वेताल कथा - 4. सबसे जादे पुण्य केक्कर?
('बैताल पचीसी', कहानी संख्या-3)
[The story of Shudrak, King ofShobhavati, and of the Rajput
Virvar, who was rewarded for his fidelity to the king by a share of half his
state.
कहानी
शोभावती के राजा शूद्रक के, आउ राजपूत वीरवर के, जेकरा राजा के प्रति निष्ठा खातिर
राज्य के आधा हिस्सा पुरस्कार के रूप में देल गेलइ।]
राजा
विक्रमादित्य अपन हठ नञ् छोड़लकइ। फेर से ऊ पेड़ पर से लाश के उठाके अपन कन्हा पर लाद
लेलकइ आउ चुपचाप ऊ संन्यासी तरफ चल पड़लइ। चलते बखत ऊ लाश के अन्दर के बेताल बोललइ,
"महाराज, ई संन्यासी खातिर तोर भक्ति से खुश होके तोर रस्ता के परिश्रम के दूर
करे लगी एगो दोसर कहानी सुनावऽ हियो। सुन्नऽ।"
शोभावती
नगर में शूद्रक नाम के राजा राज करऽ हलइ। एक दिन ओकरा हियाँ मालव देश से वीरवर नाम
के एगो राजपूत नौकरी लगी अइलइ। ओकरा साथ ओकर पत्नी धर्मवती, बेटा शक्तिधर आउ बेटी वीरवती
भी हलइ। सेवा करे लगी साधन के रूप में ओकरा पास तीने चीज हलइ - कमर में कटार (कृपाण),
एक हाथ में तलवार आउ दोसर हाथ में ढाल। राजा ओकरा पुछलकइ कि वेतन के रूप में केतना
चाही, त ऊ जवाब देलकइ, रोजाना पाँच सो अशर्फी। ई बात सुनके सबके बड़ी अचरज होलइ। राजा
पुछलकइ “तोरा साथ केऽ-केऽ हउ?” ऊ जवाब देलकइ, “हमर स्त्री, बेटा आउ बेटी।” ई बात सुनके सभा के लोग मुँह फेरके हँस्से लगलइ। राजा के भी बहुत
अचरज होलइ। राजा के आउ जादे अचरज होलइ। आखिर चार जन एतना धन के की करतइ? फेर अपन मन
में सोचलकइ कि बहुत देल धन कोय दिन तो काम आत। ई सोचके राजा भंडारी के बोलाके कहलकइ
कि हमर खजाना से पाँच सो अशर्फी वीरवर के हर रोज दे देना। आउ उत्सुकतावश "एतना
जादे वेतन लेके ई की करऽ हइ?" ई पता लगावे लगी चुपचाप गुप्तचर सब के ओकरा पीछू
लगा देलकइ।
प्रातःकाल
राजा के दर्शन करके दुपहर में हथियार धारण कइले सिंहद्वार पर रहके अपन वेतन पाँच सो
अशर्फी लेके वीरवर घर आवइ। ओकरा में से आधा ब्राह्मण लोग के बीच बाँट देइ, बाकी के
दू हिस्सा करके एक हिस्सा मेहमान, वैरागी आउ संन्यासी लोग के दे देइ आउ दोसर हिस्सा
से भोजन बनवा के गरीब लोग के खिलावइ, ओकर बाद जे बच्चइ, ओकरा से अपन पत्नी आउ बुतरुअन
के खिलावइ, आउ खुद्दे खाय। काम ई हलइ कि साँझ होतहीं ढाल-तलवार लेके अकेले सिंहद्वार
पर हाजिर रहइ। गुप्तचर के मुख से ई सब सुनके राजा शूद्रक अत्यन्त सन्तुष्ट होलइ, ओकर
पीछू लगावल गुप्तचर लोग के रोक देलकइ आउ ऊ विशिष्ट पुरुष के विशेष आदर के योग्य समझे
लगलइ।
एक
रोज आधी रात के बखत मसान के तरफ से केकरो कन्ने के अवाज अइलइ। राजा वीरवर के पुकरलकइ
त ऊ आ गेलइ। राजा कहलकइ, " हमर राष्ट्र में कोय केकरो पीड़ा नञ् दे हइ, आउ न तो
कोय दरिद्र चाहे दुखी हइ। जो, पता लगाके आव कि फेर एतना रात के ई केऽ कन्नब करऽ हइ
आउ काहे लगी?"
वीरवर
तुरतम्मे हुआँ से चल पड़लइ। राजा भी ओकर साहस परखे खातिर कार कपड़ा पहिनके ओकर पीछू-पीछू
चल पड़लइ। वीरवर मसान में जाके देखऽ हइ कि सिर से गोड़ तक एगो औरत गहना से लद्दल कभी
नच्चऽ हइ, कभी कुद्दऽ हइ आउ सिर पीट-पीटके कन्नऽ हइ। लेकिन ओकर आँख से एक्को बून लोर
नञ् गिरऽ हइ। वीरवर पुछलकइ, "तूँ केऽ हकऽ? काहे लगी कन्नब करऽ ह?"
ऊ
कहलकइ, "हम राजलक्ष्मी ही। हम कन्नऽ ही ई लगी कि राजा विक्रम के घर में क्षुद्र
काम होवऽ हइ, ओहे से हुआँ दरिद्रता के डेरा पड़े वला हकइ। हम हुआँ से चल जइबइ आउ राजा
दुखी होके एक महिन्ना में मर जइतइ।"
ई
बात सुनके वीरवर पुछलकइ, "कोय अइसन उपाय हइ जेकरा से राजा बच जाय आउ सो साल जीए?"
औरतिया
बोललइ, "हाँ, हइ। हियाँ से पूरब में एक योजन के दूरी पर देवी के एगो मन्दिर हइ।
अगर तूँ ऊ देवी पर अपन बेटा के सिर काटके चढ़ा दऽ, त विपत्ति टल सकऽ हइ। फेर राजा सो
बरस तक बेखटके राज करता।"
एतना
सुनके वीरवर घर चल पड़लइ आउ राजा भी अलक्षित होके ओकर पीछू-पीछू गेलइ। वीरवर पत्नी के
जगाके सब हाल कहलकइ। पत्नी बेटवा के जगलकइ, त बेटियो जग गेलइ। जब लड़का बात सुनलकइ,
त ऊ खुश होके बोललइ, "तूँ हमर सिर काटके जरूर चढ़ा दऽ। एक तो तोहर आज्ञा, दोसरे
स्वामी के काम, तेसरा ई देह देवता पर चढ़े, एकरा से बढ़के आउ की बात होतइ! जल्दी करऽ।"
वीरवर
अपन पत्नी से कहलकइ, "अब तूँ बतावऽ।"
पत्नी
बोललइ, "स्त्री के काम तो पति के सेवा करना हइ।"
आखिर
चारो जन देवी के मन्दिर पहुँचते गेलइ। राजा भी छिपके ओकन्हीं के पीछू-पीछू गेलइ। जब
वीरवर हुआँ पहुँचलइ त मंदिर में जाके देवी के पूजा कइलकइ। फेर हाथ जोड़के कहलकइ,
"हे देवी, हम अपन बेटा के बलि दे हियो। हमर राजा के सो साल के उमर होवे।"
एतना
कहके ऊ एतना जोर से तलवार भँजलकइ कि लड़का के सिर धड़ से अलगे हो गेलइ। भाय के ई हाल
देखके बहिनियों तलवार से अपन सिर अलग कर लेलकइ। बेटा-बेटी मर गेलइ त दुखी मइयो ओकन्हिंएँ
के रस्ता पकड़लकइ आउ अपन गरदन काट लेलकइ। वीरवर सोचलकइ कि घर में कोय नञ् रहल त हम जीके
कीऽ करम। ई सोचके ओहो अपन गरदन पर तलवार के एतना जोर से वार कइलकइ कि सिर गरदन से जुदा
हो गेलइ।
ई
सब काण्ड राजा शूद्रक छिपके बैठल देखब करऽ हलइ। राजा व्याकुल, दुखी आउ अचरज में पड़ल
सोचलकइ, "अरे! हम कधरो ई प्रकार के न देखलुँ हँ आउ न सुनलुँ हँ। ई तो सपरिवार
दुष्कर काम कइलके ह। ई विचित्र संसार में अइसन धैर्यशाली केऽ हइ, जे अपन स्वामी खातिर
परिवार सहित अपन प्राण दे देलकइ? एकर उपकार नियन हमहूँ अगर उपकार नञ् कइलुँ त हम राजा
कहलाय लायक नञ्।" एतना सोचके राजा तलवार उठइलकइ आउ नगीच जाके देवी से निवेदन कइलकइ,
"हे देवी! हमर शरीर के उपहार से अब कृपा करऽ आउ हमरा लगी सपरिवार शरीर त्यागे
वला, अनेक गुण से भरल ई वीरवर जी जाय।" एतना कहके अपन सिर काटे लगी तैयार हो गेलइ,
त देवी प्रकट होके ओकर हाथ पकड़ लेलथिन। बोललथिन, "राजन्, हम तोर साहस से बहुत
खुश हियो। हम ई वरदान दे हियो कि अपन सन्तान आउ पत्नी सहित ई वीरवर जी जाय।" एतना
कहके देवी अन्तर्धान हो गेलथिन आउ पुत्र, पुत्री तथा पत्नी के साथ बिन कट्टल शरीर के
ऊ वीरवर जी उठलइ।
ई
देखके राजा फेर खुद के छिपाके हर्ष के अश्रु भरल दृष्टि से ओकन्हीं के कुछ पल देखतहीं
रहलइ। वीरभर भी सुतके उट्ठल नियन पुत्र, पुत्री आउ पत्नी के अलग-अलग नाम लेके पुछलकइ,
"कइसे मरके तोहन्हीं फेर से उठ गेते गेलहीं? ई हमर भ्रम हइ कि देवी के कृपा हइ?"
सब कहलकइ, "देवी के अनुग्रह से हीं हमन्हीं जी उठलिए ह।" - "अइसने होले
ह", वीरवर ई समझके देवी के प्रणाम करके परिवार सहित कृतार्थ होके घर गेलइ। आउ
हुआँ पुत्र, पुत्री आउ पत्नी के घर में प्रवेश कराके राजा के सिंहद्वार पर पहरा देवे
खातिर आ गेलइ।
आउ
राजा शूद्रक ई सब देखके अलक्षित रूप से जाके अपन महल के उपरे चढ़ गेलइ आउ पुछलकइ,
"सिंहद्वार पर केऽ हइ?"
वीरवर
जवाब देलकइ, "स्वामी! हम वीरवर हिअइ। अपने के आदेश से ऊ कन रहल औरतिया भिर गेलिअइ।
ऊ औरतिया हमरा देखतहीं गायब हो गेलइ।"
ओकर
ई वचन सुनके आउ सब कुछ अपन आँख से देखल राजा बहुत अचरज में पड़के सोचे लगलइ, "अरे!
बुद्धिमान लोग समुद्र नियन गंभीर होते जा हथिन, जे एतना असाधारण काम करियोके मुँह से
बतावे वला नञ्।" एतना सोचके राजा रात रनिवास में गुजरलकइ।
सुबह
में सभा के समय में दर्शन खातिर वीरवर के हाजिर होला पर राजा मन्त्री सब आउ बाकी लोग
के रात के सब समाचार सुनइलकइ। सब कोय वीरवर के गुण सुनके ओकर प्रशंसा करे लगलइ। राजा
खुश होके वीरवर के पुरस्कार रूप में अपन आधा राज दे देलकइ।
एतना
कहके बैताल बोललइ, "राजा, बतावऽ, सबसे जादे पुण्य केक्कर होलइ?"
राजा
बोललइ, "राजा के।"
बैताल
पुछलकइ, "कइसे?"
राजा
कहलइ, "ई से कि स्वामी खातिर नौकर के प्राण देना धर्म हइ; लेकिन नौकर खातिर राजा
के राजपाट छोड़के जान के तिनका नियन समझके न्योछावर करे लगी तैयार हो जाना बहुत बड़गर
बात हइ।"
राजा
के मौनभंग होतहीं बैताल लाश सहित उड़के ओहे पेड़ पर जाके लटक गेलइ।
No comments:
Post a Comment