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Monday, May 16, 2016

मगही दूरा-दलान - सितंबर 2015 में प्रकाशित लेख



मगही
[08] दूरा-दलान
सुमंत (मगही लेखक)
अप्पन देश भारत गाँव के देश हलक, जहाँ भारतमाता के जान-प्राण रचऽ-बसऽ हल । आझो बेसी करके अदमी-जन गाँवे में रहऽ हथन, बाकी इ बात सही हे कि आज कमोबेस सभे कोई मौका देखइते शहर के दउड़ लगावल चाहऽ हथन । मगहिया माटी एकरा से अछूत नऽ हे । खेती-बारी के हालत दिन पर दिन खराब होते जा रहल हे । अब एकर बजह चाहे, जउन होवे, बाकी इ बात सच हे । आबादी भी एतने नऽ तेजी से बढ़ल हे कि गाँव के अदमी के खाली खेती करला से पेट न भरेवाला हे । इ चलते काम के खोज में गाँव के नौजवान दोसर शहर के दउड़ लगा रहलन हे । अब अप्पन देश के कउन-कउन शहर के नाम गिनती करवावी, जहाँ मगहिया अदमी रह के काम न करऽ हथन । दिल्ली, कोलकता, हरियाणा, पंजाब, सूरत, अहमदाबाद, मुम्बई, गोवा, होवे कि दक्षिण आउ पूरब भारत औरो शहर, जहाँ मगध के रहबईया मगहिया भाई-बहिन नऽ भेंटा जैतन । ढेर तो अइसनो हथन, जे अप्पन जगह-जमीन लेके जहाँ काम करऽ हथन, ओहईं बस भी गेलन । ममला उलट गेल । अब उनकरा लेल, उनकर बाप-दादा के गाँव परदेश हो गेल, जहाँ कभी-कभार बिआह-शादी इया फिन परब-त्योहार पर सप्पर के आवऽ हथन । जउन मगध के माटी नेपाल के राजकुमार के भगवान बुद्ध बना देलक, आज केकर नजर-गोजर लग गेल, जे ई हालत हो गेल । एतने बात नऽ हे । गाँव के जउन मरद इया मेहरारू छोटहनो नौकरी करे लगलन, बाल-बच्चा लेके शहर सोझ हो गेलन । इ चलते आज गाँव के केतने घर में ताला झूल रहल हे । अब इ विकास हेऽ कि गाँव के विनाश, बात पूरा-पूरी भेजा में नऽ घुसऽ हे ।
            माटी के सोंध महक गाँव में बसऽ हे, न कि शहर में । शहर एकदम से बनावटी हे ? कंक्रिट से बनल घर-गली-नली सब बनावटी । इहाँ न तो सावन के फुहार हे आउ न वसंत के बहार । बस भाग-दउड़ भरल जिनगी । केकरो भीर बइठ के गलबात करे के फुर्सत कहाँ हे ? कुछ खलिया समय भेंटाएल भी तऽ टी०वी० देखला से मन भरे तब तो । जउन घर में इन्टरनेट हे, तब तो ओकरे में जखनी समय भेंटायल, बस फूल पर मकरंद चूसईत भौरवा नियन लपटाएल रहऽ । सभे कुछ हे - उहाँ आउ कुछ नऽ हे तऽ उ हे माटी के महक । अब धीरे-धीरे ई बेमारी गाँव के भी धरले जा रहल हे । गाँव के बगईचा, बूढ़वा बर-पीपर, सरकारी कुइंया, महतो जी के दलान.... खोजले कहूँ में भेंटा हे । शहर से तो इ सभे कुछ गदहवा के सिंघ लेखा शुरूमे से गायव हे । समाज, परिवार, रिश्ता-नाता तेजी से दरक रहल हे । न कोई सुख के साथी आउ न कोई दुख के हरता । सब के सब अपने में मगन । सूरूज ढलते केमाड़ी भीड़क जा हे । आगे पर आउ कइसन दिन आवे वाला हे, कहना मोस्किल हे । सुन तो इहाँ तक रहली हे कि अब लोग अप्पन टिकस अंतरिक्ष आउ चाँद पर रहे लेल बुकिंग करवा रहलन हे । सोंचला पर कपार घिरनी लेखा घुमे लगऽ हे । आउ बेर-बेर घुमा-फिरा क मन में एक्के बात आवऽ हे कि दिन पर दिन काहे खतम हो रहल हे-मगहिया माटी के महक ।
प्रकाशित, प्रभात खबर-01-09-2015    

मगही
[09] दूरा-दलान
सुमंत (मगही लेखक)
अप्पन देश भारत शुरूमे से कृषि प्रधान देश रहल हे, जहां आझो बेसी करके रहबइया खेती-बारी करके अपना साथे -साथे अप्पन पूरा परिवार के पेट पाल रहलन हे । अप्पन राज्य बिहार के भी अप्पन देशेवाला हाल हे । इ बात जान सुन के हमरा अजगुत लगऽ हे कि बिहार से बाहरे काम के खोज में जाएवाला ढेरे लोग उहां भी खेती के काम करऽ हथन । जउन हिसाब से दिन पर दिन विज्ञान तरक्की करलक हे, सच पूछऽ तऽ उ हिसाब से खेती-बारी आझो पछूआएल के पछूआएले हे । नौवां-दसवां में भूगोल के किताब में पढ़ऽ हली कि भारत के कृषि पिछड़ेपन के बड़कन कारण में एगो बड़का कारण ई भी हे कि भारतीय किसान मौनसून के साथे जुआ खेलऽ हथन । उ घड़ी बात पूरी-पूरी समझ में नऽ आवऽ हल । आझो जहां तक हमरा बुझा हे-भारतीय किसान बेसी करके  मौनसून पर निर्भर करऽ हथन । जिनकरा भीर पटवन के साधन नऽ हे, उनकर तो मजबूरी हे, बाकि जिनकरा भीर साधन हेऽ भी ओहू मौनसून के इंतजार करऽ हथन, जेकर परिणाम इ होवऽ हे कि समय पर खेती के काम नऽ होवे से पूँजी-पगहा लगलौला के बादो अनाज के पैदा कम जा हे । निमन पैदावार लेल इ बड़ जरूरी बात हे कि समय से पहिले चेत किसान । जउन किसान समय से पहिले सोंच-विचार के काम नऽ करऽ हथन, उनकर खेती निमन नऽ होवऽ हे । अप्पन राज्य बिहार के मुख्य फसल खरीफ हे, जेकरा में धान आउ मकई के खेती सग्गर प्रमुखता से करल जा हे । इ बच्छर मजगर बरसात नऽ होवे से किसान सभे के परेशानी अब बढ़ेवाला हे । मकई लगावे के समय में बेसी पानी होवे से मकई के नुकसान पहुंचल से पहुंचल अब दोसरा तरफ भर सावन रिमझिम फुहार न बरसे से खेत में रोपाएल धान में उ हरिअरी न आ सकल, जे आवे के चाहऽ हल । ई बेर पानी कम बरसे से अहरा-पोखरा, नाहर-पईन सब धोखा दे देलन । ढेर जगह पर तो इ भादो के महीना में धान के खेत डंराट खुल रहल हे । आउ धान अइसन फसिल हे जेकरा खूब पानी चाही । एगो मगहिया कहउत बड़ प्रचलित हे । उ ई कि धान-पान रोजे नेहान । अब जउन मौनसूने दगा दे देलक तब बेचारे किसान का करथन । बेसी दिन ऊपरे के पानी न बरसे से डिजल-मोटर के पानी खेत में टीक कहां पावऽ हे ? अब तो टाड़-टिकर पर कासी के उज्जर फूल भी गंगा मईया के लहरा नियन लहरा मार रहल हे । अइसन में बरसात बूढाए के लक्षण साफ देखाय लगल हे । काहे से कि रामचरितमानस में भी बाबा तुलसीदास भी भगवान श्रीराम के मुंह से कहवौलन हे - फूले कास सकल महि छाई । जनु बरषा कृत प्रगट बुढाई । अब खेत में लहलहाइत धान पानी नऽ बरसे से मुआर बन जाए, तब किसान के लगल पूंजी-पगहा खत्म हो जाएत । निमन-निमन गांव में आझो अंगुरी पर गिनल-गोथल दू-चारे किसान हथन, जिनकरा पास पटवन के निमन साधन मौजूद हे आउ उ मौनसून के साथे जुआ नऽ खेलऽ हथन, बाकी बेसी करके किसान आझो खेल रहलन हे - मौनसून के साथे जुआ ।
प्रकाशित, प्रभात खबर-08-09-2015

मगही
[10] दूरा-दलान
सुमंत (मगही लेखक)
घोर कलयुग चल रहल हे आउ इ कलयुग में बड़ी कुछ अइसन हो रहल हे, जेकरा देख-सुन के इहे लगऽ हे कि अब दुनिया बेसी दिन नऽ रहत । ढेरे कुछ उल्टा-पल्टा हो रहल हे । बाबा तुलसीदास कवितावली में कलिकाल के वर्णन करईत लिखलन हे - खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी । एकदम से सच हो रहल हे । आज के किसान खेती के काम छोड़ के दोसर धंधा करे लेल बेहाल हथ । पाँच हजार के नौकरी भेंटा जाए, उ भल, बाकि पाँच बिघा जमीन पर खेती करना पहाड़ बुझा हे । गांव-देहात के खेत में काम करेवाला मजूर बड़ी मोस्किल से मिलऽ हथन । बेसी करके मजूर परदेस कमा रहलन हे । भले उ उहां ईंटा भट्ठा पर काहे न रहथन । नगदा-नगदी भेंटा तो जा हे । मजूर के टाना-टानी हे, से तो हईए हे । दिन पर दिन बरसात के हालत भी खराब हो रहल हे । पुरान कहउत हल-सावन से दुब्बर भादो । माने जउन बच्छर भर सावन झमाझम बदरी बरसऽ हल बुझऽ भर भादो खेत से लेके गल्ला-गल्ली कादो में सनाएल रहऽ हल । आउ तो आउ हथिया नक्षत्र में अइसन झंकसी लगावऽ हल कि अदमी मारे डर के खाय-पीए के समान के साथे जारन-झूरी, गोइठा-अमारी पहिलहीं से जामा करके रख ले हलन । का पता केतना दिन पानी न खुले ? आजकल इ बात खिस्सा-कहानी से बेसी कुछो न लगऽ हे । अब तो हथिया का - कभीओ एतना नऽ पानी बरस जा हे कि तुरते में बाढ आ जाहे । दुनिया के केतना देश में इ हो चुकल हे । अपनो हिंआ इ हो रहल हे । आझो उ पुरान कहउत सामने हेऽ, बाकि माने मतलब एकदम से उलट गेलक हे । जउन तरह से इ बेर सावन महीना किसान सभे के धोखा देलक, ओहि हाल भादो के भी अब ले लग रहल हे । अइसन रउदा उगऽ हे कि किसान आसमान दन्ने टकटकी भी का लगौथन । दू-चारो कतरा बदरी आसमान में रहे, तब तो ? ई कलयुग के प्रभाव हे कि हमनी के करनी के फल इहे बात गौर करे जुकुत हे । अप्पन स्वार्थ में अदमी का-का करतूत नऽ कर रहलन हे । जंगल के पेड़ काटलन से काटलन, गांव-घर के के पीपर, बर, नीम... उजाड़ के रख देलन । नदी के बालू राते-दिने खाली ट्रक-ट्रैक्टर से नऽ डम्फर से ढोवा रहल हे । पहाड़ तक के अदमी काट के तलाब बना देलन । एतना पर भी संतोख न हे । अदमी राते-दिने प्रकृति के अस्मत लूटे पर पड़ल हथन । अइसन में बेचारा ई कलयुग के का दोष ? जउन जंगल-पहाड़े पर आफत आ गेल तऽ समय पर पानी कइसे बरसत । प्रकृति से खेलवाड़ करे के दण्ड भोगे लेल हमनी तैयार रहऽ । समय पर पानी नऽ बरसला से खाली एकर असर खेतीए-बारी पर नऽ पड़त । कल होके पीएवाला पानी पर भी आफत आवेवाला हे । अब ढेर लोग इ बात खुल के कहे लगलन हे कि तीसरका विश्वयुद्व अइसे तो होवे न करत, बाकि होएत तऽ पानी के लेके, ई बात पक्का हे । इ लेल खाली सोंच-सोंच के कान-कप्पार पीटे के जरूरत न हे । आवऽ हमनी सभे मिलजुल के प्रकृति के बचावऽ ।
प्रकाशित, प्रभात खबर-15-09-2015 

मगही
[11] दूरा-दलान
सुमंत (मगही लेखक)
लोकतंत्र के ताकत हेऽ वोट, चुनाव के दिन अप्पन वोट जरूर दीहऽ । चुनावी विण्डोवा सग्गर कस के उठल हे । विधानसभा के चुनाव होवे ला तो खाली अप्पन बिहारे में हे, बाकि समूले देश के नेता सभे के नजर इ चुनाव पर हे । चाहे उ देश के प्रधानमंत्री काहे नऽ रहथन ? आज के समय में राजनीति पर कुछो बोलना बड़ मोस्किल काम हे, बाकि नऽ बोलला से पेट में दरद जे होवे लगऽ हे । इ चलते इ उठल चुनावी विण्डोवा में सभे कोई कुछ नऽ कुछ बोल जरूर रहलन हे । शहर तो शहर गाँव के दूरा-दलान होवे कि सामूदायिक भवन, गाँव के बगइचा होवे कि महादेथान बस दू-चार अदमी जोरिऐलन कि चुनाव पर चर्चा शुरू हो जाहे आउ देखइत-देखइत गरमा-गरम बहस अइसन शुरू होवऽ हे कि टी०वी० चैनेल पर होवेवाला बहस भी फेल समझऽ । खुल के बोलऽ हथन । काहे से कि उहां समय के कउनो पावंदी तो हेऽ नऽ । जबले बोलते-बोलते मुंह न पिरा जा हे, बहस जारी रहऽ हे । अब तो गाँव-घर के मेहरारू सभे भी दोहारी के ओटा पर मिल बइठ के खुल के चुनावी चर्चा करे लगलन हे । वोट देवे के दिन मरद से मेहरारू सभे में उत्साह बेसी रहऽ हे । नया सड़िया पेन्हले, सिंगार-पटार करके गोदिलवा लइका के लेले मतदान केन्द्र पर अइसे जा हथ, जइसे उ अप्पन नइहरा जा रहलन हे । लाइन में लग के अप्पन वोट देवे के प्रतिक्षा घंटो करऽ हथन । अब तो चुनाव आयोग के तरफ से मतदान केन्द्र पर मतदाता सभे लेल आधारभूत जरूरत के सभे चीज रहऽ हे- पीए लेल पानी, मरद-मेहरारू लेल अलगे-अलगे शौचालय, छहूरी में लाइन लगे लेल शेड, हावा आउ निमन रोशनी लेल बिजुली, निःशक्त सभे लेल रैम्प आउ शान्ति व्यवस्था लेल पुलिस के जवान भी मुस्तैदी से तैनात रहऽ हथन । एतने नऽ अब तो घरा-घरी मतदाता पर्ची भी चुनाव आयोग हाथा-हाथी चुनाव से पहिले बंटवा देवऽ हे । एतना सबकुछ करला पर भी मतदान के प्रतिशत अपना हिंआं दोसरा जगह से कम रहऽ हे, इ लोकतंत्र लेल बड़ दुख के बात हे, जेकरा पर सभे के मिल-बइठ के विचार करल जरूरी हे । काहे से कि लोकतंत्र में मतदाता सभे लेल सबला बड़का हथियार उनकर अप्पन कीमती मत होवऽ हे । भले मतदाता इ बात नऽ समझथन, बाकि सच हेऽ कि मतदाता सभे के एक-एक वोट लाख टक्का के होवऽ हे । जे कोई वोट के दिन मन में इ सोंचऽ हथन कि एगो खाली हमरा वोट न देवे से का होतई ? इ उनकर भारी भूल हे । तोहर एक-एक वोट पानी के एक-एक बूंद नियन होवऽ हे, जेकरा से समुन्दर भरऽ हे । वोट तोहर अधिकार हे, एकर प्रयोग हर हालत में करल जरूरी हे । अब अप्पन वोट केकरा देवल जाए, एकरा लेल अभी सभे मतदता भीर समय हे । निमन से सोंच-समझ के अप्पन वोट ओकरा दीहऽ जे चुनाव जीतला पर  विकास के काम करथन । समय-बेसमय सुख-दुख में तोहर साथे रहथन । जात-पात, धरम-सम्प्रदाय सब झूठ के देखावा हे । एकरा से ऊपरे उठ के इ बेर सभे मगहिया भाई-बहिन अप्पन वोट एक-एक कीमती वोट देथिन हमरा अपने सभे से इहे निहोरा हे । 
प्रकाशित प्रभात खबर-22-09-15

म्गही
[12] दूरा-दलान
सुमंत (मगही लेखक)
गयाजी अप्पन बड़ पुरान धार्मिक आउ ऐतिहासिक शहर हे, जेकर चर्चा रामायण-महाभारत से लेके आउरो केतने ग्रंथ में भेंटा हे । आज भले दुनिया के लोग गयाजी के बोधगया के नाम से बेसी जान रहलन हे । बोधगया में भगवान बुद्ध के ज्ञान भेंटाएल हल आउ इहाँ सलो भर विदेशी पर्यटक के आना-जाना बनल रहऽ हे । बाकि सच तो इ हे कि गयाजी के आन-बान आउ शान हे - पितरपख मेला । जउन दादा राज से लगते आ रहल हे । इ मेला कहिंआ से लग रहल हे, एकर दिन ठेकाना न तो इतिहास के पन्ना में हे आउ न कउनो ग्रंथ एकर बखान करऽ हे । इ अजगुत के मेला हे, जे हरेक साल आसीन महीना के कृष्णपक्ष में पन्द्रह दिन लगऽ हे । इहे पन्द्रह दिन पितरपख के नाम से जानल जाहे । इ घड़ी पूरा गयाजी मीनी भारत बनल रहऽ हे । अलगे-अलगे वेश-भूषा में सभे प्रदेश के मरद-मेहरारू इहाँ अप्पन पितरन के पिण्डदान देवे लेल पहुंचऽ हथन । पड़ोसी नेपाल देश से भी ढेरे पिण्डदानी इहां आवऽ हथन । विगत कुछ बच्छर से प्रवासी भारतीय भी दुनिया के अलगे-अलगे देश से गयाजी आ रहलन हे । मृत आत्मा के प्रति अइसन सम्मान साईते कउनो दुनिया के देश में देवल जाईत होएत । कुछ लोग एकरा आस्था आउ विश्वास के परब कहऽ हथन तऽ कुछ एकरा अंधविश्वास से बेसी कुछो नऽ मानऽ हथन । बाकि गयाजी में पितरपख में उमड़ भीड़ देखला पर अइसन बुझा हे कि इ अंधविश्वास नऽ, मृत आत्मा के प्रति आस्था आउ विश्वास के अइसन परब हे, जेकरा दन्ने दिन पर दिन अदमी के रूझान बढ़ते जा रहल हे । अइसनो बात नऽ हे कि गयाजी आवेवाला सभे पिण्डदानी अनपढ़-मूरख-गंवार रहऽ हथन । इमें ढेर पढ़ल-लिखल-विद्वान भी रहऽ हथन, जउन इहाँ रह के पिण्डदान आउ तर्पण करऽ हथ । भारतीय धर्मशास्त्र में भेंटा हे कि अप्पन पितर के पिण्डदान करेवालन के लम्हर उमर, बेटा-बेटी, यश-बल, सुख-साधन, धन-धान्य, स्वर्ग, लक्ष्मी भेंटा हे । एतने नऽ पितर सभे के कृपा से सभे तरह के समृद्धि, सौभाग्य, राज्य आउ मोक्ष भेंटा हे-आयुः पुत्रान यशः स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रियम् । पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनम् । । पिण्डदान करला से मन में जउन संतोख भेंटा हे, ओकर बखान कागज के पन्ना पर न करल जा सकऽ हे । दुनिया के दोसरो देश में इ तरह के परम्परा रहल हे, जेकर गोवाही आझो मिस्र के पिरामिड दे रहल हे । जउन जगह पर मरल के साथे उनकर प्रिय वस्तु के भी रखल जा हल, जेकर अवशेष आझो भेंटा हे । ईसाई आउ इस्लाम धरम में इ तरह के प्रथा के प्रचलन आझो हे । अप्पन हिन्दू धरम में भी साधु-सन्यासी के अंतिम संस्कार इ रीति से करल जा हे । माने मृत आत्मा के शान्ति लेल इ तरह के कामना करल जा हे । बाकि गयाजी के पितरपख मेला के बाते कुछ और हे । ढेर तो इहाँ पूरे सतरह दिन रह के पिण्डदान के विधान करऽ हथन । अभी पितरपख मेला चल रहल हे, कान पर विश्वास न होवे तऽ एक बेर अपने आके देखथिन । हम अपना तरफ से नेओत रहली हे, मन होवे तब आथिन, अपने के गयाजी में स्वागत हे ।
प्रकाशित, प्रभात खबर-29-09-2015 

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