मज॰ = "मगही जतरा", सम्पादक - डॉ॰ भरत सिंह एवं डॉ॰ चंचला कुमारी; प्रकाशक - कला प्रकाशन, बी॰ 33 33 ए - 1, न्यू साकेत कॉलनी, बी॰एच॰यू॰, वाराणसी-5; प्रथम संस्करण - 2011 ई॰; 144 पृष्ठ । मूल्य – 350/- रुपये ।
देल सन्दर्भ में पहिला संख्या पृष्ठ और बिन्दु के बाद वला संख्या पंक्ति दर्शावऽ हइ ।
कुल ठेठ मगही शब्द-संख्या - 924
ई मगही जतरा में कुल 22 यात्रा-विवरण हइ ।
क्रम सं॰ | विषय-सूची | लेखक | पृष्ठ |
0. | अप्पन बात | सम्पादक | v - viii |
0. | विषयानुक्रमणिका | सम्पादक | ix - x |
1. | जे घटना आज भी ताजा हे | अलखदेव प्रसाद 'अचल' | 11-14 |
2. | हवा से बात करइत | अजय | 15-17 |
3. | सरग के दुआर पर दस्तक | डॉ॰ उमेश चन्द्र मिश्र 'शिव' | 18-24 |
4. | झटके से एगो झलक दिल्ली के | उमेश प्रसाद | 25-31 |
5. | महापाप ! घोर अन्याय ! | श्री के॰एन॰ पाठक | 32-36 |
6. | नजारा निजाम नगरी के | डॉ॰ किरण कुमारी शर्मा | 37-44 |
7. | जब हम रजरप्पा गेली हल | डॉ॰ चंचला कुमारी | 45-47 |
8. | संस्कृति के चरनामृत | चन्द्रावती चन्दन | 48-51 |
9. | मगध से मथुरा | जयनन्दन सिंह | 52-56 |
10. | जतरा कलकत्ता के | परमेश्वरी | 57-73 |
11. | हम्मर महाभिनिष्क्रमण | डॉ॰ बृजबिहारी शर्मा | 74-82 |
12. | जब हम अमरनाथ गेली | डॉ॰ भरत सिंह | 83-86 |
13. | खस्ता खाजा के मिठास | मिथिलेश | 87-97 |
14. | धनरूआ के लिट्टी | नरेन | 98-102 |
15. | मंसूरी में तीन रात | रामचन्दर | 103-106 |
16. | बुलावा अमरनाथ के | डॉ॰ शंभु | 107-112 |
17. | हम्मर अंग जतरा | शोभा कुमारी | 113-117 |
18. | सहीदन के सहर में | डॉ॰ सच्चिदानंद प्रेमी | 118-124 |
19. | जतरा माउन्ट आबू के | डॉ॰ शेष आनंद मधुकर | 125-127 |
20. | कलकत्ता-जतरा | डॉ॰ शिवेन्द्र नारायण सिंह | 128-134 |
21. | गेली काठमांडू घूमे | डॉ॰ सीमा रानी | 135-140 |
22. | चेरापूँजी के जतरा | डॉ॰ खिरोहर प्रसाद यादव | 141-144 |
320 छगुनना ('बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी' कहइत मेहरारू के बोधली अउ 'दिवस जात नहिं लागहिं बारा' अरधाली मने-मन छगुनइत ससुर जी के गोड़ लग घर से बहरा गेली ।) (मज॰83.24)
321 छछुन्नर (ऊ मजदूरनी के पति हमरा गरियाबो लगल - साला सूझऽ न हौ ? तोरा माय-बहिन नै हे ? हाथ-बाँहि पकड़ लेलें ! तोर ... औरत गरियाबो लगल - भँगलाहा ! हमरे पर गिर गैलो । दुर्रर ने जाय छछुन्नर ! तनी एक लाज नै ?) (मज॰62.17)
322 छतन (= शतम्) (~ जी = शतम् जीव; सौ साल जीओ) (कानइत बुतरूआ के चुप करइत माय । जरलाहा मरियो न जाय । कि बुतरूआ के आ जा हइ छी । मइया छतन जीओ ।) (मज॰27.15)
323 छनन-मनन (टमटम पर चढ़ गेलूँ दुन्हू बेकत । अप्पन टमटम में घोड़ी हल कि घोड़ा ऊ तो न देख पइलूँ मुदा गोड़ में घुँघरू बाँधले छनन-मनन करते हमर टमटम चलल । हँकमान बढ़ियाँ आदमी हल । मीठगर बात से हमरा गाइड भी कर रहल हल ।) (मज॰121.26)
324 छम्मा (= छोम्मा; छठा) (तीन-चार दिन हो गेल, बोखार निनाबे से नीचे नै आवे । ... छम्मा दिन बोखार हड़हड़ा के नीचे आ गेल छियानवे ।) (मज॰70.30)
325 छह-छह (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।) (मज॰28.6)
326 छाड़न (गंगा के लघु धारा में नाव पर चढ़लियो अउ दियारा यानी गंगा के छाड़न में तहिना के जतरा के पर्यवसान होलो ।) (मज॰81.30)
327 छान-छप्पर (संतोख भेल ... चलऽ, अभी कवि-सम्मेलन न नधाल हे । स्वर के तो पांखि होवऽ हे, जे छान-छप्पर फानि, नदी-नाला टपि हवा संग असमान खिंड़ऽ हे, बकि उद्गम स्थल तक जाय ले तऽ हमनी के गोड़ घिसियाना बाकिये हल ।) (मज॰94.4)
328 छावा (टेहुना छावा भर पानी के धीमा धार, ऊ भी दिल्ली सहर के नाला के दो पानी के अलावा यमुना माय के अप्पन नीर रत्तियो भर नञ् देखे ले मिलल ।; ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी ।) (मज॰27.22; 90.25)
329 छिपगर ("मीठा हे ? ..." रवि शास्त्री जीभ निकाल के इन्कार के मुद्रा में जोर-जोर से माथ हिलयलन - "न्ना-न्ना-न्ना । मीठा नय ।" अच्छा, तऽ फिट-फाट रहे के ई राज हे इनखर । खाय-पीये पर एतना परहेज । तभिए बेंत जइसन छिपगर बनल हथन ई उमर तक ।) (मज॰101.19)
330 छिपनय (अकास में बादल अउ सूरज के लुकाछिपी जगजाहिर हे, मुदा कत्ते परवत सरेनी के बीच से सूरज के निकसनय छिपनय देखे के आनन्द कुछ अउर हे ।) (मज॰23.31)
331 छिपली (मुदा राजा के मुकुट, तलवार, रंग-बिरंगी पिरकदानी, मखमल के आसन, परात, छिपली के रख-रखाव कउनो खासमन के मोहे जोग हे ।; ऊहे सोनहुलिया झकास में हमर श्रीमती जी एक्के थारी में दाल के कटोरी, सब्जी के छिपली अऊ चार चपाती टेबुल पर रखि देलन ।) (मज॰29.15; 32.17)
332 छिप्पी (= छिपली, छिपुली; छोटी थाली; तश्तरी, कस्तरी) (तब तक एक पतिला में करीब दू किलो रसगुल्ला आ गेल । हमरा दुइयो के दू छिप्पी पर चार-चार रसगुल्ला, बड़गर-बड़गर मिल गेल ।) (मज॰71.31)
333 छी (= आक् छीं) (कानइत बुतरूआ के चुप करइत माय । जरलाहा मरियो न जाय । कि बुतरूआ के आ जा हइ छी । मइया छतन जीओ ।) (मज॰27.14)
334 छुँछी (नाक में दूनो तरफ बड़का-बड़का छुँछी अउ बुलाकी पेन्हले हलै ।हाँथ में केहुनी तलक मोटा-मोटा लाह के चुड़ी पेन्हले हल ।) (मज॰50.5)
335 छोकड़ा (रिक्सा लगइते एगो छोकड़ा आल अऊर हम्मर मीत के झोला उठा लेलक ।) (मज॰129.3)
336 छोटकी (~ ननद) (कनफूल, माला, अँगूठी, चूड़ी सभे भरी से तौल के, सुच्चा मोती के । जेबी के धियान रखले कुछ अपना ले, कुछ छोटकी ननद-गोतनी ले भी ।) (मज॰44.8)
337 छोटगर (रस्ता में टैक्सी रूकल । पकौड़ी आउ चाय के दोकान के छोटगर चट्टी रहे । टैक्सी से उतरली तऽ नजर अलकतरा के सड़क आउ जगमगायत बिजली के रोसनी पर पड़ल ।) (मज॰103.17)
338 छोट-मोट (टीसन से थोड़े दूरी पर कोतवाली चौक भीर छोट-मोट एगो ढाबा में दही अउ चूड़ा खइली ।) (मज॰113.10)
339 छोहाड़ा (चाय गढ़गर दूध आउ चीनी से मीठ गुरांठ पी के मन सनुठ कइलूँ । लगले थोड़े देर में प्लेट में काजू किसमिस, गड़ी छोहाड़ा के नास्ता भी मिलल ।) (मज॰28.23)
340 ज (= जे) (टीसन से बहरी अइली ज इयाद पड़ल कि सेनन्दन चा कहलन हल कि कोय रिक्सेवान से बोलवऽ कि रूखरियार साहेब के इहाँ जाय ला हे तो पहँचा देतवे ।) (मज॰12.15)
341 जइसन (दर दिहा, दूरदराज से आवेवलन के इहाँ कम पैसा में हेलिकॉप्टर पर घूमे जइसन आनंद भी पन्द्रह-बीस मिनिट में मिल जा हे, जब उड़नखटोला पर बइठ के मंसा आउर चण्डी माता के दरसन खातिर लोग जा हथ ।; रिसिकेस - जइसन नाम ओइसन गुन । अनगिनत मठ मंदिर, आसरम, गंगा मइया के अथाह गहीड़ धारा पर बिना पाया केबुल हे, नाम हे रामझूला, लच्छमन झूला ।) (मज॰19.17; 20.6)
342 जउर (= साथ, इकट्ठा) (आन्ध्रप्रदेश के राज्यपाल महोदय परिवार सहित अयलन हल, उनखे जउर हो गेलूँ हमनी ।; मन मतंगी कवि सब के जउर करना, बेंग के पलड़ा पर चढ़ाना हे ।) (मज॰40.19; 87.6)
343 जउरात (हम अउ हम्मर जउरात ईश्वर प्रसाद मय जी जे दिल्ली के सड़क, नदी यमुना, भिखमंगा के जमघट लगल भीड़ से अस्त-व्यस्त धुरिया-धुरान सड़क अउ कास के रंगन रंगन के काँटा झाड़ी टापू मरुभूमि बनल हे ।) (मज॰27.20)
344 जउराती (हमर फूल के पइसा 'मालिक' देलन हल, ई देखको फूलवाली मुसुक गेली हल, हम नय बुझलूँ एकर माने । जे मेहरारू एकसरे हली से अप्पन पइसा अपने देलकी हल । एगो के पइसा उनखर जउराती देलक हल, से तरे नजर से उनखा घूर रहल हल, कत्ते नजारा ।) (मज॰42.11)
345 जउरे (= जौरे, साथ) (हमनी सातो जउरे हलूँ से नध गेल 'मगही' । पिछलका सीट पर मराठी हलन, पूछलन - 'आप भोजपुरी बोलता ?' उनखा जबाब देलूँ - "जी नय्, ई 'मगही' हइ । ओकर आँख फट गेल अचरज से ।) (मज॰39.13)
346 जक्सन (= जंक्शन) (चिट्ठी पढ़ते हम्मर मन खिल गेल अउ हमहूँ हैदराबाद जाए ला तइयारी में जुट गेली । दु दिन के बाद कलाकार के जमौड़ा पटना जक्सन पर लगल ।) (मज॰48.11)
347 जगत्तर (घर भात तऽ जगत्तर भात !) (मज॰90.12)
348 जजइ-तजइ (= जज्जा-तज्जा, जज्जे-तज्जे) (सड़क के किनारे फूल, गमला, गजला, लरी सजयले बूढ़ो जन्नी जजइ तजइ दिखो लगली ।) (मज॰42.5)
349 जजा (= जज्जा, जिस जगह) (बस्ती से बढ़लूँ, आगू अस्पताल हल, लईन लगल भीड़ । गाड़ी रूकल । लईन में रोगी नय्, स्वस्थ लोग हला । अचरज होल, सभे के हाथ में स्वास्थ्य-कार्ड । हर सप्ताह जाँच के तिथि, समय तय हल एकरा में । जे मजूरा जजा कमा हल, ओजय केन्द्र पर जाके जाँच करा ले हे ।) (मज॰43.6)
350 जड़ी (= जड़) (हम उत्साहित हो के उनखा पास दू-तीन तरकट्टी ताड़ी आऊ भेजबइनूँ अऊ एन्ने हमरा साथे पंकज विष्ट चुक्को-मुक्को तार के गाछ के जड़ी तर बइठल पासी के सामने एक के बाद एक तीन-चार तरकट्टी खाली कर देलन ।) (मज॰101.7)
351 जत्ते (= जितना) (हम कहलों - माय-बहिन तो कहैत-कहैत थक गेलों । माय-बहिन चण्डालनी हो जाय तब कि उपाय ? अब तोरा आर जत्ते मारै-पीटै के होवों, मारें । जान तो नै ने जायत ? पौदान पर हम्मर जान चल जायत हल ।) (मज॰62.18)
352 जनाना (= दिखाई देना) (गाड़ी बढ़ रहल हल कि बोर्ड जनाल - 'बिरला तारामंडल' ।; सड़क अइसन चिक्कन अउ साफ कि सुइया गिरे तऽ जना जाय ।) (मज॰40.7; 109.23)
353 जनु (ईहे बीच मोबाइल टनटनाल । लपकि के उठइलूँ सोंचइत ... जनु आवइ के सनेस हे बकि आवाज हल डॉ॰ भरत के, "कहाँ हथिन ?") (मज॰88.29)
354 जने (= जन्ने; जिधर) (~ ... ओन्नै) (जने निहारूँ ओन्नै सड़क के किनारे अनेकन जंगली जानवर के कार्टून बनल लगे कि अब बोलत कि कब दौड़त ।) (मज॰28.11)
355 जने-तने (= जन्ने-तन्ने) (घूमयत-फिरयत थकान महसूस भेल, पानी पिए ल परेशान पियास से व्याकुल जने तने पानी तलासलूँ, मुदा कजइ कुछ नञ् ।) (मज॰29.19)
356 जन्नी (= औरत) (सड़क के किनारे फूल, गमला, गजला, लरी सजयले बूढ़ो जन्नी जजइ तजइ दिखो लगली ।) (मज॰42.4)
357 जन्नी-मरदाना (जन्नी-मरदाना, बुतरू-बूढ़ा, छौड़ा-छौड़ी सभे - 'राधे-राधे', लगो हल सारी मथुरा राधा के प्रतिमान बन के कान्हा के दिवानी हो गेल हल ।) (मज॰54.12)
358 जपानी (= जापानी) (एक जगह जपानी भी नजर आव हे यानि ऊ समय तक बुद्ध के सनेस जापान तलक पहुँच गेल हल ।) (मज॰17.4)
359 जमौड़ा (= जमावड़ा) (चिट्ठी पढ़ते हम्मर मन खिल गेल अउ हमहूँ हैदराबाद जाए ला तइयारी में जुट गेली । दु दिन के बाद कलाकार के जमौड़ा पटना जक्सन पर लगल । (मज॰48.11)
360 जरलाहा (कानइत बुतरूआ के चुप करइत माय । जरलाहा मरियो न जाय । कि बुतरूआ के आ जा हइ छी । मइया छतन जीओ ।) (मज॰27.13)
361 जलेबिया (~ राह; ~ रोड) ('फाटा' के बाद आवऽ हे 'सोन प्रयाग' एक्के तरह के परवत, एक्के तरह के जंगल, पेड़-साँप जइसन टेढ़-मेढ़ जलेबिया राह ।) (मज॰22.26)
362 जवनय-अवनय (केदारनाथ के दुरगम जतरा जे नय कर सको हय उनखरा खातिर हेलिकोप्टर । ... एकर किराया मई 2009 में 7 हजार हल जवनय-अवनय दुन्हू तरफ के ।) (मज॰22.24)
363 जसिन (= जइसन) (करीब छे बजे गाड़ी टीसन से खुल गेल त संतोष भेल बाकि हमर ई अनुभव न हल कि मेल के फेरा में गाड़ी एत्ते देर तलक टीसन पर खाड़ रहत । दू तीन जगह मेल देवे के फेरा में आ करीब आधा दर्जन बेर भैकम कटे से हमर जतरा पंचर साइकिल जसिन लौके लगल ।) (मज॰12.11)
364 जहमा (= जहाँ) (सुरेश हमरा उहे ठमा पहुँचा देलक जहमा सब जौर हला ।) (मज॰67.16)
365 जाजिम (= गद्दा, दरी आदि पर बिछाने की बड़ी चादर; बेल-बूटेदार अथवा रंगीन बड़ी चादर) (बड़-बड़ हॉल हे, नीचे दरी, जाजिम बिछल हे, चाय, नास्ता, भोजन के मुफ्त सरेजाम हे ।) (मज॰85.14)
366 जान-पछान (इनखा से हमर जान-पछान अण्डमन-निकोबार के समुद्री सैर के क्रम में जहाज पर भेल हल ।) (मज॰34.4)
367 जिनगी (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी ।) (मज॰52.12, 13)
368 जिब्भी (थैला भी सरियावे के हे । जिब्भी भी नये मँगइलूँ हल । छोट लड़का 'शिशु' के हँकइली, "ब्रश-जिब्भी भी थैला में रखि दऽ । एगो चद्दर आउ ... ।" हम बतइते गेली आउ ऊ सरियावइत गेल ।) (मज॰89.26, 27)
369 जिलेबिया (गाड़ी कुछ देरी उपरहीं चढ़इत गेल ओइसने घूमघुमउआ जिलेविया सड़क पर । हमरा कोडरमा घाटी के इयाद आ रहल हल, पहिल तुरी राँची जाय में मिलल हल ।) (मज॰110.3)
370 जुआड़ (= जुगाड़, जोगाड़; उपाय, युक्ति) (चउअन-पचपन वसंत तलक जीनगी में दिल्ली देखे के सपना सपनाइत रहलूँ । मुदा कउनो जुआड़ नञ् सूझऽ हल ।) (मज॰25.2)
371 जुगुत (= जुगत, युक्ति) (घर के राह में खाय खातिर मगहिया भूँजल चूड़ा, चिनियाँबेदाम के दाना व गुड़ जुगुत करके दे देलन हल ।) (मज॰25.17)
372 जेकरा (सब्हे शास्त्र, पढ़ल पंडित, ग्यानी के कहनय हे कि दुनिया भर में ग्यान पावे के सिरिफ पाँच गो साधन हे, जेकरा में सबसे पहिले अउर जादे महातम हे - जतरा के, देस-विदेस घुमनय के यानी देसाटन के ।) (मज॰18.2)
373 जेजा (= जजा, जिस जगह) (महल में प्रवेश कइला पर गाइड ऊ जगह ले गेल जेजा शिवाजी के कैद कर रख लेल गेल हल मुदा आझ ऊ कोठरी गिर-पड़ गेल हे, खाली कोठरी के नीव के ईंटा हे ।) (मज॰17.22)
374 जेभी (= जेब, धोकड़ी) (हम आतुर-सन कहली, "देबो ! निकालि दा ।" -"पहिले धरो ।" मन में खुटपुट्टी उरम्हल ... कहँइ लेके चमकि ने दे ... की करम ? कोय चारा नञ् देखि हम जेभी से निकालि के नमरी बढ़ा देली ।) (मज॰92.28)
375 जै ठाकुर (~ करना) (सीधमाइन सुजाता बेचारी अकबकाल फिन से चुल्हा सुलगइलकी । बाकि हम रही नयका बटुक । तब तक खीर पर हाथ फेर देलूँ हल । दू-तीन जने आउर 'जै ठाकुर' कर देलका हल । विष्णुदेव भाई जौरे तीन-चार जन आउ भी गो-रक्षा के गाँधीवादी सनक में सूखल रोटी पर शंख बजइलका ।) (मज॰78.10)
376 जोहियाना (तब तक कंपोडर भी आ गेल । हम ओकरे पर भार दे के साथी जोहियावे निकल गेलूँ । अगला दिन साँझ तक पाँच साथी जोहिया गेलन । आधा खर्चा ओखनिनि में से एक साथी देलन, बाकी पत्नी पुरइलन अऊ पटना जंक्शन से 'अर्चना एक्सप्रेस' के कनफर्म रिजर्वेशन टिकट के इन्तजाम भी हो गेल ।) (मज॰107.16, 17)
377 जौर (= साथ) (मैदान के किनारे-किनारे अप्पन-अप्पन राज्य के पहचान ला अप्पन संस्थान के बैनर के नीचे जौर हो बइठलन ।) (मज॰49.14)
378 जौरे (सीधमाइन सुजाता बेचारी अकबकाल फिन से चुल्हा सुलगइलकी । बाकि हम रही नयका बटुक । तब तक खीर पर हाथ फेर देलूँ हल । दू-तीन जने आउर 'जै ठाकुर' कर देलका हल । विष्णुदेव भाई जौरे तीन-चार जन आउ भी गो-रक्षा के गाँधीवादी सनक में सूखल रोटी पर शंख बजइलका ।) (मज॰78.8)
379 झँझुआना (राजकुमार के कहलों - हो एकरा खइवा ? उ झाँझी कुत्ती नियर झँझुआ गेल । महराज ! तीन दिन के बासी रोटी के खाय ले बैठलऽ हे ?) (मज॰68.27)
380 झंझड़ा (मगही के नयका विधा के नक मिथलेश जी के मुक्तक के साथ काव्य गोष्ठी के रिहलसल समारोह के अंत भेल । फिन सोन फरही के भुंजा, नमकीन, झंझड़ा से छानल सेव, अउ सतरंगी मकई, गेहूँ, बूँट, मसूर, केराव, रगन रगन मिलावल मुरही भरफँक्का खाके अउ पानी, चाय पी के अप्पन जगह पर जाय लेल विदा लेलूँ ।) (मज॰27.17)
381 झंपोर (बिहार के नाम के जब घोषणा भेल तऽ सबसे पहले गया के लोक नृत्य प्रस्तुत कैल गेल - 'हमरे बनावल महक अटरिया से हमरा से होवऽ कत्ते ईजोर, हमरा हई टुटली झंपोर ।' फिन पटना के ओर से ।) (मज॰50.21)
382 झक-झक (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।) (मज॰28.6)
383 झटकारना (बाहरे-बाहरे सब मंदिर के दरसन करे ले पहरेदार के आरजू करे लगलूँ । पहिले तो ऊ झटकारते रहला मुदा हमनी के हठ के आगे थोड़े नरम पड़ला ।) (मज॰132.2)
384 झन्न-सन (अचक्के किचेन से बर्तन ढुनमुनाय के तेज आवाज से नीन टूटल । हड़बड़ा के हाथ पलंग से सटल बिजली के स्विच दने बढ़ल अऊ भक्क-सा इंजोर के साथ आँख झन्न-सन बजइत थाली के आवाज तक पहुँच गेल ।) (मज॰32.8)
385 झमाना (("कजा हो ?" -"कोसरागढ़ पर" -'सब गुँड़ गोबर करि देलहो ।" -"नञ् ... टैमे पर पहुँचि जइबइ ।" -"पाँच तऽ भे रहलइ हे ।" -"हमरा गम्मल रस्ता हइ । गाड़ी टंच हइ ।" झमा के लोघड़ गेलूँ । फोन पर के गलबात सब सुनि रहला हल ... टोक-टाक कोय नञ् कइलका ।) (मज॰88.25)
386 झरक (जौन डैम में हम पैदा होलूँ अउ बढ़लूँ, उ टाइम में गान्ही बाबा के झरक चल रहले हल ।) (मज॰75.1)
387 झरखराना (= समाप्त होना) (अभी हमर सबके घरेलू समान झरखराल हल नञ् । तय भेल कि ई शाम भी ओकरे पर शंख बजावे के चाही ।) (मज॰108.13)
388 झाँझी (~ कुत्ती) (राजकुमार के कहलों - हो एकरा खइवा ? उ झाँझी कुत्ती नियर झँझुआ गेल । महराज ! तीन दिन के बासी रोटी के खाय ले बैठलऽ हे ?) (मज॰68.27)
389 झाँव-झाँव (आझ भी अदमी झाँव-झाँव कर रहल हे, नोचा-नोची कर रहल हे कुरसी खातिर ।) (मज॰53.13)
390 झाड़ा (~ फिरना) (हम समझ गेलों । ई सब साहितकार के गोष्ठी हे । मन लग गेल, उठै के मन नै करे, मुदा झाड़ा जो बैठे दिये । राजकुमार के कान में सट के पूछलों - इहाँ झाड़ा फिरे के उपाय नञ् ?) (मज॰63.13, 14)
391 झामर (गाड़ी इसटाट ... चक्का घूमइत ... बालू के अबीर उड़इत रहल । थकि के सब थउआ ! हार के डलेवर उतरि गेल । ओकरा बलूई नदी पार करे के अनुभव न हल । सबके चेहरा झामर हो गेल ।) (मज॰92.15)
392 झींझरीदार (अब बारी आल 'अब्राहिम अली कुतुबशाह के मकबरा' के दूध से धोवल, चमाचम दुधिया, महीन झींझरीदार घेरा, अगला दुन्नू कोना पर दूगो मीनार ।) (मज॰40.13)
393 झुटपुटा (चोटी पर पीयर खिलल रउदा, बीच में गोधूली, तऽ तलहटी में झुटपुटा साँझ ।) (मज॰104.31)
394 झुरझुरी (हौले-हौले बहइत ठंढ हवा देह में झुरझुरी भरि रहल हल ।) (मज॰108.7)
395 झुलुआ (= झूला) (मेला के दिरिस एक दने बैलगाड़ी खड़ी, फुकना के गुच्छा लेले बुतरू । लाठी में खोंसल ढेर फुकना बँसुरी, लाटरी बेचैवला, निसाना साधै वला बन्दूक अउ ओकर लक्ष्य, चूड़ी के बट्टा, कीनताहर जन्नी, टिकुली-सेनुर के पसरल दुकान, हवा मिठाय ले बुतरूअन के भीड़, मकय के लावा खयते लोग, घिरनी, चरखी, झुलुआ सब सजल हल ।) (मज॰43.16)
396 झूकना (= ऊँघना) (~-झाँकना) (खैर ! जगह मिलल । गाड़ी त अपन गति में चलिए रहल हल । झूकते-झाँकते हमनी सहीद के सहर में पहुँच गेली ।) (मज॰119.14)
397 झोला-झक्कड़ (आझ किउल पहुँचना हे तीन बजे तक । झोला-झक्कड़ सरिया लेलूँ ।; दरसन करे वलन के अथाह भीड़ - लमहर लैन - सुरक्षा के भयंकर इंजाम - झोला-झक्कड़, जूता-चप्पल, ओबाइल-मोबाइल - सभे कुछ बाहर, खाली अदमी भीतर ।; सम्मेलन समाप्त हो गेल । कवि बन्धु अप्पन झोला-झक्कड़ बाँध के जाय के तैयारी में ।) (मज॰53.14; 54.27-28; 70.1)
398 झोला-झोली (झोला-झोली साँझ भे गेल । जल्दी-जल्दी बस चढ़ के अप्पन ठहराव पर 'शालीमार गार्डेन' मित मय जी के दमाद माहटर साहब के डेरा आ गेलूँ ।) (मज॰30.7)
399 टंच (= उत्तम, दुरुस्त) (महानगरी के एगो चौराहा, यातायात के टंच वेवस्था, साफ-सुत्थर, सजल कनिआय नीयन दिरिस हिरदा में हेल गेल ।; "कजा हो ?" -"कोसरागढ़ पर" -'सब गुँड़ गोबर करि देलहो ।" -"नञ् ... टैमे पर पहुँचि जइबइ ।" -"पाँच तऽ भे रहलइ हे ।" -"हमरा गम्मल रस्ता हइ । गाड़ी टंच हइ ।") (मज॰40.2; 88.24)
400 टगना (हम कहलों - सुरेश जी, धीरे चलइहऽ । दूपहियावाला गाड़ी कहैं टगि जाय त दुइयो एक्के साथ सुरधाम ।) (मज॰67.3)
401 टटका (हरी दूब पर टटका ओस के बूँद ।) (मज॰78.25)
402 टभकना (पैदल जमात के साथ मलमास मेला देखे गाँव से जिद करिके हम भी साथ हो गेली हल । गोड़ में बूँट के खूँटी गड़ि के बड़गर घाव बना देलक हल । रस्ता भर टभकइत ई नदी पार कइली हल, 'सिठउरा' गाँव भिजुन एक आदमी खूब कसि के हँकइलन हल, "लोटा लेवा कि थारी ?" पहाड़ से टकरा के लउटल हल ... थारी । हम अकचकइली हल ... लोटा कने हेरा गेल ? बाल मन अकबकायत रहल हल ऊ रहस पर ।) (मज॰93.15)
403 टलहा (टोली ठहरल हल फतुहा के दक्खिन एगो टलहा गाम 'किस्मीरी चक' में । चक माने बड़गर गाम । साँझ के झुटपुट गहराय लगल हल ।) (मज॰76.18)
404 टहकार (एतनय में फेरी वला डिब्बा के दुआरी पर टोकरी रख के आम के टहकार देलक । ई आम नय पपीता नियन हल । हरियर कचूर, एक किलो, सवा किलो के एक छू के देखलूँ तऽ कच्चे के लेतै, एकरा की करतै ? दनादन बिको लगल ।) (मज॰38.5)
405 टाँगना-टुँगना (गाँधीजी गोली खइलथिन सीना पर । सहीदे आजम फाँसी पर चढ़ते-चढ़ते गुल्ल-फुल्ल मोटा गेलथिन । कायर के जज्बा देखहो - भुट्टो मियाँ के फाँसी पड़ल तऽ हुनकर गोड़े न उठे । जल्लाद टाँग-टुँग के फाँसी पर चढ़इलक ।) (मज॰77.21)
406 टाँगी (= छोटी कुल्हाड़ी) (दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । ... बकि दरियापुर के एक जत्था बिखाद में हे ... रोजी में टाँगी लगि जात । सकरी के बदौलत करमो फूटे तऽ दाज लगा के फी मूड़ी दू-तीन नमरी तरिये जाय । बरसात में धड़नाय अउ बाकी दिन में थोसल गाड़ी छकड़ा पार करइ के खोसरेजाय ।) (मज॰91.17)
407 टिकस (= टिकट) (टीसन पर आके खुद लाईन में लग के दू गो टिकस कटैलन । फिन दुनो गाड़ी में जा के बइठ गेली ।) (मज॰14.13)
408 टिकिस (= टिकस; टिकट) (आदमी पीछू पाँच रुपया के टिकिस कटा के भीतर हेललूँ ।; बोखार आर तेज हो गेल, माथा दरद कपार फाड़ रहल हल । तभी सोचो लगलों - कलकत्ता टीसन में टिकिस कटाना गाड़ी चढ़ना भीड़-भड़क्का में मोसकिल काम हे ई हालत में ।; एक आसरा सुरेश मिल जायत उ टिकिस कटा को गाड़ी चढ़ा सके हे ।) (मज॰28.4; 70.5, 7)
409 टीसन (हमरो लगल कि चलऽ पटना जाय के औसर मिल गेल । कुछ तऽ ताकम झाकम । बाकि गाड़ी तऽ टीसन पर पौने दस बजे आवऽ हे ?; घरे से डेगार चलली तऽ ग्यारह बजे काखिम टीसन पहुँचली, पता चलल कि गाड़ी चार घंटा लेट हे ।) (मज॰11.14, 20)
410 टुनटुनियाँ (सभे मिलके कहलन कि गोष्ठी के रसदार करे लेल अब मगही गीतकार कवि उमेश जी हमनीन के कुछ सुनैथिन । गीत से पहले हम हास्य व्यंग्य मुक्तक मच्छड़, उड़ीस, टुनटुनियाँ सुनाके लोक भाषा मगही से इंजोरिया उगइलूँ ।) (मज॰27.5)
411 टुह-टुह (लाल ~) (कुछ मेहरारू उज्जर शंख भी पेन्हले हलथी । साड़ी कुछ लपेटायल जइसन पेन्हले हलइ । केहुनी तक बाँहओला अधबहियाँ पीन्हले हलै । माथा पर बड़का अहुनी जइसन लाल टुह-टुह टिकुली साटले हलै ।) (मज॰50.8)
412 टेम्पू (टेम्पू चढ़ के पहुँच गेलूँ लाल किला भिजुन ।) (मज॰29.6)
413 टैम (= टाइम, समय) (टीसन साफ-सुथरा हल मुदा भारी भीड़ । खाय के टैम नय हल, तनिके देर में गाड़ी लगल ।) (मज॰37.9)
414 टैम-टेबुल (आज के राज में गाड़ी के कोय टैम-टेबुल न हे ।) (मज॰118.19)
415 ठंढय (हम तो भीतरे-भीतरे कुढ़ रहलूँ हल । होटल के बिल हम्मर कुढ़नय अऊर बढ़ा देलका । इहे बीच आइसक्रीम आल अऊर ओकर ठंढय मन के कुछ ठंढा कइलका ।) (मज॰132.19)
416 ठइयें-ठइयें (ठइयें-ठइयें पंजाब, दिल्ली, राजस्थान, इलाहाबाद के नामी-गिरामी संस्था, सेठ, दानी, पुनी संतन के भंडारा लगल हे ।) (मज॰85.22)
417 ठउरे (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।; सुनलूँ हल कि देस भर के पिता महात्मा गाँधी, इंदिरा गाँधी, आउ राजीव गाँधी के स्मारक देखे जुकुत हे । लोगन से पुछला पर पता चलल कि लाल किला से ठउरे में हे ।) (मज॰28.6; 29.25)
418 ठकमुकी (= ठकमुरकी) (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।) (मज॰28.8)
419 ठगमुरकी (= ठकमुरकी) (ऊ दनदनाल अइलन अउ बाबा के झोंटा पकड़ि उठावइत कहलन, "तूँ कने ? तूँही चद्दर-जूता चोरइले हें ... चल ... निकाल ।" हम सब के ठगमुरकी लगि गेल । हमरा सबके लगि रहल हल ... खेत खाय गदहा, मार खाय जोलहा वाला हाल हो रहल हे । बेचारा बाबा, जूता-चादर चोरइतन !) (मज॰96.24)
420 ठमा (इहे ~ = इसी जगह) (पौरानिक कथा के अनुसार इहे ठमा अउरो परवत सरेनी हे जहाँ से सुखेन वैद के कहे पर पवनपूत हनुमान संजीवनी लावे अयलन हल ।; शालीमार गार्डेन के टिकट कटा के जहाँ ठहरना हल ऊ ठमा पहुँच गेलूँ ।) (मज॰22.13; 26.1)
421 ठिसुआना (ओइसे खा तो हथ चिरैंइयाँ बरोबर मगर खाना चाही चिक्कन । उनखा हीं दुइये ठो परौठा हल । ई सुन के हम्मर दूसर मीत भी तीन-चार ठो सादा रोटी अउर कोबी के भुंजिया रहे के सूचना देलका । ई सब सुनके हम ठिसुआ गेलूँ । हम्मर बेग खाली हल । हम कुछ निकास नैं सकऽ हली । अप्पन ठिसुऐइनी मेटावे ले हम उ दुन्हू के शुरू करे ले आगरह कइलूँ ।) (मज॰130.15)
422 ठिसुऐइनी (ओइसे खा तो हथ चिरैंइयाँ बरोबर मगर खाना चाही चिक्कन । उनखा हीं दुइये ठो परौठा हल । ई सुन के हम्मर दूसर मीत भी तीन-चार ठो सादा रोटी अउर कोबी के भुंजिया रहे के सूचना देलका । ई सब सुनके हम ठिसुआ गेलूँ । हम्मर बेग खाली हल । हम कुछ निकास नैं सकऽ हली । अप्पन ठिसुऐइनी मेटावे ले हम उ दुन्हू के शुरू करे ले आगरह कइलूँ ।) (मज॰130.15)
423 ठेहुना (ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी ।) (मज॰90.25)
424 डलेवर (= डलैवर, ड्राइवर) (डलेवर उतरि के लीक गमऽ लगल । चक्का तर से थोड़े बालू टारलक आउ गाड़ी पर बइठइत बोलल, "तों सब उतरि के पीछू से ठेलऽ ।") (मज॰92.10)
425 डिगरी (= डिग्री) (बोखार टूटो लगल, माथा दरद साथे-साथ । भोर तक माथा दरद साफ हो गेल । बोखार सो डिगरी के करीब रह गेल ।; हम हलियो नया रंगरूट, पर विश्वविद्यालय के डिगरिया के भी गर्व हलै । कहलियइ - "जी एगो आपद्धर्म होवऽ हे । आपद्धर्म में बुभुक्षित विश्वामित्र जी चंडाल के यहाँ से कुत्ता के मांस चोरा के भागला हल । ...") (मज॰70.25; 81.2)
426 डेगची (मेस के हॉल बहुत बड़ा हल जेकरा में चारो दने कुर्सी अउ बीच में खाना खाए वाला टेबुल । टेबुल पर स्टील के डेगची में सब कुछ रखल हल ।) (मज॰49.23)
427 डेगार (घरे से डेगार चलली तऽ ग्यारह बजे काखिम टीसन पहुँचली, पता चलल कि गाड़ी चार घंटा लेट हे ।) (मज॰11.19)
428 डोलची (गौरीकुण्ड मेंजातरी, भक्त, खच्चर, खटोला डोलची ओलन के रेलमपेल चौबिसो घंटा देखे लायक हे । इहाँ से पत्थर के बनल सीढ़ी तेरह किलोमीटर के रहता तय करके बाबा केदारनाथ के दरबार में पहुँचल जा सकऽ हे ।) (मज॰22.29)
429 ढिबार (= ढिबरा) (टोली बढ़ल जाहे, घोसना हो रहल हे - "साम के ढिबार पर आम सभा होतो, जहाँ गाँधी-विनोबा के संदेश सुनावल जइतो ।) (मज॰77.29)
430 ढुकना (= ढूकना, प्रवेश करना) (हम भी तखनिए घर पहुँचलूँ, दुअरा पर ढुकइते मामी टुभकलन - "आ गेलऽ ! तोरा तलियो विचात नञ बुझा हो", हम्मर सिटीपिटी गुम हो गेल कारन जादे अबेर होला से परिवार के गोसाना जरूरी हल ।; पीत खराब न हो जाय के डर में भनसा में ढुकलूँ तऽ देखऽ ही कि मामी एगो थार में नस्ता परोसले हथ ।; नीराजन पार भेलूँ तऽ गाड़ी दनुआ-भलुआ के जंगल में ढुकल । एहमें कोय जमाना में चीता, भालू, बाघ, लकड़बग्घा, हरिन के भरमार हल । एतनै नञ्, देसी दवाय तेल उपहल जड़ी-बूटी एहँय मिलो हल ।) (मज॰45.15, 20; 46.21)
431 ढुनमुनाना (अचक्के किचेन से बर्तन ढुनमुनाय के तेज आवाज से नीन टूटल । हड़बड़ा के हाथ पलंग से सटल बिजली के स्विच दने बढ़ल अऊ भक्क-सा इंजोर के साथ आँख झन्न-सन बजइत थाली के आवाज तक पहुँच गेल ।) (मज॰32.6)
432 ढुरढुर (चिंता गोस्सा के रूप धइले जा रहल हल । कोय अंगुरी धरि दे कि ढुरढुर फोंका फूट पड़े ।) (मज॰88.28)
433 ढूकना (गंतव्य पर पहुँचे के बाद मंजिल पावे के संतुष्टि अउ प्रसन्नता भेल । ढूकइते परिचित चेहरा सामने अइला ।; हम भी उहे तरह सोन्ह में ढूकि गेलों । सोन्हि से ऊपर भेलों तब हम अपना के सड़क पर पइलों ।) (मज॰34.22; 62.26)
434 ढेकमास (= ढेकबाँस, ढेलबाँस) (पाँच नदी से कर वसूल करि कलकल बहइत पंचाने नदी महाभारत काल के गोवाह गिरियक पहाड़, जेकरा पर ठाड़ हो महाराजा जरासंध द्वारिका तक ढेकमास फेंकि भगवान श्रीकृष्ण के चकित करि देलन हल, के पाँव पखारइत हम्मर गाड़ी के अपन उत्थर भेल पीठ के रीढ़ पर चढ़के पार होवे ले हँका रहल हल ।) (मज॰93.7)
435 ढेर (= बहुत) (~ लोग; ~ मनी; ~ सन) (हम ऊ उमिर तक में बासा में न खइली हल । एहसे जब चार चपाती के बाद जब बेरा भात देवे लगल तो हम सोचली नपना भर देके रोक देत । बाकि न रोकलक । तब तक ढेर भात गिर चुकल हल । नर से गर तक खाय पड़ल ।; अजंता के चित्रकारी देख दंग रह गेलूँ । एक से बढ़ के एक चित्र । भगवान बुद्ध के ढेर सन कहानी इ चित्र में बोल रहल हे ।; मतलब ई कि देशाटन, विदमान संग दोस्ती, वेश्या के घर जाय से, राजसभा परवेस करके अउर ढेर शास्त्र के पढ़नय से अमदी के ग्यान मिलऽ हे ।; दुनिया के सबसे बड़गे, ढेर महातम के जानल-मानल तीरथ होवे के कारन इहाँ सालो भर दरसनिया के अपार भीड़ जुटे हे ।; ईहाँ एक बात अउर इयाद आवइत हे कि जगन्नाथपुरी में समुन्नर के भी उहाँ के मल्लाह अउ ढेर लोग 'गंगा मइया' कहो हथ । हालाँकि गंगा त कलकत्ता विजुन बंगाल के खाड़ी में समा गेलन हे जेकर नाम पर 'गंगा सागर' तीरथ नाम पड़ल ।) (मज॰14.20; 17.4; 18.6, 19; 21.14)
436 ढेर-कुनी (= ढेर-मनी) (हमर मन में ढेरकुनी सवाल उठऽ लगल, संतोष भेल, हम मांगली तऽ नञ् । ऊ दे गेलन ।) (मज॰109.8)
437 तखनय (= तखनहीं, उसी समय) (मेला गजगजा लगल, तखनय 'हिरोइन' बेतहासा, रिरी-विरी भागले हमनी भिर आके नुक गेली, कैमरा घूम रहल हल 'नायिका' पर ।) (मज॰43.21)
438 तखने (= तखनी; उस समय) (राजकुमार कहलका - लक्खीसराय में गाड़ी नञ् लगतो, चलो किउल । हम तीनों पुल पार करके किउल चल गेलों । काजल जी टिकट कटाबे के लाइन में लग गेला । तखने किऊल से कलकत्ता के भाड़ा बीस रूपइया हल । राजकुमार पैसा निकाल के देलका, हम सोचो लगलों । किसान खातिर पैसा के कीमत त भी हल, अब भी हे । दस रुपइये मन अनाज हल तखने । दू मन अनाज एक तरफ के भाड़ा गट सना गिल जायत । ... तभी काजल जी टिकट के पैसा माँगलका ।) (मज॰58.24, 28)
439 तखनै (= तखनय, तखनहीं) (ओतनै में भीड़-भाड़ के ठेलले एगो जवान मेला में उत्पात मचावो लगल, कैमरा के नाचैत देखला पर बुझाल कि ई सूटिंग चल रहल हे, तखनै दोसर दन्ने से एगो गरीब बेस-भूसा वला जवान विरोध करो लगल ओकर ।) (मज॰43.30)
440 तनि-सुन (= तनि सन; थोड़ा-सा) (टीसन पर लौटली । खाना-वाना खाए के समय न मिलल । तनि-सुन पेड़ा लेली हल । दू-दू गो खा के पानी पी लेली आउ जे गाड़ी आएल ओकरे पर सवार हो गेली ।) (मज॰123.28)
441 तनी (= थोड़ा, जरा) (ओकरा करिए भेस हलई । कोनो-कोनो तनी मनी साफ हलथी ।) (मज॰50.12)
442 तन्नी (= तनी, थोड़ा, छोटा) (दू चार गो घर में जाके देखलूँ, दुआरी पर चउरट्ठा के अल्पना, झोपड़ी के कोना में तन्नी गो पूजा के निर्धारित जगह, बड़का पीतल के तुमेड़ा, पानी रखय ले ।) (मज॰42.24)
443 तफरका (दोबारे आवै के आग्रह के साथ विदा कयलन । बिहार के 'आई॰ए॰एस॰' अउ दछिन के 'आई॰ए॰एस॰' में तफरका हल जमीन-असमान के ।) (मज॰44.20)
444 तरकट्टी (पसिया के कहलूँ ताड़ के पत्ता के तरकट्टी बनावे ला तीन गो । एक तरकट्टी बनावे ला तीन गो । एक तरकट्टी ताड़ी जा के गाड़ी में बइठल यादव जी के दे देलूँ । यादव जी आँख में शंका भर के तरकट्टी में ताड़ी देखलन । ... फिन धीरे-धीरे पूरा तरकट्टी के ताड़ी सुड़क गेलन । हम उत्साहित हो के उनखा पास दू-तीन तरकट्टी ताड़ी आऊ भेजबइनूँ अऊ एन्ने हमरा साथे पंकज विष्ट चुक्को-मुक्को तार के गाछ के जड़ी तर बइठल पासी के सामने एक के बाद एक तीन-चार तरकट्टी खाली कर देलन ।) (मज॰101.1, 2, 3, 4, 5, 7)
445 तरवा (= तलवा) (माता हमरा करगा में बइठ के माथा सहलाबो लगली, ढाढ़स बँधावो लगली । शुभांगी हमर तरवा रगड़ो लगली ।) (मज॰70.21)
446 तरहत्थी (अदमी का का नञ् करे हे मिरतु के झुठलावे ला ? एगो अबोध फोहबा नियन अप्पन तरहतथी से आँख झाँप ले हे क्रोध डेरावना चीज से बचे ला ।) (मज॰55.3)
447 तरे-तरे (= अन्दर-अन्दर) (गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् । उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल ! फेफिआयत रहो । गाड़ी पर बइठल कते दुलहा मउरी सरियावइत रहथ ... की बनो हो ? घोघा तर कनिआय ताबड़तोड़ तरे-तरे पसेना पोंछइत रहो ।) (मज॰91.30)
448 तसमई (सभे लोग भोजनालय में पहुँच गेला । पूड़ी, कचौड़ी, तसमई, पोलाव, दाल, सब्जी के साथे मछली, मुरगा आउ खस्सी के मांस बरतन में सजा के कतार में टेबुल पर रखल रहे ।) (मज॰105.24)
449 तहलब्जी (= ततलब्जी; जल्दी, शीघ्रता) (हनुमान कूद तऽ होवत नञ् । दुन्नूँ किछार तक टेकर-रिक्सा आवाजाही करे । एन्ने के एन्नइँ, ओन्ने के ओन्नइँ । तहलब्जी में एन॰एच॰ धरे के रहो तऽ छो महीना के राह धरि सकरी के बलवा-थकान थकऽ ।) (मज॰90.28)
450 तार (= ताड़ वृक्ष) (आगे कोना वाला स्मारक देखलूँ । बतावल गेल कि तार पर से ताड़ी उतारऽ हलन, एक बार पहसी न खुलल, धड़ाम से जमीन पर हड्डी-पसली बराबर । बिरादरी वालन के भी एगो सहीद के जरूरी हलन, से मिल गेलथिन । सब मिलके स्मारक बना देलन ।) (मज॰123.2)
451 तारछोच (छाया आदमी बनि गेल । आदमी मसीन बनि गेल । मसीन हुरहुयसाल ... टसकल ... रेंगल ... दहिने-बायें पिपाक-सन टगल ... दुलाबी चाल बढ़इत तारछोच पछियारी अरारा पर हुमकि के चढ़ि गेल ... हइऽयाँ !) (मज॰92.30)
452 तास (= ताश) (चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे । एक जगह मड़ुकी में बइठल रहलो । दारू-ताड़ी अरमेना आउ दिनकट्टन के तास ।) (मज॰91.24)
453 तिकड़मी (फोने पर उनका समझावे के बहुत जतन कयलूँ । उनका कहलूँ कि तोहर नाराजगी अबरी टीप में दूर कर देम जदपि कि ई हमरे भरोसा नैं हे कि ई तिकड़मी जमायत में हमरे देखे के मौका मिल्लत कि नैं ।) (मज॰134.17)
454 तीत (= तित्ता; तिक्त) (हमर मन तीत भे गेल ... जतर के फेर ... पहिल असगुन । भइया हमर मन भाँप गेलन । बेलौस लहजा में कहलन - "चलऽ, ई खुसी में एककगो गरम-गरम चाह हो जाय ।") (मज॰87.18)
455 तुमेड़ा (= तुम्हेड़ा, तम्हेड़ा; तांबे का बड़ा बरतन; तांबा, पीतल, काँसे आदि का घड़ानुमा पात्र) (दू चार गो घर में जाके देखलूँ, दुआरी पर चउरट्ठा के अल्पना, झोपड़ी के कोना में तन्नी गो पूजा के निर्धारित जगह, बड़का पीतल के तुमेड़ा, पानी रखय ले ।) (मज॰42.25)
456 तुरी (= बार, दफा) (हम एक तुरी फिन फोन कइलूँ । अबरी जयनन्दन जी जवाब देलका, 'अब खतमे भे रहलइ हे । चार ओभर बाकी हइ ।") (मज॰88.14)
457 तुरी-तुरी (= बार-बार) (पत्नी तुरी-तुरी आवे आउ पुच्छे - अब कखनी जइबहो ? दीया-बत्ती तऽ भे गेलो ।) (मज॰89.9)
458 तेवारे (हम पानी माँगलों । उ कहलक - रूक जाइए । दोबारे माँगलों । ऊ कुरधल स्वर में बोलल - देख नै रहले हें का करइत ही ? पहले ओखनिन के पानी पिलावो दऽ । तेवारे माँगलों । तब ऊ कहलक - बहुत काँव-काँव कर रहले हें, जो नल पर पी लेऽ ।) (मज॰64.29)
459 थउआ (गाड़ी इसटाट ... चक्का घूमइत ... बालू के अबीर उड़इत रहल । थकि के सब थउआ ! हार के डलेवर उतरि गेल ।) (मज॰92.14)
460 थम्हाना (सिनन्दन चा घरे गेलन अउ गाड़ी भाड़ा थम्हा देलन ।; तड़ाक धोकड़ी से एगो सिक्का निकासली अउ भगत जी के थम्हा देली ई कहइत कि हमरो जतरा ठीके ठाक से पूरा होवे से चाही ।) (मज॰11.17; 84.9)
461 थसोरना (थक के घास पर थसोर गेलूँ ।) (मज॰38.25)
462 थाड़ (= ठाड़, खड़ा) (थोड़े देरी बाद इंडिया गेट आ गेलूँ हल । सामने 'होटल ताज' शान से थाड़ हल ।; भइया-बाबूजी के साथ-साथ मामू-ममानी के डर मन में बनल रहल, कारन जवानी के दहलीज पर थाड़ बेटियन के बिन पुछले कहँय जाय ला त गारजियन के परमिसन निठाहे जरूरी होवो हल ।) (मज॰16.18; 45.10)
463 थिकड़ी (हम भी उ भीड़ के फाड़ते नीचे उतरऽ ही कि वग-वग बगला के पंख सन कुरता थिकड़ी हो गेल हे अउ पाकिटमार नो दु ग्यारह भे गेल ।) (मज॰30.16)
464 थिराना (= स्थिर होना, शान्त होना) (ई मन के थाह लगाना अउ कलकत्ता पैदल जाना बरोबर हे । कभी तो बउखला जइतो सकरी नियन, कभी थिरा जइतो निरंजना नियन । बिना टिकस के चल जइतो कलकत्ता अल्लीकोस बंगाला ।) (मज॰52.1)
465 थिराना (तय होल - पेट के बोझा माथा पर काहे, कलौवा खुलल, लिट्टी रात ले रखल गेल, पुड़ी, भुजिया-अचार-मिरचाय दम भर चढ़ा लेलूँ । मन थिरा गेल ।) (मज॰37.13)
466 थोसना (= थौंसना) (दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । ... बकि दरियापुर के एक जत्था बिखाद में हे ... रोजी में टाँगी लगि जात । सकरी के बदौलत करमो फूटे तऽ दाज लगा के फी मूड़ी दू-तीन नमरी तरिये जाय । बरसात में धड़नाय अउ बाकी दिन में थोसल गाड़ी छकड़ा पार करइ के खोसरेजाय ।; गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो । गीयर पर गीयर बदलइत ने रहो ... चक्का बालू उधियावइत घूमइत रहतो । गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् । उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल !) (मज॰91.18, 27)
467 दखिनवारी (भीड़ के बगले-बगले दखिनवारी हाता के सटले एगो रास्ता मंच तक जा हल ।) (मज॰94.10)
468 दखिनाही (सरलता, सादगी, सज्जनता आउ सहजता बेमिसाल गुन हे अदमी के । ई गुन मानव के देवता बना दे हे । दखिनाही सभ्यता, संस्कृति में ई गुन भरपूर मिलल ।) (मज॰44.20)
469 दनदनाना (आयोजक में से एक आदमी पश्चाताप करइत अइलन अउ पूछ-मात करऽ लगलन । उनखर नजर तथाकथित बाबा पर पड़ल । ऊ दनदनाल अइलन अउ बाबा के झोंटा पकड़ि उठावइत कहलन, "तूँ कने ? तूँही चद्दर-जूता चोरइले हें ... चल ... निकाल ।") (मज॰96.23)
470 दने (= दन्ने, तरफ) (साढ़े ग्यारह बजे गया उतरली । बकि गया से जाखिम दने के गाड़ी दू बीस में हल ।) (मज॰14.15)
471 दन्ने (= दने, तरफ) (तनिके देर में चारमीनार के आगू रूक गेल बस । चारो कोना पर चार गो मीनार, चारो दिसा से एक्के नीयन नाक-नक्सा, चारो दन्ने दुआरी पर बड़का घड़ी, भीतरे से सीढ़ी, दुमहला पर जाके दुआरी बंद ।) (मज॰40.1)
472 दप-दप (गोर ~; ~ पीयर रउदा) (घर जाके सुरेश के माय बुढ़िया कोय साठ-पैंसठ के गोर दप-दप पाकल पान नियर चेहरा पर चमक, उज्जर बगुला के पाँख नियर साड़ी पिन्हने !; 24 अप्रील के सबेरे किरिया-करम से निपट के खिड़की खोललूँ तऽ मंसूरी के भोर के नजारा टकटकी बान्हले देखयते रह गेलूँ । चोटी पर दपदप पीयर रउदा, ओकरा से नीचे भोरउका लाली तऽ नीचे तलहटी में घुप्प अन्हरिया में बिजली से जगमगायत रोसनी में ऊपर से नीचे तक सीढ़ीनुमा मकान तिलस्मी दुनिया से कम अचरज के छटा नञ् बिछल रहे ।) (मज॰67.7; 104.5)
473 दपदपाना (सभे के आकरसन के केन्द्र हल एगो परिसिच्छनार्थी बंगाली बाला जेकर चेहरा पर खास रौनक दपदपा रहल हल ।) (मज॰105.12)
474 दमाद (= दामाद) (झोला-झोली साँझ भे गेल । जल्दी-जल्दी बस चढ़ के अप्पन ठहराव पर 'शालीमार गार्डेन' मित मय जी के दमाद माहटर साहब के डेरा आ गेलूँ ।; अप्पन बड़ दमाद पंकज के संगे सवार भेली टेम्पो पर अउ 'मंगल भवन अमंगल हारी' जपइत चल देली ।) (मज॰30.8; 84.4)
475 दर-दिहा (दर दिहा, दूरदराज से आवेवलन के इहाँ कम पैसा में हेलिकॉप्टर पर घूमे जइसन आनंद भी पन्द्रह-बीस मिनिट में मिल जा हे, जब उड़नखटोला पर बइठ के मंसा आउर चण्डी माता के दरसन खातिर लोग जा हथ ।) (मज॰19.16)
476 दरमाहा (उबड़-खाबड़ जमीन फूल-पत्ती के नामो निसान नञ् । दुभ्भी छीलइत घंसगाढ़ा सफाई के नाम पर दरमाहा ले हे तब माथा ठोकलूँ कि सरधा के झोर भंगोरे हे ।) (मज॰29.32)
477 दरसनिया (= दर्शक) (दुनिया के सबसे बड़गे, ढेर महातम के जानल-मानल तीरथ होवे के कारन इहाँ सालो भर दरसनिया के अपार भीड़ जुटे हे ।) (मज॰18.19)
478 दरस-परस (< दर्शन+स्पर्श) (= जान-पहचान; सम्पर्क) (छपे के क्रम में 'शेखर' शर्मा जी के जीवंतता आउ विद्वत्ता के बारे में बतइलन हल बकि दरस-परस आझ हनोक न हल ।) (मज॰94.21)
479 दरोजा (= दरवाजा) (मुख्य दरोजा के ठउरे पत्थर से झक-झक कज्ज सन छह-छह चिक्कन भव्य अंगना में कार-हरियर ग्रेनाइट से सजल-धजल लोहिया साहब के बारह फीट ऊँचगर कद के बनल मूर्ती अइसन खिंचलक कि ठकमुकी लग गेल अउ खूबे देरी तक उनखा से नजर जुड़इते रहलूँ ।) (मज॰28.6)
480 दवाय (= दवाई) (मालिक के मर्जी नय, ई मजूरा के अधिकार हइ । उनखर जाँच मंगनी, दवाय, आपरेसन मुफ्त में ।) (मज॰43.8)
481 दसटकिया (इहाँ रात गमौली एगो टेन्ट में । पारस बाबू, परमानंद जी ओगैरह तऽ देहो मालिस करव लेलन एगो दसटकिया पर ।) (मज॰85.30)
482 दहिने-वामे (= दाएँ-बाएँ) (दहिने-वामे पाँच मिनट तक कसरतिया नियन गियारी घुमावइत रहलूँ ... कनउँ से भी आ सकऽ हथ । उनखा न आना हल, न अइलन ।) (मज॰88.6)
483 दाज (= बराबरी, समानता; देखादेखी, देखा-हिसकी; जलन, ईर्ष्या; दाय, किसी सम्पत्ति में हिस्सा) (दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । ... बकि दरियापुर के एक जत्था बिखाद में हे ... रोजी में टाँगी लगि जात । सकरी के बदौलत करमो फूटे तऽ दाज लगा के फी मूड़ी दू-तीन नमरी तरिये जाय । बरसात में धड़नाय अउ बाकी दिन में थोसल गाड़ी छकड़ा पार करइ के खोसरेजाय ।) (मज॰91.18)
484 दान-पुन (= दान-पुण्य) (इहाँ के हवा में धरम, संस्कृति, अध्यात्म, सादना, तप, त्याग, दान-पुन के गुन-महातम मिलल हे ।) (मज॰20.11)
485 दिनकट्टन (चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे । एक जगह मड़ुकी में बइठल रहलो । दारू-ताड़ी अरमेना आउ दिनकट्टन के तास ।) (मज॰91.24)
486 दिया (= दिका, की दिशा से, के द्वारा) (भोर के समय आऊ नवम्बर के गुलाबी ठंढी में मन के एगो नया ऊर्जा मिल रहल हल । सुरूज के सोनहुलिया रौद खिड़की दिया हम्मर डायनिंग टेबुल पर अप्पन आभा छितरा रहल हल ।) (मज॰32.15)
487 दियारा (गंगा के लघु धारा में नाव पर चढ़लियो अउ दियारा यानी गंगा के छाड़न में तहिना के जतरा के पर्यवसान होलो । दियारा में खाय ला मिललो मकई के घट्टा, कोदो के भात अउ भैंस के भरपूर गोरस । ई गाढ़ा छालीवाला दूध विष्णुदेव भाई के ममोसर न होलइ ।) (मज॰81.29, 30)
488 दिरिस (= दृश्य) (खुलल अकास में चारों दने के सुन्नरता, दिरिस देखते उड़नखटोला पर थोड़ा डर, थोड़ा अचरज भरल जतरा के अलगे आनन्द हे ।) (मज॰19.19)
489 दिलफेकनी (लगऽ हे ऊ हमरा कुली समझ के हमरा से गिड़गिड़ैलन ... तीन-चार डिब्बा आगे एगो नउजवान अप्पन दिलफेकनी के साथे हमरे इन्तजार करइते हलन । दूरे से पुकारलन - "ए कुली ! सामान रख के अइहऽ, हमरो सामान ले चले ला हो ।") (मज॰120.4)
490 दीया-बत्ती (पत्नी तुरी-तुरी आवे आउ पुच्छे - अब कखनी जइबहो ? दीया-बत्ती तऽ भे गेलो ।) (मज॰89.9)
491 दुखाना (= दुखना, पीड़ा होना, दर्द करना) (घुमइत-घुमइत गोड़ दुखाए लगल त साँझ के हमनी फिर सिकन्दराबाद टीसन से गाड़ी पकड़ली ।) (मज॰51.10)
492 दुगोड़िए (= दो पैर पर) (सड़क आगे बड़ी खराब हल । टमटम के पहिया फँस गेल अउ घोड़ा दुगोड़िए खड़ा हो गेल । हम त सड़क के नीचे आ गेली बाकि मलकिनी के साड़ी फँसल सेऊ न नीचे न ऊपर ।) (मज॰122.19)
493 दुद्ध (~ इंजोरिया) (निकलते फागुन के दुद्ध इंजोरिया में गाड़ी चाल पकड़लक ।) (मज॰90.15)
494 दुभ्भी (उबड़-खाबड़ जमीन फूल-पत्ती के नामो निसान नञ् । दुभ्भी छीलइत घंसगाढ़ा सफाई के नाम पर दरमाहा ले हे तब माथा ठोकलूँ कि सरधा के झोर भंगोरे हे ।) (मज॰29.31)
495 दुर (= धत् !) (रवि शास्त्री कउन ? दुर महाराज ! सामंती खेल क्रिकेट के पीछे सब कुछ बिसरा के दीवाना हो जाय वाला ई हिन्दुस्तान के कइसन इंडियन ह तू ?) (मज॰98.4)
496 दुरा ('ॐ नमः शिवाय' के जाप करइत, महतारी अउ बाबू जी के सुमिरइत, पुरखन के गोड़ लगइत, कुल देउतन के भभूत माथ पर लगावइत घर से बहराय खातिर दुरा पर खाड़ भेली कि ससुर जी आ गेलन ।) (मज॰83.18)
497 दुराव-छराव (तीनों पहाड़ पर रहे वाली जनजाति - गारो, खासी व जयन्ति कहल जा हथि । जहाँ के ई तीन जनजातीय बोली भी हे जहाँ मातृसत्तात्मक व्यवस्था हे । अंग्रेजी राजभाषा हे । प्रकृति के साथ खुलापन अउ नाच-गाना, उन्मुक्तता इ सब पछियारी फैसन के प्रभाव हे । कोय दुराव-छुराव नय ।) (मज॰144.7)
498 दुलाबी (~ चाल) (छाया आदमी बनि गेल । आदमी मसीन बनि गेल । मसीन हुरहुयसाल ... टसकल ... रेंगल ... दहिने-बायें पिपाक-सन टगल ... दुलाबी चाल बढ़इत तारछोच पछियारी अरारा पर हुमकि के चढ़ि गेल ... हइऽयाँ !) (मज॰92.30)
499 दुहचिंता (एगो लमहर ठहाका से दुहचिंता के गरबइया उड़ल ... फुर्र । फेन ऊहे कटकटाह सन्नाटा ।) (मज॰89.18)
500 दूर-दराज (बिहार के दूर-दराज के गाँव से आयल साधारन परिवार के ऊ सब बुतरून के जिनगी भर ई दिन याद रहत ।) (मज॰99.6)
501 दूसरका (दूसरका कोना पर कुछ पत्थर-उत्थर जमा देख के पूछली - "ऊ का हे हो ?") (मज॰123.18)
502 देखनगर (आसापास के देखनगर ठाम गेलूँ । ओकर इतिहास-पुरान समझलूँ ।) (मज॰47.11)
503 देर-सबेर (ऊ मगही-मंडप के साथी पर इतिमिनान हला । उनखा कहि रहलूँ हल ... अपने ठहरथिन । देर-सबेर जरूर आब - जरूर आब ... कि किरण जी के गाड़ी आ गेल ।) (मज॰90.7)
504 देवाल (= दीवार) (इहां एगो पहाड़ काट के मंदिर बनवल गेल हे, नीचे रथ के आकार हे, लगऽ हे जइसे रथ पर मंदिर हे अउ ओकर देवाल पर रामायन अउ महाभारत कथा के चित्र बनल हे ।) (मज॰17.12)
505 देवीथान (= देवीथन, देवी-स्थान) (जेठ बैसाख के तपिस लेल तऽ देवीथान के नीम अउ बाबा थान के बुढ़वा बरगद के छाँह महरा लेल काफी है ।) (मज॰103.6)
506 दोकान-दौरी (गाइड बतइलक इहाँ आउ मूरती हल मुदा सब्हे चोरी हो गेल । कुछ दोकान-दौरी, खाना-नास्ता के दोकान अउ पर्यटन ले खरीदे लेल कार्ड अउ अनेगन चीज बिक रहल हल ।) (मज॰16.10)
507 दोबारे (हम पानी माँगलों । उ कहलक - रूक जाइए । दोबारे माँगलों । ऊ कुरधल स्वर में बोलल - देख नै रहले हें का करइत ही ? पहले ओखनिन के पानी पिलावो दऽ । तेवारे माँगलों । तब ऊ कहलक - बहुत काँव-काँव कर रहले हें, जो नल पर पी लेऽ ।) (मज॰64.27)
508 धंधौरा (सकरी के धाध आउ पतहुल के धंधौरा एक्के । अइलो तऽ तूफान आउ गेलो तऽ बस चुरु-चुरु पानी ... सथाल धंधौरा के बानी-सन बालू-बालू ! चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे ।) (मज॰91.21, 22)
509 धक्का-मुक्की (ई दछिन हे, धक्का-मुक्की नय, सभ्य-सालीन लोग, मुदा बोलूँ त केकरा से । उनखर बोली हमरा नय बुझाय अउ हम्मर बोली उनखा अचरज में डाल देय ।) (मज॰38.13)
510 धड़नाय (दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । ... बकि दरियापुर के एक जत्था बिखाद में हे ... रोजी में टाँगी लगि जात । सकरी के बदौलत करमो फूटे तऽ दाज लगा के फी मूड़ी दू-तीन नमरी तरिये जाय । बरसात में धड़नाय अउ बाकी दिन में थोसल गाड़ी छकड़ा पार करइ के खोसरेजाय ।) (मज॰91.18)
511 धत्त (धत्त तेरी के ! चार बजि गेल । कमाल के नीन कि दिन के भोजन नदारत !) (मज॰33.19)
512 धमस (रातो के चल आवऽ हलियइ । अंग्रेज राज के धमस बरकरार हलइ ।) (मज॰75.15)
513 धमार (= उछल-कूद, धमा-चौकड़ी) (सड़क के दुन्हू तरफ धन के धमार । सदावरत बँट रहल हे ।) (मज॰54.19)
514 धरना (= रखना) (अंतिम रोगी के देखि के हम मनझान-सन बइठल हलूँ । कंपोडर खाय ले चलि गेल हल । हमर टिफिन अन्दर धइले हल ।) (मज॰107.3)
515 धाध (= बाढ़) (वारिसलीगंज से पच्छिम खराँट रोड शिव के धनुख-सन टुट्टल ... दु खुंडी । सकरी नदी दरियापुर भिजुन बीचोबीच बरसात में हलाल बहे । जहिये पानी पड़ल, धाध आ गेल ।; सकरी के धाध आउ पतहुल के धंधौरा एक्के । अइलो तऽ तूफान आउ गेलो तऽ बस चुरु-चुरु पानी ... सथाल धंधौरा के बानी-सन बालू-बालू !) (मज॰90.22; 91.21)
516 धुंधुर (= धूंध, धुंधला, धूमिल) (कुहा में पहाड़ धुंधुर लौकि रहल हल, हमरा लगे कि हम सब बादर में घुसल ही अउ बादर के सैर में निकललूँ हे ।) (मज॰109.30)
517 धुरिया-धुरान (~ सड़क) (हम अउ हम्मर जउरात ईश्वर प्रसाद मय जी जे दिल्ली के सड़क, नदी यमुना, भिखमंगा के जमघट लगल भीड़ से अस्त-व्यस्त धुरिया-धुरान सड़क अउ कास के रंगन रंगन के काँटा झाड़ी टापू मरुभूमि बनल हे ।) (मज॰27.21)
518 धोकड़ी (तड़ाक धोकड़ी से एगो सिक्का निकासली अउ भगत जी के थम्हा देली ई कहइत कि हमरो जतरा ठीके ठाक से पूरा होवे से चाही ।) (मज॰84.8)
519 धौगना (= दौड़ना) (सुरूज देव अप्पन घोड़वन पर सवार हो पछियारी छोर दने धौगइत-धौगइत रुकइत हथ, जखने ऊ सुस्ताइत हलन तखनिएँ खोथवन में चिरईं चिरगुन चहकइत-फुदकइत बहोरत हथ ।) (मज॰45.12)
520 नइकी (मिनती-उनती कइली, मनीता-उनीता मानली, गोरैया-डिहवार के भखली - तब नइकी सड़िया के उद्घाटन के नाम पर मानलन । दुन्हू गोटी सोझ होली - ओही एक्सपरेसवा से ।) (मज॰118.17)
521 नगद-नारायन (दोसर कहलक - अरे छोड़ दो बाबा को, कुछ नगद-नारायन खरच करवहु बाबा ? हम कहलियै - कते ?) (मज॰60.17)
522 नगीच (= नजदीक) (अदमी रूक गेल । हम ओकर नगीच पहुंच गेली अउ पूछली - अपने रुखरियार साहेब के जानऽ ही । साइत एनहीं कनहुँ रहऽ हथ ।; हम जब कभी पूछीं भी कि जादे दूर हे का ? जवाब मिले - न अब नगीचे हे ।) (मज॰13.15, 23)
523 नथ-चरही (मन भिनभिना गेल अप्पन बैल वला जिनगी से । भरल-भादो, सुक्खल जेठ जोताल रहो, बैलो से वदतर जिनगी । ... जान लेलूँ कि उतार देम ई बैल वला जूआ, खोल देम नथ-चरही आउ गिरदामानी ।) (मज॰52.15)
524 नधाना (= शुरू होना) (सिलाव बसवे कजा करऽ हे ! पाँच बजे से कवि सम्मेलन नधात । बीच के दू घंटा तऽ काफी हे । रस्ता में चाह-चहकड़ी पीते समय पर पहुँच जाम ।) (मज॰87.5)
525 नपना (= निश्चित तौल, परिमाण आदि नापने का बरतन, नापा) (हम ऊ उमिर तक में बासा में न खइली हल । एहसे जब चार चपाती के बाद जब बेरा भात देवे लगल तो हम सोचली नपना भर देके रोक देत । बाकि न रोकलक । तब तक ढेर भात गिर चुकल हल । नर से गर तक खाय पड़ल ।) (मज॰14.20)
526 नमरी (दरियापुर के निकट सकरी नदी पर पुल बना के खराँठ रोड चालू कइला से राजगीर पटना के दूरी घटि जात । ... बकि दरियापुर के एक जत्था बिखाद में हे ... रोजी में टाँगी लगि जात । सकरी के बदौलत करमो फूटे तऽ दाज लगा के फी मूड़ी दू-तीन नमरी तरिये जाय । बरसात में धड़नाय अउ बाकी दिन में थोसल गाड़ी छकड़ा पार करइ के खोसरेजाय ।; हम आतुर-सन कहली, "देबो ! निकालि दा ।" -"पहिले धरो ।" मन में खुटपुट्टी उरम्हल ... कहँइ लेके चमकि ने दे ... की करम ? कोय चारा नञ् देखि हम जेभी से निकालि के नमरी बढ़ा देली ।) (मज॰91.18; 92.28)
527 नय (= नयँ, नञ, नञ्, नहीं) (एतनै नञ् दूध जइसन मरकरी गिनल पार नय लग रहल हल ।) (मज॰28.15)
528 नयका (धन्य हथ ऊ करीगर, जिनखर ईमानदारी नयका जुग के वैग्यानिक के ललकार रहल हल ।; सीधमाइन सुजाता बेचारी अकबकाल फिन से चुल्हा सुलगइलकी । बाकि हम रही नयका बटुक । तब तक खीर पर हाथ फेर देलूँ हल ।) (मज॰41.5; 78.9)
529 नर (~ से गर तक) (हम ऊ उमिर तक में बासा में न खइली हल । एहसे जब चार चपाती के बाद जब बेरा भात देवे लगल तो हम सोचली नपना भर देके रोक देत । बाकि न रोकलक । तब तक ढेर भात गिर चुकल हल । नर से गर तक खाय पड़ल ।) (मज॰14.21)
530 नरभसाना (हम जवानी के प्रथम पहर में वीतरागी-जोगी बनल घबराइल 'नरभसाइत' राहगीर बन गेलूँ ।) (मज॰76.25)
531 नवका (= नयका; नया) (गान्ही जी के नवका भूत तो चढ़ले हलो । कौलेज में दस-बीस लड़कन खादी बादी के चक्कर में जरूर हलन ।) (मज॰75.19)
532 नाधना (मन मतंगी कवि सब के जउर करना, बेंग के पलड़ा पर चढ़ाना हे । हम तऽ हठयोग नाध देली । उखरी में मूड़ी नाइये देली ... जतना चोट बजड़े !) (मज॰87.7)
533 नाना (= घुसाना) (मन मतंगी कवि सब के जउर करना, बेंग के पलड़ा पर चढ़ाना हे । हम तऽ हठयोग नाध देली । उखरी में मूड़ी नाइये देली ... जतना चोट बजड़े !) (मज॰87.7)
534 नामी-गिरामी (बात सन् 2000 ईस्वी के सावनी पुनियाँ के हे । मगही के नामी गिरामी कवि श्रीनन्दन शास्त्री अउ उनखर संघतिया सिरी केदार अजेय से भेंट भेल अप्पन घर पर ।; अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, जैकी श्राफ, सचिन तेंडुलकर, रवि शास्त्री, शबाना आजमी, फारूख शेख, गुलजार, शेखर सुमन, मनोज तिवारी जइसन ढेर नामी-गिरामी अप्पन कार्यक्षेत्र के सितारा सब अप्पन सामाजिक दायित्व समझ के समाज के हित में जागरूकता फैलावे के काम में अप्पन तमाम व्यस्तता के बावजूद समय निकाल लेते जा हथन ।) (मज॰83.1, 98.19-20)
535 निकसनय-छिपनय (अकास में बादल अउ सूरज के लुकाछिपी जगजाहिर हे, मुदा कत्ते परवत सरेनी के बीच से सूरज के निकसनय छिपनय देखे के आनन्द कुछ अउर हे ।) (मज॰23.31)
536 निकसना (= निकलना) (महल के सुरंग, बाहर निकसे के रास्ता, एहमें देख के देश के भवन बनावे अउ इहाँ के सूझ-बूझ के पता चलऽ हे ।) (मज॰17.23)
537 निकासना (= निकालना) (एकरा से आगू बढ़लूँ तऽ समुन्नर से तेल-गैस निकासे के प्लांट देखलूँ।; रात हो चुकल हल । हमनी अपन झोला से लिट्टी-अँचार निकास के खइलूँ अउ लोघड़ गेलूँ अप्पन-अप्न सीट पर ।) (मज॰16.3; 53.28)
538 निके-सुखे (खिड़की पर हतास बइठल म्याऊँ ... म्याऊँ करइत ऊ बिलाय के आँख में एगो दरद भरल निवेदन हल, "हमरा बता दऽ ,,, हमर नुनुअन कहाँ हे ? हम तऽ इहे पलंग तरे ऊ सबन के रखली हल । विस्वास हल कि निके-सुखे रहत मुदा लौटली तऽ हइये न हे, ... ।") (मज॰33.6)
539 निठाहे (भइया-बाबूजी के साथ-साथ मामू-ममानी के डर मन में बनल रहल, कारन जवानी के दहलीज पर थाड़ बेटियन के बिन पुछले कहँय जाय ला त गारजियन के परमिसन निठाहे जरूरी होवो हल ।) (मज॰45.11)
540 नितराना (सरदार वल्लभ भाई पटेल के जयंती समारोह के औसर पर विचार गोष्ठी अऊ कवि सम्मेलन हो जेकरा में नालंदा से मगही कवि के रूप में तोहरो चुनल गेलो हे । जिनगी भर के सपना संजोग से मन नितरा-छितरा गेल अऊ झटपट चले के तैयारी करे लगलूँ ।; दुन्हू रचनाकार के देखइते हमर मन बाग-बाग हो गेल, हम नितराय लगलूँ, अउ मेहरारू से कॉफी ले कहलूँ ।) (मज॰25.10; 83.4)
541 निफिकिर (= बेफिक्र) (जा, तोहर सात खून माफ । अइसन जीवन जीयै के हम अभ्यस्त ही । एकरा ले हमरा कोय मलाल नै है । तों निफिकिर रहो ।) (मज॰66.11)
542 निमकी (घर के बनावल सामान, ऊ भी पाँच घर के, पाँच किसिम, पाँच स्वाद, पराठा, लिट्टी, खमौनी, तलल चूड़ा, भूंगा मूँगफली, निमकी ... खइते ... चाह कॉफी पीते, गर-गलबात करते, सुतते, बैठते मंजिल दने बढ़ल जा रहलूँ हल ।) (मज॰107.24)
543 निम्मन (= नीमन, अच्छा) (पत्नी ईहे बीच आके पूछलन, "चाह बनइयो" ? हमरा लगल जइसे कोय कानइत बुतरू के बोधि रहल हे - लेमचूस लेवऽ ? हमरा ओकर ई प्रस्ताव निम्मन लगल - चलऽ, ध्यान तऽ बँटत !; वहाँ खाय-पीये के निम्मन व्यवस्था हल ।) (मज॰89.13; 111.20)
544 नियन (एक दिन अचक्के हमर मन उचटि गेल । कोय काम में मन नञ् लगे । रोगी के भी अनमनाह नियन देख रहलूँ हल ।) (मज॰107.2)
545 निवाला (= कौर) (सुरेश कहलक - हम समझली ई कोई भूखा साधू हइ, भंडारा समझ के इहाँ खाय ले चल आयल हे । तोरा हम उठा देवे ले चाहो हलूँ । तब तक तूँ निवाला मुँह में डाल देला हल । हम सोचली अब उठावे से का फायदा ? खाना जूठा हो गेल । खाना जूठा हो गेल । फेके पड़त । फेके से अच्छा हे, खा लेवे दी ।) (मज॰66.13)
546 निहोरा (अमिताभ के साथ सचिन कई एक विज्ञापन फिल्म में बुतरून के पोलियो के दवाइ पिलावे के निहोरा करते नजर अइले हथिन ।) (मज॰98.23)
547 नीन (मुम्बई जाय के खुशी में रात के नीन उड़ गेल । बड़ी कोशिस कइला पर तनी झपकी लगल फिनो हालिए नीन टूट गेल ।; सफर से सुरु से ले के देहरादून तक बैसाखी गरमी से पसीने-पसीने हलूँ । मंसूरी पहुँचते अहनी जाड़ा से पाला पड़ल । रजाइ तान के जे सुतलूँ से एके नीन में विहान ।; खा-पी के अइसन सुतलूँ कि एक्के नीन में बिहान भे गेल ।) (मज॰15.1, 2; 104.3; 108.29)
548 नुकना (= छिपना) (मेला गजगजा लगल, तखनय 'हिरोइन' बेतहासा, रिरी-विरी भागले हमनी भिर आके नुक गेली, कैमरा घूम रहल हल 'नायिका' पर ।) (मज॰43.22)
549 नुनु (खिड़की पर हतास बइठल म्याऊँ ... म्याऊँ करइत ऊ बिलाय के आँख में एगो दरद भरल निवेदन हल, "हमरा बता दऽ ,,, हमर नुनुअन कहाँ हे ? हम तऽ इहे पलंग तरे ऊ सबन के रखली हल । विस्वास हल कि निके-सुखे रहत मुदा लौटली तऽ हइये न हे, ... ।"; क्षमा भरल स्वर में बोललूँ - "न नुनु ... न ! अइसन मत कहऽ । हम तोर आउ टोनू टुन्नू के मरम समझऽ ही । अब बूढ़ा न हो चलती हें बउआ ! आठ महीना बाद रिटायर में जायम ।"; तीन साल के मीनू पोती मगन - अब त बाबा नञ् जइता । ऊ बगल में सुति के मुँह पकड़ि जिद करऽ लगल -खिस्सा कहो बाबा ! हम ओकरा कइसे समझावो कि ई सब खिस्से तऽ भे रहल हे नुनु !) (मज॰33.5; 36.11; 89.11)
550 ने (= न) (अब कहाँ जइवा बेटा ! धरो नमरी ! ऊहे सब लीक पर बालू टारि के गबड़ा बना देतो । गाड़ी पहुचलो कि चक्का धसलो । गीयर पर गीयर बदलइत ने रहो ... चक्का बालू उधियावइत घूमइत रहतो । गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् । उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल !) (मज॰91.27, 28)
551 नेउतना (= नेउता देना, आमंत्रित करना) (हमरा से बेसी त मलकिनी फाड़ा कस के तनलन अउ कहलथन कि तू का समझऽ हें रे । मगहिया से लड़ाय मोल लेवे के मतलब हउ सनिचरा के साढ़े साती नेउतना । अइसन बगलामुखी मन्तर मारवउ कि बस ।) (मज॰119.12)
552 नेउता (= न्योता, नेवता) (हाथ में पाती पढ़इते कहलन कि 'विचार दृष्टि' शक्करपुर दिल्ली के सम्पादक अऊ संस्कृत शिक्षा बोर्ड बिहार के अध्यक्ष सिद्धेश्वर बाबू के नेता हो । पूछलूँ कइसन नेता 'मय' जी ।) (मज॰25.7)
553 नेमान (हम्मर महाभिनिष्क्रमण मनोहारिये रहल । मरनासन्न तपस्या से पहिलहीं हमरा सुजाता के खीर नेमान हो गेल ।) (मज॰78.2)
554 नोचा-नोची (आझ भी अदमी झाँव-झाँव कर रहल हे, नोचा-नोची कर रहल हे कुरसी खातिर ।) (मज॰53.13)
555 पंगति (= पंक्ति) (निचला तल {जमीन पर} भारत माता के नक्सा अउ चित्र के साथ राष्ट्रकवि दिनकर के लिखल पंगति अंकित हे, जे दिल छू दे हे ।) (मज॰19.27)
556 पंगति (= पंगत, पंक्ति) (नदी के डूबकी लगौली अउ माय भिजुन पूजा के सामान ले ले पंगति में थाड़ हो गेली । पंगति लमहर देख हम गावे लगलूँ - "दरसन ला अयली मइया तोहरे दुअरिया" । आसपास पंगति में थाड़ लोग भी रेघ काढ़े लगलन ।) (मज॰47.3, 4)
557 पंघत (= पंगत, पंक्ति) (भोजन बनल, सब कोय पंघत लगा देलन, सोवदगर भोजन पा के मन आह्लादित भेल ।) (मज॰47.12)
558 पंचयती (= पंचायत) (सिनन्दन ठाकुर हलन त अनपढ़ मुदा गाँव-घर के हर पंचयती उनखा वेगर सफल न होअ हल ।) (मज॰11.6)
559 पंचर (करीब छे बजे गाड़ी टीसन से खुल गेल त संतोष भेल बाकि हमर ई अनुभव न हल कि मेल के फेरा में गाड़ी एत्ते देर तलक टीसन पर खाड़ रहत । दू तीन जगह मेल देवे के फेरा में आ करीब आधा दर्जन बेर भैकम कटे से हमर जतरा पंचर साइकिल जसिन लौके लगल ।) (मज॰12.11)
560 पंचसोइया (~ नोट) (हम कार्ड गिने लगलूँ कि ऊ दू हजार के पंचसोइया नोट बढ़ावइत कहलका, "ई रखि ला गाड़ी के पेसगी । सब साथी संगी कलाकार के समेटले अइहा ... राह देखवो ।") (मज॰94.26)
561 पंचाने (~ नदी) (तय भेल कि खराँठ होते एन॰एच॰ धरि के गिरियक भिजुन पंचाने नदी पार करइत पहाड़ के बगले-बगले आयुध कारखाना वली सड़क पकड़ लेवइ के चाही । राजगीर चौक से उत्तर तीन-चार किलोमीटर पर तऽ सिलाव हइये हे ।) (मज॰90.19)
562 पइन (गाड़ी सांय-सांय करइत अप्पन मंजिल दने दौड़ रहल हल । खेत-बधार, नदी-पइन, बाग-बगीचा, गाम-गिराम, शहर देस-परदेस सब छूट रहल हल ।) (मज॰15.9)
563 पइरना (= पैरना, तैरना) (लौटइत बेर हवा तेज हो गेल जेकरा चलते बोट डगमगा जा हल । लोग अप्पन इष्ट के सुमरे लगला । हम तऽ पइरे ले जानऽ हली मुदा समुद्री जीव-जन्तु के डर हमरो हूरलक ।) (मज॰16.16)
564 पकिया (उ हमरा से पूछलक कि बिहार में कइसे बोलल जाहे । हम्मर सहेली में शीला तनी हँसोड़ हल से झट से बोलल कि हमनी कुटुर-पुटुर न बोलऽ ही, हमनी पकिया मगहिया ही, खाँटी देहाती भाषा, समझलऽ कुछ बुझइलवऽ ? ओकरा तो कुछ न बुझायल बाकि हमनी के हँसइत देख के बिना समझलहीं हँस देल ।) (मज॰49.27)
565 पक्कल (= पका हुआ) (हमरा इयाद आयल - जब भी हम सड़क से गया जाही तऽ रस्ता में धनरूआ पड़ऽ हे । हुआँ रूक के जरूर खोवा के लाई खा ही, बूँट के घुँघनी के साथ छानल सत्तू के लिट्टी खा ही, मट्टी के पक्कल कपटी में सोन्ह-सोन्ह चाह पियऽ ही, तब जहानाबाद दने रूखिया ही ।) (मज॰100.7)
566 पछियारी (सुरूज देव अप्पन घोड़वन पर सवार हो पछियारी छोर दने धौगइत-धौगइत रुकइत हथ, जखने ऊ सुस्ताइत हलन तखनिएँ खोथवन में चिरईं चिरगुन चहकइत-फुदकइत बहोरत हथ ।; पछियारी अंगना में अंधियारा छा गेल, गाड़ी पठानकोट पहुँचल ।; तीनों पहाड़ पर रहे वाली जनजाति - गारो, खासी व जयन्ति कहल जा हथि । जहाँ के ई तीन जनजातीय बोली भी हे जहाँ मातृसत्तात्मक व्यवस्था हे । अंग्रेजी राजभाषा हे । प्रकृति के साथ खुलापन अउ नाच-गाना, उन्मुक्तता इ सब पछियारी फैसन के प्रभाव हे । कोय दुराव-छुराव नय ।) (मज॰45.12; 85.3; 144.6)
567 पञ्जल (= पज्जल, धारदार) (हमनहीं के नजर विष्णुदेव भाई के तरफ लगल हे । ओही सँभालता ई मरखंडा बैल के । कमासुत तऽ लऽ, हका इ गिरहस, मुदा सींग हइ पञ्जल-पञ्जल ।) (मज॰80.18)
568 पटनहिया (समारोह समाप्त होवे के बाद प्रेम कुमार 'मणि', अवधेश प्रीत, डॉ॰ संतोष दीक्षित अऊ ऋषिकेश सुलभ जइसन पटनहिया कहानीकार सब पटना लेल रवाना हो गेलन हल ।) (मज॰100.22)
569 पट्टी (= ओर) (गाड़ी से उतरलूँ तऽ नजारा देखि के भौंचक रह गेलूँ । चारो पट्टी पहाड़, बादी आउ बीच में जम्मूतवी टीसन ।) (मज॰108.4)
570 पढ़नय (= पढ़नइ, पढ़ना) (मतलब ई कि देशाटन, विदमान संग दोस्ती, वेश्या के घर जाय से, राजसभा परवेस करके अउर ढेर शास्त्र के पढ़नय से अमदी के ग्यान मिलऽ हे ।) (मज॰18.7)
571 पढ़ल-लिखल (उहाँ सबसे बढ़िया बात हमरा ई लगल कि भागलपुर के भाषा अंगिका हे अउ का पढ़ल-लिखल का अनपढ़ सब ओही भाषा में बात कर रहलन हल । अउ एतना गर्व से बोल रहलन हल कि मन बड़ी प्रफुल्लित होयल । अउ हमरा अप्पन मगध के इयाद आ गेल कि मगध में पढ़ल-लिखल तऽ दूर अनपढ़ भी अशुद्ध हिन्दी बोल के गर्व करऽ हथ, लेकिन मगही बोले में सरम महसूस करऽ हथ ।) (मज॰113.15-16)
572 पतहुल (सकरी के धाध आउ पतहुल के धंधौरा एक्के । अइलो तऽ तूफान आउ गेलो तऽ बस चुरु-चुरु पानी ... सथाल धंधौरा के बानी-सन बालू-बालू ! चार दिन में कते कमइवा ? सुखाड़ में मेहनत कम आमद जादे ।) (मज॰91.21)
573 पतियाना (नय देखलूँ हल अइसन केला । अकबाली के खेत में उपजल हल । तीन केला में अघा गेलूँ । बाहरे केला के पतियात ई बात ।) (मज॰38.3)
574 पतिला (= पतीला) (तब तक एक पतिला में करीब दू किलो रसगुल्ला आ गेल । हमरा दुइयो के दू छिप्पी पर चार-चार रसगुल्ला, बड़गर-बड़गर मिल गेल ।) (मज॰71.31)
575 पत्थर-उत्थर (दूसरका कोना पर कुछ पत्थर-उत्थर जमा देख के पूछली - "ऊ का हे हो ?") (मज॰123.18)
576 पनरह (= पन्द्रह) (ऊँचाई अउ चढ़ाई के चलते दम फूलऽ लगल । दस-पनरह डेग पर साँस तेज हो जाय ।) (मज॰111.22)
577 पनही (= जूता) (ऊ दनदनाल अइलन अउ बाबा के झोंटा पकड़ि उठावइत कहलन, "तूँ कने ? तूँही चद्दर-जूता चोरइले हें ... चल ... निकाल ।" ... ऊहे बाबा के करामात हल । दुन्नूँ चीज चोरा के सुरक्षित जगह पहुँचा देलन हल । मदन जी के खाली गोड़ पनही पइलक आउ काँपइत देह चद्दर ।) (मज॰96.28)
578 परनाम (= प्रणाम) (हम बोट बाबू के परनाम कैली अउ बाबूजी के नाम देइत परिचय देली । फिर सिनन्दन चा के संदेश सुनैली ।; पैजामा, कुर्ता आउ बंडी पेन्हले कंधा पर भूदानी झोला टाँगले गंभीरता के प्रतिमूर्ति बनल शर्मा जी भिजुन हम पहुँचिये रहली हल कि चार डेग आगू बढ़ि के ऊ हमरा बँहियावइत कहलन "परनाम" ।) (मज॰13.30; 94.23)
579 परनाम-पाती (एतना अहलदनि मन से दून्हू के परनाम-पाती भेल कि परनाम-पाती वाला रसम के कउनो जरूरत नय रह गेल । इहे हे कवि अऊ साहित्यकार के मिलन ।; परनाम-पाती के बाद फिन उनकर ओहे निरदेस कि दुन्हू बचवन के सम्हाल के लेले अइहऽ ।) (मज॰26.25, 26; 130.8)
580 परपोता (= प्रपौत्र) (अमरनाथ कथा सुने वाला संसारी जीव हर ढंग के सुख बेटा-बेटी पोता-परपोता के सुख-सायुज्य मोक्ष पा जा हथ ।) (मज॰86.30)
581 परम (भुट्टा लेलूँ, अप्पन परम भी खरीदलूँ । कंडक्टर आवाज देलक, चट गाड़ी में बैठ गेलूँ अप्पन सीट पर ।) (मज॰46.17)
582 परसादी (अटैची के सिक्कड़ में बाँध के दुन्हूँ बेकत सुत गेली । भोरे अटैची वियोग सहे पड़ल । खैर कैसे तो बड़ी भाग से परसादी बच गेल हल । सोचलूँ कि भोरे-भोरे तनी मुँह में डाल लेल जाए । जइसहीं खोललूँ कि कच-बच पिल्लू रेंगैत हल ।) (मज॰124.2)
583 परसाना (साँझ के मुखिया जी के इहाँ बढ़िया भोज भात भेला बाकि एगो तमाशा भी हो गेल । खीर-पूड़ी परसा गेल । विष्णुदेव भाई शुकदेव रिसि जइसन बानी में टंकार कइलका - "मुखिया जी, ई खीर गौ-दुग्ध में बनइला हे न ?" मुखिया जी - "जी ! जी ! इ तो भैंस दूध के हइ श्रीमान् !") (मज॰78.4)
584 परातकाली (भोरहीं उठ गेलूँ - परातकाली गइलूँ - "परात दरसन देहू गंगा मइया, परात दरसन देहू ।") (मज॰78.32)
585 परी (= पर) (शर्मा जी अपने के इन्तजार करि रहलन हे ... अऊ ... वह वहाँ परी !) (मज॰94.18)
586 परोगराम (= प्रोग्राम) (अंतिम तीन दिन घूमे के परोगराम विभाग दने से । बस 7.30 बजे लग गेल ।; रिजरवेसन हो गेल । परोगराम बनल कि सभे किउल में मिलऽ । तइयारी ला दू दिन के समय हल ।) (मज॰39.11; 52.21)
587 पहलमान (= पहलवान) (सुरेश तैयार होके, हमरो तैयार करके चलल । पहलमान जी के डेरा पहुँच के सुरेश पहलमान जी के प्रणाम कैलन । हम भी पहलमान जी के प्रणाम कइलों । पहलमान जी हमर परिचय पूछलका ।) (मज॰71.10, 11)
588 पहसी (आगे कोना वाला स्मारक देखलूँ । बतावल गेल कि तार पर से ताड़ी उतारऽ हलन, एक बार पहसी न खुलल, धड़ाम से जमीन पर हड्डी-पसली बराबर । बिरादरी वालन के भी एगो सहीद के जरूरी हलन, से मिल गेलथिन । सब मिलके स्मारक बना देलन ।) (मज॰123.3)
589 पहिलउका (हम सब लौटे खनी दोसर राह पकड़लूँ । राह भले पहिलउका से जादे बीहड़ हल । चले खनी जानकार बतइलन भी बकि कुछ नया देखै के उछाह में बीहड़ से यारी करे चल पड़लूँ ।) (मज॰112.4)
590 पहिलहीं (= पहले ही) (माता सरस्वती के नाम लेके स्टेज पर चढ़ली त ताली के पहिलहीं गड़गड़ाहट होवे लगल ।) (मज॰50.27)
591 पाछे (= पीछे) (बस अड्डा के पंडाल में चटर-पटर सोवदगर भोजन भेल, सरकारी बस पर बैठलूँ, आगे-आगे सेना के जवान बीच में हमनी के बस ओकर पाछे सेना गाड़ी चलल ।) (मज॰85.9)
592 पाटी (= पार्टी) (कमनिस ~; कमजोर ~) (लक्खीसराय के राजकुमार कमनिस पाटी, फेर माले के काज-करता हो गेला । लिकत हला कम, मगर साहित के अच्छा सूझ-समझ हल उनका पास ।; हम कहलियन - भाय, हम कमजोर पाटी, तों दोनों बलवान । एक सोना के बेपारी, दोसर इन्जीनियर । तोरा पैसा के कमी नै हो, हम किसान ! किसान के अनाज हे मुदा पैसा कहाँ ?) (मज॰57.4; 59.1)
593 पासी (मखदुमपुर पहुँचे के थोड़ा दूर पहले हम अचानक देखलूँ - एगो पासी ताड़ से ताड़ी उतार रहल हल । हम गाड़ी फौरन रोकवइलूँ । यादव जी से पूछनूँ - "यादव जी, ताड़ी पीवऽ ?"; पसिया के कहलूँ ताड़ के पत्ता के तरकट्टी बनावे ला तीन गो ।) (मज॰100.27; 101.1)
594 पाहन (= पुरोहित) (दादा कहलखुन - उठ रे लड़कन, भुरुकवा उग गेलउ । काशी दने के पाहन जी कहलथिन - मगह के लोग बुड़बकवा, शुकुर के कहे भुरुकवा । भुरुकवा कहे से दोसर के काहे ला फटऽ हइ । हम्मर भासा हे, हम कुछो कहूँ, तों कह शुक्र, शुक्रतारा । हम मना करऽ हियउ ?) (मज॰79.2)
595 पिछुआना (लड़कवन-छौंड़न छौंड़ियन पिछुअइले चलऽ हे । साथ में हका हरखू भाई - माथा में सफेद साफा बाँधले गाते जा हका ।; हमर आगू चलइत साथी से पहिलहीं पहुँच के दम ले रहलूँ हल । हम भी विलम गेलूँ । आधा घंटा में पिछुआल साथी भी पहुँच गेल ।) (मज॰77.11; 111.20)
596 पिठिआना ("शर्मा जी अपने के इन्तजार करि रहलन हे ... अऊ ... वह वहाँ परी !" हम झट उठके उनखा पिठिअइली । टेलीफोनिक परिचय गाढ़ हल । कथाकार नरेन उनखा हमर नम्बर देलन हल ।) (मज॰94.18)
597 पिन्हना (= पेन्हना; पहनना) (रात भर गाड़ी के चूरल ही तनी नहा भी ली, फरेस हो जाँव । धोती खोल के गमछी पिन्हलों । झरना खोल देलों, माथा पर पानी गिरो लगल जैसे पानी नै ई बर्फ हे । देह सिल्ल हो गेल ।; देह पोछ के धोती पिन्हलों ।) (मज॰63.17, 19)
598 पिपरी (= चींटी) (ऊँचगर जगह से नीचला के देखे के मजा अजब हे । पिपरी नीयन ससरैत बस, पसरल बाग-बगीचा अउ बीच-बीच में अप्पन अस्तित्व के बोध करवयवला बुलन्द इमारत ।; हम कहलियन - श्रवण बाबू ! जहाँ मिट्ठा होतै, उहँय खोंटा पहुँच जइतै । खोंटा के भगा देभो, पिपरी आ जइतै, पिपरी के भगा देभो, छोटकी गन्ध पिपरी आ जइतै ।) (मज॰39.29; 69.23)
599 पिपाक (छाया आदमी बनि गेल । आदमी मसीन बनि गेल । मसीन हुरहुयसाल ... टसकल ... रेंगल ... दहिने-बायें पिपाक-सन टगल ... दुलाबी चाल बढ़इत तारछोच पछियारी अरारा पर हुमकि के चढ़ि गेल ... हइऽयाँ !) (मज॰92.30)
600 पिरकदानी (मुदा राजा के मुकुट, तलवार, रंग-बिरंगी पिरकदानी, मखमल के आसन, परात, छिपली के रख-रखाव कउनो खासमन के मोहे जोग हे ।) (मज॰29.14)
601 पीछू (= प्रति; पीछे) (आदमी पीछू पाँच रुपया के टिकिस कटा के भीतर हेललूँ ।; गाड़ी ... थोसल भैंसा ... टस से मस नञ् । उतरि के पीछू से ठेलइत ने रहो, अंगद के पाँव-सन रोपाल के रोपाल !) (मज॰28.4; 91.28)
602 पीतर (= पित्तर, पीतल) (बैल चमचम करइत पीतर के हल । जिनगी में पीतर के ओतना बड़ा बैल हम पहिल दफे देखली हल ।) (मज॰126.17)
603 पीयर (24 अप्रील के सबेरे किरिया-करम से निपट के खिड़की खोललूँ तऽ मंसूरी के भोर के नजारा टकटकी बान्हले देखयते रह गेलूँ । चोटी पर दपदप पीयर रउदा, ओकरा से नीचे भोरउका लाली तऽ नीचे तलहटी में घुप्प अन्हरिया में बिजली से जगमगायत रोसनी में ऊपर से नीचे तक सीढ़ीनुमा मकान तिलस्मी दुनिया से कम अचरज के छटा नञ् बिछल रहे ।) (मज॰104.5)
604 पुरवारी (गते गते पुरवारी छोर दने घोड़ा पर सवारी कसले सुरूज देउता आ धमकलन ।) (मज॰84.17)
605 पुरैनिया (= पुरैनियाँ) (बूढ़-पुरैनिया रोगी बच्चा छोड़के सभे कमायवाला ।) (मज॰42.26)
606 पुरैनियाँ (ढेर मनी घर के दुआरी पर बोरा, चद्दर इया साड़ी के परदा लगल हल, एकरा पर पत्थर दाबल हल कुत्ता बिलाय से बचय ले । सउसे बस्ती में चार-पाँच पुरैनियाँ हलन ।) (मज॰42.24)
607 पूछ-मात (आयोजक में से एक आदमी पश्चाताप करइत अइलन अउ पूछ-मात करऽ लगलन । उनखर नजर तथाकथित बाबा पर पड़ल । ऊ दनदनाल अइलन अउ बाबा के झोंटा पकड़ि उठावइत कहलन, "तूँ कने ? तूँही चद्दर-जूता चोरइले हें ... चल ... निकाल ।") (मज॰96.21-22)
608 पूरी-बुनिया (पूरी-बुनिया हमर कमजोरी हे, जो नरम मिल जाय । कड़र रहला पर दाँत बाप-बाप करऽ लगऽ हे ।) (मज॰95.19)
609 पेन्हना (गरदन में ताबीज पेन्हले हलइ ।; ऊहे बालू के बीच लकलक पातर धार - छावा, घुट्ठी, ठेहुना भर पानी । जुत्ता खोलऽ, जुत्ता पेन्हऽ !) (मज॰49.18; 90.25)
610 पेम्हा (मन पेम्हा देवो लगल । सारी थकावट कपूर बन के उड़ गेल ।) (मज॰54.23)
611 पोख्ता (= पुख्ता) (बाबा बर्फानी ट्रस्ट तरफ से भोजन के व्यवस्था आउ जम्मू-कश्मीर प्रशासन तरफ से सुरक्षा के पोख्ता इन्तजाम !) (मज॰110.18)
612 पोलाव (= पुलाव) (सभे लोग भोजनालय में पहुँच गेला । पूड़ी, कचौड़ी, तसमई, पोलाव, दाल, सब्जी के साथे मछली, मुरगा आउ खस्सी के मांस बरतन में सजा के कतार में टेबुल पर रखल रहे ।) (मज॰105.25)
613 प्लेटफारम (पाँच बजे से प्लेटफारम पर जा पटना के गाड़ी के इंतजार करे लगली । खैर, तनि देरी में गाड़ी प्लेटफारम पर आ के लगल ।) (मज॰12.6, 7)
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