लघुकथाकार - कृष्ण चन्द्र चौधरी
फेंकनी अप्पन गोदी में दू महीना के बुतरू लेले दुआरी पर बइठल हल । बुतरू बोखार से तलफइत हल । ओकर हालत देख के फेंकनी के चेहरा पर चिंता के छाँह पसरल हल ।
फेंकनी के मरद चार दिन से दतवन बेचे शहर गेल हलन । फेंकनी के हाथ में एक्को पइसा नयँ हल जे दवा-दारू करा सकऽ हल । ओझा-गुनी से भी कोई फयदा नयँ होल ।
फेंकनी पइसा लेल दसो दुआरी हो आल हल, मुदा कहीं से पइसा नयँ मिलल हल । मिलतइ हल भी कहाँ से ? सउँसे भुईं टोली के एक्के हालत हल । हाँफइत बुतरू पर नजर पड़ल त फेंकनी के आँख लोर से भर गेल ।
ओही घड़ी सुकनी बूढ़ी काँख में पोटली दबयले उहाँ आ खड़ा होल । दिन भर भीख माँग के आल हल, से थक गेल हल । तनि सुस्ताय ला बइठ के पूछलक -"फेंकनी ! तूँ काहे रोवइत ह ?"
"हम्मर बुतरू बेमार हे माय ! हाथ में एक्को पइसा नयँ हे । दवा-दारू कहाँ से करा सकऽ ही ?" फेंकनी सुबकते बतयलक ।
"हम पइसा देइत हियो, कोई डागडर से जाके देखावऽ ।" कह के सुकनी अप्पन पोटली खोललक आउ दस रुपइया के नोट ओकर हाथ पर रख देलक । फेंकनी के लगल कि गाँव-गाँव माँग-चाँग के खाय ओली सुकनी बूढ़ी भीखमंगनी नयँ हे, बलुक ममता के देवी हे ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰२७ से साभार; पत्रिका में प्रकाशित लघुकथा के मूल शीर्षक - "देवी"]
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