लघुकथाकार - डॉ॰ अभिमन्यु प्रसाद मौर्य
शिवनाथ जी आज बहुत खुश हथ । अप्पन लंगोटिया इयार शम्भु जी के मोटर कार पर कपड़ा बजार जाइत हथ ! रस्ता में शम्भु जी पूछ बइठलन - "सब ठीक ठाक हो गेलई हे न शिवनाथ भाई !"
"हँ शम्भु भाई ! सब तय हो गेलई हे । आठ भर सोना, एगो मोटर साइकिल, कलर टीवी, फ्रीज के अलावे डेढ़ लाख नगद देवे ला हई । एकरा अलावे दरवाजा के शोभा में बाजा-बत्ती हमरे करे ला हे ।"
शम्भु जी कहलन - "इंजीनियर लड़का के एतना से कम का देबहू ?"
शिवनाथ जी हामी भरलन - "एही से तो हम एतना देवे ला तइयारो हो गेली । आज लड़का के पसन्द से कपड़ा दिलावे जाइत ही ।"
दुन्नो इयार के हथुआ मार्केट पहुँचला के बाद लड़का अप्पन बाबूजी के जौरे रिक्शा से उतरलन । राम सलाम भेल । चारो एगो निमन होटल में बइठ के नश्ता कैलन । फिन एगो बड़का कपड़ा दोकान में घुसलन तब दू घंटा के बाद खरीदारी करके निकललन । बारह हजार रुपइया के कपड़ा किनाएल ।
शिवनाथ जी एगो खाली रिक्शा पर कपड़ा के पैकेट रख के चालक के कहलन - "बाबू लोग के पोस्टल-पार्क पहुँचा देहू ।"
लड़का के बाबूजी कहलन - "शिवनाथ बाबू ! अभी लड़की के कपड़ा लेवे ला तो बाकिये हे ।"
शिवनाथ जी हड़बड़ायल बोललन - "ऊ सब जनानी लोग के काम हे । अपने के घरुआरी हइए हथन । ओही अप्पन पसन्द से कीन लेतन ।"
"से कइसे होयत ? लड़की के कपड़ा भी अपने कीन के हमरा दे दीं । कन्या निरीक्षण में हम ओही चढ़ा देम ।"
अबकी शम्भु बाबू चउँक गेलन । कहलन - "लड़का के कपड़ा हमनी देली, से तो ठीक हे बाबू साहेब ! बाकि लड़की के कपड़ा तो अपने के देवे पड़त । एही रेवाज हे ।"
"हम ई सब कुछ न जानी । हम खाली लड़का लेके बरात में चल आयम । बेटी-दमाद के का देवे ला हे, से अपने समझीं ।"
शम्भु जी कुछ कहतन हल, ओकरा से पहिलहीं शिवनाथ जी हाथ जोड़ के लड़का के बाबूजी से कहलन - "अपने जब अइसन बात कहइत हथिन तब तो हमरा बुझायत हे कि ई बियाहे न होयत ।"
शम्भु जी फिन चउँकलन आउ शिवनाथ जी के समझावे लगलन - "ई का कहइत ह शिवनाथ भाई ! लड़की के कपड़ा में पाँच हजार से जादे नऽ लगतवऽ ।"
"बात खाली पाँच हजार रुपइया के नऽ हई शम्भु भाई ! हम सोचइत ही कि हमरे देवल डेढ़ लाख रुपइया में से जउन हम्मर बेटी पर एतनो खरचा न कर सकऽ हे, ऊ परिवार के हैसियत दरअसल डेढ़ लाख दहेज के लायक हइये न हे ।"
शम्भु जी उनका समझावे के अन्तिम प्रयास केलन - "कोई भी निरनय जल्दीबाजी में न लेवे के चाही ।"
"हम कोई आवेश में ई निरनय न ले रहली हे । हम सोच-समझ के ई कदम उठावइत ही । विचार करे के बात ई हे कि जउन लोग बियाहो में अप्पन पुतोह के एगो साड़ी नऽ दे सकऽ हथ, उनका हीं रह के तो हम्मर बेटी जिनगी भर कपड़ा ला तरस जायत ।" एतना कह के शिवनाथ जी रिक्शा पर से कपड़ा के पैकेट उठयलन आउ शम्भु जी के कार में रख देलन ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰९-१० से साभार]
शिवनाथ जी आज बहुत खुश हथ । अप्पन लंगोटिया इयार शम्भु जी के मोटर कार पर कपड़ा बजार जाइत हथ ! रस्ता में शम्भु जी पूछ बइठलन - "सब ठीक ठाक हो गेलई हे न शिवनाथ भाई !"
"हँ शम्भु भाई ! सब तय हो गेलई हे । आठ भर सोना, एगो मोटर साइकिल, कलर टीवी, फ्रीज के अलावे डेढ़ लाख नगद देवे ला हई । एकरा अलावे दरवाजा के शोभा में बाजा-बत्ती हमरे करे ला हे ।"
शम्भु जी कहलन - "इंजीनियर लड़का के एतना से कम का देबहू ?"
शिवनाथ जी हामी भरलन - "एही से तो हम एतना देवे ला तइयारो हो गेली । आज लड़का के पसन्द से कपड़ा दिलावे जाइत ही ।"
दुन्नो इयार के हथुआ मार्केट पहुँचला के बाद लड़का अप्पन बाबूजी के जौरे रिक्शा से उतरलन । राम सलाम भेल । चारो एगो निमन होटल में बइठ के नश्ता कैलन । फिन एगो बड़का कपड़ा दोकान में घुसलन तब दू घंटा के बाद खरीदारी करके निकललन । बारह हजार रुपइया के कपड़ा किनाएल ।
शिवनाथ जी एगो खाली रिक्शा पर कपड़ा के पैकेट रख के चालक के कहलन - "बाबू लोग के पोस्टल-पार्क पहुँचा देहू ।"
लड़का के बाबूजी कहलन - "शिवनाथ बाबू ! अभी लड़की के कपड़ा लेवे ला तो बाकिये हे ।"
शिवनाथ जी हड़बड़ायल बोललन - "ऊ सब जनानी लोग के काम हे । अपने के घरुआरी हइए हथन । ओही अप्पन पसन्द से कीन लेतन ।"
"से कइसे होयत ? लड़की के कपड़ा भी अपने कीन के हमरा दे दीं । कन्या निरीक्षण में हम ओही चढ़ा देम ।"
अबकी शम्भु बाबू चउँक गेलन । कहलन - "लड़का के कपड़ा हमनी देली, से तो ठीक हे बाबू साहेब ! बाकि लड़की के कपड़ा तो अपने के देवे पड़त । एही रेवाज हे ।"
"हम ई सब कुछ न जानी । हम खाली लड़का लेके बरात में चल आयम । बेटी-दमाद के का देवे ला हे, से अपने समझीं ।"
शम्भु जी कुछ कहतन हल, ओकरा से पहिलहीं शिवनाथ जी हाथ जोड़ के लड़का के बाबूजी से कहलन - "अपने जब अइसन बात कहइत हथिन तब तो हमरा बुझायत हे कि ई बियाहे न होयत ।"
शम्भु जी फिन चउँकलन आउ शिवनाथ जी के समझावे लगलन - "ई का कहइत ह शिवनाथ भाई ! लड़की के कपड़ा में पाँच हजार से जादे नऽ लगतवऽ ।"
"बात खाली पाँच हजार रुपइया के नऽ हई शम्भु भाई ! हम सोचइत ही कि हमरे देवल डेढ़ लाख रुपइया में से जउन हम्मर बेटी पर एतनो खरचा न कर सकऽ हे, ऊ परिवार के हैसियत दरअसल डेढ़ लाख दहेज के लायक हइये न हे ।"
शम्भु जी उनका समझावे के अन्तिम प्रयास केलन - "कोई भी निरनय जल्दीबाजी में न लेवे के चाही ।"
"हम कोई आवेश में ई निरनय न ले रहली हे । हम सोच-समझ के ई कदम उठावइत ही । विचार करे के बात ई हे कि जउन लोग बियाहो में अप्पन पुतोह के एगो साड़ी नऽ दे सकऽ हथ, उनका हीं रह के तो हम्मर बेटी जिनगी भर कपड़ा ला तरस जायत ।" एतना कह के शिवनाथ जी रिक्शा पर से कपड़ा के पैकेट उठयलन आउ शम्भु जी के कार में रख देलन ।
[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-४, अंक-१, जनवरी १९९८, पृ॰९-१० से साभार]
No comments:
Post a Comment