वेताल
कथा (चान मामूँ) - 1. मंत्री के मौत
(चंदामामा-अक्टूबर
1955, पृ॰17-23)
[17] कोय जमाना में गोदावरी नदी के किनारे बस्सल
प्रतिष्ठान राज्य पर विक्रम राज्य करऽ हलइ। एक दिन ओकर दरबार में शान्तिशील नाम के
एगो भिक्षु अइलइ। ऊ ओकरा एगो फल भेंट में देलकइ। राजा ऊ फल के अपन पालतू वानर के देलकइ।
वनरवा जइसीं ऊ फलवा के कटलकइ त ओकरा में से एगो रत्न बाहर निकसके अइलइ।
ई
देखके विक्रम चकित होलइ। "अपने हमरा से कीऽ सहायता चाहऽ हथिन?" राजा भिक्षु
से पुछलकइ।
"राजन्!
हम मन्त्र-तन्त्र सिक्खे के साधना कर रहलिए ह। ऊ साधना के पूरा करे लगी एगो महावीर
के सहायता चाही। ई संसार में अपने से बढ़के केऽ महावीर हो सकऽ हइ?"
[18] "अपने कइसन सहायता चाहऽ हथिन?" राजा पुछलकइ।
"अगर
अगला कृष्ण चतुर्दशी के दिन श्मशान में आ सकथिन त हुआँ परी एगो बर (बरगद) के पेड़ के
निच्चे हम अपने के इंतजार में रहबइ। तब हम बतइबइ कि हमरा कइसन सहायता चाही।" भिक्षु
कहलकइ।
राजा
मान गेलइ। कृष्ण चतुर्दशी के दिन आधी रात के, कार कपड़ा पेन्हके, तलवार लेके, ऊ श्मशान
में जाके भिक्षु से मिललइ।
"राजन्!
अगर दक्खिन तरफ जइथिन त हुआँ परी अपने के एगो पीपर के पेड़ देखाय देतइ। ओकरा पर एगो
लाश लटकल देखाय देतइ। अपने चुपचाप ऊ लाश के पेड़ पर से उतारके हियाँ ले आथिन।"
- भिक्षु कहलकइ।
विक्रम
दक्खिन तरफ गेलइ आउ पीपर के पेड़ पर एगो लाश लटकल देखलकइ। पेड़ पर चढ़के लशवा जे रस्सी
से बन्हल हलइ ऊ रस्सी के अपन तलवार से काट देलकइ। लशवा धड़ाम से निच्चे गिरलइ आउ निच्चे
गिरतहीं ऊ लशवा कन्ने लगलइ। राजा के अचरज होलइ। ऊ पेड़ पर से उतर अइलइ आउ लशवा के गौर
से देखे लगलइ। तुरतम्मे लशवा हँस्से लगलइ।
राजा
समझ गेलइ कि लशवा में कोय बेताल हइ। "काहे लगी हँस्सऽ हँऽ? चल, चलल जाय।"
राजा के मुँह से ई बात निकसलइ कि लशवा झट फेर से पेड़ पर चढ़ गेलइ आउ डाढ़ से पहिलहीं
नियन लटके लगलइ।
राजा
फेर पेड़ पर चढ़लइ, लशवा के उतरलकइ आउ ओकरा कन्हा पर रखके चुपचाप श्मशान दने चल पड़लइ।
तब
लाश के वेताल राजा विक्रम के ई कहानी सुनावे लगलइ - "राजा! अफसोस हको कि तोरा
बोझ ढोवे पड़ [19] रहलो ह। हम तोरा एगो छोटगर
कहानी सुनावऽ हियो, सुन्नऽ।"
यशकेतु
नाम के राजा अंगदेश के राज्य करऽ हलइ। ओकर एगो मंत्री हलइ, जेकर नाम दीर्घदर्शी हलइ।
चूँकि यशकेतु हमेशे अन्तःपुर में भोग-विलास में मस्त रहऽ हलइ, ओहे से राज्य के समुच्चा
भार मंत्री दीर्घदर्शी पर आके पड़ गेले हल आउ हलाँकि दीर्घदर्शी बहुत सवधानी आउ न्यायपूर्ण
पद्धति से राज्य कर रहले हल, तइयो बुरा-भला कहे वला लोग ओकरा बुरा-भला कहवे करऽ हलइ।
ओकन्हीं कहते रहऽ हलइ कि राजा के भोग-विलास में डालके ऊ खुद राजा बन बैठले ह। ई बात
सुनके दीर्घदर्शी के बहुत दुख होवइ। ऊ राजा बिजुन जाके कहलकइ - "महाराज, हम तीर्थ-यात्रा
पर जा रहलिए ह। अपने अब अपन राज्य खुद्दे देख लेथिन।" राजा ओकरा बहुत कहलकइ कि
ऊ तीर्थ-यात्रा पर नञ् जाय, लेकिन दीर्घदर्शी नञ् मनलकइ आउ ऊ अपन यात्रा पर चल गेलइ।
कुछ
दिन सफर कइला के बाद ऊ एगो गाम में पहुँचलइ। हुआँ परी ओकरा एगो व्यापारी से जान-पछान
हो गेलइ। ऊ व्यापारी सामुद्र पार देश से व्यापार करऽ हलइ।
[20] "हम आझ जहाज में माल लादके स्वर्ण-द्वीप जा
रहलियो ह। तूहूँ हमरा साथ चलऽ।" - व्यापारी दीर्घदर्शी के सामने अपन इच्छा प्रकट
कइलकइ। ऊ मान गेलइ।
जब
ओकन्हीं स्वर्ण-द्वीप से वापिस आब करऽ हलइ, त एक दिन दीर्घदर्शी के समुद्र में एगो
आश्चर्यजनक दृश्य देखाय देलकइ। समुद्र के लहर में से एगो बड़का गो पेड़ उपरे निकसलइ।
ओकरा पर एगो बहुत्ते सुन्दर स्त्री वीणा बजइते देखाय देलकइ। देखते-देखते ऊ दृश्य गायबो
हो गेलइ। नाविक लोग दीर्घदर्शी के चकित देखके कहलकइ - ई दृश्य ई प्रान्त में हमन्हीं
के हर तुरी देखाय दे हइ, महाराज!"
कुछ
दिन बाद दीर्घदर्शी अंगदेश वापिस पहुँचलइ। मंत्री के देखके राजा बड़ी खुश होलइ। मंत्री
के जाय के बाद राजा ई भूल गेलइ कि मन के शान्ति केकरा कहऽ हइ। ओकरा न अराम हलइ न चैन।
"खैर, मंत्री! तूँ संसार में कइसन-कइसन अजीब चीज देखलऽ?" - राजा पुछलकइ।
"महाराज!
जब हम एगो व्यापारी के साथ स्वर्ण-द्वीप जाके वापिस आब करऽ हलिअइ त समुद्र में हम एगो
बहुत्ते सुन्दर, अद्भुत युवती के देखलिअइ। ई कोय अप्सरा होतइ। हमरा देखते-देखते ऊ अदृश्य
हो गेलइ।" - दीर्घदर्शी कहलकइ।
ई
सुनतहीं राजा ऊ स्त्री के देखे लगी उताहुल (उतावला) हो गेलइ। मंत्री बहुत समझइलकइ-बुझइलकइ,
लेकिन राजा राज्य-भार मंत्री पर डालके खुद यात्रा पर निकस पड़लइ। समुद्र के किनारा पर
पहुँचला के कुछ दिन बादे ओकरा स्वर्ण-द्वीप तरफ जाय वला एगो जहाज मिल गेलइ। राजा ऊ
जहाज के व्यापारी से दोस्ती कर लेलकइ आउ जहाज में यात्रा करे लगलइ।
[21] कुछ दिन के बाद, समुद्र में राजा के भी एगो पेड़ देखाय
देलकइ, जेकरा पर एगो स्त्री वीणा बजा रहले हल। ई देखतहीं, राजा न आव देखलकइ न ताव,
ऊ समुद्र में कूद पड़लइ।
समुद्र
के तह में राजा के एगो महानगर देखाय देलकइ। ओकरा कधरो कोय प्राणी नञ् देखाय देलकइ।
लेकिन, ऊ अपन जिद में घूमते गेलइ। आखिर ऊ एगो विशाल भवन में पहुँचलइ। ओकरा एक कमरा
में हंस के पंख के गद्दी पर एगो बहुत्ते सुन्दर स्त्री देखाय देलकइ। राजा ओकरा देखतहीं
पुछलकइ - "तूँ केऽ हकऽ? आउ ई निर्जन जगह पर तूँ अकेल्ले कीऽ कर रहलऽ ह?"
"राजा,
हम एगो गन्धर्व स्त्री ही। हमर नाम मृगांकवती। हमर पिताजी हमरा बहुत मानऽ हला। अगर
हम साथ नञ् होवऽ हलिअइ, त ऊ कभी भोजन नञ् करऽ हलथिन। हम हरेक अष्टमी आउ चतुर्दशी के
दिन गौरी पूजा करे जाब करऽ हलिअइ। एक तुरी पूजा में मग्न होके हम साँझ तलक घर नञ् अइलिअइ।
तब तक पिताजी भोजन नञ् कइलथिन। एकरा पर उनका गोस्सा आ गेलइ आउ हमरा शाप देलथिन कि हम
निर्जन नगर में रहूँ।" - ऊ स्त्री कहलकइ।
[22] "जे गुजर गेलो, ओकर फिकिर नञ् करऽ। हम तोरा
से बिन विवाह कइले जिन्दा नञ् रह सकऽ ही। हम दुन्नु विवाह करके हिएँ रहते जइबइ।"
- राजा कहलकइ।
"तोरा
से शादी करे में हमरा कोय एतराज नञ् हको। लेकिन एक बात के खियाल रक्खऽ। हमरा हमर पिताजी
गोस्सा में शाप तो दे देलथिन हल, लेकिन हमरा मनावे पर ऊ शाप से मुक्त होवे के मार्ग
भी बता देलथिन हल कि अगर हमरा से विवाह करके कोय सात दिन हमरा साथ रहे त हम शाप से
मुक्त हो जइबइ। आउ हम गन्धर्व लोक में अपन पिता से फिर मिल सकबइ। कोय न कोय तो हमरा
शाप से मुक्त करतइ, ई सोचके हम समुद्र पर देखाय दे हलिअइ। एतना दिन के बाद, आझ सौभाग्य
से तूँ आके मिललऽ।" - मृगांकवती कहलकइ।
राजा
बड़ी प्रेम से कहलकइ - "अगर तूँ हमर पत्नी एक्को पल खातिर बन जइबऽ त हम धन्य हो
जाम।"
मृगांकवती
के राजा पर अत्यधिक प्रेम होवे लगलइ। आँगन में एगो कुआँ देखके ऊ कहलकइ - "ई सप्ताह
भर में तूँ भूलियोके ई कुआँ में नञ् उतरिहऽ। अगर कहीं उतर गेलऽ, त दोसरे पल तूँ भूलोक
(मृत्युलोक) में होबऽ। तोहरा बिना हम ई निर्जन नगर में एक्को पल नञ् रह सकऽ ही।"
समुद्र
के तह में बस्सल ऊ निर्जन नगर में मृगांकवती के साथ हुआँ के अजीब चीज देखते-देखते यशकेतु
मजे में एक सप्ताह काट देलकइ।
"राजा!
अब हमरा अपन लोक में जाय के समय आ गेलो ह। हम तोहर प्रेम, स्नेह कभियो नञ् भूल पइबो,
हमेशे आद रखबो। अब हमरा जाय दऽ।" कहते मृगांकवती राजा के कुआँ बिजुन लइलकइ।
[23] राजा जाय लगी नञ् चाहऽ हलइ। ऊ मृगांकवती से कहलकइ
- "कुछ दिन, हमरा साथ, हमर नगर में काहे नञ् रह जाहऽ?"
"राजा,
अगर हम भूलोक में गेलियो त हम मानव-कन्या हो जइबो।" - मृगांकवती कहलकइ।
राजा
ओकरा दने अइसे गेलइ, जइसे ओकरा से बिदाई लेवे जा रहल होवे, लेकिन ओकरा जोर से पकड़के
ओकरा साथ ऊ कूमा में कूद पड़लइ। दोसरे पल दुन्नु भूलोक पहुँच गेते गेलइ। मृगांकवती मानव-कन्या
हो गेलइ। राजा ओकरा अंगदेश ले गेलइ आउ एक दिन बड़ी धूमधाम से ओकरा साथ विवाह कर लेलकइ।
ओहे दिन अंगदेश के मन्त्री दीर्घदर्शी हृदय के धड़कन बन्द हो जाय से मर गेलइ।
एतना
कहानी सुनाके वेताल पुछलकइ - "राजा! ई बतावऽ, मन्त्री दीर्घदर्शी काहे मर गेलइ?
कीऽ ई लगी कि चल गेल राजा वापिस आके ओकर राज्य में विघ्न डाल रहले हल? कि ई लगी कि
जे सुन्दर स्त्री के ऊ देखलके हल, ऊ सुन्दर स्त्री से राजा विवाह कर लेलकइ? अगर ई प्रश्न
के सही उत्तर जानतहूँ उत्तर नञ् देलऽ, त तोर सिर के टुकड़ा-टुकड़ा हो जइतो।"
"दीर्घदर्शी
तोर बतावल कोय कारण से नञ् मरलइ। जब राजा भोग-विलास में मस्त हलइ, तभिए ऊ दीर्घदर्शी
के राज सौंप देलके हल। ई कारण से दीर्घदर्शी के निन्दा होले हल, आउ अब ऊ एगो अप्सरा
के साथ शादी करके आ गेलइ। अतः अब ऊ फेर से ओकरा पर राज्य-भार डाल देतइ, दीर्घदर्शी
के लोग के बीच आउ निन्दा होतइ - ई सोचके दीर्घदर्शी के हृदय के धड़कन रुक गेलइ।।"
- विक्रम वेताल के प्रश्न के उत्तर देलकइ।
ई
तरह राजा के मौनभंग होतहीं वेताल लाश के साथ उड़के ओहे पेड़ पर जाके फेर से लटक गेलइ।