लेके बासी-कुसी, छनउआ-मखउआ, अकौड़ी-पकौड़ी, अरी-बरी, ऊआ-पूआ ... । के पूछे ! अड़ोस-पड़ोस तक अघाल रहे ।)    (कसोमि॰79.18)
989    दाय-माय (लाजो के पिछलउका दिन याद आ गेल - दिवा लगन हल । जेठ के रौदा । ईहे अमरूद के छाहुर में मँड़वा छराल हल । मोटरी बनल लाजो के पीछू से लोधावली धइले हल, तेकर पीछू दाय-माय ... गाँव भर के जन्नी-मरद बाउ आउ पंडी जी ... बेदी के धुइयाँ ।; मुनिया-माय दुहारी पर आके चले घरी दही-मछली बोल गेली । टोला-पड़ोस के दाय-माय दिन भर आवइत-जाइत रहली - नीक-सुख सुगनी के निभ जाय । घर-वर संजोग हइ दइया !)    (कसोमि॰46.20; 63.27)
990    दारोमदार (= निर्भरता) (ई साल हथिया पर दारोमदार । आते आदर ना दियो, जाते दियो न हस्त । हथिया सुतर जाय ... बस ! नञ् तऽ भिट्ठो लगना मोहाल । सौंसे खन्हा दवा उबेर ... गाय-गोरू के खरूहट । काँटा नियन गड़तो भुक्-भुक् ।; बेचारी के ईमसाल तऽ रबिया के ढांगा खरिहाने में धइल हल । थरेसर के फुरसत होवे तब तो । आजकल ने गाँव में बैल रहल ने दमाही । खेती टरेक्टर पर दारोमदार ।)    (कसोमि॰80.2; 117.8)
991    दिन-दुनिया (बुढ़िया दलदल कंपइत अपन मड़की में निहुर के हेलल कि बुढ़वा के नञ देख के भुनभुनाय लगल - "गुमन ठेहउना, फेनो टटरी खुल्ले छोड़ के सफ्फड़ में निकल गेल । दिन-दुनिया खराब ...।"; रुक-रुक के माय बोलल - बेटी, मत कनउँ जो । हम्मर की असरा ! कखने ... । फेन एकल्ले गाड़ी पर जाहें ... दिन-दुनिया खराब ।)    (कसोमि॰11.3; 51.15)
992    दिना (= दिन) (अलमुनियाँ के कटोरा आग पर रख देलक । फेन सोचलक - बिना खौलले दूध में सवाद नञ आत । ढेर दिना पर तऽ लिट्टी-दूध खाम । तनी देरिए से भेत । से से बचल डमारा जोड़ के छोड़ देलक ।; तहिया तीन दिना पर हिंछा भर खइलक हल किसना । दूध-लिट्टी रावा । छक के सोवो आदमी के भोज । कठौती पर कठौती । छप्-छप् दूध । लुल्हुआ डूब जाय - सड़ाक् ... सपाक् ... सपाक् ... सपाक् ।)    (कसोमि॰20.13; 22.23)
993    दिनियाना (अदरा खीरे के ! खीर नञ् तऽ अदरा की ? अदरा में माय बेटा के खीर खिलावे हे । नञ् जुरे तऽ घोंघा में भी बना के खिलावऽ हे, सितुआ में परस के ! ऊ माय की, जे अदरो में अपन बेटा के खीर नञ् खिलइलका ! हाय रे अदिन ! हमर टोला-पड़ोस में अदरा बनइत देखऽ हे अउ दिनिया-दिनिया आवऽ हे । अँचरा खींच-खींच के कहऽ हे - हमरा घर कहिया अदरा होतइ ? - होतइ बेटा । - कहिया होतइ ? लखेसरा घर तऽ आझे हो रहलइ हे । - तोरा घर कल होतउ । - कल काहे ? अदरा आज हइ अउ ई कल बनइतइ ! आझे बनाव अदरा ।)    (कसोमि॰32.6)
994    दिनोरा (= दिनौरा; फसल काटने की मजदूरी, गुदार, दिनिहारी; प्रचलित रिवाज के अनुसार कटनी की बोझा-पाँजा में दी जाने वाली मजदूरी) ("देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।" - "तोर दिनोरवा वला पुंजिया से लहरइउ ?" )    (कसोमि॰14.20)
995    दिया (= से होकर, के रास्ते; के बारे में) (गाड़ी सीटी देलक । सुकरी ओहे हैंडिल में लटक गेल । रौंगे सैड में उतर के सुकरी रेलवी क्वाटर दिया रपरपाल खरखुरा दने बढ़ गेल । लैन के पत्थर कुच-कुच गड़े ।; याद पड़ल - बेटिया गूँड़ दिया कहलक हल । गूँड़ तऽ गामो में मिल जात ... चाउर ले लेम । दू मुट्ठी दे देम, रसिया तैयार, ऊपर से दू गो मड़वा ।; - ए मुनमा-माय, आज हाँक हइ । - ने चाउर हइ, ने मिट्ठा ! - परोरिया बेच ने दे, हो जइतउ । - के लेतइ ? झिंगा-बैंगन रहते हल तऽ बिकिओ जइते हल । घर-घर तऽ परोर हइ । - मुनमा दिया तारनि-घर परोरिया भेजा देहीं अउ ओकरे कह देहीं कि पाव-पाव भर दुन्नू चीजा माँग लेतइ ।; अइसीं जब नो बज गेल तऽ मेहरारू चौंका दिया पुछलकी । एक हँकार में ई कहियो नञ् उठला हे । मेहरारू चौंका भिजुन बइठल भुनभुनाइत रहती आउ बीच-बीच में आके पूछ लेती ।)    (कसोमि॰37.13, 17; 91.21; 103.25)
996    दियाँ (= दबर, दनी; से) (टूटल फट्ठी पर दढ़ खपड़ा उठबइ ले जइसीं हाथ बढ़इलक कि फाँऽऽऽय ! साँप ! बोलइत मुनमा पीछू हट गेल । - कने ? काटबो कइलकउ ? धथफथाल बासो उतरल आउ डंटा लेके आगू बढ़ल । ऊ मुनमा के खींच के पीछू कर देलक । - ओज्जइ हउ ... सुच्चा । हमर हाथा पर ओकर भाफा छक् दियाँ लगलउ । एतबड़ गो । मुनमा अपने डिरील जइसन दुन्नू हाथ बामे-दहिने फैला देलक ।)    (कसोमि॰89.7)
997    दिसा-फरागत (रोज तऽ दिसा-फरागत लेल पींड दने जा हलूँ, मुदा आज कने से तो टीवेल दने निकल गेलूँ । भगवान के माया, संजोग देखहीं ... कुल्ली करइ ले जइसहीं निहुरलूँ कि अपेटर साहेब के बाजा घोंघिआल ... बिलौक में कम्बल ... कान खड़कल ।; चाह के अंतिम घूँट पीके चलित्तर बाबू उठला आउ डोल-डाल ले अहरा पर चल गेला । भादो के अहरा डब-डब ! अलंग पर हलफा पछाड़ खा रहल हल । एक्का-दुक्का आदमी दिसा-फरागत से निपट के जजा-तजा बइठल खेती के गलबात कर रहल हल ।)    (कसोमि॰12.11; 101.14)
998    दुआर (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !)    (कसोमि॰61.2)
999    दुआरी (पोखन के दुआरी, गाँव भर के चौपाल । भरले भादो, सुक्खले जेठ, दुआर रजगज । जाड़ा भर तऽ मत कहऽ ... घुरउर जुटल हे, गाँव के आदमी खेती-गिरहस्ती से लेके रजनेति, कुटनेति तक पर बहस कर रहल हे । भुनुर-भुनुर नञ्, गोदाल-गोदाल, बेरोक-टोक !; ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे । ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने ।)    (कसोमि॰61.1; 110.4)
1000    दुचित (= दुचिताह, दुचिताहा; उधेड़बुन में पड़ा, असमंजस में पड़ा) (काशीचक टीसन के लटफरेम ... सिरमिट के बेंच । बिठला दुचित करवट बदल रहल हे - बजार निसबद भेल कि नञ् ।)    (कसोमि॰81.13)
1001    दु-टकिया (एगो डर के आँधी अंदरे-अंदर उठल अउ ओकर मगज में समा गेल । फेनो ओकर आँख तर सुरमी, ढेना-ढेनी नाच गेल । रील बदलल । आँख तर नोट उड़ऽ लगल । एक-टकिया, दु-टकिया ... हरियर-हरियर ... सो-टकिया लमरी ।)    (कसोमि॰81.27)
1002    दुन्नू (= दोनों) (फेन भागल-भागल एहे गाम । चाच-चाची के तऽ फूटलो नजर नञ् सोहाय । ओकर नजर बचल-खुचल घर-घेरवारी पर हल । किसना के देख के दुन्नू के करेजा पर साँप लोटऽ लगल ।; ऊ भोरगरे बोझमा भिजुन बस पकड़ के नवादा गेला । परिचित भिजुन छुप के दुन्नू के पीछू फेकार लगा देलका । पता चलल एकर मकान पर दफा चौवालीस कर देलक हे ।)    (कसोमि॰22.21; 29.2)
1003    दुर (रात-दिन चरखा-लटेरन, रुइया-सूत । रात में ढिबरी नेस के काटऽ हल । एक दिन मुँह धोबइ घरी नाक में अँगुरी देलक तऽ अँगुरी कार भे गेल । लाजो घबराल - कौन रोग धर लेलक ! एक-दू दिन तऽ गोले रहल । हार-पार के माय भिजुन बो फोरलक । - दुर बेटी, अगे ढिबरिया के फुलिया हउ । कते बेरी कहऽ हिअउ कि रात में चरखा मत काट, आँख लोरइतउ । बकि मानलें !)    (कसोमि॰54.6)
1004    दुरदुराना (अंत में जौनार भेल । जागा के हाँक गाँव भर गूँजल । भाय-गोतिया जुट्ठा गिरैलका । बानो जौनारे दिन साँझ के माथा मुड़ैले हुलकी मारलक । गाँव भर दुरदुरैलक । ठिसुआल बानो घर-बंगला गोड़ाटाही करइत रहल । ओकरा से फेन कोय नञ् बोलल । बरहमजौनार बित गेल निक-सुख ।)    (कसोमि॰115.7)
1005    दुलकी (मुनमा दुलकी पकड़ लेलक हे - के आगू ? बाऊ कि हम ? मुनमा दौड़ऽ लगल हे । ऊ बाऊ के बगल से तीर नियन अन्हार के चीरले आगू ... ढेर आगू निकल गेल ।)    (कसोमि॰97.14)
1006    दुसना (= दोष देना; बुरा-भला कहना) (अइसइँ दिन, महीना, साल गुजरइत एक दिन विजयादशमी रोज लाजो के नेआर आ गेल । तहिया माय-बाउ में ढेर बतकुच्चह भेल । बाउ खेत बेचइ ले नञ् चाहऽ हला - गौंढ़वा बेच देम्हीं तऽ खैम्हीं की ? ... लाजो के उमंग रस-रस सथा रहल हल - मइया काहे ले झगड़ऽ हइ ? दुसतइ से हमहीं ने सुनबइ ।; मुनमा कनखी से सामा दने देखलक । - देखहो, हमरा मुँह दुसऽ हको । / चलित्तर बाबू सामा के चटकइलका । सामा मुनमा दने मुँह बनइले, तमतमाल देखलक । एकर माने - अच्छा, पूछबो !)    (कसोमि॰51.26; 103.5)
1007    दुहारी (= दुआरी) (मुनिया-माय दुहारी पर आके चले घरी दही-मछली बोल गेली । टोला-पड़ोस के दाय-माय दिन भर आवइत-जाइत रहली - नीक-सुख सुगनी के निभ जाय । घर-वर संजोग हइ दइया !; आगू-आगू बासो आउ पीछू-पीछू मुनमा ! संजोग से गुडुआ जांगल ठाकुर के दुहारी पर मिल गेल ।)    (कसोमि॰63.26; 95.13)
1008    दुहारी (दे॰ दुआरी) (फुफ्फा बाबूजी के हाथ से लोटा ले लेलका आउ उनखे साथे भित्तर तक गेला । दुहारी पर ललटेन जल रहल हल, मद्धिम ।)    (कसोमि॰73.13)
1009    दूनेतिआह (एक दिन हुक्कल ई धरती छोड़ देलक । ओकर एक बेटा हितेसरा नाबालिग । दूनेतिआह चाचा अइसन दीदा उलट देलक कि बेचारा फिफिया गेल । बानो घाट से लौट के गुम भे गेल । हितेसरा कर्ता हल । ऊहे आग देलक हल । करे तऽ की ? कने खोजे थेग । ऊ खाली पिंडा दे आउ सुक्खल लिट्टी खाके कंबल पर लोघड़ाल रहे ।)    (कसोमि॰114.5)
1010    देकसी (अइसीं ऊ बुतरू-बानर के देकसी देवइत रहला, सही करइत रहला, डाँटइत रहला आउ बीच-बीच में अखबार भी देखइत रहला ।)    (कसोमि॰103.19)
1011    देखबइआ (= देखनेवाला) (जगेसर माथा-हाथ धैले गाँव दने चलल जा हल । सुकरी पीछू धइले घिसिआल । कौन केकरा से की कहे ! बिन अवाजे सब कुछ सुन रहल हल । सब के सुना रहल हल - पेड़-पौधा, मोरहर नदी, रात के सन्नाटा सब, सब कुछ सुन रहल हल, देखबइआ बनके, सुनबइआ बनके ।)    (कसोमि॰42.25)
1012    देबाल (= दीवार) ("बोलइ ने, से कि हम बहीर ही ?" - "सले-सले ... चुप ... । देबालो के कान होबऽ हइ ।"; "चुप काहे हें चिक्को ?" - "बोलूँ कि देबाल से ?" गारो के चोट लगल । गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले ।)    (कसोमि॰12.10; 16.2, 3)
1013    देरी (= देर) (एने से लाजो अपन काड केकरो नञ् देखावे, माय-बाप के भी नञ् । माय तऽ खैर लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर हल, से से कभी-कभार माय के रखइ ले दे दे हल, मुदा थोड़के देरी में लेके अपन पौती में रख दे हल ।)    (कसोमि॰44.3)
1014    देव-पित्तर (बचल पैसा से तीन डिसमिल आउरो जमीन भे गेल, फेन एगो ओसरा-भित्तर अलग से । फूस के छप्पर देके ओसरा में देव-पित्तर करके घरहेली भी कर लेलक । पान नञ् तऽ पान के डंटिए सही ।)    (कसोमि॰107.19)
1015    देवाल (= दीवार; दे॰ देबाल) (कहाँ पहिले भुचुक्की नियन मकान, खिड़की के जगह बिलाय टपे भर के भुड़की । ... अउ अब ! अब सौंसे घर के देवाल में खिड़की । आर-पार झक-झक सूझे । पानी पड़इत रहे, फोंय-फोंय सुतऽ ।; एन्ने भीड़ में अलग-अलग चरचा । - बेचारा, इमानदारिए में चल गेला । ठीक कहऽ हइ, सुधा के मुँह में कुत्ता मूते । इनखा तऽ पगलैलहीं तों अर । इनकर अगुअनियाँ दाबलहीं से दाबवे कइलहीं, पीछू से बँगलवा के की हाल कइलहीं ? चुनाटल देवाल में तऽ गोइठा ठोकवा के बिझलाह बना देलहीं ।)    (कसोमि॰28.2; 29.23)
1016    दो (= तो) (बाते-बात बोललथुन - कहि तो देइ कोय कि हम केकरो जजात चरैलिअइ हे । ई काम कोनिए पर के गोरखिअन के हे । - कने से दो हमरा कुत्ता काटलको कि काढ़ल मुट्ठी पाँजा पर रखइत हमर मुँह से निकल गेलो - ई गाम में सब कोय दोसरे के दही खट्टा कहतो, अपन तऽ मिसरी नियन मिट्ठा । ले बलइया, ऊ तऽ तरंग गेलथुन ।)    (कसोमि॰111.19)
1017    दोंगहरी (दिन-रात के मेहनत से हजार रुपइया से जास्ती काड पर जमा हो गेल । कतिन के कमीशन लगा के पनरह सो के माल उठा सकऽ हे । लाजो रस-रस फिरिस बनावऽ लगल । दोंगहरी अउ पलटौनी भी भंडारे से भे जात ।)    (कसोमि॰54.11)
1018    दोंगा (= रोसकद्दी, रुखसत; द्विरागमन) (ऊ घर-गिरथामा करके सिलाय-फड़ाय वली बटरी लेलक आउ भौजीघर चल गेल । ... भौजी राते कहलकी हल - कल अइहऽ, नए डिजैन के बिलौज काटइ ले सिखा देबो । उनखा दोंगा में सिलाय मसीन मिलल हल ।)    (कसोमि॰66.12)
1019    दोकनदार (- दवाय दहो तो, चिट्ठा बढ़ावइत लाजो बोलल, कत्ते लगतइ पैसवा ? कागज पर जोड़ के दोकनदार बोलल - दस पच्चास ।)    (कसोमि॰50.14)
1020    दोकान (= दुकान) (ऊ लौटे घरी चाह के दोकान से आ सेर लगू दूध कीन लेलक हल । वइसे तो दूध-चाह ले लेलक हल आउ सोचलक हल कि बचत से पी जाम बकि बर तर झोला रखते-रखते ओकर मन में लिट्टी-दूध खाय के विचार आल ।; सुकरी जमालपुर गुमटी भिजुन पहुँच गेल । साधू जी के दोकान, बेंच गाहक से भरल हल ।; दवाय लेके दुन्नू नीमतल्ला तक गेल । बाले दोकान से तितकी लोहा के डब्बू कीनलक - काशीचक में सौदा ठीक भाव मिलतउ । दोसर बजार में तऽ पैसवा छीनऽ हइ । लाजो बोलल ।)    (कसोमि॰20.3; 35.15; 50.19)
1021    दोगाली (झोला-झोली हो रहल हल । बाबा सफारी सूट पेन्हले तीन-चार गो लड़का-लड़की, पाँच से दस बरिस के, दलान के अगाड़ी में खेल रहल हल । एगो बनिहार गोरू के नाद में कुट्टी दे रहल हल । चार गो बैल, एगो दोगाली गाय, भैंस, पाड़ी आउ लेरू मिला के आठ-दस गो जानवर ।)    (कसोमि॰68.4)
1022    दोसर (= दूसरा) (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।; अइसइँ छगुनइत सुकरी के डेग बढ़इत गेल । ध्यान टूटल तऽ देखऽ हे ऊ खरखुरा के खंधा में ठाढ़ हे । चौ पट्टी दू कोस में फैलल खरखुरा के सब्जी खंधा । सालो भर हरियर कचूर ! खेत के बिसतौरियो नञ् पुरलो कि दोसर फसिल छिटा-बुना के तैयार ।)    (कसोमि॰14.8; 38.2)
1023    दोसरका (= दूसरा, दूसरा वाला) (दोसरका मोटरी खोललक - दू गो डंटा बिस्कुट । चिकनी झनझनाय लगल, "जरलाहा, दे भी देतो बाकि कइसन लाज वला कूट करतो । 'डंटा बिस्कुट चिकनी ।' हमरा कइसन कहत ?"; सुरमी आँख से आँख मिलाके पियार से पुछलक - "कहाँ से लइलहीं एते पइसवा ?" - "किरिया खाव, नहीं ने कहेंगा किसू से ?" मांदर पर ताल देवइत कहलक बिठला । - "तोर किरिया ।" - "हा ... हा ... हा ... ! समझता हैं साली कि बिठला मरियो जाएँगा तब किया होवेंगा ... दोसरका भतार कर लेंगा ... हइ न ?" - "अच्छा, बाप किरिया खा हिअउ ।")    (कसोमि॰13.13; 86.25)
1024    धंधउरा (अइसईं बुढ़िया माँगल-चोरावल दिन भर के कमाय सरिया के धंधउरा तापऽ लगल ।; धंधउरा ठनक गेल तऽ बोरसी घुमा-घुमा हाथ से बानी चाँतइत चिकनी भुनभुनाय लगल, "अइसन सितलहरी कहियो नञ देखलूँ हल । बाप रे बाप ! पनरह-पनरह रोज कुहासा । साँझे बजार सुन्न । दसो घर नञ घूरल जइतो कि आगिए तापइ के मन करतो ।"; देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।)    (कसोमि॰11.14; 12.22; 14.18)
1025    धइल (~ चिकनजीह) (मायो निरासी, सिहा-सिहा अप्पन बाल-बच्चा के खिलैतो आउ गाँव भर ढोल पीटतो - आज हमरा घर खीर बनलो हे । खीर नञ् अलोधन बनलन । के पूछे खीर ! कल हमहूँ मुँह चंभला-चंभला कहले चलवन - हमर बाल-बच्चा धइल चिकनजीह हो । फुसलैते-फुसलैते खिलैलियो । गींज-मथ के दू कौर खैलको, बस । खौरही कुतिया के फबलइ ।)    (कसोमि॰37.24)
1026    धउल (= धौल) (ओइसने हल माय चकइठगर जन्नी । डेढ़ मन के पट्टा तऽ अलगंठे उठा ले हल । गट्टा धर ले हल तऽ अच्छा-अच्छा के छक्का छोड़ा दे हल । बिठला के पीठ चुनचुनाय लगल - कत्ते तुरी माय धउल जमइलक हल । बाउ मारऽ हल माय के तऽ बिठला डर से भगोटी गील कर दे हल ।)    (कसोमि॰84.13)
1027    धकधक्की (भीड़ हरगौरी बाबू के दलान पर । हरगौरी बाबू के जाड़ा में भी पसेना छूट गेल । सहम गेलन ... धकधक्की । समझते देर नञ् लगल । सब माल भीड़ के लौटा देलन ।)    (कसोमि॰56.5)
1028    धकियाना (= धक्का देना) (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।)    (कसोमि॰45.18)
1029    धच्चर (किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।)    (कसोमि॰19.3)
1030    धड़धड़ाना (ध्यान टूटल तऽ कील नदी धइले उ लक्खीसराय पहुँच गेल । शहीद द्वार भिजुन पहुँचल कि एगो गाड़ी धड़धड़ाल पुल पार कइलक । ओकर गोड़ में घिरनी लग गेल । मारलक दरबर । पिसमाँपीस आदमी के भीड़ काटइत गाड़ी धर लेलक । इसपिरेस गाड़ी ।)    (कसोमि॰24.23)
1031    धड़फड़ (= जल्दीबाजी) (गाड़ी के टैम हो गेल हल । एक कोस के रस्ता । धड़फड़ नञ् होवे के चाही । पंडी जी आ गेला । उनखर हाथ में टीकस के पइसा देवइत पोखन बोलल - तों आगू बढ़ऽ । गरसंडा के टीकस लीहऽ ... पाँच गो ।)    (कसोमि॰63.20)
1032    धत् (तितकी तेजी से चरखा घुमा के अइँठन देवइत बोलल - एकरा से सूत मजगूत होतउ । जादे अइँठमहीं तऽ टूट जइतउ, मुदा कोय बात नञ् । टूटल सूत ओइसइँ जुटतउ जइसे माउग-मरद के टूटल ... । - धत् ... लाजो तितकी के पीछू धकिया देलक । सूत टूट गेल । तितकी चितान ।)    (कसोमि॰45.18)
1033    धथपथ (बुलकनी धथपथ आल आउ पहिले गेहुम के कठौती में फूलइ ले देलक। चूल्हा जोर के बूँट, मसुरी आउ केराय के तारऽ लगल। तितकी अभी लउट के नञ् आल हल। रनियां सब गंदा कपड़ा सरिया के साफ करइ लेल तलाय पर चलल कि माय टोकलक, "बासिए मुँह हें कुछ खा नञ् लेलें?")    (कसोमि॰121.2)
1034    धधाना (= उफनना, ऊपर की ओर उठना; जोश में आना) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू ।)    (कसोमि॰33.24)
1035    धनकटनी (ओकरा पिछलउका धनकटनी के दिन याद आवऽ लगल - चुल्हा पर झाँक दे देलक हे अउ चिकनी पिढ़िया पर बइठ के बगेरी के खोंता नियन माथा एक हाथ के अंगुरी से टो-टो के ढिल्ला निकाल रहल हे । चरुआ के धान भफा रहल हे ।)    (कसोमि॰16.11)
1036    धनखेती (रस-रस ओकर हाथ दारू दने ओइसइँ बढ़ल जइसे डोंरवा साँप धनखेती में बेंग दने बढ़ऽ हे । कटोरी भर दारू ढार के एक्के छाँक में सिसोह गेल । नाक सिकोड़ के उपरइला ठोर पर गहुमन के फन नियन टक लगा देलक ।; अलंग पर के रोसनी आहर में उतर गेल हे । रोसनी रस-रस धनखेती में पसर गेल । गाँव भर के हाँक एक्के खंधा में । डेढ़-दू सो घर के बस्ती । गाँव भर के आदमी । सब अदमी एक्के खंधा में । हाँक पड़ रहल हे ।)    (कसोमि॰80.22; 95.24)
1037    धनमान (= धनवान) (मोरहर दुन्नू कोर छिलकल जा हल । सुकरी सोचऽ हे - ऊ नद्दी नद्दी की जेकरा में मछली नञ् रहे । मछली तऽ पानी बसला के हे । ई नद्दी तऽ धधाल आल, धधाइले चल गेल । ढेर खोस भेल तऽ बालू-बालू । खा बान्ह-बान्ह लड़ुआ । मुदा एक बात हइ कि ठीकेदरवा के पो बारह । ऊ तऽ बालुए घाट के कमाय से बड़का धनमान बन गेल । अइसइँ एकर ठीका ले मार होवऽ हइ !)    (कसोमि॰33.27)
1038    धपना (ललाय ~) (रात नीन में ढेर सपना देखलक - ढेरो सपना । भोर घर के सुग्गा 'मुन्नी ... मुन्नी' रटऽ लगल कि हड़बड़ा के उठल । अभी अन्हार-पन्हार हल । अँगना में आके देखलक - ललाय धप रहल हल । नीम पर कौआ डकऽ लगल । ओहारी तर के गरवैया कचबच करऽ लगल ।)    (कसोमि॰66.5)
1039    धमगज्जड़ (= धमगुजर, धमगज्जर, धमगुज्जर; उत्पात, उपद्रव; भीड़-भाड़; अधिकता, बहुतायत) (सुकरी सोचऽ लगल - सबसे भारी अदरा । आउ परव तऽ एह आल, ओह गेल । अदरा तऽ सैतिन नियन एक पख घर बैठ जइतो, भर नच्छत्तर । जेकरा जुटलो पनरहो दिन रज-गज, धमगज्जड़, उग्गिल-पिग्गिल । गरीब-गुरवा एक्को साँझ बनइतो, बकि बनइतो जरूर ।)    (कसोमि॰33.11)
1040    धमधमाना (उनकर चलती के जमाना में फुफ्फा आवऽ हला तऽ देवता नियन पूजल जा हला आउ आज ... ! तहिया बंगला पर एते देरी रहऽ हला ! तुरते हंकार पड़ जा हल । कड़ाही चढ़ जा हल । शुद्ध घी के हलुआ के सोंधइ से टोला-पड़ोस धमधमा जा हल ।)    (कसोमि॰72.8)
1041    धरना (= रखना; पकड़ना, से होकर जाना) (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।; मलकल टीसन पहुँच गेल । लटफरेम पर मोटरी धइलक । रस-रस भींड़ बढ़े लगल । देखते-देखते तिल धरे के जगह नञ् रहल । ई टीसन में भरल भादो, सुक्खल जेठ अइसने भीड़ रहतो ।; सुकरी मिचाय के भरल मुट्ठी खोंइछा में धइलक आउ डाड़ा कस के अँचरा खोंसलक । पाँच बजे काम से छुट्टी भेल । किसान छँटुआ बैगन-मिचाय अइसइँ मजूरनी के दे देलक ।; खखरी अहरा में जइसइँ गाड़ी हेलल, बिटनी सब बिड़नी नियन कनकनाल । सिवगंगा के बड़का पुल पार करते-करते बिटनी सब दरवाजा छेंक लेलक । गाड़ी काशीचक टिसन रुक गेल । हदहदा के सब उतरल आउ आगुए से भंडार रोड धर के मारलक दरबर । भंडार में सब काम लैन से होवऽ हे ।)    (कसोमि॰14.7; 36.19; 39.25; 49.23)
1042    धरोखा (= धरखा; ताखा, ताक) (घर से जइसहीं चलतो तइसईं छींक । ओकरा लगऽ लगल कि ओकर नाक में चूहा के पुच्छी चल गेल हे । नाक छिनकइत बुढ़िया उठ गेल आउ धरोखा पर धइल ढिबरी जरा के दोसर कान पर से सउँसे बीड़ी निकाल के सुलगा लेलक आउ हाली-हाली सुट्टा खींचऽ लगल ।)    (कसोमि॰14.7)
1043    धात्-धात् (लक्कड़ सिंह भिर कुत्ता लगऽ हे - धात् ... धात् । जनु कोय मोसाफिर होत । सीताराम भिजुन गलगुल हो रहल हे । जमालपुर-गया पसिंजर के घंटी हो गेल हे ।; बजार निसबद । मुंडे दोकान भिर रुक गेल । चुल्हा चाटइत खौरही कुतिया झाँव-झाँव करऽ लगल - आक् थू ... धात् ... धात् । पिलुआही ... नञ् चिन्हऽ हीं ।)    (कसोमि॰81.14; 82.5)
1044    धाध (= बाढ़) (एन्ने सुकरी बकरी के कान पकड़ले, एक्के हाथ से धारा काटइत किछार लग गेल । साड़ी के अँचरा से लदफदाल सुकरी बकरी खींचले बाहर भेल । ऊ अपन अंचरे से सेसपंज हल, नञ् तऽ कत्ते तुरी मोरहर पार कइलक हे धाध में ।)    (कसोमि॰34.19)
1045    धानधुर्रा (= धान आदि फसल) (- तों की लेलहीं ? लाजो से तितकी पुछलक । - हमरा की पैसा हलउ । तों जानवे करऽ हीं, परसाल धानधुर्रा मरिए गेलउ । रहऽ हलउ तऽ मइयो चोरा-नुका के दे दे हलउ । लाजो बुझनगर सन गाल पर हाथ धइले बोलल ।; - आउ सब ठीक हइ ने ? - सब ठीक । - धान-धुर्रा कइसन हो ? - झनकवा बरबाद कर देलकइ ।)    (कसोमि॰48.18; 69.20)
1046    धीआ-पुत्ता (आज तलक सुकरी 'अशोक हाई स्कूल' नञ् हेलल हल । धीआ-पुत्ता पढ़त हल तब तो ! सुनऽ हल, हियाँ पहिले टेकारी महराज के कचहरी हलइ । गरमी में राज के रजधानी परैये हल ।)    (कसोमि॰36.8)
1047    धुइयाँ (= धुआँ) (सरकइत-सरकइत गुमसुम बोरसी भिजुन रुक गेल । धुइयाँ के फुहारा से सउँसे देह नहा गेल । राजगीर के ब्रम्हकुंड !; धुइमों से गरमी लगऽ हइ, नञ चिक्को ?; सितलहरी के डंक छरबिन्हा नियन होवऽ हइ । देखऽ हीं नञ, छरबिन्हा झारइ में धुइयाँ पिलावल जा हइ ।; थोड़के दूर पर खरिहान हल । डीजल मसीन हड़हड़ाल - थ्रेसर चालू । खरिहान में कोय चहल-पहल नञ् । भुस्सा के धुइयाँ, सब कोय गमछी से नाक-मुँह तोपले । कहाँ गेल बैल के दमाही ।; अइसइँ घर-दुआर आउ गाँव-गिराँव के गर-गलबात करइत दुन्नू पाव रोटी खइलक आउ चाह पीलक । जगेसर सिकरैट पीअ हल । एक खतम होवे तऽ दोसर सुलगा ले । धुइयाँ से सुकरी के मन अदमदा गेल ।)    (कसोमि॰15.12, 16, 18; 23.19; 41.24)
1048    धुकधुक्की (देख चिक्को, सच कहऽ हिअउ, फेन धंधउरा लहराव, नञ तऽ हमर धुकधुक्की बंद भे जइतउ ।)    (कसोमि॰14.19)
1049    धुमधुसड़ी (नेटुआ के मउगी/ धुमधुसड़ी हो भइया,/ नेटुआ के मउगी धुमधुसड़ी । / एतना नोट देख के सुरमी अकचका गेल - "कहाँ से लइलहीं ?" - "ई तऽ नहीं कहेंगा ।")    (कसोमि॰85.24, 25)
1050    धूर (= धूरी; धूल, धूलि) (ई बात नञ् कि ओकरा से हमरा गैरमजरुआ जमीने लेके झगड़ा हे, से से ऊ हमरा अच्छा नञ् लगऽ हे, भलुक ओकर स्वभावो से हमरा घिरना हे । ओकरा पर नजर पड़लो नञ् कि तरवा के धूर कपार गेलो । कोरसिस कइलियो बचइ के मुदा दुइयो के दुआरी आमने-सामने ।)    (कसोमि॰110.3)
1051    धूरी (= धूलि) (एगो बीड़ी सुलगा के तनी देह सोझ करऽ लगल । बुताल बीड़ी कान पर खोंसइत उठल आउ गमछी में लिट्टी रख के झोलऽ लगल । धूरी झड़ गेल तऽ दू लिट्टी फोड़ के दूध में ना देलक आउ दू गो झोला में रख लेलक ।)    (कसोमि॰20.18)
1052    धूरी-गरदा (अइसीं बारह बजते-बजते काम निस्तर गेल। सुरूज आग उगल रहल हल । रह-रह के बिंडोबा उठ रहल हल,  जेकरा में धूरी-गरदा के साथ प्लास्टिक के चिमकी रंगन-रंगन के फूल सन असमान में उड़ रहल हल। पछिया के झरक से देह जर रहल हल।)    (कसोमि॰120.14)
1053    धेयान (=धेआन, धियान; ध्यान) (गारो सोचलक, जुआनी में कहियो बोरसी तापऽ हलूँ ? एक्के गमछी में जाड़ा पार ! एकरा कीऽ ... पोवार अउ ... । ओकर धेयान चिकनी दने चल गेल। ओकरा चिकनी छिकनी नञ, जुआनी के चिकनी लगल । हुँह ... रुइए ने दुइए ।; किसन के धेयान अपन गोड़ के बेयाय दने चल गेल । चुक्को-मुक्को बैठला से तनतनाय लगल हल । ककड़ी नियन फट्टल गोड़ ... सीऽऽऽ ... । ओकर धेयान बरगद दने गेल आउ सोचलक कि खइला के बाद एहे बड़ के दूध अपन बेयाय में लगा लेम ।)    (कसोमि॰15.26; 22.8, 10)
1054    धोकड़ी (= जेभी; जेब) (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?")    (कसोमि॰83.8)
1055    धोकरी (= धोकड़ी, जेभी; जेब) (खइते-पीते बीड़ी के तलब होल । धोकरी में हाथ देलक तऽ हाथ के साथ-साथ धोकड़ी भी बाहर आ गेल - "ससुरी बीड़ी झरइ के हलउ तऽ अखनइँ ! तहूँ सुरमी भे गेलें ! सुरमी साली हइये नञ् ... बीड़ी पदनी हइये नञ् तऽ नइका कमाय के रंग की ?")    (कसोमि॰83.7)
1056    धोखड़ना (= पानी के बहाव से मिट्टी आदि का सतह छूटना; बाँध आदि का फूट पड़ना; अचानक टूट जाना) (गारो देबाल हो गेल ? मरद सच्चो के देबाल हे मेहरारू के ... घेरले ... चारो पट्टी से घेरले । अनचक्के ओकर ध्यान अपन गोड़ दने चल गेल । हाय रे गारो ! फुट्टल देबाल ... धोखड़ल । ऊ टेहुना में मुड़ी गोत के घुकुर गेल ।; किसुन के कोय नञ चिन्हलक । चिन्हत हल कइसे - गेल हल बुतरू में, आल हे मरे घरी । जोड़ियामा के ढेर तऽ कहिये सरग सिधार गेल । बचल-खुचल किसुन के धोखड़ल धच्चर देख के भी नञ चिन्ह सकल कि ई ओहे टूरा हे ।)    (कसोमि॰16.5; 19.3)
1057    धोती-कुरता (मास्टर साहब वारसलीगंज के धनबिगहा प्राथमिक विद्यालय में पढ़ावऽ हथ । रोज रेलगाड़ी से आवऽ जा हथ । खाना घरे से ले ले हथ । दिन भर के थकल रग-रग टूटऽ हे । अइते के साथ धोती-कुरता खोल के लुंगी बदल ले हथ आउ दुआरी पर खटिया-बिछौना बिछा के आधा घंटा सुस्ता हथ ।)    (कसोमि॰98.7)
1058    धौगना (= दौड़ना) (सपना में भी बिआहे के खिस्सा याद आवइत रहल । ... कभी तऽ बरतुहारी में गाड़ी पकड़इ ले धौगल जाहे, हाँहे-फाँफे ... सिंगल पड़ गेल हे । गाड़ी लुकलुका गेल हे ... तेज ... आउ तेज धौगल हे । लेऽ ... गाड़ी तनि सुन ले छूट गेल हे । लटफरेम पर खड़ा-खड़ा दूर जाइत गाड़ी के मनझान मन से देख रहल हे ।)    (कसोमि॰63.6, 7)
1059    धौताल (समली बुझनगर हे । एक दिन माय भिजुन बैठल लुग्गा सी रहल हल । माय से कहलक - धौली के देखऽ हीं ने, धौताल होल जा हउ । हमरा से छोट बकि कोय कहतइ ? बाबा कुछ धेआन नञ् दे हउ । बाउ से कहहीं, ओकरा बिआह देतउ । हमरा की, हम कि बचबउ से ।)    (कसोमि॰59.2)
1060    धौली (समली बुझनगर हे । एक दिन माय भिजुन बैठल लुग्गा सी रहल हल । माय से कहलक - धौली के देखऽ हीं ने, धौताल होल जा हउ । हमरा से छोट बकि कोय कहतइ ? बाबा कुछ धेआन नञ् दे हउ । बाउ से कहहीं, ओकरा बिआह देतउ । हमरा की, हम कि बचबउ से ।)    (कसोमि॰59.2)
 

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