विजेट आपके ब्लॉग पर

Thursday, October 08, 2009

11. घृणा के अंत

कहानीकार - सच्चिदानन्द प्रसाद

हरि महतो जब अप्पन पुरान मट्टी के घर के मरम्मत करे ला सोचलन, तब उनकर पत्नी कहलन, "बनावते ह, त मजबूत पक्का के मकान काहे न बना लेहऽ ?"

हरि महतो सोचलन, "ठीक हे, हम ईंटे के मकान बनावऽ ही !"

ओकर बाद से हरि महतो रुपइया के जोगाड़ करे में लग गेलन । बड़ी मुश्किल से उनका आफिस से दस हजार रुपइया करजा मिल गेल । लेकिन जब घर बनावे में हाथ लगैलन, तब उनकर सामने रहे वला मँगरू गड़ेरी से बरदास्त न होयल । ऊ न चाहऽ हल कि ओकर घर के सामने कोई पक्का के मकान बनावे । आउ हरि महतो से तो मँगरू के पुराना दुश्मनी हल । जब से हरि महतो ई घर खरीदलन हल तबे से मँगरू भगत के मन में इनका प्रति घृणा के भाव भर गेल हल । मँगरू भगत आउ उनकर जात बेरादरी के लोग ई बात से बहुत दुखी हलन कि गड़ेरी के घर महतो खरीद लेलक । आज जब हरि महतो काम लगैलन तब मँगरू के फिर मोका मिलल तंग करे के ।

मकान बनावे में अड़ंगा लगावे के विचार से मँगरू हरि महतो से कहलन, "तूँ अप्पन घर के नींव इहाँ से छौ फीट पीछे हट के दे ।"
एतना सुन के हरि महतो कहलन, "काहे ? हम छौ फीट पीछे काहे हटीं ?"
तब मँगरू भगत कहलन, "इहाँ से तूँ अप्पन घर के नींव देबऽ तब हम्मर आलिशान मकान के शोभा बिगड़ जायत । हम चाहऽ ही कि हम्मर घर के सामने कम से कम बीस फीट फैल रस्ता रहे ।"
"ई कइसे होतवऽ भगत जी ! तूँ तो अप्पन ईंचे-ईंच जमीन में घर बना लेलऽ आउ गली में सीढ़ी बना लेलऽ । जहाँ पर हम अप्पन घर के नींव दे रहली हे उहाँ से भी आठ फीट जमीन हम्मर रस्ता में जा रहल हे ।" - हरि महतो जवाब देलन ।

हरि महतो के बात सुनके मँगरू भगत के गोस्सा आ गेल । ऊ गरजलन, "अरे हरिया ! तोरा एतना हिम्मत हो गेलउ कि तूँ हम्मर बातो काट देले आउ हमरे बेईमान बनावऽ हें । देखऽ हिहउ कि तूँ कइसे घर बना लेहें ।"

हरि महतो आउ मँगरू भगत के तूँ-तूँ मैं-मैं के शोरगुल से गाँव के आउ लोग जमा हो गेलन । भीड़ इकट्ठा हो गेल । एतने में गड़ेरी जात के नेता समझू भगत भी उहाँ आ गेलन । समझू भगत महाधूर्त आउ ईर्ष्यालु प्रकृति के आदमी हथन । उनकर प्रबल इच्छा रह़ हल कि गाँव के कउनो आदमी न विकास करे, न हम्मर परिवार से जादे पढ़े-लिखे आउ न ही कोई के पास हमरा से जादे धन-दौलत होवे । मँगरू के प्रगति भी समझू के आँख के किरकिरी बनल हल । समझू सोचइते हलन कि मँगरू के कउन झंझट में फँसा के कंगाल बनावीं आउ आज मौका मिलिये गेल ।

समझू भगत भीड़ चीर के आगे अयलन आउ दुन्नो के समझावे लगलन । समझू के बात सुने आउ समझे ला कोई तइयार न हलन । लड़ाई बढ़ते जाइत हल । इहाँ तक कि बाता-बाती से लड़ाई बढ़ के हाथा-पाई पर आ गेल । समझू भगत कुछ आउ लोग के सहयोग से झगड़ा जे शांत कराके मँगरू भगत के अप्पन घरे ले गेलन ।

दूसरा दिन गड़ेरी जात के सभा होल । ओकरा में समझू भगत अध्यक्ष पद से बोले ला शुरू कैलन, "हम सब आज एगो बड़ी गम्भीर मसला पर बात करे ला इहाँ बइठली हे । हरि महतो जहाँ से अप्पन घर के नींव दे रहलन हे, उहाँ से घर बनला पर कुइयाँ आउ मंदिर तक जाय के रस्ता बहुत पतला हो जायत । हम सब मिल के उनका मकान बनावे से रोके ला सोचली हे । मामला थाना में दे देवल जाय । ई लागी एगो दरखास्त दरोगा बाबू के नाम लिखल गेल हे । अपने सबसे हम्मर आग्रह हे कि सब कोई ई दरखास्त पर दस्तखत कर दऽ ..." ।

बीचे में एगो समझदार युवक खड़ा हो के बोलल, "हरि महतो के साथ ई व्यवहार करला पर उनका साथे बहुत अन्याय हो जायत काका ! हरि बाबू समय पड़ला पर हमनी के बहुत काम अयलन हे । इहाँ तक कि मधेसर भगत के नौकरी भी लगवा देलन आउ बहुत लइकन के पढ़े-लिखे में भी सहायता कैलन हे ।"

"अबे, चुप रह ! तोर जइसन लोग तो हरिया के सिर पर चढ़ा देलक हे, न तो ओकरा एतना हिम्मत हल कि ऊ हमरा से हाथापाई कर लेत हल ?" मँगरू तैस में आके बोललन आउ ऊ लड़का के जबरदस्ती बइठा देलन ।

"समझू भइया ठीक कहइत हथ ।" जब मँगरू ताव देलन, तब बइठक में बइठल सब लोग दरखास्त पर दस्तखत कर देलन । दरखास्त थाना में दे देवल गेल ।

X X X X X X X X X

हरि महतो के मकान में काम तेजी से लगल हल । आज तीसरा दिन काम चल रहल हल आउ उधर आज फिर समझू भगत के दलान में गड़ेरी समाज के बइठक लगल हल । समझू भगत कहे लगलन, "भाई लोग ! आज हमनी ई स्थिति में आ गेली हे कि अगर चाहीं त हरिया के घर-दुआर उखार के गाँव से बाहर फेंक दीं । लेकिन पहिले हमनी ओकरा समझायम । जब न मानत तब हरिया आउ ओकर परिवार के हमनी मिल के खूब पीटम ।"

आपस में राय मशविरा करके समझू, मँगरू आउ झलकू पहिले हरि महतो के दुआरी पर पहुँचलन आउ मीठा शब्द में बोललन, "हरि भाई ! तूँ तो जानइते हऽ कि आगे कुइयाँ आउ मंदिर हे, जहाँ गाँव घर के लोग स्नान-ध्यान करे जा हथ । अगर इहाँ से घर बनयवऽ तब आवे जाय के रस्ता पतला हो जायत आउ सबके आवे-जाय में दिक्कत होयत । येही से हम तीनो कहे अइली हे कि इहाँ से छौ फीट पीछे हटके अप्पन घर बनावऽ ।"

"समझू जी ! अपने गड़ेरी जात के मानिन्दा अदमी ही । हब अपनहीं बतातिन कि जब हम्मर ई मकान मेम अब तक चार हजार रुपइया खरच हो गेल हे तब तो पीछे घसके से हमरा केतना घाटा हो जायत ? जहाँ तक रस्ता के सवाल हे, तब इहाँ से भी चउदह फीट रस्ता बचल हे । हमरा साथे उचित न्याय करूँ ।" - हरि महतो भी मोलायम होके बोललन ।
हरि महतो के बात सुनइते समझू तुरन्त कहलन, "तब हम्मर एही फैसला हवऽ कि तूँ छौ फीट पीछे हटके घर बनावऽ ।"
"ई तो हमरा साथ सरासर अन्याय हे समझू बाबू ! हम ई बात माने ला तइयार न ही ।"
"समझू भइया के बात न मान के तूँ अच्छा न करइत हें हरिया ! इनकर बात मान ले, न तो बड़ी पछतावे पड़तउ ।" - मँगरू बीचे में टपक गेल ।
"बात जादे बढ़ावे के कोई जरूरत न हे मँगरू भाई ! हमनी फिर से ई मुद्दा के ऊपर सोच विचार करके आयम ।" कहते तीनो चल गेलन ।

समझू के दलान पर युवा दल के सभे सदस्य जमा हइये हलन । मौका से लाभ उठाहीं लेवे में समझू भगत मुनासिब समझलन । युवा दल के सम्बोधित करके कहे ला शुरू कैलन, "हरिया हमनी के बात न मान के हम्मर समाज के बड़ी अपमान कैलक हे । ई बेइज्जती बरदास्त के बाहर के बात हे । ई मुद्दा पर गम्भीरता से विचार कैला के बाद हम युवा दल के नेता आउ सदस्य गण के आवाहन करइत ही कि तूँ लोग हरिया के दिमाग ठीक करे के प्रयास करऽ !"

समझू भगत के ई समझावल युवा दल के नेता आउ सदस्य गण के नासमझ बना देलक । ई लोग आव देखलन न ताव, तुरन्त हरि महतो के दरवाजा पर हंगामा करे लगलन आउ मजूरा मिस्त्री के मारे पीटे लगलन ।

हरि महतो के ई घटना के अंदेशा हल, काहे कि इनका बैठक में लेवल गेल निरनय के पूरा जानकारी मिल गेल हल । एही से ऊ भी बीस-तीस लठैत जवान चुपके से अप्पन घर में बोला के रखले हलन । जब उनका से बरदास्त न होयल, तब अप्पन अदमी के बोलैलन आउ कहलन, "देखऽ हम्मर जवान ! एक्को दुश्मन बच के न जाय । जेतना चाहऽ ओतना ई लोग के पीटइत जा ।"

मार-पीट जम के होयल । दुन्नो तरफ के पिटैलन, लेकिन युवा दल के सदस्य के जादे मार पड़ल । ई झगड़ा में मँगरू के बेटा के माथा फूट गेल । ओकरा बेहोश हो के गिरते सब भाग खड़ा होलन । पुलिस आयल आउ केस हो गेल । ई झगड़ा के चलते हरि महतो के घर तो न बनल, लेकिन करजा के पइसा केस लड़े में काम जरूर आ गेल ।

मँगरू के बेटा के माथा के घाव तो ठीक हो गेल, लेकिन ऊ पागल हो गेल । अप्पन बेटा के पागलपन के इलाज में मँगरू दर-दर भटकइत चललन । एक तो मोकदमा के करजा, ऊपर से बेटा के इलाज । कुल मिला के मँगरू के कुल जमा पूँजी खरच हो गेल । बेचारा के करजा लेवे के बारी आ गेल । मन मार के मँगरू आखिर समझू भगत के इहाँ करजा ला पहुँचहीं गेलन । समझू पाँच सौ रुपइया देके कहलन, "जरूरत पड़ला पर आउ रुपइया माँग लिहऽ । हिचकिचइहऽ मत ।"

जब उधार के रुपइया लेके मँगरू चललन तब उनका अप्पन दुर्दशा के अनुभव होयल । आज से पहिले मँगरू कोई के सामने हाथ न फैलैलन हल । ई झगड़ा में युवा दल के जउन-जउन सदस्य पड़लन, उनकर पढ़ाई-लिखाई तो छूटिये गेल, केस मुकदमा में भी काफी खरचा भेल । ई लोग भी सूद पर समझू भगत से करजा लेके केस मुकदमा से छुटकारा पयलन ।

X X X X X X X X X

समझू के आँख मँगरू के आलीशान मकान पर पड़ल हल । ऊ ई मकान के हड़पे के उपाय सोचइत हलन कि एतने में झलकू आ गेलन । झलकू के देखते समझू के आँख में चमक आ गेल । झलकू के कुरसी पर बइठा के चाह-पानी मँगैलन आउ अप्पन कूटनीतिक चाल के पहिला तीर छोड़लन, "गाँव घर के का हाल-चाल हे झलकू भाई ?"

"अइसे तो सब ठीक-ठाक हइ भइया ! लेकिन एगो बात हमरा समझ में न आवइत हे कि एतना कुछ करला पर भी हरिया के अइंठन न गेल । अबहियों ऊ ओइसहीं टेढ़िया के चलइत हे ।"
समझू कहलन,"अगर तूँ चाहबऽ झलकू भाई, तब हरिया के घमंड जरूर चूर हो जायत ।"
"से कइसे भइया !" झलकू तपाक से पूछलक ।
"एकरा लागी तोरा हरिया के विरोध में एगो झूठा गवाही देवे पड़तो ।" समझू अप्पन समझ के परिचय जब देलन तब झलकू झूठा गवाही देवे ला तइयार हो गेलन ।

झलकू के झूठा गवाही रंग लैलक । हरि महतो के एक साल के सजाय हो गेल । उनका जेल जाइते समझू भगत के सलाह पर मँगरू अप्पन तीन-चार अदमी के साथ एक दिन रात में हरि महतो के घर पर धावा बोल देलन । हरि महतो के दुन्नो बेटा घरे में हलन, से मुकावला तगड़ा हो गेल । एही बीच मँगरू के पगला बेटा भी उहाँ आ गेल । हरि महतो के छोटका बेटा अइसन लाठी मारलक कि मँगरू के बेटा सोमनाथ माथा धर के बइठ गेल । ई देखइते मँगरू के गुस्सा बढ़ गेल । ऊ तुरंत तमंचा निकाल के हरि महतो के छोटका बेटा के गोली मार देलन । गोली छूटइते समझू भगत पुलिस लेके घटना स्थल पर पहुँच गेलन । सब धरा गेलन ।

हत्या के जुर्म में मँगरू भगत के उम्र कैद के सजाय हो गेल । जब मामला ठंढा हो गेल, तब एक दिन समझू भगत सोमनाथ के एगो कागज देके कहलन, "जे उचित समझऽ से करऽ ।"
कागज के देखतहीं सोमनाथ के होश उड़ गेल । ओकरा समझ में आ गेल कि समझू भगत के समझ केतना खतरनाक हे । दरअसल समझू भगत मँगरू से जेल जाय के पहिले लिखवा लेलन हल कि हम तीस हजार रुपइया करजा दे पावे में असमर्थ ही, अगर हम्मर बेटा भी करजा उतारे में असमर्थ हो जायत तब तूँ हम्मर मकान के मालिक हो जयबऽ ।

X X X X X X X X X

हरि महतो आउ मँगरू भगत जेल में पत्थर तोड़इत-तोड़इत एकदम से टूट गेलन हे । बेटा से मकान वला बात सुन के मँगरू के रहल-सहल गरूर भी टूट गेल काहे कि उनकर आलिशान मकान के मालिक समझू भगत बन गेलन हल । एक दिन दुपहरिया के खाना खयला के बाद मँगरू दुखी मन से हरि महतो के पास पहुँचलन आउ उनकर पैर पकड़ के फूट-फूट के रोवे लगलन ।

हरि महतो व्यंग्यात्मक लहजा में बोललन, "का होलवऽ मँगरू भाई ? हम्मर बेटा के मार के भी तोर दिल में ठंढक अभी न पहुँचल हे ? आउ कुछ कसर बाकी रह गेल हवऽ त ओहू दूर कर लऽ हमरा मार के ।"

"धन जन के मदान्धता मानवता के विनाश के कारण बनऽ हे हरि भाई ! ई बात आज अच्छा से समझ गेली हे । हमरा अप्पन धन, जन, गोतिया, भाई आउ जात बेरादरी पर बहुत घमंड हल । एकरे जोर पर हम तोरा धूल-धूसरित करल चाहइत हली । लेकिन तोरा बरबाद करे के चक्कर में हम लुटा गेली । समझू पर हमरा बड़ी भरोसा हल, लेकिन ऊ हमरा लूट के आउ उलटे छूरा से मूड़ लेलक ।" मँगरू अप्पन आँसू पर काबू पावे के कोरसिस करइत-करइत कहलन ।

"का हो गेलवऽ मँगरू ? समझू भगत के आज तूँ शिकायत काहे करइत ह ?"

"समझू के बात मान के हम तोर घर पर चढ़ाई करे गेली आउ हम्मर हाथ से तोर बेटा के हत्या हो गेल । इहाँ हम जेल में पत्थर तोड़इत ही आउ आज समझू हम्मर मकान के बाजाप्ता मालिक हो गेल । समझू हम्मर सब धन हड़प गेल आउ तोर हँसइत खेलइत परिवार पर वज्रपात कर के हमनी दुन्नो के जिनगी वीरान खंडहर में बदल देलक । हम तोरा साथ जे जघन्य अपराध कइली हे, एकरा लागी तोरा से माफी माँगे के लायक तो न ही, लेकिन तइयो हरि भाई, हम एतना निर्लज्ज ही कि तोरा से माफी माँगे में तनिको शरमाइत न ही ।" एतना कह के मँगरू फिर से फूट-फूट के रोवे लगलन ।

सब बात सुन के हरि महतो के हिरदय द्रवित हो गेल । पैर पर गिरल मँगरू के उठा के गला से लगा लेलन आउ कहलन, "आज हमनी के दिल मिल गेल मँगरू भाई ! हमरा अब तोरा से कोई शिकायत न हे ।"

आज प्रेम रूपी निर्मल गंगा जल से दुन्नो के मन के घृणा रूपी मैल धुल गेल हल । ई लोग के देख के लगइते न हे कि ई दुन्नो कभी एक दूसर के दुश्मन हलन ।

--- अध्यक्ष, रसायन विभाग, पी॰एन॰के॰ कॉलेज, अछुआ, पालीगंज, पटना

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१, अंक-४, अक्टूबर १९९५, पृ॰१५-१९ से साभार]

No comments: