विजेट आपके ब्लॉग पर

Thursday, October 15, 2009

7. सफाई के असर

लघुकथाकार - डॉ॰ सी॰ रा॰ प्रसाद

राजधानी नाम के रह गेल हे । सगरो गंदगी भरल हे । दस बजे दिनो में रोड किनारे लोग झाड़ा फिरइत देखल जा सकऽ हथ । पेशाबखाना पखाना जहाँ-तहाँ बनल हे, लेकिन ओहू में एतना गंदगी कि नाक फट जाय । करमचारी के वेतन देवे ला निगम आउ सरकार के पास कातो पइसे न हे ।

एगो घर के बगल में लोग पेशाब कर दे हलन । एक दिन मकान मालिक उहाँ लिख देलन - "भाई लोग ! इहाँ पेशाब न करल जाय ।"

बाकि केकरो पर कोई असर न होवल । तब उहाँ लिखायल - "इहाँ पेशाब करे वला दंड-जुर्माना के भागी होयतन ।"

तइयो कोई फरक न पड़ल । एन्ने-ओन्ने ताकइत नजर बचा के लोग उहईं पेशाब करिये दे हलन । पेशाब से देवाल के नीचे के मट्टी राख-पतवार गीला रहे लगल । सड़न से बदबू दूर-दूर तक फैले लगल । मकान मालिक के कै गो से बाता-बाती, गाली-गलौज तक हो गेल । ऊ खिसिया के लिखवयलन - 'देखऽ गदहा मूतइत हवऽ !"

तबो जोर से लगला पर रहगीर उहईं पेशाब करे से बाज न आवइत हलन आउ लिखलका के अनदेखा कर दे हलन । तब मकान मालिक एगो गमकल गारी लिख देलन - "अरे मादर ... गदहा ! इहाँ मत मूत ।"

काहे ला कउनो पर असर पड़ो । पेशाब-पखाना रोकल जा सकऽ हे ? कुत्ता सूअर अइसन लोग ओहीं पर पनढार करते रहलन । काहे कि उहाँ कूड़ा-कचरा फट्टल प्लास्टिक से गंदगी के अम्बार लगल रहऽ हल ।

एक दिन मकान मालिक के का मन में आयल कि ऊ सब लिखल मेटवा देलन । कूड़-कचरा बाहर फेंकवा देलन । ऊ जगह के साफ-सुथरा कराके मट्टी भरवा के लीप-पोत के सुन्दर बना देलन । उहाँ दस गो मट्टी के गमला में फूल लगवा के सजवा देलन । नया-नया ईंटा, चूना से लाइनिंग करवा देलन ।

अब उहाँ फूल के खुशबू फैल गेल हे, तुलसी के पौधा लग गेल हे । सफाई के अइसन असर होल कि अब एक्को अदमी उहाँ पेशाब करे के हिम्मत न करऽ हे ।

[मगही मासिक पत्रिका "अलका मागधी", बरिस-१०, अंक-५, जनवरी २००४, पृ॰६ से साभार]

3 comments:

निशांत said...

मगही को पढ़ने का यह पहला मौका है. लोकभाषाओं में अद्भुत कथनीयता है. डर है कि युवा वर्ग और तथाकथित कुलीन वर्ग की उपेक्षा हमारी जनभाषाओं को अकाल मृत्यु न दे दे.

नारायण प्रसाद said...

निशांत जी,
आपने मगही ब्लॉग पर भेंट दी, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।

आपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि लोकभाषाओं में अद्भुत कथनीयता है ।

मुझे पूरा विश्वास है कि अन्तरजाल (इंटरनेट) जैसे सशक्त माध्यम के उपलब्ध हो जाने से आपकी यह आशंका कि कहीं युवा वर्ग और तथाकथित कुलीन वर्ग की उपेक्षा हमारी जनभाषाओं को अकाल मृत्यु न दे दे, निराधार साबित होगी।

Asha Joglekar said...

आपकी कहानी पढी भी और समझ में भी आगई । सफाई ही गंदगी को हटा सकती है ।