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ऊ दिन छो बजे के समय नीला अम्बासडर कार में बइठल हल अविनाश । कार के आगे-पीछे के नम्बर प्लेट पर “FOR REGISTRATION” अइसन लिक्खल चीट लगल हलइ ।
साँझ के सूरज आगे जाय के दुविधा के जानके गोस्सा में लाल हो गेला हल । कल कोर्ट में गवाही देवे ल कहीं आवे नयँ पड़े, ई डर से फुरती-फुरती छिप छिप जाय के तैयारी कर रहला हल ।
कुछ मिनट बाद तीन पीस मिडी पोशाक पहनके ऑटोरिक्शा से उतरके नन्दिनी मारुति कार के खोजलक ।
अप्पन कार से अविनाश हाथ देके ओरा बोलइलक । नन्दिनी आल ।
“हे ! नाया कार की ? बतइवे नयँ कइलऽ ?”
“बइठ जो । जइते-जइते बतइवउ ।”
ओक्कर बगले में बइठल नन्दिनी आँख पर के धूप चश्मा उतारके बैग में धैलक ।
“कब खरीदलऽ , अविनाश ?” - ऊ ओक्कर बाहँ पर हाथ रखके पूछलक ।
“ई हम्मर दोस्त के कार हइ, नन्दिनी । हम्मर कार मरम्मत लगि देल हइ ।” - अविनाश एतना कहके कार चालू कइलक ।
भारतीनगर में के लाल मिट्टी वला कच्चा रोड से आगे बढ़के कार चन्द्रु के घर के सामने आके खड़ा होला पर अन्धकार छा गेल हल । पूरब तरफ थोड़े रोशनी देखाय दे रहल हल ।
कार से उतरके नन्दिनी सीटी बजइलक ।
“अच्छा जगह पकड़लऽ ह । घर अनाथ हो गेल ह ।”
“हमरा कोय तकलीफ नयँ होत नन्दिनी ।”
अप्पन खुद के घर जइसे चाभी निकालके अविनाश घर के ताला खोललक । अन्दर गेल । दरवाजा बन्द कर लेलक ।
बेडरूम में दीपक जललइलक । एक ठो विमान बहुत नीचे से उड़के गेल जेक्कर शब्द से बँगला ही हिल्ले के भ्रम होल ।
“नन्दिनी, आज तोर जीवन के अन्तिम दिन अगर कहल जाय त तोर अन्तिम इच्छा की होतउ ?”- अविनाश पूछलक ।
“तोहर सिर के कोय नट ढीला तो नयँ हो गेलो ह ? एक्के रट लगइले खाली काल्पनिक प्रश्न ही कर रहलऽ ह ?”
“उत्तर दे नन्दिनी ।”
“वेल ... हम मरते बखत भी तोरे आलिंगन कइले रहूँ ।”
“तोर अन्तिम इच्छा भी एतना सधारण ? एकरा पूरा कर देम “ - कहके अविनाश नज़र डालते अप्पन शर्ट उतारलक । ज़ीरो वाट के बल्ब जलाके बाकी के बुझा देलक । ओकरा आलिंगन कइलक ।
दूनहूँ पेन्हल पोशाक उतारके मन्द रोशनी के बस्तर जइसे इस्तेमाल करके गरम उच्छ्वास छोड़लका ।
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ऊ ऑटो धीमा गति से आगे बढ़ते आ रहल हल । ड्राइवर बीड़ी पीते गाड़ी चला रहल हल । ऑटो में ऊ तरुणी बइठल हल । मेनका । कॉटन साड़ी पेन्हले हल । एक ठो लमगर चोटी कइले । ई कन्धा पर नाच रहल हल । बाँह में एक ठो बैग । हाथ में एक ठो पता लिक्खल पत्र । ऊ पता हल -
श्रीमती भवानी चन्द्रु
16/7, भारतीनगर एक्सटेंशन
मीनाम्बक्कम् , मद्रास - 600 027
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पीठ पसीना से तर हो गेल हल । ओइसहीं शर्ट पेन्ह लेवे पर पीठ से चिपक गेल ।
“की उठके छोड़ देलऽ । थोड़े देर ल ई दुनिया के भुला देल जाय अविनाश” - नन्दिनी बोलल ।
“ई दुनिया के भुला देवे के चाही, एतने न ? कपड़ा पेन्ह ले । इन्तज़ाम कर दे हिअउ ।”
पैंट में शर्ट के अन्दर कइलक अविनाश । फिर बेल्ट लगा लेलक ।
नन्दिनी कपड़ा पेन्ह लेलक । दीप जलावे बखत अप्पन स्टिकर कुमकुम के बिछौना पर खोजके निरार पर लगा लेलक ।
“अविनाश, ई गलत हइ न ?”
“गलत तो हइ । बड़गर गलती हइ । मर्द के ई समाज कइएक सहूलियत देलक ह । लेकिन गैर शादीशुदा औरत लगि ई महापाप हइ ।”
“चलऽ । तूँ बहुत बोर करऽ ह ... शादी कब ?”
“दस दिन में ।”
“सच ?”
“हाँ नन्दिनी” - अविनाश कहलक ।
पैंट के जेभी में हाथ डालके बाहर निकाललक । ई चार फुट लम्बा नायलन के रस्सी !
“ई की जी ? ई रस्सी काहे ल लइलऽ ह ?”
“तोर हत्या करे ल !”
“तोर बात सुनके तो हमरा हँसी नयँ आवऽ हको, भई ।”
झट से ओक्कर गर्दन के चारो तरफ रस्सी लपेट देलक ।
“बुतरू के खेल मत करऽ अविनाश । बाद में नयँ मालूम की से की हो जात !” - ऊ मूर्ख लड़की बोलल । अभीयो ऊ ओकरा पर विश्वास कर रहल हल ।
“हम तो खेल नयँ खेल रहलियो ह । वास्तव में मरे के पहिले कारण नयँ मालूम रहला पर मर गेला से किच्चिन बनके भटके परतउ । एगो उद्योगपति के बेटी के साथ हम्मर शादी के तैयारी हो गेल ह । तूँ खुद्दे दूर हो जो, अइसन कहला पर तूँ सुन्ने वाली नयँ । ओहे से तोरा हीआँ बोलाके लाके तोर अन्तिम इच्छा के पूरा करके तोर आउ एक इच्छा ... ई दुनिया के हमेशा लगि भूल जाय जइसन अब कर दे हिअउ ।”
नन्दिनी के अब परिस्थिति समझ में आ गेल । छुटकारा पावे ल प्रयास कइलक ... सामने हीं नायलन रस्सी के छोर पकड़ले ओक्कर हाथ के एद्धिर-ओद्धिर खींच्चे ल बीचवे में पकड़ले अप्पन गर्दन के रस्सी ढीला करे लगल ।
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मीनाम्बक्कम् के सीमा पर पहुँचके भारतीनगर के तरफ जाय ल निकलल ऑटोरिक्शा अचानक हिलके रुक गेल । ड्राइवर के केतनो भी कोशिश कइला पर भी ई आगे बढ़ल नयँ ।
“गाड़ी खराब हो गेलो, मैडम । मीटर के हिसाब से भाड़ा देके उतर जा ।” - चालक बोलल ।
ऊ औरत मेनका आतंकित होके बोलल ।
“ई की भई, बिच्चे रस्ता में ‘उतर जा’ कहे से कइसे चलतो ? हीआँ आउ दोसर कोय ऑटो तो मिल्लत नयँ, अइसन लगऽ हके ।”
“हम की कर सकऽ हकियो बहन जी ? ... ऊ ... हुआँ झुक्की नियन घर में रोशनी देखाय दे रहलो ह न !”
“हाँ ।”
“मतलब भारतीनगर एहे हको । तोहर बतावल एक्सटेंसन एकरा पार करके गेला पर मिलतो । फुरती फुरती चलके गेला पर आधा घंटा में हुआँ पहुँच जा सकऽ ह ।”
नकिअइते ही पइसा देके साड़ी के छोर के बीच में पकड़ले मेन रोड से फुट्टल रस्ता में ऊ अन्हार में पैदल चल पड़ल । घड़ी देखलक । साढ़े आठ ।
बहुत मन्द चाँदनी में शायद कोय बग्गी-उग्गी आ रहल होत, ई देखलक । ...
गोबर ! छी ... बगल में एक साइट के कोना में एक ठो पत्थर जड़ल हल । ऊ पत्थर पर चप्पल डालके रगड़के ... ठीक करके आगे चलल आउ सोचे लगल ।
भवानी हका ? ... हम्मर पत्र उनका मिल्लल होत न ...
हथुन । पक्का हथुन । ... एतना देर से नयँ आवे के चाही हल । आगे-पीछे बिना देखल जगह में अकेल्ले आवे के नयँ चाही हल । लेकिन दिन में समय काहाँ हलइ ?
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