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Sunday, November 06, 2011

39. "मगही जतरा" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


मज॰ = "मगही जतरा", सम्पादक - डॉ॰ भरत सिंह एवं डॉ॰ चंचला कुमारी; प्रकाशक - कला प्रकाशन, बी॰ 33 33 ए - 1, न्यू साकेत कॉलनी, बी॰एच॰यू॰, वाराणसी-5; प्रथम संस्करण - 2011 ई॰; 144 पृष्ठ । मूल्य 350/- रुपये ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 924

ई मगही जतरा में कुल 22 यात्रा-विवरण हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
लेखक
पृष्ठ
0.
अप्पन बात
सम्पादक
v - viii
0.
विषयानुक्रमणिका
सम्पादक
ix - x




1.
जे घटना आज भी ताजा हे
अलखदेव प्रसाद 'अचल'
11-14
2.
हवा से बात करइत
अजय
15-17
3.
सरग के दुआर पर दस्तक
डॉ॰ उमेश चन्द्र मिश्र 'शिव'
18-24




4.
झटके से एगो झलक दिल्ली के
उमेश प्रसाद
25-31
5.
महापाप ! घोर अन्याय !
श्री के॰एन॰ पाठक
32-36
6.
नजारा निजाम नगरी के
डॉ॰ किरण कुमारी शर्मा
37-44




7.
जब हम रजरप्पा गेली हल
डॉ॰ चंचला कुमारी
45-47
8.
संस्कृति के चरनामृत
चन्द्रावती चन्दन
48-51
9.
मगध से मथुरा
जयनन्दन सिंह
52-56




10.
जतरा कलकत्ता के
परमेश्वरी
57-73
11.
हम्मर महाभिनिष्क्रमण
डॉ॰ बृजबिहारी शर्मा
74-82
12.
जब हम अमरनाथ गेली
डॉ॰ भरत सिंह
83-86




13.
खस्ता खाजा के मिठास
मिथिलेश
87-97
14.
धनरूआ के लिट्टी
नरेन
98-102
15.
मंसूरी में तीन रात
रामचन्दर
103-106




16.
बुलावा अमरनाथ के
डॉ॰ शंभु
107-112
17.
हम्मर अंग जतरा
शोभा कुमारी
113-117
18.
सहीदन के सहर में
डॉ॰ सच्चिदानंद प्रेमी
118-124




19.
जतरा माउन्ट आबू के
डॉ॰ शेष आनंद मधुकर
125-127
20.
कलकत्ता-जतरा
डॉ॰ शिवेन्द्र नारायण सिंह
128-134
21.
गेली काठमांडू घूमे
डॉ॰ सीमा रानी
135-140




22.
चेरापूँजी के जतरा
डॉ॰ खिरोहर प्रसाद यादव
141-144

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):

614    फकसियार (बघवा शिकार करे चलऽ हइ तऽ फकसियरवा पहिलहीं फफंकात जीव जंतु के सचेत कर दे हइ ।)    (मज॰79.18)
615    फक्खड़ (हमनी उतरलूँ अऊर टीसन से बाहर भेलूँ । हम्मर फक्खड़ मीत अप्पन जानल होटल में पहुँचा देलका ।)    (मज॰132.14)
616    फगुनाहट (फगुनाहट के पाती भइया के आइयो गेल !)    (मज॰87.11)
617    फट्टा (पचास के आसपास उमर हो गेल होत उनखर । कनपट्टी पर के बाल पक गेल हल । मुदा उनखर छौफुटा शरीर सोंटाल तार के फट्टा जइसन सीधा तनल हल ।)    (मज॰99.32)
618    फरफुल्लित (= प्रफुल्लित) (भोरे गरम पानी के स्नान सब थकान के धो-पोछ के बहा देलक । मन फरफुल्लित भे गेल ।)    (मज॰111.27)
619    फरही (= फड़ही) (मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल । फिन सोन फरही के भुंजा, नमकीन, झंझड़ा से छानल सेव, अउ सतरंगी मकई, गेहूँ, बूँट, मसूर, केराव, रगन रगन मिलावल मुरही भरफँक्का खाके अउ पानी, चाय पी के अप्पन जगह पर जाय लेल विदा लेलूँ ।)    (मज॰27.17)
620    फराठी (इंदिरा-आवास से वंचित हलन सभे, करकट चँचरी के छप्पर, बाँस के फराठी से दावल बोरा के चट के घेरा, पुरनकी साड़ी से घेरले देवाल ।)    (मज॰42.19)
621    फराहित (सुआदिस्ट भोजन के बाद तीन दिन से रूकल गोड़ फराहित करयले अतिथिसाला के पसरल फूलवाड़ी में खूब चहलकदमी कयलूँ ।)    (मज॰38.23)
622    फरेस (= फ्रेश) (सबेरे फरेस होके सेंट्रल हॉल पहुँच गेलूँ ।; इहाँ के वनिस्पत उहाँ जाड़ा कम लगल । कहलों - रात भर गाड़ी के चूरल ही तनी नहा भी ली, फरेस हो जाँव ।)    (मज॰38.32; 63.17)
623    फह-फह (उज्जर ~) (रात दस बजते बजते उज्जर फह फह भर कटोरा में खीर अउ गरम-गरम परौठा खइलूँ भर हिंछ घोंघड़ काट के खूब सुतलूँ ।)    (मज॰28.24)
624    फाँड़ा (धीरे-धीरे धोती के फाँड़ा वान्हलों, चद्दर के देह में नीक से लपेटलों, झोला के चौकीदार नियर दोसर कन्धा में ले लेलों, जेमें गिरे नै ! आर मूँड़ी हेला को दू गोटी के बाँह पकड़ के, घुड़मुड़िया खेल गेलौं । अब हम अन्दर आ गेलों, उठ के खड़ा हो गेलों ।)    (मज॰62.12)
625    फाड़ा (~ कसना) (हमरा से बेसी त मलकिनी फाड़ा कस के तनलन अउ कहलथन कि तू का समझऽ हें रे । मगहिया से लड़ाय मोल लेवे के मतलब हउ सनिचरा के साढ़े साती नेउतना । अइसन बगलामुखी मन्तर मारवउ कि बस ।)    (मज॰119.10)
626    फारे-फार (मन में एही भाव छिपौले साँझ ही सहीद के सहर के वास्ते सामान सरिऔलूँ । मलकिनी पूँछलन, "कहाँ के तैयारी हो गेल हे अपने के ?" मन तऽ थोड़ा बइठल । जतरा पर टोके के नय चाही । बाकि का कही ? उनका हम सब बात फारे-फार सुना देली ।)    (मज॰118.11)
627    फिन (=फिनो, फिर) (टीसन पर आके खुद लाईन में लग के दू गो टिकस कटैलन । फिन दुनो गाड़ी में जा के बइठ गेली ।; हम एक तुरी फिन फोन कइलूँ । अबरी जयनन्दन जी जवाब देलका, 'अब खतमे भे रहलइ हे । चार ओभर बाकी हइ ।")    (मज॰14.13; 88.14)
628    फिनो (मुम्बई जाय के खुशी में रात के नीन उड़ गेल । बड़ी कोशिस कइला पर तनी झपकी लगल फिनो हालिए नीन टूट गेल । भोरगरही ललमटिया में बस पकड़लूँ अउ भागलपुर समय से पहिले पहुँच गेलूँ ।)    (मज॰15.2)
629    फुकना (= बैलून) (मेला के दिरिस एक दने बैलगाड़ी खड़ी, फुकना के गुच्छा लेले बुतरू । लाठी में खोंसल ढेर फुकना बँसुरी, लाटरी बेचैवला, निसाना साधै वला बन्दूक अउ ओकर लक्ष्य, चूड़ी के बट्टा, कीनताहर जन्नी, टिकुली-सेनुर के पसरल दुकान, हवा मिठाय ले बुतरूअन के भीड़, मकय के लावा खयते लोग, घिरनी, चरखी, झुलुआ सब सजल हल ।)    (मज॰43.13)
630    फुटियाना (समारोह के मैदान में विदाई के बखत सुरच्चा बल के अफसर अउ जवान के चेहरा पर बिछुड़न के उदासी साफ देखल जा रहल हल । सभे एक दोसरा से फुटियाइ के गम में समायल हलन ।)    (मज॰105.30)
631    फेन (= फेनु, फेनो, फेर, फिर) (एगो लमहर ठहाका से दुहचिंता के गरबइया उड़ल ... फुर्र । फेन ऊहे कटकटाह सन्नाटा ।)    (मज॰89.18)
632    फेनु (= फिन, फेनो; फिर) (फेनु सरकारी इमारत के छोड़ तिनतल्ला मकान के जादे कुछ मनोहर भवन भी देखे ले नञ् मिलल ।)    (मज॰27.27)
633    फेनो (= फिनो, फिन, फिर) (आझ संयोग से दिल्ली के जतरा में फेनो शास्त्री जी मिल गेलन ।)    (मज॰34.6)
634    फेफिआना (गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् ।  उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल ! फेफिआयत रहो । गाड़ी पर बइठल कते दुलहा मउरी सरियावइत रहथ ... की बनो हो ? घोघा तर कनिआय ताबड़तोड़ तरे-तरे पसेना पोंछइत रहो ।)    (मज॰91.29)
635    फोंका (चिंता गोस्सा के रूप धइले जा रहल हल । कोय अंगुरी धरि दे कि ढुरढुर फोंका फूट पड़े ।)    (मज॰88.28)
636    फोहबा, फोहवा (अदमी का का नञ् करे हे मिरतु के झुठलावे ला ? एगो अबोध फोहबा नियन अप्पन तरहतथी से आँख झाँप ले हे क्रोध डेरावना चीज से बचे ला ।; हमर नजर एगो डोली पर बइठल पचास-साठ के मेहरारू के गोदी में दू साल के फोहवा पर पड़ल ।)    (मज॰55.3; 111.16)
637    बँहियाना (पैजामा, कुर्ता आउ बंडी पेन्हले कंधा पर भूदानी झोला टाँगले गंभीरता के प्रतिमूर्ति बनल शर्मा जी भिजुन हम पहुँचिये रहली हल कि चार डेग आगू बढ़ि के ऊ हमरा बँहियावइत कहलन "परनाम" । उनखर चेहरा पर संतोख के मुस्कान पसरल हल ।)    (मज॰94.23)
638    बउल (= बल्ब) (केवाड़ी खुलल, टीप-टीप बटन के आवाज भेल कि अढेरी बउल अउ मरकरी से भीतर जगमगा गेल । चकाचक सोफा पर भर अकवार गला में साटइत सिद्धेश्वर बाबू प्रेम के दरिया बहावइत जगह पर बइठलन अउ काफी, चाय, नास्ता चले लगल ।)    (मज॰26.28)
639    बकड़ा (= बकरा) (हमहुँ कबीरपंथी ही - "मन न रंगाए, रंंगाए जोगी कपड़ा । दढ़िया बढ़ाय जोगी हो गेला बकड़ा ।" विष्णुदेव भाई के जब बकड़ा कह देल गेल तब समस्या गंभीर हो गेल । मरखंडा बैल के के संभाले ?)    (मज॰80.26, 27)
640    बकलोल (बकलोलहन के बकलोल बनावे लऽ गुरु, पुरोहित, ज्योतिषी, पंथबाज, रंगबाज के कउन कमी ?)    (मज॰79.31)
641    बकार (फकसियार धर्म के पुरोधा ब्रजभूषण भाई के सिट्टी-पिट्टी गुम । बकारे नऽ खुले ।)    (मज॰80.12)
642    बकि (= बाकि, लेकिन) (साढ़े ग्यारह बजे गया उतरली । बकि गया से जाखिम दने के गाड़ी दू बीस में हल ।)    (मज॰14.15)
643    बच्छर (वत्सर, वर्ष) (आझ से पचास बच्छर पहिले रामसहाय लाल पत्रकार 'प्रदीप' अखबार में ई पीड़ा के स्वर देलन हल । गाड़ी बासोचक भिजुन पौरा नहर पार करि गेल ।)    (मज॰91.1)
644    बजड़ना (मन मतंगी कवि सब के जउर करना, बेंग के पलड़ा पर चढ़ाना हे । हम तऽ हठयोग नाध देली । उखरी में मूड़ी नाइये देली ... जतना चोट बजड़े !)    (मज॰87.8)
645    बज्जड़ (जने ताकऽ ... बालू-बाालू ! प्राकृतिक सौंदर्य भय के आँधी में उधिया गेल । जे दिरिस सुकुमार गीत के जन्म दे सकऽ हल, काटे दउड़ऽ लगल । सबके उमंग पर बज्जड़ पड़ि गेल ।)    (मज॰92.18)
646    बझना (= फँसना, अँटकना, व्यस्त होना) (लगऽ हे ऊ हमरा कुली समझ के हमरा से गिड़गिड़ैलन ..."हाँ भैया ! इ ल दस रूपइया । ऊ पार गाड़ी लगल हे । जरा पहुँचा दीहऽ ।" अब हम का कहूँ ? दुन्हूँ हाथ बझल । कहते-कहते 10 रुपइया के नोट पॉकेट में डालिए देलन ।)    (मज॰120.2)
647    बट्टा (= टोकरी) (मेला के दिरिस एक दने बैलगाड़ी खड़ी, फुकना के गुच्छा लेले बुतरू । लाठी में खोंसल ढेर फुकना बँसुरी, लाटरी बेचैवला, निसाना साधै वला बन्दूक अउ ओकर लक्ष्य, चूड़ी के बट्टा, कीनताहर जन्नी, टिकुली-सेनुर के पसरल दुकान, हवा मिठाय ले बुतरूअन के भीड़, मकय के लावा खयते लोग, घिरनी, चरखी, झुलुआ सब सजल हल ।)    (मज॰43.14)
648    बड़ (अप्पन बड़ दमाद पंकज के संगे सवार भेली टेम्पो पर अउ 'मंगल भवन अमंगल हारी' जपइत चल देली । सटले मुसहरी से लोहराईंध गंध, पूरबी कछार पर निरंजना से उठइत बालू से सनल अन्धड़ में गाड़ी सर-सर बढ़इत हे ।)    (मज॰84.4)
649    बड़का (= बड़गो, बड़गर, बड़ा) (तनिके देर में चारमीनार के आगू रूक गेल बस । चारो कोना पर चार गो मीनार, चारो दिसा से एक्के नीयन नाक-नक्सा, चारो दन्ने दुआरी पर बड़का घड़ी, भीतरे से सीढ़ी, दुमहला पर जाके दुआरी बंद ।)    (मज॰40.1)
650    बड़गर (उनखर सहजता दछिनी संस्कृति के ईमानदारी के बड़गर निसानी हल ।; दुभासिया से पता चलल कि इहाँ चोरी-चमारी नय होवो हइ, के चोरैतय ? चोरैला बाद के दुरदसा कत्ते भोगतै ? समाज के नजर में गिरे से बड़गर सजाय आउ की होतै ?; तब तक एक पतिला में करीब दू किलो रसगुल्ला आ गेल । हमरा दुइयो के दू छिप्पी पर चार-चार रसगुल्ला, बड़गर-बड़गर मिल गेल ।)    (मज॰41.30; 42.29; 71.32)
651    बड़गे (= बड़गो) (दुनिया के सबसे बड़गे, ढेर महातम के जानल-मानल तीरथ होवे के कारन इहाँ सालो भर दरसनिया के अपार भीड़ जुटे हे ।)    (मज॰18.19)
652    बड़गो (= बड़गर; बड़ा) (ई दोसर "श्रीनगर' हे जहाँ से हो के केदारनाथ, बदरीनाथ, तुंगनाथ, काली घाट के राह फूटऽ हे । ई गढ़वाल के सबसे बड़गो सहर सुन्नर इलाका, व्यावसायिक सिच्छा के खास स्थान हे ।)    (मज॰21.20)
653    बड़ाय (= बड़ाई) (सूरूज डूबे के थोड़े सनि पहले सब्हे लोग राम मनोहर लोहिया पार्क के बड़ाय करे लगलन ।; हम भीतरे-भीतर लाज से गड़ रहलूँ हल । आवश्यकता से अधिक बड़ाय हमरा पच नै रहल हल । मुदा लाचार हलों ।; फिन हमर इलाका के बड़ाय के पुल बाँध देलका, लगल जइसे हमर पूरा इलाका इनकर जानल-पहचानल हे ।)    (मज॰28.3; 71.15, 29)
654    बड़ेरी (हमनी त दलान पर कमल-तमल ओढ़ के लोघड़ा गेलूँ । बाकि विष्णुदेव भाई परम प्रकांड गाँधीवादी हलन - कहलथिन - '"हम बड़ेरी तर न सुतऽ ही ।")    (मज॰78.16)
655    बड्ड (ई इलाका के लोग बड्ड ईमानदार होवो हथ । बाहरी आततायी के आतंक से ई इलाका बदनाम जरूर हे मुदा इहाँ के मूल रहवैया के हिरदा में कोय किदोड़ न देखे में आयल ।)    (मज॰86.13)
656    बढ़ियाँ (टमटम पर चढ़ गेलूँ दुन्हू बेकत । अप्पन टमटम में घोड़ी हल कि घोड़ा ऊ तो न देख पइलूँ मुदा गोड़ में घुँघरू बाँधले छनन-मनन करते हमर टमटम चलल । हँकमान बढ़ियाँ आदमी हल । मीठगर बात से हमरा गाइड भी कर रहल हल ।)    (मज॰121.27)
657    बतियाना (अइसहीं बोलइत बतियाइत रस्ता कट गेल ।; बोधगया पहुँच के हम सब अप्पन कार्यक्रम में व्यस्त हो गेली । पत्रकार लोग के साथ बतियइते गेली ।)    (मज॰14.29; 102.14)
658    बन्धूक (दूसरका कोना पर कुछ पत्थर-उत्थर जमा देख के पूछली - "ऊ का हे हो ?" ऊ कहलक - कुछ दिन पहिले एगो कारगिल के लड़ाई होएल हल । ओकरे में ऊ करगिले में मारल गेलन हल । उनकर लहास हवाई जहाज से ऊहाँ से अइलन हल - तिरंगा झण्डा में लपेट के । जरावे के पहिले बन्धूक छुटलैन हल । ओहँई उनखा जरावल गेल हल ।")    (मज॰123.21)
659    बरद (= बधिया किया हुआ बैल) (गाड़ी घरमुँहा बरद-सन भोर के उजास में भागल जा रहल हल ।)    (मज॰97.13)
660    बरना (= जलना) (फतुहा में उतरलियो तऽ फतवा तऽ टोली के प्रज्ञावान लोग देहीं लगला - ई कर, ऊ कर, ई न कर, ऊ न कर । मुदा हम्मर भीतरौका दीया नञ् बुझलो - बरतहीं रहलो ।)    (मज॰77.9)
661    बरोबर (= बराबर) (रात-दिन बरोबर ।)    (मज॰41.33)
662    बलइया (गाड़ी बिचली लीक पर हिचकोला खायत डगमग बढ़े लगल ... जय भगवती ! एक हीस पार करइत गाड़ी एगो गबड़ा में फँसि गेल ... ले बलइया ! अब की होवत ? बचल खुचल कसर अब सकरी निकासि देत ।)    (मज॰92.5)
663    बलवा-थकान (हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ । तहलब्जी में एन॰एच॰ धरे के रहो तऽ छो महीना के राह धरि सकरी के बलवा-थकान थकऽ ।)    (मज॰90.29)
664    बहराना (= बाहर होना या जाना) ('बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी' कहइत मेहरारू के बोधली अउ 'दिवस जात नहिं लागहिं बारा' अरधाली मने-मन छगुनइत ससुर जी के गोड़ लग घर से बहरा गेली ।)    (मज॰84.1)
665    बहरी (= बाहर) (टीसन से बहरी अइली ज इयाद पड़ल कि सेनन्दन चा कहलन हल कि कोय रिक्सेवान से बोलवऽ कि रूखइयार साहेब के इहाँ जाय ला हे तो पहँचा देतवे ।)    (मज॰12.15)
666    बहीर (= वधिर, बहरा) (आझ से पचास बच्छर पहिले 'प्रदीप' अखबार में समाचार छपइलन ... दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । अइसन समाचार बीच-बीच में छपइत रहल बकि सरकार के कान बहीर, पीठ गहीर !)    (मज॰91.9)
667    बाँटना-चूँटना, बाँटना-चुटना (तब तक एक पतिला में करीब दू किलो रसगुल्ला आ गेल । हमरा दुइयो के दू छिप्पी पर चार-चार रसगुल्ला, बड़गर-बड़गर मिल गेल । बाकी उनकर चेला-चाटी आर अपने बाँट-चूँट के खा गेला ।; निश्चिंत होके हमनी अप्पन कलौआ के गठरी खोल के मुँह चालू कयलूँ । शुरू होल बाँट-चुट के खाय अऊर राजा घर जाय के दौर ।)    (मज॰71.32-72.1; 133.17)
668    बादर (= बादल) (कुहा में पहाड़ धुंधुर लौकि रहल हल, हमरा लगे कि हम सब बादर में घुसल ही अउ बादर के सैर में निकललूँ हे ।)    (मज॰109.31)
669    बानी (= राख, भस्म) (सकरी के धाध आउ पतहुल के धंधौरा एक्के । अइलो तऽ तूफान आउ गेलो तऽ बस चुरु-चुरु पानी ... सथाल धंधौरा के बानी-सन बालू-बालू ! चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे ।)    (मज॰91.22)
670    बाबा (= दादा) (मीनू मामा के गोदी से हँका के कहि रहल हल, "दही-मछली बाबा ! खाजा लेले अइहा !")    (मज॰90.14)
671    बामा (= बायाँ) (हार पार के टिफिन खोलली जहवाँ श्रीमती जी के सरियावल भुँजिया, चपाती अउ दही हमरे राह देख रहल हल, जम के खइली । पानी पी के बामा कर फेरली ।)    (मज॰33.22)
672    बासा (= दाम देकर भोजन करने का स्थान, यथा - मारवाड़ी बासा) (हम कहली - खाना ही खा लेवल जाय । बात करइत-करइत एगो सीढ़ी पर चढ़े लगलन, जे गुजराती बासा हल । हम ऊ उमिर तक में बासा में न खइली हल ।)    (मज॰14.18, 19)
673    बिचमानी (ई देखऽ ! ई असली सहीद । दूगो गाँव अपने में लड़लन । ई बेचारा पंडिजी बिचमानी करे गेलन । दुन्नो गाँव के झगड़ा में एही मारल गेलन । बरहामन सभा जब बनल तब चन्दा करके सभे बरहामन इनकर स्मारक बना देलन ।)    (मज॰122.4)
674    बिजुन, विजुन (= भिजुन; भिर) (हनुमान मंदिर बिजुन टेम्पो पकड़े ला गेली । 'अतुलित बलधामं स्वर्णशैलाभदेहं .... वातजातं नमामि' मंतर पढ़इत अउ हनुमान जी विजुन हथजोड़ी करइते हली कि फट-फट अवाज सुनाय पड़ल ।)    (मज॰84.1, 2)
675    बिज्जे (आधा घंटा में खाय के बिज्जे भेल । भोजन पक्की हल - पूरी, सब्जी, बुनिया ।)    (मज॰95.18)
676    बिदकना (लगल, मौसम के मिजाज बिदकल हे मुदा इहाँ इहे मौसम सालो भर रहो हइ ।)    (मज॰38.26)
677    बिलाय (= बिल्ली) (खिड़की पर हतास बइठल म्याऊँ ... म्याऊँ करइत ऊ बिलाय के आँख में एगो दरद भरल निवेदन हल, "हमरा बता दऽ ,,, हमर नुनुअन कहाँ हे ? हम तऽ इहे पलंग तरे ऊ सबन के रखली हल । विस्वास हल कि निके-सुखे रहत मुदा लौटली तऽ हइये न हे, ... ।"; कमरा में बिलाय के आवइत-जाइत देखि के पलंग तरे झांकलन तऽ बिलाय के चारियो बुतरून के आराम करइत देखलन । सुनलन हल कि बिलाय के रोआँ से बीमारी पसरे हे । घर में बिलाय के न पोसे के चाही ।)    (मज॰33.5, 9, 10, 11)
678    बिहने (बिहने कउलेज में तीनों लोग से भेंट भेल । तय भेल कि बस के टिकस फेर के गाड़ीए से चलल जाय ।)    (मज॰128.21)
679    बुड़बक (= मूर्ख) (दादा कहलखुन - उठ रे लड़कन, भुरुकवा उग गेलउ । काशी दने के पाहन जी कहलथिन - मगह के लोग बुड़बकवा, शुकुर के कहे भुरुकवा । भुरुकवा कहे से दोसर के काहे ला फटऽ हइ । हम्मर भासा हे, हम कुछो कहूँ, तों कह शुक्र, शुक्रतारा । हम मना करऽ हियउ ?)    (मज॰79.3)
680    बुढ़ारी (देखऽ साब ई पोखरा । फलाँ जी अड़सठ साल में चौबीस बच्छर के मेहारू से बिआह कैलन । अब समझूँ के बिआह से का होवऽ हे । ई सब होवे लगल ।)    (मज॰122.16)
681    बुतरू (कानइत बुतरूआ के चुप करइत माय । जरलाहा मरियो न जाय । कि बुतरूआ के आ जा हइ छी । मइया छतन जीओ ।; पहाड़ के ऊँचाई चुनौती हल । हमरा बुतरू के पढ़ल कछुआ-खरहा के प्रतियोगिता इयाद पड़ल ।; आदमी के धारा में बूँद के समान हम बहल जा रहलूँ हल ... पैदल ... घोड़ी पर ... डोली में ... जवान, अधवैस, बूढ़ा, बूढ़ी, बुतरू ।)    (मज॰27.12; 111.2, 13)
682    बुनिया (आधा घंटा में खाय के बिज्जे भेल । भोजन पक्की हल - पूरी, सब्जी, बुनिया ।)    (मज॰95.18)
683    बुलाकी (नाक में दूनो तरफ बड़का-बड़का छुँछी अउ बुलाकी पेन्हले हलै ।हाँथ में केहुनी तलक मोटा-मोटा लाह के चुड़ी पेन्हले हल ।)    (मज॰50.5)
684    बूँट (पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल ।; बोधगया तक के रास्ता तै करइत-करइत ऊ हमरा बूँट के महातम समझइते रहलन । कच्चा फुलावल बूँट के का तासीर हे । उसनल बूँट के का तासीर हे । अंकुरायल बूँट के की-की फायदा हे । बूँट के तरकारी के की गुन हे ।)    (मज॰93.14; 102.10, 11, 12)
685    बेकत (टमटम पर चढ़ गेलूँ दुन्हू बेकत । अप्पन टमटम में घोड़ी हल कि घोड़ा ऊ तो न देख पइलूँ मुदा गोड़ में घुँघरू बाँधले छनन-मनन करते हमर टमटम चलल । हँकमान बढ़ियाँ आदमी हल । मीठगर बात से हमरा गाइड भी कर रहल हल ।)    (मज॰121.25)
686    बेकतिगत (= व्यक्तिगत) (ओने वोट बाबू के एकलौता बेटा के करकस आवाज से लगल वोट बाबू कुछ तनाव में हथ । बेटा इनका न समझऽ हे । खैर, ई बेकतिगत मामला हे ।)    (मज॰14.9)
687    बेपारी (हम कहलियन - भाय, हम कमजोर पाटी, तों दोनों बलवान । एक सोना के बेपारी, दोसर इन्जीनियर । तोरा पैसा के कमी नै हो, हम किसान ! किसान के अनाज हे मुदा पैसा कहाँ ?)    (मज॰59.1)
688    बेली (= बेरी, बेला, बेरा, समय) (अंतिम रोगी के देखि के हम मनझान-सन बइठल हलूँ । कंपोडर खाय ले चलि गेल हल । हमर टिफिन अन्दर धइले हल । ई बेली तक तऽ भूख करकटा के लगऽ हल, बकि आज ऊहो उपह गेल हल ।)    (मज॰107.4)
689    बेलौस (हमर मन तीत भे गेल ... जतर के फेर ... पहिल असगुन । भइया हमर मन भाँप गेलन । बेलौस लहजा में कहलन - "चलऽ, ई खुसी में एककगो गरम-गरम चाह हो जाय ।")    (मज॰87.18)
690    बैल-पगहा (~ बेच के सोना) (रात के ठंढ कष्टदायक हल बकि थकान के रजाई तले बैल-पगहा बेच के सुतलूँ ।)    (मज॰111.26)
691    बोखार (= बुखार) (बोखार आर तेज हो गेल, माथा दरद कपार फाड़ रहल हल ।; बोखार टूटो लगल, माथा दरद साथे-साथ । भोर तक माथा दरद साफ हो गेल । बोखार सो डिगरी के करीब रह गेल ।)    (मज॰70.4, 24, 25)
692    भँगलाहा (ऊ मजदूरनी के पति हमरा गरियाबो लगल - साला सूझऽ न हौ ? तोरा माय-बहिन नै हे ? हाथ-बाँहि पकड़ लेलें ! तोर ... औरत गरियाबो लगल - भँगलाहा ! हमरे पर गिर गैलो । दुर्रर ने जाय छछुन्नर ! तनी एक लाज नै ?)    (मज॰62.16)
693    भंगोरा (उबड़-खाबड़ जमीन फूल-पत्ती के नामो निसान नञ् । दुभ्भी छीलइत घंसगाढ़ा सफाई के नाम पर दरमाहा ले हे तब माथा ठोकलूँ कि सरधा के झोर भंगोरे हे ।)    (मज॰29.32)
694    भंडारा (= साधु-संतों को खिलाने का भोज) (द्वारिकाधीस मंदिर में भंडारा चल रहल हल ।; सुरेश कहलक - हम समझली ई कोई भूखा साधू हइ, भंडारा समझ के इहाँ खाय ले चल आयल हे । तोरा हम उठा देवे ले चाहो हलूँ ।; ठइयें-ठइयें पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, इलाहाबाद के नामी-गिरामी संस्था, सेठ, दानी, पुनी संतन के भंडारा लगल हे । इहाँ जातरी के मुफ्त भोजन, चाय, नास्ता मिले हे, ठहराव के बड़ सुन्नर व्यवस्था हे ।)    (मज॰54.22; 66.12; 85.23)
695    भक-भुक (हथजोड़ी करइते हली कि भक-भुक करइत, हड़-हड़ अवाज लगावइत टेम्पो बढ़ गेल ।)    (मज॰84.10)
696    भकोसना (ब्रजभूषण भाई धड़फड़ा के उठला - गोइठा के अंबार में माचिस मारलका, दूध गरमयलका, लिट्टी लगइलका । बाकि विष्णुदेव भाई सूखले लिट्टी भकोसला चूँकि ऊ दूध हलन भैंस के अउ विष्णुदेव भाई हलन गौ-पालन उन्माद के सबल प्रहरी ।)    (मज॰81.11)
697    भगिनी (= बहन की बेटी) (आज एक नया आदमी से सुरेश परिचय करवैलक जे उनकर भगिनी हल । नाम ओकर हल शुभांगी, नौवाँ किलास में पढ़ै हल ।)    (मज॰67.25)
698    भनसा (पीत खराब न हो जाय के डर में भनसा में ढुकलूँ तऽ देखऽ ही कि मामी एगो थार में नस्ता परोसले हथ ।)    (मज॰45.20)
699    भप्प (राजकुमार के कान में सट के कहलों - चलो ने बाहर ... तीनों मिल के खा ली । ऊ बतौर डाँट के कहलका - भप्प ! इहाँ सब इन्तजाम हे । ठीके थोड़े देर में नाश्ता में दू दू गो टोस्ट आर दालमोठ आ गेल ।)    (मज॰63.22)
700    भरपेटा (~ नास्ता) (मंसूरी के अलौकिक नजारा देखै के ललक में हाली-हाली नहा-धो के तैयार भेली अउ भेल भरपेटा नास्ता ।)    (मज॰104.9)
701    भरफँक्का (= भर फाँका) (मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल । फिन सोन फरही के भुंजा, नमकीन, झंझड़ा से छानल सेव, अउ सतरंगी मकई, गेहूँ, बूँट, मसूर, केराव, रगन रगन मिलावल मुरही भरफँक्का खाके अउ पानी, चाय पी के अप्पन जगह पर जाय लेल विदा लेलूँ ।)    (मज॰27.18)
702    भरल-भादो (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी ।)    (मज॰52.12)
703    भरी (= भर; दश माशे या एक रुपये के बराबर की एक तौल जिसका प्रयोग सोना, चाँदी आदि तौलने में होता है ।) (कनफूल, माला, अँगूठी, चूड़ी सभे भरी से तौल के, सुच्चा मोती के ।)    (मज॰44.7)
704    भलाय (= भलाई) (तू बिहार के नामी अभिनेता हऽ, बिहार के अमिताभ बच्चन । बिहार के लइकन-बुतरून के भलाय खातिर हमरा तोहरा ले के पोलियो पर एगो आधा घंटा के डाक्यूमेंटरी बनावे के हे ।)    (मज॰99.12)
705    भाय (= भाई) (हम कहलियन - भाय, हम कमजोर पाटी, तों दोनों बलवान । एक सोना के बेपारी, दोसर इन्जीनियर । तोरा पैसा के कमी नै हो, हम किसान ! किसान के अनाज हे मुदा पैसा कहाँ ?)    (मज॰59.1)
706    भासन-भूसन ("नेता के चक्कर हो", माथा हँसोतइत कारू गोप बोललन । "झूठ बोल देलथुन । अभी भासन-भूसन चलऽ होतो", मदन जी टुभकला ।)    (मज॰88.11)
707    भिजुन (टेम्पू चढ़ के पहुँच गेलूँ लाल किला भिजुन ।; तय भेल कि खराँठ होते एन॰एच॰ धरि के गिरियक भिजुन पंचाने नदी पार करइत पहाड़ के बगले-बगले आयुध कारखाना वली सड़क पकड़ लेवइ के चाही । राजगीर चौक से उत्तर तीन-चार किलोमीटर पर तऽ सिलाव हइये हे ।; वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे ।)    (मज॰29.6; 90.19, 22)
708    भीड़-भड़क्का (बोखार आर तेज हो गेल, माथा दरद कपार फाड़ रहल हल । तभी सोचो लगलों - कलकत्ता टीसन में टिकिस कटाना गाड़ी चढ़ना भीड़-भड़क्का में मोसकिल काम हे ई हालत में ।)    (मज॰70.5)
709    भीतरौका (= भीतर का) (फतुहा में उतरलियो तऽ फतवा तऽ टोली के प्रज्ञावान लोग देहीं लगला - ई कर, ऊ कर, ई न कर, ऊ न कर । मुदा हम्मर भीतरौका दीया नञ् बुझलो - बरतहीं रहलो ।)    (मज॰77.9)
710    भीर (= नजदीक, पास) (टीसन से थोड़े दूरी पर कोतवाली चौक भीर छोट-मोट एगो ढाबा में दही अउ चूड़ा खइली ।)    (मज॰113.9)
711    भुँजिया (कमाल के नीन कि दिन के भोजन नदारत ! निवृत्त होके अयली तब चाहवला गायब ! हार पार के टिफिन खोलली जहवाँ श्रीमती जी के सरियावल भुँजिया, चपाती अउ दही हमरे राह देख रहल हल, जम के खइली ।)    (मज॰33.21)
712    भुंजा (गड़िया के खुलते-खुलते भुंजावाला के अवाज हम्मर मीत के कान में गेल । तुरते ऊ ओकरा बोला के भुंजा के फरमाईश कर देलन । भुंजा के अंश पेट में जइतहीं शुरू भेल राज के चर्चा ।)    (मज॰129.20)
713    भुंजावाला (गड़िया के खुलते-खुलते भुंजावाला के अवाज हम्मर मीत के कान में गेल । तुरते ऊ ओकरा बोला के भुंजा के फरमाईश कर देलन । भुंजा के अंश पेट में जइतहीं शुरू भेल राज के चर्चा ।)    (मज॰129.19)
714    भुआ (एगो विपर्यय भी भेलइ । विष्णुदेव भाई के विवाहिता उपस्थित होलथिन । पत्नीत्व और मातृत्व भाव से वंचित होला से उनखर चेहरा सुखल भुआ नियन लगलइ । गोरापन भूरापन में बदल गेल हल ।)    (मज॰82.3)
715    भुआना (हमरा लगल कि विष्णुदेव भाई के लताड़ूँ अउ भुआयल भाबी के पाँव पड़ूँ ।)    (मज॰82.9)
716    भुट्टा (भुट्टा लेलूँ, अप्पन परम भी खरीदलूँ । कंडक्टर आवाज देलक, चट गाड़ी में बैठ गेलूँ अप्पन सीट पर ।)    (मज॰46.17)
717    भुरुकवा (दादा कहलखुन - उठ रे लड़कन, भुरुकवा उग गेलउ । काशी दने के पाहन जी कहलथिन - मगह के लोग बुड़बकवा, शुकुर के कहे भुरुकवा । भुरुकवा कहे से दोसर के काहे ला फटऽ हइ । हम्मर भासा हे, हम कुछो कहूँ, तों कह शुक्र, शुक्रतारा । हम मना करऽ हियउ ?)    (मज॰79.2, 3)
718    भैकंप (= भैकम, vaccuum) (दूसर परेसानी ई होयल कि सिटी से लेके जमालपुर तलक जगह-जगह लोग भैकंप करके गाड़ी रोक दे हलन ।)    (मज॰113.8)
719    भैकम (= vacuum) (करीब छे बजे गाड़ी टीसन से खुल गेल त संतोष भेल बाकि हमर ई अनुभव न हल कि मेल के फेरा में गाड़ी एत्ते देर तलक टीसन पर खाड़ रहत । दू तीन जगह मेल देवे के फेरा में आ करीब आधा दर्जन बेर भैकम कटे से हमर जतरा पंचर साइकिल जसिन लौके लगल ।)    (मज॰12.10)
720    भैकुम (= भैकम, vaccuum) (तरह-तरह के सवाल पूछ के उनका एतना नाराज कइलका कि ऊ गाड़ी से दूसर टीसन पर उतर गेला । डेगे-डेगे भैकुम होवे लगल ।)    (मज॰134.14)
721    भोनू (मंजिल बनल राह में पहिला पड़ाव, माथा पर चढ़ल हे गान्ही जी के भूत । दिमाग में पहिले से भूसा भरल रहतो तऽ कुछो न सूझतो । भोनू भाव न जाने, पेट भरे से काम ।)    (मज॰76.31)
722    भोरउका (~ लाली) (24 अप्रील के सबेरे किरिया-करम से निपट के खिड़की खोललूँ तऽ मंसूरी के भोर के नजारा टकटकी बान्हले देखयते रह गेलूँ । चोटी पर दपदप पीयर रउदा, ओकरा से नीचे भोरउका लाली तऽ नीचे तलहटी में घुप्प अन्हरिया में बिजली से जगमगायत रोसनी में ऊपर से नीचे तक सीढ़ीनुमा मकान तिलस्मी दुनिया से कम अचरज के छटा नञ् बिछल रहे ।)    (मज॰104.6)
723    भोरगरही (= भोरगरहीं, भोरगरे) (मुम्बई जाय के खुशी में रात के नीन उड़ गेल । बड़ी कोशिस कइला पर तनी झपकी लगल फिनो हालिए नीन टूट गेल । भोरगरही ललमटिया में बस पकड़लूँ अउ भागलपुर समय से पहिले पहुँच गेलूँ ।)    (मज॰15.2)
724    मंतर (हनुमान मंदिर बिजुन टेम्पो पकड़े ला गेली । 'अतुलित बलधामं स्वर्णशैलाभदेहं .... वातजातं नमामि' मंतर पढ़इत अउ हनुमान जी बिजुन हथजोड़ी करइते हली कि फट-फट अवाज सुनाय पड़ल ।)    (मज॰84.2)
725    मउरी (गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् ।  उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल ! फेफिआयत रहो । गाड़ी पर बइठल कते दुलहा मउरी सरियावइत रहथ ... की बनो हो ? घोघा तर कनिआय ताबड़तोड़ तरे-तरे पसेना पोंछइत रहो ।)    (मज॰91.29)
726    मकुनी (= सत्तू आदि भरी रोटी, बेनिआँ) (वोट बाबू कहलन - बाबू, पहिले कुछ खा पी ले । बेसिन पर हाथ मुँह धोइली । कुछ देर में बचल-खुचल दू ठो मकुनी अउ भुंजिया आयल ।)    (मज॰14.2)
727    मगहिनी (कॉफी पीयत घरवाली के बोलैलन । उनखर ई बेवहार बड़ वेस लगल । घरवाली में खाँटी बिहारीपन, ओकरो से जादे मगहिनी ।)    (मज॰44.17)
728    मगहिया (घर के राह में खाय खातिर मगहिया भूँजल चूड़ा, चिनियाँबेदाम के दाना व गुड़ जुगुत करके दे देलन हल ।; उ हमरा से पूछलक कि बिहार में कइसे बोलल जाहे । हम्मर सहेली में शीला तनी हँसोड़ हल से झट से बोलल कि हमनी कुटुर-पुटुर न बोलऽ ही, हमनी पकिया मगहिया ही, खाँटी देहाती भाषा, समझलऽ कुछ बुझइलवऽ ? ओकरा तो कुछ न बुझायल बाकि हमनी के हँसइत देख के बिना समझलहीं हँस देल ।; हमरा से बेसी त मलकिनी फाड़ा कस के तनलन अउ कहलथन कि तू का समझऽ हें रे । मगहिया से लड़ाय मोल लेवे के मतलब हउ सनिचरा के साढ़े साती नेउतना । अइसन बगलामुखी मन्तर मारवउ कि बस ।)    (मज॰25.17; 49.27; 119.11)
729    मच्छड़ (सभे मिलके कहलन कि गोष्ठी के रसदार करे लेल अब मगही गीतकार कवि उमेश जी हमनीन के कुछ सुनैथिन । गीत से पहले हम हास्य व्यंग्य मुक्तक मच्छड़, उड़ीस, टुनटुनियाँ सुनाके लोक भाषा मगही से इंजोरिया उगइलूँ ।)    (मज॰27.5)
730    मजूरा (= मजदूर) (दुन्हु दन्ने से दू गो मजूरा बारी-बारी से घन्ना चलाबो हथ ।)    (मज॰40.30)
731    मट्टी (= मिट्टी) (हिम्मत करके एक आ कीनलूँ, कटयलूँ । ई की ! खचखच मिसरी कंद नीयन अउ मिठास लीची नीयन । ई करामात उहाँ के मट्टी के हल अउ मेहनती किसान के ।)    (मज॰38.9)
732    मड़ुकी (= मड़कोय; छोटी झोपड़ी) (सकरी के धाध आउ पतहुल के धंधौरा एक्के । अइलो तऽ तूफान आउ गेलो तऽ बस चुरु-चुरु पानी ... सथाल धंधौरा के बानी-सन बालू-बालू ! चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे । एक जगह मड़ुकी में बइठल रहलो । दारू-ताड़ी अरमेना आउ दिनकट्टन के तास ।)    (मज॰91.23)
733    मनझान (एक दिन अचक्के हमर मन उचटि गेल । कोय काम में मन नञ् लगे । रोगी के भी अनमनाह नियन देख रहलूँ हल । अंतिम रोगी के देखि के हम मनझान-सन बइठल हलूँ । कंपोडर खाय ले चलि गेल हल ।)    (मज॰107.3)
734    मनी (ढेर ~; तनी ~) (इत्रदान-फूलदान-पीकदान, सुराही, जाम के ढेर मनी नमूना अस्त्र-शस्त्र ।; ओकरा करिए भेस हलई । कोनो-कोनो तनी मनी साफ हलथी ।)    (मज॰40.25; 50.12)
735    मनीता-उनीता (मिनती-उनती कइली, मनीता-उनीता मानली, गोरैया-डिहवार के भखली - तब नइकी सड़िया के उद्घाटन के नाम पर मानलन । दुन्हू गोटी सोझ होली - ओही एक्सपरेसवा से ।)    (मज॰118.17)
736    मनुआना (जतरा एकल्ले के नञ् जमात के । संगी संग रहला ... गीत-गलबात में समय कटइत गेलो ... मनुअइवा नञ् ।; गीत-गलबात के बीच-बीच में हमर आँखि तर भइया के कटल जेभी लउकि जाय ।)    (मज॰87.2, 25)
737    ममससुर (< मामा + ससुर) (ब्रजभूषण भाई जोगाड़ लगइलकन हल कि उनकर ममससुर के मौसा ऊ गाम ने बड़गर किसान हथिन, जे उनके हीं डेरा जमावल जात । पहुँचतहीं चूड़ा-गुड़ मिल गेल ।)    (मज॰79.20)
738    ममोसर (= मयस्सर) (जने निहारूँ ओन्नै सड़क के किनारे अनेकन जंगली जानवर के कार्टून बनल लगे कि अब बोलत कि कब दौड़त । अइसन सजीव कला से सजल पार्क जिनगी में पहिले बार ममोसर होल हल ।; दियारा में खाय ला मिललो मकई के घट्टा, कोदो के भात अउ भैंस के भरपूर गोरस । ई गाढ़ा छालीवाला दूध विष्णुदेव भाई के ममोसर न होलइ ।)    (मज॰28.13; 81.32)
739    मरखंडा (= मरखंड) (~ बैल) (हमनहीं के नजर विष्णुदेव भाई के तरफ लगल हे । ओही सँभलता ई मरखंडा बैल के । कमासुत तऽ लऽ, हका इ गिरहस, मुदा सींग हइ पञ्जल-पञ्जल ।; विष्णुदेव भाई के जब बकड़ा कह देल गेल तब समस्या गंभीर हो गेल । मरखंडा बैल के के संभाले ?)    (मज॰80.17, 27)
740    मलकिनी (= पत्नी) (मन में एही भाव छिपौले साँझ ही सहीद के सहर के वास्ते सामान सरिऔलूँ । मलकिनी पूँछलन, "कहाँ के तैयारी हो गेल हे अपने के ?" मन तऽ थोड़ा बइठल । जतरा पर टोके के नय चाही । बाकि का कही ? उनका हम सब बात फारे-फार सुना देली ।)    (मज॰118.9)
741    महतारी ('ॐ नमः शिवाय' के जाप करइत, महतारी अउ बाबू जी के सुमिरइत, पुरखन के गोड़ लगइत, कुल देउतन के भभूत माथ पर लगावइत घर से बहराय खातिर दुरा पर खाड़ भेली कि ससुर जी आ गेलन ।)    (मज॰83.17)
742    महरा (जेठ बैसाख के तपिस लेल तऽ देवीथान के नीम अउ बाबा थान के बुढ़वा बरगद के छाँह महरा लेल काफी है ।)    (मज॰103.7)
743    मातर (= ही) (पाँच बजे से कवि-सम्मेलन नधात । ... गाड़ी रूकल । उतरते मातर घड़ी देखली ... नो, बाप रे बाप ! कि कहतन श्रोता ?)    (मज॰93.29)
744    मामा (= दादी) (मीनू मामा के गोदी से हँका के कहि रहल हल, "दही-मछली बाबा ! खाजा लेले अइहा !")    (मज॰90.13)
745    मामू-ममानी (भइया-बाबूजी के साथ-साथ मामू-ममानी के डर मन में बनल रहल, कारन जवानी के दहलीज पर थाड़ बेटियन के बिन पुछले कहँय जाय ला त गारजियन के परमिसन निठाहे जरूरी होवो हल ।)    (मज॰45.9)
746    मालिक (= पति) (मन-परान हरिया गेल । हमर फूल के पइसा 'मालिक' देलन हल, ई देखको फूलवाली मुसुक गेली हल, हम नय बुझलूँ एकर माने । जे मेहरारू एकसरे हली से अप्पन पइसा अपने देलकी हल ।)    (मज॰42.9)
747    माहटर (= मास्टर) (झोला-झोली साँझ भे गेल । जल्दी-जल्दी बस चढ़ के अप्पन ठहराव पर 'शालीमार गार्डेन' मित मय जी के दमाद माहटर साहब के डेरा आ गेलूँ ।)    (मज॰30.9)
748    मिंझराना (= मिलना) (संगीत के समय ऊ भी ताली बजा-बजा मूड़ी हिला रहलन हल । बीच-बीच में ऊ बाहर भी जा हलन आउ फेनो जमात में मिंझरा जा हलन ।)    (मज॰96.17)
749    मिठाय (= मिठाई) (मिनट नञ् लगल कि सबके हाथ में मिठाय देवइत खाली एक अदद डिब्बा लउटा के हम्मर हाथ में देवइत कहलन - "ला बाबा ! एहमा गोलू भइया के हिस्सा हइ ।"; फिन धेयान मिठाय के पाकिट दने गेल अउ कहली - "लऽ ! मिठाय खा ला ।")    (मज॰35.27, 32)
750    मिनती (= विनती, निवेदन) (हम उनखा से मिनती कइली, "ई कउन सहर हे ? एटलस में एकरा सहीद के सहर बतावल गेल हे ?")    (मज॰121.14)
751    मिनती-उनती (मिनती-उनती कइली, मनीता-उनीता मानली, गोरैया-डिहवार के भखली - तब नइकी सड़िया के उद्घाटन के नाम पर मानलन । दुन्हू गोटी सोझ होली - ओही एक्सपरेसवा से ।)    (मज॰118.16)
752    मिरचाय (तय होल - पेट के बोझा माथा पर काहे, कलौवा खुलल, लिट्टी रात ले रखल गेल, पुड़ी, भुजिया-अचार-मिरचाय दम भर चढ़ा लेलूँ । मन थिरा गेल ।)    (मज॰37.13)
753    मिरतु (मुदा एहँय से दुनियाँ के चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन विेसवन में पनाह माँगइत हथ, कभी नजरबंद त कभी मिरतु के फतवा .. ।)    (मज॰143.22)
754    मिलताहर (गते-गते ढेर मिलताहर, कवि-लेखक पत्रकार के भीड़ भे गेल अउ होवे लगल काव्य-गोष्ठी यानि इकतीस अक्टूबर के सेमिनार राजेन्द्र भवन में होवे वाला रिहलसल ।)    (मज॰26.31)
755    मीठगर (टमटम पर चढ़ गेलूँ दुन्हू बेकत । अप्पन टमटम में घोड़ी हल कि घोड़ा ऊ तो न देख पइलूँ मुदा गोड़ में घुँघरू बाँधले छनन-मनन करते हमर टमटम चलल । हँकमान बढ़ियाँ आदमी हल । मीठगर बात से हमरा गाइड भी कर रहल हल ।)    (मज॰121.27)
756    मुझौसी (लगऽ हे ऊ हमरा कुली समझ के हमरा से गिड़गिड़ैलन ... हम आगे बढ़ली फिन बोलली - "आउ न ढोबो तब ?" -"नऽ काहे ढोबवऽ ? हमर मलकिनी दने ताक के बोलल - "ई का कनखाह के परी हथिन ? हिनकर ढोवबहुन अउ हमर न ?" का बहस करती हल, आगे बढ़ली । पीछे से गारी बकइत हल । "ई मुझौसी कुलिया पर मन्तर मार देलकै हे । लगऽ हई एकर बाप के खरीदल हई ।")    (मज॰120.15)
757    मुड़ी (= मूड़ी, सिर) ) (आझे पूरा बस्ती गेल सूटिंग ले । मेला के देखाना हल से भीड़ जुटावल गेल हल । फी मुड़ी अस्सी रुपया, बुतरू के रेट अलग । अराम के अराम, कमाय के कमाय ! आम के आम, गुठली के दाम !)    (मज॰43.2)
758    मुरदघट्टी (इतिहास अपन कोख में केतना बनइत-बिगड़इत रिस्ता के ढो रहल हे - बेचारा इतिहास एगो मुरदघट्टी बनके रह गेल हे ।)    (मज॰53.7)
759    मुरही (मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल । फिन सोन फरही के भुंजा, नमकीन, झंझड़ा से छानल सेव, अउ सतरंगी मकई, गेहूँ, बूँट, मसूर, केराव, रगन रगन मिलावल मुरही भरफँक्का खाके अउ पानी, चाय पी के अप्पन जगह पर जाय लेल विदा लेलूँ ।)    (मज॰27.18)
760    मुलुर-मुलुर (सम्मेलन समाप्त हो गेल । कवि बन्धु अप्पन झोला-झक्कड़ बाँध के जाय के तैयारी में । हम चुपचाप मुलुर-मुलुर सबके ताक रहलों हल, मिलै के भी ताकत नै । जे हमरा से मिलै ले आवै हला, उनखा प्रनाम भर कर ले हलों ।)    (मज॰70.2)
761    मुसकी (= मुसकुराहट) (" ... हिनखा लगि त लंगड़ा रे घोड़ा चढ़मे - त उ दून्हू टाँग उठइले ।" - कहलकी किरण । हमर मुसकी छूट गेल ।)    (मज॰53.24)
762    मुसहरी (अप्पन बड़ दमाद पंकज के संगे सवार भेली टेम्पो पर अउ 'मंगल भवन अमंगल हारी' जपइत चल देली । सटले मुसहरी से लोहराईंध गंध, पूरबी कछार पर निरंजना से उठइत बालू से सनल अन्धड़ में गाड़ी सर-सर बढ़इत हे ।)    (मज॰84.5)
763    मूँड़ी (ऊ चण्डालनी ! कुछ नै सुनलक, आखिर हम मुँड़ी अन्दर कइलों । उ मूँड़ी ठेल देलक ।)    (मज॰62.9)
764    मूड़ी (= सिर, सर) (मन मतंगी कवि सब के जउर करना, बेंग के पलड़ा पर चढ़ाना हे । हम तऽ हठयोग नाध देली । उखरी में मूड़ी नाइये देली ... जतना चोट बजड़े !)    (मज॰87.7)
765    मैंजना (लचार होके ऊ हम्मर दोसर मीत के हुरकुच के उठा देलका । ऊ आँख मैंजते उतरला अऊर चल गेला फ्रेस होवे ।)    (मज॰131.1)
766    मोटगर (किला के मोटगर देवाल, देवाल के फाँक से निकलल तोप के टोंटी, चुप रहके भी कह रहल हल सुरक्षा के कहानी ।)    (मज॰41.15)
767    मोसकिल (= मुश्किल, कठिन) (बोखार आर तेज हो गेल, माथा दरद कपार फाड़ रहल हल । तभी सोचो लगलों - कलकत्ता टीसन में टिकिस कटाना गाड़ी चढ़ना भीड़-भड़क्का में मोसकिल काम हे ई हालत में ।)    (मज॰70.5)
768    मोसबरा (= मशविरा, सलाह) (डॉ॰ किरण से मोसबरा कर लेली हल । ऊ कहलन हल कि तीन बजे तक जयनन्दन जि के साथ हम बोलेरो गाड़ी से वारिसलीगंज पहुँच जाम ।)    (मज॰87.3)
769    रंगन-रंगन (हम अउ हम्मर जउरात ईश्वर प्रसाद मय जी जे दिल्ली के सड़क, नदी यमुना, भिखमंगा के जमघट लगल भीड़ से अस्त-व्यस्त धुरिया-धुरान सड़क अउ कास के रंगन रंगन के काँटा झाड़ी टापू मरुभूमि बनल हे ।)    (मज॰27.21-22)
770    रउदा (= धूप) (माघ के महीना हल। हाड़ तोड़े ओला कनकनी । कभी कबार सुरूज के किरिंग कुहा में आँखमिचौनी करइत लौक जा हल, कभी त मन में रउदा के भर अकवार पकड़े के मन करो हल ।; 24 अप्रील के सबेरे किरिया-करम से निपट के खिड़की खोललूँ तऽ मंसूरी के भोर के नजारा टकटकी बान्हले देखयते रह गेलूँ । चोटी पर दपदप पीयर रउदा, ओकरा से नीचे भोरउका लाली तऽ नीचे तलहटी में घुप्प अन्हरिया में बिजली से जगमगायत रोसनी में ऊपर से नीचे तक सीढ़ीनुमा मकान तिलस्मी दुनिया से कम अचरज के छटा नञ् बिछल रहे ।; चोटी पर पीयर खिलल रउदा, बीच में गोधूली, तऽ तलहटी में झुटपुटा साँझ ।)    (मज॰45.2; 104.5, 30)
771    रगन-रगन (= रंगन-रंगन; विविध प्रकार के) (मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल । फिन सोन फरही के भुंजा, नमकीन, झंझड़ा से छानल सेव, अउ सतरंगी मकई, गेहूँ, बूँट, मसूर, केराव, रगन रगन मिलावल मुरही भरफँक्का खाके अउ पानी, चाय पी के अप्पन जगह पर जाय लेल विदा लेलूँ ।)    (मज॰27.18)
772    रजधानी (= राजधानी) (6 जून के अन्हरुखे सर-समान ले ले दुन्हू जीव बस पकड़ के रजधानी अयलूँ ।)    (मज॰37.8)
773    रपरपाना (एक अदमी पैदल रपरपाल नदी पार करि रहल हल । किरण जी पूछलन, "भइया, तनि सही लीक बता दा ।" -"ऊ लीक टरेक्टर के हो ... बालू घाट जइतो । ई लीक पर आवऽ ।")    (मज॰92.7)
774    रसे-रसे (= धीरे-धीरे) (रसे-रसे माय के गोड़ छूली । असीस मिलल ।)    (मज॰47.9)
775    रस्ता (= रास्ता) (अइसहीं बोलइत बतियाइत रस्ता कट गेल ।)    (मज॰14.29)
776    रहता (= रस्ता, रास्ता) (गौरीकुण्ड मेंजातरी, भक्त, खच्चर, खटोला डोलची ओलन के रेलमपेल चौबिसो घंटा देखे लायक हे । इहाँ से पत्थर के बनल सीढ़ी तेरह किलोमीटर के रहता तय करके बाबा केदारनाथ के दरबार में पहुँचल जा सकऽ हे ।)    (मज॰22.30)
777    रहवैया (ई इलाका के लोग बड्ड ईमानदार होवो हथ । बाहरी आततायी के आतंक से ई इलाका बदनाम जरूर हे मुदा इहाँ के मूल रहवैया के हिरदा में कोय किदोड़ न देखे में आयल ।)    (मज॰86.14)
778    रहस (= रहस्य) (पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल । रस्ता भर टभकइत ई नदी पार कइली हल, 'सिठउरा' गाँव भिजुन एक आदमी खूब कसि के हँकइलन हल, "लोटा लेवा कि थारी ?" पहाड़ से टकरा के लउटल हल ... थारी । हम अकचकइली हल ... लोटा कने हेरा गेल ? बाल मन अकबकायत रहल हल ऊ रहस पर ।)    (मज॰93.17)
779    राँड़ी (= राँड़, विधवा) (वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे । जहिये पानी पड़ल, धाध आ गेल । झारखंड के पहाड़ से निकलल सब पानी सहमोरले ईहे राह बहे । दू-चार दिन तऽ गंगा बुझाय, फिन सुक्खल के सुखले ... राँड़ के मांग नियन ।)    (मज॰90.24)
780    राजिनर (= राजेन्द्र) (गाँधीजी-बिनोबा जी रामे राज तो लावेवाला हला । ऊ टाइम में हल्का-फुल्का निष्क्रमण तो होतहीं तहऽ हलई । बिहारशरीफ राजिनर बाबू के देखे गेलियो ।)    (मज॰75.14)
781    रिक्सा-उक्सा (का कही साहब ? कार तो बेकार हे, रिक्सा-उक्सा तो समझली कि सहीदे बनावे वाला हे । बैलगाड़ी तऽ इहाँ मिलवे न करे । कहते-कहते चुप हो गेल । फिन बोलल - "हाँ ! साब टमटम ! सबसे अच्छा !")    (मज॰121.22)
782    रिहलसल (= रेहलसल; रिहर्सल; अभ्यास) (गते-गते ढेर मिलताहर, कवि-लेखक पत्रकार के भीड़ भे गेल अउ होवे लगल काव्य-गोष्ठी यानि इकतीस अक्टूबर के सेमिनार राजेन्द्र भवन में होवे वाला रिहलसल ।; मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल ।)    (मज॰27.1, 17)
783    रूखियाना (हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।)    (मज॰100.7)
784    रेघ (~ काढ़ना) (नदी के डूबकी लगौली अउ माय भिजुन पूजा के सामान ले ले पंगति में थाड़ हो गेली । पंगति लमहर देख हम गावे लगलूँ - "दरसन ला अयली मइया तोहरे दुअरिया" । आसपास पंगति में थाड़ लोग भी रेघ काढ़े लगलन ।)    (मज॰47.4)
785    रोकावट (= रुकावट) (टिकस देखा के बढ़ो लगलूँ आगू कि पाँच-सात अदमी के बाद रोकावट लग गेल ।)    (मज॰40.18)
786    रोपाना (अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो । गीयर पर गीयर बदलइत ने रहो ... चक्का बालू उधियावइत घूमइत रहतो । गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् ।  उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल !)    (मज॰91.28, 29)
787    रौद (= रौदा, धूप) (भोर के समय आऊ नवम्बर के गुलाबी ठंढी में मन के एगो नया ऊर्जा मिल रहल हल । सुरूज के सोनहुलिया रौद खिड़की दिया हम्मर डायनिंग टेबुल पर अप्पन आभा छितरा रहल हल ।)    (मज॰32.15)
788    लईन (= लाईन, पंक्ति) (बस्ती से बढ़लूँ, आगू अस्पताल हल, लईन लगल भीड़ । गाड़ी रूकल । लईन में रोगी नय्, स्वस्थ लोग हला । अचरज होल, सभे के हाथ में स्वास्थ्य-कार्ड । हर सप्ताह जाँच के तिथि, समय तय हल एकरा में । जे मजूरा जजा कमा हल, ओजय केन्द्र पर जाके जाँच करा ले हे ।)    (मज॰43.4)
789    लजौनी (~ घास) (एगो विपर्यय भी भेलइ । विष्णुदेव भाई के विवाहिता उपस्थित होलथिन । पत्नीत्व और मातृत्व भाव से वंचित होला से उनखर चेहरा सुखल भुआ नियन लगलइ । गोरापन भूरापन में बदल गेल हल । विष्णुदेव भाई ब्रह्मचर्य तेज से उनखा दने तकलथिन तऽ ऊ बेचारी सिकुड़ के लजौनी घास हो गेलथिन ।)    (मज॰82.4)
790    लटका-झटका (भोजपुरी सिनेमा के मशहूर गायक अउ बिहार के अमिताभ बच्चन, मनोज तिवारी 'मृदुल' के एक दिन फोन कइली । हमरा अच्छा लगल कि उनका पास हीरोगिरी वाला कोय लटका-झटका नय हल ।)    (मज॰99.10)
791    लड़ाय (= लड़ाई) (हमरा इतिहास पढ़े में कहियो मन नञ् लगल । खाली लड़ाय-झगड़ा, मार-काट, सत्ता ला संघर्ष ।; हमरा से बेसी त मलकिनी फाड़ा कस के तनलन अउ कहलथन कि तू का समझऽ हें रे । मगहिया से लड़ाय मोल लेवे के मतलब हउ सनिचरा के साढ़े साती नेउतना । अइसन बगलामुखी मन्तर मारवउ कि बस ।)    (मज॰53.9; 119.11)
792    लदफदाना (23 अक्टूबर के सुबहे आठ बज के उनतीस मिनट पर एगो अदमी के अवाज भेल मगह कवि कोकिल घरे हथ । लदफदात दौड़ के देखलूँ, हम्मर कवि मीत ईश्वर प्रसाद 'मय' जी के दरसन भेल ।)    (मज॰25.3)
793    लपकना (ईहे बीच मोबाइल टनटनाल । लपकि के उठइलूँ सोंचइत ... जनु आवइ के सनेस हे बकि आवाज हल डॉ॰ भरत के, "कहाँ हथिन ?")    (मज॰88.28)
794    लमछर (= लमछड़) (एतने में लूंगी गंजी अउ चदर ओढ़ले कुछ दूर पर एगो लमछर अदमी सड़क पार करइत दिखाय देलक ।)    (मज॰13.12)
795    लमहर (ऊपर का छुवे वाला पहाड़ के चोटी, ओकर ऊपर लमहर पेड़ अउ नीचे अतल-अथाह गंगा के घहराइत धारा ओकर कलकल निनाद, जइसे तन-मन-परान के एक बार हिलोर के सुद्ध बना दे हे ।; अभी एक जगन मन अघइवो नयँ कइल हल कि सड़क के सजावट लमहर रंगन के हरियर कच-कच घास, पौधा, फूल, पेड़ के बागवानी देखइते बनऽ हे, जी अघाय के नाम नय ले हे ।)    (मज॰20.18; 28.9)
796    लम्बर (= नम्बर) (सव्हे संघतिया जौर भेली एक लम्बर प्लेटफारम पर ।; टिकस कटावे में सौ रूपइया ऊपरे से देली हल । टिकस पर सीट लम्बर छाप के देलन हल ऊ बेचारा ।)    (मज॰84.10; 118.22)
797    ललछाहीं (हम कुछ न बोलली । ओकर कंधा पर हाथ रख के सांत्त्वना देली कि जरूर चलम । बड़ी सहृदयता झलक हल आँख में जेकरा में कहँय भी इलाकावाद के ललछाहीं न देखली ।)    (मज॰50.4)
798    लहास (= लाश) (दूसरका कोना पर कुछ पत्थर-उत्थर जमा देख के पूछली - "ऊ का हे हो ?" ऊ कहलक - कुछ दिन पहिले एगो कारगिल के लड़ाई होएल हल । ओकरे में ऊ करगिले में मारल गेलन हल । उनकर लहास हवाई जहाज से ऊहाँ से अइलन हल - तिरंगा झण्डा में लपेट के । जरावे के पहिले बन्धूक छुटलैन हल । ओहँई उनखा जरावल गेल हल ।")    (मज॰123.20)
799    लिट्टी (तय होल - पेट के बोझा माथा पर काहे, कलौवा खुलल, लिट्टी रात ले रखल गेल, पुड़ी, भुजिया-अचार-मिरचाय दम भर चढ़ा लेलूँ । मन थिरा गेल ।; हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।; अच्छा मीठा नय त नमकीन ? हियाँ पर तो लिट्टियो खूब सबदगर मिलऽ हइ ।;  पत्ता के दोना में बूट के घुघनी के साथ दू गो करारा खास्ता लिट्टी ला के देलूँ उनका हाथ में । "ई का हे ?" रवि शास्त्री के आँख में कौतुक छिलक रहल हल । -"ई बिहार के मशहूर लिट्टी हे ... मीठा नहीं, नमकीन हे .... ई चलत ।")    (मज॰37.12; 100.6; 101.20, 22, 25)
800    लुंगी (बिहार से हमनी कुल सात लोग हलूँ, जेकरा में पाँच गो मगहिया । पंजाबी पगड़ी, मराठी साड़ी, तमिल के लुंगी सहित पूरा भारत एक्के ठमा ।)    (मज॰39.1)
801    लुगा (= लुग्गा) (नहा धो के सुनर सुनर लुगा, कुरता पइजामा, जूता-मउजा पेन्हले बस पर चढ़लूँ कि बस खुल गेल ।)    (मज॰30.11)
802    लुर-बुध (मान्यता हे अमरनाथ गुफा में कबूतर के जोड़ी-दरसन सुभ हे अउ हम निहाल भेलूँ, दरसन पाके ... जय बाबा बर्फानी ! जन समाज के जे आइ के लुर-बुध दा !)    (मज॰112.3)
803    लेरु-पठरु (तोहरे मंदिर अउ मसजिद के कंगूरा पर अपन कुर्सी के पउआ रख के कंस बइठल हो अऊ तोहर बाल-सखा, तोहर गाय-गोरू, लेरु-पठरु सभे आतंक के अन्हार में जी रहलो हे ।)    (मज॰56.3)
804    लैन (= लइन, लाइन, पंक्ति) (दरसन करे वलन के अथाह भीड़ - लमहर लैन - सुरक्षा के भयंकर इंजाम - झोला-झक्कड़, जूता-चप्पल, ओबाइल-मोबाइल - सभे कुछ बाहर, खाली अदमी भीतर ।)    (मज॰54.27)
805    लोग-बाग (अब अइसइँ मुंगेर, जमुई, लखीसराय, झाझा, देवघर, कलकत्ता, भागलपुर गाड़ी-ट्रक निकलऽ लगत । सड़क के किनारे वला गाँव सब गुलफुल हे ... रोजगार मिलत, दोकान बनऽ लगल, गुमटी लगऽ लगल । जमीन के भाव चढ़ल । लोग-बाग नितरो-छितरो !)    (मज॰91.16)
806    वग-वग (उज्जर ~) (एतने में उज्जर वग वग पजामा अउ कुरता पेन्हले, छश्मा लगइले, हाथ में डायरी लेले धम-धमा के सिद्धेश्वर आगू में आ गेलन ।)    (मज॰26.22)
807    विच्छा (= बिच्छा, बिच्छू) (किला के मुख्य दुआर पर तंत्र-मंत्र के ललाट लेल विच्छा, ककोड़ा अऊ तरह-तरह के आकृति हे ।)    (मज॰17.18)
808    विजुन (= बिजुन, भिजुन, के पास) (ईहाँ एक बात अउर इयाद आवइत हे कि जगन्नाथपुरी में समुन्नर के भी उहाँ के मल्लाह अउ ढेर लोग 'गंगा मइया' कहो हथ । हालाँकि गंगा त कलकत्ता विजुन बंगाल के खाड़ी में समा गेलन हे जेकर नाम पर 'गंगा सागर' तीरथ नाम पड़ल ।; पौ फटल, सामान संगे हम 'हनुमान मंदिर' विजुन अयलूँ । बस तइयार हल, मुदा मन में हुलास उठल, हनुमान जी विजुन माथा पटके ला गेलूँ ।)    (मज॰21.15; 46.6, 7)
809    विदमान (= विद्वान) (मतलब ई कि देशाटन, विदमान संग दोस्ती, वेश्या के घर जाय से, राजसभा परवेस करके अउर ढेर शास्त्र के पढ़नय से अमदी के ग्यान मिलऽ हे ।)    (मज॰18.6)
810    विलमना (= विराम लेना) (हमर आगू चलइत साथी से पहिलहीं पहुँच के दम ले रहलूँ हल । हम भी विलम गेलूँ । आधा घंटा में पिछुआल साथी भी पहुँच गेल ।)    (मज॰111.20)
811    वेगर (= वगैर, बिना) (सिनन्दन ठाकुर हलन त अनपढ़ मुदा गाँव-घर के हर पंचयती उनखा वेगर सफल न होअ हल ।)    (मज॰11.6)
812    शंख (~ बजाना = किसी तरह काम चलाना) (सूखल रोटी पर ~ बजाना) (सीधमाइन सुजाता बेचारी अकबकाल फिन से चुल्हा सुलगइलकी । बाकि हम रही नयका बटुक । तब तक खीर पर हाथ फेर देलूँ हल । दू-तीन जने आउर 'जै ठाकुर' कर देलका हल । विष्णुदेव भाई जौरे तीन-चार जन आउ भी गो-रक्षा के गाँधीवादी सनक में सूखल रोटी पर शंख बजइलका ।; अभी हमर सबके घरेलू समान झरखराल हल नञ् । तय भेल कि ई शाम भी ओकरे पर शंख बजावे के चाही ।)    (मज॰78.11; 108.14)
813    संघतिया (बात सन् 2000 ईस्वी के सावनी पुनियाँ के हे । मगही के नामी गिरामी कवि श्रीनन्दन शास्त्री अउ उनखर संघतिया सिरी केदार अजेय से भेंट भेल अप्पन घर पर ।)    (मज॰83.2)
814    सकरी (~ नदी) (जल्दी पहुँचइ के अकबक्की में खराँठ मोड़ पर एन॰एच॰ धरि लेवइ के राय बनल । अड़चन माथे बीच के सकरी नदी हल । बरसात छोड़ के अनदिनमा छोटकी गाड़ी पार करि जा हल ।; वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे ।; एन्ने-ओन्ने मदद ले ताकइत रहो ... कोय हाथ लगा दे । हार-पार के बुदबुदइवा ... कान-कनइठी ! अब नञ् ई राह ! साल भर के सही, छो महीना के नञ् ! बाप रे बाप ! आधा किलोमीटर के पाट ! नाम सकरी पाट चउड़ी ।)    (मज॰90.17, 21, 32)
815    सटक-सीताराम (हमरा से बेसी त मलकिनी फाड़ा कस के तनलन अउ कहलथन कि तू का समझऽ हें रे । मगहिया से लड़ाय मोल लेवे के मतलब हउ सनिचरा के साढ़े साती नेउतना । अइसन बगलामुखी मन्तर मारवउ कि बस । ऊ बेचारा तो सटक-सीताराम हो गेल ।)    (मज॰119.13)
816    सटले (भीड़ के बगले-बगले दखिनवारी हाता के सटले एगो रास्ता मंच तक जा हल ।)    (मज॰94.11)
817    सतरखी (रात थोड़े देरी घूमघाम के सतरखी से नौ बजे सूत गेली ।)    (मज॰34.12)
818    सथाना (= स्थिर होना, शान्त होना) (सकरी के धाध आउ पतहुल के धंधौरा एक्के । अइलो तऽ तूफान आउ गेलो तऽ बस चुरु-चुरु पानी ... सथाल धंधौरा के बानी-सन बालू-बालू ! चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे ।)    (मज॰91.22)
819    सन (= -सा, जैसा, सदृश) (ढेर ~) (समुद्र में इ पहाड़ी टापू सन लगे हे । एजा रूके, आराम करे, अउ घुमे के अलग मजा हे ।; अजंता के चित्रकारी देख दंग रह गेलूँ । एक से बढ़ के एक चित्र । भगवान बुद्ध के ढेर सन कहानी इ चित्र में बोल रहल हे ।; गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो । गीयर पर गीयर बदलइत ने रहो ... चक्का बालू उधियावइत घूमइत रहतो । गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् ।  उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल !)    (मज॰16.11; 17.4; 91.28)
820    सनि (= सन) (सूरूज डूबे के थोड़े सनि पहले सब्हे लोग राम मनोहर लोहिया पार्क के बड़ाय करे लगलन ।)    (मज॰28.2)
821    सनुठ (चाय गढ़गर दूध आउ चीनी से मीठ गुरांठ पी के मन सनुठ कइलूँ ।)    (मज॰28.23)
822    सनेस (= सन्देश) (ईहे बीच मोबाइल टनटनाल । लपकि के उठइलूँ सोंचइत ... जनु आवइ के सनेस हे बकि आवाज हल डॉ॰ भरत के, "कहाँ हथिन ?")    (मज॰88.29)
823    सन्नुठ (रातो भर नीन नञ् भेल । कखने भोर होवे कि 'लाल किला' देख के मन के सन्नुठ करू ।)    (मज॰26.6)
824    सबदगर (= सवदगर; स्वादिष्ट) (हमरा सूझल । अच्छा मीठा नय त नमकीन ? हियाँ पर तो लिट्टियो खूब सबदगर मिलऽ हइ ।)    (मज॰101.20)
825    सब्हे (= सभी) (गाइड बतइलक इहाँ आउ मूरती हल मुदा सब्हे चोरी हो गेल । कुछ दोकान-दौरी, खाना-नास्ता के दोकान अउ पर्यटन ले खरीदे लेल कार्ड अउ अनेगन चीज बिक रहल हल ।; गया से गुजरेवाला सब्हे गाड़ी में वेटिंग चल रहल हल ।)    (मज॰16.10; 128.18)
826    समदिया (= सन्देश-वाहक) (कवि के मन में खुटपुटायत रहऽ हे ... आयोजक विदा करे अइतन भी कि सुखले उठ-पुठ के चलि देवे पड़त ? आउ कम-बेस ओइसने भेल । हमर कान में समदिया पहमां सनेस भेजवल गेल ... आयोजक के घाटा लगि रहल हे ।)    (मज॰97.1)
827    समान (= सामान) (हर आदमी कुछ-न-कुछ समान खरीदलन ।; अभी हमर सबके घरेलू समान झरखराल हल नञ् । तय भेल कि ई शाम भी ओकरे पर शंख बजावे के चाही ।)    (मज॰47.13; 108.13)
828    समुन्नर (= समुन्दर, समुद्र) (एकरा से आगू बढ़लूँ तऽ समुन्नर से तेल-गैस निकासे के प्लांट देखलूँ।)    (मज॰16.3)
829    सरगनइ (नारायण जी तऽ नाम मोताबिक आचरनो बनौले हथ, उनखरे सरगनइ में शिवकुमार बाबू हमरो टिकिस अउ पास बनौलन ।)    (मज॰83.12)
830    सरधा (~ के झोर भंगोरा) (उबड़-खाबड़ जमीन फूल-पत्ती के नामो निसान नञ् । दुभ्भी छीलइत घंसगाढ़ा सफाई के नाम पर दरमाहा ले हे तब माथा ठोकलूँ कि सरधा के झोर भंगोरे हे ।; ई पुल । बनवैया करीगर के बुद्धि, कला अउ मेहनत देख के माथा सरधा से झुक गेल ।)    (मज॰29.32; 38.1)
831    सर-समान (6 जून के अन्हरुखे सर-समान ले ले दुन्हू जीव बस पकड़ के रजधानी अयलूँ ।)    (मज॰37.7-8)
832    सरियाना (कमाल के नीन कि दिन के भोजन नदारत ! निवृत्त होके अयली तब चाहवला गायब ! हार पार के टिफिन खोलली जहवाँ श्रीमती जी के सरियावल भुँजिया, चपाती अउ दही हमरे राह देख रहल हल, जम के खइली ।; आझ किउल पहुँचना हे तीन बजे तक । झोला-झक्कड़ सरिया लेलूँ ।; थैला भी सरियावे के हे । जिब्भी भी नये मँगइलूँ हल । छोट लड़का 'शिशु' के हँकइली, "ब्रश-जिब्भी भी थैला में रखि दऽ । एगो चद्दर आउ ... ।" हम बतइते गेली आउ ऊ सरियावइत गेल ।)    (मज॰33.21; 53.14; 89.26, 28)
833    सलटना (इहे बीच फुर्सत पा के हमनी के एक मीत टिकस लइलका । मगर रिजर्वेसन के ममला रहिए गेल । तय होल कि टी॰टी॰ साहब से सलट लेल जाय ।)    (मज॰129.15)
834    सले-सले (गोमो पहुँचला पर आरच्छित सीट पइली । सले-सले सामान रखे से लेके खाय आउ सुते के व्यवस्था करि व्याख्यान के पांडुलिपि के प्रस्तुति के कुछ बिन्दु पर विचार करइत आँख लगि गेल, पतो नञ चलल ।)    (मज॰33.15)
835    सवादना, सबादना (एतने में एगो बूढ़ी हमनी भिजुन आके ठाढ़ भे गेलन । हम पूछली, "कोय जरूरत हो माय ?" -"तोहर सबके बोली सबाद के अइलूँ । लगऽ हे हमरे पानी के तों सब हऽ", ऊ जवाब देलन । -"तोहर घर कहाँ घर हो ?", हम फिन पूछलूँ । -"राजगीर भिजुन हमर घर हे । हम भटक गेलूँ बेटा । हमरा पास कुछ नञ् हे ।")    (मज॰108.17)
836    ससरवाना (इहाँ रात गमौली एगो टेन्ट में । पारस बाबू, परमानंद जी ओगैरह तऽ देहो मालिस करव लेलन एगो दसटकिया पर । देखा-देखी अरूण जी, दीनानाथ जी देह ससरवा लेलन ।)    (मज॰85.30)
837    ससारना (= खिसकाना; बन्धन, जोड़, गाँठ आदि ढीला करना) (गाड़ी पहुँचल डोभी । सब कोय हाथ गोड़ ससारे ला उतरलन । फिन तनिये देर में गाड़ी खुलल अउ पहुँचल बुद्धगया ।)    (मज॰47.28)
838    ससुरा (सुरेश इसकूटर चालू करके कहलक - पीछे बैठऽ । हमरा जाय के मन नै । बैठ त गेलों, मगर मन ही मन सोचो लगलों - ससुरा ई हमरा ले काले हल । पहिले पानी नै देलक, अब इसकूटर चढ़ा के जानी कहैं गिरा दियै त माय हमर कानैत रहत घर में । हम गोड़-हाथ तोड़वा को कलकत्ता अस्पताल में पड़ल रहब । पहिले हट के मारलक, अब सट के मारत ।)    (मज॰66.32)
839    सहमोरना (= सँभारना) (वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे । जहिये पानी पड़ल, धाध आ गेल । झारखंड के पहाड़ से निकलल सब पानी सहमोरले ईहे राह बहे । दू-चार दिन तऽ गंगा बुझाय, फिन सुक्खल के सुखले ... राँड़ के मांग नियन ।)    (मज॰90.23)
840    सहियारना (शुभांगी के आँख भी मोती जैसन लोर के बूँद ओकर ठोर पर ढरक के भिजाबे लगल फेर हमर आँख चुप काहे रहत हल । इहो अप्पन दर्द कहिये के छोड़लक । सुरेश के अन्दर के बर्फ भी पिघलल, मुदा उ जवान बिलबिला के सहियार लेलक ।)    (मज॰73.15)
841    साइत (= शायद) (अदमी रूक गेल । हम ओकर नगीच पहुंच गेली अउ पूछली - अपने रुखरियार साहेब के जानऽ ही । साइत एनहीं कनहुँ रहऽ हथ ।)    (मज॰13.16)
842    सादा-सादी (हम्मर तीनों के रुचि अलग-अलग हल । हम तो सादा-सादी के फरमाईश कइलूँ । मगर हम्मर दुन्हू मीत मछली अऊर चिकेन के सौकीन हला ।)    (मज॰132.15)
843    सानी-पानी (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी । सानी-पानी खा, थोथुना फुला-फुला के सुत्तो, बुतरून के ढेरी लगा दा । एतना काम तो बैलो करऽ हे, फिन ई मानव-तन मिलल काहे ला ।)    (मज॰52.13)
844    सामराज (= समराज; साम्राज्य) (सागर के सामराज में आगे बढ़इत हम पहुंच गेलु 'एलिफेंटा' ।)    (मज॰16.7)
845    साहित (= साहित्य) (हम उनकरे बगल में कुर्सी डटा के बैठ गेलों । साहित पर बात हो रहल हल । हम समझ गेलों । ई सब साहितकार के गोष्ठी हे ।)    (मज॰63.12)
846    साहितकार (हम उनकरे बगल में कुर्सी डटा के बैठ गेलों । साहित पर बात हो रहल हल । हम समझ गेलों । ई सब साहितकार के गोष्ठी हे ।; कविता सुन के साहितकार से जादे ऊहाँ के जनता नाचो लगल । हरदम एक-एक बन्द पर ताली के गड़गड़ाहट !)    (मज॰63.13; 65.19)
847    सिंगल (= सिग्नल) (आगू बढ़लूँ । सिंगल हो गेल । लपके लगलूँ । टीसन पर चौधरी जी खड़ा हलन ।)    (मज॰53.21)
848    सिक्कड़ (अटैची के सिक्कड़ में बाँध के दुन्हूँ बेकत सुत गेली । भोरे अटैची वियोग सहे पड़ल ।)    (मज॰124.1)
849    सिनन्दन (= शिवनन्दन) (हमर गाँव के केते किसान के खेत नहर में गेल हल जेकर मुआवजा मिले के नोटिस आयल हल । ओकरे में वोट लाल के भी नोटिस आयल हल जिनकर खेत सिनन्दन ठाकुर जोतऽ हलन । सिनन्दन ठाकुर हलन त अनपढ़ मुदा गाँव-घर के हर पंचयती उनखा वेगर सफल न होअ हल ।)    (मज॰11.5)
850    सिहाना (= सेहाना) (किताब में अउ अमदी से सुनल सोहनगर रूप, लाल किला, कुतुब मीनार, संसद भवन, मेट्रो रेल देखे के सपना पूरा भेल, अइसन उमेद से मन सिहाय लगल ।)    (मज॰25.16)
851    सीधमाइन (विष्णुदेव भाई - "धत् महराज ! हटावऽ, हमनी गो-पालन के प्रचारक हियो । भैंस के गोरस नञ् चलतो । थारी उठावऽ - ले जा । पूड़ी भी त भैंसे-घृत के हको । हमरा ला सुखल रोटी बनवावऽ ।" सीधमाइन सुजाता बेचारी अकबकाल फिन से चुल्हा सुलगइलकी ।; हमरा हीं पकावे वाला कोय न हो - सीधमाइन रूस के नैहरा भागल हो । स्वपाकी बनऽ ।)    (मज॰78.8; 81.8)
852    सीमाना (= सीमा) (गाँव के सीमाना में बड़की नहर के निरमान काम जारी हल ।)    (मज॰11.3)
853    सुकुवार (= सुकवार) (बीहड़ जंगल हे, बरफे पर चले ला हे, ई सुकुवार हथ, जतरा पूरा कइसे करतन ?)    (मज॰83.20)
854    सुक्कर (= शुक्रवार) (हमरा सुक्कर के रात दूध नै देलक, पूछलौं, तब कहलक - अजुका राति आर कल्हका दूध के खोवा मार देबौ, ओकरा में चीनी डाल के, रोटि भुंजिया ऊपर से देबौ । कलकत्ता भारी शहर हे ! ... के खिलइतौ ?)    (मज॰58.6)
855    सुक्खल-जेठ (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी ।)    (मज॰52.12)
856    सुच्चा (कनफूल, माला, अँगूठी, चूड़ी सभे भरी से तौल के, सुच्चा मोती के । जेबी के धियान रखले कुछ अपना ले, कुछ छोटकी ननद-गोतनी ले भी ।)    (मज॰44.8)
857    सुटकना (ई मन के थाह लगाना अउ कलकत्ता पैदल जाना बरोबर हे । ... कखनौ सुटक के अपन खोंतवे के बुझ लेतो संसार, कखनउ कल्पना के पाँख खोल के सउँसे दुनिया के अपनावे ला सपनाय लगतो ।)    (मज॰52.1)
858    सुतना (= सोना) (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी । सानी-पानी खा, थोथुना फुला-फुला के सुत्तो, बुतरून के ढेरी लगा दा । एतना काम तो बैलो करऽ हे, फिन ई मानव-तन मिलल काहे ला ।; हम कहलों - कुछ नै । रात भर सुत्तो, हम अप्पन बेमारी के समझै ही, ई कलकत्ता के पानी लगल हे । दू दिन में ठीक हो जायत ।; घर के बनावल सामान, ऊ भी पाँच घर के, पाँच किसिम, पाँच स्वाद, पराठा, लिट्टी, खमौनी, तलल चूड़ा, भूंगा मूँगफली, निमकी ... खइते ... चाह कॉफी पीते, गर-गलबात करते, सुतते, बैठते मंजिल दने बढ़ल जा रहलूँ हल ।)    (मज॰52.13; 70.16; 107.24)
859    सुताना (= सुलाना) (इहाँ तोरा बड़ी तकलीफ होतो । तोहरा पास कपड़े नय हो । इहाँ पत्थर पर सुता देतो, रात भर में देह ऐंठ जइतो । बीमार हो जइवा ।)    (मज॰66.25)
860    सुन (= सन, -सा) (टीसन पर लौटली । खाना-वाना खाए के समय न मिलल । तनि-सुन पेड़ा लेली हल । दू-दू गो खा के पानी पी लेली आउ जे गाड़ी आएल ओकरे पर सवार हो गेली ।)    (मज॰123.28)
861    सुनर (= सुन्नर, सुन्दर) (नहा धो के सुनर सुनर लुगा, कुरता पइजामा, जूता-मउजा पेन्हले बस पर चढ़लूँ कि बस खुल गेल ।)    (मज॰30.11)
862    सुन्नर (ठइयें-ठइयें पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, इलाहाबाद के नामी-गिरामी संस्था, सेठ, दानी, पुनी संतन के भंडारा लगल हे । इहाँ जातरी के मुफ्त भोजन, चाय, नास्ता मिले हे, ठहराव के बड़ सुन्नर व्यवस्था हे ।)    (मज॰85.24)
863    सुमिधा (= सुविधा) (दुनिया के सबसे बड़गे, ढेर महातम के जानल-मानल तीरथ होवे के कारन इहाँ सालो भर दरसनिया के अपार भीड़ जुटे हे । सुमिधा खातिर गंगा के कइगो धारा, घाट बना देवल गेल हे ।)    (मज॰18.19)
864    सुरफुराना (गाड़ी घड़घड़इलो कि सुरफुरइलो । गम्मल तऽ पार लगि गेलो बकि झखइत रहो अनगम्मल । अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो ।)    (मज॰91.24)
865    सुरुर (हम उत्साहित हो के उनखा पास दू-तीन तरकट्टी ताड़ी आऊ भेजबइनूँ अऊ एन्ने हमरा साथे पंकज विष्ट चुक्को-मुक्को तार के गाछ के जड़ी तर बइठल पासी के सामने एक के बाद एक तीन-चार तरकट्टी खाली कर देलन । सुरुर चढ़े लगल हल हमनी सब पर ।)    (मज॰101.9)
866    सुरूम (= शुरू) (वापसी जतरा सुबह सुरूम भेल ।; गाड़ी अप्पन तेज रफ्तार में चले लगल आ हमनी के अंताक्षरी सुरूम हो गेलै ।)    (मज॰23.30; 48.16)
867    सूटर (= स्वेटर) (तन पर लगान फहल धोती, कुरता, सूटर, टोपी, जूता मउजा, खोलके हाथ कान मुँह धो बइठलूँ कि झट कॉफी मिलल ।)    (मज॰28.21)
868    सेनुर ('पूरा करीहऽ कामना हमार हे गंगा मइया' के गीत गयते ठाढ़े ठोप सेनुर कयले जनाना के झुंड गाड़ी में हेले लगल ।)    (मज॰134.9)
869    सेसर (= श्रेष्ठ) (सुरेश बोलल - बहुत बड़े कवि हथ । नारायन धर्मसाला में तीन सौ लेखक जुमलन देश भर से, ओहमें सेसर कवि - परमेश्वरी बाबू ! सब्भे हिला के छोड़ देलन साहब !)    (मज॰71.14)
870    से-से (जतरा एकल्ले के नञ् जमात के । संगी संग रहला ... गीत गलबात में समय कटइत गेलो ... मनुअइवा नञ् । से-से हम एनउकन कवि सब के अपने भिजुन जुटा लेली कि सब गोटी एक्के साथ चलम ।)    (मज॰87.2)
871    सेहे (सेहे से हमनी चल देलूँ भगवान कन्हइया के जलम-स्थान ।)    (मज॰54.9)
872    सो (= सौ) (बोखार टूटो लगल, माथा दरद साथे-साथ । भोर तक माथा दरद साफ हो गेल । बोखार सो डिगरी के करीब रह गेल ।; गाड़ी निकाले के सो रुपइया लगतो ।; तीन सो साल के मंसूरी देश के गौरव हे ।)    (मज॰70.25; 92.24; 105.2)
873    सोझियाना (सेमिनार के शुरूआती दौर में अध्यक्ष संस्कृत शिक्षा बोर्ड बिहार आउ 'विचार दृष्टि' के सम्पादक विधिवत् कार्यक्रम सोझियावे में लग गेलन ।)    (मज॰30.25)
874    सोनहर (बाहर निकसला पर जानलूँ कि खूब बरखा भेल हल । साँझ सोनहर हो गेल हल ।)    (मज॰41.10)
875    सोनहुलिया (भोर के समय आऊ नवम्बर के गुलाबी ठंढी में मन के एगो नया ऊर्जा मिल रहल हल । सुरूज के सोनहुलिया रौद खिड़की दिया हम्मर डायनिंग टेबुल पर अप्पन आभा छितरा रहल हल । ऊहे सोनहुलिया झकास में हमर श्रीमती जी एक्के थारी में दाल के कटोरी, सब्जी के छिपली अऊ चार चपाती टेबुल पर रखि देलन ।)    (मज॰32.15, 16)
876    सोना-चानी (सोना-चानी सन चमक-दमक से भारत नीराजन के बालू देख मन इतरा गेल । एहे नीराजन आगे जा के फल्गु भेल ।)    (मज॰46.19)
877    सोन्ह (आठ बजे दिन के करीब में हाबड़ा टीसन उतर गेलों । गेट से बाहर अइलों, देखऽ ही हर लोग सोन्ह में हेल रहला है । हमरा अनुमान भेल कि अइसैं रास्ता हे । हम भी उहे तरह सोन्ह में ढूकि गेलों । सोन्हि से ऊपर भेलों तब हम अपना के सड़क पर पइलों ।; हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।)    (मज॰62.25, 26; 100.7)
878    सोन्हइ (नाक में भरल धूरी अउ डीजल के गंध के सिलावी खाजा के सोन्हइ धकिया रहल हल आउ ओने माईक के आवाज अपना दने खींच रहल हल । मन माईके दने एकलहू भेल ... 'अब अपने सबके सामने डॉ॰ भरत जी आ रहलथुन हे, जे मगही साहित्य के इतिहास पर रोसनी डालथुन ।')    (मज॰93.31)
879    सोभाव (= स्वभाव) (प्रकृति अप्पन सोभाव मुताबिक थकावऽ लगल, दम फुलावऽ लगल ।)    (मज॰111.1)
880    सोहनगर (किताब में अउ अमदी से सुनल सोहनगर रूप, लाल किला, कुतुब मीनार, संसद भवन, मेट्रो रेल देखे के सपना पूरा भेल, अइसन उमेद से मन सिहाय लगल ।)    (मज॰25.15)
881    सोहाड़ी (= पराठा) (ठीके थोड़े देर में नाश्ता में दू दू गो टोस्ट आर दालमोठ आ गेल । फिन चाह, फेर एक होटल में सबके ले जायल गेल । वहाँ सोहाड़ी आर तड़का आ गेल ।; सम्मेलन सुरूम भेल । सोहाड़ी आर तड़का पेट में पानी माँगो लगल ।)    (मज॰63.24; 64.24)
882    सौंसे (= सउँसे, समूचा) (सौंसे देह तो अधनंगे हे, मुदा सर पर कफन बाँधले हका ।)    (मज॰77.17)
883    हँकमान (टमटम पर चढ़ गेलूँ दुन्हू बेकत । अप्पन टमटम में घोड़ी हल कि घोड़ा ऊ तो न देख पइलूँ मुदा गोड़ में घुँघरू बाँधले छनन-मनन करते हमर टमटम चलल । हँकमान बढ़ियाँ आदमी हल । मीठगर बात से हमरा गाइड भी कर रहल हल ।)    (मज॰121.26)
884    हँकवान (= हँकमान) (हँकवान टमटम आगे बढ़ैलक ।)    (मज॰122.3)
885    हँकाना (मीनू मामा के गोदी से हँका के कहि रहल हल, "दही-मछली बाबा ! खाजा लेले अइहा !")    (मज॰90.13)
886    हँसोतना ("आवऽ हथुन ?" चन्दर भइया के व्यग्रता । "नेता के चक्कर हो", माथा हँसोतइत कारू गोप बोललन ।)    (मज॰88.10)
887    हइयाँ (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ ! कोय-कोय जगह के चउड़ाय ओतने, जतना में उदबिलाव नियन कुदकि के टपि जा ... हइऽऽयाँ ! पैदल तऽ हइयाँ, बकि कार-टेकर ? हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ ।)    (मज॰90.26, 27)
888    हउला (दून्हू परानी चल देलूँ बस पर, मन हउला हो गेल । मिल गेल हल ई जंजाल से फुरसत - कुच्छे दिन ला सही ।)    (मज॰53.15)
889    हक्क-बक्की (= हकबक्की) (विष्णुदेव भाई के जब बकड़ा कह देल गेल तब समस्या गंभीर हो गेल । मरखंडा बैल के के संभाले ? पूरा टोली के हक्क-बक्की समा गेल । केकरो कुछ न सूझे ।)    (मज॰80.28)
890    हगना (इख्तियार उद्दीन बख्तियार खिलजी एकदम राकसे हलो । चेहरा हलइ मधुमक्खी के छत्ता, नाक टेढ़ा, ठोर उल्टल, भौंआ उठल, लगभग अष्टावक्र नियन हलइ । ओकरा देखे तऽ लड़कन लंगोटिये में हग दे ।)    (मज॰81.20)
891    हड़फा-सड़फा ("सर, ब्रेकफास्ट के साइरन बजि चुकल हे ।" नजर उठइली, तब तक ऊ आगू बढ़ि गेल हल । हम हड़फा-सड़फा बैग में डालि के पीछू लगि गेला ।)    (मज॰35.5)
892    हड़हड़ाना (अंदाज लगइलूँ, आधा घंटा में आ जइतन । आधा कि, एक घंटा गुजरि गेल, मुदा तइयो नञ् गाड़ी हड़हड़ाल ।)    (मज॰88.2)
893    हड़ास (मगधेश जरासंध के पराक्रम माथा पर चढ़ल रहल, जेकर गाथा मथुरा के माटी पर अप्पन छाप छोड़ देलक हल । राजगीर के ढेला मथुरा में गिरल - हड़ास-हड़ास ।)    (मज॰52.24)
894    हथजोड़ी (हनुमान मंदिर बिजुन टेम्पो पकड़े ला गेली । 'अतुलित बलधामं स्वर्णशैलाभदेहं .... वातजातं नमामि' मंतर पढ़इत अउ हनुमान जी बिजुन हथजोड़ी करइते हली कि फट-फट अवाज सुनाय पड़ल ।)    (मज॰84.2)
895    हथुक्की (घर आ के पत्नी से कहलूँ तब ऊ कहलन, "जाय के मन रहो तऽ जा, बकि ओतना खर्चा जुटावऽ पड़तो । पइसा तो हलो, बाकि हथुक्की लग गेलो ।)    (मज॰107.14)
896    हथौना (गाड़ी धीरे-धीरे दुल्हीन नियन चलो लगल हम दौड़ के डिब्बा के पौदान पर चढ़के आर गेटन के दुन्हू बगलवाला हथौना पकड़ लेलों ।)    (मज॰61.29)
897    हन (अजी कहलन हल कि नेता आ रहलथिन हे । भोजन उनखरे इहाँ हन ।)    (मज॰88.5)
898    हनोक ( छपे के क्रम में 'शेखर' शर्मा जी के जीवंतता आउ विद्वत्ता के बारे में बतइलन हल बकि दरस-परस आझ हनोक न हल ।)    (मज॰94.21)
899    हमनीन (= हमन्हीं) (सभे मिलके कहलन कि गोष्ठी के रसदार करे लेल अब मगही गीतकार कवि उमेश जी हमनीन के कुछ सुनैथिन । गीत से पहले हम हास्य व्यंग्य मुक्तक मच्छड़, उड़ीस, टुनटुनियाँ सुनाके लोक भाषा मगही से इंजोरिया उगइलूँ ।; उहाँ फिन हमनीन प्रकृति के सुत्थरइ पर रीझलूँ । सुन्नरता देखते-देखते हमनीन के आँख नय अघाय पारे । फिन हमनीन सारनी पहुँचलूँ ।)    (मज॰27.4; 142.11, 12)
900    हरसट्ठे (ई काम हम हरसट्ठे करऽ ही ।)    (मज॰100.14)
901    हरियर (कच-कच ~) (सिद्धपीठन में रजरप्पा के बड़ नाम हल अउ सुन्नर-सुन्नर बाग-बगइचा, पेड़-पौधा, छोट-बड़ पहाड़न के कच-कच हरियर काया देखे ला मन तरसे लगल ।)    (मज॰45.8)
902    हरियाना (मन-परान हरिया गेल । हमर फूल के पइसा 'मालिक' देलन हल, ई देखको फूलवाली मुसुक गेली हल, हम नय बुझलूँ एकर माने । जे मेहरारू एकसरे हली से अप्पन पइसा अपने देलकी हल ।)    (मज॰42.9)
903    हल्का-फल्का (गाँधीजी-बिनोबा जी रामे राज तो लावेवाला हला । ऊ टाइम में हल्का-फुल्का निष्क्रमण तो होतहीं तहऽ हलई । बिहारशरीफ राजिनर बाबू के देखे गेलियो ।)    (मज॰75.13)
904    हाँहे-फाँफे (= हाँफे-फाँफे) ("साब, ई गाड़ी हे त ओही मुदा ई कल्हे के हे । ई चौबीस घंटा लेट हे ।" का कहूँ ? हाँहे-फाँफे दौड़ल गेली गाड़ी पर, काहे कि मलकिनी के गाड़ी पर बैठा देली हल । कहीं गाड़ी खुल गेल त हमरो नाम सहीदे में लिखा जाएत ।)    (मज॰119.3)
905    हाथे-पाथे (आठ बजे मंसूरी टैक्सी स्टैंड पर टैक्सी रूकल । पाँच साथी के साथ नाती मौजूद हल । सामान्य शिष्टाचार निवाहइत सभे हाथे-पाथे हम्मर सामान उठा लेलक आउ एगो सीमा सुरच्छा बल द्वारा सुरच्छित कैल रेस्ट हाउस पहुँचा देलक ।)    (मज॰103.22)
906    हार (~ पार के) (कमाल के नीन कि दिन के भोजन नदारत ! निवृत्त होके अयली तब चाहवला गायब ! हार पार के टिफिन खोलली जहवाँ श्रीमती जी के सरियावल भुँजिया, चपाती अउ दही हमरे राह देख रहल हल, जम के खइली ।; एन्ने-ओन्ने मदद ले ताकइत रहो ... कोय हाथ लगा दे । हार-पार के बुदबुदइवा ... कान-कनइठी ! अब नञ् ई राह ! साल भर के सही, छो महीना के नञ् ! बाप रे बाप ! आधा किलोमीटर के पाट ! नाम सकरी पाट चउड़ी ।)    (मज॰33.20; 90.30)
907    हाली-हाली (= जल्दी-जल्दी) (मंसूरी के अलौकिक नजारा देखै के ललक में हाली-हाली नहा-धो के तैयार भेली अउ भेल भरपेटा नास्ता ।)    (मज॰104.9)
908    हावा (= हवा) (हमनी अपन झोला से लिट्टी-अँचार निकास के खइलूँ अउ लोघड़ गेलूँ अप्पन-अप्न सीट पर । उत्तर-प्रदेश के हावा अऊ टरेन के लोरी कखने हमर चेतनता के कब्जिया लेलक, इयाद न हे ।)    (मज॰53.29)
909    हिंछ (= हिंच्छा; इच्छा) (रात दस बजते बजते उज्जर फह फह भर कटोरा में खीर अउ गरम-गरम परौठा खइलूँ भर हिंछ घोंघड़ काट के खूब सुतलूँ ।)    (मज॰28.25)
910    हिंछा (एकर हिंछा के वितान तो देखऽ, केतना लमहर-लमहर दोआब सजइले, हाथ-गोड़ छिरिअइले, एगो नञ् बुझे वला पिआस जगइले, ई जी रहल हे एतना सान से, एतना गुमान से, जइसे लगे हे ई अमरित के घड़िया पी के आयल हे ।)    (मज॰52.6)
911    हिगराना (अँसूवन के धार से शब्द के अक्षर-अक्षर हिगरा गेल हल आउ अब साफ-साफ बुझाए लगल हल कि युवा संस्कृति महोत्सव काहे ला मनावल गेल हल ।)    (मज॰51.22)
912    हिचकोला (गाड़ी बिचली लीक पर हिचकोला खायत डगमग बढ़े लगल ... जय भगवती ! एक हीस पार करइत गाड़ी एगो गबड़ा में फँसि गेल ... ले बलइया ! अब की होवत ? बचल खुचल कसर अब सकरी निकासि देत ।)    (मज॰92.4)
913    हिनखा (= इनका) (" ... हिनखा लगि त लंगड़ा रे घोड़ा चढ़मे - त उ दून्हू टाँग उठइले ।" - कहलकी किरण । हमर मुसकी छूट गेल ।)    (मज॰53.23)
914    हिसका (= आदत) (तों डाढ़ काट रहला हें, जड़ काटो, ओकर सब के पीयै के हिसका छोड़ा दा, बस तोर समस्या समाप्त ।)    (मज॰69.26)
915    हीस (गाड़ी बिचली लीक पर हिचकोला खायत डगमग बढ़े लगल ... जय भगवती ! एक हीस पार करइत गाड़ी एगो गबड़ा में फँसि गेल ... ले बलइया ! अब की होवत ? बचल खुचल कसर अब सकरी निकासि देत ।)    (मज॰92.5)
916    हुआँ (= वहाँ) (हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।)    (मज॰100.6)
917    हुमकना (छाया आदमी बनि गेल । आदमी मसीन बनि गेल । मसीन हुरहुयसाल ... टसकल ... रेंगल ... दहिने-बायें पिपाक-सन टगल ... दुलाबी चाल बढ़इत तारछोच पछियारी अरारा पर हुमकि के चढ़ि गेल ... हइऽयाँ !)    (मज॰92.30)
918    हुरकुचना (लचार होके ऊ हम्मर दोसर मीत के हुरकुच के उठा देलका । ऊ आँख मैंजते उतरला अऊर चल गेला फ्रेस होवे ।)    (मज॰130.32)
919    हुरकुथना (= हुरकुचना) (कोय-कोय के नीन भांपऽ हे तऽ उनखा हुरकुथ के उठावल जाहे अउ सुनिये के छोड़ल जाहे ।)    (मज॰95.23)
920    हुर-हार (बिना धुइयाँवाला अउ कम आवाज वाला बस गाड़ी जिनगी में पहिले बार देखलूँ । हुर-हार, पो-पा कुछ नञ् अउ झट चालीस मिनट में शक्करपुर सम्पादक 'विचार दृष्टि' सिद्धेश्वर प्रसाद के डेरा पर पहुँच गेलूँ ।)    (मज॰26.15)
921    हेराना (= गुम होना, भुल जाना) (उनखर सोंटल-सजल-सिरोरल साड़ी अस्त-व्यस्त होल हल, से अप्पन टीम के खोजो लगली, की बोलली से कुछ नय बुझाल, मुदा हाउ-भाव से लगल कि सड़ियावला पिन हेरा गेल हल ।; पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल । रस्ता भर टभकइत ई नदी पार कइली हल, 'सिठउरा' गाँव भिजुन एक आदमी खूब कसि के हँकइलन हल, "लोटा लेवा कि थारी ?" पहाड़ से टकरा के लउटल हल ... थारी । हम अकचकइली हल ... लोटा कने हेरा गेल ? बाल मन अकबकायत रहल हल ऊ रहस पर ।)    (मज॰43.25; 93.17)
922    हेलना (आदमी पीछू पाँच रुपया के टिकिस कटा के भीतर हेललूँ ।; महानगरी के एगो चौराहा, यातायात के टंच वेवस्था, साफ-सुत्थर, सजल कनिआय नीयन दिरिस हिरदा में हेल गेल ।; जइसहीं गर्भगृह में हेललूँ - रोयाँ खड़ा हो गेल ।; गाड़ी सिलाव बाजार में हेलते के साथ धूआ छूअइत धावक-सन सिथिल पड़ि रहल हल ।; उनखर शुरू के निरदेस के त हम हलके से लेली हल मगर दोहरइला से ई हम्मर दिमाग में हेल गेल ।; 'पूरा करीहऽ कामना हमार हे गंगा मइया' के गीत गयते ठाढ़े ठोप सेनुर कयले जनाना के झुंड गाड़ी में हेले लगल ।)    (मज॰28.4; 40.3; 55.1; 93.27; 130.10; 134.10)
923    होलियाना (कवि के जमात में संगीत से जुड़ल ढेर हलन । दीनबंधु, उमेश, डॉ॰ शंभु, गोप जी, के॰ के॰ भट्टा,  परमानन्द आदि मिल के साज-बाज पर वातावरन होलिया देलन ।)    (मज॰96.13)
924    हौले-हौले (= धीरे-धीरे) (हौले-हौले बहइत ठंढ हवा देह में झुरझुरी भरि रहल हल ।)    (मज॰108.7)
 

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