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Thursday, October 13, 2011

फैसला - भाग 13


- 13 -

कम्पनी के काम में अविनाश लीन हल कि टेलिफोन के घंटी बज उठल ।
“हैलो, अविनाश हियर ।” - रिसीवर उठाके बोलल ।
“अविनाश, हम चन्द्रु बोल रहलियो ह ।”
“हाय, लंदन कब पहुँचलऽ ?”
“अविनाश, हम काहाँ से बात कर रहलियो ह, ई मालूम होला पर तोरा अचरज होतो !”
“काहाँ से बात कर रहलऽ ह ?”
“मद्रास एयरपोर्ट से !”
“ई कीऽ भई, बुतरखेल कर रहलऽ ह ?”
“नयँ भई, वास्तव में ! अभीये तो मुम्बई से आके विमान से उतरके अइलियो ह । उतरतहीं फोन कर रहलियो ह । लन्दन ट्रिप रद्द हो गेलइ ।”
“ई तो मालूम पड़ रहले ह न; लेकिन काहे ?”

“मुम्बई में अप्पन भौजी हीं दू दिन ठहरके आगे के यात्रा करबइ, अइसे तो बतइलियो हल न । कल लन्दन से फोन अइलइ । हम्मर दोस्त के एक ठो दुर्घटना में पैर जख्मी हो गेला से ऊ घरे पर हका । ‘एक महिन्ना के बाद अइला पर तोहरा साथ दे सकऽ हकियो ।’ - अइसन सूचना देलका । ऊ रहता त सगरो हमरा लेके जइता, ई सोचके धीरज रखके वापस चल अइलूँ । उनकर घर में अभी दुख-तकलीफ होला से हम सबके हुआँ जाके मजा उड़ाना ठीक नयँ, ओहे से ट्रिप कैंसिल कर देलिअइ ।”
“अइसन बात हइ ?” - अविनाश चिन्ताग्रस्त होके बोलल ।
“ठीक हइ । कल आ रहलियो ह । सब कुछ विस्तार से बात कइल जाय ।”

“तोर कहानी तो बहुत अच्छा हको !  ‘घर के चाभी तोरा पास छोड़के एयरपोर्ट से बात कर रहलियो ह ...’ । ओह, सॉरी ! .... एयरपोर्ट पर ही रहऽ । हम्मर ऑफिस पिऊन के हाथ में चाभी अभीये भेजवाके दे रहलियो ह । ऊ तोरा से भेंट कर लेतो । काहाँ खड़ा रहबऽ, ई ठीक-ठीक बतावऽ ।”
“हम कहूँ खड़ा रहे वला नयँ । टैक्सी से सीधे घर जाय वला । तूँ चाभी घर पर भेजावऽ । ओकरा आवे तक हम दरवाजे पर इन्तज़ार करते रहम ।”
“ओ.के. ।” - कहके अविनाश चिन्ता में डूब गेल । ‘आवे में बीस दिन लग जात’ कहके अचानक आके खड़ा हो गेल न !  ..... एरा से कीऽ ? ऊ कुआँ में उतरके बालू के खोदके देखत थोड़े ?”
घर के अन्दर कोय सुराग मिल्ले जइसन नयँ छोड़लूँ हँ ! .... फेर डर कौन बात के ?
तइयो अविनाश के दिल धड़-धड़ करे लगल ।
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दस मिनट में नटराज आ गेल ।
दयाल ओकरा पूछके मेनका के फोटो ओकरा देखइलका ।
“हाँ, एहे अम्मा सर ! कीऽ होलइ ? मौत कइसे हो गेलइ ? .... हाय बेचारी !  .... मेन रोड पर हम्मर ऑटो बिगड़के खड़ा हो गेलइ सर । ऊ अम्मा के कोय एक्सटेंसन में जायके हलइ ! ... हाँ ! ..... भारतीनगर एक्सटेंसन ! चलके जा अम्मा, ई कहके उनका उतारे पड़लइ । .... हम आउ कीऽ करतिये हल ? बताथिन ।”
“ऊ बखत केतना बजले होत ?”
“शायद आठ बज्जऽ होतइ ।”
“घर के नम्बर ऊ बतइलका हल ?”
“नयँ सर । हाथ में पता लिक्खल कागज पकड़ले हला ।”
“भारतीनगर एक्सटेंसन, ई तोरा ठीक से मालूम हको ?”
“हाँ सर । परसूँ रात चलके गेला हल न । एतने समय में कइसे भुल जइतइ ? लड़की के मौत कइसे हो गेलइ ? ई कीऽ हत्या हइ, सर ?”
ओकरा बिना उत्तर देले दयाल सोच में डूब गेला ।

ई केस छोड़के काम कर रहलऽ ह न ! ‘मीनाम्बक्कम्’ कहे वली अप्पन सहेली के नाम नयँ बता सकऽ हल ? ... साला ई भारतीनगर एक्सटेंसन कहला पर सब घर के सामने ड्योढ़ी पर जाके पुच्छे ल सम्भव हइ ?
ई जाय दे । रात में आठ बजे मीनाम्बक्कम् एक्सटेंसन में ठहरल मेनका बेसेंटनगर के समुद्रतट पर काहे ल आल ? कइसे आल ? ई ऑटोचालक तो मीनाम्बक्कम् जाय के बदले बेसेंटनगर के समुद्रतट पर ले जाके कहीं ओक्कर गला दबा देलक होत त ? अहल्या ग्रुप से जुड़ल तो कहीं नयँ ? ...
लेकिन एक्कर जवाब में झूठ नयँ देखाय दे हके । आँख में कोय कपट देखाय नयँ दे हके । अगर एहे होत हल त ऐसे ओरा ले जाय वला हमहीं हकूँ, ई मानत हल ?

“हम्मर बाइक के पीछे बइठ जा । हमरा साथे आवऽ । ऊ लड़की के काहाँ उतारलऽ हल, ऊ जगह देखाके तूँ वापस जा सकऽ ह ।” - दयाल बोलला ।
“ठीक हइ, सर ।” - कहके तुरत्ते बइठे ल तैयार ऊ रिक्शा वाला के कहलका - “ठहरऽ भई, तूँ अभी तक खाना नयँ खइलऽ ह ... तूँ खाना खा ल, हम इन्तज़ार करऽ हियो । दस मिनट में कुछ नयँ होवे वला । खाके आवऽ ।”

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