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Thursday, November 24, 2011

41. कहानी संग्रह "मट्टी" में प्रयुक्त ठेठ मगही शब्द


मशिलो॰ = "मट्टी" (मगही कहानी संग्रह), कहानीकार - श्री शिवप्रसाद लोहानी; प्रकाशक - सुकृति प्रकाशन, नूरसराय (नालन्दा), पिन-803113; वितरकः चिल्ड्रेन बुक सेन्टर प्रा॰लि॰, मछुआ टोली, पटना-800004; प्रथम संस्करण - 1996 ई॰; 120 पृष्ठ । मूल्य 39/- रुपये ।
पुस्तक प्राप्ति के अन्य स्थानः
(1) विद्या एजेन्सी, पुलपर, बिहारशरीफ (नालन्दा)
(2) जनकल्याण पुस्तक भण्डार, स्टेशन रोड, हिलसा (नालन्दा)
(3) माहुरी पुस्तक भण्डार, गनी मार्केट, के॰पी॰ रोड, गया
(4) किताब घर, झुमरी तिलैया (कोडरमा) ।

देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।

कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 597

ई कहानी संग्रह में कुल 7 कहानी हइ ।


क्रम सं॰
विषय-सूची 
पृष्ठ
0.
समर्पण, अनुक्रम, जीवनवृत्त
1-6
0.
प्रस्तावना
7-17
0.
शुद्धिपत्र
18-18



1.
एक ढेला मट्टी
1-10
2.
दुखिनी दाई
11-26
3.
तरमन्ना के ताड़ी
27-42



4.
लसोढ़ा के लस्सा
43-57
5.
यौन स्वेच्छाचार औ एड्स
58-72
6.
बदलल गाँव
73-86



7.
फेन वसंत आ गेल
87-100

ठेठ मगही शब्द ("" से "" तक):

317    नइका (= नया) (सबसे पहिले पुछलका कि नइका बउआ कैसन हे । फेन बोलला कि पोता के देखे के बड़ी मन करऽ हे ।; आजकल के नइकन लोग जे ई कहऽ हथ कि बेटा-बेटी में कोई फरक करे के नई चाही से आके देखथ हम्मर हाल । ई खाली कहे के बात औ कोरा बकवास हे ।; जौन दिन नइकन पासी ई सब ताड़ के छेवलका ऊ दिन तरमन्ना के मालिक सब के कहे पर गाँव भर के पीयाँक सब के जुटा के ताड़ी पीये के कम्पटीशन के आयोजन कैल गेल ।; भगत जी के बाँछ खिल गेल औ ममता के नइका बढ़नी से झमारे लगला । झमारते-झमारते भगत जी कुछ बुदबुदैते रहला । आखिर ममता गस खाके जमीन पर गिर पड़ल ।)    (मशिलो॰2.11; 11.12; 32.11; 52.18)
318    नई (= नयँ, नञ्) (बात ई हल कि बड़कू मियाँ फौज में हवलदार हला औ जब ई बाहरे हला तो हसनैन के जनम देके महतारी बेचारी चल बसला । बड़कू मियाँ एही बेटा के खातिर दोसर शादी नई कैलका ।)    (मशिलो॰1.15)
319    नईं (= नयँ, नञ) (ठंढ तो नस-नस में प्रवेश कर गेल हल । बुढ़ारी के शरीर हल । कफ खाँसी बुखार से भी पीड़ित हो गेला । इनका लगे लगल कि अब नईं बचम, खतमें हो जाम ।)    (मशिलो॰8.8)
320    नईकी (= नइकी) (आज राजा के बुतरु हे, कल राधे के बुतरु होत, परसो डोमनी के बुतरु होत । नईकी कनिआय औ पढ़े लिखे वाला तेज लड़कन के कम खतरा थोड़े हे । छिनरी जब तक नई नाचत गाँव के खैरियत नई होत ।)    (मशिलो॰45.19)
321    नउआ (= नाई, हजाम) (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।)    (मशिलो॰14.21)
322    नकफेनी (~ काँटा) (दलान के आगे करीब 15 कट्ठा के खंढ हल जेकरा एने लगभग डेढ़ बरस पहिले कच्चा गारा पर ईंटा के चहारदीवारी से घेर देल गेल हल । डेढ़ बरस पहिले चारो तरफ नकफेनी के काँटा लगल हल ।)    (मशिलो॰73.10)
323    नजराना (= नजर लगाना) (वंशी वैद्य आल तो दवाई देलक औ बोलल कि हगर ई दवाई फायदा नई कैलको तब समझिहऽ कि कोई एकरा नजरा देलक हऽ । दू घंटा हो गेल मगर दवाई के कोई असर नई होल ।)    (मशिलो॰44.17)
324    नजात (~ दिलाना) (महेश करुणा से शारीरिक सम्पर्क के इच्छुक नई हला । ऊ तो नारकीच जीवन से उबारे ला चाहऽ हला । करुणा के हाल से दुखी, ओकरा पीड़ा से नजात दिलावे ला चाहऽ हला ।)    (मशिलो॰97.7)
325    नहिरा (= नइहर, मायका) (दुखिनी दाई के ऊ गाँव में नहिरा हल । ओकर माई बाप के दू गो बेटिये होल, कोई बेटा होवे नई कैल ।)    (मशिलो॰11.1)
326    नहीरा (= नहिरा, नइहर, नैहर) (औरत के अमूनन नहीरा के शिकायत तनिको बरदास्त नई होवऽ हे । से जब सोमर ओकर नहीरा के खनदान के कोसलक तो सनीचरी कहलक - "तू की कहमऽ । हम्मर भाई तो कर्मचारी बाबू बनल हे । ऊ सब किसान के खेत के हिसाब किताब रखऽ हे, मलगुजारी तसीलऽ हे, तोर खनदान में हौ कोई ऐसन अफसर ।"; जब सनीचरी के कोई तरह से ई बात मालूम भेल तो ऊ बड़ी चिन्ता में पड़ गेल । ओकरा लगल कि न नहीरे सुख न ससुरे सुख ।; जब तोर विचार हो जैतो, नहीरा जाये के बहाने तू निकल जइहऽ आउर तबे पोसपुत लेवे के रजिस्ट्री हो जात ।)    (मशिलो॰35.14, 15; 38.13; 98.9)
327    नाता-पुरजा (दस बीस दिन बड़ी हँसी खुशी में बीत गेल । ससुराल औ दोसर-दोसर नातापुरजा हीं से ऊ धूम अइला जाये के दिन नजदीक आ गेल ।)    (मशिलो॰3.2)
328    नारकीच (महेश करुणा से शारीरिक सम्पर्क के इच्छुक नई हला । ऊ तो नारकीच जीवन से उबारे ला चाहऽ हला । करुणा के हाल से दुखी, ओकरा पीड़ा से नजात दिलावे ला चाहऽ हला ।)    (मशिलो॰97.6)
329    निकसना (= निकलना) (जब मट्टी के चूरला पर भी खाली मट्टिये निकसल तो कस्टम वाला के चेहरा कुछ उदास हो गेल ।; रामजी भी अइसन टहनी धोती के भीतर छिपा के रख के बाहर निकसे के उपक्रम करे लगला ।; ममता के लेके ऊ भिनसरवे चुपे-चुपे गाँव से बाहर निकसला । ममता के निकसला पर गाँव के लोग संतोष के साँस लेलका ।; पर एक बात हो हम्मर देश में एगो ऐसन दवाई निकसलो हऽ जेकरा खैते रहे से तोहर जिन्दगी कम से कम दस बरस सुखपूर्वक चलतो ।)    (मशिलो॰4.20; 51.18; 53.15; 69.21)
330    निकासना (बगल के कोठरी में बैठल गुलाब के दोस्त सतीश ई सब देख रहल हल । से कोई तरह से ई पोटरी में से एक रुपैया निकास के गुलाब के देखैलक औ सब बात कहलक ।; मुड़ेरा में पिछुल जाय के बहाना से ऊ सीकड़ के सहारे कूआँ के पानी में मरे ला चल गेल । टोला-मोहल्ला में हल्ला हो गेल । सब दौड़ल । रामजी भी दौड़ल । डइनी के निकासे ला कोई तैयार नई हला, पर रामजी पूरा हिम्मत जुटैलक औ सीकड़ के सहारे नीचे उतरल ।)    (मशिलो॰21.11; 50.1)
331    निकौनी (सनीचरी के रख के खिलावे के ओकरा औकात नई हल । ई गुनी सनीचरी के एगो भीतर रहे ला दे देलक । सनीचरी काम करे में हाबड़ हईये हल से निकौनी, कोड़नी, अनाज फटके, गोयठा ठोके के काम करे लगल ।)    (मशिलो॰37.16)
332    निमक (= नमक) (ऐसन लोग जब उधार नई लौटइलक तो दोसर के भी मन बढ़ गेल । धीरे-धीरे दुखिनी दाई के टुटपुंजिया दोकान के पूंजी-रूंजी खतम हो गेल । अब ऊ खाली निमक, हरदी, मिरचाई, आलू औ पत्तल बेचे लगल ।; ई छोटका बाबू सादा जीवन जीये के उपदेश देहे । मकई के सुख्खल रोटी आउर कच्चा मिचाई निमक खाइला, बस ।)    (मशिलो॰16.2; 98.17)
333    निशा (= नशा) (ई सब देख के दोसर मजूर सब के जरनी बढ़ गेल । कुछ तिकड़मी सोचलक कि एकरा से पैसा मूड़ के पीये के चाही औ पीये के एकर आदत एतना बढ़ा देल जाय कि रात-दिन पी के पड़ल रहे, जेकरा से किसान सब एकरा नई पूछत आउर दोसर के खेत में काम मिले लगे । होल भी अइसने । सोमर रात-दिन ताड़ी के निशा में डूबल रहे ।)    (मशिलो॰28.16)
334    निहाल (बाप के ऐसन प्यार बुधिया के शुरू शुरू मिलल हल से ऊ निहाल हो गेल ।)    (मशिलो॰34.20)
335    निहोरा (= प्रार्थना, निवेदन) (एकरा पर दुखिनी दाई कुछ नई बोले । दुखिनी दाई बड़ी पितमरु मनमरु औरत हल जे उधार लेवे वालन के उधार चुकावे ला निहोरा करऽ हल, आरजू करऽ हल ।; चार-पाँच गो गाँव के किसान सब अफसर साहेब के जाके निहोरा कैलका कि एकरा से गाँव के इज्जत हे से कुछ रियायत करके गाँवे वालन के दे देल जाय ।)    (मशिलो॰15.19; 31.17)
336    नीपना-पोतना (सनीचरी घर के झाड़-बहाड़ नीप-पोत के चमचम बना देलक ।)    (मशिलो॰42.2)
337    नीमक (= निमक, नमक) (सनीचरी गाँव के दोकान से आटा, पेयाज, नीमक मिचाई लैलक । चुन-चान के लकड़ी ले आल औ रोटी बना के पियाज, नीमक, मिचाई के साथ सोमर के खिला के अपने औ बुधिया खैलक ।)    (मशिलो॰39.17, 19)
338    नीमर (= निर्बल, कमजोर) (गुलाब के ई हरकत से आपस में बैर बढ़त । हम सब कमजोर बनिया जात के तो नीमर बन के ही रहे पड़त ।)    (मशिलो॰18.9)
339    नीयर (= नियर; जैसा) (फौज में जब कभी गाँव के ख्याल आवऽ हल ई मट्टी के जरा सा छू के देह में इत्तर नीयर लगा ले हला । एकरा से उनका बड़ी सुकुन मिलऽ हल ।)    (मशिलो॰4.1)
340    नुनुकर (~ करना) (तीन-चार दिन के बाद सविता मुँह खोललक कि अब ऊ दुनु के सामाजिक रूप से वैवाहिक बन्धन में बंध जाय के चाही । करमचन्द नुनुकर करे लगल ।)    (मशिलो॰63.3)
341    नैहर (= नइहर) (ऊ एतना ऊब गेल कि जिन्दगी खतम करे के बात सोचे लगल । डायन के आरोप के वजह से नैहर में भी कोई रखे ला तैयार नई हल ।)    (मशिलो॰49.9)
342    पंचायती (= पंचइती, पंचायत) (~ करना) (गरीब-गुरबा के मोके-बेमोके थोड़ा-बहुत रुपैया भी बिना बेयाज के दे दे हला । छोट-मोट आपसी झगड़ा के पंचायती कर निपटा दे हला, कभी-कभार दोसर पार्टी के ले-देला के झंझट खतम करवा दे हला ।)    (मशिलो॰76.13)
343    पइन (धर्म के नाम पर जेतना मानसिक दुराव होल हल ओकरा से बहुते बेसी बिखराव ई जात-पात के भाव पैदा कैलक । कम जात वालन के खेत-पथारी के अनाज बरबाद होवे लगल । मजबूत जात के लोग पइन, नहर भर के अप्पन खेत में मिला लेलका ।)    (मशिलो॰77.10)
344    पइया (= कचहरी आदि में काम में आने वाला एक प्रकार का मोटा कागज जिसकी कीमत पहले एक पैसा होती थी; धान में अन्न नहीं भरने का एक रोग, खँखड़ी) (किसान जी के तो मांगले मुराद मिल गेल काहे कि ऐसन कमासुत औरत मरद उनखा मिल जा हल । से ऊ खुशी-खुशी पाँच सौ रुपैया देके दूगो पइया कागज पर दुनु के हाथ के टिप्पी ले लेलका ।)    (मशिलो॰41.10)
345    पक्कल (= पका हुआ) (मगर जब जातरा के दिन आयल तो बड़कू मियाँ के मन अजब तरह के हो गेल । लगल कि पक्कल आम के की भरोसा, फिन घुर के रमजानपुर आम कि नई ।)    (मशिलो॰3.9)
346    पखाना (= पाखाना) (ओने दुखनी के भी कलकत्ता में तनिको मन नई लगे । जिरि गो कोठरी में रहे पड़ऽ हल । पखाना के ओइसने किल्लत हल । बाड़ी में तीन गो पखाना हल, औ एक सौ के करीब बाल-बुतरु लगा के अदमी ।)    (मशिलो॰11.19, 20)
347    पगहा (हरि सिंह कंधा पर हर औ दूगो बैल के पगहा पकड़ले खेत जोते जा रहला हल कि खड़ाऊँ के चटचट अवाज से इनका अहसास हो गेल कि पाण्डे जी बुल रहला ह ।)    (मशिलो॰43.9)
348    पड़ी (= परी) (देह में बढ़ियाँ सुगन्धित साबुन, खुशबूदार तेल, पौडर फेन लगे लगल । ब्लाउज के मैचिंग बढ़िया साड़ी बड़का बाबू के बखत नीयर पेहने लगली । सुसज्जित होके जब ऊ ओसारा में घूमऽ हकी तो लगऽ हल कि कोई पड़ी घूम रहल हऽ ।)    (मशिलो॰100.3)
349    पढ़नहार (यौन मनोविज्ञान के ई पहिला सीढ़ी के तू समझऽ, किताब खोल के देखऽ, मनन करऽ, तू तो यौन मनोविज्ञान के सफल पढ़नहार हऽ ।)    (मशिलो॰58.19)
350    पढ़लका (सोमर कई बार कहलक कि पढ़लका बउआ के बोला के ई फीका नाम पर फेन से खल्ली चलवा दे जेकरा से विजेता सोमर के नाम साफ से पढ़ल जा सके ।)    (मशिलो॰42.9)
351    पढ़ल-लिखल (उनकर रमजानपुर आवे के समाचार से गाँव औ इलाका में खुशी के लहर दौड़ गेल । जुआन सब में तो औ जादे उछाह देखे आवऽ हे, खास के पढ़ल लिखल बेरोजगार जवान के तो कई प्रकार के लाभ देखे में आवे लगल ।)    (मशिलो॰1.7)
352    पत (= प्रतिष्ठा, आन; प्रत्येक) (~ रखना) (ई सरकारी नौकरी ऐसन धन्धा हो जेकरा में पत्थल पड़े, मारा हो, सूखा हो, महीना पुरलो नई कि नगद टनटनमा घर में आ गेलो । तोहीं बतावऽ न कि तीन बरस से केतना धान  घर में लइलऽ । ई तो गेहूँ हो कि पत रखले हो ।)    (मशिलो॰47.6)
353    पतरा (= पंचांग; पतला, झीना) (पंडितजी से पतरा देखावल गेल तो मालूम होल कि अबरी दुखिनी के बेटा होवत ।)    (मशिलो॰13.20)
354    पत्तल (ऐसन लोग जब उधार नई लौटइलक तो दोसर के भी मन बढ़ गेल । धीरे-धीरे दुखिनी दाई के टुटपुंजिया दोकान के पूंजी-रूंजी खतम हो गेल । अब ऊ खाली निमक, हरदी, मिरचाई, आलू औ पत्तल बेचे लगल ।)    (मशिलो॰16.2)
355    पत्थल (ई सरकारी नौकरी ऐसन धन्धा हो जेकरा में पत्थल पड़े, मारा हो, सूखा हो, महीना पुरलो नई कि नगद टनटनमा घर में आ गेलो ।)    (मशिलो॰47.3)
356    परवा (= परवह; प्रवाह) (~ करना = जल में विसर्न करना, प्रवाह में बहने के लिए छोड़ना) (सोमर कई बार कहलक कि पढ़लका बउआ के बोला के ई फीका नाम पर फेन से खल्ली चलवा दे जेकरा से विजेता सोमर के नाम साफ से पढ़ल जा सके । मगर सनीचरी कहऽ हे कि जौन दिन तू ई करवऽ तहिने हम आव देखवो न ताव, सभे बरतन औ दोना के नदी में परवा कर देवो ।)    (मशिलो॰42.9, 14)
357    परोर (ऊ बखत उड़हुल खूब फुलाल हल । फुलाल उड़हुल के पेड़ पर परोर के लत्ती चढ़ल हल जेकर फूल पीयर-पीयर बड़ी नयनाभिराम लग रहल हल ।)    (मशिलो॰81.17)
358    पहलौठ (जाये बखत सास कहलकी कि पानी पावे बखत ऊ ऐती औ घर सम्हार देती काहे कि नया पानी पावे बखत एगो बूढ़-पुरनिया के रहना जरूरी हे । ऊ हिदायत करते गेली कि भारी चीज नई उठावथ औ कटहर, हरदी के हलुआ, आम बगैरह नई खाथ, दूध खूब पीयथ । सविता के पहलौठ लड़का होल, दोसर बार लड़की ।)    (मशिलो॰67.4)
359    पहिलका (गुलाब में कुछ सुधार के लक्षण देख के दुखिनी दाई सोचलक कि बड़घरिया से रुपैया के पोटरी ले आमू । से ऊ पोटरी ले आल । मगर जैसहीं पोटरी हाथ में पड़ल, लगल कि पोटरिया बड़ी ढील्ला हे जबकि पहिलका पोटरिया एकदम कस्सल हल ।)    (मशिलो॰22.7)
360    पहिला (= पहला) (पहिला बात रहत हल तो कोई बात नई, अब तो अजब हाल हल । अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल ।)    (मशिलो॰14.14)
361    पहिले (= पहले) (सबसे पहिले पुछलका कि नइका बउआ कैसन हे । फेन बोलला कि पोता के देखे के बड़ी मन करऽ हे ।; करीब साठ बरस पहिले ऊ मैट्रिक पास कैलका हल से इलाका में शोर हो गेल हल काहे कि चौकोसी कोई दोसर अदमी मैट्रिक पास नई हल ।)    (मशिलो॰2.11; 75.19)
362    पहेनना (= पेहनना, पेन्हना) (ओइसने नंग धड़ंग होवे में इनका लाज लगल से ई पेजामा के थोड़ा ऊपर करके औ ऊनी गंजी पहेनले रौदा के आनन्द लेलका ।)    (मशिलो॰7.4)
363    पाँव लगी (फाटक के लटकल सिकड़ी में बैल के बाँध के हर एक किनारे रखलका औ पाण्डेय जी के पाँव लगी कैलका।)    (मशिलो॰43.16)
364    पानी (~ पाना = गर्भवती स्त्री का प्रसवकाल आना) (एकरे बाद दुखिनी पानी पैलक । एगो तन्दुरुस्त बेटी जन्म लेलक ।; दुखिनी के दुख के कौन ठिकाना । अइसने में ऊ फेन पानी पौलक । अबरी ओकरा बेटा होल ।; कुछ महीना बाद उनका मालूम होल कि सविता के गोड़ भारी हे, से सम्भावित पोता या पोती के गुनी फेन करमचन्द हीं आके कुछ दिन रहला । जाये बखत सास कहलकी कि पानी पावे बखत ऊ ऐती औ घर सम्हार देती काहे कि नया पानी पावे बखत एगो बूढ़-पुरनिया के रहना जरूरी हे ।)    (मशिलो॰13.13; 14.11; 66.21, 22)
365    पारघाट (~ लगाना) (ममता के बारे में अफवाह हे कि ई भी डायन के काम सीख रहल हऽ। जलमते बेटा के गियारी ममोर देलक, फेन मरदवो के खा गेल । ई गुनी एकरो साथे नचावे के इन्तजाम कर देल जाय । पाण्डेय जी हाँ में हाँ मिलैते बोलला - "ई तो बड़ी निमन बात हे कि दुनु के एके खरचा में पारघाट लगा देल जाय ।")    (मशिलो॰46.10)
366    पारना (भोकार पार के रोना) (सोमर सूख के काँटा हो गेल हल काहे कि खाये पीये के कोई ठेकाना नई हल । बूँट के सुखड़ा औ ताड़ी बस एही एकर खोराक हल । कमजोर एतना हो गेल हल कि हर चलावे के सवाले नई हल । ई हाल देख के सनीचरी भोकार पार के रोवे लगल ।)    (मशिलो॰39.10)
367    पासी (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।)    (मशिलो॰14.19)
368    पितमरु (= पितमरू; क्रोध को वश में रखनेवाला, जो तुरत आवेश में न आए) (एकरा पर दुखिनी दाई कुछ नई बोले । दुखिनी दाई बड़ी पितमरु मनमरु औरत हल जे उधार लेवे वालन के उधार चुकावे ला निहोरा करऽ हल, आरजू करऽ हल ।)    (मशिलो॰15.18)
369    पियाज (= पेयाज, प्याज) (सनीचरी गाँव के दोकान से आटा, पेयाज, नीमक मिचाई लैलक । चुन-चान के लकड़ी ले आल औ रोटी बना के पियाज, नीमक, मिचाई के साथ सोमर के खिला के अपने औ बुधिया खैलक ।)    (मशिलो॰39.19)
370    पीट-पाट (~ करना) (सौदा बेचे वालन सिन्दुरिया सबसे जबर्दस्ती उधार लेके कीमत नई देवे लगला । मांगला पर पीट-पाट करे लग गेला । ई वजह से सिन्दुरिया औ अइसन-अइसन दोसर कम संख्या वालन जात के भय सतावे लगल ।)    (मशिलो॰74.17)
371    पीठा (सोलहो ~ अपने खाना) (बैंक के दोसर कर्मचारी भी मैनेजर से खुश नई हल काहे कि सोलहो पीठा अपने खा जा हल, कोई के हिस्सा नई दे हल ।)    (मशिलो॰23.18)
372    पीयाँक (जौन दिन नइकन पासी ई सब ताड़ के छेवलका ऊ दिन तरमन्ना के मालिक सब के कहे पर गाँव भर के पीयाँक सब के जुटा के ताड़ी पीये के कम्पटीशन के आयोजन कैल गेल ।)    (मशिलो॰32.13)
373    पुतहू (= पतोहू, पुत्रवधू) (दुखिनी गाँव के ज्यादातर लोगन से कोई न कोई रिश्ता बनइले हल । गाँव घर के कोई चचा, कोई चाची, कोई भाई, कोई भतीजा, कोई भतीजी, कोई भोजाई, कोई पुतहू हो गेल हल । ऊ सब दुखिनी के दुखिनी दाई कहे लगला ।; डायन के आरोप के वजह से नैहर में भी कोई रखे ला तैयार नई हल । ममता के बूढ़ी माई अप्पन पुतहू के हजार कहलक मगर पुतहू कोई तरह से रखे ला तैयार नई होल ।)    (मशिलो॰15.10; 49.10, 11)
374    पुनिया (= पुनियाँ, पूर्णिमा) (पुनिया के दिन भगत जी मन्तर पढ़ के डायन के नचइता ् देहात में ऐसन तमासा देखे ला दूर-दूर से जनी-मरद जमा हो जा हका ।)    (मशिलो॰52.4)
375    पुरखा (= पूर्वज) (मगर आज भी पुरखन के पुराना सिक्का गण्डा औ कौड़ी में गिने ला ऊ बेदम हे । गुलाब कहलक हऽ कि ऊ पाच औ बीस गण्डा पुराना सिक्का ला देत । ई सुन के दुखिनी बड़ी खुश हो गेल । ओकरा लगल कि ओकर सुख भोगे के दिन सचेमुचे आ गेल ।)    (मशिलो॰26.20)
376    पुरखैनी (= पुरखैन, पूर्वजों का) (पुरखैनी रुपैया के बहुत दिन से गिनती नई कैलक हल से ओकरा कैसन तो लग रहल हल ।)    (मशिलो॰22.12)
377    पुरनका (सोचलक कि एकरा बेच के ऊ पोटरी में नइका रुपैया रख देम । सोच-साच के अंग्रेजे के बखत के पचास के दशक में बनल दुदलिया रुपैया जेकरा में पुरनका सिक्का के तेरह आना फी भरी चांदी के बजाय चार आना भर चांदी रहऽ हे, खरीद के ओही पोटरी में रख देलक ।; गाँव वालन जब ई तरमन्ना के खरीद लेलका तो पुरनकन ताड़ छेवे वालन के हटा के गाँव के दोसर पासी के देलका जेकरा में उनकन्हीं के पक्का दखल हो जाये ।; पर एकरा से सोमर पर कोई असर नई होल । फेन ओकरा पर पीये के पुरनका भूत सवार हो गेल ।)    (मशिलो॰21.20; 32.9; 35.22)
378    पुरी-परोर (थोड़ा दूर पर बैगन औ पुरी-परोर के गाछ हल, कुछ भुट्टा भी हल । बैगन के नीला फूल, पुरी-परोर के उज्जर बैगनी फूल, भुट्टा के मोछ औ धनबाल सब मन के मोह रहल हल ।)    (मशिलो॰82.4, 6)
379    पूंजी-रूंजी (ऐसन लोग जब उधार नई लौटइलक तो दोसर के भी मन बढ़ गेल । धीरे-धीरे दुखिनी दाई के टुटपुंजिया दोकान के पूंजी-रूंजी खतम हो गेल । अब ऊ खाली निमक, हरदी, मिरचाई, आलू औ पत्तल बेचे लगल ।)    (मशिलो॰16.1)
380    पेजामा (= पाजामा) (ओइसने नंग धड़ंग होवे में इनका लाज लगल से ई पेजामा के थोड़ा ऊपर करके औ ऊनी गंजी पहेनले रौदा के आनन्द लेलका ।)    (मशिलो॰7.3)
381    पेयाज (= पियाज, प्याज) (सनीचरी गाँव के दोकान से आटा, पेयाज, नीमक मिचाई लैलक । चुन-चान के लकड़ी ले आल औ रोटी बना के पियाज, नीमक, मिचाई के साथ सोमर के खिला के अपने औ बुधिया खैलक ।)    (मशिलो॰39.17)
382    पेहनना (= पेन्हना) (एक दिन बाबा के हसनैन साहब समुन्दर के बीच यानि बालू पर ले गेला जौन दिन धप धप रौदा उगल हल । हुआँ बड़कू मियाँ देखलका कि औरत मरद जिरि गो बिस्टी पेहन के नंगे धड़ंगे बालू पर पड़ल हका ।; सभे खड़ाऊँ पेहने वालन के खड़ाऊँ पर बुले के अवाज एक रंग के नई होवऽ हे ।)    (मशिलो॰6.22; 43.4)
383    पोआर (= पोवार; पुआल) (बिजली के हीटर से उनका ओइसन सुकुन नई मिलऽ हल जैसन रमजानपुर में तेज रौदा में धान के पोआर पर बैठ के लगऽ हल ।)    (मशिलो॰6.8)
384    पोटरी (= पोटली) (ओही बाबू साहब के बेटा रामू बाबू हीं रुपैया के पोटरी के थाती रख आल ।; बगल के कोठरी में बैठल गुलाब के दोस्त सतीश ई सब देख रहल हल । से कोई तरह से ई पोटरी में से एक रुपैया निकास के गुलाब के देखैलक औ सब बात कहलक ।; गुलाब में कुछ सुधार के लक्षण देख के दुखिनी दाई सोचलक कि बड़घरिया से रुपैया के पोटरी ले आमू । से ऊ पोटरी ले आल । मगर जैसहीं पोटरी हाथ में पड़ल, लगल कि पोटरिया बड़ी ढील्ला हे जबकि पहिलका पोटरिया एकदम कस्सल हल ।)    (मशिलो॰21.8, 11; 22.4, 6, 7)
385    पोसपुत (फेन महेश कहलका कि पोसपुत लेवे के कानून के मोताबिक लड़का या लड़की के उमर 14 बरस से ऊपर नई होवे के चाही । से करुणा सोच के निर्णय लेथ ।; जब तोर विचार हो जैतो, नहीरा जाये के बहाने तू निकल जइहऽ आउर तबे पोसपुत लेवे के रजिस्ट्री हो जात ।)    (मशिलो॰98.1, 10)
386    प्रणाम-पाती (एकरा से ई हालत हो गेल कि इनका प्रणाम पाती करे ला भी लोग छोड़ देलक ।)    (मशिलो॰79.11)
387    प्रोफेसरी (करमचन्द प्रोफेसरी में मगन हला औ सविता अप्पन प्रतिष्ठान व्यावहारिक यौन मनोविज्ञान केन्द्र के संचालन में । जुआन, जुअनकी औ जरुरतमन्द लोग से निश्चित फीस लेके यौन के बारे में सलाह-मशविरा दे हली ।)    (मशिलो॰67.6)
388    फटाक (~ से) (नई मालकिन नई । हम अगर जेवर बेचे ला जाम तो बजार में सोना-चान्दी के दोकानदार कहत कि ई मुसहरवा के छागल कहाँ से आल । ई जरूर कहीं से चोरा के लैलक हऽ । हम तोहर नाम लेम तो छोटका बाबू के फटाक से मालूम हो जात । ऐसन में हम दुनु पर ऊ बिगड़ता ।)    (मशिलो॰92.12)
389    फनेला (जज साहब लसोढ़ा कभी नई देखलका हल । वकील साहब उनखा बतैलका कि ई प्रजाति अब खतम हो रहल हऽ । पहिले सड़क के किनारे एने-ओने फनेला, लसोढ़ा, इमली, आम, सिरिस, कहुआ आदि देशी पेड़ लगऽ हल जेकरा में औषधीय गुण भी हल ।; रामवदन जी के खंढ में आम, कटहल, फनेला, पपीता, नीम्बू, महताबी, अमरूद आदि के पेड़ भरल हल ।; फनेला के पेड़ पर दू गो बड़ा मधुमक्खी के छत्ता हल जेकरा पर से मधुमक्खी उड़- उड़ के फूल पर बैठऽ हल औ फेन पराग लेके छत्ता में घुस जा हल ।)    (मशिलो॰56.22; 80.16; 82.9)
390    फफकना (ऐसे तो बड़कू मियाँ अमूमन कहीं नई जा हला मगर जुमा के दिन नेमाज पढ़े मसजिद घंटा दू घंटा ला जरुरे जा हला । ऊ दू घंटा ला बचवा बेचारा फफक-फफक के बिता दे हल ।; ई सुन के दुखिनी फफक-फफक के रोवे लगल ।)    (मशिलो॰6.2; 12.9)
391    फर (= फल) (लसोढ़ा के फर जब पक जाहे तो थोड़ा पीयर लेले गुलाबी उज्जर रंग के हो जाहे । लसोढ़ा के फर के ऐसन आकृति से गौरांगी सुन्दरी के तुलना कैल जा सकऽ हे । लसोढ़ा के ऊ फर के साथ-साथ रात के रानी नीयर गदराल फूल रहऽ हे जेकर खुशबू मादक होवऽ हे । गंध के फैलाव के परिधि सीमित रहऽ हे । जब फर चिपा जाहे तो ओकर भीतर से गाढ़ा चिपचिपा पदार्थ निकलऽ हे ।; मगर ई बहाना केतना देर चलत हल । आखिर में रामजी कान में फुसक के कहलक कि कूप प्रेम प्रसंग के यादगार के रूप में लसोढ़ा के एगो छोटा टहनी, फर औ फूल तू जोगा के रखिहऽ । ममता एगो फर फूल लगल छोट टहनी साया साड़ी के बीच में खोंस लेलक ।)    (मशिलो॰50.19, 21, 22; 51.3, 15, 16)
392    फलनमा (= फलना; अमुक) (तू की जानमऽ ई बात । ताड़ी तो दारू से भी सौ गुना अच्छा हे । अब तो फलनमा फलनमा बाबू के जुआन बुतरु सब भर पेट ठर्रा पीयऽ हका ।; दोसर किसान ई देख के कानाफूसी करे लगल कि फलनमा किसान के भाग तेज हे कि सोमर ऐसन हरवाहा उनखा मिल गेल ।; सभे खड़ाऊँ पेहने वालन के खड़ाऊँ पर बुले के अवाज एक रंग के नई होवऽ हे । अदमी अदमी के अवाज में फरक होवऽ हे । एकर फरक कान तुरते पहचान लेहे कि ई फलनमा के खड़ाऊँ के चटचट अवाज हे ।)    (मशिलो॰36.5; 41.23; 43.7)
393    फलना (= अमुक) (सनीचरी झगड़ू से मिलल तो झगड़ू कहलक कि फलना साव तो बीस पैसे रुपया फी माह बेयाज ले हलौ, हम तो दसे पैसे बेयाज जोड़लियो हऽ ।)    (मशिलो॰40.9)
394    फला (= फलाँ, फलना) (आखिर में रामजी कहलक कि फला दिन भोर में चार बजे बाहर जाये के बहाने फला जगह मिलिहऽ तब फेन आगे के बात कहबो । अब जल्दी से निकल जा नई तो बाहर वालन सब सन्देह करे लगतो ।)    (मशिलो॰51.22; 52.1)
395    फुनगी (उड़हुल के पेड़ झमेटगर होवऽ हे मगर ऊचाई में तीन-चार फीट के रहऽ हे । एकर फूल लाल-लाल बड़ी सुन्दर लगऽ हे । फूल के बीच मुर्गा के चोटी नीयर लम्बा फुनगी होवऽ हे ।)    (मशिलो॰81.15)
396    फुलाना (ऊ बखत उड़हुल खूब फुलाल हल । फुलाल उड़हुल के पेड़ पर परोर के लत्ती चढ़ल हल जेकर फूल पीयर-पीयर बड़ी नयनाभिराम लग रहल हल ।)    (मशिलो॰81.17)
397    फेन (= फेनु, फिन, फेर; फिर) (सबसे पहिले पुछलका कि नइका बउआ कैसन हे । फेन बोलला कि पोता के देखे के बड़ी मन करऽ हे ।; पोता के मोह उनका ऊ बीच पर जादे देर ठहरे में बाधक हल, से ऊ जल्दीये डेरा वापस अइला । मगर जब डेरा ऐला तो फेन ठंढ के मारे काँपे लगला ।)    (मशिलो॰2.12; 7.22)
398    फोटू (= फोटो) (अखबार में कैमरा के कैद कैल फोटू छप गेल । मानसिक संतृप्ति के गोद में सोहागरात भावुकता औ मादकता पूर्ण माहौल में मनावल गेल ।)    (मशिलो॰66.5)
399    बउआ (= बच्चा) (सबसे पहिले पुछलका कि नइका बउआ कैसन हे । फेन बोलला कि पोता के देखे के बड़ी मन करऽ हे ।; सोमर कई बार कहलक कि पढ़लका बउआ के बोला के ई फीका नाम पर फेन से खल्ली चलवा दे जेकरा से विजेता सोमर के नाम साफ से पढ़ल जा सके ।)    (मशिलो॰2.11; 42.10)
400    बकड़ी (= बकरी) (गुलाब के जब ई मालूम होल तो माई के डाँट के कहलक कि हम रुपैया माँगऽ हियो तो तू नई देहऽ औ दोसर-दोसर ला औढरधनी बनऽ हऽ । ई कह के ऊ सब हीं गेल जेकरा हीं रुपैया बाकी हल । ई ऊ सब के बकड़ी, बाछा-बाछी, गाय-भैंस खोल के ले आल ।)    (मशिलो॰18.1)
401    बक-बक (~ गमकना) (टोला वालन सब सोमर के खूब डाँटलका औ कहलका कि तोर मुँह तो बक-बक गमक रहलो हऽ । जरुरे तू सभे रुपैया के ताड़ी पी गेले हँ ।)    (मशिलो॰30.11)
402    बकाल (= फा॰ बकाल; व्यापारी, बनियाँ) (बनिया-~; बौध-~) (आझ के युग में बनिया बकाल के कौन कीमत हे, ई तो चटनी नीयर हे । इन्कन्हीं ऐसन कम संख्या वालन जात के चुपे रहे में खैरियत हे ।)    (मशिलो॰85.10)
403    बखत (= वक्त, समय, जमाना) (सोचलक कि एकरा बेच के ऊ पोटरी में नइका रुपैया रख देम । सोच-साच के अंग्रेजे के बखत के पचास के दशक में बनल दुदलिया रुपैया जेकरा में पुरनका सिक्का के तेरह आना फी भरी चांदी के बजाय चार आना भर चांदी रहऽ हे, खरीद के ओही पोटरी में रख देलक ।; मन्दिर में बियाह के बखत ढोल-बाजा नई बजल । मगर मन के ढोल औ हृदय के सरगम बजवे कइल ।; रात के दस-बारह अदमी ऊ दलान पर सुतऽ भी हल । सु्ते वालन के सुविधा लागी कुछ बन्डिल बीड़ी सलाई रखल रहऽ हल । भर रात एगो लालटेन जलते रहऽ हल जबकि ऊ बखत घर में डीबरी दीया से रात के अंधार कटऽ हल ।; हरखू दुनु बाप-बेटा जब खाना खाके, बरतन मांज के सब बट्टा में रख देलक औ दोसर खेत में जाके हर जोते ला बेटा के कह देलक तो करुणा के पुकार के कहलक कि ऊ अब वापस चल जाथ, काहे कि अब रौदा में ज्यादे देर तक रहे के बखत नई हे ।; आखिर ऊ दिन आही गेल जब करुणा रजिस्ट्री से हरेन्द्र के गोद ले लेलकी । छोटका बाबू के तो नीचे से जमीन खिसक गेल । मगर ऊ लाचार हला काहे कि महेश बाबू ही गाढ़ा बखत पर काम ऐते रहला हल ।)    (मशिलो॰21.19; 53.22; 76.21; 90.1; 98.22)
404    बजाय (बाबू साहब एकरा से खुश होवे के बजाय बड़ी बिगड़ला औ कहलका कि जब तू कम तौललऽ तो बेहवरिया से मिल के कभी बेसी भी तौल दे सकऽ ह । एकर अलावे कम तौले से धरम खराब होवऽ हे ।)    (मशिलो॰20.20)
405    बजार (= बाजार) (दुखिनी दाई थोड़ा लगौनी-बझौनी के काम भी करऽ हल । जहाँ बजार में जेवर के गिरमी पर तीन चार रुपया सैकड़ा बेयाज लगऽ हल, दुखिनी दाई दू रुपया सैकड़ा बेयाज ले हल । एकरा से लोग खुश रहऽ हल ।; जब सब रुंजी-पूंजी खतम हो गेल औ अमदनी के कोई जरिया नई रहल तो दुखिनी दाई बगल के बजार के गोला में जाके अनाज फटके के काम करे लगल । बजार के एक सावजी ओकरा बतैलक कि खाजिश बूट के असली सत्तू के ऊ आध औ एक किलो के पोलिथिन में पैक करके बेचे ।; दुखिनी दाई घर में सत्तू बना के पोलिथिन में पैक करे औ गुलाब अगल-बगल के बजार में साइकिल पर जाके बेच आवे ।)    (मशिलो॰16.5; 18.12, 13, 21)
406    बटइया (ई बीच में बड़कू मियाँ खेत-पथारी सब चौरहा बटइया लगा देलका औ अप्पन चचेरा भाई के घर दुआर खेत-पथारी पर नजर रखे ला कह देलका ।; नैहर में माई-बाप मर गेल हल । दू भाई में एक भाई सरकारी नौकरी में कर्मचारी औ दोसर घर में चौरहा बटइया खेत लेके जोत-कोड़ के खा हल ।; रामवदन जी के खनदानी खेत हल । कुछ अपने औ कुछ चौरहा बटइया कराके अनाज पावऽ हला ।; खेत जे बचऽ हल ओकरा चौरहा बटइया लगा देलका काहे कि बुढ़ारी के शरीर में एतना ताकत नई हल कि अपने खेत करैता हल ।)    (मशिलो॰3.4; 37.11; 74.10; 75.13)
407    बटाईदार (फल बेचे में ई अप्पन अपमान समझऽ हला । मगर अब कोई मांगे ला नई आवऽ हल । देख-रेख में भी ढिलाई होवे लगल से एकरा बटइया दे देलका । बटाईदार सब्जी भी लगावे लगल । बटाईदार बजार जाके बेच के आधा पैसा इनखा दे दे हल ।)    (मशिलो॰81.1, 2)
408    बटाईदारी (खेत जे बचऽ हल ओकरा चौरहा बटइया लगा देलका काहे कि बुढ़ारी के शरीर में एतना ताकत नई हल कि अपने खेत करैता हल । कुछ समय बाद बटाईदारी कानून के नंगा तलवार लटक रहल गेल हल । से बाकी खेत भी ई बेच के शहर में मकान लायक जमीन खरीद लेलका ।)    (मशिलो॰75.15)
409    बट्टा (= टोकरी) (माथा पर से खाई के बट्टा उतार के हरवाहा हरखू माँझी के हँकैलक औ कहलक कि तू दुनु बाप-बेटा के खाई हो से ले जा । हरखू बोलल कि पाँच-सात मिनट में ई खेत के हरवाही खतम हो जात, ओकर बाद खैबो ।; हरखू दुनु बाप-बेटा जब खाना खाके, बरतन मांज के सब बट्टा में रख देलक औ दोसर खेत में जाके हर जोते ला बेटा के कह देलक तो करुणा के पुकार के कहलक कि ऊ अब वापस चल जाथ, काहे कि अब रौदा में ज्यादे देर तक रहे के बखत नई हे ।; संयोग ऐसन भेल कि खाई के खाली बर्तन वगैरह बट्टा में लेके जब करुणा लौट रहला हल तो महेश बाबू फेन भेंट गेला ।)    (मशिलो॰89.7, 20; 93.5)
410    बड़का (गाँव के छोटका डाक्टर कहलक कि इनकर बीमारी हमरा से नई सँभलतो, बड़ा डाक्टर से शहर ले जाके देखलावऽ । मगर भतिनी के पास एतना रकम कहाँ हल कि ऊ बड़का डाक्टर से देखावत हल ।)    (मशिलो॰12.22)
411    बड़की (~ बहिन) (एकर बड़की बहिन के बियाह अच्छा घर में हो गेल ।)    (मशिलो॰11.3)
412    बड़घरिया (बेटा गुलाब के बुरा संगत हो गेल हल से धीरे-धीरे ऊ रंगदार हो गेल । गाँव के बड़घरिया के बेटा सतीश से ओकरा दोस्ती हो गेल हल । तुरते ओकरा खेयाल आल कि गुलाब कहीं देख लेलक तो बड़ी खराब होवत । से काहे नई ई थाती के बड़घरिया के राम बाबू के हियाँ कुछ दिन ला थाती के रूप में रख देवल जाय ।; गुलाब में कुछ सुधार के लक्षण देख के दुखिनी दाई सोचलक कि बड़घरिया से रुपैया के पोटरी ले आमू ।)    (मशिलो॰17.2; 20.11; 22.4)
413    बड़ही (= बढ़ई) (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।; गाँव में तेली, सोनार, सिन्दुरिया, ब्राह्मण, कायस्थ, यादव, कोयरी, कुर्मी, दुसाध, बड़ही, मुसलमान, मुशहर रहऽ हला । करीब दू सौ घर के ई रमजा गाँव हल । मगर जैसे ही पाकिस्तान बनल, मुसलमान सब भाग के कलकत्ता चल गेला । पीछे आके खेत-पथारी बेचलका ।)    (मशिलो॰14.21; 77.2)
414    बड़ी (= बड़गो, बड़गर, बड़ा; बहुत) (सबसे पहिले पुछलका कि नइका बउआ कैसन हे । फेन बोलला कि पोता के देखे के बड़ी मन करऽ हे ।; घर वाला तो कोई तरह से ममता के घर में रखे ला तैयार नई होता । कहता कि ई मुझौसी डइनी के घर में कैसे रखम । रामजी के चिन्ता के ई बड़ी कारण हल । ई हालत में ममता के भी नचावे के बात चलल तो रामजी के प्राण सूख गेल, आशा पर पानी फिर गेल ।)    (मशिलो॰2.12; 49.1)
415    बढ़नी (= झाड़ू) (भगत जी के बाँछ खिल गेल औ ममता के नइका बढ़नी से झमारे लगला । झमारते-झमारते भगत जी कुछ बुदबुदैते रहला । आखिर ममता गस खाके जमीन पर गिर पड़ल ।)    (मशिलो॰52.18)
416    बतकट्टी (~ करना) (पाण्डेय जी कहलका कि काहे ला बतकट्टी कर रहलऽ हऽ । गाँव में दोसर घर के जवान सब भी तो नौकरी करऽ हे । चुपचाप साँझ के मन्दिरवा के चबूतरा पर बैठ के तै कर लीहऽ कि कैसे चन्दा कइल जाये ।)    (मशिलो॰47.9)
417    बताशा (हमरा बचपन से ही ई आदत पड़ गेल हऽ कि सूते बखत मुँह मीठा हो जाय । कभी गुड़, कभी बताशा, कभी मिसरी खैते रहलूँ हऽ । एने दू महीना से बिना मीठा के ही तो अकबक लगऽ हे ।)    (मशिलो॰96.4)
418    बतिया (कोहड़ा के पीयर-पीयर फूल औ बतिया बहुत सा लटकल हल जे देखे में बड़ी निमन लगऽ हल ।)    (मशिलो॰81.8)
419    बतियाना (डेरा पहुँच के पोता के देख के बड़कू मियाँ के खुशी के ठेकाना नई रहल । अल्हो-मल्हो नीयर पोता के गोदी में लेके चूमे लगला, खेलावे लगला, धीमे-धीमे हँस के बतियावे लगला, हाथ के कँपत अंगुरी से कान नाक आँख के सहलावे लगला ।)    (मशिलो॰5.11)
420    बत्तर (= बदतर) (भतिनी के ई बात मालूम हल कि अस्पताल में इलाज औ दवाई तो दूर, पैसा नई लगे वाला मीठ बोली भी नई मिलाऽ हे औ नरको से बत्तर हालत हुआँ रहऽ हे ।)    (मशिलो॰13.3)
421    बदलाम (= बदनाम) (बेचारा रामू बाबू के तू काहे ला बदलाम करऽ हीं । पोटरिया लाव, हम समझ लेबौ ।)    (मशिलो॰23.5)
422    बनिया (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।)    (मशिलो॰14.20)
423    बनिया-बकाल (आझ के युग में बनिया बकाल के कौन कीमत हे, ई तो चटनी नीयर हे । इन्कन्हीं ऐसन कम संख्या वालन जात के चुपे रहे में खैरियत हे ।)    (मशिलो॰85.10)
424    बन्डिल, बन्डील (= बंडल, bundle) (ई सब गुनी इन्कर दलान पर हर समय दू-चार अदमी बैठल मिलवे करऽ हल । रात के दस-बारह अदमी ऊ दलान पर सुतऽ भी हल । सु्ते वालन के सुविधा लागी कुछ बन्डिल बीड़ी सलाई रखल रहऽ हल ।; इनकर दलान में रात में दस-बारह अदमी सुतऽ हला ओकर संख्या भी घट के दू ठो रह गेल । ऊ भी ओइसन बूढ़ा जेकरा सुते के कोई दोसर जगह नई हल । मगर पहिले नीयर दू बन्डील बीड़ी सलाई औ ललटेन रात भर जलते हो रहऽ हल ।)    (मशिलो॰76.19; 79.21)
425    बरना (= लगना, जलना) (झाँई ~; दीया ~; गोस्सा ~) (जब कस्टम वाला मट्टी के ढेला पर हथौड़ी चलावऽ हल तो बड़कू मियाँ के लगऽ हल कि उनकर छाती पर हथौड़ी से वार करल जा रहल हऽ औ समूचे देह गनगना जा हल । कभी-कभी झाँई बर जा हल, लगऽ हल कि आँख के सामने कार-कार गोल-गोल ऐसन आकार के चीज नाच रहल ह ।)    (मशिलो॰4.15)
426    बरी (= मुक्त, रिहा; उड़द, मूँग, चना आदि के आटे के सुखाए गोल टुकड़े; उड़द, बेसन आदि कि तली बरी) (जज साहब मूड़ी हिला के सहमति जतैलका औ सभे मुदालेह के बाइज्जत बरी कर देलका ।)    (मशिलो॰57.5)
427    बहिन (= बहन) (एकर बड़की बहिन के बियाह अच्छा घर में हो गेल ।)    (मशिलो॰11.3)
428    बाइज्जत (~ बरी करना) (जज साहब मूड़ी हिला के सहमति जतैलका औ सभे मुदालेह के बाइज्जत बरी कर देलका ।)    (मशिलो॰57.5)
429    बाकस (~ के पौधा) (ई कहऽ हला कि आयुर्वेद के किताब में लिखल हे कि बाकस के पौधा जब तक ई मट्टी में हे, खाँसी काहे ला कोई के सतावत । एने-ओने खंढ-कोली में बाकस के बहुत पौधा पावल जाहे । एकर पत्ता डंटा के रस गार के गरमा के पी जाय तो खाँसी भाग जात ।)    (मशिलो॰76.4, 6)
430    बाछा-बाछी (गुलाब के जब ई मालूम होल तो माई के डाँट के कहलक कि हम रुपैया माँगऽ हियो तो तू नई देहऽ औ दोसर-दोसर ला औढरधनी बनऽ हऽ । ई कह के ऊ सब हीं गेल जेकरा हीं रुपैया बाकी हल । ई ऊ सब के बकड़ी, बाछा-बाछी, गाय-भैंस खोल के ले आल ।)    (मशिलो॰18.1)
431    बाटना (= बाँटना) (हम जानऽ ही कि अब खेत में बेवा के भी अधिकार मिल गेल हऽ मगर ई कागजे के शोभा बढ़ावऽ हे । हम चाहूँ तो खेत बाटे के मुकदमा कर सकऽ ही मगर तब गुण्डा सब से हमरा मरवा देल जा सकऽ हे ।)    (मशिलो॰91.1)
432    बात-गारी (~ देना) (अजादी के कुछ बरस के बाद वोट पावे ला राजनीतिक पार्टी के लोग सब जात-पात के भावना पूरा फैलैलका । कम संख्या वालन जात के लोग के बेसी जात वालन बात-गारी देवे लगला । सौदा बेचे वालन सिन्दुरिया सबसे जबर्दस्ती उधार लेके कीमत नई देवे लगला ।)    (मशिलो॰74.15)
433    बाप-माई (आजकल के नइकन लोग जे ई कहऽ हथ कि बेटा-बेटी में कोई फरक करे के नई चाही से आके देखथ हम्मर हाल । ई खाली कहे के बात औ कोरा बकवास हे । बेटा होवे पर तो ऊ ऐसन कभी नई करत हल कि बूढ़ा बाप-माई के छोड़ के अपने मौज करे ला कलकत्ता चल जात हल ।; जनम देके पोस-पाल के, पढ़ा-लिखा के, काम में लगावे के यथासम्भव इन्तजाम कर के, जे माई-बाप बुढ़ारी में प्रवेश कर जाहे तो ज्यादेतर बेटा सब बाप-माई के खोज-खबर नई ले हका ।)    (मशिलो॰11.15; 94.5-6)
434    बाभन (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।)    (मशिलो॰14.18)
435    बाल-बुतरु (गाँव में ऐसन डायन के रहे से गाँव के बाल-बुतरु खतरा में पड़ जात ।)    (मशिलो॰53.11)
436    बाल्टी (= डोल) (खाली एगो कूआँ बचऽ हल जेकरा में मरल जा सकऽ हल । कूआँ के बाल्टी में लगल एगो सीकड़ हल, सीकड़ ऊपर में सीमेन्ट से जैन कैले हल । केवल छो-सात इंच के मुड़ेरा हल । मुड़ेरा में पिछुल जाय के बहाना से ऊ सीकड़ के सहारे कूआँ के पानी में मरे ला चल गेल ।)    (मशिलो॰49.17)
437    बिकरी (= बिक्री, विक्रय) (खेत बनावे ला एगो बगल के गाँव के बड़का किसान से बेचे के बात चले लगल । बिकरी के बात जब गाँव वालन के पता चलल तो ई सब सोचलक कि अगर तरमन्ना औ झाड़-झंखाड़ नई रहत तो दिशा मैदान औ चरागाह के जगह खतम हो जात ।)    (मशिलो॰31.13)
438    बिदकना (जब सनीचरी कहे कि ऊ खेत जोते जाय तो सोमर बिदक जाये औ कहे कि देख अभी हमरा खुशी मनावे दे ।)    (मशिलो॰35.8)
439    बियाह (मन्दिर में बियाह के बखत ढोल-बाजा नई बजल । मगर मन के ढोल औ हृदय के सरगम बजवे कइल ।)    (मशिलो॰53.22)
440    बियाहना (कलकत्ता जाये ला दुखिनी औ बेटवा दुनु तैयार नई होल तो आखिर में राजू कहलक कि ऊ बेटी के बियाहे के पूरा खरच देत । ओ लड़का खोज के बियाह भी देलक ।)    (मशिलो॰16.21)
441    बिलाई (= बिलाय, बिल्ली) (किसान जी के तो मांगले मुराद मिल गेल काहे कि ऐसन कमासुत औरत मरद उनखा मिल जा हल । से ऊ खुशी-खुशी पाँच सौ रुपैया देके दूगो पइया कागज पर दुनु के हाथ के टिप्पी ले लेलका । उनका लगल कि बिलाई के भाग से सीक्का टूटल ।)    (मशिलो॰41.11)
442    बिस्टी (एक दिन बाबा के हसनैन साहब समुन्दर के बीच यानि बालू पर ले गेला जौन दिन धप धप रौदा उगल हल । हुआँ बड़कू मियाँ देखलका कि औरत मरद जिरि गो बिस्टी पेहन के नंगे धड़ंगे बालू पर पड़ल हका ।)    (मशिलो॰6.22)
443    बिहान (= सुबह; कल; दूसरे दिन) (बिहान होके पोटरिया लेके बदले लागी जाय लगल तो गुलाब समझ गेल, से ऊ टोकलक कि तू कहाँ जा हकँऽ । हम सब जानऽ हियौ ।)    (मशिलो॰22.22)
444    बीगना (= बिगना) (ओकरा में महाजन के खरीद के पुर्जा भी हल । छागल में आधा चाँदी औ आधा खाद हल । से गुनी ओकर दाम कम मिलल । करुणा ऊ पुर्जा फाड़ के ओजे बीग देलक काहे कि अगर पुर्जा कोई के हाथ लग जात हल तो घर में कोहराम मच जात हल ।)    (मशिलो॰95.1)
445    बीड़ी-सलाई (सनीचरी के नई रहे पर सोमर आवे वालन के सामने बीड़ी सलाई रख दे ।; ई सब गुनी इन्कर दलान पर हर समय दू-चार अदमी बैठल मिलवे करऽ हल । रात के दस-बारह अदमी ऊ दलान पर सुतऽ भी हल । सु्ते वालन के सुविधा लागी कुछ बन्डिल बीड़ी सलाई रखल रहऽ हल ।; इनकर दलान में रात में दस-बारह अदमी सुतऽ हला ओकर संख्या भी घट के दू ठो रह गेल । ऊ भी ओइसन बूढ़ा जेकरा सुते के कोई दोसर जगह नई हल । मगर पहिले नीयर दू बन्डील बीड़ी सलाई औ ललटेन रात भर जलते हो रहऽ हल ।)    (मशिलो॰35.6; 76.19; 79.21)
446    बीस (= अनपढ़ लोगों के लिए किसी चीज को गिनने की सबसे बड़ी इकाई) (बाप-दादा के टाइम से एक सौ पुराना चान्दी के सिक्का हल । ... चार-चार रुपया के एक गण्डा बना के पच्चीस कुद्दी लगावऽ हल । पाँच गण्डा के एक बीस बना के अलग रखऽ हल । ओकर बाद पाँच बीस एगो थैली में रखऽ हल । कभी-कभी एगो रुपया हाथ में लेके ढिबरी के मद्धिम रोशनी में उलट-पुलट के देखऽ हल ।)    (मशिलो॰19.10, 11)
447    बुढ़ारी (= बुढ़ापा) (बड़कू मियाँ के उछाह के की ठिकाना । एके ठो बेटा हल । ओकरा कई बरस के बाद बुढ़ारी में देखता तो ऊ सुख के वर्णन करना कठिन हे ।; धीरे-धीरे सरदी के तेज प्रकोप आ गेल । एता बेसी ठंढ में रहे के उनका आदत नई हल, ओकरो में बुढ़ारी के शरीर ।; ठंढ तो नस-नस में प्रवेश कर गेल हल । बुढ़ारी के शरीर हल । कफ खाँसी बुखार से भी पीड़ित हो गेला ।; खेत जे बचऽ हल ओकरा चौरहा बटइया लगा देलका काहे कि बुढ़ारी के शरीर में एतना ताकत नई हल कि अपने खेत करैता हल ।)    (मशिलो॰1.10; 6.6; 8.7; 75.13)
448    बुतरु (अल्हो-मल्हो नीयर पोता के गोदी में लेके चूमे लगला, खेलावे लगला, धीमे-धीमे हँस के बतियावे लगला, हाथ के कँपत अंगुरी से कान नाक आँख के सहलावे लगला । लगल कि जैसे बुतरु में हसनैन साहब के खेला रहला हऽ औ पीछे में हसनैन के महतारी देख के अघा रहली हऽ ।; बड़कू मियाँ के दाढ़ी देख के बुतरुआ डरल नीयर अकचका गेल मगर धीरे-धीरे जब दादा के पेयार से ओकर मन भर गेल तो ऐसन घड़ी भी आ गेल जब बुतरुआ के दादा बिना चैन नई पड़े ।; लड़कन बुतरु खुशी में एने ओने खेल धूप रहला हऽ ।; थोड़िके देर में इनका अप्पन पोतवा के याद आ गेल कि हम हियाँ रौदा में मौज मना रहलूँ हऽ औ ऊ बेचारा बुतरु हुआँ रो रहल होत ।)    (मशिलो॰5.13, 18, 21; 7.2, 7)
449    बुताना (= बुझाना) (गुलाब के अवाज सुन के दुखिनी ढिबरी के बुता देलक औ रुपैया के कुद्दी सब पर ओढ़े वाला चद्दर ढाक देलक ।)    (मशिलो॰19.19)
450    बुलना (= चलना) (अभी पूरब के आसमान लाल धप्पे लगल हल कि रामवरण पाण्डेय खड़ाऊँ पहनले घूम घूम के खैनी टूंग रहला हल । खूँटी के खड़ाऊँ पर बुले के चटचट अवाज हो रहल हल । सभे खड़ाऊँ पेहने वालन के खड़ाऊँ पर बुले के अवाज एक रंग के नई होवऽ हे ।; हरि सिंह कंधा पर हर औ दूगो बैल के पगहा पकड़ले खेत जोते जा रहला हल कि खड़ाऊँ के चटचट अवाज से इनका अहसास हो गेल कि पाण्डे जी बुल रहला ह ।)    (मशिलो॰43.3, 5, 12)
451    बूँट (दुखिनी दाई के पुराना रोजगार बूँट के सत्तू के अढ़ाई सौ, पाँच सौ ग्राम औ एक किलो के पैकेट निकाल देलक । आसपास के कसबा औ जिला के बजार में दुखिनी दाई के बूँट के सत्तू लोग चाव से खरीदऽ हला ।)    (मशिलो॰26.8, 11)
452    बूट (= बूँट, चना) (बजार के एक सावजी ओकरा बतैलक कि खाजिश बूट के असली सत्तू के ऊ आध औ एक किलो के पोलिथिन में पैक करके बेचे ।)    (मशिलो॰18.14)
453    बूढ़-पुरनिया (कुछ महीना बाद उनका मालूम होल कि सविता के गोड़ भारी हे, से सम्भावित पोता या पोती के गुनी फेन करमचन्द हीं आके कुछ दिन रहला । जाये बखत सास कहलकी कि पानी पावे बखत ऊ ऐती औ घर सम्हार देती काहे कि नया पानी पावे बखत एगो बूढ़-पुरनिया के रहना जरूरी हे ।)    (मशिलो॰67.1)
454    बेचना-बाचना (सौदा बेचे वालन सिन्दुरिया सबसे जबर्दस्ती उधार लेके कीमत नई देवे लगला । मांगला पर पीट-पाट करे लग गेला । ई वजह से सिन्दुरिया औ अइसन-अइसन दोसर कम संख्या वालन जात के भय सतावे लगल । इन्कन्हीं के तो कमा के खाये के हल । से ई सब गाँव के घर-दुआर बेच-बाच के शहर में जा बसला ।)    (मशिलो॰74.21)
455    बेदम (~ रहना = चिन्तित रहना, लगा रहना) (भतीजा सब के लाम तो ओकन्हीं सब के जैसन सुभाव हे ऊ सब हम्मर खेत के अप्पन नाम से लिखावे लागी ही बेदम रहत ।)    (मशिलो॰91.7)
456    बेयाज (= ब्याज, सूद) (दुखिनी दाई थोड़ा लगौनी-बझौनी के काम भी करऽ हल । जहाँ बजार में जेवर के गिरमी पर तीन चार रुपया सैकड़ा बेयाज लगऽ हल, दुखिनी दाई दू रुपया सैकड़ा बेयाज ले हल । एकरा से लोग खुश रहऽ हल ।)    (मशिलो॰16.6, 7)
457    बेला-मोके ( (पाँच बरस पहिले तक कोई के मजाल नई हल कि रामवदन जी के ई खंढ से एक पत्ता भी तोड़ ले । ओकर वजह ई हल कि गाँव जवार में रामवदन जी के बड़ी धाक हल । बेला मोके सब के काम आवऽ हला, एकरा गुनी सब लेहाज करऽ हला । कुछ लोग इनका से डरऽ भी हला ।)    (मशिलो॰73.17)
458    बेहवरिया (बाबू साहब एकरा से खुश होवे के बजाय बड़ी बिगड़ला औ कहलका कि जब तू कम तौललऽ तो बेहवरिया से मिल के कभी बेसी भी तौल दे सकऽ ह । एकर अलावे कम तौले से धरम खराब होवऽ हे ।)    (मशिलो॰20.21)
459    बेहवार (= व्यवहार, व्यवसाय) (अच्छा होवे कि खेत के रकबा के ऊपर पाँच रुपये बिघा चन्दा एकट्ठा कर लेल जाय । मगर जब ई बात होल कि जिनका खेत के अलावे सरकारी नौकरी औ बेहवार भी हे ओकरा से बेसी चन्दा लेल जाय ।)    (मशिलो॰46.15)
460    बोलाना (= बुलाना) (मगर अब सवाल हो गेल कि खरचा कैसे चलत । बेटी के बियाह औ बेटा के पढ़ावे के बात हल । समस्या के समाधान खातिर अप्पन मरद के कलकत्ता से बोलइलक ।)    (मशिलो॰16.17)
461    भख्खा (= भाषा, बोली) (चले के तो चल गेल मगर सोचते गेल कि महेश ई की कहलका कि महेश खतम हो गेल । ... कभी-कभी मुँह के भख्खा बड़ी खराब होवऽ हे । अगर महेश के कुछ हो गेल तो ओकर पाप तो हमरे सिर विसात ।)    (मशिलो॰88.15)
462    भण्डार (~ कोण) (ऊ दिन कुर्सी पर बैठल ई पेड़ औ सब्जी के फूल पर गौर से देखे लगला । भण्डार कोण में एगो बड़का नीम के पेड़ हल ।)    (मशिलो॰81.5)
463    भभाना (एक दिन रात में बुधिया औ सनिचरी दुनु के मुँह में सुत्तल में ताड़ी ठूँस देलक । दुनु अकबका के उठल तो सोमर हीं हीं करके हँसे लगल । जब दुनु माई बेटी ओ ओ करे लगल तो सोमर जोर से भभा के हँसल औ बोलल कि तू कहते रहँ हँ कि ताड़ी बेकार चीज हे ।)    (मशिलो॰29.7)
464    भर (= भरी) (सोचलक कि एकरा बेच के ऊ पोटरी में नइका रुपैया रख देम । सोच-साच के अंग्रेजे के बखत के पचास के दशक में बनल दुदलिया रुपैया जेकरा में पुरनका सिक्का के तेरह आना फी भरी चांदी के बजाय चार आना भर चांदी रहऽ हे, खरीद के ओही पोटरी में रख देलक ।)    (मशिलो॰21.21)
465    भरी (= भर; दश माशे या एक रुपये के बराबर की एक तौल जिसका प्रयोग सोना, चांदी आदि तौलने में होता है) (सोचलक कि एकरा बेच के ऊ पोटरी में नइका रुपैया रख देम । सोच-साच के अंग्रेजे के बखत के पचास के दशक में बनल दुदलिया रुपैया जेकरा में पुरनका सिक्का के तेरह आना फी भरी चांदी के बजाय चार आना भर चांदी रहऽ हे, खरीद के ओही पोटरी में रख देलक ।)    (मशिलो॰21.21)
466    भाग (= भाग्य) (तू भाग मनाओ बुधिया के माई कि तोर बियाह हमरा जैसन विजेता सोमर से हो गेलौ । एकरा से हम्मर औ तोर नैहर के दुनु खनदान तर गेल । हौ तोर नैहर में ऐसन विजेता ?; ऊ खुशी-खुशी पाँच सौ रुपैया देके दूगो पइया कागज पर दुनु के हाथ के टिप्पी ले लेलका । उनका लगल कि बिलाई के भाग से सीक्का टूटल ।)    (मशिलो॰35.10; 41.11)
467    भिनसरवे (= सुबह-सुबह ही) (ममता के लेके ऊ भिनसरवे चुपे-चुपे गाँव से बाहर निकसला । ममता के निकसला पर गाँव के लोग संतोष के साँस लेलका ।)    (मशिलो॰53.14)
468    भीजा (= visa) (ई भी कहलका कि तोहरे साथ लेले चलबो । पासपोर्ट भीजा सब के इन्तजाम हो जैतो ।)    (मशिलो॰2.17)
469    भीतर (= भित्तर; कोठरी) (जब एकरा पीये के सीमित आदत हल तो औरत मरद दुनु अप्पन कमाई से गिरल-फुट्टल फूस के छौनी के झोपड़ीनुमा मकान तोड़ के अइटा गारा से दूगो छोटे गो भीतर बनैलक । ई दुनु भीतर के खपड़ा से छैलक ।; सनीचरी के रख के खिलावे के ओकरा औकात नई हल । ई गुनी सनीचरी के एगो भीतर रहे ला दे देलक । सनीचरी काम करे में हाबड़ हईये हल से निकौनी, कोड़नी, अनाज फटके, गोयठा ठोके के काम करे लगल ।; ई बंगलानुमा दलान हल । बंगला कहे से जे शान-शौकत, गाड़ी-छकड़ा, नौकर-चाकर के आभास मिलऽ हे ऊ एकरा में नई हल । मगर साफ-सुथरा तीन दर के ओसारा, अगल-बगल दुनु तरफ छोट-छोट दू गो भीतर, पीछे से बड़गो हौल नीयर बड़ कोठरी जरूरे हल ।)    (मशिलो॰28.7; 37.15; 73.5)
470    भुट्टा (थोड़ा दूर पर बैगन औ पुरी-परोर के गाछ हल, कुछ भुट्टा भी हल । बैगन के नीला फूल, पुरी-परोर के उज्जर बैगनी फूल, भुट्टा के मोछ औ धनबाल सब मन के मोह रहल हल ।)    (मशिलो॰82.5, 6)
471    भूआ (उड़हुल के तीसरका फुलाल पेड़ पर भूआ के लत्ती के पीयर-पीयर चीलम नीयर टोंटीदार फूल उड़हुल के लाल रंग के मुर्गा के चोटी नीयर फूल के साथ मनमोहक छवि प्रस्तुत कर रहल हल ।)    (मशिलो॰82.1)
472    भूर्रा (किसान सब सोमर के ई गुनी मानऽ हला कि हर जोते में ई हाबिर हल । खेत के मट्टी केतनो कड़ा रहे, केवाल रहे ओकरा जोत के भूर्रा बना दे हल ।)    (मशिलो॰27.11)
473    भोकार (~ पार के रोना) (सोमर सूख के काँटा हो गेल हल काहे कि खाये पीये के कोई ठेकाना नई हल । बूँट के सुखड़ा औ ताड़ी बस एही एकर खोराक हल । कमजोर एतना हो गेल हल कि हर चलावे के सवाले नई हल । ई हाल देख के सनीचरी भोकार पार के रोवे लगल ।)    (मशिलो॰39.10)
474    भोजाई (= भोजाय, भौजाई) (दुखिनी गाँव के ज्यादातर लोगन से कोई न कोई रिश्ता बनइले हल । गाँव घर के कोई चचा, कोई चाची, कोई भाई, कोई भतीजा, कोई भतीजी, कोई भोजाई, कोई पुतहू हो गेल हल । ऊ सब दुखिनी के दुखिनी दाई कहे लगला ।; सनीचरी के तरक्की देख के ओकर भोजाई भीतर-भीतर जरे लगल ।; चूँकि सनीचरी खेत के काम बड़ी मन लगा के मुश्तैदी से करऽ हल, ई गुनी किसान सब एकरा चाह के रखऽ हला । भोजइया एकरा पर सोचे लगल कि सनीचरी के ई गाँव में धीरे-धीरे आउर इज्जत बढ़ जात, ऐसन न होवे कि एक दिन घर में बेटी के हिस्सा के मांग कर दे ।)    (मशिलो॰15.10; 37.21; 38.7)
475    भोरे (= सुबह में) (बाड़ी में तीन गो पखाना हल, औ एक सौ के करीब बाल-बुतरु लगा के अदमी । भोरे दू घंटा तक पखाना में लाइने लगल रहऽ हल ।)    (मशिलो॰12.1)
476    भोरे-भिनसरवे (जानवर तो निश्चित काल अवधि में यौनेच्चा करऽ हे, ई अदमी के जात तो ऐसन हे कि भोरे भिनसरवे, जाड़ा गर्मी, बरसात सब ऋतु में सभे के साथ यौनेच्छा के पूर्ति लागी जान देवे लगऽ हे ।)    (मशिलो॰59.7)
477    भौंरी (एही खास वजह हल कि हजार विपरीत भाव मन में उठला के बावजूद ऊ चाहऽ हल कि सविता के अप्पन जनी बना ले । ऊहापोह, तर्क-वितर्क, मान-मनौअल, स्वीकृति, अस्वीकृति के भौंरी में बहुत दिन तैरते डूबते एक क्षण अइसन आल कि स्वस्फूर्त प्रेरणा से करमचन्द सविता के वक्ष सहलावे लगल ।)    (मशिलो॰65.14-15)
478    मंजरा (= मनरा; मंजीरा) (जब मंजरा बजे लगल, ढोलक, झाल मजीरा के अवाज से वातावरण भर गेल तो ई की ! लोग-बाग अचम्भित हो गेल कि करकी छिनार के अता-पता नई हे मगर ममता बेवा हाथ उठैले लचक-लचक के नाचते भगत जी के आगे आ जुटली ।)    (मशिलो॰52.13)
479    मजाल (पाँच बरस पहिले तक कोई के मजाल नई हल कि रामवदन जी के ई खंढ से एक पत्ता भी तोड़ ले ।; पहिले तोरा महेश बाबू कहऽ हलियो अब तोरा महेशवा कहवौ । तोर ई मजाल कि हम्मर विधवा के जिन्दगी से खेलवाड़ करऽ ।)    (मशिलो॰73.14; 87.8)
480    मजूर (= मजदूर) (सोमर खेत मजूर हल औ एकर जन्नी सनीचरी मजूरिन । दुनु खेत में काम करके अप्पन रोजी चलावऽ हल ।)    (मशिलो॰27.7)
481    मजूरिन (= मजदूरनी) (सोमर खेत मजूर हल औ एकर जन्नी सनीचरी मजूरिन । दुनु खेत में काम करके अप्पन रोजी चलावऽ हल ।)    (मशिलो॰27.8)
482    मजूरी (= मजदूरी) (नतीजा ई होल कि सनीचरी पर अकेले घर चलावे के भार आ गेल । अनाज के रूप में जे मजूरी मिलऽ हल ओकरे से अपने औ बेटी बुधिया आधा पेट खाये औ नकद मिलल पैसा सोमर झटक ले ।; दू तीन दिन तो सनीचरी खेत में कामो करे नई गेल औ आवे वालन के चाह बना के पिलैते रहल । मगर जब अनाज के बरतन ढनढना गेल तो पेट जरे के नौबत आ जाये के खेयाल से सनीचरी गेहूँ फटके ला गाँव के बनिया हीं चल गेल औ मजूरी में गेहूँ लैलक ।)    (मशिलो॰28.20; 35.4)
483    मट्टी (= मिट्टी) (गाँव से उनका एतना प्यार हल, गाँव के मट्टी के एतना महत्व दे हला कि फौज में जहाँ जा हला एक ढेला मट्टी पास में बक्सा में बन्द करके रख ले हला ।)    (मशिलो॰3.18, 20)
484    मद्धिम (कभी-कभी एगो रुपया हाथ में लेके ढिबरी के मद्धिम रोशनी में उलट-पुलट के देखऽ हल ।)    (मशिलो॰19.13)
485    मनटीका (रामजी भी अइसन टहनी धोती के भीतर छिपा के रख के बाहर निकसे के उपक्रम करे लगला । आहिस्ते से रामजी ई फुसफुसइला कि ए भौजी ! एही तोहर नइका मंगलसूत्र यानी मनटीका हो ।)    (मशिलो॰51.21)
486    मनमरु (= मनमरू; दे॰ पितमरु) (एकरा पर दुखिनी दाई कुछ नई बोले । दुखिनी दाई बड़ी पितमरु मनमरु औरत हल जे उधार लेवे वालन के उधार चुकावे ला निहोरा करऽ हल, आरजू करऽ हल ।)    (मशिलो॰15.18)
487    मनिहारी (= नित्य प्रति के उपयोग की वस्तुओं की दुकान) (गुलाब कलकत्ता जाके अप्पन बाप के ले आल औ बजार में मनिहारी के दोकान खोल देलक । कहलक कि बाबूजी कलकत्ता से कमा के रुपइया लैलका हऽ ।)    (मशिलो॰26.2)
488    ममोरना (= मरोड़ना, ऐंठना) (औ फेन करकी के साथे ओकर जुअनकी बेवा पुतहिया भी तो हो । ममता के बारे में अफवाह हे कि ई भी डायन के काम सीख रहल हऽ। जलमते बेटा के गियारी ममोर देलक, फेन मरदवो के खा गेल । ई गुनी एकरो साथे नचावे के इन्तजाम कर देल जाय ।)    (मशिलो॰46.5)
489    मरकुट्टा (~ बैल) (करीब तीन महीना सनीचरी अकेले खेत में काम कैलक । तीन महीना के बाद जब सोमर पूरा टनटना गेल तो खेत में ई भी जुताई करे लगल । जब सोमर हर पर हाथ धैलक तो मरकुट्टा बैल भी सर-सर चले लगे औ खेत के जमीन जोता के बुकनी बन जाय ।)    (मशिलो॰41.20)
490    मरतबा (दुखिनी दाई के डर हो गेल कि थोड़ा बहुत गिरमी के चीज जे बचऽ हे ऐसन न हो कि गुलाब बेच दे । से चीज वालन के निहोरा करके ब्याज के रकम कुछ कम करके सबके दे देलक । औने-पौने में कुछ बाकी भी रह गेल से नई लौटल । ई बाकी रुपैया ला कई मरतबा कहलक मगर फेन भी कोई नई देलक ।)    (मशिलो॰17.18)
491    मरदाना (भतिनी के लगल कि भगवान एगो लड़का देता हल तो आज न कल मरदाना के कमी दूर हो जात हल मगर लोग-बाग के ई कहला से ओकरा संतोष होल कि जब बेटी होल तो बेटा भी होवे करत ।)    (मशिलो॰13.17)
492    मरूसी (= मौरूसी; वंश परम्परा से प्राप्त, बाप-दादा से मिला हुआ, जो स्वयं उपार्जित नहीं किया गया हो) (कानूनी कमजोरी भी हल काहे कि उनकर बाबूजी ज्यादेतर खेत के खरीद बड़के बेटा के नाम से कैलका हल । थाना कचहरी होला से बात उल्टा पड़े के अन्देशा हल । बात बढ़े पर बड़का बाबू के नाम वाला पूरा खेत करुणा के हो जात हल औ मरूसी खेत में आधा हिस्सा होत हल से अलगे ।)    (मशिलो॰99.5)
493    मलगुजारी (= मालगुजारी) (औरत के अमूनन नहीरा के शिकायत तनिको बरदास्त नई होवऽ हे । से जब सोमर ओकर नहीरा के खनदान के कोसलक तो सनीचरी कहलक - "तू की कहमऽ । हम्मर भाई तो कर्मचारी बाबू बनल हे । ऊ सब किसान के खेत के हिसाब किताब रखऽ हे, मलगुजारी तसीलऽ हे, तोर खनदान में हौ कोई ऐसन अफसर ?")    (मशिलो॰35.19)
494    महतारी (हम तो चिट्ठी लिखलियो हल कि बहू-पोता के साथ आवऽ । हसनैन जवाब में कहलका कि बेटा के महतारी के तबियत अलील हल से गुनी ऊ अकेले अइला ।)    (मशिलो॰2.15)
495    माई-बाप (राजू ओकरा नहिरा जाये देवे ला तैयारे नई हल । कहऽ हल कि जब तोर माई-बाप अपने पास रखे ला चाहऽ हला तो हमरा से बियाह काहे ला कैलका ।; जनम देके पोस-पाल के, पढ़ा-लिखा के, काम में लगावे के यथासम्भव इन्तजाम कर के, जे माई-बाप बुढ़ारी में प्रवेश कर जाहे तो ज्यादेतर बेटा सब बाप-माई के खोज-खबर नई ले हका ।)    (मशिलो॰12.6; 94.4-5)
496    मानना (= प्रतिष्ठा, आदर, स्नेह आदि देना) (किसान सब सोमर के ई गुनी मानऽ हला कि हर जोते में ई हाबिर हल । खेत के मट्टी केतनो कड़ा रहे, केवाल रहे ओकरा जोत के भूर्रा बना दे हल ।)    (मशिलो॰27.9)
497    मान-मनौअल (एही खास वजह हल कि हजार विपरीत भाव मन में उठला के बावजूद ऊ चाहऽ हल कि सविता के अप्पन जनी बना ले । ऊहापोह, तर्क-वितर्क, मान-मनौअल, स्वीकृति, अस्वीकृति के भौंरी में बहुत दिन तैरते डूबते एक क्षण अइसन आल कि स्वस्फूर्त प्रेरणा से करमचन्द सविता के वक्ष सहलावे लगल ।)    (मशिलो॰65.14-15)
498    मारफत (कोई न कोई अप्पन देश से अइते रहऽ हे, उनका मारफत भारत से ओही कपड़ा के कफन मँगा लऽ ।)    (मशिलो॰8.14)
499    मारा (= अकाल) (ई सरकारी नौकरी ऐसन धन्धा हो जेकरा में पत्थल पड़े, मारा हो, सूखा हो, महीना पुरलो नई कि नगद टनटनमा घर में आ गेलो ।)    (मशिलो॰47.3)
500    मिचाई (= मिरचाई) (सनीचरी गाँव के दोकान से आटा, पेयाज, नीमक मिचाई लैलक । चुन-चान के लकड़ी ले आल औ रोटी बना के पियाज, नीमक, मिचाई के साथ सोमर के खिला के अपने औ बुधिया खैलक ।; ई छोटका बाबू सादा जीवन जीये के उपदेश देहे । मकई के सुख्खल रोटी आउर कच्चा मिचाई निमक खाइला, बस ।)    (मशिलो॰39.18; 98.17)
501    मिरचाई (ऐसन लोग जब उधार नई लौटइलक तो दोसर के भी मन बढ़ गेल । धीरे-धीरे दुखिनी दाई के टुटपुंजिया दोकान के पूंजी-रूंजी खतम हो गेल । अब ऊ खाली निमक, हरदी, मिरचाई, आलू औ पत्तल बेचे लगल ।)    (मशिलो॰16.2)
502    मिसरी (हमरा बचपन से ही ई आदत पड़ गेल हऽ कि सूते बखत मुँह मीठा हो जाय । कभी गुड़, कभी बताशा, कभी मिसरी खैते रहलूँ हऽ । एने दू महीना से बिना मीठा के ही तो अकबक लगऽ हे ।)    (मशिलो॰96.4)
503    मीठ (= मीठा) (भतिनी के ई बात मालूम हल कि अस्पताल में इलाज औ दवाई तो दूर, पैसा नई लगे वाला मीठ बोली भी नई मिलाऽ हे औ नरको से बत्तर हालत हुआँ रहऽ हे ।)    (मशिलो॰13.2)
504    मुँह-देखाई (खैर, पोता के मुँह-देखाई में की देता एकर चिन्ता उनका हो गेल ।)    (मशिलो॰3.15)
505    मुझौसा (= मुँहझौसा) (गुलाब के अवाज सुन के दुखिनी ढिबरी के बुता देलक औ रुपैया के कुद्दी सब पर ओढ़े वाला चद्दर ढाक देलक । जल्दी-जल्दी में एतना करके ऊ जवाब देलक कि चुहवा मुझौसा ढनर-ढुनर करऽ हैऽ।)    (मशिलो॰19.21)
506    मुझौसी (= मुँहझौसी) (घर वाला तो कोई तरह से ममता के घर में रखे ला तैयार नई होता । कहता कि ई मुझौसी डइनी के घर में कैसे रखम ।)    (मशिलो॰48.22)
507    मुड़ी (= मूड़ी; सिर) (तौले वाला के तो जरिमनी झुकता तौले के चाही, तराजू ओइसहीं नबे के चाही जैसे खाये में मुड़ी नवावल जाहे ।)    (मशिलो॰21.4)
508    मुदालेह (दे॰ मुद्दाले, मोदालेह) (जज साहब मूड़ी हिला के सहमति जतैलका औ सभे मुदालेह के बाइज्जत बरी कर देलका ।)    (मशिलो॰57.5)
509    मुद्दाले, मोदालेह (= मुद्दालेह, जिसपर दावा किया गया हो, प्रतिवादी)  (संजोग से बाढ़ में गाँव के एगो अदमी मिलल जे बोललक कि गाँव में मौत के सन्नाटा छाल हे काहे कि ममता के हत्या के केस में गाँव के बहुत सा लोग पर दफा 304 के मोकदमा चल रहल हऽ । रामजी के नाम भी ओकरा में हे । मुद्दाले सबके दस वर्षा सजा जरुर होवत, कुछ के फाँसी भी पड़ सकऽ हे । ई सुन के रामजी चिन्ता में डूब गेला औ एक दिन रात में गाँव में पहुँच गेला । हुआँ मालूम होल कि गाँव के दलाल औ चौकीदार दफादार सब थाना के खबर कइलक कि ममता के हत्या करके गंगा में फेंक देल गेल । मोदालेह सब के कुछ सुझवे नई करे कि की जवाब देल जाय ।)    (मशिलो॰55.6, 12)
510    मुरई (= मूली) (दुनु छूरा रखके इम्तहान देलक, छूरा देखके कोई मास्टर ओकन्हीं से छेड़-छाड़ नई कैलक औ इम्तहान में पास हो गेल । एकरा से दुनु के मन बहुत बढ़ गेल । दोसर के खेत से आलू मुरई कबाड़ के बेच दे ।)    (मशिलो॰17.8)
511    मुरेठा (= मुरेट्ठा) (ओही घड़ी गमछा के मुरेठा बाँधले, कंधा पर कुदार औ हाथ में खुरपी लेले रामजी जा रहला हल, से हरि सिंह के बैल बन्धल देख के भीतर झाँके ला ठमकला तो पाण्डे जी औ हरि सिंह के गलबात करते देखलका।)    (मशिलो॰44.1)
512    मुशहर (= मुसहर) (गाँव में तेली, सोनार, सिन्दुरिया, ब्राह्मण, कायस्थ, यादव, कोयरी, कुर्मी, दुसाध, बड़ही, मुसलमान, मुशहर रहऽ हला । करीब दू सौ घर के ई रमजा गाँव हल । मगर जैसे ही पाकिस्तान बनल, मुसलमान सब भाग के कलकत्ता चल गेला । पीछे आके खेत-पथारी बेचलका ।)    (मशिलो॰77.2)
513    मुशहरा (से अभी खेतिये पर चन्दा करे से ठीक रहत । रामजी जवाब देलका - "तू एही गुनी विरोध करऽ हऽ कि तोर घर के दू गो जवान बेटा सरकारी नौकर हो जे मुशहरा के अलावे बड़ी बेसी घूस कमा हो ।")    (मशिलो॰47.1)
514    मुसलमान (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।)    (मशिलो॰14.20)
515    मुसहर (नई मालकिन नई । हम अगर जेवर बेचे ला जाम तो बजार में सोना-चान्दी के दोकानदार कहत कि ई मुसहरवा के छागल कहाँ से आल । ई जरूर कहीं से चोरा के लैलक हऽ । हम तोहर नाम लेम तो छोटका बाबू के फटाक से मालूम हो जात । ऐसन में हम दुनु पर ऊ बिगड़ता ।)    (मशिलो॰92.10)
516    मूड़ना (ई सब देख के दोसर मजूर सब के जरनी बढ़ गेल । कुछ तिकड़मी सोचलक कि एकरा से पैसा मूड़ के पीये के चाही औ पीये के एकर आदत एतना बढ़ा देल जाय कि रात-दिन पी के पड़ल रहे, जेकरा से किसान सब एकरा नई पूछत आउर दोसर के खेत में काम मिले लगे । होल भी अइसने ।)    (मशिलो॰28.11)
517    मूड़ी (= सिर) (जज साहब मूड़ी हिला के सहमति जतैलका औ सभे मुदालेह के बाइज्जत बरी कर देलका ।)    (मशिलो॰57.4)
518    मेहरारु (लगल कि जैसे बुतरु में हसनैन साहब के खेला रहला हऽ औ पीछे में हसनैन के महतारी देख के अघा रहली हऽ । पीठ के तरफ घूम के ऊ देखलका भी मगर हुआँ उनकर मेहरारु कहाँ । तब समझलका जब उनका चेतना आल कि ई तो हसनैन के बेटवा हे ।)    (मशिलो॰5.16)
519    मैदान (= शौच) (अब उनखा एगो 5-7 बीघा के तरमन्ना बचऽ हल । ई तरमन्ना में सगरो जंगल झाड़ हल । ई गाँव के जानवर के चरागाह औ मरद औरत के मैदान के जगह बन गेल हल ।; बिकरी के बात जब गाँव वालन के पता चलल तो ई सब सोचलक कि अगर तरमन्ना औ झाड़-झंखाड़ नई रहत तो दिशा मैदान औ चरागाह के जगह खतम हो जात ।)    (मशिलो॰31.10, 15)
520    मोका (= मोक्का; मौका) (ईद के मोका पर तो रमजानपुर में ऐसहीं गहमागहमी रहऽ हके, ई साल एकरा में बढ़ोतरी हो गेल काहे कि कई बरस के बाद हसनैन साहब विदेश से घर आ रहला हऽ ।)    (मशिलो॰1.1)
521    मोके-बेमोके (गरीब-गुरबा के मोके-बेमोके थोड़ा-बहुत रुपैया भी बिना बेयाज के दे दे हला ।)    (मशिलो॰76.12)
522    मोछ (थोड़ा दूर पर बैगन औ पुरी-परोर के गाछ हल, कुछ भुट्टा भी हल । बैगन के नीला फूल, पुरी-परोर के उज्जर बैगनी फूल, भुट्टा के मोछ औ धनबाल सब मन के मोह रहल हल ।)    (मशिलो॰82.6)
523    मोदालेह (दे॰ मुद्दाले) (हुआँ मालूम होल कि गाँव के दलाल औ चौकीदार दफादार सब थाना के खबर कइलक कि ममता के हत्या करके गंगा में फेंक देल गेल । मोदालेह सब के कुछ सुझवे नई करे कि की जवाब देल जाय ।)    (मशिलो॰55.12)
524    मौगी (= जन्नी, औरत, पत्नी) (टोला वालन सब सोमर के खूब डाँटलका औ कहलका कि तोर मुँह तो बक-बक गमक रहलो हऽ । जरुरे तू सभे रुपैया के ताड़ी पी गेले हँ । बहाना बना के मौगी के ठग रहलँ हँ कि कोई चोरा लेलक ।; तोर ई मजाल कि हम्मर विधवा जिन्दगी से खेलवाड़ करऽ । तोर मौगी मौज-मस्ती कराके बेटा जलमा के मरलो, हम्मर मरद तो बियाह के दोसरे साल मर गेला औ हमरा जिन्दगी भर तपस्या करे ला छोड़ देलका ।)    (मशिलो॰30.12; 87.9)
525    रंडुआ (= विधुर) (अगर बेवा के रंडुआ से बियाह होवे लगत तो ई दुनू के जीवन में रस आ जात, दुनु के दुख दूर हो जात ।)    (मशिलो॰48.17)
526    रजपूत (= राजपूत) (अजादी के बाद धीरे-धीरे वोट के गन्दा राजनीति के वजह से जात-पात के भावना देहातन में तेजी से बढ़ल । बाभन, रजपूत, कुरमी, कोयरी, गोआला, दुसाध, पासी, चमार सब अलगे-अलगे खिचड़ी पकावे लगल । गाँव के एक दू घर बनिया, कुम्हार, धोबी, मुसलमान, बड़ही, नउआ के तो कोई कीमते नई हल । बेसी जात वालन के बिना पैसा के ई सब गुलाम बने ला मजबूर हो जा हल ।)    (मशिलो॰14.18)
527    राई-छितिर (= राय-छितिर, राय-छित्तिर) (मगर एतनो कैला पर भी नौकरी दुनु में से कोई के नई मिलल औ सभे रुपैया राई छितिर हो गेल ।)    (मशिलो॰22.2)
528    राड़ी (= राँड़ी, राँड़, विधवा) (हम अब एक ढेला गुड़ ला, नारियल के तेल ला, साबुन-सर्फ ला तरसऽ ही । छोटका बाबू से ई सब चीज ला कभी-कभार दबल जबान कहऽ ही तो ऊ कहऽ हका कि राड़ी औरत के ई सब चीज प्रयोग नई करे के चाही, सीधा सरल रहन-सहन रखे के चाही ।; जनम देके पोस-पाल के, पढ़ा-लिखा के, काम में लगावे के यथासम्भव इन्तजाम कर के, जे माई-बाप बुढ़ारी में प्रवेश कर जाहे तो ज्यादेतर बेटा सब बाप-माई के खोज-खबर नई ले हका । तो ऐसन राड़ी के कोई की पूछत ।; नारियल के तेल के एक डिब्बा लेके अपने पास रखीहऽ औ ई छोटकी शीशी में ढार के दीहऽ । जब घटतो तो फेन शीशी दे देवो औ तू तेल भर के ले अइहऽ । समूचे डिब्बा तेल के अप्पन भीतर में रखम तो सब कहत कि राड़ी सौख करऽ हे ।; मोका पाके हरखू एक दिन महेश बाबू के ई सब बात कहलक । महेश बाबू के तरवा के धूर कपार पर चढ़ गेल । कहलका कि आजे छोटे बाबू से कहम कि राड़ी पर एतना जुलुम मत करऽ ।)    (मशिलो॰92.5; 94.6; 95.20; 96.17)
529    रुंजी-पूंजी (जब सब रुंजी-पूंजी खतम हो गेल औ अमदनी के कोई जरिया नई रहल तो दुखिनी दाई बगल के बजार के गोला में जाके अनाज फटके के काम करे लगल ।)    (मशिलो॰18.10)
530    रेजगी (= रेजकी, चिल्लर) (हम्मर मदद तू एतने करऽ कि हम तोरा अप्पन गोड़ के चागल दे हियो । एकरा बेच के रेजगी औ एक दू रुपैया के नोट ला दऽ ।)    (मशिलो॰91.21)
531    रोलाई (= रोवाई, क्रन्दन) (ई हाल देख के सनीचरी भोकार पार के रोवे लगल । मइया के रोते देख के बुधिया भी रोवे लगल । रोलाई सुन के आसपास के घर वालन सब आ गेल औ दुनु के ढाड़स देलक ।)    (मशिलो॰39.12)
532    रोवाई (सनीचरी रोवे लगल । ओकर रोवाई सुन के टोला मोहल्ला के लोग जुट गेला ।)    (मशिलो॰30.8)
533    रौदा (= धूप) (बिजली के हीटर से उनका ओइसन सुकुन नई मिलऽ हल जैसन रमजानपुर में तेज रौदा में धान के पोआर पर बैठ के लगऽ हल । हियाँ लन्दन में ओइसन रौदा कहाँ । कभी-कभार रौदा होवऽ हल भी तो छोटे गो फ्लेट में गज दू गज तिरछा पतला धूपे मिले हल ।; हरखू दुनु बाप-बेटा जब खाना खाके, बरतन मांज के सब बट्टा में रख देलक औ दोसर खेत में जाके हर जोते ला बेटा के कह देलक तो करुणा के पुकार के कहलक कि ऊ अब वापस चल जाथ, काहे कि अब रौदा में ज्यादे देर तक रहे के बखत नई हे ।)    (मशिलो॰6.8, 9, 10; 90.1)
534    ल, ला, लगि, लागि, लागी (= लिए; काहे ~ = किसलिए) (हवाई जहाज पर चढ़े के पहिले बक्सा खोल के जब कस्टम वाला देखलक तो ओकरा ई बात समझ में नई आल कि ई मट्टी के ढेला काहे ला ले जा रहला हऽ ।; ई बात गुलाब के अच्छा लगल से दोसरे दिन सतीश क साथ बच्चा बाबू से मिले लागी दिल्ली गेल ।)    (मशिलो॰4.8; 24.3)
535    लगौनी-बझौनी (दुखिनी दाई थोड़ा लगौनी-बझौनी के काम भी करऽ हल । जहाँ बजार में जेवर के गिरमी पर तीन चार रुपया सैकड़ा बेयाज लगऽ हल, दुखिनी दाई दू रुपया सैकड़ा बेयाज ले हल । एकरा से लोग खुश रहऽ हल ।; अच्छा होवे कि खेत के रकबा के ऊपर पाँच रुपये बिघा चन्दा एकट्ठा कर लेल जाय । मगर जब ई बात होल कि जिनका खेत के अलावे सरकारी नौकरी औ बेहवार भी हे ओकरा से बेसी चन्दा लेल जाय तो हरि सिंह कहलका कि एकरा से विखाद बढ़त काहे कि ऐसन लोग भी तो हथ जे लगौनी-बझौनी करके बड़ी बेसी बेयाज में कमाई करऽ हथ ।)    (मशिलो॰16.4; 46.18)
536    लचारी (= लाचारी) (लोग अब कहे लगला हऽ कि भगत जी लोभी हो गेला हऽ, से कभी-कभी डइनी से घूस लेके ओकरा नचावे के पूजा ठीक से नई करऽ हका । ई भी अफवाह हे कि छिनरी भगत जी के खुश कैले रहऽ हे । मगर लचारी ई हे कि चौकोसी भागवत भगत जी ऐसन कोई जानकार ओझा हे भी नई ।)    (मशिलो॰45.8)
537    लत (= आदत) (कोई भी छूटे में बड़ी दिक्कत होवऽ हे । खैनी हो, भांग हो, दारू हो, बीड़ी हो, नस हो, ताड़ी हो - ई सब के लत जेकरा लग जाहे, चाह करके भी जल्दी नई छोड़ सकऽ हे । सोमर एकर अपवाद नई हल । ताड़ी पीये के एकरा ऐसन लत हो गेल कि बिना पीले चैन नई पड़े ।)    (मशिलो॰27.1, 3, 5)
538    लबनी (ऊ घड़ी मट्टी के बरतन में ताड़ी बिकऽ औ पीयल जा हल । एकरा से मट्टी बनावे वालन कुम्हार के रोजगार भी गाँव में मिल जा हल । से ताड़ी पीये औ रखे वाला बरतन ऊ घड़ी चार साइज में इस्तेमाल कैल जा हल । सबसे छोटा टकही, दू टकही के एक लबनी, दू लबनी के तरकट्टी औ चार तरकट्टी के घैला होवऽ हल । घैला आज भी प्रचलित हे ।; इनाम में जे नकदी पच्चीस रुपैया मिलल हल ओकरा सनीचरी के हवाले कैलक । शील्ड नीयर यादगार के रूप में तरकट्टी, लबनी, टकही औ ताड़ के पत्ता के दोना जे मिलल हल ओकरा तुरते मट्टी के घिसिन्डी नीयर बना के रख देलक ।; अखनी भी घिसिन्डी पर तरकट्टी, लबनी, टकही औ ताड़ के पत्ता के दोना रखल हे जेकरा पर विजेता सोमर खल्ली से लिखल हे ।)    (मशिलो॰33.8; 34.12; 42.6)
539    लमछल (= लमछड़) (हियाँ लन्दन में ओइसन रौदा कहाँ । कभी-कभार रौदा होवऽ हल भी तो छोटे गो फ्लेट में गज दू गज तिरछा पतला धूपे मिले हल । ई लमछल पतला धूप से शरीर के थोड़े भाग पर रौदा लगऽ हल । एकरा से की होवत हल, हियाँ तो समूचे देह में घंटा भर धूप लगऽ हल ।)    (मशिलो॰6.12)
540    लसलस (ई कहबे कइलका हल कि एगो चिपचिपा लस्सा से दुनु के गाल सट गेल, बड़ी मुश्किल से ऊ हटावल गेल । हाथ में ऊ लसलस लग गेल ।)    (मशिलो॰50.15)
541    लसोढ़ा (ई कहबे कइलका हल कि एगो चिपचिपा लस्सा से दुनु के गाल सट गेल, बड़ी मुश्किल से ऊ हटावल गेल । हाथ में ऊ लसलस लग गेल । बात ई हल कि कूआँ के बगल में एगो लसोढ़ा के पेड़ हल । कुछ दिन पहिले तेज हवा चलल हल से पक्कल लसोढ़ा के साथ-साथ टहनी कूआँ में गिर गेल हल । लसोढ़ा के फर जब पक जाहे तो थोड़ा पीयर लेले गुलाबी उज्जर रंग के हो जाहे । लसोढ़ा के फर के ऐसन आकृति से गौरांगी सुन्दरी के तुलना कैल जा सकऽ हे ।)    (मशिलो॰50.17, 18, 19, 21)
542    लस्सा (ई कहबे कइलका हल कि एगो चिपचिपा लस्सा से दुनु के गाल सट गेल, बड़ी मुश्किल से ऊ हटावल गेल । हाथ में ऊ लसलस लग गेल ।)    (मशिलो॰50.13)
543    लागी (= ल, ला, लगि, लागि) (जानवर तो निश्चित काल अवधि में यौनेच्चा करऽ हे, ई अदमी के जात तो ऐसन हे कि भोरे भिनसरवे, जाड़ा गर्मी, बरसात सब ऋतु में सभे के साथ यौनेच्छा के पूर्ति लागी जान देवे लगऽ हे ।)    (मशिलो॰59.9)
544    लाट (एकर बाद ई तै होल कि अब तो रामवदन जी खेत औ मकान बेच के भागवे करता । से ई जमीन ओही सब खरीदत जेकर लाट में पड़ऽ हे । चढ़ा-उतरी कोई नई करत तो मंगनी के मोल में जमीन मिलत, नई तो सबके वाजिब दाम देल पार नई लगत ।)    (मशिलो॰85.3)
545    लाती (= लात) (लाती मार दऽ, गारी दे दऽ कि गलती हो गेलो, कहलियो से वापस लेलियो । हम कह दे हियो अगर फेन ऐसन दिल जरावे वाला बात कहबऽ तो हमरा से बुरा कोई नई होतो ।)    (मशिलो॰87.18)
546    लुंडी (करुणा कुछ दूर हट के लुंडी के कपड़ा खोल के घास पर पसार देलकी औ ओकरे पर लोघड़ गेली । साड़ी के अचरा से मुँह झाप लेलकी ।)    (मशिलो॰89.12)
547    लेहाज (= लिहाज) (पाँच बरस पहिले तक कोई के मजाल नई हल कि रामवदन जी के ई खंढ से एक पत्ता भी तोड़ ले । ओकर वजह ई हल कि गाँव जवार में रामवदन जी के बड़ी धाक हल । बेला मोके सब के काम आवऽ हला, एकरा गुनी सब लेहाज करऽ हला । कुछ लोग इनका से डरऽ भी हला ।)    (मशिलो॰74.1)
548    लोग-बाग (हियाँ लन्दन में ओइसन रौदा कहाँ । ... उनका लगल कि ई गजबे देश हे जहाँ लोगबाग रौदा ला तरसऽ हे ।; सोमर कहे लगल कि लोग-बाग ठीके कहऽ हथ कि 'बिन घरनी घर भूत के डेरा ।'; लोग बाग उनका कहलक कि तू बेवा पर बड़ी जुलम कैलऽ हऽ । राड़ी के खाये-पीये पहने ओढ़े के अच्छा इन्तजाम नई कैलऽ, जिरी-जिरी चीज ला उमखा तरसैलऽ ।)    (मशिलो॰6.16; 40.2; 99.6)
549    लोर (= आँसू) (ओकर मन बारा जाये ला छटपटाये लगल । रात-दिन आँख में लोर भरल रहे । एकर लोर देख के राजू के भी दिल हिल गेल औ दोसरे दिन चटकल से छुट्टी लेके दुखिनी के बारा पहुँचा देलक ।; साड़ी के अचरा से मुँह झाप लेलकी । मुँह झापते सिसक-सिसक के रोवे लगली । लोर से अचरा भींग गेल । सिसकी के लोर न कोई देखलक औ न सुनलक, ऊ हवा में विलीन हो गेल ।)    (मशिलो॰12.14; 89.15, 16)
550    विखाद (= विषाद) (अच्छा होवे कि खेत के रकबा के ऊपर पाँच रुपये बिघा चन्दा एकट्ठा कर लेल जाय । मगर जब ई बात होल कि जिनका खेत के अलावे सरकारी नौकरी औ बेहवार भी हे ओकरा से बेसी चन्दा लेल जाय तो हरि सिंह कहलका कि एकरा से विखाद बढ़त काहे कि ऐसन लोग भी तो हथ जे लगौनी-बझौनी करके बड़ी बेसी बेयाज में कमाई करऽ हथ ।)    (मशिलो॰46.17)
551    विसाना (चले के तो चल गेल मगर सोचते गेल कि महेश ई की कहलका कि महेश खतम हो गेल । ... कभी-कभी मुँह के भख्खा बड़ी खराब होवऽ हे । अगर महेश के कुछ हो गेल तो ओकर पाप तो हमरे सिर विसात ।)    (मशिलो॰88.17)
552    सचेमुचे (मगर आज भी पुरखन के पुराना सिक्का गण्डा औ कौड़ी में गिने ला ऊ बेदम हे । गुलाब कहलक हऽ कि ऊ पाच औ बीस गण्डा पुराना सिक्का ला देत । ई सुन के दुखिनी बड़ी खुश हो गेल । ओकरा लगल कि ओकर सुख भोगे के दिन सचेमुचे आ गेल ।)    (मशिलो॰26.20)
553    सभे (= सब्हे; सभी) (एही मौत एक ऐसन चीज हे जेकरा बारे में कोई भी आदमी आज तक नई कह सकल कि ई कैसे होवऽ हे, काहे होवऽ हे, एकरा संचालन के करऽ हे । एकरा बारे में सभे बात कयास पर टिक्कल हे ।; ई कह के ऊ सब हीं गेल जेकरा हीं रुपैया बाकी हल । ई ऊ सब के बकड़ी, बाछा-बाछी, गाय-भैंस खोल के ले आल । शैतान से भगवान भी डरऽ हे, गुलाब औ सतीश के डर से सभे बाकी रुपया देके माल वापस ले गेल ।)    (मशिलो॰9.17; 18.3)
554    समाठ (ई दुनु भीतर के खपड़ा से छैलक । छोटे गो ओसारा भी बनल । मगर ई ओसारा फूस के हल जेकर ओठगन तीन गो बड़ा समाठ हल ।)    (मशिलो॰28.9)
555    सरियाना (एकर अलावे ई भी कहलका कि बाकी पैसा के चक्की गुड़ लेले अइहऽ । गुड़ के बड़ा कगज में एकहरे सरिया के बिछौना के नीचे रख देम तो कोई के पता नई चलत ।)    (मशिलो॰95.22)
556    सरुर (दू रुपैया के ताड़ी पीलक । पीला पर सरुर चढ़ल तो बाकी तीन रुपैया के भी ताड़ी पी गेल ।)    (मशिलो॰30.3)
557    सलाई (= दियासलाई, माचिस) (सनीचरी के नई रहे पर सोमर आवे वालन के सामने बीड़ी सलाई रख दे ।; ई सब गुनी इन्कर दलान पर हर समय दू-चार अदमी बैठल मिलवे करऽ हल । रात के दस-बारह अदमी ऊ दलान पर सुतऽ भी हल । सु्ते वालन के सुविधा लागी कुछ बन्डिल बीड़ी सलाई रखल रहऽ हल ।)    (मशिलो॰35.6; 76.19)
558    ससुरा (= ससुराल; एक अपशब्द या गाली) (जब सनीचरी के कोई तरह से ई बात मालूम भेल तो ऊ बड़ी चिन्ता में पड़ गेल । ओकरा लगल कि न नहीरे सुख न ससुरे सुख । ई घड़ी ओकरा ऐसन भी लगल कि बिना मरद के जनी के कोई कीमत नई हे ।; ऊपर वालन तकते लोगन के रामजी जोर से बोल के कहलक कि ई ससुरा लसोढ़ा हम दुनु के बीच बड़ी बाधा पैदा कर रहल हऽ ।)    (मशिलो॰38.14; 51.11)
559    सानी-पानी (महेश बाबू खेत के देख-रेख करे लगला । हरखू बूढ़ा हो गेल हल से ओकरा गाय बैल के सानी-पानी औ घर के देख-रेख करे ला रख लेल गेल ।)    (मशिलो॰100.5)
560    सिंघा (बहुत सा बेमेल बियाह में मन के ढोल औ हृदय के सरगम नई बजऽ हे केवल दोसर वादक ढोल-झाल सिंघा बजा के खुशी के झूठ इजहार करऽ हे ।)    (मशिलो॰54.4)
561    सिकड़ी (= साँकल) (मैनेजर जान के डर से तुरते चार लाख के गड्डी थम्हैलक । मैनेजर के कोठरी में बन्द कर देलक । डेरा में भी बाहर से सिकड़ी लगा के मोटर साइकिल पर रफू-चक्कर हो गेल । मैनेजर केस करत हल तो खुदे फँसत हल काहे कि एतना रुपइया के हिसाब ऊ कहाँ से देत हल ।; फाटक के लटकल सिकड़ी में बैल के बाँध के हर एक किनारे रखलका औ पाण्डेय जी के पाँव लगी कैलका।)    (मशिलो॰25.17; 43.15)
562    सिन्दुरिया (बढ़त जातीयता के कारण लोग इनका से दुर्भाव करे लगला । ई जात के सिन्दुरिया हला । रामवदन जी औ एक दोसर सिन्दुरिया के अलावे बाकी इनकर जात के लोग देहात में घूम-घूम के किया, टिकुली, सिन्दुर, नाखून पालिस, बाल उड़ावे के साबुन, मंजन आदि बेच के औकात गुजारी करऽ हला ।; अजादी के कुछ बरस के बाद वोट पावे ला राजनीतिक पार्टी के लोग सब जात-पात के भावना पूरा फैलैलका । कम संख्या वालन जात के लोग के बेसी जात वालन बात-गारी देवे लगला । सौदा बेचे वालन सिन्दुरिया सबसे जबर्दस्ती उधार लेके कीमत नई देवे लगला । मांगला पर पीट-पाट करे लग गेला । ई वजह से सिन्दुरिया औ अइसन-अइसन दोसर कम संख्या वालन जात के भय सतावे लगल ।; गाँव में तेली, सोनार, सिन्दुरिया, ब्राह्मण, कायस्थ, यादव, कोयरी, कुर्मी, दुसाध, बड़ही, मुसलमान, मुशहर रहऽ हला । करीब दू सौ घर के ई रमजा गाँव हल । मगर जैसे ही पाकिस्तान बनल, मुसलमान सब भाग के कलकत्ता चल गेला । पीछे आके खेत-पथारी बेचलका ।)    (मशिलो॰74.5, 16, 18; 77.1)
563    सिरिस (= शिरीष) (जज साहब लसोढ़ा कभी नई देखलका हल । वकील साहब उनखा बतैलका कि ई प्रजाति अब खतम हो रहल हऽ । पहिले सड़क के किनारे एने ओने फनेला, लसोढ़ा, इमली, आम, सिरिस, कहुआ आदि देशी पेड़ लगऽ हल जेकरा में औषधीय गुण भी हल ।)    (मशिलो॰57.1)
564    सिर्री (~ चढ़ना) (महेश बाबू के कठोर वचन कह के हम ठीक नई कइली । न मालूम कभी हमरा की हो जाहे कि जरा सा हम्मर खिलाफ जे कुछ विपरीत बात बोलऽ हे तो हमरा सिर्री चढ़ जाहे । औ ओकरा पर बरस पड़ऽ ही ।)    (मशिलो॰93.1)
565    सिसकी (साड़ी के अचरा से मुँह झाप लेलकी । मुँह झापते सिसक-सिसक के रोवे लगली । लोर से अचरा भींग गेल । सिसकी के लोर न कोई देखलक औ न सुनलक, ऊ हवा में विलीन हो गेल ।)    (मशिलो॰89.16)
566    सीकड़ (= सिक्कड़) (खाली एगो कूआँ बचऽ हल जेकरा में मरल जा सकऽ हल । कूआँ के बाल्टी में लगल एगो सीकड़ हल, सीकड़ ऊपर में सीमेन्ट से जैन कैले हल । केवल छो-सात इंच के मुड़ेरा हल । मुड़ेरा में पिछुल जाय के बहाना से ऊ सीकड़ के सहारे कूआँ के पानी में मरे ला चल गेल ।)    (मशिलो॰49.18, 20)
567    सीक्का (= सिक्का, सिकहर, छींका) (ऊ खुशी-खुशी पाँच सौ रुपैया देके दूगो पइया कागज पर दुनु के हाथ के टिप्पी ले लेलका । उनका लगल कि बिलाई के भाग से सीक्का टूटल ।)    (मशिलो॰41.12)
568    सुकुन (फौज में जब कभी गाँव के ख्याल आवऽ हल ई मट्टी के जरा सा छू के देह में इत्तर नीयर लगा ले हला । एकरा से उनका बड़ी सुकुन मिलऽ हल ।)    (मशिलो॰4.1)
569    सुखड़ा (ई जे कम्पटीशन होल एकरा में ताड़ के पत्ता के दोना पीये ला रक्खल गेल । चखना लागी बूँट के सुखड़ा देल गेल । एकरा में पाँच पीयाँक जुटला ।; सोमर सूख के काँटा हो गेल हल काहे कि खाये पीये के कोई ठेकाना नई हल । बूँट के सुखड़ा औ ताड़ी बस एही एकर खोराक हल ।)     (मशिलो॰33.18; 39.7)
570    सुख्खल (= सुक्खल) (ई छोटका बाबू सादा जीवन जीये के उपदेश देहे । मकई के सुख्खल रोटी आउर कच्चा मिचाई निमक खाइला, बस । ई गुनी ई अच्छा हे कि हरेन्द्र के गोद ले लेल जाय ।)    (मशिलो॰98.16)
571    सुटकल (~ रहना) (मजबूत जात के लोग पइन, नहर भर के अप्पन खेत में मिला लेलका । धींगामुस्ती एतना बढ़ गेल कि कमजोर लोग सुटकल रहे लगला ।)    (मशिलो॰77.15)
572    सुतना (= सोना) (ई सब गुनी इन्कर दलान पर हर समय दू-चार अदमी बैठल मिलवे करऽ हल । रात के दस-बारह अदमी ऊ दलान पर सुतऽ भी हल । सु्ते वालन के सुविधा लागी कुछ बन्डिल बीड़ी सलाई रखल रहऽ हल ।)    (मशिलो॰76.18)
573    सुत्तल (एही क्रम में एक दिन अइसन होल कि कुद्दी के कुछ रुपैया चौकी से नीचे पत्थर के पसेरी पर गिर गेल जेकरा से झन से आवाज निकस के बगल के कोठरी में सुत्तल गुलाब के जगा देलक ।)    (मशिलो॰19.17)
574    सुभाव (= स्वभाव) (भतीजा सब के लाम तो ओकन्हीं सब के जैसन सुभाव हे ऊ सब हम्मर खेत के अप्पन नाम से लिखावे लागी ही बेदम रहत ।)    (मशिलो॰91.6)
575    से (= सो, वह; इसलिए) (खैर, पोता के मुँह-देखाई में की देता एकर चिन्ता उनका हो गेल । सोचते-सोचते सोचलका कि सोना के पुराना लौकेट जे धइल हे से ही ले जैता ।; पोता के मोह उनका ऊ बीच पर जादे देर ठहरे में बाधक हल, से ऊ जल्दीये डेरा वापस अइला ।; दुखिनी के माई बाप चाहऽ हला कि दुखिनी के ऐसन लड़का से बियाह कैल जाय जे घरजमये रह सके । से कलकत्ता के चटकल में काम करे वाला गरीब घर के लड़का से दुखिनी के बियाह कर देल गेल ।)    (मशिलो॰3.17; 7.21; 11.5)
576    सोचना-साचना (सोचलक कि एकरा बेच के ऊ पोटरी में नइका रुपैया रख देम । सोच-साच के अंग्रेजे के बखत के पचास के दशक में बनल दुदलिया रुपैया जेकरा में पुरनका सिक्का के तेरह आना फी भरी चांदी के बजाय चार आना भर चांदी रहऽ हे, खरीद के ओही पोटरी में रख देलक ।)    (मशिलो॰21.18)
577    सोनार (दुखिनी दाई के बाप राम बाबू के हियाँ सोनारी करऽ हला । सोनारी के मतलब ऊ घड़ी ई हल कि जेतना अनाज बिकऽ हल ओकर वजन सोनार करऽ हला ।)    (मशिलो॰20.16)
578    सोनारी (दुखिनी दाई के बाप राम बाबू के हियाँ सोनारी करऽ हला । सोनारी के मतलब ऊ घड़ी ई हल कि जेतना अनाज बिकऽ हल ओकर वजन सोनार करऽ हला ।)    (मशिलो॰20.14, 15)
579    सोहागरात (= सुहागरात) (अखबार में कैमरा के कैद कैल फोटू छप गेल । मानसिक संतृप्ति के गोद में सोहागरात भावुकता औ मादकता पूर्ण माहौल में मनावल गेल ।)    (मशिलो॰66.6)
580    हँकाना (= जोर से पुकारना) (माथा पर से खाई के बट्टा उतार के हरवाहा हरखू माँझी के हँकैलक औ कहलक कि तू दुनु बाप-बेटा के खाई हो से ले जा । हरखू बोलल कि पाँच-सात मिनट में ई खेत के हरवाही खतम हो जात, ओकर बाद खैबो ।)    (मशिलो॰89.8)
581    हमन्हीं (= हमलोग) (दोसर बोलल कि ठीक भाई । ई सब अल्पसंख्यक जात वालन हमन्हीं के लड़ावऽ हे औ अप्पन रोटी सेकऽ हे ।; आखिर हमन्हीं के जात में कौन खूबी हे कि विधवा बियाह नई होवऽ हे ।)    (मशिलो॰84.12; 87.15)
582    हमरा (= मुझे, मुझको; ~ से = मुझसे) (राजू ओकरा नहिरा जाये देवे ला तैयारे नई हल । कहऽ हल कि जब तोर माई-बाप अपने पास रखे ला चाहऽ हला तो हमरा से बियाह काहे ला कैलका । तोरा कुमारे रखता हल, लंगड़ा काना से बियाह करके ओकरो साथ रखता हल ।; गाँव के छोटका डाक्टर कहलक कि इनकर बीमारी हमरा से नई सँभलतो, बड़ा डाक्टर से शहर ले जाके देखलावऽ।)    (मशिलो॰12.6, 19)
583    हम्मर (उनका लगल कि एक हम्मर देश हे जहाँ ऐसन धूप रोजे रहऽ हे, एक ई जहाँ धूप उगला पर जशन मनावल जाहे ।)    (मशिलो॰7.16)
584    हर (= हल) (किसान सब सोमर के ई गुनी मानऽ हला कि हर जोते में ई हाबिर हल । खेत के मट्टी केतनो कड़ा रहे, केवाल रहे ओकरा जोत के भूर्रा बना दे हल ।; हरि सिंह कंधा पर हर औ दूगो बैल के पगहा पकड़ले खेत जोते जा रहला हल कि खड़ाऊँ के चटचट अवाज से इनका अहसास हो गेल कि पाण्डे जी बुल रहला ह ।)    (मशिलो॰27.10; 43.9)
585    हरदी (= हल्दी) (ऐसन लोग जब उधार नई लौटइलक तो दोसर के भी मन बढ़ गेल । धीरे-धीरे दुखिनी दाई के टुटपुंजिया दोकान के पूंजी-रूंजी खतम हो गेल । अब ऊ खाली निमक, हरदी, मिरचाई, आलू औ पत्तल बेचे लगल ।; जाये बखत सास कहलकी कि पानी पावे बखत ऊ ऐती औ घर सम्हार देती काहे कि नया पानी पावे बखत एगो बूढ़-पुरनिया के रहना जरूरी हे । ऊ हिदायत करते गेली कि भारी चीज नई उठावथ औ कटहर, हरदी के हलुआ, आम बगैरह नई खाथ, दूध खूब पीयथ ।)    (मशिलो॰16.2; 67.2)
586    हरवाहा (जब सोमर हर पर हाथ धैलक तो मरकुट्टा बैल भी सर-सर चले लगे औ खेत के जमीन जोता के बुकनी बन जाय । दोसर किसान ई देख के कानाफूसी करे लगल कि फलनमा किसान के भाग तेज हे कि सोमर ऐसन हरवाहा उनखा मिल गेल ।; माथा पर से खाई के बट्टा उतार के हरवाहा हरखू माँझी के हँकैलक औ कहलक कि तू दुनु बाप-बेटा के खाई हो से ले जा । हरखू बोलल कि पाँच-सात मिनट में ई खेत के हरवाही खतम हो जात, ओकर बाद खैबो ।)    (मशिलो॰42.1; 89.8)
587    हरवाही (माथा पर से खाई के बट्टा उतार के हरवाहा हरखू माँझी के हँकैलक औ कहलक कि तू दुनु बाप-बेटा के खाई हो से ले जा । हरखू बोलल कि पाँच-सात मिनट में ई खेत के हरवाही खतम हो जात, ओकर बाद खैबो ।)    (मशिलो॰89.10)
588    हाबड़ (= हाबिर) (सनीचरी के रख के खिलावे के ओकरा औकात नई हल । ई गुनी सनीचरी के एगो भीतर रहे ला दे देलक । सनीचरी काम करे में हाबड़ हईये हल से निकौनी, कोड़नी, अनाज फटके, गोयठा ठोके के काम करे लगल ।)    (मशिलो॰37.14)
589    हाबिर (किसान सब सोमर के ई गुनी मानऽ हला कि हर जोते में ई हाबिर हल । खेत के मट्टी केतनो कड़ा रहे, केवाल रहे ओकरा जोत के भूर्रा बना दे हल ।)    (मशिलो॰27.10)
590    हायली-मोहायली (ई तो खुल्लमखुल्ला सब के सामने बोलते रहऽ हला कि ऊ फलने के वोट देता, दोसर के नई । हायली मोहायली के भी कहता कि फलनमा चूकि सब उम्मीदवार में बढ़ियाँ हे से गुनि ओकरे जितावे के चाही ।)    (मशिलो॰78.6)
591    हारना-पारना (रात दिन के खिजखिज से सनीचरी ऊब गेल । ओकरा लगे कि जमीन फट जाय तो ओकरा में ऊ समा जाय, कूआँ या तालाब में डूब मरे । मगर बुधिया के देखे तो ऐसन करे के विचार हवा हो जाय । हार-पार के एक दिन उठल औ बुधिया के साथ लेके नैहर चल गेल ।)    (मशिलो॰37.8)
592    हिदायत (कुछ महीना बाद उनका मालूम होल कि सविता के गोड़ भारी हे, से सम्भावित पोता या पोती के गुनी फेन करमचन्द हीं आके कुछ दिन रहला । जाये बखत सास कहलकी कि पानी पावे बखत ऊ ऐती औ घर सम्हार देती काहे कि नया पानी पावे बखत एगो बूढ़-पुरनिया के रहना जरूरी हे । ऊ हिदायत करते गेली कि भारी चीज नई उठावथ औ कटहर, हरदी के हलुआ, आम बगैरह नई खाथ, दूध खूब पीयथ ।; रामजी के भी दुनु पार्टी के लोग हिदायत कैलक कि मार होला के बाद ऊ रामवदन जी के अस्पताल पहुँचा देलका, से ठीक हे मगर पुलिस अब मुकदमा आगे नई बढ़ावे, फाइनल के रूप में एकरा खतम कर देल जाय । ओइसने होल भी ।)    (मशिलो॰67.1; 85.18)
593    हियाँ (= यहाँ) (हियाँ लन्दन में ओइसन रौदा कहाँ ।; तुरते ओकरा खेयाल आल कि गुलाब कहीं देख लेलक तो बड़ी खराब होवत । से काहे नई ई थाती के बड़घरिया के राम बाबू के हियाँ कुछ दिन ला थाती के रूप में रख देवल जाय ।; उनकर लड़कन कहलक कि घर-मकान बाकी खेत खंढ बेच के शहरे चल चलऽ । मगर रामवदन जी औ उनकर मेहरारू एकरा ला तैयार नई होला । रामवदन जी कहलका कि हम हियें जलमलियो हऽ, हियें मरवो ।)    (मशिलो॰6.9; 20.11, 14; 75.11, 12)
594    हीं (= यहाँ, के पास) (ई कह के ऊ सब हीं गेल जेकरा हीं रुपैया बाकी हल । ई ऊ सब के बकड़ी, बाछा-बाछी, गाय-भैंस खोल के ले आल । शैतान से भगवान भी डरऽ हे, गुलाब औ सतीश के डर से सभे बाकी रुपया देके माल वापस ले गेल ।; ओही बाबू साहब के बेटा रामू बाबू हीं रुपैया के पोटरी के थाती रख आल ।)    (मशिलो॰17.22; 21.7)
595    हीं-हीं (~ करके हँसना) (एक दिन रात में बुधिया औ सनिचरी दुनु के मुँह में सुत्तल में ताड़ी ठूँस देलक । दुनु अकबका के उठल तो सोमर हीं हीं करके हँसे लगल । जब दुनु माई बेटी ओ ओ करे लगल तो सोमर जोर से भभा के हँसल औ बोलल कि तू कहते रहँ हँ कि ताड़ी बेकार चीज हे ।)    (मशिलो॰29.6)
596    हुआँ (= वहाँ) (एकाध साल तो ई दिल्ली में रहला । ओकर बाद इनका इंग्लैंड भेजल गेल । अप्पन काम से हुआँ अच्छा जगह बना लेलका ।)    (मशिलो॰1.20)
597    हेलना (= घुसना) (गुलाब औ सतीश के ई बात मालूम हल कि घूस के सभे रुपैया मैनेजर अप्पन डेरे में रखऽ हे । बैंक में रखे में भेद खुल जाये के औ पकड़ा जाये के खतरा हल । से एक दिन गुलाब, सतीश औ तीसर घूस देवे वाला गौर-गट्ठा कैलक । तीनो गलमुच्छा बांध लेलक औ मोटर साइकिल पर चढ़ के मैनेजर के डेरा में धड़धड़ा के हेल गेल ।; डेढ़ बरस पहिले चारो तरफ नकफेनी के काँटा लगल हल । पर जहाँ-तहाँ छीहर काँटा रहे से गाय-बकरी औ कभी-कभार अदमी भी हेल के लत्ती बरबाद कर दे हल ।)    (मशिलो॰25.11; 73.12)
 

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