[*395] ज़विदोवो
घोड़वन के किबित्का
से जोतल जा चुकले हल, आउ हम प्रस्थान करे लगी तैयारी कर रहलिए हल, कि अचानक सड़क पर
बड़गो शोर होवे लगलइ। लोग गाम में एक छोर से दोसरा छोर तरफ दौड़े लगलइ। सड़क पर हम एगो
योद्धा के देखलिअइ, ग्रिनेडियर के टोपी में, शान से चहलकदमी करते, आउ हाथ में उपरे
दने कइले चाभुक धइले आउ चिल्लइते - "जल्दी से घोड़ा; ज्येष्ठ (बुजुर्ग) काहाँ हइ?
महामहिम अभी एक मिनट में आवे वला हथिन; हमरा भिर ज्येष्ठ के लावल जाय ... "
-- सो कदम पहिलहीं से ज्येष्ठ अपन टोपी उतारले भरसक तेज गति से दौड़ल आब करऽ हलइ, ओकर
आदेश के पालन करते।
"जल्दी से
घोड़ा।"
"अइकी तुरन्त,
सर; किरपा करके अपन यात्रापत्र।"
"हले ले।
लेकिन तुरन्त, नञ् तो हम तोरा ...", काँप रहल ज्येष्ठ के सिर पर अपन चाभुक उठइले
ऊ बोललइ। ई अधूरा कथन ओतने सार्थक (expressive) हलइ जेतना विर्गिल के एनीड
(Virgil's Aeneid) में वायु के संबोधित कइल ईलस के बोली (speech of Aeolus)- [*396] "हम तोरा! ..."[1] आउ
दबंग ग्रिनेडियर के चाभुक देखके, ज्येष्ठ गरजते योद्धा के दहिना हाथ के शक्ति के ओतनहीं
सजीव रूप से अनुभव कइलकइ, जेतना कि विद्रोही वायु ईलस (Aeolus) के त्रिशूल के खुद पर
शक्ति के अनुभव कइलकइ। यात्रापत्र के वापिस करते नयका पोलकन[2] से
ज्येष्ठ बोललइ, "अपन आदरणीय उपनाम सहित महामहिम के पचास घोड़ा के जरूरत हइ, लेकिन
हमरा हीं अभी खाली तीस हाजिर हइ, बाकी सब रस्ता में हइ।"
"त पैदा
कर, बुड्ढा शैतान! आउ घोड़ा नञ् होतउ, त तोरा हम पिटते-पिटते अपाहिज बना देबउ।"
"लेकिन काहाँ
से हम लइअइ, अगर लावे लगी कहूँ नञ् हइ?"
"फेर बोललइ
... आउ अइकी ई घोड़वन हमरा लगी होतइ" .... आउ बुढ़उ के दढ़िया धरके, ओकरा निर्दयतापूर्वक
चाभुक से कन्हा पर पिट्टे लगलइ।
"एतना काफी
हउ तोरा लगी? अइकी फुरतीला तीन घोड़ा हउ", डाक स्टेशन के सख्त जज बोललइ, हमर गाड़ी
में जोतल घोड़वन के तरफ इशारा करते।
"ऊ सब के
हमन्हीं लगी खोलके लाव।"
"अगर मालिक
ओकरा छोड़े लगी तैयार होथिन।"
"कइसे ऊ
नञ् देवे के साहस करतइ? [*397] ओकरो हमरा भिर
ओइसने मिलतइ। लेकिन ऊ हइ केऽ?"
"मालुम नञ्,
कोय तो ... कउन नाम से ऊ हमरा आदर कइलथिन, हमरा मालुम नञ्।"
एहे दौरान हम
बाहर रोड पर निकसके, महामहिम के बलशाली अग्रदूत के हमर गाड़ी से घोड़वन के खोले के इरादा
पूरा करे के मामला रोक देलिअइ, जेकरा चलते हमरा डाक स्टेशन के इज़्बा (लकड़ी के बन्नल
झोपड़ी) में रात गुजारे पड़ल। गार्ड सेना के पोलकन के साथ हमर विवाद महामहिम के
अइला के बाद बाधित हो गेलइ। दूरहीं से कोचवान के चीख आउ अपन पूरे ताकत के साथ सरपट
दौड़ल आ रहल घोड़वन के टाप सुनाय दे रहले हल। खुर के लगातार प्रहार, आउ अभियो तक अगोचर
चक्का के घुमाव, उपरे दने उड़ते धूरी के साथ, हवा के एतना घना कर देलके हल कि महामहिम
के गाड़ी, इंतजार कर रहल कोचवान लोग के आँख से, झंझावात के बादल नियन अभेद्य बादल से,
ओझल होल हलइ। दोन किख़ोते अवश्य कुछ तो हियाँ परी चमत्कारी देखते हल; काहेकि [*398] नामी-गरामी महामहिम के आसपास मँड़रा रहल धूरी के
बादल, अचानक रुकके छँट गेलइ, आउ ऊ धूरी से धूसर होल हमन्हीं के सामने पहुँचलइ, एगो
जन्म से करिया अदमी नियन।
हमरा डाक स्टेशन
में पहुँचला के बाद हमर गाड़ी में दोबारा जोतल जाय तक कम से कम पूरा एक घंटा गुजर गेलइ।
लेकिन महामहिम के गाड़ी में घोड़वन के जोते में पनरह मिनट से जादे नञ् लगलइ ... आउ मानुँ
हावा के डैना लगल नियन सरपट दौड़ल चल गेलइ। लेकिन हम्मर टट्टू सब, जे हलाँकि ऊ सब से
बेहतर मालुम पड़ऽ हलइ, जेकरा महामहिम के यात्रा के योग्य समझल गेले हल, लेकिन ग्रिनेडियर
के चाभुक के भय नञ् होवे से, मध्यम दुलकी चाल में दौड़ रहले हल।
एकतंत्रीय सरकार
के देश में प्रभावशाली लोग (big shots) सौभाग्यशाली
होवऽ हइ। सौभाग्यशाली ओकन्हिंयों हइ जे पदवी आउ रिबन से सज्जल-धज्जल हइ। पूरा प्रकृति
ओकन्हीं के आदेश के पालन करऽ हइ। हियाँ तक कि विचारहीन जानवरो ओकन्हीं के इच्छा के
अनुसार चलके खुश करऽ हइ, आउ कहीं ओकन्हीं रस्ता में यात्रा के दौरान जम्हाई भरते बोर
नञ् हो जइते जाय, ऊ सब न तो अपन गोड़ [*399]
आउ न तो फेफड़ा के चिन्ता कइले, सरपट दौड़ऽ हइ, आउ अकसर थकावट से मर जा हइ। सौभाग्यशाली,
हम दोहरावऽ हिअइ, ऊ लोग हइ, जेकर बाह्य रूप सब के भय से भर दे हइ। जे जानऽ हइ ऊ लोग
के, जेकन्हीं धमकावल जा रहल चाभुक से काँपऽ हइ, कि ऊ, जेकर नाम से ओकरा धमकावल जा हइ,
कोर्ट व्याकरण में "गोंग" कहल जा हइ; कि ऊ अपन जिनगी भर में न तो "आ".
... न तो "ओ", कह पइलकइ (*); कि ऊ अपन उँचगर स्थान लगी केकरो आभारी हइ, लेकिन
ऊ ओकर नाम लेवे में लजा हइ; कि अपन अंतःकरण में ऊ सबसे नीच जीव हइ; कि धोखा, विश्वाघात,
गद्दारी, व्यभिचार, विषाक्तीकरण (poisoning), चोरी-डकैती,
लूट-खसोट, हत्या - ई सब ओकरा लगी एक गिलास पानी पीए से जादे कुछ नञ् हइ; कि ओकर गाल
कभी शरम से लाल नञ् होलइ, सिवाय गोस्सा से चाहे गाल पर थप्पड़ खाय से; कि ऊ कोर्ट के
हरेक स्टोकर (आगवाला) के दोस्त हइ, आउ ऊ हरेक कोय के दास हइ, जे कोर्ट में बल्कि कुच्छो
रहइ। [*400] लेकिन ऊ अधिपति (sovereign) हइ आउ ऊ सब से घृणा करऽ हइ, जे ओकर नीचता आउ चाटुकारिता
से अनभिज्ञ हइ। प्रतिष्ठा, बिन वास्तविक गुण के, हमन्हीं के गाम के अभिचारक (sorcerers) नियन हइ। सब्भे किसान ओकन्हीं के आदर करऽ हइ आउ डरऽ
हइ, ई सोचके, कि ओकन्हीं के अलौकिक शक्ति होवऽ हइ। ओकन्हीं पर ई धोखेबाज लोग अपन इच्छानुसार
राज करऽ हइ। लेकिन जइसीं ओकन्हीं के पूजा करे वला लोग के भीड़ में, कोय बिलकुल अनभिज्ञता
से जरिक्को मनी खुद के अजाद करके सामने आ जा हइ, त ओकन्हीं के धोखा प्रकट हो जा हइ,
आउ अइसन दूरदर्शी लोग के ओकन्ही ऊ स्थान पर सहन नञ् कर पावऽ हइ, जाहाव परी ओकन्हीं
चमत्कार करऽ (देखावऽ) हइ। बिलकुल ओइसीं ओकरा सावधान रहे के चाही, जे प्रभावशाली लोग
के अभिचारकता (sorcery) के प्रकट करे
के साहस करतइ।
लेकिन काहाँ हम महामहिम के पीछा करतिए हल? ऊ धूरी के स्तम्भ
उठइलकइ, जे ओकर चल गेला पर गायब हो गेलइ, आउ जब हम क्लीन (Klin) स्टेशन पहुँचलिअइ तब तक ओकर
शोरगुल के साथ ओकर आदगारी भी गायब हो चुकले हल।
[1] "Quos ego! ..." -
(Latin, literally 'Whom I') are the words, in Virgil's Aeneid (Book I, 135),
uttered by Neptune in threat to the disobedient and rebellious winds. Virgil's
phrase is an example of the figure of speech called aposiopesis.
[2] Polkan is a half-human,
half-horse, creature from Russian folktales which possesses enormous power and
speed.
[3] Denis Ivanovich Fonvizin
(1745-1792), Vseobshchaya pridvornaya grammatika, ch. II. Fonvizin wrote this
for a journal he planned to start in 1788 — Drug chestnykh lyudey ili Starodum
(The Friend of Honest Men or Starodum) — Starodum being the name of one of the
few decent characters in The Minor. But he was refused permission to publish
the journal. See Sochineniya D. I. Fonvizina (The Works of D. I. Fonvizin), ed.
Arseny Ivanovich Vvedensky (St. Petersburg, 1893), pp. 196-197; Available in
English as “Universal Courtiers’ Grammar,” in The Portable Russian Reader,
comp, and tr. Bernard Guilbert Guerney (New York, 1947), ch. II, pp. 25-27; Д. И.
Фонвизин: Собрание Сочинений в двух томах, Государственное Издательство
Художественной Литературы, Москва:Ленинград,
1959 ; Том второй; Всеобшая Придворная Грамматика, сс.47-49.
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