मज॰ = "मगही जतरा", सम्पादक - डॉ॰ भरत सिंह एवं डॉ॰ चंचला कुमारी; प्रकाशक - कला प्रकाशन, बी॰ 33 33 ए - 1, न्यू साकेत कॉलनी, बी॰एच॰यू॰, वाराणसी-5; प्रथम संस्करण - 2011 ई॰; 144 पृष्ठ । मूल्य – 350/- रुपये ।
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कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 924
ई मगही जतरा में कुल 22 यात्रा-विवरण हइ ।
क्रम सं॰ | विषय-सूची | लेखक | पृष्ठ |
0. | अप्पन बात | सम्पादक | v - viii |
0. | विषयानुक्रमणिका | सम्पादक | ix - x |
1. | जे घटना आज भी ताजा हे | अलखदेव प्रसाद 'अचल' | 11-14 |
2. | हवा से बात करइत | अजय | 15-17 |
3. | सरग के दुआर पर दस्तक | डॉ॰ उमेश चन्द्र मिश्र 'शिव' | 18-24 |
4. | झटके से एगो झलक दिल्ली के | उमेश प्रसाद | 25-31 |
5. | महापाप ! घोर अन्याय ! | श्री के॰एन॰ पाठक | 32-36 |
6. | नजारा निजाम नगरी के | डॉ॰ किरण कुमारी शर्मा | 37-44 |
7. | जब हम रजरप्पा गेली हल | डॉ॰ चंचला कुमारी | 45-47 |
8. | संस्कृति के चरनामृत | चन्द्रावती चन्दन | 48-51 |
9. | मगध से मथुरा | जयनन्दन सिंह | 52-56 |
10. | जतरा कलकत्ता के | परमेश्वरी | 57-73 |
11. | हम्मर महाभिनिष्क्रमण | डॉ॰ बृजबिहारी शर्मा | 74-82 |
12. | जब हम अमरनाथ गेली | डॉ॰ भरत सिंह | 83-86 |
13. | खस्ता खाजा के मिठास | मिथिलेश | 87-97 |
14. | धनरूआ के लिट्टी | नरेन | 98-102 |
15. | मंसूरी में तीन रात | रामचन्दर | 103-106 |
16. | बुलावा अमरनाथ के | डॉ॰ शंभु | 107-112 |
17. | हम्मर अंग जतरा | शोभा कुमारी | 113-117 |
18. | सहीदन के सहर में | डॉ॰ सच्चिदानंद प्रेमी | 118-124 |
19. | जतरा माउन्ट आबू के | डॉ॰ शेष आनंद मधुकर | 125-127 |
20. | कलकत्ता-जतरा | डॉ॰ शिवेन्द्र नारायण सिंह | 128-134 |
21. | गेली काठमांडू घूमे | डॉ॰ सीमा रानी | 135-140 |
22. | चेरापूँजी के जतरा | डॉ॰ खिरोहर प्रसाद यादव | 141-144 |
ठेठ मगही शब्द ("अ" से "च" तक):
2 अंबार (ब्रजभूषण भाई धड़फड़ा के उठला - गोइठा के अंबार में माचिस मारलका, दूध गरमयलका, लिट्टी लगइलका । बाकि विष्णुदेव भाई सूखले लिट्टी भकोसला चूँकि ऊ दूध हलन भैंस के अउ विष्णुदेव भाई हलन गौ-पालन उन्माद के सबल प्रहरी ।) (मज॰81.10)
3 अइना (= आइना) (तैयार होके बाल झाड़े अइना भिजुन गेली तऽ लगल ... हम बी केकरो से कम न ही !) (मज॰34.14)
4 अइसन (जने निहारूँ ओन्नै सड़क के किनारे अनेकन जंगली जानवर के कार्टून बनल लगे कि अब बोलत कि कब दौड़त । अइसन सजीव कला से सजल पार्क जिनगी में पहिले बार ममोसर होल हल ।) (मज॰28.12)
5 अउ (= आउ; और) (एतने में लूंगी गंजी अउ चदर ओढ़ले कुछ दूर पर एगो लमछर अदमी सड़क पार करइत दिखाय देलक ।; हम ओकर नगीच पहुंच गेली अउ पूछली - अपने रुखरियार साहेब के जानऽ ही ।) (मज॰13.12, 15)
6 अउडर (= औडर; ऑर्डर) (परिचय शुरू होते-होते चिनियाँ बेदाम के अउडर भेल ।) (मज॰129.27)
7 अउर (= आउ, और) (सब्हे शास्त्र, पढ़ल पंडित, ग्यानी के कहनय हे कि दुनिया भर में ग्यान पावे के सिरिफ पाँच गो साधन हे, जेकरा में सबसे पहिले अउर जादे महातम हे - जतरा के, देस-विदेस घुमनय के यानी देसाटन के ।) (मज॰18.2)
8 अऊ (= अउ, आउ, और) (मालूम हल, टीसन से थोड़े दूर हे मुदा सोचलूँ पूछ लेवल ठीक होत । आगू बढ़लूँ अऊ एगो चौराहा के पान गुमटी तर ठिठक गेलूँ ।) (मज॰15.15)
9 अऊ (= उका) (शर्मा जी अपने के इन्तजार करि रहलन हे ... अऊ ... वह वहाँ परी !) (मज॰94.17)
10 अकचकाना (पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल । रस्ता भर टभकइत ई नदी पार कइली हल, 'सिठउरा' गाँव भिजुन एक आदमी खूब कसि के हँकइलन हल, "लोटा लेवा कि थारी ?" पहाड़ से टकरा के लउटल हल ... थारी । हम अकचकइली हल ... लोटा कने हेरा गेल ? बाल मन अकबकायत रहल हल ऊ रहस पर ।) (मज॰93.17)
11 अकबकाना (विष्णुदेव भाई - "धत् महराज ! हटावऽ, हमनी गो-पालन के प्रचारक हियो । भैंस के गोरस नञ् चलतो । थारी उठावऽ - ले जा । पूड़ी भी त भैंसे-घृत के हको । हमरा ला सुखल रोटी बनवावऽ ।" सीधमाइन सुजाता बेचारी अकबकाल फिन से चुल्हा सुलगइलकी ।; पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल । रस्ता भर टभकइत ई नदी पार कइली हल, 'सिठउरा' गाँव भिजुन एक आदमी खूब कसि के हँकइलन हल, "लोटा लेवा कि थारी ?" पहाड़ से टकरा के लउटल हल ... थारी । हम अकचकइली हल ... लोटा कने हेरा गेल ? बाल मन अकबकायत रहल हल ऊ रहस पर ।) (मज॰78.8; 93.17)
12 अकबक्की ("सब अपनहीं के रस्ता देख रहलथिन हे ।" -"भीड़ कइसन हो ?" -"बेंच-कुर्सी भरि गेलो ... अकबक्की हो ।" -"भट्टा के बाईक से परमेश्वरी जी पहुँचलथुन ?" -"हाँ !" -"तब उनखे अध्यक्षता में सम्मेलन नाधि दा । देर-सबेर जरूर आयम ।"; जल्दी पहुँचइ के अकबक्की में खराँठ मोड़ पर एन॰एच॰ धरि लेवइ के राय बनल ।) (मज॰89.4; 90.16)
13 अकबाली (= भाग्यशाली) (नय देखलूँ हल अइसन केला । अकबाली के खेत में उपजल हल । तीन केला में अघा गेलूँ ।) (मज॰38.2)
14 अकवार (भर ~) (केवाड़ी खुलल, टीप-टीप बटन के आवाज भेल कि अढेरी बउल अउ मरकरी से भीतर जगमगा गेल । चकाचक सोफा पर भर अकवार गला में साटइत सिद्धेश्वर बाबू प्रेम के दरिया बहावइत जगह पर बइठलन अउ काफी, चाय, नास्ता चले लगल ।; माघ के महीना हल। हाड़ तोड़े ओला कनकनी । कभी कबार सुरूज के किरिंग कुहा में आँखमिचौनी करइत लौक जा हल, कभी त मन में रउदा के भर अकवार पकड़े के मन करो हल ।) (मज॰26.29; 45.2)
15 अकसरे (= एकसरे, अकेले) (धत् तेरी के ! कहती हल हमरा से पहिले तऽ हमहूँ न चलती हल । ई धरम के बात हे, अउ अइसहँ तीरथ अकसरे करे से फल न मिले ।; आफत-सुलतानी अकसरे न आवे । इहऊँ ऊ पीछा करइत आल । इहाँ कुली के हड़ताल ।) (मज॰118.13; 119.15)
16 अकास (= आकाश) (अकास में बादल अउ सूरज के लुकाछिपी जगजाहिर हे, मुदा कत्ते परवत सरेनी के बीच से सूरज के निकसनय-छिपनय देखे के आनन्द कुछ अउर हे ।) (मज॰23.30)
17 अघाना (अभी एक जगन मन अघइवो नयँ कइल हल कि सड़क के सजावट लमहर रंगन के हरियर कच-कच घास, पौधा, फूल, पेड़ के बागवानी देखइते बनऽ हे, जी अघाय के नाम नय ले हे ।; नय देखलूँ हल अइसन केला । अकबाली के खेत में उपजल हल । तीन केला में अघा गेलूँ ।; उहाँ फिन हमनीन प्रकृति के सुत्थरइ पर रीझलूँ । सुन्नरता देखते-देखते हमनीन के आँख नय अघाय पारे ।) (मज॰28.9, 10; 38.3; 142.12)
18 अचक्के (अचक्के किचेन से बर्तन ढुनमुनाय के तेज आवाज से नीन टूटल । हड़बड़ा के हाथ पलंग से सटल बिजली के स्विच दने बढ़ल अऊ भक्क-सा इंजोर के साथ आँख झन्न-सन बजइत थाली के आवाज तक पहुँच गेल ।; एक दिन अचक्के हमर मन उचटि गेल । कोय काम में मन नञ् लगे ।) (मज॰32.6; 107.1)
19 अजगुत (श्रीनगर पहुँचे से पहिले 'देवप्रयाग' आयल जहाँभगीरथ के तपस्या के फल 'भागीरथी' में आ के 'बदरीनाथ' से भी ऊपर से आवेवाली नदी 'अलकनंदा' अप्पन अस्तित्व विलीन कर देलक । सचमुच दुन्हू देवनदी के संगम अजगुत हे ।; हिम्मत करके एक आ कीनलूँ, कटयलूँ । ई की ! खचखच मिसरी कंद नीयन अउ मिठास लीची नीयन । ई करामात उहाँ के मट्टी के हल अउ मेहनती किसान के । अजगुत बुझाल हमनी के ।) (मज॰21.10; 38.10)
20 अजुका (= आज का) (हमरा सुक्कर के रात दूध नै देलक, पूछलौं, तब कहलक - अजुका राति आर कल्हका दूध के खोवा मार देबौ, ओकरा में चीनी डाल के, रोटि भुंजिया ऊपर से देबौ । कलकत्ता भारी शहर हे ! ... के खिलइतौ ?) (मज॰58.6)
21 अझुराना (= ओझराना) (अयोध्या, लखनऊ, हरिद्वार, देहरादून पहिले भी सैकड़ों बार जाय के मउका मिलल हल मुदा चालीस साल से बाबा केदारनाथ {एगो महत्त्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग} के दरसन के लालसा मन में उमड़इत, घुमड़इत, अझुरायल हल ।) (मज॰18.16)
22 अढेरी (केवाड़ी खुलल, टीप-टीप बटन के आवाज भेल कि अढेरी बउल अउ मरकरी से भीतर जगमगा गे । चकाचक सोफा पर भर अकवार गला में साटइत सिद्धेश्वर बाबू प्रेम के दरिया बहावइत जगह पर बइठलन अउ काफी, चाय, नास्ता चले लगल ।) (मज॰26.28)
23 अदमी (अदमी का का नञ् करे हे मिरतु के झुठलावे ला ? एगो अबोध फोहबा नियन अप्पन तरहतथी से आँख झाँप ले हे क्रोध डेरावना चीज से बचे ला ।) (मज॰55.2)
24 अधबहियाँ (कुछ मेहरारू उज्जर शंख भी पेन्हले हलथी । साड़ी कुछ लपेटायल जइसन पेन्हले हलइ । केहुनी तक बाँहओला अधबहियाँ पीन्हले हलै । माथा पर बड़का अहुनी जइसन लाल टुह-टुह टिकुली साटले हलै ।) (मज॰50.7)
25 अधरात (= आधी रात) (अधरात तक तैयारी में लगल, मुदा पिछली पहर भी आँख नय मुँदाल ।) (मज॰37.3)
26 अधवैस (हम सब अपने बस दने जाय ले सोचिये रहलूँ हल कि एगो अपरिचित, ईहे पचपन-साठ के अधवैस आ के कहलका, "बउआ, हम इहाँ से आगू जाय में असमर्थ ही । प्रसाद के ई पइसा तोहनिये के दे देही ... बाबा बर्फानी के चढ़ट दीहा ।"; आदमी के धारा में बूँद के समान हम बहल जा रहलूँ हल ... पैदल ... घोड़ी पर ... डोली में ... जवान, अधवैस, बूढ़ा, बूढ़ी, बुतरू ।) (मज॰109.1; 111.13)
27 अनगम्मल (गाड़ी घड़घड़इलो कि सुरफुरइलो । गम्मल तऽ पार लगि गेलो बकि झखइत रहो अनगम्मल । अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो ।) (मज॰91.25)
28 अनगुते (सव्हे जातरी नीन माय के गोद में पड़ल हलन । अनगुते नीन उचटल ।) (मज॰84.16)
29 अनछिप (लोक-लाज से गाड़ी जब पलटफरेम पार कर गेल तब सुरेश कर जोर के कहलक - जरूर अइहऽ । ... सुरेश अनछिप हो गेला तब लगल कि हमर बहुत भारी चीज कलकत्ता में छूट गेल । अब की करब ? जाने सुरेश के कैसन लगलै ।) (मज॰73.15)
30 अनदिनमा (= शेष दिन, बाकी दिन, आन दिन) (जल्दी पहुँचइ के अकबक्की में खराँठ मोड़ पर एन॰एच॰ धरि लेवइ के राय बनल । अड़चन माथे बीच के सकरी नदी हल । बरसात छोड़ के अनदिनमा छोटकी गाड़ी पार करि जा हल ।) (मज॰90.18)
31 अनमनाह (एक दिन अचक्के हमर मन उचटि गेल । कोय काम में मन नञ् लगे । रोगी के भी अनमनाह नियन देख रहलूँ हल ।) (मज॰107.2)
32 अनहद (राम मिलावनहार गुरु के परम सत्ता तक ई अनहद नाद जरूर पहुँच रहल होत ।) (मज॰54.5)
33 अनेगन (= अनेकन) (गाइड बतइलक इहाँ आउ मूरती हल मुदा सब्हे चोरी हो गेल । कुछ दोकान-दौरी, खाना-नास्ता के दोकान अउ पर्यटन ले खरीदे लेल कार्ड अउ अनेगन चीज बिक रहल हल ।) (मज॰16.11)
34 अनोर (~ करना) (चिरईं चिरगुनी अनोर कर रहल हे, झिंगुर सरगम बजावइत हे ।) (मज॰47.27)
35 अन्धड़ (= आँधी) (अप्पन बड़ दमाद पंकज के संगे सवार भेली टेम्पो पर अउ 'मंगल भवन अमंगल हारी' जपइत चल देली । सटले मुसहरी से लोहराईंध गंध, पूरबी कछार पर निरंजना से उठइत बालू से सनल अन्धड़ में गाड़ी सर-सर बढ़इत हे ।) (मज॰84.6)
36 अन्हरिया (घुप्प ~) (24 अप्रील के सबेरे किरिया-करम से निपट के खिड़की खोललूँ तऽ मंसूरी के भोर के नजारा टकटकी बान्हले देखयते रह गेलूँ । चोटी पर दपदप पीयर रउदा, ओकरा से नीचे भोरउका लाली तऽ नीचे तलहटी में घुप्प अन्हरिया में बिजली से जगमगायत रोसनी में ऊपर से नीचे तक सीढ़ीनुमा मकान तिलस्मी दुनिया से कम अचरज के छटा नञ् बिछल रहे ।) (मज॰104.6)
37 अन्हरुखे (6 जून के अन्हरुखे सर-समान ले ले दुन्हू जीव बस पकड़ के रजधानी अयलूँ ।) (मज॰37.7)
38 अन्हरौखे (मन के समेटले भूंजा-खमौनी खइते, गीत गुनगुनइते तेईस अक्टूबर से चौबीस अक्टूबर के छः बजे भोर में दिल्ली टीसन पर श्रमजीवी रूक गेल । जाड़ा के दिन, अन्हरौखे बल्ब बत्ती से चकाचौंध मन, पैदल बगले में मेट्रो टीसन पर दुन्हू आदमी पहुँचलूँ ।) (मज॰25.23)
39 अन्हार (तोहरे मंदिर अउ मसजिद के कंगूरा पर अपन कुर्सी के पउआ रख के कंस बइठल हो अऊ तोहर बाल-सखा, तोहर गाय-गोरू, लेरु-पठरु सभे आतंक के अन्हार में जी रहलो हे ।) (मज॰56.3)
40 अन्हेरगर्दी (निचोड़ निकसल कि जब तक ई राज में चुनाव में जात-पात, धरम-संप्रदाय, क्षेत्रीयता, धन-बल अउर बाहुबल से भोट पड़त ई अन्हेरगर्दी से हमनी के छुटकारा नैं भेत ।) (मज॰129.11)
41 अफड़ना (= अफरना) (हमर ध्यान पत्रकार रामसहाय लाल पत्रकार पर चलि गेल ... खल्ता पैजामा ... ठेहुना से नीचे खादी के कुर्ता पर बंडी आउ हाथ में गर्भवती डायरी ... उनखर डायरी चिट्ठी, काड, अखबार के कटिंग आदि से अफड़ल रहऽ हल ।) (मज॰91.6)
42 अबरी ("की बात भेलो हल मिथिलेश जी ?" अबरी परमेश्वरी मुँह खोललन ।) (मज॰88.3)
43 अबहियो (= अभीयो; अब भी) (जयपुर से दस किलोमीटर दूर पहाड़ी पर जयसिंह के पुराना किला अबहियो मौजूद हे ।) (मज॰125.10)
44 अमदी (= आदमी) (मतलब ई कि देशाटन, विदमान संग दोस्ती, वेश्या के घर जाय से, राजसभा परवेस करके अउर ढेर शास्त्र के पढ़नय से अमदी के ग्यान मिलऽ हे ।) (मज॰18.6)
45 अमुनन, अमूनन (= बहुधा, प्रायशः, साधारणतया) (हम्मर जतरा सुरू भेल भगवान बुद्ध के ग्यान भूमि अउर विसुन भगवान के नगरी - गया से, अमुनन हरिद्वार से आगे के बिंब हम दे रहलूँ हे जे जादे महातम अउर इयादगार हे ।; कवि-सम्मेलन में अमूनन रचनाकार के चर्चित कविता के मांग होवे लगऽ हे । अइसन में पहचान सीमित भे जा हे ।) (मज॰18.17; 96.4)
46 अरधाली (= चौपाई का आधा अंश) ('बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी' कहइत मेहरारू के बोधली अउ 'दिवस जात नहिं लागहिं बारा' अरधाली मने-मन छगुनइत ससुर जी के गोड़ लग घर से बहरा गेली ।) (मज॰83.24)
47 अरमेना (= अरमाना, अरमना, अरमन्ना; अरमान; विनोद, मनबहलाव; तमाशा, कौतुक) (चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे । एक जगह मड़ुकी में बइठल रहलो । दारू-ताड़ी अरमेना आउ दिनकट्टन के तास ।) (मज॰91.24)
48 अराम (= आराम) (आझे पूरा बस्ती गेल सूटिंग ले । मेला के देखाना हल से भीड़ जुटावल गेल हल । फी मुड़ी अस्सी रुपया, बुतरू के रेट अलग । अराम के अराम, कमाय के कमाय ! आम के आम, गुठली के दाम !; कैम्प में थोड़े देरी अराम कइला के बाद साफ-सुथरा भेलूँ ।) (मज॰43.2; 108.10)
49 अरारा (छाया आदमी बनि गेल । आदमी मसीन बनि गेल । मसीन हुरहुयसाल ... टसकल ... रेंगल ... दहिने-बायें पिपाक-सन टगल ... दुलाबी चाल बढ़इत तारछोच पछियारी अरारा पर हुमकि के चढ़ि गेल ... हइऽयाँ !) (मज॰92.30)
50 अल्पना (दू चार गो घर में जाके देखलूँ, दुआरी पर चउरट्ठा के अल्पना, झोपड़ी के कोना में तन्नी गो पूजा के निर्धारित जगह, बड़का पीतल के तुमेड़ा, पानी रखय ले ।) (मज॰42.24)
51 अवाज (= आवाज) (हनुमान मंदिर बिजुन टेम्पो पकड़े ला गेली । 'अतुलित बलधामं स्वर्णशैलाभदेहं .... वातजातं नमामि' मंतर पढ़इत अउ हनुमान जी बिजुन हथजोड़ी करइते हली कि फट-फट अवाज सुनाय पड़ल ।) (मज॰84.3)
52 असकतिआना (= आसकत या आलस्य करना) (कत्ते दिन से प्रिंसिपल साहब कलकत्ता जाय ले कह रहला हल ! हम असकतिअइले हलूँ । हमर सोंच हल कि ई जतरा के कुछ सार्थक उपलब्धि होवे के चाही ।) (मज॰128.1)
53 असकरे (= अकसरे, अगसरे, एकसरे; अकेले) (घर आके माय से कहलों । माय बड़ी चिन्तित हो गेल, कहलक - असकरे जइमें कलकत्ता रे ?) (मज॰57.16)
54 असमसान (गाँव-जवार के श्रीकान्त इंगलैण्ड से पढ़ के आ गेल हे । ... गाँव के लोग कहऽ हथिन - असमसान में जरूर भूत रहै हे । अधरात के तों असमसान में रह के देखा दे तो हम जानियौ । उ रात भर असमसान में रह के देखा दे हे । कहैं भूत के बुन-बुनी नै । उ बड़को असमसान में रात भर रहला । लोग के अनुमान हल कि विहान इया तो एकर लास असमसान में रहतै इया इ पागल हो जयतै ! भेलै कुछ नै ।) (मज॰72.20, 22, 23, 24)
55 असमान (= आसमान) (ओकर लय-गीत से समूचे असमान गूँज जा हे ।; दोबारे आवै के आग्रह के साथ विदा कयलन । बिहार के 'आई॰ए॰एस॰' अउ दछिन के 'आई॰ए॰एस॰' में तफरका हल जमीन-असमान के ।) (मज॰19.13; 44.20)
56 अहनी (सफर से सुरु से ले के देहरादून तक बैसाखी गरमी से पसीने-पसीने हलूँ । मंसूरी पहुँचते अहनी जाड़ा से पाला पड़ल । रजाइ तान के जे सुतलूँ से एके नीन में विहान ।) (मज॰104.2)
57 अहलदनि (एतना अहलदनि मन से दून्हू के परनाम-पाती भेल कि परनाम-पाती वाला रसम के कउनो जरूरत नय रह गेल । इहे हे कवि अऊ साहित्यकार के मिलन ।) (मज॰26.25)
58 अहुनी (कुछ मेहरारू उज्जर शंख भी पेन्हले हलथी । साड़ी कुछ लपेटायल जइसन पेन्हले हलइ । केहुनी तक बाँहओला अधबहियाँ पीन्हले हलै । माथा पर बड़का अहुनी जइसन लाल टुह-टुह टिकुली साटले हलै ।) (मज॰50.8)
59 अहेर (कंस-वध के बाद जरासंध के गोस्सा के भी अहेर बनल मथुरा ।) (मज॰53.4)
60 आँठें-आँठ (~ खाना) (हम कहलियन - नै खइवौ । घर से आँठें-आँठ खाको अइलियो हें । उनकर औरत कहलकी - ई कैसे होतै ? जबरदस्ती मुँह में ठूँस देवो ।) (मज॰59.9)
61 आँय (आँय भाय ! पटना एयरपोर्ट से बोधगया जाय के राह में हमरा कहाँ पर अइसन कुछ मिल जात जेकरा हम रवि शास्त्री के खिलइबई ?) (मज॰100.3)
62 आउ (= और) (गाइड बतइलक इहाँ आउ मूरती हल मुदा सब्हे चोरी हो गेल ।) (मज॰16.9)
63 आगू (= आगे) (मालूम हल, टीसन से थोड़े दूर हे मुदा सोचलूँ पूछ लेवल ठीक होत । आगू बढ़लूँ अऊ एगो चौराहा के पान गुमटी तर ठिठक गेलूँ ।) (मज॰15.15)
64 आझ (= आज) (महल में प्रवेश कइला पर गाइड ऊ जगह ले गेल जेजा शिवाजी के कैद कर रख लेल गेल हल मुदा आझ ऊ कोठरी गिर-पड़ गेल हे, खाली कोठरी के नीव के ईंटा हे ।; आझ से पचास बच्छर पहिले रामसहाय लाल पत्रकार 'प्रदीप' अखबार में ई पीड़ा के स्वर देलन हल । गाड़ी बासोचक भिजुन पौरा नहर पार करि गेल ।) (मज॰17.22; 91.1)
65 आफियत (= सुविधा, आराम) (जगह ले के बजरंगबली, महेस बाबा के साथे गंगा मैया के सुमिर के आफियत महसूस कयलूँ, गाड़ी ससरो लगल, गाछ-बिरीछ पीछू आउ गाड़ी आगू भाग रहल हल ।) (मज॰37.11)
66 आर (= आउ; और) (आर सनीचर ? ... दृगशूल पूरब मुँह के जातरा ? भारी असगुन कह एही एतवार के चलिहा । हम कहलों - एतवार से तऽ सुरूमे होतै, तब हम जा के कि करबै ? खाली डगर नापै ले ?; हमरा सुक्कर के रात दूध नै देलक, पूछलौं, तब कहलक - अजुका राति आर कल्हका दूध के खोवा मार देबौ, ओकरा में चीनी डाल के, रोटि भुंजिया ऊपर से देबौ । कलकत्ता भारी शहर हे ! ... के खिलइतौ ?) (मज॰58.1, 6)
67 आवाजाही (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।) (मज॰90.28)
68 इंजाम (= इन्तजाम) (दरसन करे वलन के अथाह भीड़ - लमहर लैन - सुरक्षा के भयंकर इंजाम - झोला-झक्कड़, जूता-चप्पल, ओबाइल-मोबाइल - सभे कुछ बाहर, खाली अदमी भीतर ।) (मज॰54.27)
69 इंजोरिया (सभे मिलके कहलन कि गोष्ठी के रसदार करे लेल अब मगही गीतकार कवि उमेश जी हमनीन के कुछ सुनैथिन । गीत से पहले हम हास्य व्यंग्य मुक्तक मच्छड़, उड़ीस, टुनटुनियाँ सुनाके लोक भाषा मगही से इंजोरिया उगइलूँ ।; निकलते फागुन के दुद्ध इंजोरिया में गाड़ी चाल पकड़लक ।) (मज॰27.6; 90.15)
70 इतिमिनान (ऊ मगही-मंडप के साथी पर इतिमिनान हला । उनखा कहि रहलूँ हल ... अपने ठहरथिन । देर-सबेर जरूर आब - जरूर आब ... कि किरण जी के गाड़ी आ गेल ।) (मज॰90.6)
71 इनखर (= इनकर) (डॉ॰ केदार कुमार सिंह ... झारखण्ड के प्राध्यापक हथ अउ लेखक इनखर लंगोटिया यार ।) (मज॰141.8)
72 इनखा (= इनका; इनको; इनखो = इनको भी) (ऊ कहलका - जाहो ने, कोय हर्ज नञ् हे । हमरा लोग के सम्मेलन में अइसने होबऽ हे, जा आर सुरेश से कहलका - समय पर इनखो पहुँचा दीह ।) (मज॰66.29)
73 इने-ओने (= एन्ने-ओन्ने) (रसे-रसे ऊ टेकसीवाला हमनी के अनजान समझ लेललक अउर लगल इने-ओने घुमावे ।) (मज॰131.22)
74 इसटाट (= स्टार्ट) (गाड़ी इसटाट ... चक्का घूमइत ... बालू के अबीर उड़इत रहल । थकि के सब थउआ ! हार के डलेवर उतरि गेल ।) (मज॰92.13)
75 इसपरेस, इसपिरेस (= एक्सप्रेस) (रामचन्दर भइया इसपरेस से आ गेलन ... झकास धोती पर मलवरी के कुर्ता आउ बेदामी रंग के सिल्की बंडी ।; पटना से उत्तरांचल इसपिरेस में 22 अप्रील के रिजरवेसन हल ।) (मज॰87.9; 103.12)
76 इहँइ (सैर-सपाटा में मन अइसन रमल कि लगे इहँइ बस जाऊँ !) (मज॰112.12)
77 इहाँ (टीसन से बहरी अइली ज इयाद पड़ल कि सेनन्दन चा कहलन हल कि कोय रिक्सेवान से बोलवऽ कि रूखरियार साहेब के इहाँ जाय ला हे तो पहँचा देतवे ।; गाइड बतइलक इहाँ आउ मूरती हल मुदा सब्हे चोरी हो गेल ।; महल के सुरंग, बाहर निकसे के रास्ता, एहमें देख के देश के भवन बनावे अउ इहाँ के सूझ-बूझ के पता चलऽ हे ।) (मज॰12.16; 16.10; 17.24)
78 ईजोर (बिहार के नाम के जब घोषणा भेल तऽ सबसे पहले गया के लोक नृत्य प्रस्तुत कैल गेल - 'हमरे बनावल महक अटरिया से हमरा से होवऽ कत्ते ईजोर, हमरा हई टुटली झंपोर ।' फिन पटना के ओर से ।) (मज॰50.20)
79 उकबुकाना (वाह-वाह उमेश जी, कंठ अऊ गीत प्रस्तुति के जेतना सराहल जाय उ कम हे, रती भर भी नया नव मंसुआ भरल प्रवाह में मिथिलेश जी 'मगधेश' के मुक्तक पढ़े ले मन उकबुका गेल ।) (मज॰27.10)
80 उखबिक्खी (मुदा उनकर ई चलाँकी हम्मर दोसर मीत तुरते समझ लेलका । भला ऊ कइसे बइठल रहता । लगल उनखा उखबिक्खी अउर लग गेला ऊ भी सीट के तलास में ।) (मज॰129.25)
81 उखरी (= ऊखल) (मन मतंगी कवि सब के जउर करना, बेंग के पलड़ा पर चढ़ाना हे । हम तऽ हठयोग नाध देली । उखरी में मूड़ी नाइये देली ... जतना चोट बजड़े !) (मज॰87.7)
82 उछाह (= उत्साह) (जतरा के तकलीफ, उमड़ल उछाह से झँपा गेल । घर-गिरिहस्ती से मुक्ति, जीवन के एकरसता छूट गेल हल ।; अइसन वीर भूमि के नमन करे ला सब के मन में उछाह रहऽ हे ।) (मज॰37.5; 125.4)
83 उजर-जार ('फाटा' के बाद आवऽ हे 'सोन प्रयाग' एक्के तरह के परवत, एक्के तरह के जंगल, पेड़-साँप जइसन टेढ़-मेढ़ जलेबिया राह । ऊपर चढ़े के बाद बस चाहे कार से नीचे आवे पर उजर-जार चमकइत सीढ़ीनुमा परवत लगऽ हे ।) (मज॰22.27)
84 उज्जर (अलकनंदा के मटमैला पानी के अप्पन उज्जर दूध सन धारा से धोवे ले मंदाकिनी बेचैन हथ ।; कुछ मेहरारू उज्जर शंख भी पेन्हले हलथी ।) (मज॰21.32; 50.6)
85 उठना-पुठना (कवि के मन में खुटपुटायत रहऽ हे ... आयोजक विदा करे अइतन भी कि सुखले उठ-पुठ के चलि देवे पड़त ?) (मज॰96.32)
86 उड़ीस (सभे मिलके कहलन कि गोष्ठी के रसदार करे लेल अब मगही गीतकार कवि उमेश जी हमनीन के कुछ सुनैथिन । गीत से पहले हम हास्य व्यंग्य मुक्तक मच्छड़, उड़ीस, टुनटुनियाँ सुनाके लोक भाषा मगही से इंजोरिया उगइलूँ ।) (मज॰27.5)
87 उताहुल (विशाल खड्ड के बाद जम्मू नदी अपन कलकल संगीत भरल ध्वनि से हमनी के स्वागत कइलक । मन दरिया में गेल, जे हरदम आगू बढ़े ले उताहुल रहऽ हे ।) (मज॰109.14)
88 उत्थर (पाँच नदी से कर वसूल करि कलकल बहइत पंचाने नदी महाभारत काल के गोवाह गिरियक पहाड़, जेकरा पर ठाड़ हो महाराजा जरासंध द्वारिका तक ढेकमास फेंकि भगवान श्रीकृष्ण के चकित करि देलन हल, के पाँव पखारइत हम्मर गाड़ी के अपन उत्थर भेल पीठ के रीढ़ पर चढ़के पार होवे ले हँका रहल हल ।) (मज॰93.8)
89 उधियाना (जने ताकऽ ... बालू-बाालू ! प्राकृतिक सौंदर्य भय के आँधी में उधिया गेल । जे दिरिस सुकुमार गीत के जन्म दे सकऽ हल, काटे दउड़ऽ लगल । सबके उमंग पर बज्जड़ पड़ि गेल ।) (मज॰92.17)
90 उनखर (चौधरी जी, उनखर माय अउ किरण मंदिर के अंगना में भजन गावे में मस्त हलन ।) (मज॰56.5)
91 उपरौंध (ईहे बीच गाँव दने से दूगो छाया नदी में उतरल । एगो ढाढ़स के साथ-साथ अनजान भय के सिहरी छूटि गेल ... कहँथ ... छाया नगीच आवइत गेल । मिलल-जुलल भाव मन में उपोरौंध करऽ लगल । दस डेग दूरे से हम छाया से कहलूँ, "भइया, तनि हाथ लगा दा ।" -"गाड़ी निकाले के सो रुपइया लगतो ।") (मज॰92.23)
92 उपलाना (जब लगे कि तिरछे रस्ता से चल रहल हे तऽ हमर मन में कते तरह के विचार उपलाय लगे ।) (मज॰12.30)
93 उपहना (नीराजन पार भेलूँ तऽ गाड़ी दनुआ-भलुआ के जंगल में ढुकल । एहमें कोय जमाना में चीता, भालू, बाघ, लकड़बग्घा, हरिन के भरमार हल । एतनै नञ्, देसी दवाय तेल उपहल जड़ी-बूटी एहँय मिलो हल ।; अंतिम रोगी के देखि के हम मनझान-सन बइठल हलूँ । कंपोडर खाय ले चलि गेल हल । हमर टिफिन अन्दर धइले हल । ई बेली तक तऽ भूख करकटा के लगऽ हल, बकि आज ऊहो उपह गेल हल ।) (मज॰46.22; 107.4)
94 उमगना (रजरप्पा चले के बात सुन हमर तन-मन उछाह में उमगे लगल, कारन एक्के गो हल कि हम अब तलक कोयठमा घुमली न हल ।) (मज॰45.5)
95 उमेद (= उम्मीद) (किताब में अउ अमदी से सुनल सोहनगर रूप, लाल किला, कुतुब मीनार, संसद भवन, मेट्रो रेल देखे के सपना पूरा भेल, अइसन उमेद से मन सिहाय लगल ।) (मज॰25.16)
96 उरम्हना (= उरमना; लटकना) (हम आतुर-सन कहली, "देबो ! निकालि दा ।" -"पहिले धरो ।" मन में खुटपुट्टी उरम्हल ... कहँइ लेके चमकि ने दे ... की करम ? कोय चारा नञ् देखि हम जेभी से निकालि के नमरी बढ़ा देली ।) (मज॰92.27)
97 उसनना (बोधगया तक के रास्ता तै करइत-करइत ऊ हमरा बूँट के महातम समझइते रहलन । कच्चा फुलावल बूँट के का तासीर हे । उसनल बूँट के का तासीर हे । अंकुरायल बूँट के की-की फायदा हे । बूँट के तरकारी के की गुन हे ।) (मज॰102.11)
98 उहाँ (उहाँ से आगू बढ़लूँ त एलोरा देखे चल देलूँ ।; उहाँ के बाद हम औरंगाबाद के किला देखे लेल चल देलूँ ।) (मज॰17.9, 17)
99 ऊँचका (= ऊँचा वाला) (सबसे ऊँचका पत्थर पर बनल ऊँचगर मंदिर, विग्रह छः फुट, ग्रेनाइट पत्थर के ।) (मज॰39.19)
100 ऊँचगर (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।; अमरनाथ गुफा के अप्पन खासियत हे कि इहाँ खुद-ब-खुद बारह-तेरह फीट ऊँचगर बर्फानी शिवलिंग बन जा हथ ।) (मज॰28.7; 86.27)
101 एकलहू (नाक में भरल धूरी अउ डीजल के गंध के सिलावी खाजा के सोन्हइ धकिया रहल हल आउ ओने माईक के आवाज अपना दने खींच रहल हल । मन माईके दने एकलहू भेल ... 'अब अपने सबके सामने डॉ॰ भरत जी आ रहलथुन हे, जे मगही साहित्य के इतिहास पर रोसनी डालथुन ।') (मज॰93.32)
102 एकल्ले (हम कहलों - सुरेश भाय, हम तो एकान्त सेवी जीव ही । एकल्ले में कुछ चिन्तन, मनन, कुछ लेखन, अपना-आप में रमैत रहऽ ही ।; जतरा एकल्ले के नञ् जमात के । संगी संग रहला ... गीत गलबात में समय कटइत गेलो ... मनुअइवा नञ् ।) (मज॰72.6; 87.1)
103 एकसरे (= अकेले) (मन-परान हरिया गेल । हमर फूल के पइसा 'मालिक' देलन हल, ई देखको फूलवाली मुसुक गेली हल, हम नय बुझलूँ एकर माने । जे मेहरारू एकसरे हली से अप्पन पइसा अपने देलकी हल ।) (मज॰42.11)
104 एजउ (= एज्जउ; इस जगह भी, यहाँ भी) (हमर बगल में रामचन्दर भइया आके कहलन हम एजउ एकल्ले नञ् छोड़बो ।) (मज॰95.14)
105 एजा (= एज्जा; इस जगह) (समुद्र में इ पहाड़ी टापू सन लगे हे । एजा रूके, आराम करे, अउ घुमे के अलग मजा हे ।; एजा से गाड़ी आउ रास्ता, दुन्नु बदल गेल हल ।; हम कहलों - सुरेश जी, इहैं रहो दा । इहाँ सब कवि-लेखक से रात भर बातचीत होत, कुछ हम सुनइवन - कुछ उनकर सुनव । ओजो तऽ एसकरे तोर सुनवै इया हम सुनइवो । अइसन काम नै करो, हमरा एजै रहो दा ।) (मज॰16.11; 38.3; 66.23)
106 एतनय (= एतनै, एतने) (एतनय में फेरी वला डिब्बा के दुआरी पर टोकरी रख के आम के टहकार देलक ।) (मज॰38.5)
107 एतनै (= एतने; इतना ही) (एतनै नञ् दूध जइसन मरकरी गिनल पार नय लग रहल हल ।) (मज॰28.15)
108 एतवार (= रविवार) (आर सनीचर ? ... दृगशूल पूरब मुँह के जातरा ? भारी असगुन कह एही एतवार के चलिहा । हम कहलों - एतवार से तऽ सुरूमे होतै, तब हम जा के कि करबै ? खाली डगर नापै ले ?) (मज॰58.1, 2)
109 एत्ते (करीब छे बजे गाड़ी टीसन से खुल गेल त संतोष भेल बाकि हमर ई अनुभव न हल कि मेल के फेरा में गाड़ी एत्ते देर तलक टीसन पर खाड़ रहत । दू तीन जगह मेल देवे के फेरा में आ करीब आधा दर्जन बेर भैकम कटे से हमर जतरा पंचर साइकिल जसिन लौके लगल ।) (मज॰12.9)
110 एनउकन (जतरा एकल्ले के नञ् जमात के । संगी संग रहला ... गीत गलबात में समय कटइत गेलो ... मनुअइवा नञ् । से-से हम एनउकन कवि सब के अपने भिजुन जुटा लेली कि सब गोटी एक्के साथ चलम ।) (मज॰87.2)
111 एनहुँ (= इधर भी) (फकसियरवा के काम हे अगुआ के - एनहुँ हाँ, ओनहुँ हाँ, एनहुँ नञ्, ओनहुँ नञ् ।) (मज॰80.14, 15)
112 एन्नइँ (= एनहीं; इधर ही) (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।) (मज॰90.28)
113 एन्ने (= इधर) (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।) (मज॰90.28)
114 एन्ने-ओन्ने (श्रीवास्तव जी के कहनाम हल कि सतसंग में आके मन के एन्ने-ओन्ने नञ् भटकावे के चाही ।) (मज॰54.7)
115 एसकरे (= एकसरे; अकेले) (हम कहलों - सुरेश जी, इहैं रहो दा । इहाँ सब कवि-लेखक से रात भर बातचीत होत, कुछ हम सुनइवन - कुछ उनकर सुनव । ओजो तऽ एसकरे तोर सुनवै इया हम सुनइवो । अइसन काम नै करो, हमरा एजै रहो दा ।) (मज॰66.22)
116 एहजे (= एज्जे; यहीं) (ई सब बात मन में सोचते हलूँ कि गाड़ी डोभी पहुँचल । माहटर साहब के इसारा भेल कि तनी-मनी कुछ इया एहजे चाय मिलेवाला, लेलऽ ।) (मज॰46.15)
117 एहमा (= इसमें) (मिनट नञ् लगल कि सबके हाथ में मिठाय देवइत खाली एक अदद डिब्बा लउटा के हम्मर हाथ में देवइत कहलन - "ला बाबा ! एहमा गोलू भइया के हिस्सा हइ ।") (मज॰35.28)
118 ओइसन (रिसिकेस - जइसन नाम ओइसन गुन । अनगिनत मठ मंदिर, आसरम, गंगा मइया के अथाह गहीड़ धारा पर बिना पाया केबुल हे, नाम हे रामझूला, लच्छमन झूला ।) (मज॰20.6)
119 ओखनिन (= ओकन्हीं) (हम्मर खिंचाय चलिए रहल हल कि ओखनिन सबके गाड़ी आ के लगल, हम्मर जान बच्चल ।) (मज॰129.12)
120 ओजा (= ओज्जा; उस जगह) (हम कहलों - सुरेश जी, इहैं रहो दा । इहाँ सब कवि-लेखक से रात भर बातचीत होत, कुछ हम सुनइवन - कुछ उनकर सुनव । ओजो तऽ एसकरे तोर सुनवै इया हम सुनइवो । अइसन काम नै करो, हमरा एजै रहो दा ।; जितेन्दर बाबू ओजा साँझ के साँझ बइठऽ हला । गोड़ाटाही करइत देखि के ऊ भी टुघरइत आ गेला - "बड़ी व्यग्र बुझा हो ?") (मज॰66.22; 89.30)
121 ओझराना (जीवन के ई गुत्थी ओझराल हल कि पहुँच गेलूँ हमनी विश्वप्रसिद्ध संग्रहालय सलारगंज संग्रहालय ।) (मज॰40.16)
122 ओनहुँ (= उधर भी) (फकसियरवा के काम हे अगुआ के - एनहुँ हाँ, ओनहुँ हाँ, एनहुँ नञ्, ओनहुँ नञ् ।) (मज॰80.14, 15)
123 ओन्नइँ (= ओनहीं; उधर ही) (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।) (मज॰90.28)
124 ओन्ने (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।) (मज॰90.28)
125 ओन्नै (= ओनहीं; उधर ही) (जने निहारूँ ओन्नै सड़क के किनारे अनेकन जंगली जानवर के कार्टून बनल लगे कि अब बोलत कि कब दौड़त ।) (मज॰28.11)
126 ओबाइल-मोबाइल (दरसन करे वलन के अथाह भीड़ - लमहर लैन - सुरक्षा के भयंकर इंजाम - झोला-झक्कड़, जूता-चप्पल, ओबाइल-मोबाइल - सभे कुछ बाहर, खाली अदमी भीतर ।) (मज॰54.28)
127 ओसउनकी (नानी-मामी के मुड बढ़िया देख हम अप्पन खुसी के ओसउनकी करे लगलूँ ।) (मज॰45.23)
128 ओसउनी (नानी-मामी के मुड बढ़िया देख हम अप्पन खुसी के ओसउनकी करे लगलूँ । मामी-नानी चुपचाप ओसउनी के हर लम्हा गौर से सुनइते रह गेलन, चवनियाँ मुसकइते रहलन, मुदा तखनिए मम्मी आ गेल, बोलल - का बात हे ?) (मज॰46.1)
129 ओहमाँ (उत्सुकता बढ़ल आउ लिफाफा खोललूँ । ओहमाँ आमंत्रण पत्र हल ।) (मज॰107.4)
130 औटाना (लगल कि भीड़ भोर तक जमल रहत बाकि बीच में एक-दू कवि औटाइत दूध में नीबू गारि देलन । गझिन श्रोता के बीच कविता पाठ के आनन्द अलग हे ।) (मज॰95.2)
131 औड़ाना-बौड़ाना (ढाई हजार बरिस पहिले एगो महाभिनिष्क्रमण होले हल । राजकुमार सिद्धार्थ घर-द्वार, बीबी-बच्चा छोड़ के तुंबा-सोंटा ले लेलका हल अउ औड़ाल-बौड़ाल मगह देस आ गेला हल ।) (मज॰74.9)
132 औसर (= अवसर) (हमरो लगल कि चलऽ पटना जाय के औसर मिल गेल ।; सरदार वल्लभ भाई पटेल के जयंती समारोह के औसर पर विचार गोष्ठी अऊ कवि सम्मेलन हो ।; ओहे कमी के पूरा करे ले इ जतरा के औसर आल ।; औसर के लाभ उठावे ले जुगत भिड़ावे लगलन ।) (मज॰11.13; 25.8; 128.4, 7)
133 कंपोडर (= कंपोटर, कम्पाउण्डर) (एक दिन अचक्के हमर मन उचटि गेल । कोय काम में मन नञ् लगे । रोगी के भी अनमनाह नियन देख रहलूँ हल । अंतिम रोगी के देखि के हम मनझान-सन बइठल हलूँ । कंपोडर खाय ले चलि गेल हल ।) (मज॰107.3)
134 ककोड़ा (= किकुड़ा) (किला के मुख्य दुआर पर तंत्र-मंत्र के ललाट लेल विच्छा, ककोड़ा अऊ तरह-तरह के आकृति हे ।) (मज॰17.18)
135 कच-कच (~ हरियर) (सिद्धपीठन में रजरप्पा के बड़ नाम हल अउ सुन्नर-सुन्नर बाग-बगइचा, पेड़-पौधा, छोट-बड़ पहाड़न के कच-कच हरियर काया देखे ला मन तरसे लगल ।) (मज॰45.8)
136 कच-बच (अटैची के सिक्कड़ में बाँध के दुन्हूँ बेकत सुत गेली । भोरे अटैची वियोग सहे पड़ल । खैर कैसे तो बड़ी भाग से परसादी बच गेल हल । सोचलूँ कि भोरे-भोरे तनी मुँह में डाल लेल जाए । जइसहीं खोललूँ कि कच-बच पिल्लू रेंगैत हल ।) (मज॰124.3)
137 कचवचिया (छोट-छोट कचवचिया सन बुतरून जे इस्कूल में पढ़े वलन हल उ धड़फरा के उतरे लगल ।) (मज॰30.14)
138 कजइ (= कज्जो; कहीं भी) (घूमयत-फिरयत थकान महसूस भेल, पानी पिए ल परेशान पियास से व्याकुल जने तने पानी तलासलूँ, मुदा कजइ कुछ नञ् ।) (मज॰29.19)
139 कजउ (= कज्जू, कज्जो, किसी जगह भी, कहीं भी) (गल विस्कर्मा अपने से बनयलन हे सेहे से कजउ कोय कमी नय हल ।) (मज॰40.6)
140 कजा (= कज्जा; किस जगह, कहाँ) (डॉ॰ किरण से मोसबरा कर लेली हल । ऊ कहलन हल कि तीन बजे तक जयनन्दन जि के साथ हम बोलेरो गाड़ी से वारिसलीगंज पहुँच जाम । सिलाव बसवे कजा करऽ हे !; "कजा हो ?" -"कोसरागढ़ पर" -'सब गुँड़ गोबर करि देलहो ।" -"नञ् ... टैमे पर पहुँचि जइबइ ।" -"पाँच तऽ भे रहलइ हे ।" -"हमरा गम्मल रस्ता हइ । गाड़ी टंच हइ ।") (मज॰87.5; 88.19)
141 कज्ज (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।) (मज॰28.6)
142 कटकटाह (एगो लमहर ठहाका से दुहचिंता के गरबइया उड़ल ... फुर्र । फेन ऊहे कटकटाह सन्नाटा ।) (मज॰89.18)
143 कठुआना (हाथ ठंढ से कठुआ गेल । लगे कि अब छूटत कि तब छूटत ।) (मज॰62.11)
144 कड़र (= कड़ा) (पूरी-बुनिया हमर कमजोरी हे, जो नरम मिल जाय । कड़र रहला पर दाँत बाप-बाप करऽ लगऽ हे ।) (मज॰95.20)
145 कत (सिनन्दन चा से उनखर डेरा तक पहुँचे के, गया से गाड़ी खुले के जानकारी ले लेली । बकि हमरा बुझायल कि पढ़ल-अनपढ़ में कत गो भेद होअ हे ।) (मज॰11.19)
146 कत्ते (= केत्ते) (अब गाड़ी खुले के इंतजार, जल्दी समय हो कि गाड़ी खुले । कत्ते लोग-बाग अप्पन दुःख सुख बतियाइत, बेयापार, घर-परिवार के समस्या के ढेरो कथा-कहानी के आधा-पूरा छोड़ गाड़ी सीटी मारलक अउ घिसके लगल ।; हम रिक्शा पर बैठलों । उ पहुँचा देलक पूछलों - कत्ते पैसा ? उ बोलल - एक रुपइया ।) (मज॰15.4; 63.6)
147 कनकनाना (हम बहुत प्रेम से कहलों - माता ! तनी गेट खोल दा । हम अन्दर आ जायव । ऊ कुछ धेयान नै देलक । बहिन, दायाँ हाथ कनकना गेल, लगै हो हाथ छूट जायत ! गिर के मर जइबो, तोरा कि मिलतो !) (मज॰62.6)
148 कनकनी (= कनकन्नी) (माघ के महीना हल। हाड़ तोड़े ओला कनकनी । कभी कबार सुरूज के किरिंग कुहा में आँखमिचौनी करइत लौक जा हल, कभी त मन में रउदा के भर अकवार पकड़े के मन करो हल ।) (मज॰45.1)
149 कनखाह (लगऽ हे ऊ हमरा कुली समझ के हमरा से गिड़गिड़ैलन ... हम आगे बढ़ली फिन बोलली - "आउ न ढोबो तब ?" -"नऽ काहे ढोबवऽ ? हमर मलकिनी दने ताक के बोलल - "ई का कनखाह के परी हथिन ? हिनकर ढोवबहुन अउ हमर न ?" का बहस करती हल, आगे बढ़ली । पीछे से गारी बकइत हल । "ई मुझौसी कुलिया पर मन्तर मार देलकै हे । लगऽ हई एकर बाप के खरीदल हई ।") (मज॰120.13)
150 कनिआय (= कन्या, दुलहन; रिश्तों में छोटों की स्त्रियों के लिए आदरसूचक संबोधन शब्द) (महानगरी के एगो चौराहा, यातायात के टंच वेवस्था, साफ-सुत्थर, सजल कनिआय नीयन दिरिस हिरदा में हेल गेल ।; गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् । उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल ! फेफिआयत रहो । गाड़ी पर बइठल कते दुलहा मउरी सरियावइत रहथ ... की बनो हो ? घोघा तर कनिआय ताबड़तोड़ तरे-तरे पसेना पोंछइत रहो ।) (मज॰40.2; 91.30)
151 कन्ने (= किधर) (हम भुला देलूँ अप्पन अस्तित्व - हम के हूँ, कन्ने से अयलूँ हे, कन्ने जाना हे, काहे ले जा रहलूँ ... ?) (मज॰54.14)
152 कपटी (हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।) (मज॰100.7)
153 कब्जियाना (= कब्जा करना) (हमनी अपन झोला से लिट्टी-अँचार निकास के खइलूँ अउ लोघड़ गेलूँ अप्पन- अप्पन सीट पर । उत्तर-प्रदेश के हावा अऊ टरेन के लोरी कखने हमर चेतनता के कब्जिया लेलक, इयाद न हे ।) (मज॰53.30)
154 कमनिस (= कम्यूनिस्ट) (~ पाटी) (लक्खीसराय के राजकुमार कमनिस पाटी, फेर माले के काज-करता हो गेला । लिकत हला कम, मगर साहित के अच्छा सूझ-समझ हल उनका पास ।) (मज॰57.4)
155 कमल-तमल (= कम्मल-तम्मल; कम्बल वगैरह) (हमनी त दलान पर कमल-तमल ओढ़ के लोघड़ा गेलूँ ।) (मज॰78.15)
156 कमाय (= कमाई) (आझे पूरा बस्ती गेल सूटिंग ले । मेला के देखाना हल से भीड़ जुटावल गेल हल । फी मुड़ी अस्सी रुपया, बुतरू के रेट अलग । अराम के अराम, कमाय के कमाय ! आम के आम, गुठली के दाम !) (मज॰43.2)
157 कमासुत (हमनहीं के नजर विष्णुदेव भाई के तरफ लगल हे । ओही सँभालता ई मरखंडा बैल के । कमासुत तऽ लऽ, हका इ गिरहस, मुदा सींग हइ पञ्जल-पञ्जल ।) (मज॰80.18)
158 कर (= करवट) (हार पार के टिफिन खोलली जहवाँ श्रीमती जी के सरियावल भुँजिया, चपाती अउ दही हमरे राह देख रहल हल, जम के खइली । पानी पी के बामा कर फेरली ।) (मज॰33.22)
159 करकटाना (अंतिम रोगी के देखि के हम मनझान-सन बइठल हलूँ । कंपोडर खाय ले चलि गेल हल । हमर टिफिन अन्दर धइले हल । ई बेली तक तऽ भूख करकटा के लगऽ हल, बकि आज ऊहो उपह गेल हल ।) (मज॰107.4)
160 करगा (= बगल) (माता हमरा करगा में बइठ के माथा सहलाबो लगली, ढाढ़स बँधावो लगली । शुभांगी हमर तरवा रगड़ो लगली ।) (मज॰70.21)
161 करनय (= करनइ, करना) (एक्कर चरचा करनय ई से जरूरी हे कि ई दुनिया के अकेला मंदिर हे, जहाँ देस के जानल-मानल साधक, संत, जोगी, तपस्वी, ग्यानी महात्मा, संत कवि, दार्शनिक, विचारक, बलिदानी, राष्ट्रवादी वीर आत्मग्यानी, कवयित्री, सती, वीरांगना, दरवता आदि के मूरति कुल मिला के सात तल में स्थापित हे ।) (मज॰19.23)
162 करीगर (= करिग्गर; कारीगर) (ई पुल । बनवैया करीगर के बुद्धि, कला अउ मेहनत देख के माथा सरधा से झुक गेल ।) (मज॰38.1)
163 कलउआ, कलऊआ, कलौआ (चाय पीके बाहर निकललूँ अऊर रास्ता के कलऊआ के बंदोबस्त करके गाड़ी पकड़ लेलूँ ।; निश्चिंत होके हमनी अप्पन कलौआ के गठरी खोल के मुँह चालू कयलूँ ।) (मज॰133.9, 16)
164 कलेउआ (= कलउआ, कलेवा) (राह के कलेआ बनल अउ गरम कपड़ा सैंता गेल एगो झोला में ।) (मज॰83.16)
165 कहनय (= कहनइ, कहना, कथन) (सब्हे शास्त्र, पढ़ल पंडित, ग्यानी के कहनय हे कि दुनिया भर में ग्यान पावे के सिरिफ पाँच गो साधन हे, जेकरा में सबसे पहिले अउर जादे महातम हे - जतरा के, देस-विदेस घुमनय के यानी देसाटन के ।) (मज॰18.1)
166 कहनाम (श्रीवास्तव जी के कहनाम हल कि सतसंग में आके मन के एन्ने-ओन्ने नञ् भटकावे के चाही ।) (मज॰54.6)
167 कहाकूप (~ जंगल) (आँखि जहाँ तक जाय पेड़े-पेड़, पहाड़े-पहाड़, कहाकूप जंगल भरल असमान छूअइत गाछ-बिरिछ, सेव अखरोट के बगान, कजइ-कजइ इक्का-दुक्का घर, अगम खाई, बहइत बरफ के पिघलल निर्मल जलधार ।) (मज॰110.11)
168 कहियो (= किसी दिन) (टी॰वी॰ भीतर में हल । समाचार सुन के फिल्म देखलूँ, कहियो मराठी, कहियो कन्नड़ ।) (मज॰38.30)
169 कागज-पत्तर (बात हमरा पर टाल देल गेल अउर हम टीसनेवाला होटल में रुके के हामी भर देलूँ । कमरा में जाके तीनों जना फ्रेस भेलूँ अउ कागज-पत्तर लेके निकल गेलूँ ।) (मज॰131.16)
170 काड (= कार्ड) (हमर ध्यान पत्रकार रामसहाय लाल पत्रकार पर चलि गेल ... खल्ता पैजामा ... ठेहुना से नीचे खादी के कुर्ता पर बंडी आउ हाथ में गर्भवती डायरी ... उनखर डायरी चिट्ठी, काड, अखबार के कटिंग आदि से अफड़ल रहऽ हल ।) (मज॰91.6)
171 कान-कनइठी (एन्ने-ओन्ने मदद ले ताकइत रहो ... कोय हाथ लगा दे । हार-पार के बुदबुदइवा ... कान-कनइठी ! अब नञ् ई राह ! साल भर के सही, छो महीना के नञ् ! बाप रे बाप ! आधा किलोमीटर के पाट ! नाम सकरी पाट चउड़ी ।) (मज॰90.30)
172 कानना (= कनना; रोना) (कानइत बुतरूआ के चुप करइत माय । जरलाहा मरियो न जाय । कि बुतरूआ के आ जा हइ छी । मइया छतन जीओ ।) (मज॰27.12)
173 कार-हरियर (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।) (मज॰28.6)
174 किदोड़ (ई इलाका के लोग बड्ड ईमानदार होवो हथ । बाहरी आततायी के आतंक से ई इलाका बदनाम जरूर हे मुदा इहाँ के मूल रहवैया के हिरदा में कोय किदोड़ न देखे में आयल ।) (मज॰86.15)
175 किरिंग (= किरण) (माघ के महीना हल। हाड़ तोड़े ओला कनकनी । कभी कबार सुरूज के किरिंग कुहा में आँखमिचौनी करइत लौक जा हल, कभी त मन में रउदा के भर अकवार पकड़े के मन करो हल ।) (मज॰45.1)
176 किरिया-करम (= क्रिया-कर्म) (हमनी सभे तय जगह पर पहुँच के किरिया-करम से निवरित हो के सतसंग में चल देलूँ ।; 24 अप्रील के सबेरे किरिया-करम से निपट के खिड़की खोललूँ तऽ मंसूरी के भोर के नजारा टकटकी बान्हले देखयते रह गेलूँ ।) (मज॰53.32; 104.3)
177 किलास (= क्लास) (आज एक नया आदमी से सुरेश परिचय करवैलक जे उनकर भगिनी हल । नाम ओकर हल शुभांगी, नौवाँ किलास में पढ़ै हल ।) (मज॰67.26)
178 कुटुर-पुटुर (उ हमरा से पूछलक कि बिहार में कइसे बोलल जाहे । हम्मर सहेली में शीला तनी हँसोड़ हल से झट से बोलल कि हमनी कुटुर-पुटुर न बोलऽ ही, हमनी पकिया मगहिया ही, खाँटी देहाती भाषा, समझलऽ कुछ बुझइलवऽ ? ओकरा तो कुछ न बुझायल बाकि हमनी के हँसइत देख के बिना समझलहीं हँस देल ।) (मज॰49.27)
179 कुड़मुड़ाना (सुरुर चढ़े लगल हल हमनी सब पर । मुदा यादव जी कार के खिड़की से हुलक के हाँक लगयलन - "अरे घीसू-माधो ... अब उठो । चल देनूँ पटना । पंकज विष्ट कुड़मुड़ा के उठलन हल ... ।) (मज॰101.11)
180 कुढ़नय (हम तो भीतरे-भीतरे कुढ़ रहलूँ हल । होटल के बिल हम्मर कुढ़नय अऊर बढ़ा देलका । इहे बीच आइसक्रीम आल अऊर ओकर ठंढय मन के कुछ ठंढा कइलका ।) (मज॰132.18)
181 कुनी (= मनी) (ढेर-कुनी) (हमर मन में ढेरकुनी सवाल उठऽ लगल, संतोष भेल, हम मांगली तऽ नञ् । ऊ दे गेलन ।) (मज॰109.8)
182 कुहा (= कुहासा) (ठंढ भरल कुहा हमर बस के अप्पन बाँह में समेट लेलक ।; कुहा में पहाड़ धुंधुर लौकि रहल हल, हमरा लगे कि हम सब बादर में घुसल ही अउ बादर के सैर में निकललूँ हे ।) (मज॰109.27, 30)
183 केते (= केत्ते, कत्ते) (गाँव के सीमाना में बड़की नहर के निरमान काम जारी हल । हमर गाँव के केते किसान के खेत नहर में गेल हल जेकर मुआवजा मिले के नोटिस आयल हल ।) (मज॰11.3)
184 केराव (= मटर) (मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल । फिन सोन फरही के भुंजा, नमकीन, झंझड़ा से छानल सेव, अउ सतरंगी मकई, गेहूँ, बूँट, मसूर, केराव, रगन रगन मिलावल मुरही भरफँक्का खाके अउ पानी, चाय पी के अप्पन जगह पर जाय लेल विदा लेलूँ ।) (मज॰27.18)
185 केवाड़ी (= किवाड़) (गते-गते केवाड़ी सहमल मन के मुद्दा कउनो आवाज ठकठकइलूँ डीलल । तनि जोर से केवाड़ी के ठोके लगलूँ ।) (मज॰26.17, 18)
186 कै (= कितना) (बढ़िया से इयाद न हे कि ऊ कै तारीख हल, बाकि एतना जरूर इयाद हे कि ऊ पूस के महीना हल, 1978 ई॰ हल । उमर एही कोय सोरह-सत्रह साल के होयत ?) (मज॰11.1)
187 कोय (= कोई) (हम कहलियन - कि होतइ ? पता हमरा मालूम हे । कोय गाड़ी से - तोहरा समय पर मिल जइबो । ऊ दुनों टीसन, हम एने ।) (मज॰59.5)
188 कोयठमा (= कोय ठमा; कहीं) (रजरप्पा चले के बात सुन हमर तन-मन उछाह में उमगे लगल, कारन एक्के गो हल कि हम अब तलक कोयठमा घुमली न हल ।) (मज॰45.6)
189 कौची (= कउची) (घुमते-घुमते सहीदन के सहर में जाए के तय कइली आउ देस सेवा से बड़गो कौची होएत ।) (मज॰118.6)
190 खँचिया (इ लऽ एक खँचिया गोइठा - सुलगावऽ, दूध गरमावऽ अउ लिट्टी लगावऽ ।) (मज॰81.9)
191 खड्ड (= गड्ढा) (विशाल खड्ड के बाद जम्मू नदी अपन कलकल संगीत भरल ध्वनि से हमनी के स्वागत कइलक । मन दरिया में गेल, जे हरदम आगू बढ़े ले उताहुल रहऽ हे ।) (मज॰109.13)
192 खनखनाना (ब्रह्ममुहूर्त्त में उठल, स्नान-ध्यान कइल दस किलोमीटर चल के दोसर गाँव पहुँचलूँ तऽ भूख तो खनखना के लगल हले ।) (मज॰79.17)
193 खमौनी (= ठेकुआ) (मन के समेटले भूंजा-खमौनी खइते, गीत गुनगुनइते तेईस अक्टूबर से चौबीस अक्टूबर के छः बजे भोर में दिल्ली टीसन पर श्रमजीवी रूक गेल ।; घर के बनावल सामान, ऊ भी पाँच घर के, पाँच किसिम, पाँच स्वाद, पराठा, लिट्टी, खमौनी, तलल चूड़ा, भूंगा मूँगफली, निमकी ... खइते ... चाह कॉफी पीते, गर-गलबात करते, सुतते, बैठते मंजिल दने बढ़ल जा रहलूँ हल ।) (मज॰25.21; 107.23)
194 खम्हा (= खम्भा, स्तम्भ) (टमटम आगे बढ़ल । एगो खम्हा दिखलाय पड़ल । हम पूछली तो टमटम वाला ओहँई चले के इसारा कएलक ।) (मज॰122.9)
195 खरचा-वरचा (पाँच जून 2004 । भनसा में झोर छौंक रहलूँ हल कि फोनमा टुनटुनाल । डी॰एम॰ सफीना से खबर मिलल कि एक हफ्ता के कार्यशाला में हैदराबाद जाय के हे । ग्रामीण विकास विभाग खरचा-वरचा करत ।) (मज॰37.3)
196 खराँट (= खराँठ) (वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे ।) (मज॰90.21)
197 खराँठ (जल्दी पहुँचइ के अकबक्की में खराँठ मोड़ पर एन॰एच॰ धरि लेवइ के राय बनल । अड़चन माथे बीच के सकरी नदी हल । बरसात छोड़ के अनदिनमा छोटकी गाड़ी पार करि जा हल । तय भेल कि खराँठ होते एन॰एच॰ धरि के गिरियक भिजुन पंचाने नदी पार करइत पहाड़ के बगले-बगले आयुध कारखाना वली सड़क पकड़ लेवइ के चाही । राजगीर चौक से उत्तर तीन-चार किलोमीटर पर तऽ सिलाव हइये हे ।) (मज॰90.17, 18)
198 खल्ता (~ पैजामा) (हमर ध्यान पत्रकार रामसहाय लाल पत्रकार पर चलि गेल ... खल्ता पैजामा ... ठेहुना से नीचे खादी के कुर्ता पर बंडी आउ हाथ में गर्भवती डायरी ... उनखर डायरी चिट्ठी, काड, अखबार के कटिंग आदि से अफड़ल रहऽ हल ।) (मज॰91.4)
199 खस्ता (सिलाव माने खाजा तऽ मन फेनो बुतरू वला भे रहल हल । खस्ता खाजा के मिठा मन में घुलऽ लगल ।) (मज॰93.28)
200 खस्सी (सभे लोग भोजनालय में पहुँच गेला । पूड़ी, कचौड़ी, तसमई, पोलाव, दाल, सब्जी के साथे मछली, मुरगा आउ खस्सी के मांस बरतन में सजा के कतार में टेबुल पर रखल रहे ।) (मज॰105.25)
201 खाँटी (जातरा में खाँटी भोजन ओतनै जरूरी हइ जेतना रोगी ले पथ्य ।; कॉफी पीयत घरवाली के बोलैलन । उनखर ई बेवहार बड़ वेस लगल । घरवाली में खाँटी बिहारीपन, ओकरो से जादे मगहिनी ।; इहाँ के मशहूर मिठाई ... खाँटी खोवा के लाई ।) (मज॰37.14; 44.16; 101.15)
202 खाजा (सिलाव के खाजा, नालंदा के खंडहर, बिहार शरीफ के रावड़ी, बख्तियारपुर के केला, पटना के तारामंडल, गोलघर, अगमकुंआ, चिड़ियाखाना, पटनदेवी कुछो मन के अप्पन अउ नञ् खींच सकल ।) (मज॰25.19)
203 खाना-वाना (टीसन पर लौटली । खाना-वाना खाए के समय न मिलल । तनि-सुन पेड़ा लेली हल । दू-दू गो खा के पानी पी लेली आउ जे गाड़ी आएल ओकरे पर सवार हो गेली ।) (मज॰123.27)
204 खाली (= केवल) (महल में प्रवेश कइला पर गाइड ऊ जगह ले गेल जेजा शिवाजी के कैद कर रख लेल गेल हल मुदा आझ ऊ कोठरी गिर-पड़ गेल हे, खाली कोठरी के नीव के ईंटा हे ।) (मज॰17.23)
205 खास्ता (= खस्ता) (पत्ता के दोना में बूट के घुघनी के साथ दू गो करारा खास्ता लिट्टी ला के देलूँ उनका हाथ में । "ई का हे ?" रवि शास्त्री के आँख में कौतुक छिलक रहल हल । "ई बिहार के मशहूर लिट्टी हे ... मीठा नहीं, नमकीन हे .... ई चलत ।") (मज॰101.22)
206 खिंड़ना (संतोख भेल ... चलऽ, अभी कवि-सम्मेलन न नधाल हे । स्वर के तो पांखि होवऽ हे, जे छान-छप्पर फानि, नदी-नाला टपि हवा संग असमान खिंड़ऽ हे, बकि उद्गम स्थल तक जाय ले तऽ हमनी के गोड़ घिसियाना बाकिये हल ।) (मज॰94.4)
207 खिस्सा (= किस्सा) (तीन साल के मीनू पोती मगन - अब त बाबा नञ् जइता । ऊ बगल में सुति के मुँह पकड़ि जिद करऽ लगल -खिस्सा कहो बाबा ! हम ओकरा कइसे समझावो कि ई सब खिस्से तऽ भे रहल हे नुनु !) (मज॰89.11)
208 खुंडी (= टुकड़ा, टुकड़ी) (वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे ।) (मज॰90.21)
209 खुटपुटाना (कवि के मन में खुटपुटायत रहऽ हे ... आयोजक विदा करे अइतन भी कि सुखले उठ-पुठ के चलि देवे पड़त ?) (मज॰96.31)
210 खुटपुट्टी (= खुटखुट, खुटपुट, खुटखुटी, खुटपुटी; खटका, आशंका; चिन्ता, अन्देशा, संशय) (हम आतुर-सन कहली, "देबो ! निकालि दा ।" -"पहिले धरो ।" मन में खुटपुट्टी उरम्हल ... कहँइ लेके चमकि ने दे ... की करम ? कोय चारा नञ् देखि हम जेभी से निकालि के नमरी बढ़ा देली ।) (मज॰92.27)
211 खुसुर-पुसुर (= कानाफूसी) (खुसुर-पुसुर करते करते सब जना जहाँ-तहाँ बैठ गेलियो ।) (मज॰80.30)
212 खूँटी (= खुँट्टी, खुट्टी) (पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल । रस्ता भर टभकइत ई नदी पार कइली हल, 'सिठउरा' गाँव भिजुन एक आदमी खूब कसि के हँकइलन हल, "लोटा लेवा कि थारी ?" पहाड़ से टकरा के लउटल हल ... थारी । हम अकचकइली हल ... लोटा कने हेरा गेल ? बाल मन अकबकायत रहल हल ऊ रहस पर ।) (मज॰93.14)
213 खेत-बधार (गाड़ी सांय-सांय करइत अप्पन मंजिल दने दौड़ रहल हल । खेत-बधार, नदी-पइन, बाग-बगीचा, गाम-गिराम, शहर देस-परदेस सब छूट रहल हल ।) (मज॰15.9)
214 खेर (= खेर्ह) (ई मन के थाह लगाना अउ कलकत्ता पैदल जाना बरोबर हे । ... कखनौ सुटक के अपन खोंतवे के बुझ लेतो संसार, कखनउ कल्पना के पाँख खोल के सउँसे दुनिया के अपनावे ला सपनाय लगतो । जबकि ई जाने हे कि दुनिया के बात तो दिल्ली-दूर, एकर खोतवो एकर न हे, जेकरा केतना मेहनत से एक्के गो खेर, कागज, पत्ता ओगैरह चुन-चुन के ई सजइलक हे ।) (मज॰52.5)
215 खोंटा (= चींटा) (हम कहलियन - श्रवण बाबू ! जहाँ मिट्ठा होतै, उहँय खोंटा पहुँच जइतै । खोंटा के भगा देभो, पिपरी आ जइतै, पिपरी के भगा देभो, छोटकी गन्ध पिपरी आ जइतै ।) (मज॰69.22)
216 खोंटा-खोंटी (मिट्ठा हटा दा, सब खोंटा-खोंटी भाग जायत ।) (मज॰69.24)
217 खोंता (= खोंथा, घोंसला) (ई मन के थाह लगाना अउ कलकत्ता पैदल जाना बरोबर हे । ... कखनौ सुटक के अपन खोंतवे के बुझ लेतो संसार, कखनउ कल्पना के पाँख खोल के सउँसे दुनिया के अपनावे ला सपनाय लगतो । जबकि ई जाने हे कि दुनिया के बात तो दिल्ली-दूर, एकर खोतवो एकर न हे, जेकरा केतना मेहनत से एक्के गो खेर, कागज, पत्ता ओगैरह चुन-चुन के ई सजइलक हे ।) (मज॰52.3)
218 खोता (= खोंता) (ई मन के थाह लगाना अउ कलकत्ता पैदल जाना बरोबर हे । ... कखनौ सुटक के अपन खोंतवे के बुझ लेतो संसार, कखनउ कल्पना के पाँख खोल के सउँसे दुनिया के अपनावे ला सपनाय लगतो । जबकि ई जाने हे कि दुनिया के बात तो दिल्ली-दूर, एकर खोतवो एकर न हे, जेकरा केतना मेहनत से एक्के गो खेर, कागज, पत्ता ओगैरह चुन-चुन के ई सजइलक हे ।) (मज॰52.5)
219 खोथा (= खोंथा, घोंसला) (सुरूज देव अप्पन घोड़वन पर सवार हो पछियारी छोर दने धौगइत-धौगइत रुकइत हथ, जखने ऊ सुस्ताइत हलन तखनिएँ खोथवन में चिरईं चिरगुन चहकइत-फुदकइत बहोरत हथ ।) (मज॰45.13)
220 खोरना-खारना (हिंदू जोधा लड़े के मुहूर्त्ते निकलवइते रह गेला अउ ऊ बख्तियार 1202 ई॰ में चढ़ दौड़लइ । बिहार-बंगाल ला ऊ चंगेज खाँ के बाप हो गेलइ - खोर-खार के जला देलकइ मगध के गौरव अउ बंगाल के बड़प्पन ।) (मज॰81.24)
221 खोसरेजाय (= खोसरजाय, बख्शीश) (दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । ... बकि दरियापुर के एक जत्था बिखाद में हे ... रोजी में टाँगी लगि जात । सकरी के बदौलत करमो फूटे तऽ दाज लगा के फी मूड़ी दू-तीन नमरी तरिये जाय । बरसात में धड़नाय अउ बाकी दिन में थोसल गाड़ी छकड़ा पार करइ के खोसरेजाय ।) (मज॰91.19)
222 गँरउती (गरदन में गँरउती जइसन करिया अउ उज्जर मोती मिलावल माला पेन्हले हल अउ चानी के चमचम सटल हँसुली ।) (मज॰50.10)
223 गझिन (= घना, सघन, गाढ़ा) (लगल कि भीड़ भोर तक जमल रहत बाकि बीच में एक-दू कवि औटाइत दूध में नीबू गारि देलन । गझिन श्रोता के बीच कविता पाठ के आनन्द अलग हे ।) (मज॰95.3)
224 गड़ल-गड़ल (~ गीत) (कवि रामचन्दर भइया के अध्यक्ढता में कविता के दौर चलल । आरंभ भेल कारू गोप के गीत से । ऊ गड़ल-गड़ल गीत निकाललन, जे मंच पर कबहियों न सुना पइलन हल ।) (मज॰96.3)
225 गड़ी (= नारियल) (चाय गढ़गर दूध आउ चीनी से मीठ गुरांठ पी के मन सनुठ कइलूँ । लगले थोड़े देर में प्लेट में काजू किसमिस, गड़ी छोहाड़ा के नास्ता भी मिलल ।) (मज॰28.23)
226 गढ़गर (= गाढ़ा) (चाय गढ़गर दूध आउ चीनी से मीठ गुरांठ पी के मन सनुठ कइलूँ ।) (मज॰28.22)
227 गते-गते (= धीरे-धीरे) (गते-गते केवाड़ी सहमल मन के मुद्दा कउनो आवाज ठकठकइलूँ डीलल । तनि जोर से केवाड़ी के ठोके लगलूँ ।) (मज॰26.17)
228 गदगरना (पुरनकी सखी सब से मिलके तऽ हम्मर मन गदगरल ।) (मज॰48.14)
229 गनौरा (आगे एगो पोखरा आउ पोखरा के कोना पर सहीद-स्मारक । पोखरा के पास एतना गनौरा कि नाक न देवल जा हल अऊ हँकवान जी से कहलक कि नेहा लऽ एकरा में ।) (मज॰122.29)
230 गपियाना (आगंतुक बइठल आपस में गपिया रहलन हल इया हाथ में लेले कागज पर नजर टिकइले हलन ।) (मज॰34.27)
231 गबड़ा (= गड्ढा) (गाड़ी घड़घड़इलो कि सुरफुरइलो । गम्मल तऽ पार लगि गेलो बकि झखइत रहो अनगम्मल । अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो ।; गाड़ी बिचली लीक पर हिचकोला खायत डगमग बढ़े लगल ... जय भगवती ! एक हीस पार करइत गाड़ी एगो गबड़ा में फँसि गेल ... ले बलइया ! अब की होवत ?) (मज॰91.25; 92.5)
232 गमछी (रात भर गाड़ी के चूरल ही तनी नहा भी ली, फरेस हो जाँव । धोती खोल के गमछी पिन्हलों । झरना खोल देलों, माथा पर पानी गिरो लगल जैसे पानी नै ई बर्फ हे । देह सिल्ल हो गेल ।) (मज॰63.17)
233 गमाना (इहाँ रात गमौली एगो टेन्ट में । पारस बाबू, परमानंद जी ओगैरह तऽ देहो मालिस करव लेलन एगो दसटकिया पर ।) (मज॰85.29)
234 गम्मल (~ रस्ता) ("कजा हो ?" -"कोसरागढ़ पर" -'सब गुँड़ गोबर करि देलहो ।" -"नञ् ... टैमे पर पहुँचि जइबइ ।" -"पाँच तऽ भे रहलइ हे ।" -"हमरा गम्मल रस्ता हइ । गाड़ी टंच हइ ।") (मज॰88.24)
235 गम्मल (गाड़ी घड़घड़इलो कि सुरफुरइलो । गम्मल तऽ पार लगि गेलो बकि झखइत रहो अनगम्मल । अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो ।) (मज॰91.24)
236 गर (= गला) (नर से ~ तक) (हम ऊ उमिर तक में बासा में न खइली हल । एहसे जब चार चपाती के बाद जब बेरा भात देवे लगल तो हम सोचली नपना भर देके रोक देत । बाकि न रोकलक । तब तक ढेर भात गिर चुकल हल । नर से गर तक खाय पड़ल ।) (मज॰14.21)
237 गर-गलबात (घर के बनावल सामान, ऊ भी पाँच घर के, पाँच किसिम, पाँच स्वाद, पराठा, लिट्टी, खमौनी, तलल चूड़ा, भूंगा मूँगफली, निमकी ... खइते ... चाह कॉफी पीते, गर-गलबात करते, सुतते, बैठते मंजिल दने बढ़ल जा रहलूँ हल ।) (मज॰107.24)
238 गरबइया (= घरबइया) (एगो लमहर ठहाका से दुहचिंता के गरबइया उड़ल ... फुर्र । फेन ऊहे कटकटाह सन्नाटा ।) (मज॰89.18)
239 गरियाना (ऊ मजदूरनी के पति हमरा गरियाबो लगल - साला सूझऽ न हौ ? तोरा माय-बहिन नै हे ? हाथ-बाँहि पकड़ लेलें ! तोर ... औरत गरियाबो लगल - भँगलाहा ! हमरे पर गिर गैलो । दुर्रर ने जाय छछुन्नर ! तनी एक लाज नै ?; हम्मर मीत के अब कोय चारा नैं रहल । मने-मन गरियैते ऊ भी पीछे लगलन ।) (मज॰62.15, 16; 132.25)
240 गलबात (इक्कीस अक्टूबर तक दिल्ली में रहे के योजना हल । थकल मांदल मन तीन रोज डेरे पर खइलूँ - सुतलूँ । गीत गलबात से मन के बहलइलूँ ।; सुरेश भी बड़ा रस ले हल ई गलबात में, मुदा सरीक नै होय हला । एक त हमरा दुन्नो उमर में छोटा, दोसरे जाति में दोसर ।; जतरा एकल्ले के नञ् जमात के । संगी संग रहला ... गीत गलबात में समय कटइत गेलो ... मनुअइवा नञ् ।) (मज॰26.5; 68.4; 87.1)
241 गवनई (हम न समझइत हली कि बिहार के गीत गवनई में एतना सरसता हे जेकरा से लोग एतना परभावित हो गेलन ।) (मज॰51.2)
242 गहिड़ा (= गहीड़; गहरा) (बाहर एतनै चारों दने मिला के पाँच से छः किलोमीटर तक घेरान के साथ चारों तरफ बीस फीट गहिड़ा चौड़ा पंद्रह-सोलह किलोमीटर कवच जइसन सुरके खोदाई के इंतराज देख के मन रंग रह गेल ।) (मज॰29.10)
243 गहीड़ (= गहरा) (रिसिकेस - जइसन नाम ओइसन गुन । अनगिनत मठ मंदिर, आसरम, गंगा मइया के अथाह गहीड़ धारा पर बिना पाया केबुल हे, नाम हे रामझूला, लच्छमन झूला ।) (मज॰20.7)
244 गहीर (= गहीड़, गहरा) (आझ से पचास बच्छर पहिले 'प्रदीप' अखबार में समाचार छपइलन ... दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । अइसन समाचार बीच-बीच में छपइत रहल बकि सरकार के कान बहीर, पीठ गहीर !) (मज॰91.9)
245 गाँव-जवार (फिल्म के कथानक अच्छा हल । शरत बाबू के उपन्यास पर आधारित । गाँव-जवार के श्रीकान्त इंगलैण्ड से पढ़ के आ गेल हे ।) (मज॰72.17)
246 गाछ (हम उत्साहित हो के उनखा पास दू-तीन तरकट्टी ताड़ी आऊ भेजबइनूँ अऊ एन्ने हमरा साथे पंकज विष्ट चुक्को-मुक्को तार के गाछ के जड़ी तर बइठल पासी के सामने एक के बाद एक तीन-चार तरकट्टी खाली कर देलन ।) (मज॰101.7)
247 गाटर (= गर्डर; लोहे की बीम, शहतीर) (एक दिन सुनलूँ ... सामान गिरऽ लगल । दुइये बरीस में पुल बने-बने पर हे । पाया ढलाइयो गेल । गाटर बिछियो गेल । सड़क के चौड़ीकरण होवऽ लगल ।) (मज॰91.12)
248 गान्ही (= गाँधी) (जौन डैम में हम पैदा होलूँ अउ बढ़लूँ, उ टाइम में गान्ही बाबा के झरक चल रहले हल ।) (मज॰75.1)
249 गाम (= गाँव) (बिहान होके जब 10 बजे हम इस्कूल गेलूँ तऽ माहटर जी कहलन - "जो जो रे लड़कन ! घर जो । गान्ही जी मर गेलथुन । हमनहीं चौदह-पनरह गो लड़कन भागल-भागल घर अयलूँ अऊ गाम में कहलूँ तऽ लोग-बाग सन्न रह गेलन । ऊ टाइम में गाम में रेडियो-ट्रांजिस्टर न हलई, पढ़ल-लिखल हइये हलई कै गो ?; टोली ठहरल हल फतुहा के दक्खिन एगो टलहा गाम 'किस्मीरी चक' में । चक माने बड़गर गाम ।) (मज॰75.4, 5; 76.18, 19)
250 गाम-गिराम (गाड़ी सांय-सांय करइत अप्पन मंजिल दने दौड़ रहल हल । खेत-बधार, नदी-पइन, बाग-बगीचा, गाम-गिराम, शहर देस-परदेस सब छूट रहल हल ।) (मज॰15.10)
251 गिरदामानी (= गरदमानी) (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी । ... जान लेलूँ कि उतार देम ई बैल वला जूआ, खोल देम नथ-चरही आउ गिरदामानी ।) (मज॰52.15)
252 गिरहस (= गृहस्थ) (ई टोली के खिलावे में जजमान के फजहत हो जा हले । भैंस-रस खाना नय, डालडा खाना नय, चीनी खाना नय, मुर्गा, मांस, अंडा के तो सवाले नञ् । अब 'अतिथि देवो भव' के देस में बेचारा गिरहस का खिलावे ।) (मज॰79.27)
253 गिरानी (जब दू कुलफी के दाम चालीस रुपया देवे पड़ल तऽ दिल्ली के गिरानी के औकात भी समझ में आ गेल ।) (मज॰29.23)
254 गुनना (घुमे, देखे अउ गुने से ग्यान बढ़े हे ई बात समझ हमहूँ अप्पन नाम जातरी के सूची में लिखौली ।) (मज॰45.6)
255 गुरांठ (चाय गढ़गर दूध आउ चीनी से मीठ गुरांठ पी के मन सनुठ कइलूँ ।) (मज॰28.22)
256 गुलफुल (अब अइसइँ मुंगेर, जमुई, लखीसराय, झाझा, देवघर, कलकत्ता, भागलपुर गाड़ी-ट्रक निकलऽ लगत । सड़क के किनारे वला गाँव सब गुलफुल हे ... रोजगार मिलत, दोकान बनऽ लगल, गुमटी लगऽ लगल । जमीन के भाव चढ़ल । लोग-बाग नितरो-छितरो !) (मज॰91.15)
257 गुल्ल-फुल्ल (गाँधीजी गोली खइलथिन सीना पर । सहीदे आजम फाँसी पर चढ़ते-चढ़ते गुल्ल-फुल्ल मोटा गेलथिन । कायर के जज्बा देखहो - भुट्टो मियाँ के फाँसी पड़ल तऽ हुनकर गोड़े न उठे । जल्लाद टाँग-टुँग के फाँसी पर चढ़इलक ।) (मज॰77.19)
258 गैस्टिक (= गैस्ट्रिक) (आधा घंटा में खाय के बिज्जे भेल । भोजन पक्की हल - पूरी, सब्जी, बुनिया । गैस्टिक के परवाह कइले बिना हम भी सब के साथ देली ।) (मज॰95.19)
259 गोटा (दुन्हू अमरनाथ जतरा से वहोरइत हलन, राहे में दुन्हू गोटा तय कैलन हल कि आझ बोधगया में एकाध पहर बितायम ।) (मज॰83.3)
260 गोटी (= गोटा) (जतरा एकल्ले के नञ् जमात के । संगी संग रहला ... गीत गलबात में समय कटइत गेलो ... मनुअइवा नञ् । से-से हम एनउकन कवि सब के अपने भिजुन जुटा लेली कि सब गोटी एक्के साथ चलम ।; मिनती-उनती कइली, मनीता-उनीता मानली, गोरैया-डिहवार के भखली - तब नइकी सड़िया के उद्घाटन के नाम पर मानलन । दुन्हू गोटी सोझ होली - ओही एक्सपरेसवा से ।) (मज॰87.3; 118.18)
261 गोड़ (घुमइत-घुमइत गोड़ दुखाए लगल त साँझ के हमनी फिर सिकन्दराबाद टीसन से गाड़ी पकड़ली ।) (मज॰51.10)
262 गोड़ाटाही (जितेन्दर बाबू ओजा साँझ के साँझ बइठऽ हला । गोड़ाटाही करइत देखि के ऊ भी टुघरइत आ गेला - "बड़ी व्यग्र बुझा हो ?") (मज॰89.30)
263 गोतनी (कनफूल, माला, अँगूठी, चूड़ी सभे भरी से तौल के, सुच्चा मोती के । जेबी के धियान रखले कुछ अपना ले, कुछ छोटकी ननद-गोतनी ले भी ।) (मज॰44.8)
264 गोतियारे (सबसे पहला थारी हमरे मिलल - हम इन्तजार के मुद्रा में काजल आर राजकुमार के तरफ देखलों । उ कहलका - इ कि गोतियारे के भोज हिकै कि होटल हिकै, शुरु करो ।) (मज॰63.25)
265 गोरैया (मने मन गोरैया के गोहरावे लगली । गजराज अइसन समइया में भगवान् के पुकारलक होत । हमरो तऽ दरद द्रौपदी से कम न हे ।) (मज॰120.25)
266 गोरैया-डिहवार (मिनती-उनती कइली, मनीता-उनीता मानली, गोरैया-डिहवार के भखली - तब नइकी सड़िया के उद्घाटन के नाम पर मानलन । दुन्हू गोटी सोझ होली - ओही एक्सपरेसवा से ।) (मज॰118.17)
267 घंसगाढ़ा (उबड़-खाबड़ जमीन फूल-पत्ती के नामो निसान नञ् । दुभ्भी छीलइत घंसगाढ़ा सफाई के नाम पर दरमाहा ले हे तब माथा ठोकलूँ कि सरधा के झोर भंगोरे हे ।) (मज॰29.31)
268 घट्टा (= घट्ठा) (दियारा में खाय ला मिललो मकई के घट्टा, कोदो के भात अउ भैंस के भरपूर गोरस । ई गाढ़ा छालीवाला दूध विष्णुदेव भाई के ममोसर न होलइ ।) (मज॰81.31)
269 घड़घड़ाना (गाड़ी घड़घड़इलो कि सुरफुरइलो । गम्मल तऽ पार लगि गेलो बकि झखइत रहो अनगम्मल । अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो ।) (मज॰91.24)
270 घन्ना (दुन्हु दन्ने से दू गो मजूरा बारी-बारी से घन्ना चलाबो हथ ।) (मज॰40.30)
271 घर-गिरिहस्ती (जतरा के तकलीफ, उमड़ल उछाह से झँपा गेल । घर-गिरिहस्ती से मुक्ति, जीवन के एकरसता छूट गेल हल ।) (मज॰37.5)
272 घरमुँहा (= बाहर से घर की ओर लौटता हुआ जानवर जो स्वाभाविक रूप से तेज चलता है) (गाड़ी घरमुँहा बरद-सन भोर के उजास में भागल जा रहल हल ।) (मज॰97.13)
273 घरवाली (कॉफी पीयत घरवाली के बोलैलन । उनखर ई बेवहार बड़ वेस लगल । घरवाली में खाँटी बिहारीपन, ओकरो से जादे मगहिनी ।) (मज॰44.16)
274 घिसियाना (संतोख भेल ... चलऽ, अभी कवि-सम्मेलन न नधाल हे । स्वर के तो पांखि होवऽ हे, जे छान-छप्पर फानि, नदी-नाला टपि हवा संग असमान खिंड़ऽ हे, बकि उद्गम स्थल तक जाय ले तऽ हमनी के गोड़ घिसियाना बाकिये हल ।) (मज॰94.5)
275 घुँघनी (= घुघनी) (हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।) (मज॰100.6)
276 घुघनी (पत्ता के दोना में बूट के घुघनी के साथ दू गो करारा खास्ता लिट्टी ला के देलूँ उनका हाथ में । "ई का हे ?" रवि शास्त्री के आँख में कौतुक छिलक रहल हल । -"ई बिहार के मशहूर लिट्टी हे ... मीठा नहीं, नमकीन हे .... ई चलत ।"; हम बोलली -"चना के घुघनी भी हे । ओकरे साथ मिला कर खा अउरो अच्छा लगत ।) (मज॰101.22, 28)
277 घुट्ठी (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी ।) (मज॰90.25)
278 घुड़मुड़िया (~ खाना) (धीरे-धीरे धोती के फाँड़ा वान्हलों, चद्दर के देह में नीक से लपेटलों, झोला के चौकीदार नियर दोसर कन्धा में ले लेलों, जेमें गिरे नै ! आर मूँड़ी हेला को दू गोटी के बाँह पकड़ के, घुड़मुड़िया खेल गेलौं । अब हम अन्दर आ गेलों, उठ के खड़ा हो गेलों ।) (मज॰62.13)
279 घुमंतू (हम घुमंतू नञ् ही । मुदा एगो भूख हे, देस के मसहूर जगह देखे के ।) (मज॰103.1)
280 घुम-घुमउआ, घूम-घुमउआ ('अनन्त नाग' पार कइला पर जिलेबी जइसन घुम घुमउआ सड़क अउ पहाड़ के चढ़ाई आरम्भ भे गेल ।; गाड़ी कुछ देरी उपरहीं चढ़इत गेल ओइसने घूमघुमउआ जिलेविया सड़क पर ।) (मज॰109.25; 110.2)
281 घुमनय (= घुमनइ, घूमना) (सब्हे शास्त्र, पढ़ल पंडित, ग्यानी के कहनय हे कि दुनिया भर में ग्यान पावे के सिरिफ पाँच गो साधन हे, जेकरा में सबसे पहिले अउर जादे महातम हे - जतरा के, देस-विदेस घुमनय के यानी देसाटन के ।) (मज॰18.3)
282 घुरती (घुरती साल 2002 ईस्वी में अमरनाथ जतरा के तइयारी सुरूम भेल ।) (मज॰83.11)
283 घोंघड़ (~ काट के सुतना) (रात दस बजते बजते उज्जर फह फह भर कटोरा में खीर अउ गरम-गरम परौठा खइलूँ भर हिंछ घोंघड़ काट के खूब सुतलूँ ।) (मज॰28.25)
284 घोघा (= घुग्घा) (गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् । उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल ! फेफिआयत रहो । गाड़ी पर बइठल कते दुलहा मउरी सरियावइत रहथ ... की बनो हो ? घोघा तर कनिआय ताबड़तोड़ तरे-तरे पसेना पोंछइत रहो ।) (मज॰91.30)
285 घोरना (इशारा कैला टेबुल पर पानी से भरल जग रखल आ एक नग में पतला मट्ठा घोरल रखल हल ।) (मज॰49.19)
286 चँचरी (इंदिरा-आवास से वंचित हलन सभे, करकट चँचरी के छप्पर, बाँस के फराठी से दावल बोरा के चट के घेरा, पुरनकी साड़ी से घेरले देवाल ।) (मज॰42.19)
287 चउगिरदा (एगो अजीब माहौल, चउगिरदा सन्नाटा, धेआन में डूबल हजारो लोग बाकि लगे निरजन । पता नञ् कइसन अनुसासन में बन्हल लोग ?) (मज॰54.1)
288 चउड़ाय (= चौड़ाई) (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।) (मज॰90.26)
289 चउन-भउन (ढेरो नम्बर के चले वला बस के देख के मन चउन-भउन हो गेल । तब लोग कहलन कि कहाँ जइबऽ, बोललूँ - 'लाल किला' । अट्ठाइस नम्बर वाली बस से चल जा ।) (मज॰26.10)
290 चउरट्ठा (= चौरेठ, चौरेठा; मांगलिक अवसरों पर काम में लाने का चावल के आटे का घोल; अइपन) (दू चार गो घर में जाके देखलूँ, दुआरी पर चउरट्ठा के अल्पना, झोपड़ी के कोना में तन्नी गो पूजा के निर्धारित जगह, बड़का पीतल के तुमेड़ा, पानी रखय ले ।) (मज॰42.24)
291 चक (टोली ठहरल हल फतुहा के दक्खिन एगो टलहा गाम 'किस्मीरी चक' में । चक माने बड़गर गाम । साँझ के झुटपुट गहराय लगल हल ।) (मज॰76.19)
292 चगरमंच (घूमयत-फिरयत थकान महसूस भेल, पानी पिए ल परेशान पियास से व्याकुल जने तने पानी तलासलूँ, मुदा कजइ कुछ नञ् । नजर पड़े करकट से छारल होटल, पहुँचते खूब चगरमंच जयसन आकर्षक पहरावा से लैस हाथ उतार दिलार के मलाई के बनल कुल्फी अगुए के दुअरिया पर बेच रहल हल ।) (मज॰29.20)
293 चचा (= चाचा) (बाबू तनि एगो काम न करबऽ ? - कइसन काम चचा ?) (मज॰11.10)
294 चट (= सन, पटुआ आदि का चटकल में बुना कपड़ा; टाट आदि की बैठने की आसनी) (इंदिरा-आवास से वंचित हलन सभे, करकट चँचरी के छप्पर, बाँस के फराठी से दावल बोरा के चट के घेरा, पुरनकी साड़ी से घेरले देवाल ।) (मज॰42.19)
295 चटर-पटर (बस अड्डा के पंडाल में चटर-पटर सोवदगर भोजन भेल, सरकारी बस पर बैठलूँ, आगे-आगे सेना के जवान बीच में हमनी के बस ओकर पाछे सेना गाड़ी चलल ।) (मज॰85.8)
296 चट्टी (रस्ता में टैक्सी रूकल । पकौड़ी आउ चाय के दोकान के छोटगर चट्टी रहे । टैक्सी से उतरली तऽ नजर अलकतरा के सड़क आउ जगमगायत बिजली के रोसनी पर पड़ल ।) (मज॰103.17)
297 चण्ट (शरण बाबू टीटी से कहलका - एक आदमी हमर हथ । इनका हबड़ा में उतार दीहऽ । टी॰टी॰ बंगाली हल, कहलकन - नय । समझौलखन - मगर ऊ चण्ट कुछ नै सुनलक ।) (मज॰59.26)
298 चलाँकी (= चालाकी) (मुदा उनकर ई चलाँकी हम्मर दोसर मीत तुरते समझ लेलका । भला ऊ कइसे बइठल रहता । लगल उनखा उखबिक्खी अउर लग गेला ऊ भी सीट के तलास में ।) (मज॰129.24)
299 चवनियाँ (~ मुस्कान) (चवनियाँ मुस्कान के साथ अभिवादन करइत स्वागत कक्ष के खिड़की तक पहुँच गेली ।) (मज॰34.23)
300 चहेता (फिन तो हम सबके चहेता हो गेलों । कवि सम्मेलन समाप्त भेल । कवि लोग हमरा से अप्पन पता लिखावो लगला, न्योता दियो लगला ।) (मज॰65.25)
301 चा (= चचा का संक्षिप्त रूप) (हम खा के घरे से दूरा पर वहरइली कि सिनन्दन चा हाथ में कागज लेले आवइत लौकलन अउ हमरा भिजुन आ के खाड़ हो गेलन ।) (मज॰11.8)
302 चाह (= चाय) (कमाल के नीन कि दिन के भोजन नदारत ! निवृत्त होके अयली तब चाहवला गायब !; ठीके थोड़े देर में नाश्ता में दू दू गो टोस्ट आर दालमोठ आ गेल । फिन चाह, फेर एक होटल में सबके ले जायल गेल । वहाँ सोहाड़ी आर तड़का आ गेल ।; हमर मन तीत भे गेल ... जतर के फेर ... पहिल असगुन । भइया हमर मन भाँप गेलन । बेलौस लहजा में कहलन - "चलऽ, ई खुसी में एककगो गरम-गरम चाह हो जाय ।") (मज॰33.20; 63.23; 87.18)
303 चाह-चहकड़ी (सिलाव बसवे कजा करऽ हे ! पाँच बजे से कवि सम्मेलन नधात । बीच के दू घंटा तऽ काफी हे । रस्ता में चाह-चहकड़ी पीते समय पर पहुँच जाम ।) (मज॰87.6)
304 चिक्कन (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।; सड़क अइसन चिक्कन अउ साफ कि सुइया गिरे तऽ जना जाय ।) (मज॰28.6; 109.22)
305 चिजोर (एतने में बस के हॉर्न बजल अउ इच्छा न रहइत भी चिजोर सन आग के छोड़ के अपन-अप्न सीट पर जा बैठलूँ ।; जगह महत्त्व के होवऽ हे, पर हम ओकरा में से केत्ता छिपा चोरा के अपना हिरदय में लेले चल अयली, एही बहुत अजगुत चिजोर हे ।) (मज॰110.1; 127.30)
306 चिताने (चिताने सुतल हका ।) (मज॰78.23)
307 चिनियाँ-बेदाम (घर के राह में खाय खातिर मगहिया भूँजल चूड़ा, चिनियाँबेदाम के दाना व गुड़ जुगुत करके दे देलन हल ।; परिचय शुरू होते-होते चिनियाँ बेदाम के अउडर भेल ।) (मज॰25.17; 129.27)
308 चिन्हना (= पहचानना) (ऊ पूछलक - के हिकै ऊ दुइयो ? हम कहलों - बजार के, केकरा तों चिन्हऽ हीं, केकर नाम बतइयौ ?) (मज॰57.20)
309 चिरईं-चिरगुन (सुरूज देव अप्पन घोड़वन पर सवार हो पछियारी छोर दने धौगइत-धौगइत रुकइत हथ, जखने ऊ सुस्ताइत हलन तखनिएँ खोथवन में चिरईं चिरगुन चहकइत-फुदकइत बहोरत हथ ।) (मज॰45.13)
310 चुक्को-मुक्को (हम उत्साहित हो के उनखा पास दू-तीन तरकट्टी ताड़ी आऊ भेजबइनूँ अऊ एन्ने हमरा साथे पंकज विष्ट चुक्को-मुक्को तार के गाछ के जड़ी तर बइठल पासी के सामने एक के बाद एक तीन-चार तरकट्टी खाली कर देलन ।) (मज॰101.7)
311 चुरकुन-भुरकुन (= चुरकुन-मुरकुन) ("अब तऽ झोरी में कुछ भी चुरकुन-भुरकुन नञ् रहलो । बोलऽ, अब की करवा ?" एगो साथी सब कइलन । भूख लगल हल । अन्त में हम बोलली ... बाबा बर्फानी के राह में हा, दंभ त्यागऽ आउ कैम्प के आतिथ्य स्वीकारऽ ।) (मज॰108.26)
312 चुहचुहाना (भोर के चुहचुहिया चुहचुहाय लगल ।) (मज॰96.30)
313 चुहचुहिया (भोर के चुहचुहिया चुहचुहाय लगल ।) (मज॰96.30)
314 चूड़ा (= चिवड़ा) (घर के राह में खाय खातिर मगहिया भूँजल चूड़ा, चिनियाँबेदाम के दाना व गुड़ जुगुत करके दे देलन हल ।) (मज॰25.17)
315 चेंगड़ी (हम कहलों - खूब भूख लगल हे । डा॰ बोलल - चेंगड़ी-भात खिला दऽ । हम सुरेश से पूछलों - चेंगड़ी केकरा कहऽ हइ सुरेश जी ? - बहुत पोष्टिक अउ सुपाच्य होवे हे । बंगाल में पथ्य के रूप में ओकर प्रयोग होवो हे, खाय में स्वादिष्ट भी । खा के तो देखऽ । हम कर जोड़ के कहलों - नै मीरा ! चेंगड़ी-फेंगड़ी कुछ नै ।; माताजी चेंगड़ी भात बनइले हली । खइली, अच्छा लगल ।; चेंगड़ी-भात खइलों । फेर माताजी घी लगल रोटी चेंगड़ी-भुँजिया के साथ बान्ह के हमर झोला में रख देलकी ।) (मज॰71.1, 2, 5; 72.4; 73.11)
316 चेंगड़ी-फेंगड़ी (हम कहलों - खूब भूख लगल हे । डा॰ बोलल - चेंगड़ी-भात खिला दऽ । हम सुरेश से पूछलों - चेंगड़ी केकरा कहऽ हइ सुरेश जी ? - बहुत पोष्टिक अउ सुपाच्य होवे हे । बंगाल में पथ्य के रूप में ओकर प्रयोग होवो हे, खाय में स्वादिष्ट भी । खा के तो देखऽ । हम कर जोड़ के कहलों - नै मीरा ! चेंगड़ी-फेंगड़ी कुछ नै ।) (मज॰71.5)
317 चेहरा-मोहरा (हमर गाड़ी के हार्न से घूमि के देखलन । चेहरा-मोहरा से जापानी बुझइलन ।) (मज॰93.22)
318 चोरी-चमारी (दुभासिया से पता चलल कि इहाँ चोरी-चमारी नय होवो हइ, के चोरैतय ? चोरैला बाद के दुरदसा कत्ते भोगतै ? समाज के नजर में गिरे से बड़गर सजाय आउ की होतै ?) (मज॰42.28)
319 चौगिरदी (देस के चौगिरदी प्रगति के इहे सभे पहचान हे ।) (मज॰16.5)
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