लघुकथाकार - विशेश्वर मिश्रा 'विकल'
हम आकस्मिक अवकाश में हली । हेडमास्टर साहेब भी हमरा छुट्टी देले हलन । क्षेत्रीय पदाधिकारी के औचक निरीक्षण भेल । हम्मर दरखास्त के नजरअंदाज करके हमरा औफिस बोलावल गेल । अगला दिन औफिस में मिलला पर पदाधिकारी जी कहलन - "बड़ा बाबू से मिल लऽ !"
बड़ा बाबू से मिलली त ऊ हमरा से एक हजार रुपइया घूस माँगलन । आके साहेब के सामने घिघिअइली, "छुट्टी में रहला पर भी बड़ा बाबू एक हजार माँगइत हथ ।"
"छुट्टी केकरा कहल जाहे से तो हम जानवे न करीं । नौकरी बचावे ला हवऽ त कम से कम पाँच सौ रुपइया लगवे करतवऽ ।" साहेब के बात सुन के हम्मर बोलती बंद हो गेल ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२७ से साभार]
1 comment:
साहेब के बात सुन के हम्मर बोलती बंद हो गेल ।
chhapo sabke chhapo, saheb-sahbaiin sabke kisa chhapo. bahut badhiya narayan ji.
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